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जीवन परिचय ]
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होता है। अमरकोशकार ने आचार्य का अर्थ करते हुए लिखा है कि जो मंत्र की व्याख्या करने वाला, यज्ञ में यजमान को आज्ञा देने वाला और प्रतों को धारण करने वाला हो वह आचार्य है । पं. आशाधर ने लिखा है कि आचार्य का काम मन्त्र की व्याख्या करना है । मन्त्र सर्वज्ञ की वाणी को कहते हैं । आचार्य पद की प्रतिष्ठा, महानता तथा गुरुता के सम्बन्ध में जैनागम में भी आचार्यों ने स्पष्ट प्रकाश डाला है । आचार्य योगीन्दुदेव ने आचार्य के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि निश्चय व्यवहार रूप पंचाचारों से यक्त, मुद्धापयोग की भावना से सहित तथा वीतराग निर्विकल्प समाधि का स्वयं आचरण करने और कराने वाला प्राचार्य है। आचार्य के पंचाचर, पंचेन्द्रियरूपी हाथी के मद को दलन करने की योग्यता तथा अन्य गंभीर गुण होते हैं। आचार्य वीरसेन ने आचार्य पद की महानता पर विशद् प्रकाश डालते हुए लिखा है कि जो दर्शन, ज्ञान चारित्र, तप, वीर्य, इन पांचों आचारों का स्वयं आचरण करता है और दूसरे साधुओं से आचरण कराता है, उसे प्राचार्य कहते हैं। जो तत्कालीन स्वसमय और परसमय में पारंगन है, मेरु के समान तिश्चल है, पृथ्वी के समान सहनशील है, जिसने समुद्र के समान दोषों को बाहर फेक दिया है और जो सात प्रकार के भय से मुक्त है उसे आचार्य कहते हैं। प्रबचानरूपी समुद्र के जल के मध्य स्नान करने से अर्थात् परमागम के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि, निर्मल हो गई है, जो निर्दोष रीति से षट प्रावश्यकों का पालन करते हैं। जो शूरवीर हैं, सिंह के समान निर्भीक हैं, निर्दोष हैं, देश, कुल और जाति से शुद्ध है, सौम्य मूर्ति हैं, अन्तरंग बहिरंग परिग्रह से मुक्त है, आकाश के समान निलेप हैं, ऐसे आचार्य
१. जननि काव्य की पृष्ठभूगि, डॉ. प्रेमसागर प ६१ २. अमरकोश (लिंगानुशासन) कायसिंहामरसिंहकृत पद्य नं. १३ ३. सहस्रनाम, सं. पं. हीरालाल शास्त्री, पृष्ठ ८५ ४. विशुद्धज्ञानदगारवभावशुद्धात्मतत्वसम्यवाद्वानज्ञानानुष्टानबद्रिव्येच्छानिव
तिरूपं तपश्चरगं स्वशस्वनबगहनवीयरूपाभेदपंचाचाररूपात्मक शुद्धोपयोगभावनान्तभूनं वीतरागनिनिकाल्गसमाधि स्वयं प्राचरन्त्यन्यानाचारयतीति भव
त्याचार्यास्तानहं वंदे ।" (परमात्म प्रकाश, ए.एन. उपाध्ये पृष्ठ १४) ५. नियमसार, गाथा ७३ ६. धवला पुस्तक एक, पृष्ट ४९-५० गाथा २९, ३०, ३१