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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्त्व एवं कर्तृत्त्व आनन्द का रसास्वाद करा सके। नाटकों के अनुशीलन का फल ही स्वसंवेद्य परमानन्द रूप रसास्वाद है।' अमृतचन्द्र ऐसे ही परमानन्द रस के रसास्वादन हेतु टीकाएं रची हैं। प्रवचनसार की तत्त्वदीपिका टीका के आरम्भ में ही वे इस बात की घोषणा करते हैं कि परमानन्द रूप सूधारस के पिपासुजनों एवं भव्यजीवों के हित करने हेतु तत्त्वस्वरूप स्पष्ट करने वाली टीका रची जाती है। उनकी आत्मख्याति टीका में अध्यात्मरस तथा शांत रस का समुद्र लहराता है । उसमें निजस्वरूप का परमरस लबालब भरा हुआ है। अमृतचन्द्र ऐसे ही समयसार को नमस्कार करते हैं, जो स्वानुभव में प्रकाशित होता है। इस प्रकार उक्त प्रात्मख्याति समयसार कलश टीका प्रतीकनाटकों के इतिहास की परम्परा की पुनर्स्थापक तथा दसवीं विक्रम सदी की सर्सप्रथम प्रतीक नाटक कृति सिद्ध होती है । साथ ही उक्त कृति तत्कालीन समाज की अभिरूचि की भी परिचायक है। इस नाट्यकृति की एक विशेषता यह भी है कि इसमें दर्शक और पात्र अभेद रूप से हैं। इस अध्यात्म ग्रन्थ में नाटक के रूपक, रंगविन्यास तथा तत्कालीन जनरूचि के दर्शन होते हैं। यद्यपि कुछ विचारकों का विचार है कि छंद बाहुल्ययक्त कृति नाटक नहीं कहला सकती। समयसार की आत्मख्याति टीका में भी छंदों की अधिकता है, अतः उसे भी नाट्यकृति मानना संगत नहीं है, किन्तु उपर्युक्त विचार उचित प्रतीत नहीं होता; क्योंकि सभी काव्यों में नाटकीयता और सभी नाटकों में काव्यात्मकता पाई जाती है। मानव जब भावातिरेक में
१. दशरूपका, (धनंजयकृत) प्रथम प्रकाश, श्लोक ६ पृष्ठ ३, ४ २ परमानन्दसुधारस पिघासिताना हिताय मध्यानाम् । क्रियते दिततत्त्वा प्रवचनसारस्य वृत्तिरियम् ।। ३ ।।
प्रवचनसार (तत्त्वदीपिका टीका) पद्म-३ ३. निज स्वरूप को परमरस जाने भरवो अपार । बन्दों परमानन्दमय समयसार अविकार ।।
नाटक समयसार, पं. बनारसीदास ४. 'नमः गमयसाराय स्वानुभूत्या चत्रासः । .......' मात्मस्याति टीका, पद्य १ ५. समयसार सलश नाटकम्, प्रस्तावना पृष्ठ ४-५,मराठी भाषांतरकार
क्षुश्मादिसागर | बीर संवत् २४६३ (१९७० ईस्वी) ६. टी, सी. इलियट- Problems of the Drana, Page 29.
"All poetry tends towards drama, and 8]l drama towards postry."