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________________ व्यक्तित्व तथा प्रमाय ] [ ११६ के सामान्य और विशेष को जानने वालो क्रमशः द्रव्याथिक पौर पर्यायार्थिक नय रूप दो आँखें होती हैं। इनमें पर्यायाथिक नयचक्ष को सर्वथा बन्द करके केवल द्रव्याथिक नयचक्ष को खोलकर देखा जाता है तब नारकत्व, तिथंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायरूप भेदों में अवस्थित एक जीवसामान्य को देखने वाले तथा भेदों को न देखने वाले जीवों को 'सभी जीवद्रव्य है" ऐसा प्रतिभासित होता है। और जब द्रव्याथिक नयचक्षु को सर्वथा बन्द करके केवल पर्यायाथिक नयचक्षु को खोलकर देखा जाता है तब जीवद्रव्य में नारकत्वादि भेद देखने तया सामान्य को न देखने वाले जीवों को (वह जीवद्रव्य) अन्य अन्य प्रतिभासित होता है, क्योंकि द्रव्य उन उन विशेषों से तन्मय होने से उन उन भेदों से अनन्य है। जैसे कण्डे, पत्ते और काष्ठमय अग्नि । और जब द्रव्याथिक व पर्यायाधिक नय रूप दोनों ही चक्ष ओं को खोलकर उनके द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व प्रादि में रहने वाला जीव सामान्य तथा जीवसामान्य में रहने वाले नारकत्व आदि विशेष एक काल में ही दिखाई देते हैं। वहीं एक आँख में देखा जाना एकदेश अवलोकन है तथा दोनों आँखों में देखा जाना सर्वावलोकन है। इसलिए सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व और अनन्यत्व विरोष को प्राप्त नहीं होते ।' उक्त गद्यांश में --.--...... . . १. प्रवचनसार गाथा ११४ वी तत्त्वदीपिका टीका-"सर्वस्य हि वस्तुनः सामान्यदिशेषासात्वात्तत्स्वरूपमृत्पश्यतां यथाश्रमं सामान्यविशेषौ परिन्छिन्दती हूँ क्लि चक्षुषी द्रव्याथिक पर्यायर्थिकं चेति । तत्र पर्यायाथिकमेकांतनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्याथिकेन पदावलोक्यसे तदा नारकतिर्यङ, मनुष्यदेवनिद्धत्वपर्याणास्मकेषु विशेषेषु व्यवस्थित जीवसामान्यमेकमवलोक्यतामनवलो कित विशेषाणां तस्सर्वजीवद्रव्यामिति प्रतिभाति। यदा तु द्रव्याथिकमकान्तनिमीलितं कंबलोन्मीलितेन पर्यायाथिकेनावलोक्यते तदा जीवद्न्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यक मनुष्यदेबसिद्धत्वपर्यायामकान् विशेषाननेकानवलोकयतामनवलोरितसामान्यानामन्यदन्यत्प्रतिभाति । द्रव्यस्य तसद्विशेष काले तत्तद्विशेषेभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत् । या तु ते उभे अपि 'द्रव्याथिकपर्यायाथिक तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चाव लोक्यते तदा नारकतियं मनुष्यदेवसिद्धस्वपर्यायेषु व्यवस्थितं जीवसामान्य जीवसानान्ये च व्यवस्थिता नारकत्तिर्यङ मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायास्मका विशेषाश्च तुल्यकालमेवावलोक्यन्ते । तचक्ष अलोकनमेकदेशावलोकनं, विचक्षुरवलोकन सर्वावलोकन । ततः सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यस्वानन्यस्वं च न विप्रतिषिध्यते ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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