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दार्शनिक विचार ]
[ ४७५ प्रेरकनिमिस भी कार्य का नियामक नहीं है :
निमित्त-उपादान के यथार्थ ज्ञान से रहित बहुत से जन तो सर्वनिमित्तों को ही कार्य का कर्ता मानकर भ्रांतिवशात् अनंतसंसार में परिभ्रमण करते हैं, यह तो उनकी स्थूल भूल है ही, किन्तु कुछ लोग उदासीन निमित्त को कार्य का कर्ता नहीं मानते और प्रेरक निमित्त को कार्य का प्रेरक नियामक - विशेषता पैदा करने वाला मानते हैं, परन्तु यह भी एक स्थूल भूल है । मुल का कारण "प्रेरक" शब्द का यथार्थ अर्थ न समझना है। प्रेरक निमित्त यथार्थ में परद्रव्य की क्रिया का प्रेरक नहीं होता, अपितु स्वयं में सक्रिय होकर परद्रव्य के परिणमन में अनुकूल होता है । सक्रियपना वास्तव में अन्य प्रदेश की प्राप्ति को कारणरूप परिस्पन्दन क्रिया है। बह क्रिया जीव तथा पूदगल दो प्रकार के द्रव्यों में होती है अतः ये दो द्रव्य सक्रिय कहलाते हैं । थे ही परिस्पन्द क्रिया युक्त होकर अन्य द्रव्य की स्वयमेव होती हुई क्रिया में अनुकूल होने के कारण प्रेरक निमित्तपने की संज्ञा प्राप्त करते हैं तथा शेष चार द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये परिस्पन्दन-क्षेत्रांतर रूप क्रिया से रहित होने से निष्क्रिय या उदासीन निमित्त के रूप में व्यवहृत होते हैं। अतः निमित्तों के दो भेद प्रेरक तथा उदासीन, स्व-सापेक्ष हैं। निष्क्रिय की उदासीन तथा सक्रिय को प्रेरक कहते हैं। परद्रव्य की क्रिया - पर्याय में प्रेरक निमित्त कुछ नहीं करते । यदि यागम में कहीं उन्हें परद्रव्य का प्रेरक भी लिखा हो तो उसे केवल उपचार कथन मात्र जानना चाहिए, परमार्थ नहीं । उक्त तथ्य का समर्थन प्राचार्य पूज्यवाद से निम्न शब्दों से भी होता है कि अज्ञानी को ज्ञानी नहीं किया जा सकता तथा ज्ञानी को अज्ञानी नहीं बनाया जा सकता । अन्य द्रव्य तो उसके निमित्त मात्र ही होते हैं जिस प्रकार धर्मास्तिकाय गति में निमित्तमात्र है। इस तरह स्पष्ट है कि दोनों प्रकार १. "देगात प्राप्तिहेतुः परिस्पंदनरूपपर्यायः क्रिया । तप सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन
सहभूता: जीया:, सक्रिय। बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः पुद्गलाः । निष्क्यिमा कागं, निष्क्रियोधर्म:, दिस्त्रियोऽधर्मः. निष्क्रियः कालः ।"
-पंचास्तिकाय गाथा - टीका. नाज्ञो विज्ञत्वमायःनि विशो नाशत्वमक्छति । निमित्तमात्र अन्यस्त गते धर्मास्तिकायवन् ॥ इष्योपदेश, पद्य ३५. समयसार गाथा ८४ "कुलालः कलम करोति -अनुभवनि चेति कोकानामनादिकोस्ति तायद्न्यवहारः।" तथा गाथा १०६-१०७ की टीका ।