Book Title: Hindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Author(s): Premsagar Jain, Kaka Kalelkar
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. - The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन-भक्ति काल्य और कवि डॉ० प्रेमसागर जैन प्राक्कथन आचार्य काका कालेलकर भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ लोकोदय-ग्रन्थमाला : ग्रन्थांक-१८९ सम्पादक एवं नियामक : लक्ष्मीचन्द्र जैन HINDI JAIN BHAKTI-KAVYA AUR KAVI ( Thesis) Dr. PREMSAGAR JAIN Bharatiya Jnanpith Publication First Edition 1964 Price Rs. 12.00 (C) प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ प्रधान कार्यालय १६ अलीपुर पार्क प्लेस, कलकत्ता-२७ । प्रकाशन कार्यालय दुर्गाकुण्ड रोड, वाराणसी-५ विक्रय केन्द्र ३६२०।२१ नेताजी सुभाष मार्ग, दिल्ली-६३ प्रथम संस्करण १९६४ मूल्य बारह रुपये * संशधित - - सन्मति मुद्रणालय, वाराणसी-५ . Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन हमारे देशमें वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध, जैन, लिंगायत, सिख आदि धर्मके अनेक पन्थ प्रसिद्ध है। मेरे मन ये केवल धर्म पन्थ नहीं है, ये तो अध्यात्मप्रवण संस्कृतिकी अलग-अलग धाराएँ भी है। इनके दार्शनिक विचार और विचारभेदका अध्ययन करके हमें सन्तोष नहीं मानना चाहिए। मानवी जीवनको विशुद्ध, समृद्ध और कृतार्थ करनेके इन विविध और जीवनव्यापी प्रयत्नोंका अध्ययन हमें संस्कृतिको दृष्टि से भी करना चाहिए। तब जाकर इन महान् पन्थोंको मानव-सेवाका हमे यथार्थ खयाल आयेगा। ऐसे अध्ययनके लिए केवल दार्शनिक ग्रन्थोंका परिचय और इन पन्थोंके संस्थापकोंकी और उनके प्रचारकोकी जीवनियां तो महत्त्वकी है ही। इन पन्थोंका और इनकी शाखा-प्रशाखाओंका इतिहास भी हमे देखना होगा। और इससे भी अधिक महत्त्वको बात इन पन्थोके कवियोने अपनी कविताके द्वारा जीवनकी जो उपासना को है और हृदयको जो समृद्धि हासिल की है और करवायी है उसका भी गहरा और हार्दिक अध्ययन होना चाहिए। ____ इन पन्थोंके बारेमे और एक महत्त्वकी बात है । इनके साधुओंने, प्रचारकोंने और कवियोंने अपने-अपने पन्थका जीवन जीते जो नये-नये क्षेत्र ढूँढ़े और उनके द्वारा जीवनका जो विपुल साक्षात्कार किया, उसका महत्त्व मूल प्रेरणासे कम नहीं है । जिस तरह भाष्यकार और टीकाकार मूल ग्रन्थके रहस्यका उद्घाटन करते अपने नये-नये मौलिक विचार और अनुभव भी उसमे जोड़ देते है, उसी तरह हरेक पन्थका विवेचक, प्रचारक और कवि अपने-अपने पन्थकी जीवन दृष्टिमें अपनी ओरसे मौलिक वृद्धि भी करता है । यह हुआ हरेक व्यक्ति की जीवन-साधना-द्वारा होनेवाली सांस्कृतिक सेवा और समृद्धि । ___ इसके अलावा जब ऐसे पन्थोंका प्रचार भिन्न-भिन्न कोटिके और भिन्न-भिन्न योग्यताके नये-नये समाजमे होता है, तब मूल धार्मिक प्रेरणाको मानो नये-नये अवतार धारण करने पड़ते है। वैष्णवोंने अथवा शाक्तोंने जब आदिवासियोंमें धर्मप्रचार चलाया, तब उन लोगोके जीवन-स्तरका विचार करके और उनकी जीवन-दृष्टिके साथ समझौता करके इन पन्थोंकी समन्वय-दृष्टिको उन्हें स्वीकार करना पड़ा। हीनयान बौद्ध सम्प्रदायके अभिमानी लोग भले ही कहे कि हमारा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि बुद्धधर्म ही शुद्ध है, और देश-विदेशमे फूला फला महायान पन्थ तरह-तरहकी मिलावटके कारण अशुद्ध है; मै तो कहूंगा कि महायान सम्प्रदाय असली बौद्धधर्मका ही मानवताके अनुकूल विशाल समृद्ध स्वरूप है। गंगा नदीके उद्गमका माहात्म्य स्वीकारते हुए हम कभी नही कहेंगे कि गंगोत्रीके बादकी, हरद्वारके बादकी, या प्रयागके बादकी गंगा गंगा ही नहीं। गंगाका सच्चा माहात्म्य यही है कि गंगोत्रीसे लेकर गंगासागर तक उसके सुदीर्घ प्रवाहमे जितने भी जीवनप्रवाह आ मिले, उन सबको उसने अपनाया और उन्हें अपने नामरूप तक सब प्रदान किया। हम थोडे ही कहते हैं कि हमारा बचपनका जीवन ही हमारा शुद्ध जीवन था और बादका जीवन अशुद्ध जीवन है । वैदिक धर्म बढते-बढ़ते उसका सनातन धर्म हुआ । आगे जाकर वही हिन्दू धर्म हुआ। अब वह धीरे-धीरे भारतीय धर्म होने जा रहा है और जबतक वह विश्वधर्म नहीं हुआ है, उसमे अलम् बुद्धि आनेवाली नहीं है। इस भारतीय धर्ममें से अनेक पन्थ निकले। शाखाके रूपमें उनका जीवन-प्रवाह अलग बहने लगा और उनमें से अनेक फिरसे मूल स्रोतमें बा मिले। यही बात सब धर्मोकी है । और अब तो कमसे कम भारतमें, सब धर्म एकत्र आये हैं और आदान-प्रदान-द्वारा इनका समन्वय होनेवाला ही है। भारतमें बसे हुए सब धर्मोक और पन्थोंके बीच आदान-प्रदान चलता ही आया है । इसीलिए तो हमारा सांस्कृतिक जीवन इतना सहिष्णु और समृद्ध हुआ है। ___ मेरे मन इन सब पन्थोंमें सबसे अधिक शक्ति है भक्तिकी। भक्तिकी दीक्षा सब पन्थोंको लेनी पड़ी है। ऐसा एक भी धर्म या पन्थ नहीं है जो भक्तिसे मुक्त रहा है। 'ज्ञानादेव तु कैवल्यम्' कहनेवाले अद्वैतवादी ज्ञानमार्गी संन्यासी शंकराचार्यको भी कहना पड़ा, 'मोक्षकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी।' फिर तो उन्हें भक्तिकी अपनी व्याख्या भी करनी पड़ी, 'स्वस्वरूपानुसंधानं भक्तिरित्यभिधीयते ।' ज्ञानमार्गी जैनियोंको भी भक्तिकी दिशा में अपना जीवन पन्थ बहाना ही पड़ा। सचमुच भक्ति ही जीवन है । नदीका सापरके तरफ़ बहना, जीवका शिवको ओर अखण्ड चलनेवाला आकर्षण, 'सोमा'का परिपुष्ट होकर 'भूमा में समा जाना, यही तो भक्ति है । जो बहता नहीं और बढ़ता नहीं वह जी नहीं सकता। और भक्ति तो अखंण्ड बढ़नेवाली रसमय प्रवृत्ति है । बहनेवाली नदियाँ जिस समुद्र में जाकर मिलती है, उस समुद्रको न बढ़ना है, न घटना है, तो भी उसमें ज्वारभाटाकी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकथन लीला चलती है । और किसी भी नदीके प्रवाहकी अपेक्षा स्वयं समुद्रके अन्त:प्रवाह अधिक वेगवान् और समर्थ होते हैं । साहित्यकी ओर देखते कहना पड़ता है कि जीवनका चैनन्य साहित्य में भी सबसे अधिक सामर्थ्य से व्यक्त होता है उसकी कवितामें । क्योंकि सच देखा जाये तो 'हृदयकी सिद्धि' ही काव्य है । इतना स्पष्ट होनेके बाद अलग कहनेकी जरूरत ही नहीं है कि भक्ति-काव्यमें ही उस उस पत्थकी जीवनसिद्धिका उत्तम परिचय पाया जाता है। उसमे भी हृदयधर्मकी निष्ठा जिसे पूर्णरूपसे मिली है, उस नारी जातिके भक्ति काव्यका तो पूछना ही क्या । जीवनसे सम्बन्ध रखनेवाली अन्य बातोंसे स्त्रियोंका परिचय भले ही कम हो, साहित्यको चातुरी भी भले उनमें कम हो, ज्ञानचचमें उनकी तनिक भी दिलचस्पी न हो, किन्तु हृदयोके भावोंके साथ एकनिष्ठ रहना, उन भावोंके चरणोंमे अपने जीवनका पूर्णतया अर्पण करना उनके लिए स्वाभाविक है । आराध्य देवकी उपासना करते अपनेको भूल जाना और सर्वार्पणमें ही सन्तोष मानना, यह है स्त्रीप्रकृति । जैन जीवनदृष्टिने जिनेन्द्र आदि चाहे सो नाम पसन्द किया हो, अपनी जीवननिष्ठा आत्मतत्त्वको ही अर्पण को है । और सब साधक जानते है कि उपासनाका रूप कुछ भी हो, आत्मार्पण तो आत्मदेवको ही हो सकता है । भगवान्‌के नाम अनन्त हैं लेकिन सच्चा नाम तो अन्तरतम यानी आत्माराम ही है। इस आत्मदेवकी भक्ति सर्वभावेन करते जिसको जो रास्ता मिला, उसने अपनाया है । 1 श्री प्रेमसागरजीने जैन भक्ति काव्यके सागरमे अनेक बाजूसे डुबकियाँ लगायी हैं और जो मोतो उन्हे मिले, हमारे सामने रखे है । अपनी पहली किताब जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमिमे पाठकके लिए और रसिकोके लिए उन्होंने पूर्व तैयारी की है । अब इस ग्रन्थमे उन्होंने भावकी दृष्टिसे और कलाको दृष्टिसे अनेकानेक जैन कवियोंका और कवयित्रियोंका परिचय करवाया है। मैं तो मानता हूँ कि काव्य और भक्ति, ये दोनों क्षेत्र ही ऐसे सार्वभौम हैं अथवा सागरोपम है कि इनमे पन्थभेदोंका लोप ही हो जाता है । गोपियोंकी मधुरा भक्ति राम उपासना भी पहुँच गयी और वीतरागीकी भक्ति में भी उसने अपनी प्रधानता साबित की है । धर्मके पन्थोंमें और जीवनकी संस्कृतियोंमें चाहे जितने भेद हों, जीवन तो एक अखण्ड, सम्पूर्ण और भूमा होता है । सब दर्शनोंको नम्र होकर जीवनसे ही दीक्षा लेनी पड़ती है और जीवनकी उपासना करनी पड़ती है। जिस तरह सागरमें सब तीर्थ समाये जाते हैं, उसी तरह सब देवता जीवन देवताकी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि et free- free विभूतियाँ साबित होती है । कविताने और भक्तिने अपनी निष्ठा जीवनदेवताको हो अर्पण की है । इसीमें उनकी कृतार्थता है । श्री प्रेमसागरजीने गहरे संशोधनके बाद पूरी विद्वत्ता के साथ यह ग्रन्थ लिखा है । उसके लिए वे सबके धन्यवादके अधिकारी है । हम आशा करते है कि अब वे इस सारे महाप्रयास के फलस्वरूप जैन भक्ति-काव्यका स्वादिष्ट और पौष्टिक मक्खन निकालकर आजकी भाषामे भेंटके स्वरूप देंगे । सन्निधि राजघाट २३ जनवरी, १६६४ - काका कालेलकर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका यह मेरे शोध-प्रबन्धका दूसरा खण्ड है। पहला खण्ड 'जैन भक्ति-काव्यकी पृष्ठभूमि' के नामसे प्रकाशित हुआ है। उसमे पांच अध्याय है : जैन भक्तिका स्वरूप, जैन भक्तिके अंग, जैन भक्तिके भेद, आराध्य देवियाँ और उपास्यदेव । इनके आधारपर जैन भक्तिको प्राचीनतम मान्यता स्थापित की गयी है। वही परम्पराके रूपमें मध्यकालीन हिन्दीके जैन भक्त कवियोंको प्राप्त हुई । जैन ही नही, अन्य भक्तिकाव्य भो उसके प्रभावसे अछूता न बच सका। सन्त-काव्यपर उसकी स्पष्ट छाप है। __वैसे तो कबीरदासको भूख सर्वग्रासी मानी जाती है, किन्तु नाथसम्प्रदायसे उनका विशेष सम्बन्ध था। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीके अनुसार, उस समय प्रचलित बारह सम्प्रदाय, नाथसम्प्रदायमे अन्तर्मुक्त हुए थे। उसमे 'पारस' और 'नेमि' सम्प्रदाय भी थे । नेमि सम्प्रदाय जैनोंके बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथके नामपर प्रचलित था। वह समूचे दक्षिण भारतमें फैला था। उसके ध्वंसावशेष अबतक मिलते हैं। 'पारस सम्प्रदाय' तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथसे सम्बद्ध था। उसका समूचे उत्तरी भारतमें प्रसार था। इस प्रकार कबीर जाने या अनजाने एक ऐसी लहरका स्पर्श पा सके थे, जो अनेकान्तात्मक थी। उनकी 'निर्गुण' मे 'गुण' और 'गुण' में 'निर्गुण'वाली बात ऐसी ही थी। निर्गुणका अर्थ है गुणातीत और गुणका अर्थ है प्रकृतिका विकार-सत्त्व, रज और तम । संसार इस विकारसे संयुक्त है और ब्रह्म उससे रहित । किन्तु कबीरदासने विकार-संयुक्त संसारके घट-घटमें निर्गुण ब्रह्मका वास दिखाकर सिद्ध किया है कि 'गुण' 'निर्गुण' का और 'निर्गुण' 'गुण' का विरोधी नही है। उन्होंने 'निरगुनमे गुन और गुनमे निरगुन' को ही सत्य माना, अवशिष्ट सबको धोखा कहा। ___ कबीरसे बहुत पहले, विक्रमको सातवी शतीमें, इसी निर्गुणको 'निष्कल संज्ञासे अभिहित किया गया था। फिर सभी अपभ्रंश काव्योंके रचयिता कवि उसे "निष्कल' ही कहते रहे। मुनि रामसिंहने उसे एक स्थानपर 'निर्गुण' भी कहा है । उसका अर्थ किया है : निलक्षण और निःसंग । वह निष्कलसे मिलता-जुलता है । जिस प्रकार कबीरका निर्गुण ब्रह्म भीतरसे बाहर और बाहरसे भीतर तक फैला है । वह अभावरूप भी है और भावरूप भी, निराकार भी है और साकार भी । द्वैत भी है और अद्वैत भी। ठीक इसी प्रकारको बात अपभ्रंशके जैन कवि Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि निष्कल ब्रह्मके विषयमे लिख चुके थे। योगीन्द्रने शरीरके सान्निध्यकी अपेक्षा ब्रह्मको साकार कहा, उसे ही 'पंचविघशरीररहितः' लिखकर निराकार भी माना । उनका ब्रह्म देहमें बसते हुए भी देहसे अस्पर्य है, जसु अब्मंतरि जगु बसइ, जग अब्मंतरि जो जि।' मुनि रामसिंहने भी दोहापाहुडमे लिखा है, 'तिहुयणि दीसह देउ जिण, जिणवरि तिहुवणु एउ।' जब वे ब्रह्माको संसारमें बसा बताते है, तो द्वैतकी बात कहते है और जब संसारको ब्रह्ममे बताते है; तो अद्वैतकी चर्चा करते है। वे द्वैतको मानते है और अद्वैतको भी । उनका यह 'द्वैताद्वैत' कबीरकी मस्तीमे स्पष्ट झलकता है। कबीर न द्वैतके घेरेमे बंधनेवाले थे और न अद्वैतके। यह अनेकान्तात्मक प्रवृत्ति मध्यकालीन जैन हिन्दी-काव्यमे अधिकसे अधिक देखी जाती है । वहां एक ही ब्रह्मके भावाभाव, विरोधाविरोध, गुप्तागुप्त, भिन्नाभिन्न, एकानेक, व्याप्ताव्याप्त, मूर्त्तामूर्त आदि अनेक रूप दृष्टिगोचर होते हैं । उनका विवेचन दार्शनिक न होकर अनुभूतिपरक है। उनमें चिन्मयता है और हृदयको विभोर बना देनेवाली शक्ति भी। ब्रह्मके साकार और निराकार रूपको लेकर. एक बार गरु-शिष्यमें रोचक वार्तालाप हुआ। शिष्यने पछा. "निराकार जो ब्रह्म कहावै, सो साकार नाम क्यों पावे । 