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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
समझते हैं, जहां वे संबंधित प्रकरण के विवेचन के बाद तालार्य प्रथं देकर भी विषय स्पष्टीकरण करते हैं ।'
६. मार्मिक सम्बोधन – एक सफल सहृदय व्याख्याकार के रूप में आचार्य प्रमुतचन्द्र अपनी टीकात्रों में पद पद अत्यंत मार्मिक संबोधन करते चलते हैं, पाठकों को गम्भीर, महत्वपूर्ण प्रेरणा भी देते हैं, जिससे उनके व्याख्याता पद की शोभा और भी बढ़ जाती है। ये हैं उनके कुछेक मार्मिक प्रेरणा वाक्य - प्रसन्न हो जा, सावधान हो जा, तत्वकौतुहली बन, कोलाहाल बन्द कर, ६ मास अनुभव का अभ्यासकर, शशांतरस-ज्ञानसमुद्र में मग्न हो जावो, लाख बात की बात सुनो, एक बार भृतार्थ को ग्रहणकर, भेदज्ञानकला का अभ्यास कर, प्रमाद क्यों करता है, क्लेश क्यों पाता है. रागद्वेष का क्षयकर, अमृतरस को अन्त. काल तक पिओ, अधिक जल्प (वकवास था विकल्प) मत कर, सांख्यवत् अपने को कामत मान, तब मोह को छोड़ो, यह अपद है अपद है, यह पद है, "नशा में कूर, नींद से रो . हैं इमानि । अमृतचन्द्र जहां एक ओर मधुर, मार्मिक, महत्वपूर्ण शब्दों से प्रेरणा करते हैं वहां दूसरी ओर कहीं कहीं कठोर शब्दों का भी प्रयोग करते हैं यथा - रे दुरात्मन, आत्मपंसन् (प्रात्मघाती), नविभागानभिज्ञोसि, दुमधसः ते अद्यापि पापाः, ते मिथ्यादृशो - आत्मनो भवन्ति, अज्ञनिनः एवं व्यवकार विमूढाः, बत ते बराकः, ज्ञानं पशो, सीदति, पशु पशुरिव स्वच्छंदमाचेष्टते, पशुनश्यति, ज्ञान पशुर्नेच्छति, पशुः किल परद्रव्येष विश्रम्य ति, तुच्छीभूय पशु प्रणस्यति, अत्यंततुच्छः पशुः सीदति, स्वर पशुः क्रीडति, इति - अज्ञान विमूढ़ानां..४, इत्यादि । उक्त कठोर संबोधनों में भी जगज्जनों को जागृत करने की हितकारी भावना निहित है।
७. दृष्टांत बहुलता - उनकी टीकाओं में दृष्टांतों, का बाहुल्य है, जिसके कारण गूढ़तम, दार्शनिकः सैद्धांतिक अस्थियों को सुलझाने में उन्हें
१. प्रवचनसार गाथा १५१ टीका "इदमत्र तात्पर्य प्रात्मनोऽत्यं५ विभक्त सिद्धये
व्यवहार जीवत्व हेतवः पुद्गलप्राणा एवमुच्छेतत्र्याः ।" २. समयसार २५, ३८, ४४, ८६, २०२,३४४,३५५, ३७१, ४१४ गाथाओं की
टीका तथा उनमें आगत कलश । ३. समयसार २५, २६, ४३, २००, २५६, ३२७ गाथानों की टीका । ४. समयसार कलश- क्रमांक २४० से २६२ तक।