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कृतियां ]
[ ४०३ को पालोचकों ने विन्ध्याचल की भांति गहन तथा क्लिष्ट दिलष्ट पदयोजना, जटिल समासयुकदीर्घपदावलि मादि रूप हिस जन्तुओं से संचारित और पाठकों को भयोत्पादक माना है। यहाँ प्राचार्य अमृतचन्द्र की भी जवत दार्शनिक निरूपण शैली अर्थगांभीर्य तथा अद्वितीय तर्क बाहूल्य के कारण दार्शनिकों को चमत्कारोत्पादक तथा खरतर दृष्टि हीन जनों को भयोत्पादक भी प्रतीत होती है किन्तु उनके रसिक अध्येतानों को नारिकेलफल की भांति परमानन्ददायक, प्रात्मतृप्तिकारक परम रसायन श्री भांति प्रतीत होती है। उदाहरण के लिए यहाँ उपरोक्त दौली में निरूपित तत्त्व को प्रस्तुत किया जाता है। कालद्रव्य की सिद्धि करके यद हार काल के कथंचित् पराश्यपने का निरूपण करते हुए वे लिखते हैं -
यह हि ज्यहास्या निमिव समाजादी अम्ति तावत् चिर इति क्षिप्र इति सम्प्रत्ययः । स खलु दीर्घहस्वकाल निबंधनं प्रमाणमंतरेण न संभाव्यते तदपि प्रमाणं पुदगलद्रव्यपरिणाममंतरेण नावधार्यते । तत: परपरिणामद्योतमानत्वाद्व्यवहार कालो निश्चयेनानन्याश्रितोऽपि प्रतीत्यभव इत्यभिधीयते । तदवास्तिकाय सामान्यप्ररूपणायामप्तिकायत्वाभावात्साक्षादनपनन्यस्यमानोऽपि जीवपुद्गल परिणामान्यथानुपपत्या निश्चियरूपस्तत्परिणामायत्ततया व्यवहाररूपः कालोऽस्तिकाय पञ्चकवाललोकमपेण परिणत इति स्वरतर इष्ट्याम्धुपगम्यत इति ।' इसी तरह
१. पंचास्तिकाग्न गा. २F की टीका - अर्थ - प्रथम तो निमेषसमयादिकाल में
चिर और क्षिप्र (टम्वे तथा थोड़े समय तक) ज्ञान होता है । वह ज्ञान वास्तव में दीर्घ नथा लप कान के साथ सम्बन्ध रखने वाला प्रमाण (काल परिमाणा) विना सम्भव नहीं है । वह प्रमाण पुद्गलद्रव्य के परिणाम बिना निश्चित नहीं होता । अत: व्यवहारत्राा पर के परिणाम द्वारा जानने में आता हुआ होने से . निश्चय से यह अन्य के आश्रित नहीं है नो भी (पर के) आश्रयपने से उत्पन्न होने वाला कहा जाता है। इसलिए काल के अस्तिकावपने के अभाव के कारण यहाँ अस्तिकाय की सामान्य प्ररूपणा में उसका (काल बा) सीधा कधन नहीं है, तो भो जीब व पुदगल के परिणाम को अन्यया अनुपपसि के द्वारा निपचय रूप काल सिद्ध है तथा उसके परिणाम के आश्चय से यह निश्चित होता है कि व्यवहारकाल पंचास्तिकाय की भांति लोकरूप में परिणामता है, इस प्रकार अति तीक्ष्ण दृष्टि से जानना सम्भव है।