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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व मछली, हरिण प्रादि को मारने के अमिप्राय से युक्त ढीमर तथा बहेलिया आदि | तथा मंदकषायवान् को यहिंसा अधिक होने पर भी हिंसा का फल कम होता है जैसे किसान प्रादि ।' एक साथ कई जनों द्वारा की गई हिंसा का फल परिणामानुसार भिन्न-भिन्न होता है । किसी को हिंसा करने के पूर्व ही हिंसा का फल मिल जाता है, किसी को हिंसा के काल में ही हिंसा का फल मिलता है तथा किसी को हिंसा करने का प्रारम्भ करके हिंसा न करने पर भी हिंसा का फल मिलता है। जैसे किसी का मारने का घात लगाकर बैठ हए जन का ही घात हो जाता है तथा मए स्वयं ही समुद्र में तुफानादि से मर जाते हैं । इस तरह स्पष्ट है कि हिंसा काय भावों के अनुसार ही फलती है । इसी तरह एक हिंसक के अनेक अनुमोदन कत्रिों को हिंसा का फल होता है। अनेक जनों द्वारा की गई हिंसा का फल एक को ही मिलता है । जैसे सेना हिंसा करती है तथा फल राजा भोगता है । हिंसा किसी को उदय काल में अधिक तो किमी को कम फल देती है । इस प्रकार हिस्य, हिमक, हिंसा तथा हिंसाफलों को जानकर यथाशक्ति हिंसा का परित्याग करना चाहिए ।
__ पांच उदुम्बर फलों तथा तीन मकारों के त्याग का उपवेश :- हिंसा के त्याग के इच्छुक जनों को सर्वप्रथम प्रयत्नपूर्वक मद्य, मांस तथा मधु इन तीन मकारों का तथा बड़, पोपल, गुलर, ऊमर, कटूमर इन पांच उदुम्बरों का त्याग करना चाहिए क्योंकि इनसे महान हिसा होती है।
मद्य का स्वरूप :- मदिरा मन को मोहित करती है। मोहित चितवाला पुरुष धर्म को भूल जाता है तथा धर्म को भूला हुमा जीव निश्शंक होकर हिंसा का आचरण करता है । मदिरा रस बहुत से जीवों की उत्पत्ति का स्थान है अतः मद्य सेवन करने वाले को उनकी हिंसा अवश्य होती है। अभिमान, भय, ग्लानि, हास्य. अरति, शोक, काम, क्रोधादि सभी हिंसा के भेद हैं और यह सभी मदिरा के निकटवर्ती है । मनत्यागी को इन सभी का त्याग करना चाहिए।
मांस का स्वरूप :- प्राणियों के घात बिना मांसोत्यति नहीं होती इसलिए मांसभक्षी पुरुष को अनिवार्य रूप से हिंसा लगतो है, । स्वयं मरे
१. पु. मि. ४६, ५१, ५२ २. वही ५३ से ६० ३. पु. सि. ६१-६४