'ज्ञेयाकार ज्ञान जब ताई, पूरन ब्रह्म नाहिं तव ताई।' प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। जो ब्रह्म निराकार है, वह साकार कैसे कहला सकता है। और ज्ञान जबतक 'ज्ञेयाकार है, पूर्ण ब्रह्म नही हो पाता । आचार्यने उत्तर देते हुए कहा, 'जैसे चन्द्रकिरण प्रकट होकर भूमिको श्वेत बना देती है, किन्तु कभी भूमि-सी नहीं होती, ज्योति-सी ही रहती है । ठीक वैसे ही ज्ञानशक्ति हेयोपादेय दोनों प्रकारके पदार्थोंको प्रकाशित करती है और 'ज्ञेयाकार-सी दिखाई देती है। किन्तु कभी-भी ज्ञेयको ग्रहण नहीं करती। ज्ञेयाकार-सी दिखाई देती है, अतः जेयपदार्थकी दृष्टिसे वह साकार कहलाती है, शुद्धरूपसे निराकार है ही।' आत्मस्वरूपके निरूपणकी यह पद्धति 'अध्यात्म बारह खड़ी में निखर उठी है, "निराकृतो च साकृतो विशेष भाव देव जो। रमापती जिनाधिपो शिवाधिपो अमेव जो॥ साकारो नाकार तू नाकारो साकार । दोय रूप राजे प्रभू एक रूप अविकार ॥ द्वै उपयोग जु तू धेरै साकारो निरधार । सही निराधारो तुही पुरिषाकार विथार ।" Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका मध्यकालीन जैन कवियोंने ब्रह्मके 'एकानेक'वाले रूपके गीत गाये। सबसे अधिक बनारसीदासने लिखा है कि नदीका प्रवाह तो एक हो है; किन्तु नीरकी ढरनि अनेक भाँतिकी होती है। वैसे ही आत्माका स्वरूप एक ही है, किन्तु पुद्गलके सम्भोगसे वह विभिन्न रूप धारण करता है। एक ही अग्नि तृण, काठ, बाँस, आरने और अन्य इंधन डालनेसे नाना आकृति धारण करती है, वैसे ही यह जीव नव तत्त्वमे बहुभेषी दिखाई देता है। उन्होने लिखा, "देखु सखी यह ब्रह्म विराजित, याको दसा सब याही को सोहै। एक में अनेक अनेकौ एक, दुंदु लिये दुविधा मह दो हैं। आपु संमार लखै अपनौ पद, आपु विसारि कै आपुहि मो है। व्यापक रूप यहै घट अन्तर, ग्यान में कोन अज्ञान में को है।" महात्मा आनन्दधनने कुण्डल और कनकका प्रसिद्ध दृष्टान्त देते हुए लिखा कि कुण्डल आदि पर्यायोमे अनेकरूपता होते हुए भी स्वर्णकी दृष्टि से एकता है । इसो प्रकार जल और तरंग, माटी और उसके बरतन, रविकिरण और उससे भासित अनेक वस्तु ब्रह्मके 'एकानेक' स्वभावको प्रकट करती है । सन्तकान्यकी अनेक प्रवृत्तियां जो अपभ्रंश और इससे भी पूर्ववर्ती प्राकृत ग्रन्थों में दिखाई देती हैं, उन सबके सांगोपांग विवेचनका यहाँ अवसर नहीं है । इतना स्पष्ट हो चुका कि 'निगुण-काव्य'के मूल स्रोतोंमें एक जैनधारा भी थी।मध्यकालीन हिन्दी जैन-काव्यको वह विरासतके रूपमें मिला था। इस युगके अनेक जैन कवि ऐसे हुए जो ख्यातिप्राप्त थे और सामर्थ्यवान भी। मैंने उनका यथास्थान उल्लेख किया है। उनकी निर्गुण सन्तोंसे तुलना अन्तिम अध्यायमे की गयी है। जहांतक हिन्दीको सगुण काव्यधाराका सम्बन्ध है वह मध्यकालीन जैन हिन्दी कवियोके तीर्थंकरभक्तिके रूपमें प्राप्त हुई। इस भक्तिका विशद विवेचन 'जैन भक्ति-काव्यकी पृष्ठिभूमि के दूसरे अध्यायमें हो चुका है। तीर्थकरका जन्म होता है, पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, राज्य-संचालन आदि कार्य परम्परानुमोदितरूपमें ही चलते हैं । वह स्वयं तप और ध्यानके द्वारा धर्मका प्रवर्तन करता है। उसकी आत्मा विशुद्धतम हो जाती है। आयुकर्मके क्षीण होनेपर उनका सम्बन्ध अन्तिम शरीरसे भी छूट जाता है। वह सिद्ध हो जाता है, जिसके न वर्ष होता है, न गन्ध, न रस, न शब्द, न स्पर्श, न जन्म और न मरण । यही है निर्वाण और निःसंग। तीर्थंकरको सगुण और सिद्धको निर्गुण ब्रह्म कहा जा सकता है। एक ही जीव तोर्थकंर और सिद्ध दोनों हो हो सकता है । अतः उनका नितान्त विभाजन सम्भव नहीं है । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि " प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंशमे शतशः जैन स्तुति स्तोत्रोंकी रचना हुई । विक्रमकी प्रथम शताब्दीसे यह प्रवाह सतत चलता रहा । इन स्तोत्रोंकी कोई उपमा नहीं। उनमें यदि एक और भक्ति रसके निर्झर है, तो दूसरी ओर काव्यसौष्ठवकी मन्दाकिनी । भक्त हृदयोकी वे पुकारें जैसे आज भी जीवित हों । मुक्तक काव्योंका यह रूप मध्यकालीन हिन्दीके जैन कवियोंने पदोंके रूपमें प्रतिष्ठित किया | हिन्दीका जैन पद काव्य एक पृथक् खोजका विषय है । अनेक कवियों ने पदोंकी रचना की । नयी-नयी राग-रागिनियोके परिवेशमे रचे गये उन पदोंकी अनूठी छटा है । उनमे भी 'भूधररास' - जैसा प्रसाद गुण कही उपलब्ध नही होता । सूरदासके साथ उनके पद- काव्यकी तुलना मैने की है । अच्छा हो यदि कोई अनुसन्धित्सु इसे अपनी शोधका विषय बनाये । हिन्दीके जैन प्रबन्ध काव्योके भक्तिपरक पहलुका मैने विवेचन किया है । उनमे राम और कृष्ण कथाएँ भी निबद्ध है । इसमे रामकाव्यके पीछे उसकी अपनी एक शानदार परम्परा थी। विमलसूरि (विक्रमकी पहली शती) का 'पउमचरिय' ( प्राकृत) एक सशक्त रचना मानी जाती है । विमलसूरिकी सबसे बड़ी देन है रामायणके पात्रोंका मानवीकरण । वाल्मीकिने तो उन्हे दिव्यरूप देकर इस सृष्टिसे दूर, बहुत दूर कर दिया था। राक्षस और वानर भय और आश्चर्यके प्रतीक बना दिये गये थे । विमलसूरिने उन्हें दूसरा रूप दिया, जिसपर इस दुनियाके लोग विश्वास कर सकें। दूसरी कृति है रविषेण (६७८ ई० ) का पद्मचरित्र । यह अत्यधिक लोकप्रिय बना । आज भी जैनोके घर-घरमें पढा जाता है। रवि ने स्पष्ट ही विमलसूरिका ऋण स्वीकार किया है। तीसरी रचना 'पउमचरिउ ' है । इसके रचयिता थे महाकवि स्वयम्भू । वे ईसाकी आठवी शताब्दी में हुए है । यह कृति भावोन्मेष और काव्य-सौष्ठवकी दृष्टिसे उत्तम है । स्थान-स्थानपर प्राकृत दृश्य बिखरे हुए है। सीताका शील-सना सौन्दर्य अप्रतिम है । वैसा रूप सिवा तुलसीदासके अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता । चौथी कृति संघदासगणीका 'वसुदेवहिण्डी' (६०९ ई० ) है । इसमे सीताको मन्दोदरीकी पुत्री माना गया है । आगे चलकर गुणभद्र ने अपने उत्तरपुराण (९वीं शती ईसवी) में इस मान्यताको पुष्ट किया । गुणभद्र एक सामर्थ्यवान् कवि थे । छठो रचना है पुष्पदन्तका महापुराण | उन्होंने गुणभद्रका अनुकरण किया, किन्तु उनका काव्य-सौष्ठव गुणसे आगे है । 'एक माने हुए कवि थे । मध्यकालीन हिन्दीमें, रविषेणके पद्मपुराणके अनुवाद बहुत रचे गये । वे केवल अनुवाद थे । उनमे न मौलिकता है और न काव्य-सौन्दर्य । केवल राम Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका चन्द्रका 'सीताचरित्र' एक ऐसी कृति है, जो भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियोंसे उत्कृष्ट कही जा सकती है। उसपर स्वयम्भूका प्रभाव है। इसकी रचना १७वीं शतोमे हुई थी। पं० भगवतीदासने 'बृहत्सीतासतु' (वि० सं० १६८७ ) की रचना की। पं० भगवतीदास जन्मजात कवि थे। उनके काव्यमें स्वाभाविकता है। सीताके हृदयके स्पन्दनोंका सही चित्र 'बृहत्सीतासतु'में उकेरा गया है। ब्रह्म जयसागरका 'सीताहरण' (वि० सं० १७३२) एक महत्त्वपूर्ण रचना है। वह एक खण्ड-काव्य है। उसके पढनेसे मन विमुग्ध हो उठता है। ये तीनों काव्य सीताको केन्द्र मानकर चले। इनमे नारी हृदयकी विविध प्रवृत्तियोंका अंकन है। इनके अतिरिक्त भट्टारक महीचन्द्रका 'लव-कुश छप्पय' ( १७वी शताब्दी) भी राम-काव्यसे सम्बन्धित है। इसमें केवल छप्पन छप्पय है। यह एक खण्ड-काव्य है। ब्रह्म रायमल्लका 'हनुमच्चरित्र' एक सुन्दर कृति है। इसकी रचना वि० सं० १६१६में हुई थी। जैन काव्योमें वानर एक जाति मानी गयी है। वे मनुष्य थे, बन्दर नहीं। उनके पूंछ नहीं थी। हनुमान्को रामके सहायक और भक्तके रूपमें अंकित किया गया है। जैन-परम्परामे २२वें तीर्थंकर अरिष्टनेमिके साथ वासुदेव कृष्णका चरित्र जुड़ा हुआ है। कृष्ण नेमीश्वरसे उम्रमें बड़े थे। उनके चचेरे भाई थे। वे ही राज्यके स्वामी थे। नेमीश्वरने विवाह-द्वारपर दीक्षा ले ली थी। शादी नहीं की। त्रिलोकसुन्दरी राजीमतीने भी फिर विवाह नहीं किया । नेमिनाथ और राजीमतीको लेकर अनेक रचनाएँ मध्ययुगमे हुई । गीतिकाव्य अधिक रचे गये। विनोदीलाल ( १७५० ) की रचनाएँ विशिष्ट हैं। उनकी कृतियोंमे प्रसाद गुण तो है ही, चित्राकन भी है। एक-एक चित्र हृदयको छूता है। भवानीदास (१७९१ ) के गीतोंमें भावुकता है। उनमें ऐसी सुगन्ध है, जो कभी मिटती नहीं। नेमिराजुलको लेकर अनेक 'फागु' और 'वेलि' काव्य भी बहुत रचे गये। प्रबन्धकाव्य भी रचे गये, किन्तु उनकी संख्या अल्प ही है। कवि भाऊका 'नेमीश्वररास' अभी उपलब्ध हुआ है। इसमे १५५ पद्य है। उनमे विवाहके लिए सजी राजुल और फिर विरह-विदग्धा राजुलके सजीव चित्र है। अन्य काव्योंका विवेचन इस ग्रन्थके पहले अध्यायमे हुआ है। १. ब्रह्मज्ञानसागरका लिखा हुआ हनुमच्चरित्ररास (१६३०) भी एक प्रसिद्ध कृति है। इसकी हस्तलिखित प्रति उदयपुरके श्री सम्भवनाथके मन्दिर में मौजूद है। -२. 'सीताशीलपताका गुणबेलि' आचार्य जयकीर्तिकी रचना है। इसकी हस्तलिखित प्रतिपर इसका रचनाकाल वि० सं० १६७४ दिया हुआ है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि अपभ्रंशमे स्वयम्भूके 'रिट्ठणे मिचरिउ' को विशेष ख्याति है । उसके अन्तः और बाह्य दोनों पक्ष समान रूपसे सुन्दर है जैसे गुलाबोंकी सुगन्ध और सुषमा ही हो । स्वयम्भूकी काव्यक्षमताको महापण्डित राहुल सांकृत्यायनने परखा और मापा था । पुष्पदन्तके महापुराणमे भी कृष्ण और नेमीश्वरकी कथा निबद्ध है । आगे अनेक कवि उनसे प्रभावित से मालूम पड़ते है । अपभ्रंशके महाकवि धवलका हरिवंशपुराण ( ११वीं शताब्दी ) में भी इस विषयका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें १२२ सन्धियाँ व १८ सहस्र पद्य है । हेमचन्द्रके 'त्रिशष्टि शलाका पुरुषचरित' मे कृष्णचरितका वर्णन है। हेमचन्द्राचार्यके इस ग्रन्थकी विशेष प्रतिष्ठा हुई । किन्तु यह स्वीकार करना होगा कि उनके सभी काव्य-ग्रन्थोंमें हृदयकी धड़कनें विद्वत्ताके साये में सिमटी पड़ी है । एक प्रखर वैयाकरण और दार्शनिक थे । उनकी यह प्रवृत्ति काव्य-ग्रन्थोमे भी घुले-मिले बिना रह न सको । अतः राम और कृष्णकथाके वे स्थल जो मार्मिक थे, वहाँ उपलब्ध नहीं होते । १० संस्कृत ग्रन्थोंमें आचार्य जिनसेनका 'हरिवंशपुराण' और गुणभद्रका 'उत्तरपुराण' प्रथम कृतियाँ है, जिनमें कृष्ण-कथा आद्योपान्त उपलब्ध होती है | महाकवि धनंजयका संस्कृत 'द्विसन्धान महाकाव्य' साहित्यकी एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । इसे 'राघव पाण्डवीय महाकाव्य' भी कहते है । इसके प्रत्येक पद्यके दो अर्थ निकलते है : एक अर्थ रामकथाके पक्षमे और दूसरा कृष्ण कथाके । ध्वन्यालोक - के कर्ता आनन्दवर्धनने धनंजयको भूरि-भूरि प्रशंसा की है, "द्विसंधाने निपुणतां स तां चक्रे धनंजयः । यथाजात फलं तस्य सतां चक्रे धनंजयः ॥ एक पुरानी कृति है : 'चउपन्न महापुरिसचरित' । यह प्राकृत भाषामें लिखा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसके रचयिता शीलाचार्य बहुत बड़े विद्वान् और कवि थे । उनका काल ईसवी सन् ८०८ माना जाता है । इसमे कृष्णचरित निबद्ध है । प्राकृतमें रचे गये आगम ग्रन्थ और अंगोंमे भी कृष्ण कथा मिलती है । 'उत्तराध्ययन', 'कल्पसूत्र', 'दसवैकालिक' और 'प्रश्नव्याकरण' मे कृष्ण और नेमीश्वरसम्बन्धी कथाएँ बिखरी पड़ी है । प्रद्युम्नचरित्रोंमें भी कृष्णका उल्लेख है । प्रद्युम्न कृष्णके पुत्र थे । और कामदेव माने जाते थे । उन्हें लेकर हिन्दीमें अनेक काव्योंकी रचना हुई । उनमे सघारूका 'प्रद्युम्नचरित्र' ( १४११ ) प्रसिद्ध है । यह एक सरस कृति है, प्रबन्धकाव्यके सभी गुण मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त कमलकेशरकी ' प्रद्युम्नचौपई ' ( सं० १६२६ ), ब्रह्मरायमल्लका 'प्रद्युम्नरासो' ( १६२८ ), ब्रह्मज्ञानसागरका Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका 'प्रद्युम्नरास' ( १७वीं शताब्दी ) तथा देवेन्द्रकीतिका 'प्रद्युम्नप्रबन्ध' भी प्रसिद्ध रचनाएँ है। ___ आचार्य जिनसेन और गुणभद्रके संस्कृत पुराणोंमे यथास्थान यह कथा निबद्ध है। किन्तु उसका पृथक् एक काव्यके रूपमें निर्माण ११वी शताब्दीके महासेनाचार्यने 'प्रद्युम्नचरित्र के नामसे किया था। सिंह अथवा सिद्धकी 'पज्जूराणकहा' अपभ्रंशकी एक प्रसिद्ध कृति है। इसका कथानक रोचक है और अवान्तर कथाओसे उसका सम्बन्ध निर्वाह' विधिवत् हुआ है। सर्वत्र कविकी भावुकता परिलक्षित होती है। महासेनके 'प्रद्युम्नचरित्र'से यह उत्तम है। इन दोनो रचनाओंका हिन्दीके प्रद्युम्नचरित्रोंपर प्रभाव है। हिन्दी पद्य और गद्यमे लिखे कतिपय 'हरिवंशपुराण' भी उपलब्ध होते हैं । उनमे न मौलिकता है और न काव्यसौष्ठव । वे संस्कृत और अपभ्रंश कृतियोके अनुवाद-भर है । ब्रह्मजिनदासका 'हरिवंशपुराण' १६वीं शताब्दी, शालिवाहनका 'हरिवंशपुराण' १७वी शताब्दी,खुशालचन्द कालाका 'हरिवंशपुराण' १८वीं शताब्दी और पं० दौलतरामका 'हरिवंशपुराण' १८वीं शतीकी रचनाएँ है । इनमे पं० दौलतरामका 'हरिवंशपुराण' हिन्दी गद्यमे होनेके कारण अधिक प्रचलित है। मध्यकालीन हिन्दी काव्यका जैन भक्तिपरक पहल विविध प्रवृत्तियोको लेकर चला । उनका विवेचन इस ग्रन्थके पहले अध्यायमे किया गया है। जैन कवियोंकी एक ऐसी प्रवृत्ति भी थी जो अधिकांश उन्हींमे पायी जाती है, वह है 'वेलिकाव्य'का निर्माण । 