SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जा शरद्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व उपरोक्त वाक्यों में पहले अस्तिपरक तथा "न" पदयुक्त वाक्यों में नास्तिपरक कथन किया है। ऐसी कथनशैली में भ्रान्ति का अवसर नहीं रहता अपितु श्रद्धान पक्का हो जाता है। इसी शैली में विरोधी भावों के बीच तथा हेव उपादेय के बीच स्पष्ट अन्तर दिखाया जा सकता है । यथा - वीतरागचारित्र से मोक्ष तथा सराग चारित्र से बंध बताकर प्रथम को उपादेय तथा दूसरे को हेय निरूपित करते हुए अस्तिनास्तिपरक शैली में ही लिखा है - "संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्षः । तत एव च सरागाद्ध वासुर मनुजराजविभवक्लेशरूपो बंधः । अतो मुमुक्षुणेष्टफलत्वाद्गीतरागचारित्रमुपादेयमनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् ।' क्लिष्ट तर्कबहुल गम्भीर वार्शनिक तत्त्वनिरूपण शैली - प्राचार्य अमृतचन्द्र की आध्यात्मिक शैलियों में निरूपण की असाधारण क्षमता का चरमोत्कर्ष एवं रसोत्कर्ष उनकी समयसार की आत्मख्याति टीका में सर्वत्र देखने में आता है, परन्तु उनको दार्शनिक, गम्भीर, तर्कबहल, क्लिष्ट तस्वनिरूपक शैली का चरमोत्कर्ष पंचास्तिकाय की टोका में तथा विशेषरूपेण प्रवचनसार की तत्वप्रदीपिका टीका में आद्यन्त दृष्टिगोचर होता है । जिस तथ्य की सिद्धि करने की प्रतिज्ञा के करते हैं, उसे वे सतर्क, सोदाहरण एवं दार्शनिक प्रौढ़ता द्वारा अत्यन्त स्पष्ट करने में कोई कसर नहीं रखते । ऐसी दार्शनिक व्याख्याएँ इतनी क्लिष्ट तथा अर्थगाम्भीर्य से युक्त होती है कि वे अच्छे-अच्छे दार्शनिक विद्वानों के गर्व को खर्व करती हुई तात्विक मर्म को भलीप्रकार प्रकट करती हैं । ऐसी दार्शनिक व्याख्याओं में प्रयुक उक्त दार्शनिक शैली पाठकों को बाणभट्ट की क्लिष्ट समासबहुल शैली की याद दिलाती है । बाणभट्ट को उक्त शैली मार्ग ही है, न कि अमार्ग । भन्न्यजीवों का ही (मार्ग), न कि अभव्यजीवों का । सन्धबुद्धिजनों का ही, न कि अलब्धबुद्धिजनों कः क्षीरसकषायपने में ही होता है, न कि कषाय सहितपने में होता है । इस प्रकार आठ प्रकार के नियम यहाँ जानना चाहिए। . प्रवचनमार, गा. ६ "अयं -- दर्शनजाम प्रधानता से वीप्त राग चारित्र से मोक्ष होता है । और वही यदि सरागधारित हो तो उससे देवेन्द्र-प्रसुरेन्द्रनरेन्द्र के वैभव कलेपारूप बंध की प्राप्ति होती है। इगालए मुमुक्षुओं को इष्टफल वाला होने से शेतसगचारित्र ग्रहण करने योग्य है (उपादेय है) । भौर अनिष्टफन वाला होने से सरागचारित्र त्यागने योग्य है (हेय है)।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy