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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व टीका में उक्त नाम का पन्द्रह बार प्रयोग किया है । उन्होंने "तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः"५ लिखकर उनके अन्थों से उद्धरण प्रस्तुत किये हैं।
पं० आशाधरजी (तेरहवीं विक्रम सदी) ने "ठक्कुरामृतचन्द्रसूरि"२ नाम का उल्लेख किया है। उन्होंने अमृतचन्द्र के लिए ठवकर तथा सरि उपगविटोमणों का पायोग किया है। इससे यह बात तो प्रमाणित हो ही जाती है कि प्राचायं अमृतचन्द्र की ख्याति परवर्ती ग्रन्थकारों में अत्यधिक सम्माननीय पद पर थी।
___ भट्टारक शुभचन्द्र (सोलहवीं विक्रम सदी) ने अमृतचन्द्र के लिए ''सुधाचन्द्रमुनि" शब्द से व्यवहृत किया है, साथ ही उन्हें विपक्षविजेता, समस्त शिष्यवर्ग के पालक, निजस्वतत्त्ववेत्ता, अनेक जीवों को सम्बोधितकर्ता तथा यतीश विशेषणों से समलंकृत किया है। उन्होंने एक स्थल पर अमृत चन्द्र का "अमृतविघुमतीश" नाम भी लिखा है।
पण्डित वृन्दावनदास (विक्रम अठारहवीं सदी) ने उन्हें अमृतचन्द्र तथा पं० दौलतराम (वि. सं. १८२६) ने "अमृतचन्द्रमुनीद्र" नाम का प्रयोग किया है तथा पं. भूधरदास (वि.सं. १८२०-१८८६) ने पार्श्वपुराण में "अमृतचन्द्रमुनिराज"७ नाम लिखा है। पं. जयचन्द (वि. सं. १८२०-१८८६) ने अमृतचन्द्र को "सुधाचन्द्रसूरि"८ और पं. वृन्दाबनदास (वि० १८८०) ने "अमीइन्दु" नाम से स्मरण किया है। श्री --..-.-.-..... १. नियमसार गाथा ७, १९, २४, ४०, ४२, ४४, ४६, ५० ५५, ६२, ८३, ६९,
१०७, १५६, १७८ इत्यादि की टीकाएं। २. अनगार धर्मामृत, भव्यकुमुद चन्द्रिका टीका, पृष्ठ १६० तथा ५८८ ३. परमाध्यात्मतरंगिणी, मंगलाचरण पा २ ४. वहीं. अंतिम प्रशस्ति, पद्य, पृष्ठ २३५ ५. प्रवचनसार परमागम (पद्य), पृष्ठ ६ तथा २३८ ब्र. दुलीचन्द्र ग्रंथमाला सन
१९७४ ६. पुरुषार्थ मिद्धयुपाय अंतिम प्रशास्ति, पष्ठ १६५. (सोनगढ़ १६७२) ७. पापपुराण, पृष्ठ ७२-७३ वी, नि. २४३४ ८, परमाध्यात्म तर गिरणी, अंतिम प्रशस्ति पृष्ठ २३४ ६. गुरुदेव अमीइन्दु ने तिनकी करी टीका । झरता है निजानंद अमीबन्द सरीका ।। १६ ।।
वुहृद् जिनवाणी संग्रह, पृष्ठ १८६