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दार्शनिक विचार ।
शाक्तियों का प्रकाशन होता है, वह किस प्रकार मात्र ? इमका लाना भी किया गया है। आत्ता में उप रक्त विरोधी शक्तियों के युगों का प्रकाशन क्रमशः इस प्रकार संभव है :
जानमात्र यात्म बस्तु नः अपने अंतरंग में प्रगट प्रकाशित ज्ञानरूप के द्वारा नत्थना तथा बाहर में प्रगट अनन्त ज्ञेयों से स्वरूप की भिन्नता होने के कारण ग्रात्मा के परजेचा के स्वरूप की अपेक्षा ।। अतत्पना भी हैं । रा. मूत प्रवर्तमान (गुणां) तथा क्रमशः प्रवतमान (पर्यायों के) अनंत चतम्यांगों के समूदाय रूप प्रतिभागी द्रव्य की अपेक्षा एकत्व हे और विभागी द्रव्य में व्याप्त सहभूत तथा श्रमदाः प्रवर्तभान अनंत चैतन्य अंश रूप पर्यायों की दृष्टि अनेकत्व है। अपने ह। द्रवयात्र-काल तथा भावरूप भवन शक्ति के हो से साव, तथा न होने स असत्व भी है । अन्नादि निधन अविभाग एक वृमिन से पति को हरा निमय है और अपशः प्रवर्तमान एकासमग्यवती पर्याय र वृत्तिा में परिणत होने के कारण अनित्यत्व ह।' इस प्रकार ग बिरोधीयुगलों के प्रकाशन में कोई बाधा नहीं ह अतः बस्तु स्वप में प्राकाल का प्रकाशन भो निर्वाध सिद्ध होता है। वह अनकान्त अज्ञान ग मूह हुए जीवों को ज्ञान मात्र प्रात्म तत्त्व की प्रसिद्धि करता हुमा अनुभव में प्राता। प्राचार्य अमृतचन्द्र के उपरक्त अनकान्त स्वरूप विषयक दार्शनिक विचार पूवाचार्य परम्परा म साम्य रखते है। प्राचार्य अकलंक देव के इस कथन में उक्त बात प्रमाणित होता है कि जेन एक ही हेतु सपक्ष में सत और विपक्ष में असत होता है, उसी तरह विभिन्न अपेक्षायों से अस्तित्वादि धर्मो के वस्तु में रहन में भी कोई विरोध नहीं है। वास्तव में अनकान्त स्वरूप वस्तु को समझने के लिए साक्ष दृष्टि चाहिए। सापेक्ष दृष्टि से ही विरोधी धर्मों की सिद्धि होती है। प्राचार्य पूज्यपाद न सर्वार्थ सिद्धि में स्पष्ट किया है कि अपित (मुख्य) तथा अर्पित (गौण) इन दोनों दृष्टियों से एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों की
. --- - है. आत्मख्याति, परिशिष्ट पृ. ५.७३,
त्यज्ञानविमूढना जानमा प्रसाधय । शात्मतत्त् मनेकान्तः स्वयमानुभूयते ।। समयसार कलश नं. २६२. गपक्षारापापेक्षयोपशक्षितानां सच्चासवादीमा भेदातामाधारेण पक्ष धर्मपाकेन तुल्यं सर्वम् । -रात्रा तिक, अ. १, सत्र (भा. ज्ञानगीठ, त्रि. मं. २००८)