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i आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ज्ञानी पुरुष के मस्तक को शीघ्र ही खण्ड-खण्ड कर देता है।' उक्त अर्थवाही श्लोकों में "प्रबुद्धनय चक्रसंचारा: गुरुवो शरणं भवन्ति" तथा "जिनवरस्य नयचक्रम्" लिखकर प्रात्महिलै षी तत्त्वजिज्ञासु जनों को सावधान किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अमृतचन्द्र के अनुवर्ती आचार्य देवसेन ने "आलाप पद्ध" अरनाम 'पानीमा प्रवेशिका" ग्नन्ध रचकर प्रबुद्धनयचक्र ज्ञाता के रूप में नयचक्र का बड़ी सावधानी से सचार किया है। साथ ही "नयचक्र' नामक ग्रन्थ रचकर जिनेन्द्रदेव के महन, तीक्ष्णधारयुक्त, स्यात्पद द्वारा साध्य "नय चक्र" का दिग्दर्शन कराया है। उक्त दोनों ग्रन्थों में नयसंबंधी भेद-अभेद सहित विशद् स्पष्टीकरण किया गया है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि देवसेन ने अमृतचन्द्र के शब्दों में "प्रबुद्धनय चक्रसंचाराः गुरुवः" पद को सार्थक किया है। वे स्वयं 'आलापपद्धति" अन्य रचना द्वारा प्रबुद्धगुरु बने हैं तथा "जिनवरस्यनयचक्र' को नयचक्र ग्रन्थ रचकर स्पष्ट किया है । इस प्रकार प्राचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव देवसेनाचार्य पर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है।
प्राचार्य अमितगति प्रथम पर प्रभाव (६१-६६८ ईस्वी) - आचार्य अमितगति-प्रथम माथुरसंघ के विद्वान् देवसेन के शिष्य थे । उनका एकमात्र ग्रंथ योगसार है । उनका समय विक्रम की ग्यारहवीं शती का प्रथम चरण है । आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव अमितगति प्रथम पर था। उनके योगसार ग्रंथ में आचार्य अमृतचन्द्र के तत्वार्थसार तथा समयसारादि की टीकाओं का प्रभाव लक्षित होता है। उन्होंने अपने उक्त ग्रन्थ की रचना तत्वार्थसार तथा समयसारा दि टीकाओं के भावों को ग्रहण कर को है ।४ इससे अमितगति प्रथम का अमृतचन्द्र से प्रभावित होना ज्ञात होता है ।
१. इति विविधभंगगहने सुदुस्तरे मागं मुढ़दृष्टिनाम् ।
गुरुवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनमचक्र संचारा ।।५।। अत्यन्त निशितधार दुरासदं जिनयरस्य नयचक्रम । खडयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति धुर्विदग्धानाम् ।।५६।। पुरुषायंसिद्ध्युपाय २. पुरातन जैनवाक्य सूची, प्रस्तावना, पृष्ठ १२६ ३. जैन साहित्य का प्राचीन इतिहास, पं. परमानन्द, पृष्ठ २०४ ४. तत्वानुशासन, प्रस्तावना, पं. जुगल किशोर, पुष्ठ ३४