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| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व अन्य प्रकार से किया है।' अन्यत्र "युक्ताहार" शब्द के पाठ अर्थ किये हैं। समय पद के अनेक अर्थों का उल्लेख रहले किया जा चुका है। स्यात् पद वा प्रयोग अस् धातु के विध्यर्थक अन्यपुरुप एक वचन के रूप में तथा अन्यत्र उसे अव्यय या निपात रूप में किया है। स्थात् 'पद सर्वथागने का निषेधक, अनेकांत का द्योतक, कथंचित् अर्थ वाचक अव्यय शब्द है । इरा प्रकार कई पदों श्रनेत्रा अर्थ करके आनो मूक्ष्म-अर्थ अवबोधक दृष्टि का परिचय दिया है।
५. पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग- एक ही शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में भी वे सक्षम रहे हैं । स्वर्ग के लिए कनक, कार्तस्वर, सुवर्ण हेम, कांचन, जांजनद, कल्याण आदि पर्यायवाची शब्द प्रवचनसार की टीका में उपलब्ध हैं। समयसार में 'चामीकर" शब्द भी स्वर्ण हेतु प्रयुक्त है । अग्नि के लिए जातवेदस्, नाक, घूमचन, अनल, हव्यवाहा कुकूल, अंगार, सप्ताचि आदि शब्द प्रयुक्त हैं । व्यय पदबाची निमग्न, निमज्जति, उच्छेद, उच्छन्न, प्रलीन, संहार, अवसान, प्रध्वस्त, भग, विलय, प्रसभूत शब्द तथा उत्पाद पदवाची जन्मग्न, उन्मउनति, संभूति, सर्गः, प्रादुर्भाव, प्रभव, संभव सद्भूत शब्द प्रयुक्त हैं। 'कहा गया है" अर्थ प्रकाशनार्थ नाम्नातम्, उपन्यस्तम, उक्तम, आख्यातम्, उदितम, अभिहितम्, विवश्यते ब अभिधीयते, पदों का प्रयोग किया है । इस तरह पर्यायवाची पद प्रयोग में भी अमृतचन्द्र कुशल हैं। इसकारण से उनकी व्याख्या भावस्पष्टीकरण में भी अनूठी हैं। जहाँ अावश्यक
१. गचस्तकाय गाथा १२७ वी समयव्याख्या टीका। २. रामयनार गाथा २२६ की टीका। ६. वही गाथा २३,२४, २४ नथा ६१ की आत्मख्याति टीका । ४. पंचास्तिाय गाथा १४ की टीका । ५. प्रवचनसार गाथा ६१,९६, ८७, १११, ११३, १८ तथा ७७ पी टीकाएं । ६. समयसार गाथा ३६
प्रवचनसार गाथा ३५, ५, ४१, ६३, ११४, १५३, २६, २७५ ८. प्रवचनमार माथा ६,६८,१०,१११,१२६,३७ की टीका । ६. पंचास्तिकाय ४