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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतृत्व ७. ग. -- पंचास्तिकाय (सटीक) अनु. - हिम्मतलाल अ. शाह. प्र -
दि. जै. स्वा. मं ट्र. सोनमक, इ. १६५७. भाषा - गुजराती। ८, ग्रं. - पंचास्तिकायसार, टीका - ए चक्रवर्ती. प्र. - भा. ज्ञा. पी. ।
दिल्ली. ई. १६७५, भाषा - अंग्रेजी । ६. ग्रं. - पंचास्तिकाय. टीका - पं कल्लापा भरमाप्पा निटवे, प्र........"
फलटण, ई, १९२८, भाषा - मराठी। १०. ग्रं. - पंचास्तिकाया. टीका - पं. हिम्मतलाल ज, शाहू, अनु. - पं.
परमेष्टी दास, प्र. - दि. ज. स्वा. म. द. सोनगढ़, ई. १६६५, भाषा - हिन्दी। पंचाचास्तिकाय. टीका - अज्ञात, प्र. - रा च. गै. ग्र, मा. प्रगास, ई. १९६६, भाषा - हिन्दो।
समयसार कलश द्वितीय विभाग में प्राचार्य अमृतचन्द्रकृत तीन गद्यटीकानों पर प्रकाश डाला जा चुका है। ''समयसारकलश" लेखक की स्वतन्त्र दमौलिक रचना नहीं है, अपितु प्रात्मख्याति गद्यटीका में बीच-बीच में प्रागत पद्यों का संग्रह है। मौलिक कृति न होने पर भी प्राचार्य अमृतचन्द्र के असाधारण व्यक्तित्व एवं कवित्व शक्ति से अनुप्राणित होने के कारण इसका मौलिक स्चना की भांति समादर है। प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयप्राभूत की गाथानों के भावों की ही क्रमबद्ध प्रकाशक होने के कारण इसे पद्यटीका के रूप में व्यवहृत किया है। इन पद्यों में मूलगाथाओं तथा टीकायों का सार समाहित है। कलश प्रात्मानुभवरूप अमृतरस से परिपूर्ण तथा जैन-अध्यात्म के नवनीत के घट स्वरूप हैं। इनमें अलंकारों की अदभुत छटा, छंदों का रसानुकूलप्रयोग, प्रसाद-माधुर्य आदि गुणों का प्रस्फुटन तथा अंतर्मुखकवीन्द्र की असाधारण काव्यप्रतिभा की अभिव्यक्ति हुई है। इनके रसास्वाद से भव्य सहृदय रसिकों को परमानन्द की अनुभूति प्राप्त होती है । वास्तव में इन्हें जैन अध्यात्म और लेखक की अलौकिक वितता का निस्पंद कहना उचित है । जिसप्रकार मंदिर की शोभा तथा महिमा शिखरस्थ स्वर्णकलशों से विशेषतः वृद्धिगत हुई है। इन पद्यों की प्रसिद्धि अध्यात्म के अध्येतानों के बीच अमृतकलशों के रूप में है । टीकाकार ने अध्यात्मरूप श्रुतसागर का स्थावादनयरूप मथानी से मंथन करके जो नवनीत प्राप्त किया, उसे ही इन कास्यकलशों द्वारा अभिव्यक्त किया है। इस रचना में प्राचार्य के सिद्धान्तपारंगत्व के दर्शन होते हैं । न्याय, तर्क, व्याकरण, साहित्यिक प्रखर