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[ आचार्य अमनचन्द्र : व्यक्तित्त्व एवं कर्तृत्व
रंभ में "प्रथमुत्रावतारः" शब्दों द्वारा "सूत्रधार" तथा प्रारम्भिक ३० गाथाओं की टीका द्वारा पूर्वरंग स्थल की सुचना इत्यादि संकेत नाट्यशास्त्रीय परम्परा के परिचायक हैं। समय (शुद्धात्मा) को समयसारनाटक का नायक बताया है जो शांतरस का रसिया है, धीर, उदात्त एवं अनाकुल इन तीनों शांत रस के प्राभूषणों से सुसज्जित है ।' "मज्जंतु" शब्द द्वारा नाटाकारंभ अथवा अंकारम्भ की सूचना दी है। साथ ही शांतरस में मग्न होने की समस्त जगत् को प्रेरणा की है। नाटककार अमृतचन्द्र स्वयं लिखते हैं कि महान अविवेक के नाटक में वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता है, अन्य नहीं। जीव अजीव के एकस्व रूप स्वांग धारण करने पर मोह ही नाचता है। किन्तु "समय" नायक उक्त नत्य को देखता-जानता है । जब वे ही जीव-अजीव एकत्व रूप स्वांगघरकर कर्ता-कर्म के वेश में रंगमंच पर पाते हैं, तब भी ज्ञानज्योति नायक परम उदात्त, अत्यंत धीर तथा गंभीर ही बना रहता है । नायक की उक्त गंभीरता तथा ज्ञानप्रकाश की स्थिरता के कारण कतकिम रूप पात्र अपना स्वांग छोड़कर रंगमंच से चले जाते हैं । यही द्वितीय अंक समाप्त होता है। ततीय अंक में प्रारंभ में पुण्यपाप रूप दो पात्रों के वेश में एक कर्म ही प्रवेश करता है, परन्तु निष्कर्म अवस्था से प्रतिबद्ध, उत्कृष्ट रसयुक्त ज्ञानरूप नायक के दौड़कर आने पर कर्म उक्त दोनों वेशों का परित्याग कर रंगभूमि छोड़कर चला जाता है। प्रत्येक अंक के प्रारम्भ में नायक की श्रेष्ठता तथा अंकांत में उसके पुरुषार्थ और प्रभाव के प्रकर्षरून को प्रदर्शित किया गया है । तृतीय अंक की समाप्ति पर ज्ञानज्योति नायक के प्रकर्षरूप का चित्रण करते हुए नाटककार लिखते हैं कि मोहरूपी मदिरा
१. समयसार कलश ३३, आत्मख्याति टीका गाथा ३६ से ४३ की उस्थानिका । २. वही. कलश ३२ ३. अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेक नाटये वर्णादिमान्नटति (समयसार कलश ४४) ४. "मोहः नानटीति" (वही, कलश ४३) ५. समयसार कलश, ६६ तथा ४६ ६. इति जीवाजीवो कतृ कर्मवेषविमुको निष्क्रांतौ । प्रारमख्याति टीका पृष्ट २२८ । ७, अथकमेव कम द्विपात्रीभूय पुण्यपापरूपेण प्रविशति । वही, पृष्ठ २२६ ८. सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन् ।
नष्कर्यप्रतिबद्ध मुद्धतरसंज्ञानं स्वयं धावति ।। समयसार कलश १०६