'वेलि' 'वल्ली'को कहते है। वल्ली वृक्षांगवाची है। पहले यह प्रचलन था कि वाङ्मयको उद्यान और उसके अन्तर्गत ग्रन्थोंको वृक्ष या उसके अंगोके नामोंसे पुकारा जाता था। 'तैत्तिरीय उपनिषद्'के सातवें प्रपाठकको 'शिक्षावल्ली' कहा गया है। विकासोन्मुख क्रममे 'वल्ली' नामसे पृथक् रचनाएँ रची जाने लगीं। ये राजस्थानी और हिन्दीमें 'वेलि' नामसे प्रसिद्ध हुई। अभीतक एक प्रसिद्ध 'वेलि' 'कृष्ण-रुक्मणी री वेलि' के नामसे प्रकाशित हो चुकी है। उसके आधारपर विद्वानोंने यह धारणा बनायी कि वेलि-काव्य श्रृंगार-परक होता है। किन्तु अधिकांश, 'वेलियों के पढ़नेसे ऐसा विदित होता है कि उनमे शृंगारसे कही अधिक भक्ति और वीर रसोंका परिपाक हुआ है। चारणोंके द्वारा गायी गयी वेलियोंमे वीरोका यशगान ही रहता है। आज भी वे त्योहारोंके अवसरपर गायी जाती है । जैन वेलियोमे विशेषता है कि वे छोटे-छोटे कथानकोंको लेकर चली है। उनमे कथा है और भक्ति भी। उनमें खण्ड-काव्यका आनन्द है, तो भक्तिको भाव-विभोरता भी। इन्हीं वेलियोंके माध्यमसे जैन कवियोंने अपने Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि गुरुओका जीवन-वृत्त उपस्थित किया है। ऐसी ही एक वेलि 'जयति पदवेलि' आदि साधुकीर्तिगीत' ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रहमे छप चुकी है। प्रसिद्ध हीरविजयसूरिको लेकर कवि सकलचन्द्र ने 'हीरविजयसूरि देशनावेलि' का निर्माण राजस्थानीमे किया था । कथानकोको लेकर चलनेवाली वेलियोमे 'चन्दनबाला - वेलि', 'स्थूलभद्र - कोशारस बेलि' और 'नेमीसुरको बेलि' अधिक प्रसिद्ध है । हिन्दी के कवि ठकुरसी ( १५७८ ) वेलियोकी रचनामे निपुण थे । उनकी 'पंचेन्द्रिय वेलि' समूचे वेलि-साहित्यमे उत्तम मानी जाती है । उसका उद्देश्य उपदेशात्मक है; किन्तु ऐसे सरम ढंगसे लिखी गयी है कि उसमे संवाद- जन्य नाटकीय रस उत्पन्न हो उठा है। वह रसकी पिचकारी-सी प्रतीत होती है। इसके अतिरिक्त उन्होने 'नेमोसुरकी वेल' और 'गुणवेलि' भी रचीं। हर्पकीर्ति ( १६८३ ) ने भी 'पंचवेलि', 'पंचगतिवेलि' और 'चतुर्गतिवेलि' की रचना की । वे हिन्दी के एक सामर्थ्यवान् कवि थे । कत्रि छील ( १६वी शती ) राजस्थानी कवि थे । उन्होने राजस्थानी और हिन्दी दोनोमे लिखा । वे जन्मजात कवि थे । उन्हे ईश्वरप्रदत्त प्रतिभा मिली थी । उनकी वेलि भी एक प्रसिद्ध कृति है । जैन कवियोंका वेलियोमे 'भव-सम्बोधन' तो था ही, भक्तिका स्वर भी प्रबल था, बल्कि उसीमे वे डूबी थीं । विविध ढालोमे लिखी जानेके कारण उनका बाह्य कलेवर भी भव्य है । उपदेशको भावनाके साँचे जैसा जैन कवियोंने ढाला, अन्य नहीं ढाल सके । १२ इस ग्रन्थका दूसरा अध्याय मध्यकालीन जैन भक्त कवियों और उनके जीवनवृत्त और साहित्य से सम्बन्धित है । पण्डित रामचन्द्र शुक्लने हिन्दोका भक्ति-काल वि० सं० १४०० से १७०० तक माना है । किन्तु यह मान्यता कठोर नहीं थी । उनके अनुसार एक ही युगमे विशेष प्रवृत्तिके साथ-साथ अन्य रुचियाँ भी चलती ही रहती है। इसके अतिरिक्त यह भी सच है कि पं० शुक्ल जैन रचनाओसे बिलकुल परिचित नहीं हो पाये थे। अभी विविध भण्डारोंमे हिन्दीकी जैन कृतियोंकी खोज करते समय विदित हुआ कि हिन्दीकी जैन भक्तिपरक प्रवृत्तियाँ वि० सं० ९९० से १९०० तक चलती रही। आचार्य देवसेनके 'श्रावकाचार' मे देशभाषाके दर्शन होते है । "जो जिणसासण मासियउ, सो तरि पावइ पारु ।" इस कथनको सिद्ध करता है। यह 'श्रावकाचार' का दोहा है। इसमे प्रयुक्त शब्द, रूप, विभक्ति और धातुरूप प्रायः सभी देशभाषाके है । डॉ० काशीप्रसाद ओसवालने लिखा है कि यह 'श्रावकाचार' के भी पहलेसे ही प्रचलित हो चुकी थी । धर्मशास्त्री नारदने "संस्कृतैः प्राकृतैर्वाक्यैर्यः शिष्यमनुरूपतः । देशभाषाद्युपायैश्च बोधयेत् स गुरुः स्मृतः ।" पद्यके द्वारा देशभाषाका पहले ही उल्लेख किया Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १३ था। आचार्य हेमचन्द्रने अपभ्रंश और देशभाषामे स्पष्ट अन्तर स्वीकार किया है। देशभाषाको ही प्राचीन हिन्दी कहते है। यही आगे चलकर विकसित हिन्दीके रूपमे परिणत हुई। अपभ्रंश और प्राचीन हिन्दीकी साथ-साथ रचनाएँ होती रही। दोनोमे भेद कर पाना मुश्किल है । स्वयम्भूका ‘पउमचरिउ' और पुष्पदन्तका 'महापुराण' हिन्दीकी कृतियाँ नही है। इनमे बिखरे हुए कुछ स्थल देशभाषाके हैं, किन्तु वे अल्प ही है । पुष्पदन्तसे ४० वर्ष उपरान्त हुए श्रीचन्दका 'कथाकोष' देशभाषाका काव्य-ग्रन्थ है। जिनदत्तसूरि (वि० सं० १२७४) का 'उपदेशरसायनरास' दुरूह अपभ्रंशका निदर्शन है, जब कि इसीके आस-पास बने जिनपद्मसूरिके 'थूलिभद्दफागु'मे देशभाषाके दर्शन होते है । अत. सिद्ध है कि वि० सं० को दसवीं शताब्दीके प्रारम्भसे ही हिन्दी पनपने लगी थी। उनकी अनेक भक्तिपरक रचनाएँ प्राप्त हुई है। ये उस युगमे लिखी गयी जिसे पं० शुक्लने वीरगाथाकाल नाम दिया है ( वि० सं० १०५०-१३७५ )। इस युगमे बौद्ध सिद्धोने भी पर्याप्त लिखा। इसी आधारपर महापण्डित राहल सांकृत्यायनने इस कालको 'सिद्धकाल' कहा और डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी उसे 'आदिकाल' कहते है, क्योकि इस नाममे 'बोर' 'भक्ति' और 'सिद्ध' सभी कुछ खप जाता है। किन्तु एक प्रश्न फिर भी बना रहा कि इस कालकी मुख्य प्रवृत्ति क्या थी? वह कुछ भी हो, इतना सिद्ध है कि हिन्दीमे जैनभक्तिकी रचनाओंका प्रारम्भ हो गया था, किन्तु था वह प्रारम्भ ही। उसका विकास १४वीं शताब्दीमे देखा जाने लगा। १५वीं शती तो जैनभक्तिके पूर्ण यौवनका काल था। मेरी दृष्टिमे वह १९वीं शती तक निरन्तर अबाधित गतिसे चलता रहा । प्रस्तुत ग्रन्थमे इन्ही ४०० वर्षोके जैन भक्त कवियों और उनके काव्यका विवेचन है। हिन्दीके जैन भक्ति-काव्यमे भट्टारको, सूरियो और सन्तोंका विशेष योगदान है। पण्डितों और साधारण गृहस्थोने भी लिखा। उनका कान्य भक्ति-रसका ही प्रतीक है। कुछने अपना परिचय दिया और कुछने नही। खोज की, ढूँढ़ा, कुछ मिला और कुछ नहीं। जो कुछ प्राप्त हुआ, उस आधारपर जितना प्रामाणिक अंश दे सका, दिया । यदि उसमे कुछ कमी रह गयो है या वह नितान्त प्रामाणिक नहीं बन सका है, तो आगे अनुसन्धित्सु उसे पूरा करेंगे, इसी आश्वासनके साथ यह ग्रन्थ पाठकोंके समक्ष उपस्थित कर रहा हूँ। इतना अवश्य कहना होगा कि जैन-काव्यमे एक ही नामके अनेक कवि होते रहे, आज उनपर लिखते समय एक जालमे उलझ जाना होता है । ज्ञानभूषण नामके चार भट्टारक हुए। उनमे 'आदीश्वरफागु' के रचयिताकी खोज एक मुश्किल काम था। इसी भाँति चार रूपचन्द्र और चार Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि भगवतीदासोका सही-सही लेखा-जोखा मिला पाना आसान नही है। आनन्दधनोंकी भी कमी नहीं थी। उनमे जैनमरमी आनन्दधन पहचानमे आ गये है, ऐसा विश्वास-सा होता है। उपाध्याय जयसागरपर लिखते समय, पहले पैराग्राफमे तीन जयसागरोंका उल्लेख किया, किन्तु लिखा केवल उपाध्यायजीपर ही, अवशिष्ट दोको बचाकर निकल गया, या भाग गया। भागना पड़ा, क्योकि उस समय दूसरे-तीसरे जयसागरके साथ मेरा प्रामाणिक सम्बन्ध स्थापित नही हो सका था। दूसरे जयसागर काष्ठासंघके नन्दीतटगच्छमे हुए थे। उनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार थी - सोमकीर्ति, विजयसेन, यश.कोर्ति, उदयसेन, त्रिभुवनकीर्ति, और रत्नभूषण । रत्नभूषण ही जयसागरके गुरु थे। उनका समय वि० सं० १६७४ माना जाता है। उन्होने संस्कृतमे 'पावपंचकल्याणक' और हिन्दीमे 'ज्येष्ठ जिनवरपूजा', 'विमलपुराण', 'रत्नभूपण स्तुति' तथा 'तीर्थनयमाला की रचना की। इसी 'विमलपुराण' से सिद्ध है कि आचार्य सोमकीर्तिने गुजरातके सुल्तान फोरोज़शाहके समक्ष आकाशगमनका चमत्कार दिखाया था। तीसरे जयसागरको ब्रह्म जयसागर कहते है। वे अठारहवी शताब्दीके प्रथम पादमे हुए है । उनका सम्बन्ध मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगणकी सूरतशाखासे था। उनके गुरु मेरुचन्दका समय वि० सं० १७२२-१७३२ सिद्ध है। ब्रह्म जयसागर हिन्दीके सामर्थ्यवान् कवि थे। उन्होंने 'सीताहरण', 'अनिरुद्धहरण' और 'सगरचरित्र'की रचना की। तीनों ही प्रबन्धकाव्य हैं। उनका कथानक आकर्षक है, सम्बन्धनिर्वाह पूर्ण हुआ है। इसी प्रकार एक ही नामके दो-दो तो कई कवि हुए। यथास्थान उनका विश्लेषण है । इस ग्रन्थमे उन रचनाओंको छोड़नेका प्रयास किया गया है, जिनपर गठित विवादके मध्यसे मै किसी ठीक परिणामपर नहीं पहुँच पाया हूँ। ऐसा ही एक काव्य 'अध्यात्म सवेया' है। यह दि० जैन मन्दिर ठोलियान, जयपुरके गुटका नं० १२७में संकलित है। इसमे १०१ पद्य है। डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल इस कृतिको पाण्डे रूपचन्दकी रचना मानते हैं । उनका आधार है अन्तमे लिखा हुआ, 'इति श्री अध्यात्म रूपचन्दकृत कवित्त समाप्त।' किन्तु रूपचन्द नामके चार कवि हुए, जिनमे दोका सम्बन्ध 'अध्यात्म से था ही। वे दोनो समकालीन थे। एक थे पाण्डे रूपचन्द । उनकी शिक्षा-दीक्षा बनारसमे हुई थी। उच्चकोटिके विद्वान् थे। कवि बनारसीदासके अध्यात्म-सम्बन्धी भ्रमका निवारण उन्होने किया था। वे हिन्दीके ख्यातिप्राप्त कवि थे। किन्तु उनकी रचनाओं और 'अध्यात्म सवैया'की शैलीमें नितान्त पार्थक्य है। इसके अतिरिक्त पाण्डे Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका 1 रूपचन्दने कही भी अपना नाम केवल 'चन्द' के रूपमे नही दिया है । प्रत्येक स्थानपर 'रूपचन्द' ही लिखा है । 'अध्यात्म सवैया' मे कविका नाम 'चन्द' दिया है । अत: पाण्डे रूपचन्दकी कृति तो नही हो सकती । अन्तमे लिखे 'रूपचन्द लिखित कवित्त समाप्त' किसी लिपिकर्ताका कार्य भी हो सकता है । उसने 'चन्द' के आधारपर रूपचन्दका अनुमान लगा लिया होगा। दूसरे थे पं० रूपचन्द । वे बनारसीदास के अभिन्न मित्र थे । उनके साथ अध्यात्म चर्चामे तल्लीन रहते थे । उनकी रचनाएँ उपलब्ध हुई है । इन्होने भी कहीं 'चन्द' का प्रयोग नहीं किया है । 'अध्यात्म सवैया' के एक पद्यमे आभासित होता है कि उसके रचयिता लालचन्द थे । उस पद्य की अन्तिम पंक्ति है : "आलस्यो अतीत महालालचन्द लेखियै ।” लालचन्दके कुछ पद दिगम्बर जैन मन्दिर, बड़ौतके पदसंग्रह में संकलित है । वे विक्रमकी अठारहवीं शताब्दी के कवि थे । किन्तु साथ ही तेरहवें और चौदहवे सर्वयोकी अन्तिम पंक्तियोंमे 'तेज कहे' लिखा हुआ है। इनसे सिद्ध है कि किन्ही तेज नामके कविने इसका निर्माण किया था । मध्यकालीन हिन्दी काव्यमे 'तेज' नामके कोई कवि नही हुए। हो सकता है कि यह कविका उपनाम हो । किन्तु यह केवल अनुमान ही है । यदि 'तेज' उपनाम था तो दो के अतिरिक्त अन्य पद्योमे उसका प्रयोग क्यो नही हुआ । त्रिभुवनचन्द नामके कवि हुए है, जिन्होंने प्रायः अपने नामके अन्त में 'चन्द' का प्रयोग किया है । किन्तु इसी आधारपर इसे त्रिभुवनचन्दकी कृति मान लेना युक्ति-संगत नहीं है । यह भी स्पष्ट है कि त्रिभुवनचन्द अध्यात्मवादी नहीं थे । इस भाँति 'अध्यात्म सवैया' के रचयिताको लेकर एक उलझन है । मेरा मत है कि जबतक इस कृति - की तीन-चार प्रतियाँ विभिन्न भण्डारोंमे उपलब्ध नही हो जाती, विचारक किसी सही निर्णयपर नही पहुँच सकते । १५ मध्यकालीन जैनभक्त कवि 'निर्गुनिए संतो' की भाँति कोरे नहीं थे । उन्होने विधिवत् शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की थी । इसी कारण प्रारम्भसे अन्त तक उनमे एक ऐसी शालीनता के दर्शन होते है, जिसके परिप्रेक्ष्यमे उनकी मस्ती भी सुशोभन प्रतीत होती है। उनमे वह अक्खड़ता और कड़वाहट नहीं है, जो कबीरमे थी । पोथी पढ़नेवाला पण्डित भले ही न हो पाता हो, किन्तु उसमे ग्राम्यदोषका नितान्त परिहार हो जाता है, यह सच है । जैन कवियोकी शिक्षाके भिन्न-भिन्न साधन थे । श्वेताम्बर आचार्य, होनहार बालकोंको बचपनमे ही दीक्षा देकर अपने साधुसंघ में शामिल कर लेते थे । वहाँपर ही उनकी प्रारम्भसे लेकर उच्चकोटि तककी शिक्षा होती थी । