________________
४२४ 1
[ प्राचार्ग अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व अब यहाँ एक रौद्र रस का उदाहरण प्रस्तुत है, जिसमें वे लिखते हैं कि बंध के कारण रूप रागादि के उदय को निर्दयता पूर्वक विदारण करती हुई, उस रागादि के कार्य को (अनेक प्रकार के बंध को) अब तत्काल दूर करके अज्ञानरूप अंधकार को नाश करने वाली ज्ञानज्योति भलीभाँति इस प्रकार सज्ज हुई है कि उसके विस्तार को अन्य कोई प्रावृत नहीं कर सकता । उनका मूल पद्य इस प्रकार है
रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां, कार्य बंधं विविधमधुना सद्य एव प्रशुद्य । ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं साधु सनद्धमेतत्,
तद्वद्यद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति ।।' इस तरह अमृतचन्द्र के वाङ्मय में जितने प्रकार के भी अंगभूत रस एकदित हुए हैं। सभी सही तत्यमा महारस के नाना प्राकार हैं । वास्तव में तो सर्वत्र एकमात्र प्रधान - अंगीरस के रूप में शांतरस ही स्फुरित है । इस तथ्य का उल्लेख स्वयं अमृतचन्द्र । एक स्थल पर किया है । यथा -
इदम ति 'भरान्नाकारं समं स्नपयन्। जगत्परिणतिमितो नानाकारेस्तवेश ! चकास्त्ययम् । तदपि सहज न्याप्तया रुन्धनवान्तर भावनाः।
म्फुरति परितोऽप्येकाकारश्चिदेकमहारसः ।। प्राचार्य अमृतचन्द्र का "चिदेकमहारसः" के भाव को व्यक्त करने वाला उक्त पद्य महाकवि भवभूति (ई. ७००) के उस पद्य की याद दिलाता है जिसमें उन्होंन "एको रस: करूणएव........" इत्यादि लिखा है तथा करूणरस को अपने नाटक उत्तररामचरितम का प्रमुख - अंगीरस तथा अन्य सभी को अंगरस निरूपित किया है । उन्होंने लिखा है कि पावर्त, बुबुद्, तरंग आदि एक जल के ही रूप हैं । अस्तु, अमृतचन्द्र के साहित्य में
१. २. ३.
समयसार कलश, पद्य १७६. लबुतात्वस्फोट - अ, २३, पद्म ६. उत्तररामचरित् ३/४५ "एको रस: करुण एवं निमित भेदाद,
भिन्नः पृथक् पृअमिवाश्रयते विवर्तान् । आवर्त छुन खुद तरंगम यान् विकारान्, अम्भो यथा सलिलमेघ तु तत्समग्रम् ।