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________________ व्यक्तित्व तथा प्रभाव ] । १५७ दोनों को परस्पर में बदल बदल कर प्रयोग करने से ७४७ = ४६ भंग तैयार होते हैं। यह भंगनिर्माण विधि भो काफी श्रम तथा विशेषबुद्धिगम्य है। इन सभी उल्लेखों तथा प्रमाणों के आधार पर प्राचार्य अमृतचन्द्र निःसंदेह रूप से उत्कृष्ट सिद्धांता प्रमाणित होते हैं। एक स्थल पर उनका नाम "सिद्धांत विशारद" पद से विभूषित किया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र जिस प्रकार प्रौढ़तम एवं गभीरतम आध्यात्मिक सिद्धांतों के ज्ञाता तथा रसिक थे, उसो प्रकार दार्शनिक सिद्धांतों के भी वे उत्कृष्ट अधिकारी विद्वान थ। इसका प्रबल प्रमाण यही है कि उन्होंने आध्यात्मिक सिद्धान्तों का रहस्य समयसार की टीका द्वारा उद्घाटित किया है तथा दार्शनिक सिद्धान्तों का मर्म प्रवचनसार, पंचास्तिकाय की टीकाओं तथा तत्वार्थसार नामक कृति द्वारा अभिव्यक्त किया है। उन्होंने सिद्धान्तों को मात्र वाणी का विलास नहीं बनाया, अपितु उन्हें अपने जीवन में उतारा था, इसीलिए एक स्थल पर मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन कराते हुये लिखा है कि उस नोभा के प्रणेशा हम खई है : पं द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग के सामंजस्य के प्रबल समर्थक रहे हैं। इसका प्रमाण निम्न पद्य है - (बसंततिलका छन्द) द्रव्यानसारि चरणं चरणानसारि द्रव्यं मिथो द्वयमिदं नन सव्यपेक्षम् । तस्मान्मुमुक्षुरधिरोहतु मोक्षमार्ग, द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ।। १. इन दोनों के परस्पर भिन्न भिन्न संयोग वियोग द्वारा ४६ भंग तयार होते हैं । (वही गाथा ३६) २. देखिये :-- कन्नड़ प्रांतीय ताड़पत्रीय ग्रन्थ सूची - प्रस्तावना, पृष्ठ १५ ३. प्रवचनसार गाथा २०१ की टीका :-- इति अर्हत सिद्धाबायोपाध्यायसाधना प्रतिवन्दनात्मक नमस्कार पुरस्सरं विशुद्धदर्शनज्ञान प्रधानं साम्यनाम नामण्यमत्रान्तरग्रन्थसंदर्भोभय संभावित सोस्थित्यं स्वयं प्रतिपन्न परेषामास्मापि यदि दुःनमोक्षार्थी तथा तत्प्रतिपद्यतां यथानुभूतस्य तत्प्रतिपत्तिवर्मनः प्रणेतारो वयमिमे तिष्याम इति ॥" अर्थात् इस प्रकार प्रहन्तों, सिजों, प्राचार्यों, उपाध्यायों तथा साधुओं को प्रणाम वंदनात्मक नमस्कारपूर्वक विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान साम्गनामक श्रामण्य को जिसका इस ग्रन्थ के (ज्ञानतत्त्व तथा ज्ञ यतस्व रूप) दो मंदों द्वारा अवस्थापन हुअा है, उसे स्वयं अंगीकार किया, उसी प्रकार दूसरों का भात्मा भी, यदि दुःखों से मुक्त होने का इच्छुक है तो उसे अंगीकार करे। उस धामण्य को अंगीकार करने का जो यथानुभूत मार्ग है उसके प्रणेता हम यह खड़े हैं।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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