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि मेरुनन्दन उपाध्याय, सोमसुन्दरसूरि तथा यशोविजय आदि हिन्दीके सामर्थ्यवान् कवियोंको आठ वर्षकी उम्र में ही दीक्षित कर लिया गया था। वे एक ओर प्रकाण्ड पण्डित बने और दूसरी ओर कवि। जिन संघोंमे उनका लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा हुई, उनका वातावरण ऐसा ही था। वहाँ दार्शनिकता और अनुभूति, शुष्कता और उदारता, प्रखरता और कोमलता साथ-साथ पला करती थी। भट्टारक-सम्प्रदाय भी शिक्षाके जीवन्त केन्द्र थे। उनके शिष्य दर्शन, सिद्धान्त और साहित्यके अतिरिक्त मन्त्र, वैद्यक और ज्योतिषमे भी पारंगत विद्वान होते थे। उनमे अनेक ख्यातिप्राप्त बने। उनका कविता-प्रेम भी प्रसिद्ध है। भट्टारक सकलकीतिने संस्कृत-प्राकृतकी अगाध विद्वत्ता प्राप्त की थी। उन्होने केवल संस्कृतमे सत्रह ग्रन्थ लिखे। वे हिन्दीके भी सामर्थ्यवान् कवि थे। उनकी अनेक मुक्तक कृतियोका उल्लेख इस ग्रन्थमे हुआ है। भट्टारक रतनकीर्ति, ज्ञानभूषण और शुभचन्द्र भी ऐसे ही विद्वान् कवि थे। उन्हे पाण्डित्यका भावोन्मेष करना आता था। उनकी विद्वत्तारूपी नौका भावरूपी लहरोके मध्यसे सदैव बहती रही। ब्रह्म जिनदासने अनेक प्रबन्ध काव्योंका निर्माण किया । वे भट्टारक सकलकोतिके छोटे भाई थे। उन्होंने अपनी रचनाओंमे सकलकीतिको गुरु संज्ञासे भी अभिहित किया है। कुमुदचन्दकी उत्तम कवियोंमे गणना थी । उन्होने महाकाव्य लिखे और मुक्तक छन्द भी । वे भट्टारक रतनकोतिके शिष्य थे। भट्टारकों और उनके शिष्योंकी मध्यकालीन हिन्दी काव्यको महत्त्वपूर्ण देन है। उसे विस्मृत नही किया जा सकता। भट्टारक वैभव-सम्पन्न होते थे।। अत: वे अपने शिष्योंके विद्यार्जनके लिए बड़े-बड़े ग्रन्थागारोंकी स्थापना करते थे। उनके यहाँ हस्तलिखित ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियां होती ही रहती थीं। केवल जैनधर्मके ही नहीं, सभी धर्मों और विषयोंके ग्रन्थ उनके भण्डारमें संकलित होते थे। गौरवपूर्ण शिक्षाके लिए बृहद् पुस्तकालयोंका होना अनिवार्य है। इस तथ्यको आजके शिक्षाविशारद भी स्वीकार करते हैं। वे कवि, जो न साधु थे और न भट्टारक, 'शास्त्रप्रवचन' या 'सैली' के द्वारा व्युत्पन्न बने थे। शास्त्र-प्रवचनकी परम्परा आज भी है। प्रत्येक मन्दिरके साथ एक सरस्वतीभवन संलग्न होता है और मध्याह्न या रात्रिमें शास्त्र-प्रवचन हुआ करता है । अनेक श्रोता, जिहे अक्षरज्ञान भी नहीं है, सुन-सुनकर ही जैन दर्शनके सूक्ष्म ज्ञाता बन जाते है । प्रवचनमे किसी-न-किसी पुराणका पाठन भी आवश्यक होता है। इन पुराणोंके कथानकोंसे अनेक कवि-हृदय आन्दोलित हुए और वे प्रबन्ध तथा मुक्तक काव्योके निर्माणमे समर्थ हो सके । सधारू (वि० सं० १४११) ऐसे ही एक कवि थे। उन्होने 'प्रद्युम्नचरित' मे लिखा है कि एक एरछ नगर में Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका शास्त्र-प्रवचनके समय मैने यह चरित सुना और 'प्रद्युम्नचरित'की रचना कर सका। __ 'सैली' गोष्ठीको कहते थे। आगरेमे ऐसी ही एक गोष्ठी थी, जिसमे निरन्तर आध्यात्मिक चर्चा हआ करती थी। बनारसीदास उसके सदस्य थे। वहाँ बैठने के कारण ही वे पण्डित बने और कवि भी। बनारसीदास तुलसीदासके समकालीन थे। दोनोंके मिलनकी बात इस ग्रन्थमे कही गयी है। आगे चलकर यह सैली 'वाणारसिया सम्प्रदाय' के नामसे प्रसिद्ध हुई । उससे प्रेरणा पाकर ही कुअरपाल, जगजीवन, हेमराज, भूधररास आदि उत्तम कवि बन सके। इसी समय दिल्लीमे पण्डित सुखानन्दकी सैली मान्य थी। हिन्दीके प्रमुख कवि द्यानतराय उसीसे प्रभावित होकर इतने महत्त्वपूर्ण भक्ति-काव्यकी रचना कर सके। उनकी पूजाएँ और आरतियाँ आज भी जैन मन्दिरोंमे पढ़ी जाती है। हिन्दीके जैन कवियोंको उर्दू फ़ारसीका भी अच्छा ज्ञान था। कवि बनारसीदासने जौनपुरके नवाबके बेटे किलिचको संस्कृत उर्दू-फ़ारसीके माध्यमसे पढ़ायी थी। भगवतीदास भैयाको अनेक रचनाओंमे उर्दू-फारसीके शब्द है। कवि विनोदीलालकी 'नेमतीको रेखता' भी उर्दूकी ही कृति है। उस समय स्थान-स्थानपर मकतब.बिछे हए थे। जैन कवियोकी प्रारम्भिक शिक्षा उन्हीमे हुई। हिन्दी भाषाका जो रूप गान्धीजी चाहते थे, इन जैन कवियोकी रचनाओंमे उपलब्ध होता है । साधु-सम्प्रदायोमें पले कवियोंकी भाषा संस्कृत-निष्ठ थी। ___जैन कवि दरबारी नहीं थे, किन्तु उन्होंने मुगलबादशाहोकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, यहांतक कि औरंगजेबका भी गौरवके साथ उल्लेख किया है। रामचन्द्र और जगतराम हिन्दीके प्रसिद्ध कवि थे। उसकी मुक्तक कृतियां उत्तम काव्यकी निदर्शन है। उन्होंने औरंगजेबकी न्यायप्रियता, ईमानदारी, चरित्रनिष्ठता आदिकी बात लिखी है। शायद इतिहासकारोको औरंगजेबके सही आकलनमे इन उल्लेखोसे कुछ सहायता मिल सके। कवि सुन्दरदास शाहजहाँके दरबारमें नहीं रहते थे, किन्तु अपने सद्गुणोंकी प्रसिद्धिके कारण उनके कृपापात्र थे। कवि रंगबिजईको तो शाहजहाँने निमन्त्रण देकर बुलाया था। उन्होने शाहजहाँकी उदारताकी प्रशंसा की है। आगरेके हीरानन्द मुकाम सलीमके गहरे मित्र थे। प्रायः सलीम उनके घर जाता था। बादशाह होनेके बाद भी उसने हीरानन्दको सम्मानकी दृष्टिसे देखा। हीरानन्द एक अध्यात्मवादी कवि थे। कवि नन्दलालने भी जहाँगीरके उच्च व्यक्तित्वका वर्णन किया है। ब्रह्मगुलाल एक मजे हुए कवि थे। वे आगराके समीप ही रहते थे। उनका जहाँगीरसे सम्बन्ध नहीं था. फिर भी उन्होंने प्रशंसा की है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि बनारसीदासने अकबर, जहाँगोर और शाहजहाँका शासनकाल देखा था। उनका 'नाटक समयसार' शाहजहाँके राज्यमें निर्विघ्न समाप्त हुआ था। उस समय धार्मिक उत्पीड़न नही था । मुसलमान बादशाह और नवाबोकी सहायतासे अनेक जैनयात्रा संघ निकल सके और जैन मूर्तियो तथा मन्दिरोकी प्रतिष्ठा हो सकी। सेठ धन्नाराय और हीरानन्दकी देख-रेखमे सैकड़ो जैनमन्दिर बने, ऐसा शिलालेखोसे स्पष्ट है। अकबरकी धार्मिक उदारता तो जगप्रसिद्ध थी। उन्होने जैन साधुओका सम्मान ही नहीं किया, अपितु उनके उपदेशोंपर अमल भी किया। जैन पर्वो और अष्टमी-चतुर्दशीको पशु-वध सदा-सदाके लिए बन्द कर दिया गया। कई विदेशी विद्वानोने अकबरको जैन कहा है। उनकी मृत्युका समाचार जब कवि बनारसोदासने सुना, तो तवाँडा आ गया, अपनेको संभाल न सके और नीचे गिर पड़े । उन्होने 'अर्धकथानक'मे लिखा है, "अकस्मात बनारसी, सुनि अकबर को काल । सीढ़ी पर बैठ्यौ हुतौ, भयौ भरम चित चाल ॥ आइ तवाला गिरि परयौ, सक्यो न आपा राखि । फूटि माल लोहू चल्यो, कहयो, 'देव' मुख भाखि ।। लगी चोट पाखान की, भयौ गृहांगन लाल । 'हाइ' 'हाई' सब करि उठे, मात तात बेहाल ॥" हिन्दीके अन्य जैन महाकवि ब्रह्मरायमल्ल, पाण्डे जिनदास, परिमल्ल और गणि महानन्द आदिने भी अकबरका गौरवपूर्ण स्मरण किया है। न वे अकबरके दरबारमे रहते थे और न उनका कोई निजी स्वार्थ ही सिद्ध होना था। वे सच्चे कवि थे। उनके कविहृदयने सम्राट अकबरके विशाल हृदयको पहचाना था। दिलोंकी यह आपसी पहचान ही उनके काव्योंमें उभर-उभर उठी है। वि० सं० १८००-१९०० मे भी अनेक भक्तिपरक रचनाओंका निर्माण हुआ। उनके रचयिता शक्तिशाली कवि थे। किन्तु रीतिकालका उनपर प्रभाव था। उनकी भाषामे भी अलंकारोंको भरमार थी। लाला हरियशका जन्म वि. सं० १८६० मे, लाहौरके समीप कुसुमपुर ( कसूर ) में हुआ था। उनकी जाति ओसवाल और गोत्र गान्धी था। बचपन विपत्तियोंमे बीता। फिर भी व्युत्पन्न होनेके कारण संस्कृत और प्राकृतके अच्छे ज्ञाता बन सके । उनकी भाषापर संस्कृत प्राकृतका प्रभाव है। उन्होंने 'साधुगुणमाला', 'देवाधिदेव रचना' और 'देवरचना' का निर्माण किया था। तीनों बहुत पहले प्रकाशित हुई थी। 'साधुगुणमाला' का एक पद्य देखिए, जो अलंकारसे बोझिल है, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जिन केतक के दल के महिके, अलि के चित्त के भटिके बहिके । मधु के रुत के, बन के, सरके, पिक केम चुके विनके लवके । घन के घट के स्वर के सनके, किम केकि चके नृतके लटके। खग के रम के किम के तुटि के, कवि केम चुके स्तव के कथके ।। इसी युगमे एक कवि पारसदास हुए। जयपुरके रहनेवाले थे। वहाँके बड़े मन्दिरकी तेरापन्थी सैलीसे उन्हे प्रेरणा मिली और वे एक अच्छे कवि बन सके। उनका 'पारस विलास' एक प्रसिद्ध कृति है । उसमे 'अष्टोत्तरशतक', 'ब्रह्मछत्तीसी', 'सरस्वती अष्टक', 'उपदेश पच्चीसी', 'बाराखड़ी', 'चेतनसीष' आदि भक्तिपरक कृतियाँ है। कविकी हृदयगत तल्लीनता उनसे स्पष्ट हो जाती है। पाठक भावविभोर हुए बिना नही रहता। 'पारस विलास' की हस्तलिखित प्रति दि० जैन मन्दिर बड़ौतमे मौजूद है। कवि देवीदास भी हिन्दीके भक्त कवि थे । उनका जन्म ओरछा स्टेटके दूगोडा ग्राममे हआ था। इनकी जाति गोलालारे और वंश खरौआ था। इनकी प्रसिद्ध कृति है 'परमानन्द विलास' । उसमे भक्ति और अध्यात्मका समन्वय है। यह काव्य पं० परमानन्द शास्त्रीको उपलब्ध हुआ था। रचना सरस है। इसी शताब्दीमे कवि टेकचन्द हुए। उनका जन्म मेवाड़के शाहपुरामे हुआ था। उनके पिता रामकृष्ण जयपुर छोड़कर शाहपुरामे रहने लगे थे। टेकचन्द कुछ समय तक इन्दौरमे रहे और वहाँकी धार्मिक मण्डलीमें उन्हे ग्रन्थनिर्माणकी प्रेरणा मिली। उन्होने 'पुण्यास्रवकथाकोश', 'बुद्धिप्रकाश', 'श्रेणिकचरित्र', 'पंचपरमेष्ठि' आदि पूजाओ और पद-संग्रहोंका निर्माण किया। ये सब कवि भक्त होते हुए भी तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्तियोंसे प्रभावित थे। भले ही इन्होने नायिकाओका नखसे शिख तक वर्णन न किया हो, किन्तु उनकी भाषा नीचेसे ऊपर तक अलंकारोसे सुशोभित थी। वे भाषाकी स्वाभाविकतासे हटते जा रहे थे। __इस ग्रन्थके तीसरे अध्यायमें जैन भक्त कवियोंके भावपक्षपर लिखा गया है। पाँच भावोंको आधार बनाया है। वे इस प्रकार है : सख्य, वात्सल्य, प्रेम, विनय और शान्त । इनमे उत्तरोत्तर क्रमसे विशुद्धता आती गयी है। सर्वोत्कृष्ट है शान्त भाव । उसे अन्तमे रखा है । इन सबके परिप्रेक्ष्यमे जितने अन्य सूक्ष्म भाव हो सकते हैं, उनके विश्लेषणका प्रयास किया है। चौथा अध्याय कला-पक्षसे सम्बन्धित है। उसे भाषा, छन्द, अलंकार और प्रकृतिचित्रण-जैसे चार उपशीर्षकोंमे बांट दिया है । जैन कवियोंकी भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण थी। उन्होंने अनेक नये छन्द, नयी राग-रागिनियोंमें प्रयुक्त किये। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि इस दिशा मे उनकी मौलिकता अनुकरणीय थी । अलंकारोके प्रयोगमे वे मर्यादाशील बने रहे । भक्ति काव्यका कोई अंश अलंकारोके कारण अपनी स्वाभाविकता न खो सका । अनेक जैन कवि प्रकृति के प्रांगण मे पले और वह ही उनका साधनाक्षेत्र बना । अतः वे 'प्रकृति-चित्रण' भी स्वाभाविक ढंगसे कर सके । २० पाँचवाँ अध्याय तुलनात्मक है। उसमे निर्गुनिए सन्तों और वैष्णव कवियोंकी जैन कवियोसे तुलना की गयी है। मैने निरन्तर निष्पक्ष रहनेका प्रयत्न किया है । इस 'प्रबन्ध' का निर्देशन मान्य डॉ० छैलबिहारीलाल गुप्त राकेश, एम० ए०, डी० फिल०, डी० लिट्० ने किया था। मैं उनका हृदयसे आभारी हूँ | महापण्डित राहुल सांकृत्यायन और डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल इस शोध ग्रन्थके परीक्षक थे । उन्होंने एक मतसे इसे पी-एच० डी० के योग्य स्वीकार किया । मेरे लिए उनका आशीर्वाद ही था । शायद उनके प्रति मेरा यही आभार प्रदर्शन होगा कि मैं शोध - मार्गपर निरन्तर चलता रहूँ । भारतीय ज्ञानपीठके अधिकारियोका भी आभारी हूँ कि उन्होंने इस ग्रन्थको सहर्ष प्रकाशित कर दिया । दि० जैन कॉलेज, बड़ौत (मेरठ) २२ जनवरी, १६६४ - ( डॉ० ) प्रेमसागर जैन Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम विभाग : एक १. जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ 'निष्कल' और 'सकल'-१, दिव्य अनुराग-२, रहस्यवाद-४, सतगुरु-६, ब्रह्मकी प्रेरणा-७, पंचकल्याणक स्तुतियां-९, दास्यभाव-१०, आराध्यकी महत्ता-११, कीर्तन-१४, स्मरण-१६, दर्शनकी महिमा-१७, भक्तिसे अंगोंको सार्थकता-२०, भक्तिके लिए मनको चेतावनी-२२, बावनी और शतक आदिमें जैन भक्ति-२४, रूपकोंमें भक्ति-२६, जैन भक्तिके विशाल स्तम्भ : प्रबन्ध काव्य-२८, जैन भक्तिकी शान्ति परकता-२९। २. जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३२-३६४ १. राजशेखरसूरि-३२, २. सधारु-३४, ३. विनयप्रभ उपाध्याय-३७, ४. मेरुनन्दन उपाध्याय-४२, ५. विद्धणू-४७, ६. सोमसुन्दर सूरि-५०, ७. उपाध्याय जयसागर-५२, ८. हीरानन्द सूरि-५४, ९. भट्टारक सकलकीत्ति-५६, १०. श्री पद्मतिलक-५८, ११. ब्रह्म जिनदास-५९, १२. मुनि चरित्रसेन-६४, १३. लावण्यसमय-६५, १४. संवेगसुन्दर उपाध्याय-६८, १५. ईश्वरसूरि-६९, १६. चतरुमल-७१, १७. भट्टारक ज्ञानभूषण-७३, १८. भट्टारक शुभचन्द्र-७७, १९. विनयचन्द्र मुनि-८०, २०. कवि ठकुरसी-८३, २१. विनयसमुद्र-८८, २२. कवि हरिचन्द९०, २३. देवकलश-९२, २४. मुनि जयलाल-९३, २५. भट्टारक जयकोत्ति-९४, २६. श्री क्षान्तिरंगगणि-९५, २७. श्री गुणसागर९६, २८. बूचराज-९७, २९. छोहल-१०१, ३०. भट्टारक रत्नकीति१०७, ३१. ब्रह्म रायमल्ल-११०, ३२. कुशललाभ-११५, ३३. साधुकोत्ति-१२१, ३४. हीरकलश-१२२, ३५. पाण्डे जिनदास-१२५, ३६. त्रिभुवनचन्द्र-१२८, ३७. कुमुदचन्द-१३०, ३८. कवि परिमल्ल१३५, ३९. वादिचन्द-१३७, ४०. गणि महानन्द-१४०, ४१. मेघराज१४२, ४२. सहजकीति-१४४, ४३. ब्रह्मगुलाल-१४६, ४४, उदयराज जती-१५०, ४५. हीरानन्द मुकीम-१५४, ४६. हेमविजय-१५६, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अनुक्रम ४७. नन्दलाल - १५८, ४८. कवि सुन्दरदास - १६१, ४९. पं० भगवती, दास - १६४, ५०. पाण्डे रूपचन्द - १६८, ५१. हर्षकीर्ति - १७४, ५२. कनककीर्ति-१७६, ५३. कवि बनारसीदास - १७८, ५४. मनराम - १९३, ५५. कुँअरपाल-१९७, ५६. यशोविजयजी उपाध्याय - १९९, ५७. महात्मा आनन्दघन - २०४, ५८. जगजीवन - २११, ५९. पाण्डे हेमराज - २१४, ६०. पं० मनोहरदास - २१९, ६१. लालचन्द लब्धोदय - २१४, ६२. पं० हीरानन्द- २२८, ६३. रायचन्द - २३०, ६४. जिनहर्ष - २३३, ६५. अचलकीर्ति - २३९, ६६. रामचन्द्र - २४२, ६७. जोधराज गोधीका - २४७, ६८. जगतराम - २५१, ६९. विश्वभूषण - २५८, ७०. जिन रंगसूरि - २६४, ७१. भैया भगवतीदास - २६८, ७२. शिरोमणिदास - २७६, ७३. द्यानतराय—२७८, ७४. विद्यासागर - २८७, ७५. बुलाकीदास२९०, ७६. विनय विजय - २९३, ७७. देवाब्रह्म - २९५, ७८ सुरेन्द्रकीर्ति मुनीन्द्र - २९८, ७९. खेतल- ३००, ८०. भाऊ - ३०३, ८१. लक्ष्मीवल्लभ - ३०७, ८२. विनोदीलाल- ३११, ८३. बिहारीदास - ३२२, ८४. किशनसिंह - ३२७, ८५. खुशालचन्द काला - ३३३, ८६. भूधरदास - ३३५, ८७. निहालचन्द - ३४९, ८८. पं० दौलतरामजी - ३५२, ८९. भवानी - दास - ३५६, ९०. अजयराज पाटणी - ३५७ । विभाग : दो ३. जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष सख्यभाव - ३६७, वात्सल्यभाव - ३७१, विवाह-३८५, तीर्थंकर नेमीश्वर और ३८९, आध्यात्मिक होलियाँ - ३९१, लघुता - ४०२, शान्तभाव - ४०९ । ४. जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष ४२०-४५७ भाषा - ४२०, वि० सं० १६००-१८०० के जैन हिन्दी कवियोंकी भाषा - ४२९, छन्द-विधान - ४३५, अलंकारयोजना - ४४५, प्रकृति-चित्रण - ४५१ । ५. तुलनात्मक विवेचन ४५८-४६७ निर्गुणोपासना और जैन-भक्ति - ४५८, जैन आराधना और सगुण भक्ति - ४८० । परिशिष्ट : ३६७-४१३ प्रेमभाव - ३८१, आध्यात्मिक राजुलका प्रेम - ३८७, बारहमासा - विनयभाव - ३९७, दीनता - ४०१, ६. हिन्दी आदिकालमें जैन भक्तिपरक कृतियाँ ४६६-५०५ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग : एक Page #28 --------------------------------------------------------------------------  Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 2: जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ 'निष्कल' और 'सकल' आचार्य योगीन्दुने 'परमात्मप्रकाश' में भगवान् 'सिद्ध' को 'निष्कल' कहा है। व्याख्यामे ब्रह्मदेव ने लिखा है, "पञ्चविधशरीररहितः निष्कलः ।"" सिद्ध शरीररहित होकर 'सिद्धि' में विराजते है । ज्ञानकी दृष्टिसे सिद्ध और बुद्ध आत्मामें अन्तर नहीं है, किन्तु 'सिद्ध' मोक्षमे और शुद्ध आत्मा देहमें रहती है । आचार्य कुन्दकुन्दने दोनों ही पूज्य कहा है। शरीररहित होनेसे वे निराकार होते हैं। शुद्ध आत्मा देहमें रहती अवश्य है, किन्तु स्वयं देहधारी नहीं है । अर्हन्त 'सकल' ब्रह्म कहलाते है | अर्हन्त वह हैं, जिन्होंने चार घातिया कर्मोंका नाश करके परमात्मपद पा लिया है; किन्तु अघातिया कर्मोके क्षय होने तक उन्हें इस संसार में रुकना है । संसारमें रुकनेका अर्थ है शरीरका बना रहना । अर्हता परम औदारिक शरीर होता है । वे सशरीरी कहलाते हैं । 'निष्कल' और 'सकल' मे अशरीरी और 'सशरीरी' के अतिरिक्त और कोई भेद नहीं है । दोनों ही आत्मा परमात्मतत्त्वकी दृष्टिसे समान है । ब्रह्मत्वकी दृष्टिसे 'निर्गुण' और 'सगुण' में भी समानता है, किन्तु 'निष्कल' और 'सकल' जितने एक-दूसरे के निकट हैं, 'निर्गुण' और 'सगुण' नहीं । निष्कल और सकल दोनों हो स्वप्रयास से कर्मों का क्षय कर निष्कल और सकल बन पाते हैं । प्रत्येक 'निष्कल' पहले 'सकल' बनता है । बिना शरीर धारण किये और बिना केवलज्ञान उपलब्ध किये कोई भी जीव 'निष्कल' नहीं बन सकता । केवलज्ञानने निष्कल और सकलको एक-दूसरेके समीपतम पहुँचा दिया है । 'निर्गुण' और 'सगुण' में बृहदन्तर होनेके कारण हो हिन्दी के भक्ति काव्य मे दो पृथक् प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं। डॉ० पोताम्बरदत बड़थ्वालने उन्हें 'निर्गुण १. योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, ब्रह्मदेवकी टीका सहित ११२५, पृ० ३२ । २. 'परम औदारिक शरीर' का अर्थ है अन्तिम स्थूल शरीर, अर्थात् अन्य इसे स्थूल शरीरके उपरान्त फिर कोई शरीर धारण नहीं करेंगे। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि भक्तिधारा' और 'सगुण भक्तिधारा' के रूपमें विभाजित कर दिया है। कबीर आदि पहलीके और सूर आदि दूसरी धाराके कवि कहे जाते हैं। हिन्दीका जैन भक्ति-काव्य 'निष्कल' और 'सकल' के रूपमें नहीं बांटा जा सकता । उसमे दोनोंका समन्वय हुआ है। हिन्दीके जैन भक्त कवियोंने यदि एक ओर सिद्ध अथवा निष्कलके गीत गाये तो दूसरी ओर अर्हन्त अथवा सकलके चरणोंमें भी श्रद्धा-पुष्प चढ़ाये । उन्होंने किसी एकका समर्थन करनेके लिए दूसरेका खण्डन नही किया। भट्टारक शुभचन्द्रने 'तत्त्वसारदूहा', "देह विभिण्णो णाणमय रे मूरति रहित अमुत्त । ध्याउं अप्पा आपणो ध्यानानल पवित्त ॥ "कहा, तो "देव एक जिनदेव रे आगम जिन सिद्धान्त । तत्व जीवादिक सहहण होइ सम्मत्त भभ्रान्त ॥" भी कहा। मुनि चरित्रसेनने अपनी 'सम्माधि' नामकी कृतिमे, "खणि-खणि झाइयह णमो अरिहन्ताणं, जिव मेगे पावहु णिव्वाणं।" के द्वारा अर्हन्तके ध्यानकी बात कही, तो "जइ अप्पा अप्पडि गुण लग्ना, ते संसार महादुह भग्ना ॥" से आत्माके गुणोंमे तल्लीन होना भी स्वीकार किया। आनन्दतिलकने 'महानन्दिदेउ' नामको रचनामें "भप्पा संजमु सील गुण अप्पा दसण णाणु । वउ तउ संजम देउ गुरु आणंदा ते पावहिं णिवाणु ॥" लिखा तो दूसरी ओर सद्गुरु, जो शरीरधारी है, की भी महिमा का, “गुरु जिणवर गुरु सिद्ध सिउ, गुरु रयणत्तयसारु । सो दरिसावइ अप्प परु आणंदा, भवजल पावइ पार ॥" के द्वारा बखान किया। हिन्दीके भक्ति-काव्यका ऐसा कोई जैन कवि नहीं, जिसमें ये दोनों प्रवृत्तियां एक साथ न पायी जाती हों। दिव्य अनुराग जैन आचार्योंने 'राग' को बन्धका कारण कहा है, किन्तु वीतरागीमें किया गया 'राग' परम्परया मोक्षको ही देता है। वही 'राग' बन्धका हेतु है जो 'पर' में किया गया हो । वीतरागी परमात्मा 'पर' नहीं 'स्व' आत्मा ही है। आत्मप्रेमका अर्थ है आत्म-सिद्धि, जिसे मोक्ष कहते हैं। आचार्य पूज्यपादने 'राग' को भक्ति कहा, किन्तु उस रागको जो अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचनमें शुद्ध भावसे किया जाये। वीतरागीके प्रति रागका यह भाव जैन भक्तिके रूपमें निरन्तर प्रतिष्ठित बना रहा। भक्त कवियोंने तो उसीको अपना आधार माना। १. तत्त्वसार दूहा, मन्दिर ठोलियान, जयपुर, सम्माधि और महानन्दिदेउ, मन्दिर बधीचन्दजी जयपुरकी हस्तलिखित प्रतियोंके आधारपर ये उद्धरण दिये गये है। २. प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ६।२४ का भाष्य । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति: प्रवृत्तियाँ हिन्दीके जैन भक्ति-काव्यमें यह रागात्मक भाव जिन अनेक मार्गोंसे प्रस्फुटित हुआ, उनमे 'दाम्पत्यरति' प्रमुख है । 'दाम्पत्यरति' का अर्थ है पति-पत्नीका प्रेमभाव । पति-पत्नीमें जैसा गहरा प्रेम सम्भव है, अन्यत्र नहीं । इसी कारण 'दाम्पत्यरति' को रागात्मक भक्तिमे शीर्ष स्थान दिया गया है | हिन्दीके जैन कवियोंने चेतनको पति और सुमतिको पत्नी बनाया । पतिके विरहमें पत्नी बेचैन रहती है, वह सदैव पति मिलनको आकांक्षा करती है। पति-पत्नी के प्रेममें जो मर्यादा और शालीनता होती है, जैन कवियोंने उसका पूर्ण निर्वाह 'दाम्पत्यरति' वाले रूपकोमें किया है । कवि बनारसीदासकी 'अध्यात्मपद पंक्ति', भगवतीदास 'भैया' की 'शत अष्टोत्तरी' मुनि विनयचन्दकी 'चूनड़ी', द्यानतराय, भूधरदास, जगराम और देवाब्रह्मके पदोंमें दाम्पत्यरतिके अनेक दृष्टान्त है और उनमें मर्यादाका पूर्ण पालन किया गया है । हिन्दी के कतिपय भक्ति काव्योमे दाम्पत्यरति छिछले प्रेमकी द्योतक-भर बनके रह गयी है । उसमें भक्ति कम और स्थूल सम्भोगका भाव अधिक है । भक्तिकी ओट में वासनाको उद्दीप्त करना किसी भी दशामे ठीक नहीं कहा जा सकता | पत्नीके द्वारा सेज सजायी जाना और उसपर सम्भोगके लिए पतिका आह्वान किया जाना, भक्ति तो नही ही है और चाहे कुछ हो । दाम्पत्यरतिके रूपकको 'रूपक' ही रहना चाहिए था, किन्तु जब उसमें रूपकत्व तो रहा नहीं, 'रति' ही प्रमुख हो गयी, तो फिर अशालीनताका उभरना भी स्वाभाविक ही था । जैन कवि और काव्य इससे बचे रहे । 'आध्यात्मिक विवाह' भी रूपक काव्य है । इनमें किसी साधुका विवाह दीक्षाकुमारी या संयमश्री के साथ सम्पन्न होता है, अथवा आत्मारूपी नायकका गुणरूपी नायिका साथ । मेरुनन्दन उपाध्यायका 'जिनोदयसूरि विवाहलउ', उपाध्याय जयसागरका 'नेमिनाथ विवाहलो', कुमुदचन्दका 'ऋषभ विवाहला' और अजयराजपाटणीका 'शिवरमणीका विवाह' इस दिशाको महत्त्वपूर्ण कड़ियाँ हैं । 'आध्यात्मिक विवाह' जैनोंकी मौलिक कृतियाँ है । निर्गुनिए संतोने उनका निर्माण नहीं किया था । 'आध्यात्मिक फागुओं' की रचना भी जैन कवियोंने अधिक की । जैन चेतन अपनी सुमति आदि अनेक पत्नियोंके साथ होली खेलता रहा है । कभी-कभी पुरुष और नारीके जत्थोंके मध्य भी होलियां खेली गयी है । वैसे तो होलियाँ सहस्रों जैन पदोमें बिखरी है, किन्तु जैसी सरसता द्यानतराय, जगराम और रूपचन्दके काव्यमे है, दूसरी जगह नहीं । चेतनकी पत्नियोंको 'आध्यात्मिक चूनड़ी' पहननेका चाव था । कबीरको बहुरिया ने भी 'चूनड़ी' पहनी है, किन्तु साधुकीत्ति की 'चूनड़ी' में संगीतात्मक लालित्य अधिक है । नेमिनाथ और राजीमती से सम्बन्धित मुक्तक और खण्ड काव्योंमें जिस प्रेमकी ३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अनुभूति सन्निहित है, वह भी स्थूल नहीं दिव्य ही था । वैरागी पतिके प्रति यदि पत्नीका सच्चा प्रेम है, तो वह भी वैराग्यसे युक्त ही होगा । राजीमतीका नेमीश्वरके साथ विवाह नही हो पाया था कि वे, भोज्यपदार्थ बननेके लिए बँधे पशुओं की करुण पुकारसे प्रभावित होकर तप करने चले गये; फिर भी राजोमतीने जीवन पर्यन्त उन्हींको अपना पति माना । ऐसी पत्नीका प्रेम झूठा अथवा वासनामिश्रित होगा, यह कोई नहीं कह सकता | हिन्दीकी अनेक मुक्तक रचनाओं मे राजीमतीके सौन्दर्य और विरही भावपरक अनुभूतियाँ हैं, किन्तु वे अपभ्रंशकी प्रोषितपतिकाओंसे यत्किंचित् भी प्रभावित नहीं है । राजीमती सुन्दर है, किन्तु उसे अपने सौन्दर्यका कभी आभास नही होता । राजीमती विरहप्रपीड़ित है, किन्तु उसे पति सुखका ही अधिक ध्यान है । विरहमे न तो उसकी शय्या नागिन बन सकी है और न उसने अपनी रातें ही पाटियाँ पकड़कर बितायी है । राजशेखर के 'नेमोश्वर फागु', हर्ष कोन्ति, हेमविजय और विनोदीलाल के 'नेमीश्वरगीतों में राजीमतीका सौन्दर्य तथा जिनहर्ष, लक्ष्मीबल्लभ, विनोदीलाल और धर्मवर्धनके 'नेमिराजीमती बारहमासों में राजीमतीका विरह उत्तम काव्यका निदर्शन है । कहीं पर भी अश्लीलता नहीं है । सब कुछ मर्यादासे बँधा है । हिन्दी के जैन काव्योमे नेमीश्वर और राजीमतीको लेकर अनेक मंगलाचरणोंकी भी रचना हुई है, किन्तु उनमे कहीं भो "पादाग्रस्थितया मुहुः स्तनभरेणानीतया नम्रताम्" और "औत्सुक्येन कृतत्वरा सहभुवा व्यावर्त्तमाना दिया ।" जैसी बात नहीं है । जब कि भगवान्‌के मंगलाचरण भी वासना के कमरेसे खीचे जा रहे थे, नेमीश्वर और राजुलसे सम्बन्धित -मांगलिक पद दिव्यानुभूतियोके प्रतीक भर ही रहे। उन्होंने अपनी पावनताका परित्याग कभी नही किया । ४ रहस्यवाद जैन अपभ्रंशके 'परमात्मप्रकाश', 'सावयधम्म दोहा', 'दोहापाहुड' - रामसिंह 'वैराग्यसार' और 'दोहापाहुड' - महचन्द मे आत्म- ब्रह्मसे प्रेम करने और उसमे तन्मय होने की बात कही गयी है । वहाँ आत्म- ब्रह्म की भक्ति से सम्बन्धित अनेक चित्र है, जिनपर तन्त्रात्मक प्रवृत्तिका भी हलका-सा रंग है । मध्यकालीन हिन्दीके जैन कवि अपभ्रशके इस रहस्यवादसे प्रभावित हैं, किन्तु वे तन्त्रवादसे मुक्त हैं। उनकी अनुभूतियोमे भावात्मकता अधिक हैं | आचार्य कुन्दकुन्द के 'भाव पाहुड' मे भी भावात्मक अनुभूतिकी ही बात अधिक कही गयी है । भाव १. देखिए इर्षकी 'रत्नावली' के प्रारम्भिक मंगलाचरण । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ मूलक अनुभूति ही रहस्यवादका प्राण है। विचारात्मक अनुभूति दर्शनके क्षेत्रमे प्रतिष्ठित है । अनुभूति दोनो है, किन्तु पहलीमे भाव उत्पन्न होते है और दूसरीमे विचार । डॉ० राधाकृष्णनने विचारात्मक अनुभूतिको अध्यात्मविद्या कहा है। अध्यात्मविद्या वह है, जिसमे मुख्यतः अनुभूतिगत तत्त्वका विचार किया जाये । रहस्यवाद भावात्मक अनुभूति है।' अनुभूतिका दूसरा नाम अनुभव है । कवि बनारसीदासने अनुभवको परिभाषा लिखी है, "आत्मिक रसका आस्वादन करनेसे जो आनन्द मिलता है, उसे ही अनुभव कहते है ।" उसीको विशद करते हुए उन्होंने कहा, "इसी अनुभवको जगत्के ज्ञानी जन रसायन कहते हैं । इसका आनन्द कामधेनु और चित्रावलिके समान है, इसका स्वाद पंचामृत भोजन-जैसा है। अनुभव मोक्षका साक्षात् मार्ग है ।" पाण्डे रूपचन्दने 'अध्यात्म सवैया' मे लिखा है कि आत्मब्रह्मकी अनुभूतिसे यह चेतन दिव्य प्रकाशसे युक्त हो जाता है । उसमे अनन्तज्ञान प्रकट होता है और यह अपने-आपमे ही लोन होकर परमानन्दका अनुभव करता है। १. डॉ. राधाकृष्णन, Heart of Hindusthan, अनुवाद-भारतकी अन्तरात्मा, विश्वम्भरनाथ त्रिपाठी, १९५३, पृ० ६५ । २. वस्तु विचारत ध्यावतै, मन पावै विश्राम । रस स्वादत सुख ऊपजे, अनुभौ याको नाम ॥