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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतृ त्व
जे० एल० जैनी का तथा गुजराती भाषा में सन १६६६ स्त्रों में "सोनगढ़" (सौराष्ट्र) से प्रकाशित संस्करण भी देखने में आये । इन सभी प्रकाशनी के मूल पाठ में विशेष अंतर दिखाई नहीं दिया । मूलपाठ का संशोधित, सर्वाधिक शुद्ध व प्रामाणिक संस्करण सन् १६७४ में सोनगढ़ से प्रकाशित हुआ है जिसमें पं० टोडरमलजी कृत टीका का हिन्दी रूपांतर है।
उपरोक्त में १६२६ सन् में शंकर पढगेनाथ रणदिवे सोलापुर का पुरुषार्थसिद्ध युपाय का मराठी प्रकाशन का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें ग्रन्थ का अपरनाम श्रावकाचार दिया है । इसके अतिरिक्त कुल १६६ पद्य तक ही टीका की गई है। उक्त प्रकाशन में १६७ से लेकर २२६ के पब जिसमें सकल चारित्र का निरूपण है, छोड़ दिये गये हैं। परम्परा
संपूर्ण जैनागम को निरूपण की दृष्टि से चार अनुयोगों में विभाजित किया गया है। वे अनुयोग हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग | प्रथमानुयोग में पुराण-पुरुषों का चरित्र निरूपित किया गया है । करणानुयोग में लोक-अलोक तथा चारों गतियों का और युग परिवर्तन आदि का निरूपण है। चरणानुयोग में गृहस्थ तथा मुनियों के चारित्र (आचरण) की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के सम्बन्ध में वर्णन है। द्रव्यानुयोग में जीव अजीवादि तत्वों, पुण्य-पाप तथा बन्धमोक्ष का स्वरूप दर्शाया गया है ।' उक्त पुरुषार्थसिद्धयपाय चरणानुयोग की परम्परा का ग्रन्थ है। इसमें गृहस्थाचार का विशद् तथा मुनि-आचार का संक्षिप्त निरूपण है। घरणानुयोग की परम्परा पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार तथा अष्टपाहुइ में आचरण सम्बन्धी सर्वप्रथम निरूपण किया है, परन्तु उक्त निरूपण में मुनि-याचार का ही प्रमुखत: बर्णन है। थानकाचार का सर्वप्रथम, सुव्यवथिन, सविस्तार विवेचन रत्नकरण्ड श्रावकाचार नामक ग्रन्थ के प्रणयन द्वारा आचार्य समंतभद्र स्वामी ने ईस्वी की दूसरी सदी में किया । तत्पश्चात् भगवज्जिनसेनाचार्य ने महापुराण में (ईस्त्री ८०० से ८४८ के बीच) श्रावकों की क्रियानों का उल्लेख किया । किंतु महापुराण में वर्णित क्रियाएं पूर्वाचार्य वणित रत्नकरण्डश्रावकाचार की परम्परा से बिल्कुल भिन्न हैं । उन्हें समय या युग की मांग का प्रतिबिम्ब कहा जा
१. रत्नकरण्डनावकाचार, पद्य क्रमांक ४३ से ४६ तक ।