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दार्शनिक विचार ।
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ही होती है तथापि उस में भेद करके कथन करना सद्भूत व्यवहार नय की कथन शैली है। इस शैली का प्रयोग अनंतवत्मिक अभेद प्रखण्ड एक वस्तु बरूप का परमार्थ को न जानने वाले शिष्यों को समझाने के लिए किया जाता है। उक्त अभिप्राय को व्यक्त करते हुए प्राचार्य अमृतचन्द्र लिखते हूँ कि वास्तव में तो एकमात्र ज्ञायक प्रात्मा के बंधपर्याय विषयक अशुद्धता तथा दर्शन ज्ञान चारित्र रूप भेद भी विद्यमान नहीं है तथापि अनंत धर्मात्मक एक धर्मी को न जानने वाले अनिष्णात निकटवर्ती शिष्यों को, धर्म तथा धर्मी के अभेद होने पर भी, धर्मा को समझाने वाले धर्मों के द्वारा अभेद वस्तु में भी भेद उत्पन्न कर व्यवहार मात्र से ऐसा कथन किया जाता है कि ज्ञानी के ज्ञान, दर्शन तथा चारिम्न हैं, परन्तु परमार्थ से पण्डित (ज्ञानी) पुरुष के अनंत धर्मात्मक एक वरतु का स्वभाव अनुभव होने से उक्त दर्शन ज्ञान चारित्रादि भेद नहीं है । एकमात्र शुद्ध ज्ञायक प्रात्मा ही अनुभत है।' इस प्रकार स्पष्ट है कि उक्त कथन सदभत व्यवहार नय के आश्रम से ही किया है क्योंकि गुण-गुणी में अभेद होने पर भी भेदोपचार करना सद्भत व्यवहार नय है ऐसा ग्रागमोक्त है।' असदभूत व्यवहार नय :
भिन्न वस्तुओं में अभिन्नपने का उपचार करना असद्भूत व्यवहार नय है। अथवा भेद होने पर भी अभेदपन का उपचार करना प्रसद्भूत व्यवहार नय कहलाता है। उक्त व्यवहार को सत्यार्थ मान लेने वाले जीवों को अमृतचन्द्र न अज्ञानी अथवा नय विभाग ज्ञान से मनभिज्ञ रहकर उक्त नय के आश्रय से किये जाने वाले कथनों का अभिप्राय स्पष्ट किया है। एक स्थल पर वे लिखते हैं कि 'जो प्रात्मा है, वही शरीर है या पुद्गलद्रव्य है" ऐसा वस्तु स्वरूप नहीं है । नय विभाग से अनभिज्ञ अज्ञानी की ऐसी मान्यता है। नय विभाग की स्पष्ट मर्यादा इस प्रकार है - जैसे लोक में सोने और चांदी को गलाकर एक कर देने में एक पिण्ड का व्यवहार होता है, उसी प्रकार यात्मा और शरीर को परस्पर एक क्षेत्र में रहने वाली अवस्था के होने से एकपन का व्यवहार होता है। ऐसे व्यवहार में प्रात्मा और शरीर का एकपना कहा जाता है परन्तु निश्चय मे एकपना नहीं है ।
५. समयसार गा. ७ यात्मख्याति दीका । २. निरूपाधि गुणगुनोभेंदविषयोऽनुपचरित सद्भूत व्यवहारो
ग्राला पद्धति सम नं. २२५. ३. व. द्र. सं.-गा. ३ की दीका ।