१७॥ बनारसीदास, नाटकसमयसार, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, वि० सं० १९८६, पृ० १७। . ३. अनुभौके रसको रसायन कहत जग, अनुभौ अभ्यास यह तीरथकी ठौर है। अनुभौ की केलि यह कामधेनु चित्रावेलि, ____ अनुभौ को स्वाद पंच अमृतको कोर है। देखिए वही, १६वॉ पद्य, पृ० १७-१८ । ४. अनुभौ अभ्यासमै निवास सुध चेतन को, अनुभौ सरूप सुध बोधको प्रकास है, अनुभौ अनूप उपरहत अनंत ज्ञान, __ अनुभौ अनीत त्याग ज्ञान सुखरास है। अनुभौ अपार सार आप ही को आप जाने, आप ही मै व्याप्त दीस जामै जड़ नास है। अनुभौ अरूप है सरूप चिदानंद चंद, अनुभौ अतीत आठ कर्म स्यो अफास है ॥१॥ अध्यात्म सवैया, मन्दिर बधीचन्दजी, जयपुरकी हस्तलिखित प्रनि । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि मध्यकालीन हिन्दीके जैन काव्योंमे रहस्यवादी गीत और पद बिखरे हुए हैं। उनमें 'आराधना प्रतिबोधसार' - सकलकोत्ति, 'सम्माधि' - चरित्रसेन, 'तत्त्वसारदहा'-शुभचन्द्र, 'चेतनगीत' -जिनदास, 'अनित्यपंचाशत' - त्रिभुवनचन्द्र, 'सुन्दरसतसई सुन्दरदास, 'खटोलनागीत' - पाण्डे रूपचन्द, 'अध्यात्मगीत' - बनारसीदास, 'मनराम विलास' - मनराम, 'बहत्तरी' - आनन्दधन, 'हितोपदेशबीवनी' - हेमराज, 'आगम विलास' - जगतराम, 'चेतनबत्तीसी' - लक्ष्मीबल्लभ, 'अक्षरबावनी' - बिहारीदास, 'चेतन गीत' - किशनसिंह और 'चेतन सुमतिसज्झाय' - भवानीदास प्रसिद्ध रचनाएं है। इनमे आत्म-ब्रह्मके प्रेमकी अभिव्यक्ति रूपकोके द्वारा की गयी है। रूपक सरस है, ऐसी सरसता संस्कृतप्राकृतके जैन कवियोंमें नहीं पायी जाती । सतगुरु ___ जैन काव्योंमे सतगुरुका महत्त्वपूर्ण स्थान है। वहां सतगुरु और ब्रह्ममें भेद नहीं स्वीकार किया गया है । उन्होंने अर्हन्त और सिद्ध को भी 'सतगुरु' की संज्ञासे अभिहित किया है । कबीरका गुरु ब्रह्मसे पृथक है । गुरुके द्वारा ही गोविन्द मिलता है, अतः कबीरने गुरुको ब्रह्मसे बड़ा कहा है । गुरुके प्रति कबीरका यह दृष्टिकोण स्वार्थजन्य अधिक लगता है, भक्तिपरक कम। दूसरी ओर जो भक्त ब्रह्मको भी 'गुरु' कहकर ही पुकारता है, उसकी गुरु-भक्तिमें सन्देह नही किया जा सकता। जैन कवि गुरु-भक्त थे। उन्होंने पंचपरमेष्ठीको 'पंचगुरु' कहा है । पचपरमेष्ठीमें अर्हन्त-सिद्ध शामिल है, आचार्य-उपाध्याय तथा साधु भी। साधु यदि सम्यक्त्वी है, तो गुरु-पदका अधिकारी है। गुरु वही है, जो सम्यक् पथका निर्देशन करे । सम्यक् पथका अर्थ है मोक्ष-मार्ग । उसे वही बता सकता है, जो उसपर चल चुका हो। सच्चा साधु उसपर चलता है और उसके अंश-अंशसे परिचित रहता है । हिन्दीके जैन कवियोंने 'गुरु' को मोक्ष-मार्गका प्रकाशक कबीर ने 'गुरु' की शक्तिकी बात तो बहुत की, किन्तु उसके प्रति शिष्यको अनुरागात्मक श्रद्धाका तो जैसे वहां अभाव ही है। उधर जैन काव्योंको गुरुभक्तिमें अनुरागको पर्याप्त स्थान मिला। जैन शिष्यने गुरुके मिलन और विरह दोनोंके ही गीत गाये । गुरुके मिलनमे शिष्यको समूची प्रकृति लहलहाती हुई दिखाई दी और विरहमें उसने समूचे विश्वको उदासीन देखा । रल्हकी 'जिनदत्त चौपई', उपाध्याय जयसागरको 'जिनकुशलसूरिचौपई', कुशललाभका Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ 'श्रीपूज्यबाहणगीतम्', साधुकीतिका 'जिनचन्द्रसूरिगीतम्' तथा जोधराजका 'सुगुरुशतक' अनुरागात्मक भक्तिके उत्तम दृष्टान्त है । हिन्दीके सभी कवियोंने स्वीकार किया है कि गुरुके सामर्थ्यवान् होने मात्रसे कुछ नहीं होता। शिष्यमें योग्यता, ग्रहण करनेकी उपादान शक्ति होनी ही चाहिए। उपादान शक्तिके अभावमें गुरु कितना ही समझाये शिष्य समझता नहीं । जैन कवियोंने अपने अनेक पदोमें इस भावको सरसताके साथ प्रकट किया है। किन्तु गुरु अत्यधिक उदार होता है। शिष्यमे ग्रहण करनेकी शक्ति हो या न हो, वह गुरुके आशीर्वादका पात्र तो बनता ही है । बनारसीदासने 'नाटक-समयसार में गुरुको मेघके समान कहा है । गुरुमें-से मेघकी ही भांति 'बानीरूपी' अखंडित धार निकलती है और उससे सब जीवोंका हित होता है । "ज्यों बरषे बरषा समै, मेघ अखंडित धार । त्यों सदगुरु बानी खिर, जगत जीव हितकार।" ब्रह्मकी प्रेरणा प्रत्येक भक्त अपने भगवान्से याचनाएँ करता है। जैन भक्तने भी की है। उसने कहीं पुत्र, कहीं धन और कहीं मोक्ष मांगा। उसका मांगना कभी व्यर्थ गया हो, ऐसा सुननेमें नही,आया। वीतरागी प्रभुने अपने भक्तकी सभी मनोकामनाओंको पूरा किया, फिर वे भौतिक हो या आध्यात्मिक । किन्तु प्रश्न तो यह है कि जो भगवान् संसारसे मुक्त हो चुका, उसका संसारसे क्या सम्बन्ध ? जैन सिद्धान्त जिनेन्द्रमे कर्तृत्व नहीं मानता और बिना कर्तृत्वके वह भक्तकी इच्छाओंको पूरा भी नहीं कर सकता। फिर जैन भक्त किस सहारेसे टिकता है ? उसके टिकनेका अवलम्ब है जिनेन्द्रकी प्रेरणा। जिनेन्द्र कुछ नहीं देते; किन्तु उनके दर्शन और पूजा-उपासनासे भक्तमें पुण्यप्रकृतियोंका जन्म होता है। ये प्रकृतियाँ चक्रवर्तीकी विभूति देती हैं और तीर्थकरका पद भी। अर्थात् उनमें क्षणिक और स्थायी दोनों ही प्रकारका आनन्द देनेको सामर्थ्य है । सारांश यह कि जिनेन्द्र १. रल्हकी 'जिनदत्त चौपई, जैन मन्दिर पाटौदी. जयपुरके गुटका नं० २०० में मौजूद है। इसमें ५५३ पद्य है । जोधराजका सुगुरुशतक भी इसी मन्दिरके गुटका नं० २३६ में अंकित है। अवशिष्ट रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी है। २. पुण्यप्रकृतियॉ अन्य मागासे भी जन्म ले सकती है, किन्तु भक्तिमार्ग आसान, सीधा और सरस है, जनसाधारणके मनको रुचता है। ज्ञान प्रधान जैन धर्ममें उसका विधान बहुत बड़े आश्वासनकी बात है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कुछ नहीं देते, किन्तु उनकी प्रेरणा सब कुछ देती है। उससे भक्तमें ऐसी सामर्थ्यका जन्म होता है, जिससे वह स्वतः सब कुछ प्राप्त कर सकता है। इसे ही प्रेरणाजन्य कर्तृत्व कहते हैं। इसमें भक्त 'देव-दैव पुकारा' तक ही सीमित नही रहती, अपितु अभीष्ट प्राप्त करनेके लिए कर्मक्षेत्रमे उतरती है । भक्ति और कर्मका ऐसा समन्वय कहां देखनेको मिलता है। इसमे जैन भक्त न तो भक्तिके नितान्त परावलम्बनसे आलसी बन पाता है और न कर्मकी शुष्कतासे बेचैन होता है। जिनेन्द्रका सौन्दर्य प्रेरणाका अक्षय पुंज है । उसे लेकर कवियोंकी आनन्दानुभूतियां भी उभरती रही है। स्वयम्भू स्तोत्र' में आचार्य समन्तभद्रने लिखा है, "न पूजार्थस्स्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताम्जनेभ्यः ॥" मध्यकालीन हिन्दीके जैन काव्योमें ऐसी अनेकानेक उक्तियां है। धानतरायने जिनेन्द्रके प्रेरणाजन्य कर्तृत्वको एक उपालम्भके द्वारा प्रकट किया है । "तुम प्रभु कहियत दीनदयाल। आपन जाय मुकति मैं बैठे, हम जु रुकत जगजाल । तुमरो नाम जपें हम नीके, मन बच तीनौं काल ॥ तुम तो हमको कडू देत नहिं, हमरो कौन हवाल । बुरे-मले हम भगत तिहारे, जानत हो हम चाल ॥ और कछू नहिं यह चाहत हैं, राग-दोष कौं टाल । हम सों चूक परी सो बकसो, तुम तो कृपा विशाल ॥ धानत एक बार प्रभु जग तें, हमकों लेहु निकाल ।" आधुनिक हिन्दीके कवियोंका मन भी आराध्यके प्रेरणाजन्य सौन्दर्य में ही अधिक रमा है। 'प्रियप्रवास'को राधाने पवनको दूती बनाकर कृष्णके पास भेजा। दूतीने पूछा कि वहां तो सब काले ही काले होंगे, मैं कृष्णको कैसे पहचानूंगी ? राधाने कहा, "बैठे होंगे जिस थक वहाँ भग्यता भूरि होगी। सारे प्राणी वदन लखते प्यारके साथ होंगे। पाते होंगे परमनिधियाँ लूटते रत्न होंगे। होती होंगी हृदयतलकी क्यारियाँ पुष्पिता-सी । देते होंगे प्रथित गुण वे देख सदृष्टि द्वारा । लोहाको छू कलित करसे स्वर्ण होंगे बनाते ॥" Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्ति : प्रवृत्तियाँ राधाने कृष्णके व्यक्तित्वमें एक ऐसा जादू माना है, जिससे समीपस्थोंको परम निधियां और रत्न प्राप्त हो जाते है। कृष्ण कुछ देते नहीं, उनके 'दर्शन' मे ऐसी शक्ति है, जिसकी प्रेरणा भक्तको सब कुछ पानेमे समर्थ बनाती है । जिसकी केवल सदृष्टि से ही प्रथित गुण आ जाते हों, वह जादू ही है और क्या । इसे ही जैन आचार्य प्रेरणा कहते रहे है, और जैन-कवि उसीके प्रेरणा-दीप जलाते रहे है। रायचन्दकी सीताने राममे, हेमविजयकी राजुलने नेमिकुमारमे, कुशललाभको अंजनाने पवनदेवमे प्रेरणाजन्य सौन्दर्यको अनुभूतियां की है। पंचकल्याणक स्तुतियाँ तीर्थकरोके गर्भमे आने, जन्म लेने, तपके लिए जाने, केवलज्ञानके उत्पन्न होने और मोक्ष प्राप्त करनेके अवसरपर जो उत्सव मनाये जाते है, उन्हे 'कल्याणक' कहते है। वे कल्याण करते हैं, अतः उनकी यह संज्ञा सार्थक ही है। जैन काव्योमे उनका अनुभूतिपरक विवेचन है। प्रबन्ध काव्योंमे अधिक है फिर चाहे वे संस्कृत-प्राकृतके हों अथवा अपभ्रंश और हिन्दीके । वहाँ तीर्थकरके प्रत्येक कल्याणकसे सम्बन्धित एक-एक सर्ग है, किन्तु कवियोंका मन गर्भ और जन्म-कल्याणकोंमें ही अधिक रमा है। भूधरदासके पार्श्व-पुराणमे इन दोका सरस वर्णन है। कविकी सबसे बडी सामर्थ्य है चित्रांकन। हिन्दीके महाकवियोंने रुचिकवासिनी देवियोंके द्वारा मांकी सेवा, सद्यःजात बाल तीर्थंकरका पाण्डुकशिलापर स्नान, इन्द्रका ताण्डव नृत्य और 'आनन्द' नाटक आदि दृश्योंको सफलतापूर्वक अंकित किया है। उनमें प्राकृतिक छटाका समन्वय होनेसे सौन्दर्य और भी बढ़ गया है। प्रबन्ध काव्योंमे यथाप्रसंग मुक्तक स्तुतियोंको भी रचना की जाती है। उनमे तत्-तत् कल्याणकको लेकर तीर्थकरके प्रति अपना भक्ति-भाव प्रकट करना ही कविका उद्देश्य होता है । अपेक्षाकृत हिन्दीके प्रबन्ध काव्योमे ऐसी स्तुतियोंकी अधिकता है। हिन्दीके कवियोंने तो मुक्तक रूपसे भी पंचकल्याणक-स्तुतियोंका निर्माण किया है। संस्कृत-प्राकृतमे उनका नितान्त अभाव है। यह हिन्दी कवियोंकी अपनी निजी विशेषता है । पाण्डे रूपचन्दको 'पंचमंगल स्तुति' आज भी -जैन-मन्दिरोंमें प्रतिदिन पढ़ी जाती है। जगरामके 'लघुपंचमंगल'की एक हस्तलिखित प्रति मुझे बड़ौतके दिगम्बर जैन-मन्दिरके शास्त्रभण्डारमें मिली है। पाण्डे रूपचन्दने प्रसिद्ध 'पंचमंगलस्तुति' के अतिरिक्त एक 'लघुपंचमंगल'का भी Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि निर्माण किया था । वह भी बड़ौत के शास्त्र भण्डारमे उपलब्ध हुआ है । भवानीदासके 'पंचमंगलकाव्य' की एक प्रति बनारस मे रामघाटपर स्थित प्राचीन जैन मन्दिर मे मौजूद है । भट्टारक धर्मचन्दका 'पंचमंगल' जयपुर के जैन मन्दिर मे उपलब्ध है । इन काव्योमे जैन कवियोका हृदय जैसे उमड़ ही पडा है । जगराम लघुमंगलका एक वह दृश्य देखिए, जिसमे छप्पन कुमारिकाएँ माँकी सेवा करती है, पाटौदी के १० "ईक सनमुष दरपन लीया, बन आभूषन ईकसै, ईक पूँछत एक पहेली का, ईक उतर सुनि निसि दिन अति आनन्द स्यौ, इम नव मास बिताबै जी ॥ महिमा त्रिभुवन नाथ की, कवि कहाँ लौं वरणावै जी । भक्ति परे ना बसि भयो, जगतराम जस गावै जी ॥ ईक ठाडी चंवर दुराबै जी । मधुरी बैन बजावै जी ॥ हरषाचै जी । दास्यभाव भक्तको भगवान्‌का दास होना ही चाहिए। वह दासता जो भक्त के हृदय में जन्म लेती है, सात्त्विकी ही होती है। उसका भौतिक स्वार्थसे युक्त दासताके राजसिक पहलूसे सम्बन्ध नहीं होता है। जैन भक्त भगवान्‌का दास है । वह भगवान् की सेवामें अपना जीवन बिता देना चाहता है । हिन्दोके अनेक जैन कवियोने भव भवमे जिनेन्द्रकी सेवा करनी चाही है । उन्होंने न तो सांसारिक सुख माँगे और न मोक्ष हो, माँगी तो सेवा । सेवाजन्य आनन्द ही उनके जीवनका चरम लक्ष्य बना रहा । उनकी यह आकांक्षा पवित्र थी - स्वार्थरहित । १ जैन भक्तका आराध्य भी कैसा उदार और दयालु है कि वह अपने दासको अपने समान बना लेता है । आचार्य समन्तभद्रने लिखा है कि हे भगवन् ! जो आपकी शुश्रूषा करते हैं, वे शीघ्र ही आप जैसी लक्ष्मीसे सुशोभित होते है । इसीलिए कवि बनारसीदासने ज्ञानीके लिए भी सेवाभावकी भक्ति अनिवार्य बतलायी है । जो भगवान् दोनोंपर इतनी दया करे कि उन्हें अपने समान बना ले, सच ही वह 'दीनदयाल' है । इसी कारण जैन भक्त बार-बार उस 'दीनदयालु' को पुकारता है " १. देखिए स्तुतिविद्या, ७० वॉ श्लोक । २. कवि भूधरदासकी 'अहो जगदगुरु' वाली विनती, जो 'बृहज्जिनवाणीसंग्रह' में प्रकाशित हो चुकी है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ "अहो जगदगुरु एक सुनियो अरज हमारी । तुम प्रभु दीनदयालु, मैं दुखिया संसारी ॥ " ११ और यह भी सच है कि उसका पुकारना कभी निरर्थक नहीं गया । दीनदयालुने दीनपर दया कर उसे भी 'दीनदयालु' बना लिया । ऐसे भगवान्‌का यदि कोई दास बने तो ठीक ही है। यदि न बन पाये तो दुर्भाग्य है । हिन्दी के अनेक जैन कवियोने दास्यभावकी भक्ति की है । उसका विवेचन तीसरे अध्याय मे किया गया है । यह उनके लिए एक उत्तर होगा, जो जैन भक्ति में दास्यभाव नही मानते। उनके कथनानुसार आत्मामे परमात्मा बननेकी ताक़त मौजूद है, फिर उसे दासता करनेकी क्या आवश्यकता है । उनके सिद्धान्तानुसार आत्मा और परमात्मा समान है, फिर दासताको स्थान ही नही है । इसके अतिरिक्त वे भगवान्मे कर्तृत्व भी नही मानते, इसलिए भी दासताका खण्डन करते हैं । किन्तु आत्मा अभी परमात्मा बनी नही है, उसमे उन तत्त्वोंका आविर्भाव नहीं हुआ है, जो परमात्मामे मौजूद है, अतः यदि वह परमात्मामे सेवाभाव रखे तो अनुपयुक्त नही है । जहाँतक कर्त्तृत्वका सम्बन्ध है, वह भले ही प्रेरणात्मक हो, है तो, फिर दास्यभाव भी निभ ही सकता है । जैन कवियोंने दास्यभक्ति के अनेक पदोंका निर्माण किया है । आराध्य की महत्ता आराध्य की महत्ता स्वीकार किये बिना श्रद्धा ही उत्पन्न नहीं होती, भक्ति तो दूरी बात है । इसी महत्ता के साथ भक्तकी अपनी लघुताको स्वीकृति स्वतः जुड़ी है । अर्थात् भक्त जबतक अपनेको लघु और आराध्यको महान् स्वीकार नहीं करता, वह भक्त ही नही | जैन भक्तमे भी ये दोनो प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं | आराध्य की महत्ता प्रकट करनेके अनेक ढंग है, और उनमे एक यह भी है कि अपने आराध्यको अन्य देवोंसे बड़ा बताया जाये । सूर और तुलसीने कृष्ण और रामको ब्रह्मा, महेश और बुद्धसे बड़ा कहा है । जैन कवियोने भी जिनेन्द्रको अन्य देवोंसे बड़ा माना । ऐसा करके उन्होंने अपने इष्टदेवमे अनन्य भाव ही प्रकट किया है। उन्होंने किसी अन्यके प्रति कटुता अभिव्यक्त नहीं की । अपने इष्टदेवको सर्वोत्कृष्ट बताना भक्तका कर्तव्य है, किन्तु जिन अन्य देवोसे उत्कृष्ट दिखाया जाये, उनके प्रति घृणात्मक भाव प्रकट करना ठीक नही है । सगुणोपासक कवि निर्गुणब्रह्मका खण्डन कटुताके साथ करते रहे है । उनका यह कार्य निषेधात्मक Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अधिक है, विधेयक कम । निर्गुणब्रह्मका खण्डन सगुणब्रह्मकी भक्ति नही है। सगुण और निर्गुणको एक माननेसे जैन कवि इस संघर्षसे नितान्त मुक्त रहे है । उन्होंने जनातिरिक्त देवोसे अपने देवको बड़ा तो बताया, किन्तु उनको बुरा भी नहीं कहा । जैन संस्कृत काव्योमें तो कहीं-कही ब्रह्मा, विष्णु, महेशके प्रति तीखापन भी दिखाई देता है, किन्तु जैन हिन्दो रचनाओमे ऐसा नही है। ___ जैन कवियोने आराध्यकी महत्ता एक अन्य शैलीसे भी प्रकट की है। यह शैली विधेयक है और प्रथमकी अपेक्षा उदारतापरक भो। इसमे भक्त कवि अन्य देवोंकी आराधना तक करनेको तैयार रहता है, किन्तु तभी, जब उसमें अपने इष्टदेवके गुण घटित हों। रामके भक्त तुलसीदास कृष्णकी वन्दनाको भी तैयार है, किन्तु जब वे मुरली छोड़कर 'धनुष-बाण' धारण करें। एक जैन कवि शंकरकी पूजा करना चाहता है, किन्तु तभी जब शंकर प्रलय करना छोड़कर 'शं' अर्थात् शान्ति करनेवाले बन जायें। इसी भाँति वे 'ब्रह्मा' की उपासना करनेको भी तैयार है, किन्तु तभी जब वह उर्वशीके मोह-जालसे निकलकर 'क्षुत्तृष्णाश्रमराग रोगरहित' हो जायें। आचार्य हेमचन्द्रने तो अपने आराध्यका नाम ही नहीं लिया। उनके लिए तो वे सभी इष्टदेव है, जिनमे रागादिक दोष क्षयको प्राप्त हो गये है, "भवबीजाकरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया । वीतदोषकलुषः स चेद्भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ॥" भक्तको लघुताको बात ऊपर कही जा चुकी है। आराध्यकी महत्ताके समक्ष भक्तको अपना प्रत्येक गुण और कार्य लघु ही प्रतीत होता है। भक्तिके क्षेत्रमें लघुताका भाव हीनताका द्योतक नही है । भक्त जितना ही अधिकाधिक अपनेको लघु अनुभव करता जायेगा, उतना ही विनम्र होता जायेगा और आराध्यके समीप पहुंचता जायेगा। तुलसीको 'विनयपत्रिका' मे 'लघुता' प्रमुख है। जैन कवि कुमुदचन्द, जगजीवन, मनराम, बनारसीदास, रूपचन्द और भूधरदासके पदोमे भी लघुताको ही मुख्यता दी गयी है । बनारसीदासका एक पद्य देखिए, १. आचार्य अकलंक, अकलंकस्तोत्र सटीक, दूसरा और चौथा श्लोक । २. नाटकसमयसार, उत्थानिका, १२वाँ पद्य । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति: प्रवृत्तियाँ "जैसे कोउ मूरख महासमुद्र तिरिबे को, भुजानि सों उद्यत भयौ है तजि नावरौ । जैसें गिरि ऊपरि बिरखफल तोरिबे कों, बावनु पुरुष कोऊ उमंगै उतावरौ । जैसे जलकुण्ड में निरखि शशि प्रतिबिम्ब ताके गहिबे को कर नीचो करे टावरौ । तैसैं मैं अलपबुद्धि नाटक आरम्भ कीनौ गुनी मोहि हँसेंगे कहेंगे कोउ बावरौ ॥" लघुताके साथ ही दोनताका भाव भी जन्म लेता है। दीनताका अर्थ है ग़रीबी, ग़रीबी केवल रुपये-पैसेकी नहीं, हर तरहकी। भक्तमे न तो गुण है और न पुण्य करनेकी सामर्थ्य । उसको जिन्दगी पापोंमे कटती है। इसी कारण उसे बारम्बार गर्भके दुःखोंको झेलना पड़ता है । वह जोवन-भर बेचैन रहता है। कोई भी भगवान् उसके इन दुःखोंको तभी दूर कर सकता है, जब वह 'दीनदयालु हो। अहिंसाको परम धर्म माननेके कारण जिनेन्द्र तो स्वभावसे ही 'परमकारुणिक' होते हैं। उन्होने सदैव दोनोंपर दया की है। हिन्दीके जैन कवियोंने उनके 'दीनदयालु' रूपको लेकर बहुत कुछ लिखा है। उनमे पं० दौलतरामकी 'अध्यात्म बारहखड़ी'. भैया भगवतीदासका 'ब्रह्मविलास', भधरदासका 'भधरविलास', द्यानतरायका 'द्यानतविलास' तथा मनरामका 'मनरामविलास' प्रसिद्ध है। इनमें भगवान्के उस 'विरुद' का निरूपण है, जिसके सहारे दीन तरते है, भले ही उन्होने हीन कर्म किया हो। ___ भगवान् इसलिए भी महान् है कि वह अशरणोको शरण देता रहा है । जीव अपने ही पाप और अपराधोके कारण ऐसा बन जाता है कि उसे कोई शरण देनेको तैयार नहीं होता। ऐसोंपर भगवान् दया करता है। उनके अपराधोको परिमाजित कर उन्हे भी भवसमुद्रसे तार देता है। जिनेन्द्र जब 'दीनदयालु' है तो 'अशरणशरण' भी है। अशरणोंको शरण देना भी दयासे ही सम्बन्धित है। जैन कवियोने जिनेन्द्रके इस रूपको लेकर अनेक अनुभूतिपरक 'पदो'का निर्माण किया है । पं० दौलतरामका कथन है, “जाऊँ कहाँ तजि शरण तिहारे । चूक अनादितनी या हमरी, माफ करौ करुणा गुन धारे ॥ डूबत हौं भवसागर में अब, तुम बिनु को मोहि पार निकारे ।" Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ हिन्दी जैन मक्ति काव्य और कवि भक्तको भी पूरा विश्वास है कि उसे केवल जिनेन्द्र ही शरण दे सकते हैं। वे केवल शरण ही नहीं, अपितु उसे तार भी देंगे, क्योंकि उनका ऐसा 'विरुद' है । कवि द्यानतरायने लिखा है, "अब हम नेमिजी की शरन । और ठौर न मन लागत है, छाँ डि प्रभुके शरन ॥ सकल मवि-अध-दहन बारिद विरुद तारन तरन । इन्द्र-चन्द्र-फनिन्द ध्या₹, परम सुख दुख हरन ॥" कीर्तन कीर्तनका तात्पर्य है भगवान्को कीत्तिका वर्णन करना। वैष्णव मन्दिरोंमे ताल-मंजीरोंके साथ होनेवाले कोर्तनका रूप जैन मन्दिरोमें कभी प्रचलित नहीं रहा । मध्यकालमे देवस्थानोपर भी जैन भक्त नृत्य और गायनके साथ रास करने लगे थे, किन्तु श्री जिनवल्लभसूरि (वि० सं० ११६७) ने लगुड़ और तालरासोको बन्द कर दिया था, क्योंकि इन रास-कर्ताओकी चेष्टाएँ विटो-जैसी होने लगी थीं। अन्य रास प्रचलित रहे, नृत्य और गायन भी । किन्तु यहां रूप भी वैष्णवमन्दिरोंमें होनेवाले कीर्तन-जैसा नही था। __ काव्यमें कीर्तनको नाम-जप कहते है। जिनेन्द्रके नाम-जपकी महिमा जैन कवियोंने सदैव स्वीकार की है। मानतुंगाचार्यने 'भक्तामरस्तोत्र में लिखा है, "त्वन्नासमन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः सद्यः स्वयं विगतबन्धमया भवन्ति ॥" आचार्य सिद्धसेनने भी 'कल्याणमन्दिरस्तोत्र'मे लिखा है, "आस्तामचिन्त्यमहिमा जिनसंस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति ॥” हिन्दीके जैन साहित्यमें तो स्थान-स्थानपर भगवान्के नामकी महत्ताका भावपूर्ण निरूपण है। वैसे तो सूर और तुलसीने भी अपने आराध्यके नाम लेने मात्रसे ही असीम सुख प्राप्त होनेकी बात लिखी है, किन्तु जिनेन्द्र का नाम लेनेसे सांसारिक वैभव' तो मिलते ही है. साथ ही उनके प्रति अनाकर्षणका भाव भी प्राप्त होता है। वैभव मिलता जाये और उसके साथ ही मन उससे पृथक् होकर वैराग्यकी ओर खिंचता जाये, यह ही जिनेन्द्रके नाम-जपका उद्देश्य है । कवि बनारसीदासके 'नामनिर्णय विधान से ऐसा १. द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, पहला पद। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति: प्रवृत्तियाँ सिद्ध भी है। भैया भगवतीदासने 'सुपंथकुपंथपचीसिका' में जिनेन्द्रके नामकी अचिन्त्य महिमाका वर्णन किया है । उदाहरणके लिए, "तेरो नाम कल्पवृक्ष इच्छा को न राखै उर, तेरो नाम कामधेनु कामना हरत है। तेरो नाम चिन्तामन चिन्ता को न राखै पास, तेरो नाम पारस सो दारिद डरत है। तेरो नाम अमृत पिये तें जरा रोग जाय, तेरो नाम सुखमूल दुख को दरत है। तेरो नाम वीतराग धरै उर वीतराग, भव्य तोहि पाय मवसागर तरत है । __ कीर्तनका दूसरा अर्थ है गुणोंका कीर्तन । जिनेन्द्रमे गुण तो है असीम और मानव है ससीम, फिर उन्हे केसे कहे । अतः वह असोमको कहनेके लिए अतिशयोक्तिका सहारा लेता है। यहां 'अतिशयोक्ति' शब्द असीमके पक्षमे नहीं, अपितु कहनेवाले 'ससोम' के पक्षमे घटता है। ससीम कह नही पाता, किन्तु जो कुछ भी कहता है, वह भी उसके लिए बढ़ा-चढ़ा कथन है। असीमके सीमारहित गुणोंको तो वह जान भी नही पाता, अतः उन्हे बढ़ा-चढ़ाकर कहनेका तो कोई अर्थ ही नहीं है । 'स्वयम्भू स्तोत्र' में इसे अल्पमतिका 'प्रलाप-लेश' कहा है, वह अल्पमति, जो जिनेन्द्र के अशेषमाहात्म्यको जानता ही नही । धनञ्जयने 'विषापहार स्तोत्र' मे स्पष्ट ही लिखा, "वक्तुं कियान् कीदृशमित्यशक्यः, स्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु ।" हिन्दीके पद-साहित्यमे 'असीम' के गुणोंको कहनेको अशक्यता सरसताके साथ अभिव्यक्त की गयी है । कवि द्यानतरायने एक स्थानपर लिखा है, "प्रभु मैं किहि विधि थुति करौं तेरो। गणधर कहत पार नहिं पावै, कहा बुद्धि है मेरी ।। शक्र जनम भरि सहस जीम धरि तुम जस होत न पूरा । एक जीम कैसे गुण गावै उलू कहै किमि सूरा ॥ चमर छत्र सिंहासन बरनौं, ये गुण तुमते न्यारे । तुम गुण कहन वचन बल नाहीं नैन गिनै किमि तारे ॥ पं० दौलतरामको 'अध्यात्मबारहखड़ी' में भी लिखा है कि जिनेन्द्रकी गूढ़ महिमा गणपति भी नहीं कह पाते, फिर भला में मतिहीन अज्ञानी उस भेदको कैसे पा सकता हूँ। १. द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, ४५वॉ पद । २. अध्यात्मबारहखडी, बडामन्दिर, जयपुरकी हस्तलिखित प्रति, 'ग' अक्षर, ७५वाँ पद्य। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "गूढ़ स्वभाव जिनिंद सदा तू सब पती, महिमा तेरी गूढ़ लहै नहिं गणपती । तू गूढातमदेव निरन्तर सब मही, मैं मतिहीन अयान भेद पायो नहीं ॥" स्मरण सभी भक्त अपने-अपने आराध्यका स्मरण करते है । स्मरण ही वियोगीका एकमात्र सहारा है । उसीके बलपर भक्त जीवित रहता है। भक्त तबतक स्मरण करता है, जबतक आराध्यमय नहीं हो जाता। राधा जब स्मरण करते-करते कृष्णमय हो गयो, तभी उसे चैन पड़ा। जैन आचार्योने स्मरण और ध्यानको पर्यायवाची कहा है । स्मरण पहले तो रुक-रुककर चलता है, फिर शनैः-शनैः उसमे एकतानता आती जाती है, और वह ध्यानका रूप धारण कर लेता है। स्मरणमे जितनी अधिक तल्लीनता बढ़ती जायेगी, वह उतना ही तद्रूप होता जायेगा । 'एकीभाव स्तोत्र मे लिखा है कि भगवान्के ध्यानसे मुझमे 'त्वय्येवाई की मति उत्पन्न हो जाती है। 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र'मे कहा गया है कि जिनेन्द्रके ध्यानसे क्षणमात्रमें यह जीव परमात्म दशाको प्राप्त हो जाता है।' हिन्दीके जैन कवियोंने सतत स्मरणके बलपर भगवान्के तादात्म्यकी बात अनेक स्थानोंपर कही है। कवि बनारसीदासने 'अध्यात्मगीत'में लिखा है, "भागइ भरम करत पिय ध्यान । फाटर तिमिर ज्यों ऊगत मान ।" कवि १. प्रादुर्भूतस्थिरपदसुख त्वामनुध्यायतो मे, त्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा । मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्तिमभ्रेषरूपां, दोषात्मानोऽप्यभिमतफलास्त्वत्प्रसादाद्भवन्ति ॥ -एकोभावस्तोत्र, १७वा पद्य । २. ध्यानाजिनेश भवतो भविनः क्षणेन, देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीवानलादुपलभावमपास्य लोके, चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥ -कल्याणमन्दिरस्तोत्र, १५वा श्लोक । ३. बनारसीविलास, जयपुर, अध्यात्मगीत, १५वॉ पद्य, पृ० १६१ । