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________________ १२६ ] [ आचार्य अमनचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व अपूर्व सफलता मिली है। उन्होंने प्रात्मरूपाति टोका में १०० से अधिक सुन्दर एवं मनोहारि दृष्टांतों का प्रयोग किया है । इस तरह प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में १२५ के लगभग और पंचास्तिकाय में ३५ के लगभग दृष्टांतों का प्रयोग कर अपने भाष्यों को सुगम एवं सरल बनाया है। यहां कुछ दृष्टांतों को सुन्दरता प्रदर्शित की जाती है। एक स्थल पर प्रात्मा को पुद्गल कर्म का अकर्ता सिद्ध करने हेतु वे मिट्टी के घड़े का स्पष्ट दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए लिखते है - "यथा खलु मृण्मये कलश कर्मणि मृद्रव्य मृद्गुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणतिर संक्रमस्य वस्तुस्थित्यैव निषित्वादात्मानमात्मगुणं वा नाधते स कलशकारः, द्रव्यांतर संकृमयंनरेगान्यस्य वस्तुनः परिणम यितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभाति । तथा पुद्गलमय ज्ञानावरणादो कर्मणि गुद्गलद्रव्यपुद्गलगुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणातरसंक्रमस्य विधातुमशत्रयत्वादात्मद्रव्यमात्मगुणं वात्मा न खल्वाधत्त, द्रव्यांतरसंक्रमर्मतरेणान्यस्य बस्तुनः परिणयितुनशक्यत्वात्तदुभय तु तस्मिन्ननादधानः कथं नु तत्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभायात् ततः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता।"" इसी प्रकार शुभ अशुभ दोनों कर्मों का निषेध करने हेतु वे सुन्दर दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं। वे लिखते हैं - "यथा खलु कुशलः कश्चिद् १. समवनार गाथा १०४ की टीका – नर्थ जैसे मिट्टीमय कलशारूप कार्य मिट्टी द्रव्य और मिट्टीगुण में निजरस से ही वर्तता है, उसनं कुम्हार अपने को (या अपने गुण को) मिलाता नहीं है क्योंकि (किसी वस्तु का) द्रव्यांतर या गुणांतर रूप में संक्रमण होने का वस्तुस्थिति से ही निषेष है, द्रव्यांतर रूप में संक्रमरग प्राप्त किये बिना अन्य वस्तु को परिण मित करना अशक्य होने से, अगने द्रव्य और गुण दोनों को उस घटरूपी कार्य में न डालता हुआ वह कुम्हार परमार्थ में उसका कर्ता प्रतिभासित नहीं होता। इसी प्रकार पुदगलमय ज्ञानावरगादि कर्म पुद्गलद्रव्य तथा पुद्गलगुणों में निज़रस ही वर्तता हुआ उसमें आत्मा अपने द्रव्य या अपने गुण को वास्तव में मिलाता नहीं है क्योंकि द्रव्यांतर और गुणांतर में संक्रमण होना अशक्य है, द्रव्यांतर रूप में संक्रमण प्राप्त किये विना अन्य वस्तु को परिणमित करना अशक्य होने से अपने दत्र्य और गुरण दोनों को ज्ञानावरणादि कर्मों में न मिलाता हुना, वह प्रात्मा परमार्थ से उसका कर्ता कसे हो सकता हे ? (अयात् कभी नहीं हो सकता) इसलिए वास्तव में प्रात्मा पुद्गलकर्मों का अकर्ता सिद्ध हुआ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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