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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
तथा रंगमन्च से चले गये। परन्तु ज्ञाननायक इन सभी का ज्ञाता दुष्टा बना रहता हैं । अंतिम (नवमें) अंक में शानज्योति आत्मा (समय-रूप) नायक अपने "सर्व विशुद्धज्ञानरूप" असली स्वरूप के साथ रंगमन्च पर आता है। और ज्ञानीजनों को अपना परम उदार उदात्त स्वरूप दिखाकर सदाकाल प्रशमरस (शांतरस) के पान की प्रेरणा करता है। इसकी प्रेरणा है कि हे ज्ञानीजनों, अविरतपने से (निरन्तर कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना की बिरक्तिरूप भावना को नचाकर, समस्त अज्ञानचेतना के प्रलय को स्पष्टतया नचाकर, निज रस से प्राप्त अपने स्वभाव को पूर्ण करके. अपनी ज्ञानचेतना को आनन्द पूर्वक नचाते हुए, अब सदाकाल प्रशभरस का पान करो ।२ इस अन्तिम अंक के अंत में नाटक का समापन करते हुए नाटककार अमृतचन्द्र ने ज्ञानस्वरूपी आत्म-नायक की सर्वअसा प्रदर्शित कर, उसका है। आलम्बन करने की प्ररणा दी है। वे लिखते हैं कि यह समयसार ही एक मात्र जगत को जानने वाला अद्वितीय तथा अक्षय नेत्र है जो अपने आनन्दमय विज्ञानधन स्वभाव को प्रत्यक्ष कर पूर्णता को प्राप्त होता है। ऐसे समयमार के अनुभव की प्रेरणा हेतु वे लिखते हैं मि-अधिक कथन करने से क्या प्रयोजन ? बहन विकल्पों से भी प्रब बस होमो, बस होओ तथा इस एकमात्र रमार्य स्वरूप का ही निरन्तर अनभव करो। निजरस के प्रसार से पूर्णज्ञान स्फुरायमान होता है ऐसे समयसार से श्रेष्ठ अन्य कोई पदार्थ नहीं है। इस तरह आचार्य
मृतनन्द्रका उपतित्व सपाल नाटकामार के. खन में प्रस्पूटित पाते हैं। उनकी आत्मख्याति समयसारकलशयुक्त टीका विश्व की प्रथम संस्कृत
१. अथ प्रविशति मर्ग विशुद्धज्ञानम् समयसार प्रात्मख्याति टीका पष्ट ४४१ २. अत्यन्त भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मशास्तत्फलाच्च ।
प्रस्पष्ट नायित्वा प्रलयनमखिलाज्ञान संचेतनावाः ।। पुर्ण कृत्वा स्वभाव स्वरसपरिगत ज्ञानचेतनां स्वां,
गानन्दं नाटयतः प्रखमरसमितः सर्वकालं पिबन्तु ।। समयसार कलश २३३ ।। ३. इदमेक जगञ्चक्ष रक्ष याति पूर्णतां,
विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षता तयत् ।। समयसार कलश २४५ ।। ४. अलमलमति जगदु विकल्परनपरयमिह परमार्थचस्यता नित्यमेकः ।
स्वरसविसरपूर्णज्ञान विस्फूतिमात्रान्न खलु रामयसारादुत्तरं किचिदस्ति ।। २४४ ॥