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कृतियाँ |
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अभिव्याप्त है, अतः वह श्रुतज्ञान प्रमाण रूप है तथा स्वानुभव द्वारा प्रमेव है । उसे ४७ नयों द्वारा निरूपित किया है। उस आत्मा को स्यात्कार मुद्रा वाले जिनेन्द्र के शासन द्वारा प्राप्त करते हैं। उपसंहार में टीकाकार न नथ की व्याख्या करने का निषेध करते हुए लिखा है कि प्रवचनसार की इस व्याख्या का व्याख्याता अमृतचन्द्रसूरि को बताकर जगज्जनों मोह में मत नाचो । स्याद्वाद विद्या बल से विशुद्ध ज्ञान की कला द्वारा एक शाश्वतसमस्त स्वतत्त्व को प्राप्त करके श्रानंदरूप से नाचो । टीकाकार लिखते हैं कि चैतन्य स्वभाव की ऐसी महिमा है कि उसके समक्ष सारा वर्णव तुच्छता को प्राप्त होता है क्योंकि इस जगत् में एकमात्र चैतन्यतत्त्व ही परम श्रेष्ठ तत्व है, अन्य कुछ नहीं । इस प्रकार सम्पूर्ण तत्त्रप्रदीपिकावृत्ति का प्रतिपाद्य है । उक्त विषय पर गंभीय दार्शनिकों से था अमृतचन्द्र की विलक्षण युक्तियों, तर्कों, न्यायों, दृष्टान्तों, प्रौड़गद्यकाव्य शैलियों से मंडित है और अमृतचन्द्राचार्य के उच्चकोटि के दार्शनिक ज्ञान व व्यक्तित्व की परिचायक है।
पाठानुसंधान :
"तत्वप्रदीपिका टीका भी लात्त्विक, दार्शनिक तथा गंभीरनिरूपण की दृष्टि में सर्वोपरि एवं अप्रतिम है । " आत्मख्याति" टीका की भांति इसकी भी ताडपत्रीय, हप्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियाँ बड़ी संख्या में उपलब्ध होती हैं। भारत के कोने-कोने में विद्यमान जैन शास्त्र भण्डारों में इसकी प्रतियाँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। इसके भी देश तथा विदेश में कई प्रकाशन एवं संस्करण निकल चुके हैं । वे संस्करण हिन्दी गुजराती, मराठी, कन्नड़, अंग्रेजी आदि विभिन्न भाषाओं में हैं। इसकी ताडपत्रीय एक प्रतिलिपि कन्नड भाषा में महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के बाहुबलि कुम्भोज नामक स्थान में सरस्वती भण्डार में उपलब्ध है । इसकी कई मुद्रित प्रतियों के पाठों को तुलनात्मक दृष्टि से अवलोकन करने पर पाठभेद तथा मुद्रण विषयक त्रुटियाँ मिलती हैं। यहाँ मुद्रित प्रतियों में तुलना को जाती है। ये प्रतियाँ १६६४ ई. अगास (गुजरात), १९६४ ई. सोनगढ़ ( सौराष्ट्र), १६७० ई. महावीरजी (राजस्थान) तथा १६७५ ई भावनगर से प्रकाशित हैं । इनके संपादक क्रमशः प्रोफेसर ए.एन. उपाध्ये, पं. हिम्मतलाल जे. शाह, पं. अजितकुमार शास्त्री व रतनचन्द्र मुख्तार तथा पं. हिम्मतलाल जे. शाह हैं । तुलनात्मक पाठभेद के उदाहरण इस प्रकार है -