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| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
तीन गुण व्रतधारण का उपवेश :---
श्रावकों को पंचावनों के उपरांत तीन गृणवत धारण करने योग्य कहे हैं । वे तीन हैं - दिव्रत, देशनत तथा अनर्थदण्डव्रत ।
दिग्नत का स्वरूप :- भली भांति प्रसिद्ध ग्राम, नदी, पर्वतादि द्वारा सभी दिशाओं में मर्यादा करके उन दिशानों में समान न करने की प्रतिज्ञा करता दिानत है ।
देशव्रत का स्वरूप :- दिग्बल की मर्यादानों के अंतर्गत ग्राम, बाजार मकान, मोहल्ला इत्यादि का परिमाण करके उस मर्यादा से बाहर न जाना देशवत है।
अनर्थदण्डवत का स्वरूप :- यह पांच प्रकार का है। इसमें शिकार, जय, पराजय, पुल पर त्रीसमान चारा आदि का किसी भी समय चितवन नहीं करना, अपध्यान त्याग नामक प्रथम अनर्थदय डवत' है । विद्या, ध्यापार. लेखन, पेतो नौकरी तथा कारीगरी प्रादि से निर्वाह करने वाले पुरुषों को पाप का उपदेशक बचन कभी नहीं कहना चाहिए। यह पामोपदेश त्याग नाम का दूसरा अनर्थदंडवत है। पृथ्वी खोदना, वृक्ष उखाइना. अतिशय घासबाली. भूमि रौंदना, पानी सींचना आदि: पत्र, फूल तोड़ना आदि कार्य बिना प्रयोजन नहीं करना प्रमादची त्याग नामक तीसरा अनर्थदण्डन्नत है । करी, विष, अग्नि, हल, तलवार, धनुष आदि हिंसा के साधनों को और को देना छोड़ना, हिसादान त्याग नामक चौथा अनर्थदण्डवत है । गग-द्वेष मोहादि वर्धक, अधिकांश प्रज्ञानांश युतः दुष्ट कथाएं सुनना, धारण करना तथा सीखना इत्यादि का त्याग दुःश्रति त्याग नामक पांचवा अनर्थदण्डवत हैं। जुमा त्याग का उपदेश :
सप्त ध्यसनों में प्रथम सब अनर्थों में मुख्य संतोष का नाशक, मायाचार का घर, चोरी और असत्य का स्थान स्वरूप प्रादुर से ही त्यागना चाहिए । चार शिक्षावतों के धारण का उपवेश :
तीन गुणवतों के बाद चार प्रकार के शिक्षायतों के धारण का भी उपदेश जिनागम में है। वहां राग-द्वेष के पाग से समस्त पदार्थों में साम्य - -- --. - १. पु. सि. १३७, १३६, १४१, १४५ २. वही १४६