________________
दार्शनिक विचार ]
। ४६५
का विधिलिंक का अन्य पुरुष एकवचन का रूप नहीं है अपितु स्यात् पद अव्यय या निपात शब्द है। जिसका विशिष्ट प्रथं "किसी अपेक्षा या कथंचित् ।
"स्यात्'' पद संशयवाची 'शायद" अर्थ का सूत्रक भी नहीं है अपित निश्चित, किसी एक प्रक्षिा का प्रकाशक एवं निर्णायक है। इसलिए स्यात् पद के साथ "एव' पद का प्रयोग भी होता है जो दृढ़ता का सूचक है, संशय का नहीं । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट किया है कि अनंतधमा वाले द्रव्य के एक एक धर्म का प्राश्रय लेकर विवक्षित तथा अविवक्षित रूप विधि-निषेध के द्वारा गप्तभंगी प्रकट होती है, ऐसी सप्तभंगमयी वाणी का निरन्तर मम्यक रूप से उपचार किये जा , सलारस नोगमं पद के द्वारा, "एव" कार में रहने वाले समस्त विरोध रूप विष के मोह को दूर किया जाता है । इस प्रकार स्यात् पद का निहित अर्थं एवं माहात्म्य स्पष्ट हो जाता है । जिस प्रकार विभिन्न देशों में प्रचलित सिक्कों पर उस देश की निर्धारित मुद्रा अपित होती है उससे सिक्के की दशोयता तथा सत्यता प्रमाणित होतो है, उसी प्रकार जिनेन्द्र की वाणी भी स्यात् पद की मुद्रा से अंकित होती है। अथवा जनश्रुत या जिनवाणी को पहिचान ही स्यात् पद है। उससे वाणी की सत्यता प्रमाणित होती है । अमृतचन्द्र के स्यात पद एवं स्याद्वाद विषयक उक्त विचार पुर्वाचायों की तर्कणा एवं दार्शनिक विचारणा के हो निम्वन्द हैं। प्राचार्य समन्तभद्र ने भी स्यात् पद को अव्यय (निपात) अर्थ में प्रयुक, अनेकात का द्योतक तथा विवक्षित (बोध्य) अर्थ का बोधक लिखा है। साथ ही उसे सर्वथा एकांत
...चानन्तवमोगा द्रव्य स्वर चममाश्रित्य विवक्षिताविवक्षितविधि प्रतिषेशभ्यामतरत्तो नभदायमाविनामधान्नसमुच्चामाणस्यात्कारामो-घ मन्नपदन ममस्तमणि विप्रतिपंधविषमोहमुदस्यति ।"
__ -प्रवचनसार गाय! ११५ जात. प्र. टीका २. वह किल सकलोद्भासिस्या:पद मुद्रित शाद ब्रह्मोपास नजन्मा ......."
-समवसार गा. '५ की टीका ३. स्वस्ति स्याद्वाद मुद्रिताय जैनेन्द्राय शब्दब्रह्मणे प्रवचनसार गा १२ की टीका ४. वाक्येष्वनेकांतद्योनी गम्यं प्रति विशेषणम् । न्याटिपातेऽर्थ योगित्वात्तः कलिनामपि ॥
-देवागम स्तोत्र, अपरनाम थालमीमासा ।