SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० ] [ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व नाम "पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' पुकारना ही इष्ट था क्योंकि इस बात का उल्लेख उन्होंने स्वयं ही ग्रन्थारम्भ में किया है। वे लिखते हैं - तीनलोक संबंधी पदार्थों को प्रकाशित करने वाले अद्वितीय नेत्र स्वरूप उत्कृष्ट जैनागम को प्रयत्नपूर्वक जानकर - हृदयंगमकर हमारे द्वारा विद्वानों के लिए बड़ "पुरुषार्थसिद्भयपाश'' एश सद्धार - प्रस्तुत किया जाता है।' "पुरुषार्थसिद्धयुपाय" पद में पुरुष, अर्थ, सिद्धि व उपाय ये चार उपपद हैं जिनका अर्थ है - आत्मा के प्रयोजन की सिद्धि या प्राप्ति का उपाय । वास्तव में जब आत्मा सर्वत्र वार के विभावों से पार होकर अपने अचल चैतन्यस्वरूप को प्राप्त करता है, तब सम्यक प्रकार से पूरुषार्थ के प्रयोजन की सिद्धि प्राप्ति करता है तथा कृतकृत्य होता है। इस तरह अमृतचन्द्र स्वयं अपने ग्रन्थ में 'पुरुष' का अर्थ "चैतन्यस्वरूप आत्मा" घोषित करते हैं। उस चैतन्य प्रात्मा का प्रयोजन मोक्ष है । मोक्ष की प्राप्ति का उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र की एक साथ प्राप्ति होना है। इसका भी निर्देश उन्होंने एक स्थल पर किया है। वे लिखते हैं - "विपरीत अभिप्राय का नाश करके अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त करके. निजस्वरूप को यथार्थरूप से जानकर के अर्थात् सम्यग्ज्ञान करके तथा उस स्वरूप में अविचल - स्थिर होना अर्थात सम्यक् चारित्र प्रगट होना ही पुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय है। इस तरह अन्थ का पुरुषार्थसिद्ध्यपाय नाम उचित एवं सार्थक प्रतीत होता है। कतृत्व - उक्त ग्रन्थ के प्रणेता के विषय में आद्यन्त कभी किसी को भी विप्रतिपत्ति नहीं हुई। पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय आचार्य अमृतचन्द्र की मौलिक रचना निर्विवाद सिद्ध है। अमृतचन्द्र के समकालीन तथा उत्तरकालीन सभी ग्रन्धकारों ने उक्त कृति को आचार्य अमृतचन्द्र कृत निरूपित किया है। १, लोकत्रयकनेयं निरूप्म गरमागमं प्रयत्नेन । अस्माभिरूपोदध्रियते विदुषां पुरुषार्थसिद्ध युपायोऽयम् । पु.सि.उ., पद्म क्रमांक ३ २. सर्व विवर्तोत्तोर्ण यदा स बसन्यमलमाप्नोति । भवति तदा कृतकृत्यः सम्यनपुरुषार्थसिद्धिमापन्न ।। पु.सि.उ., पद्य क्रमांक ११ ३. "मस्ति पुरुषश्चिदात्मा", पुरुषार्थ सिद्ध गुपाय, पय क्रमांक : ४, बिपरीताभिनिवेशं निरस्य सभ्यग्म्यवस्म निजतत्त्वम् । पतस्मादबिवलनं स एव पुरुषार्थसिद्ध युपायोऽयम् ।। .सि.उ.,पय क्रमांक१५
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy