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षष्ठ प्रध्याय
दार्शनिक विचार
दर्शन का अर्थ है देखना। वह दो प्रकार का है स्वयं को देखना तथा पर की । प्रथम आत्म-दर्शन तथा द्वितीय पर दर्शन । इस स्व व पर के यथार्थ दर्शन को सम्यग्दर्शन तथा प्रयथार्थ दर्शन को मिथ्यादर्शन कहते हैं । दर्शन विचार मूलक होता है अतः हेतु पूर्वक वस्तुस्वरूप की सिद्धि करते हुए यथार्थ का दिग्दर्शन कराना दर्शन का काम है । दार्शनिक विचारों के अन्तर्गत उन सभी सिद्धान्तों का परिज्ञान अपेक्षित है जिनका मोगा में महत्व है अथवा जिनके यथार्थ ज्ञान विना तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन नहीं होता । तीर्थकर सर्वज्ञ जिनेन्द्रों की दिव्यध्वनि में निहित आत्मदर्शन प्रथवा विश्वदर्शन परक गम्भीर रहस्यों का उद्घाटन गणधरों तथा महान आचार्यों द्वारा मौखिक तथा तत्पश्चात् लिखित रूप में होता रहा है । पदार्थनिक वन प्रमत द्वितीय दोषों में समाहित होकर होता कटा ह प्रथम तस्कंको बागमत द्वितीय को परमागम नाम ने अभिहित किया गया है । आगम या सिद्धांत विषयक परम्परा में ग्रात्मा का कर्मों तथा पर द्रव्यों से होने वाल विविध संबंधों का पर्याष्टिपरक संयोगी कथन है और परमागम में मुख्यरूप से शुद्धात्मस्वरूप अथवा शुद्धद्रव्यरूप निरूपक विवचन है। परमागम परम्परा के पुनरुद्धार तथा प्रकृष्ट प्रचारक के रूप में आचार्य श्रेष्ठ कुन्दकुन्द का नाम विश्रुत है। उनकी दार्शनिक विचारधारा को पुनरुज्जीवित परिपुष्ट तथा व्यापक बनाने बान आचार्यों में अग्रणी याचार्य अमृतचन्द्र हैं जिन्होंन एक ओर टीकाग्रंथों की सृष्टिकर परमागम संबंधी दार्शनिक विचारों को प्रस्पष्ट रूप से प्रकट किया तथा दूसरी ओर मौलिक ग्रंथों के प्रणयन द्वारा श्रागम तथा सिद्धांत परम्परा की सुरक्षा भी की। उनके द्वारा प्रदर्शित दार्शनिक विचारों को यहां विभिन्न प्रकरणों के माध्यम से स्पष्ट किया जा रहा है ।