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जीवन परिचय ]
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किया है कि नवमी शताब्दी के प्रारम्भ तथा दसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए सोमदेव के पूर्वज ग्रंथकारों में पुरुषार्थसिद्धयुपाय के रचयिता अमृतचन्द्र भी उल्लेखनीय है । इससे अमृतचन्द्र का समय विक्रम को दसवीं सदा का पूर्वार्ध के लगभग निश्चित होता है।
__ अमित्यादि प्रम (ोगसार चाही). मिग दिदीय श्रावकाचार, सुभाषित रत्नसंदोह आदि के कर्ता से दो पीढ़ी पूर्व के विद्वान थे उनके योगसार पर भी अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसार एवं समयसारादि को टीकाओं का प्रभाव लक्षित होता है। सुभाषि रत्नसंदोह की प्रशस्ति के अनुसार अमितगति प्रथम का समय विक्रम संवत् ६७५ से १०२५ निर्णीत है। इस प्राधार से अमितगति प्रथम के पूर्ववर्ती आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की दसवीं सदी पूर्वार्ध ही ठहरता है।
डा. ए. एन. उपाध्ये ने अमृतचन्द्र को देवसेनाचार्य (विक्रम संवत् ६E0) की आलापपद्धति नामक कृति से परिचित माना है। उन्होंने अमृतचन्द्र' का समय ई. की दसवी सदी की समाप्ति के लगभग माना है अतः उनका वैसा अनुमान अनुचित नहीं है, परन्तु जब ईसा की दसवीं सदी के अन्त में हुए ग्रथकरों के द्वारा अमृतचन्द्र के पुरुषार्थ सिद्धयुपाय से उद्धरण लिये जाने तथा उसका अनुसरण किये जाने की बात निस्संदेह है, तब यह भी निश्चित होता है कि अमृतचन्द्र उससे पूर्व में हुए हैं। ऐसी स्थिति में अमृतचन्द्र का आलापपद्धति से परिचित होना विचारणीय है । पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री का अभिमत है कि देवसेन ही अमृतचन्द्र की टीकाओं से परिचित जान पढ़ते हैं, कारण कि अमृतचन्द्र द्वारा कुन्दकुन्दाचार्य की भांति व्याथिक-पर्यायार्थिक, शुद्धनम-अशुद्धनय, निश्चय व्यवहार इत्यादि मुख्य भेदों का उल्लेख हुआ है किन्तु उनके प्रभेदों का कहीं उल्लेख नहीं हुमा। जयसेनाचार्य द्वारा अवश्य भेद-प्रमेदों का निरूपण हुआ है। जयसेन तो आलापपद्धतिकार के बाद के है परन्तु अमुतचन्द्र नहीं । देवसेन की आलापपद्धति में निश्चय-श्यवहार नय के भेद-प्रभेदों का जो वर्णन है, वह अमृतचन्द्राचार्य द्वारा समयसार की टीका में प्रतिपादित तत्त्वव्यवस्था
१. तत्त्वानुशासन, प्रस्तावना पुष्ठ ३३-३४ लेख पं. जुगल किशोर मुख्तार, वीरसेवा
मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, दिसंबर १६६३ २. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग ।, पृष्ठ १३६. ३. जैन साहित्य का इतिहास, भाग २, पृष्ठ १८३.