Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहु संहिता
१०
निमित्त ज्ञान में उपग्रह सम्बन्धी उल्का विचार नहीं होता है। इसमें आकाश से पतित होने वाले तारों का विचार किया जाता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने उल्का के रहस्य को पूर्णतया अवगत करने की चेष्टा की है। कुछ लोग इसे Shooting Stars टूटने वाला नक्षत्र, कुछ Fire Balls अग्नि- गोलक और कुछ इसे Astervids उप-नक्षत्र मानते हैं। प्राचीन ज्योतिषियों का मत है कि वायुमण्डल के ऊर्ध्वभाग में नक्षत्र जैसे कितने ही दीप्तिमान पदार्थ समय-समय पर दिखाई पड़ते हैं और गगनमार्ग में द्रुत वेग से चलते हैं तथा अन्धकार में लुप्त हो जाते हैं। कभी-कभी कतिपय वृहदाकार दीप्तिमान पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं पर वायु की गति से विपर्यय हो जाने के कारण उनके कई खण्ड हो जाते हैं और गम्भीर गर्जन के साथ भूमितल पर पतित हो जाते हैं। उल्काएँ पृथ्वी पर नाना प्रकार के आकार में गिरती हुई दिखलाई पड़ती हैं। कभी-कभी निरभ्र आकाश में गम्भीर गर्जन के साथ उल्कापात होता है। कभी निर्मल आकाश में झटिति मेघों के एकत्रित होते ही अन्धकार में भीषण शब्द के साथ उल्कापात होते देखा जाता है। यूरोपीय विद्वानों की उल्कापात के सम्बन्ध में निम्न सम्मति है—
(१) तरल पदार्थ से जैसे धूम उठता है, वैसे ही उल्का सम्बन्धी द्रव्य भी अतिशय सूक्ष्म आकार में पृथ्वी से वायुमण्डल के उच्चस्थ मेघ पर जा जुटता है और रासायनिक क्रिया से मिलकर अपने गुरुत्व के अनुसार नीचे गिरता है।
(२) उल्का के समस्त प्रस्तर पहले आप्रेय गिरि से निकल अपनी गति के अनुसार आकाश मण्डल पर बहुत दूर पर्यन्त चढ़ते हैं और अवशेष में पुनः प्रबल वेग से पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं।
(३) किसी-किसी समय चन्द्रमण्डल के आय गिरि से इतने वेग में धातु निकलता है कि पृथ्वी के निकट आ लगता है और पृथ्वी की शक्ति से खिचकर नीचे गिर पड़ता है।
(४) समस्त उल्काएँ उपग्रह हैं। ये सूर्य के चारों ओर अपने-अपने कक्ष में घूमती हैं। इनमें सूर्य जैसा आलोक रहता है । पवन से अभिभूत होकर उल्काएँ पृथ्वी पर पतित होती हैं। उल्काएँ अनेक आकार-प्रकार की होती हैं।
आचार्य ने यहाँ पर दैदीप्यमान नक्षत्र - पुञ्जों की उल्का संज्ञा दी है, ये नक्षत्रपुञ्ज