Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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प्रथमोऽध्यायः
निमित्त सूचक हैं। इनके पतन के आकार-प्रकार, दीप्ति, दिशा आदि से शुभाशुभ का विचार किया जाता है। द्वितीय अध्याय में इसके फलादेश का निरूपण किया जायेगा।
परिवेष—“परितो विष्यते व्याप्यतेऽनेन' अर्थात् चारों ओर से व्याप्त होकर मण्डलाकार हो जाना परिवेष है। यह शब्द विष धातु से धञ् प्रत्यय कर देने पर निष्पन्न होता है। इस शब्द का तात्पर्य यह है कि सूर्य या चन्द्र की किरणें जब वायु द्वारा मण्डलीभूत हो जाती हैं तब आकाश में नाना वर्ण आकृति विशिष्ट मण्डल बन जाता है, इसी को परिवेष कहते हैं। यह परिवेष रक्त, नील, पीत, कृष्ण, हरित आदि विभिन्न रंगों का होता है और इसका फलादेश भी इन्हीं रंगों के अनुसार होता है।
विधुत-"विशेषेण द्योतते इति विद्युत्' धुत धातु से क्यप् प्रत्यय करने पर विद्युत शब्द बनता है। इसका अर्थ है बिजली, तडित, शम्पा, सौदामिनी आदि । विद्युत के वर्ण की अपेक्षा से चार भेद माने गये हैं- कपिला, अतिलोहिता, सिता
और पीता। कपिल वर्ण की विद्युत होने से वायु, लोहित वर्ण की होने से आतप, पीत वर्ण की होने से वर्षण और सित वर्ण की होने से दुर्भिक्ष होता है। विद्युत्पति का एकमात्र कारण मेध है। समुद्र और स्थल भाग की ऊपर वाली वायु तडित् उत्पन्न करने में असमर्थ है, किन्तु जल के वाष्पीभूत होते ही उसमें विद्युत उत्पन्न हो जाती है। आचार्य ने इस ग्रन्थ में विद्युत द्वारा विशेष फलादेश का निरूपण किया है।
अभ्र-आकाश के रूप-रंग, आकृति आदि के द्वारा फलाफल का निरूपण करना अभ्र के अन्तर्गत है। अभ्र शब्द का अर्थ गगन है। दिग्दाह-दिशाओं की आकृति भी अभ्र के अन्तर्गत आ जाती है।
सन्ध्या--दिवा और रात्रि का सन्धिकाल है उसी को सन्ध्या कहते हैं। अर्द्ध अस्तमित और अर्द्ध उदित सूर्य जिस समय होता है, वहीं प्रकृत सन्ध्या काल है। यह काल प्रकृत सन्ध्या होने पर भी दिवा और रात्रि एक-एक दण्ड सन्ध्याकाल माना गया है। प्रात: और सायं को छोड़कर और भी एक सन्ध्या है, जिसे मध्याह्न कहते हैं। जिस समय सूर्य आकाश मण्डल के मध्य में पहुँचता है, उस समय