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[ आचार्य अमृतचंद्र व्यक्तित्व और कर्तृत्व
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श्रुतसागर द्वितीय विरचित "तत्त्वार्थ सुखबोधिनी टीका", पं० सदासुखदास ( ई० १७९३-१८६३) द्वारा रचित " अर्धप्रकाशिका" हिन्दी टीका इत्यादि अन्य अनेक विभिन्न भाषाओं में टीकाएँ उपलब्ध हैं। इस प्रकार श्राचार्य उमास्वामी द्वारा सूत्रशैली में उद्घाटित जैन अध्यात्म को सरिता प्रवाहित होती रही। इस जमा के विकास में आचार्य अमृतचन्द्र ने तत्त्वार्थसार द्यटीका रचकर अपना अपूर्व योगदान किया ।
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इसके अतिरिक्त आचार्य कुन्दकुन्द के ही प्रशिष्य एवं आचार्य उमास्वामी के शिष्य समन्तभद्राचार्य ने गन्धहस्तिमहाभाष्य प्राप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, जीवसिद्धि तत्त्वानुशासन आदि ग्रन्थों की रचना कर एक ओर जैन-ध्याय के भव्य भवन को आधार शिला स्थापित की दूसरी ओर रत्नकरण्डश्रावकाचार की रचना द्वारा जैन श्रावकों की आचार परम्परा का प्रकाश स्तम्भ खड़ा किया। साथ ही स्वयंभूस्तोत्र तथा जिनस्तुतिशतक आदि स्तोत्र - काव्यों के निर्माण द्वारा जैन अध्यात्म एवं भक्ति की तरंगिणी प्रवाहित की ।
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जन न्याय का विकासः - आचार्य समन्तभद्र द्वारा स्थापित जैनन्याय के भव्य भवन की आधारशिला पर अनेक आचायों ने जन-न्याय का सुदृढ़, सुरम्य भवन निर्मित किया। उनमें कुछ आचार्यों के नाम तथा काम इस प्रकार हैं : आचार्य पात्रकेशरी ( ई० छठवीं सदी) ने बौद्धों के रूप्य हेतुवाद का खण्डन करने के लिए "त्रिलक्षणकदर्शन" नामक न्यायशास्त्र की रचना की। उनके बाद जैन न्याय के प्रखर प्रणेता आचार्य अकलंकभट्ट ने ( ई० ६२० से ६५० ) समन्तभद्र के आप्तमीमासा ग्रन्थ पर "अष्टशती" नामक भाष्य लिखा । इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रमाण संग्रह, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय, सिद्धिविनिश्चय और तत्त्वार्थ राजवार्तिक आदि अत्यन्त गंभीर न्याय व तर्क परक ग्रन्थों का प्रणयन किया और जैन न्याय के प्रतिष्ठाता कहलाये। उनके पश्चात् मुनि विद्यानन्दि ( ई० ७७५-४० ) ने अकलंक भट्ट के ग्रन्थ अष्टशती पर " अष्टसहस्त्री " नामक विद्वज्जनमन आश्चर्यकारी, गंभीर, न्याय-वर्क व युक्तिहुल विशद् टीका लिखी । अष्टसहस्त्री को पढ़कर बड़े-बड़े विद्वान भी उसे सहस्त्री अनुभव करते हैं। वे सभी दर्शनों के पारगामी विद्वान थे । उन्होंने अष्टसहस्त्री के प्रतिरिक्त आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा,
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग-२, पृष्ठ ३५५-३५६ २. जैनधर्म, पृष्ठ २६६