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| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
परम्परा :
तत्त्वार्थसार ग्रंथ में तत्रार्थसूत्र में वर्णित सिद्धांतों का ही विशदीकरण एवं स्पष्टीकरण हुआ है। आचार्य उमास्वामी के अनुवर्ती प्रकलंकदेव, विद्यानंद यादि भाष्यकारों की ही निरूपण परम्परा तत्त्वार्थसार में प्रवहमान पाते हैं | आचार्य अमृतचन्द्र ने सूत्रगत भावों को पद्य के रूप में प्रस्तुत करके सूत्रार्थ को जहाँ एक ओर प्रतिव्यक्ति प्रथम की है यही दूसरी ओर सूत्रार्थंगत भावों की महिमा भी प्रदर्शित की है तथा अपनी कवित्व शक्ति द्वारा तत्व निरूपण में भी सरसता पैदा की है ।
प्रणाली :
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जिनागम में तस्वनिरूपण की दो शैलियाँ है । प्रथम है प्राच्य शैली जो प्रयोग द्वार के माध्यम से तत्व निरूपण करती है तथा दूसरी है अध्यात्म शैली जो तत्र निरूपण सीधे सरल तरीके से करती है तथा इस शैली में अध्यात्म का वर्णन प्रमुख होता है । तन्वार्थसार में आचार्य श्रमृतचन्द्र ने आचार्य पुष्पदंत भूतबलि द्वारा प्रसारित प्राच्य शैली को अपनाया है । उन्होंने उमास्वामी की सूत्रशैली का भी अनुकरण किया है । इन दोनों शैलियों (प्राच्य तथा सूत्र शैली को करणानुयोग प्रमुख शैलियाँ कह सकते हैं । ग्रन्थ वैशिष्ट्य :
2.
२.
इस ग्रन्थ के निम्नलिखित वैशिष्ट्य हैं :
संक्षेप में कथन करके गहन भावों को स्पष्ट करना । सिद्धांत का सर्वांगीण तत्व निरूपण किया जाना ।
तत्त्वार्थसार की उपलब्ध पाण्डुलिपियाँ :
१.
ई. सन् १५२७, टीकाकार - अमृतचन्द्र, लिपि - संस्कृत जानकारी
स्रोत- जिनरत्नकोश, बैलंकर पृ. १५३ ।
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ई. म १५८२ टी. अमृतचन्द्र, लिपि संस्कृत, जाः स्रांत - रा. जैघा. भ सु. भाग ५.४३
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ई.
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टी. अमृतचन्द्र लिपि - संस्कृत जा. स्रोत रा.
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शा. म. सू. भाग ३:१७६ ।
"टी. - ग्रमृतचन्द्र लिपि संस्कृत जा. त्रो बा. भ. सु. भाग २२ । तत्त्वार्थसार के विभिन्न प्रकाशन :
?. ग्रं. तस्वार्थसार, टीकाकार सं. पं. बंशीधर शास्त्री, प्रकाशक भा. जै. सि. प्र. संस्था कलकत्ता: सन् १६१६ भाषा संस्कृत प्रतियों ७५०१ उपलब्ध |
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रा. जै.