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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व चन्द्रांत है तथा एक स्थल पर अमनचन्द्र को अमृतनन्दि नाम का प्रयोग मिलता है।' 'नन्दि' पद का नामांत में प्रयोग होने से अमृतचन्द्र का नन्दिसंघ का होना साधार प्रतीत होता है। तीसरे अमृतचन्द्र कुन्दकुन्द के निजामृत रस के रसिक थे। वे कुन्दकुन्द के अनन्य शिष्य तथा भक्त थे। कुन्दकुन्द का नन्दिसंघी होना प्रमाणित है ।२ तब उनके अनगामी शिष्य अमृत चन्द्र का भी नन्दिसंघी होना स्वाभाविक है। नन्दिसंघ मूलसंध का एक सर्वाधिक प्रामाणिक तथा प्राचीन संघ है। प्राचार्य कुन्दकुन्द भीः | महावीर तीर्थकर तथा गौतम गणधर के अनन्तर तीसरे स्थान पर स्मरण किये जाते हैं। उनके ग्रन्थ तथा ग्रन्थोक्त सिद्धान्त भी गणधरए तुल्य प्रमाणता को प्राप्त हैं । ऐसे प्रामाणिक ग्रन्थों, सिद्धांतों के असाधारण टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र का मूलसंघ की प्रामाणिक शाखा के अन्तर्गत होना सहनसिद्ध है । चौथे, रमा बराचार्य विजयम में अमृत चन्द्र को मूलसंघ का अनुयायी लिखा है। इसी आधार पर पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने प्राचार्य अमृतचन्द्र को काष्ठासंघी आचार्यकृत "डाहसी गाथाओं" का कर्ता मानने का खण्डन किया है । कई ग्रन्थकारों ने उन्हें मूल संघी| आचार्य ही माना है।
____ इस तरह आचार्य अमृतचन्द्र के संघ निर्णय पर पर्याप्त ऊहापोह एवं प्रमाणों के आधार पर हम निष्कर्ष रूप से यह कह सकते हैं कि प्राचार्य अमृतचन्द्र सुनिश्चित ही मूलसंघ की नन्दिसंघी परम्परा के भाचार्य थे।
१. कन्नड़ प्रांतीय ताडपत्रीय ग्रन्थसूची, पृष्ठ १५, संस्करण प्रथम १९४८ ई. २ जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, प्रथम भाग, पृष्ठ ३४३, कुन्दकुन्द का अपरनाम पननंदि..
भी है जिसमें नंदि शब्द अन्त में पाया है क्योंकि वे नंदिसंघी थे।" ३, वही, पृष्ठ ३४३ ४. जैन साहित्य का इतिहास, भाग २, पृष्ठ १७४ ५. वही, पृष्ठ १७४ ६. (i) तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग २, पृष्ठ ४०३ (i) पं. प्रवर बनारसोदास ने भी अपने "समयसारनाटक" की प्रशस्ति में।
प्राचार्य अमृतचन्द्र को कुन्दकुन्द की परम्परा का ही लिखा है । यथाः"कुन्दकुन्दाचारिज प्रथम गाथा बद्ध करि, समैसार नाटक विचार नाम दयौ है।
ताही की परम्परा अमृतचन्द्र भये तिन,संस्कृत कलश सम्हारि सुख लयो है ॥२०॥ ७. पुरुषार्थसिसयुपाय (मराठी मद्यानुवाद) प्रस्तावना, पृष्ठ १७