________________
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व की समस्त विचारधाराओं और आचरणों को मुख्यतः दो धाराओं में समाहित किया जाता है। इनमें प्रथम है श्रमणवारा और द्वितीय है श्रमणेतरघारा। श्रमणेतरधारा में न्याय, बैशेषिक, सांख्य, योग. मीमांसा तथा वेदांत ये षडदर्शन और चावोक.. मुस्लिम आदि मत गभित हैं । अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर के आविर्भाव के समय श्रमणेतरघाग में प्रायः वेदोक्त क्रियाकाण्ड, धार्मिक प्राचार-विचारों का प्राबल्य था। चारों और हिंसा असत्य, शोषण, अनाचार, मांसाहार, सुरापान, यतकीड़ा, नारी मात्र पर अत्याचार आदि का बोलबाला था। याज्ञिक क्रियाकाण्डों तथा धर्म के नाम पर मानव अपनी विकृतियों का दास बना हुना था । वैयक्तिक स्वतन्त्रता समाप्त हो चुकी थी। मानवीय अधिकार धर्मगुरुओं की नानाशाही के शिकार बन चुके थे। मानवता कराह रही थी। निरीह पशुओं का निर्ममता पूर्वक वध किया जाता था। पशुमेघ तथा नरमेघ यज्ञों में पशुओं और मनुष्यों की होली मनाई जाती थी। अग्निकुण्डों से चीत्कार की ध्वनि कर्णगोचर होती थी। मानव की अन्तश्चेतना मूदित हो चुकी थी । धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पूर्णतया अराजकता विद्यमान थी। सर्बोदय का स्थान वर्गोदय ने ले लिया था।
उपयुक्त धार्मिक अराजकता के विषमकाल में तीर्थङ्कर महावीर ने क्रांनि को सूत्रधार के रूप में करुणा और अहिंसा का शंखनाद फुका। उस समय यज्ञादिक का बहुत जोर था और यज्ञों में पशुबलिदान बहुतायन गे होता था । बेचारे मूकपशु धर्म के नाम पर बलिदान कर दिये जाते थे और इन कृत्यों को धर्म की संज्ञा दे दी जाती थी । करुणासागर महावीर के कानों तक भी उन मूक पशुओं की चीत्कार पहुंची और राजपुत्र महावीर का हृदय उनकी रक्षा के लिए तड़प उठा। धर्म के नाम पर किये जाने वाले किसी भी कृत्य का विरोध कितना दुष्कर है यह बतलाने की आवश्यकता नहीं। किन्तु महावीर तो महावीर ही थे। उन्होंने तीर्थङ्करों को योम और अध्यात्म की विलुप्त धारा को परिष्कृत एवं पुनरुज्जीवित किया, प्रवाहित और सम्बद्धित किया। भगवान महावीर द्वारा प्रसारित अध्यात्म और अहिंसामयी आचार-विचारों का अमरोतर धर्म तथा दर्शनों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इस प्रकार अध्यात्म के उन्नयन और समाज के जागरण का युग प्रारम्भ हुअा। रूढ़िवादिता, अज्ञानता, १. तीर्थकर महावीर और उनकी यात्रार्य परम्परा, भाग-१, पृष्ठ ७२-७३ २. जैनधर्म : पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री, पथ्ट १९