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जीवन परिचय ]
पद्य तथा प्रवचनसार की तत्वप्रदीपिका टीका का एक श्लोक उद्धरण तथा प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने कई श्लोक अमृतचन्द्र के पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय तथा समयसार कलश से लेकर उनमें मात्र कुछ शाब्दिक परिवर्तन करके अपने ग्रन्थ अनगार धर्मामृत में प्रस्तुत किये हैं। इन परिवर्तित श्लोकों के भावार्थ में कोई भी परिवर्तन दिखाई नहीं देता। इससे यह बात निस्सदेह निर्णीत होती है कि आचार्य अमृतपान कः कृनिषों का अस्तित्व विनाम की तेरहवीं सदो के उतरार्द्ध में था आचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों के लगभग अर्द्ध शताब्दी पूर्व में अमृतचन्द्र का अस्तित्व मानने में कोई आपत्ति प्रतीत नहीं होती, अत: उक्त आधार पर प्राचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की तेरहवीं सदी का पूर्वार्थ निश्चित होता है ।
प्राचार्य जयसेन (छठवें) कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों के टीकाकारों में प्राचार्य अमृतचन्द्र के पश्चात्वर्ती माने गये हैं। उनका समय १२६२ से १३२३ ई. (अथवा १३४६ से १३८७ विक्रम संवत्) का माना गया है। आचार्य जयसेन ने अपनी टीकाओं में आचार्य अमतचन्द्र को टोकाओं फा अनुकरण ही नहीं, अपितु उनकी कृतियों के अंशों को प्रमाण रूप में उदधुत भी किया है। समयसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टोका में जयसेन ने अमृतचन्द्र की समयसार कलश टीका के सात पद्यों को उद्धृत किया है । इससे भी यह बात स्वयमेव प्रमाणित होती है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र के ग्रन्थों एवं टीकाओं का प्रचार-प्रसार जयसेनाचार्य के पूर्व हो हो चुका था तथा ग्रन्थों एवं टीकाओं की रचना के लगभग ३०-४० वर्ष पूर्व प्राचार्य
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१. तत्त्वार्थसार, अध्याय प्रथम, पद्य नं. ५१ (४) तत्वदीपिका, चरणानुयोग
लिका, पद्य क्र. १३, २. तुलना कीजिये--"अनगार धर्माभूत के पद्य १०६, १०१, १०२, ११०,
१११ प्रथम अध्याय । पद्य क० २६ तथा २८ चतुर्थ अध्याय, पद्य ऋ० ८१ षष्ठ अध्याय, को क्रमशः पुरुषार्थ सिद्धध पाय के पच नं० ५,१० समयसार कलश के कलश नं० ५ तथा २१०, पु. शि. २१२, स. सा. क. १२०, पु. सि. ४४, ४९
तथा ४२ के साथ। ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग प्रथम, पृ० ३३६ तथा भाग द्वितीय पृ० ३२४ ४, समयसार तारपर्यन त्ति में 'उक्तं च' लिखकर समयसार कलश के पद्य नं0 68,
६९, १३१, १८३, २३५, २३६, तथा २४७ (कुल ७ पद्य) उद्धृत हैं ।
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