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________________ दार्शनिक विचार ] J४५५ अनेकान्त का महत्व : उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र की दृष्टि में अनेकान्त को सर्वोत्कृष्ट महिमा समायो थी, इसलिए उसके स्मरण तथा नमस्कार के हेतु स्वरूप उन्होंने अनेकान्त के कई विशेषण बताये जो उसकी महिमा के परिचायक हैं। उन्होंने अनेकान्त को परमागम का प्राण, नयों के विरोध को शमन करने वाला, अलंध्यशासन, जि क्नोति, महन्त का अस्खलित शासन, मोहांधकारनाशक इत्यादि विशेषण प्रयोग किये हैं। एक स्थल पर वे लिखते हैं कि अनेकान्त की ऐसी महिमा है कि विरोध भी विरोध नहीं है।' वस्तु स्वभाव में पाई जाने वाली विरोधी शक्तियों का प्रकाशन अथवा उसकी सिद्धि अनेकान्त ही करता है। वास्तव में हे जिनेन्द्र ! आप में, जो एक-अनेक, सगुण-निर्गुण, शून्य-श्रशन्य, नित्यअनित्य, व्यापक-अध्यापक, विश्वरूप-एकरूप तथा चैतन्य के समूह से संसार के प्राभोग विस्तार को क्षीण करने वाली ज्ञान की उठतो हुई तंरगों से उन्मग्न सिद्ध करता है. वह अनेकान्त ही तो है ।२ अमृतचन्द्र के पूर्व प्राचार्य समन्तभद्र ने अनेकान्त की महत्ता जिन शब्दों में घोषित की है, उनसे भी प्राचार्य अमृतचन्द्र के अनेकान्त विषयक विचार प्राचार्यपरम्परानुकूल प्रमाणित होते हैं। वे लिखते हैं कि हे जिनेन्द्र ! अापकी अनेकांत दृष्टि सच्ची है। इसके विपरीत जो एकांतमत है, ये शन्यरूप असत् है अतः अनेकांत दृष्टि से रहित समस्त वचन मिथ्या है, क्योकि वे स्व के घातक है । जैन सिद्धांत में अनेकान्त को बलवान माना गया है । सर्वथा एकांत बलवान नहीं है इसलिए अनेकांत पूर्वक सर्व कथन अविरुद्ध १. समवयं प्रसादोऽनेकान्तबाटस्य यदीशोऽपि बिरोधो न विरुध्यते ।" -पंचास्तिकाय २१, गा. दी. २. "एकाने के गुरगवदगुणं शुन्यमत्यन्तपूर्ण । नित्यानित्यं पिततमततं विश्वरूपकरूपम् । नित्यारभारग्लपिनभुवना भोगरङ्गत्तरङ्ग मज्जन्त क्लयति किल स्वामनेकान्त एव ।। लधुतत्व, स्फोट, अ. २२, पद्य २५. ३. अनेकान्तात्म दृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । गतः सर्वं मृषोक्तं स्यात्तदफ्तं स्वधातप्तः ।। बृहद् स्वयं भूस्तोत्र अनजिनस्तोत्र पद्य १३.
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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