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पूर्व कालीन परिस्थितियां ]
पर होता था। शंकराचार्य ने दर्शन और धर्म का प्रचार करने के लिए भारत के चारों कोनों में चार मठ स्थापित किये थे । कुछ समय तक इन मठों और उनकी शाखाओं-प्रशाखाओं के शंकराचार्य और दूसरे सन्यासी धर्म का प्रचार करते रहें, परन्तु आगे चलकर उनमें भी बिलासिता और भ्रष्टाचार आ गये।
इधर बौद्धधर्म के प्रचारकों व प्रसारकों में भी उपयुक्त बिलासिता और भ्रष्टाचार प्रादि पनपने लगे। हर्षवर्धन के समय तक बौद्धधर्म के काफी अनयायी थे और उसका स्वरूप उच्च व नाचना , परन्तु मागे चलकर जिस प्रकार वैदिक या ब्राह्मण धर्म में विलासिता और भ्रष्टाचार आ गये, वैसे ही बौद्धधर्म में भी व्याप्त हो गये। इसका भी तान्त्रिक तथा वाममार्गी स्वरूप हो गया। बजयान आदि सम्प्रदायों का इसमें उदय हुआ जिससे बौद्ध संघाराम और विहार, गुह्मसमाजों और भ्रष्टाचार के केन्द्र हो गये।
__ यद्यपि जैनधर्म में भी मूर्तिपूजा और मन्दिर आदि का काफी विस्तार हो गया था और उसके मूलज्ञान और तपस्या के मार्ग ने अन्धविश्वास और एक प्रकार के कर्मकाण्ड का रूप धारण कर लिया था, फिर भी उसमें मुह्यसमाजी विचार और भ्रष्टाचार नहीं फैले जो ब्राह्मण और बौद्धधर्म में घुस गये थे ।'
उपयुक्त नवमीदसवीं सदी के काल को अति साम्प्रदायिकता और अत्याचार का धुग कहा जा सकता है। इस युग में धार्मिकस्पर्घा एवं घोन्माद ने साम्प्रदायिकता का रूप ले लिया था। तर्क तथा ज्ञान बल का स्थान अत्याचार और पशु-बल ने ले लिया था। आना वर्चस्व एवं स्वमत की स्थापना करने हेतु अल्पसंख्यक एवं अल्पशक्ति सम्पन्न अन्य मतावलम्बियों को बलपूर्वक दबाया जाने लगा, सैकड़ों हजारों नरनारियों को मौत के घाट उतारा गया, लाखों जनों को स्वमत परिवर्तन करने हेतु बाध्य किया गया, अल्पमत के अनुयायियों पर अमानवीय, अनैतिक, अन्यायपूर्ण अत्याचार किये गये । इस सन्दर्भ में रूसी लेखिका डॉ. श्रीमती एन. आर. गुसेवा ने "जैनिज्म" नामक पुस्तक में लिखा है कि इस बात के प्रमाण हैं कि महाराष्ट्र में भैरवों के नाम से ख्यात व्यक्तियों के नेतृत्व
१. प्राचीन भारत, डॉ. राजपलि पाण्डेय, प० ४२८-४२६