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दार्शनिक विचार ]
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भिन्न वस्तु में अन्य द्रश्य के प्रसिद्ध धर्म को पारोपित करना उपचरित असद्भुत व्यवहार नय है। उक्त नय के आश्रित कथन करते हए प्राचार्य अमृतचन्द्र एक स्थल पर लिखते हैं कि कुम्भकार घड़े का कर्ता तथा भोक्ता है, ऐसा लोगों का अनादि रुढ़ व्यवहार है । अथवा यह राजा पांच योजन के विस्तार में निकल रहा है ऐसा कहना, ज्यवहारीजनों का सेना समुदाय में राजा कह देने का व्यवहार है क्योंकि एक राजा का पांच योजन में फैलना प्रारक है. परम तेत राही है। उत्तः दोनों उदाहरण उपस्ति असद्भत व्यवहारनय के हैं, क्योंकि कुम्भकार और घड़ा अथवा राजा और सेना दोनों भिन्न क्षेत्रवर्ती होने से उपचरित हैं, दोनों की सत्ता भिन्न होल से असद्भुत हैं तथा अन्य का गुण-धर्म अन्य द्रव्य में आरोपित करना व्यवहार है। असद्भूत व्यवहार स्वयं उपचार है तथा उपचार का भी उपचार करना उपचरित नसद्भुत व्यवहार है।
इस प्रकार सुद्धनय निश्चयनय), अशुद्धनय व्यवहारनय), सद्भूतव्यवहार, असद्भुत व्यवहार, अनुपरित व्यवहार तथा उपचरित व्यवहार इन छह नयों के पाश्चय से कथन तथा स्पष्टीकरण करके प्राचार्य श्रमतचन्द्र ने अपनी टीकात्रों में तथा मौलिक ग्रंथों में प्राध्यात्मिक दृष्टि से नयचक्र का कुशल संचालन किया है। ये छहों नय अध्यात्म भाषा में नयचक्र के मूल मान गये हैं। उक्त छह नयों का ही अनुकरण एवं प्रयोग करते हुए अमृतचन्द्र के पश्चाद्वर्ती ब्रह्मदेव सूरि ने भी इन छहों नयों को नयचक्र का मल एवं संक्षेप में उनको ही ज्ञातव्य लिखा है ।" नयों के ४७ प्रकारों का निर्देश :
एक कुशल नयचक्रवेत्ता तथा नयचक्र संचालक के रूप में अमृतचन्द्र न उपरोक्त छह मल प्राध्यात्मिक नयों के अतिरिक्त ४७ नयों का उल्लेख भी किया है। उनमें ७ नय सप्तभंगी के अनुसार, ४ नय निक्षेपों के अनुसार
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१. व. द. गं.--मा. ३, तथा अलाप पद्धति-सूत्र नं. २२७.
समयसार, गा. ८४. यात्मख्याति टीका । ३. बही, गा, ४. प्रात्मयानि टीका । ४. अन तव्यबहार एवोपचारः, उपचारादावार यः करोति म उपचारिता
सद्व्यवहार: ।। पालापपद्धति सूत्र नं. २०८, ५. बद्र. में, गा. ३- इतिन यामलं संक्षेपेण नयषदकं ज्ञातव्यमिति ।"