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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
राजमल पाण्डे ( ईस्वी १५८४) पण्डित बनारसीदास (ईस्वी १६३६), पण्डित टोडरमल, पण्डित सदासुखलाल पण्डित जयचन्द छाबड़ा (अठाहरवीं सदी ईस्वी) पण्डित गोपालशाह ( १६१२ ईस्वी), अ. शीतलप्रसाद पण्डित गजाघरलाल, पण्डित मनोहरलाल ( १६१४ ईस्वी से १९१६ ), सन्त कानजी स्वामी ( १६६२ ईस्वी), गणेशप्रसाद वर्णी आदि (उन्नीसवीं तथा बीसवीं ईस्वी सदी) के शताधिक विद्वान् । इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र को हम कुन्दकुन्द की मूलसंघ की दो हजार वर्षीय सुदीर्घ आचार्य परम्परा में मध्य चन्द्र की भांति पाते हैं जो अपनी पूर्ववर्ती आचार्य परम्परा से प्रकाशित हैं तथा अपनी उत्तरवर्ती सहस्रवर्षीय परम्परा को प्रकाशित करते हैं। वे कुन्दकुन्द की अध्यात्मागम तथा आचार्य परम्परा की प्राचार्यमाला के मध्यस्थ कोहिनूर हैं जिनसे समग्र माला सुशोभित होती है। आचार्य अमृतचन्द्र आचार्य कुन्दकुन्द के अनन्य रसिक, उपासक व्याख्याता हैं। वे कुन्दकुन्द को अपने हृदय में बिठाकर क्षेत्रकृत अन्तर को दूर कर चुके हैं तथा उनके सिद्धांत व श्रध्यात्म का रसास्वादन कर कालकृत दूरी को भी समाप्त कर चुके हैं । इतना ही नहीं, वे कुन्दकुन्द के भविष्य दृष्टा हैं जिन्होंने कुन्दकुन्द के भवसमुद्र का किनारा समीप देख लिया है। सामीप्य को ही देखकर विद्वज्जनों ने उन्हें कुन्दकुन्द का गणधर तुल्य भाष्यकार माना है । साथ ही उन्हें कुन्दकुन्द का अवतार कहकर पुकारा है । वे गरिमापूर्ण आचार्य पद पर प्रतिष्ठित थे क्योंकि आचार्य पद की गरिमा के योग्य समस्त विशिष्ट गुणों से समलंकृत थे ।
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जैन परम्परा में उत्तम शरणभूत तथा श्रेष्ठ रूप में ५ पद ही माने गये हैं ।' ये पांच पद है अरहंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु । इन्हें "पंचपरमेष्ठी" कहा जाता है । इन पांचों में आचार्य पद तृतीय स्थान पर प्रतिष्ठित है जो उपाध्याय तथा साधु इन दोनों पदों से विशेष महानता एवं गौरव का प्रतीक है। प्राचार्य "चर" धातु से बना है जिसका अर्थ प्राचरण करना है । अतः श्राचार्य का प्राचरण अनुकरणीय
१. रणमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, सभी ग्राइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सम्व साहूणं ॥
धवला पुस्तक एक पृष्ठ