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ द्यानतरायका कथन है कि 'आतमराम' सो लगनेसे अर्थात् ध्यान करनेसे 'दुविधा भाव' दूर हो जाता है, भक्त और स्वामीमे भेद नहीं रहता, दोनो एक हो जाते है। भैया भगवतीदासने 'सूआबत्तीसी' मे “ध्यावत भाप माहिं जगदीश, दुहुं पद एक बिराजत ईश ।" लिखकर ध्यानसे तादात्म्यकी बातको पुष्ट ही किया है । प० दौलतरामने भी "तब वास्यौं विछरूँ नहीं, ध्याऊँ है निरग्रन्थि " लिखा है । २ 3 ૪ स्मरणसे केवल भगवान्‌का तादात्म्य ही नहीं, अपितु भौतिक विभूति भी उपलब्ध होती है । मुनि वादिराजका शरीर कोढ़को दुर्गन्धिसे युक्त था, जिनेन्द्रकी स्मृति से स्वर्ण - जैसा चमक उठा । हिन्दीके कवि द्यानतरायका कथन है कि प्रभुके स्मरणसे यह जीव तर तो जाता ही है, साँप और मेढक जैसे जीवोंको सुरपद भी प्राप्त होता है । देवताओंका वैभव प्रसिद्ध है। भैया भगवतीदासने 'परमात्मछत्तीसी' मे लिखा है, "राग द्वेष को त्याग के घर परमातम ध्यान | ज्यों पावे सुख सम्पदा, मैया इम कल्यान ॥ सांसारिक विभूतियोंकी प्राप्ति होती अवश्य है, किन्तु हिन्दीके जैन कवियोंने आध्यात्मिक सुखके लिए ही बल दिया है । प्रभुके स्मरणपर तो लगभग सभी कवियोंने जोर दिया है, किन्तु ध्यानवाची स्मरण जैन कवियोंकी अपनी विशेषता है । " १७ दर्शनकी महिमा आराध्यको सतत देखते रहनेकी तीव्र अभिलाषा कभी बुझती नहीं । अँखियाँ हरि-दरसनकी भूखी बनी ही रहती है। हो भी क्या, प्रभु लावण्यसिन्धु हैं, उनके लावण्यजलसे प्यासेकी प्यास तृप्त नहीं होती । गोपीके नेत्र तो कृष्णके मुखको देखते ही लुभा जाते थे, अर्थात् इस भांति आनन्दमग्न हो जाते थे कि उन्हे लोक १. द्यानतपदसंग्रह, ३हवा पद । २. ब्रह्मविलास, सूमा बत्तीसी, ३० वॉ पद, पृ० २७० । ३. अध्यात्म बारहखडी, प्रारम्भ, ४६वॉ पद्य । ४. ध्यानद्वारं मम रुचिकरं स्वान्तगेह प्रविष्ट स्तत्कि चित्रं जिनवपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि || एकीभावस्तोत्र, ४था श्लोक । ५. थानतपदसंग्रह, कलकत्ता, ' ७७वाँ पद । ६. ब्रह्मविलास, परमात्मछत्तीसी, ३५वा पद्य, पृ० २३० । ३ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मनि-काव्य और कवि लज्जा और कुलकानिका भी ध्यान नहीं रहता था। इधर अभी तीर्थकरका जन्म ही हुआ है कि इन्द्र टकटकी लगाकर निरखने लगा । तृप्त नही हुआ तो सहस्रनेत्र धारण कर लिये । तृप्ति फिर भी न मिल सकी । भट्टारक ज्ञानभूषणने 'आदीश्वरफागु' मे बालक आदीश्वरके सौन्दर्यका वर्णन करते हुए लिखा है, "देखनेवाला ज्यों-ज्यों देखता जाना है, उसके हृदयमे वह बालक अधिकाधिक भाता जाता है।" अर्थात् वह तृप्ति का अनुभव नही करता। और ये नेत्र जब अपने प्रियको नहीं देख पाते तो उसके प्रतीक्षा-पथपर बिछे रहते है। दिन और रात देखते रहनेसे आँखें लाल हो जाती है, किन्तु दुखती नही, क्योकि प्रियमिलनकी ललक उन्हे निरन्तर देखते रहनेकी शक्ति देती है। महात्मा आनन्दधनने लिखा है कि मार्गको निहारते-निहारते आँखें स्थिर हो गयी है, जैसे कि योगी समाधिमें और मुनि ध्यानगे होता है। वियोगकी बात किससे कही जाये । मनको तो भगवान्का मुख देखनेपर ही शान्ति हो सकती है, "पंथ निहारत लोयणे, द्रग लागी अडोला । जोगी सुरत समाधि मैं, मुनि ध्यान झकोला ॥ कौन सुनै किनकुं कहुँ, किम मांडं मैं खोला । तेरे मुख दीठे हले, मेरे मनका चोला ॥" हिन्दीके जैन कवियोने हृदयमे बैठे 'आतमराम' के दर्शनकी बात अनेक बार कही है। उन्हें उसके देखनेसे एक चरम आनन्दकी अनुभूति मिलती है । उसके दर्शनसे यह जीव स्वयं भी 'परमातम' बन जाता है। आनन्दतिलकने 'महानन्दिदेउ' में लिखा है, "अप्प विंदु ण जाणहिं आणंदा रे । घट महि देव अणंतु " कवि विद्यासागरने 'विषापहारछप्पय' मे लिखा है कि 'बहु देहों के मध्य 'एक रूप' 'धुतिवंत' जिनदेव विराजमान हैं, जो मुख धुमाकर देखता है, उसे परमसुख मिलता है । भट्टारक शुभचन्द्रने भी 'तत्त्वसारदूहा' मे, "देह भीतर तिम अप्प १. आहेकनियकुण्डल झलकइ खलकइ नेउर पाइ। जिम जिम निरखइ हरखइ यिडइ तिम तिम भाइ । आदीश्वरफागु, आमेरशास्त्रभण्डारकी हस्तलिखित प्रति, ६६वॉ पद्य । २. आनन्दघनपद संग्रह, अध्मात्मज्ञानप्रसारकमण्डल, बम्बई १६वॉ पद । ३. आनन्दतिलक, मानन्दिदेउ, आमेरशास्त्रभण्डारकी हस्तलिखित प्रति, तीसरा पद्य । ४. विद्यासागर, विषापहारछप्पय, दिव्जैनशास्त्रभण्डार दूंगी, गुटका नं० १४३, ७वाँ पद्य। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्ति : प्रवृत्तियाँ ४९ सरूप, शुद्ध दूध माहिं रहि जिम त्रप ।" लिखा है। उन्होंने देहके भीतर रहनेवाले 'अमुत्त अप्पा' के दर्शन से परमानन्द प्राप्त होनेकी बात तो एकाधिक बार लिखी है । कवि ब्रह्मदीपने 'अध्यात्मबावनी' मे स्पष्ट ही कहा है, "जै नीकै घरि घटि महि देखै, तौ दरसनु होइ तबहि सबु पेखै ।” पाण्डे हेमराजने 'उपदेश दोहाशतक' मे लिखा है कि घटमे बसे निरंजनदेवके दरसनसे ही 'सिवषेत' मिलता है, अन्यथा नही । कवि बनारसीदासका कथन है कि घटमे रहनेवाले इस परमात्मा के रूपको देखकर महा रूपवन्त थकित हो जाते है, उसके शरीर की सुगन्धिसे अन्य सुगन्धियाँ छिप जाती है । 'आतमराम' के दर्शनसे भक्तको केवल हृदयके भीतर ही आनन्दको अनुभूति नहीं होती, अपितु उसे समूची पृथ्वी भी आनन्दमान दिखाई देती है । सिंहलद्वीप से आये हुए रतनसेनको जब नागमतीने देखा तो उसे पूरा विश्व हरा-भरा दिखाई दिया । बनारसीदासने भी प्रिय 'आतम' के दर्शन से प्रकृतिमात्रको प्रफुल्लित दिखाया है । द्यानतरायने तो सब जगह वसन्त फैला हुआ देखा है । भगवान् के 'दर्शन' मे असीम बल है। दर्शन मात्र से ही सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती है । अत: जैन कवि जिनेन्द्रको चिन्तामणि और कल्पवृक्ष - जैसे सम्बोधनोसे सदैव सम्बोधित करते रहे है । किन्तु 'दर्शन' से भौतिक सुख पानेका अधिक कथन जैन संस्कृत स्तोत्रोमे उपलब्ध होता है । हिन्दीके जैन कवियोंने आध्यात्मिक आनन्दपर ही अधिक बल दिया है । यशोविजयजीने अपने 'पार्श्वनाथस्तोत्र' मे लिखा है, "कल्पद्रुमोse फलितो लेभे चिन्तामणिर्मया । प्राप्त कामघटः सद्यो यज्जातं तव दर्शनम् ॥ क्षीयते सकलं पापं दर्शनेन जिनेश ! ते । तृण्या प्रलीयते किं न ज्वलितेन हविर्भुजा ॥" १. तत्त्व रहा, मन्दिरठोलियान, जयपुरकी हस्तलिखित प्रति, २१वी चौपई । २. ब्रह्मदीप, अध्यात्मबावनी, पण्ड्या लूणकरजीका मन्दिर, जयपुर, गुटका नं० ११४, ४३वाँ पद्य । ३. कोटि जनम लौ तप तर्प, मन बच काय समेत । सुद्धतम अनुभौ बिना क्यो पावै सिवषेत ॥ उपदेशदोहाशतक, बधीचन्दजीका मन्दिर, जयपुर, वेष्टन नं० ६३६, १८वाँ दोहा । ४. बनारसीविलास, अध्यात्मपदपंक्ति, ७वाँ पद | Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि यहाँ कवि पापके क्षयसे जिस पुण्यके उदयकी कल्पना कर रहा है, वह पुत्रपौत्रादिक, धन-सम्पत्ति और रोगक्षयसे अधिक सम्बन्धित है। हिन्दीके कवि प० दौलतरामने केवल इतना ही कहा कि भगवान के दर्शनसे जिस दिव्य आनन्दकी अनुभूति होती है, उसके समक्ष सांसारिक सुखजन्य आनन्द तो अत्यधिक गौण है । भक्तिसे अंगोंकी सार्थकता 'भक्ति'मे समर्पणका भाव प्रधान होता है। भक्त अपने जीवनको तभी सार्थक मानता है, जब वह भगवान्के चरणोंपर समूचा चढ़ जाये । चरणोंपर चढ़ जानेका तात्पर्य यह नहीं है कि भक्त अपनी बलि दे दे । आगे चलकर तान्त्रिक सम्प्रदायमे बलिको भक्तिके रूपमे स्वीकार किया गया। यह समर्पणवाले पहलकी विकृत व्याख्या थी। यद्यपि तान्त्रिक सम्प्रदायका प्रभाव जैन देवियोंपर दिखाई देता है, किन्तु वह बलि और मास-भक्षण तक नहीं पहुंच पाया है। अत. जैन भक्त कवियोने अपनेको समर्पित तो किया, किन्तु बलिके रूपमें नहीं। जैन भक्तके समर्पणमे एक निराला सौन्दर्य था। उसने अपने प्रत्येक अंगकी सार्थकता तभी मानी जब वह जिनेन्द्र की भक्तिमे तल्लीन हो । आचार्य समन्तभद्रने 'स्तुतिविद्या' मे लिखा है, "प्रज्ञा वही है, जो तुम्हारा स्मरण करे, शिर वही है, जो तुम्हारे पैरोंपर विनत हो, जन्म वही है, जिसमे आपके पाद-पद्मका आश्रय लिया गया हो, आपके मतमें अनुरक्त होना ही मांगल्य है, वाणी वही है, जो आपकी स्तुति करे और विद्वान् वह ही है, जो आपके समक्ष झुका रहे।" वप्पभट्ट सूरिने भी 'जिनस्तवनम्' मे लिखा है, "वे आँखें नहीं जो आपका दर्शन नही करतीं, वह चित्त नही जो आपका स्मरण नहीं करता, वह वाणी नहीं जो आपके गुणोको नहीं गाती और प्रज्ञा सा स्मरतीति या तव शिरस्तद्यन्नतं ते पदे जन्मादः सफलं परं भवभिदी यत्राश्रिते ते पदे । माङ्गल्यं च स यो रतस्तव मते गीः सैव या त्वा स्तुते ते ज्ञा या प्रणता जनाः क्रमयुगे देवाधिदेवस्य ते ॥ स्तुतिविद्या, ११३वाँ श्लोक। न तानि चक्षुषि न यनिरीक्ष्यसे न तानि चेतांसि न यविचिन्त्यसे । न ता गिरो या न वदन्ति ते गुणान्न ते गुणा ये न भवन्तमाश्रिताः॥ जैनस्तोत्रसन्दोह, शान्तावेषापराभिधानं साधारणजिनस्तवनम् , ६ठा श्लोक । २. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ वे गुण नही जो आपके सहारे न टिके हों।" यशोविजयने 'पार्श्वनाथस्तोत्र' में, श्री धर्मसूरिने 'श्रीपार्श्वजिनस्तवनम्' मे और आनन्दमाणिक्य गणिने 'पार्श्वनाथस्तोत्र' मे इन्ही विचारोको प्रकट किया है। हिन्दी कवियोंने भी इस सरस परम्पराको अपनाया । कवि द्यानतरायका एक पद इस प्रकार है, "रे जिय जनम लाहो लेह । चरन ते जिन भवन पहुँचै, दान दें कर जेह ॥१॥ उर सोई जामैं दया है, अरु रुधिर को गेह । जोम सो जिननाम गाचे, साँच सो करै नेह ॥२॥ आँख ते जिनराज देखें और आँखें खेह । श्रवन ते जिन वचन सुनि शुभ तप तपै सो देह ॥३॥ सफल तन इह माँति है है, और भाँति न केह । है सुखी मन राम ध्यावो, कहैं सद्गुरु येह ॥४॥" कवि मनरामके 'मनराम-विलास'मे भी ऐसे ही एक पदकी रचना हुई है। उन्होंने लिखा है कि वे ही नेत्र सफल है, जो निरंजनका दर्शन करते है। सीस तभी सार्थक है, जब जिनेन्द्रके समक्ष झुके। उन्ही श्रवणोंकी सार्थकता है, जो जिनेन्द्रके सिद्धान्तको मुनते है। जिनेन्द्रके नामको जपनेमे ही मुखको शोभा है। उत्तम हृदय वही है, जिसमे धर्म बसता है। हाथोंकी सफलता प्रभुको प्राप्त करनेमे ही है। चरण तभी सार्थक है, जब वे परमार्थके पथपर दौड़ते है। "नैन सफल निर] जु निरंजन, सीस सफल नमि ईसर झावहि । श्रवन सुफल जिहि सुनत सिद्धान्तहि, मुषज सफल जपिए जिन नांवहि । हिर्दो सफल जिहि धर्म बसै ध्रुव, करन सुफल पुन्यहि प्रभु पावहि । चरन सफल 'मनराम' वहै, गनि जे परमारथ के पथ धावहि ॥" भैया भगवतीदासके 'पंचेन्द्रिय संवाद' मे प्रत्येक इन्द्रियने अपनी प्रशंसा यह कहकर ही की है कि मेरे-द्वारा जैसी भगवद्भक्ति सम्पन्न हो सकती है, अन्यसे नही। एक स्थानपर जीभने कहा, "जीमहि ते जपत रहै, जगत जीव जिन नाम । जसु प्रसाद तें सुख लहै, पावै उत्तम ठाम ॥" इसी भांति आँखका कथन है कि आँखसे जिनेन्द्र बिम्ब और प्रतिमा देखे बिना इस जीवका कल्याण सम्भव नहीं है । सारांश यह है कि 'पंचेन्द्रिय संवाद' में प्रत्येक इन्द्रियकी सार्थकता भगव १. द्यानतपद संग्रह, कलकत्ता, वॉ पद, पृ०४। २. मनराम विलास, मन्दिर ठोलियान, जयपुर, वेष्टन नं० ३६५, ६०वॉ पद्य । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि द्भक्तिमें ही मानो गयी है । जगराम, जोधराज, विनयविजय, देवाब्रह्म और रूपचन्दके पदोमें भी यह ही बात है। भक्तिके लिए मनको चेतावनी कबीर आदि निर्गुनिये सन्तोको साखियों और पदोमे 'चेतावणी को अंग' प्रमुख है । इस अंगमे मन या चेतनको संसारके माया-मोहसे सावधान किया गया है। उसका तात्पर्य यह ही है कि यह मन संसारके जालमे फंसा है। उसे चाहिए कि वहाँसे निकलकर ब्रह्मको भक्तिमें तल्लीन हो। चेतावनीवाली बात जैन और बौद्ध-साहित्यमे अधिक मिलती है, क्योंकि ये दोनों ही धर्म विरक्तिप्रधान है । वैसे तो जैन प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भक्तिपरक काव्यमें वैराग्यका स्वर ही प्रबल है, किन्तु उनमे चेतनको सम्बोधन कर रचे गये हिन्दी के पद-साहित्यजैसा लालित्य नहीं है । बौद्धोंके सिद्ध साहित्यमे भी नहीं है। ___ कवि भूधरदास अपने पदोके प्रसादगुणके लिए प्रसिद्ध है । मन, जीव या चेतनको सम्बोधन कर लिखे गये उनके पद अत्यधिक सरस है । एक पदमे उन्होंने लिखा है, "यह संसार रैनका सपना है, तन और धन पानीके बुलबुलेके समान हैं। यौवनका कोई भरोसा नहीं, वह अग्निमें तृणके ढेरकी भांति जल जायेगा, दूसरी ओर काल कुदाल लिये सिरपर खड़ा है, तू अपने मनमे फूला हुआ क्या समझ रहा है। कन्धेपर कुदाल रखकर मोहरूपी पिशाचने तेरी बुद्धिको काट दिया है। अतः हे जीव ! दुर्मतिके सिरपर धूल डालकर श्री राजमतीवरका भजन कर।" 'भैया' के पद तेजस्वितासे समन्वित है। उन्होंने अनेक पद्योंमें चेतनको करारी फटकार दी है। उन्होंने एक सवैयामे लिखा है, "अरे ओ चेतन ! १. भगवन्त भजन क्यों भूला रे। यह संसार रैन का सपना, तन धन वारि बबूला रे ॥ इस जोवन का कौन भरोसा, पावक मे तृण पूला रे । काल कुदार लिये सिर ठाड़ा, क्या समझे मन फूला रे ।। मोह पिशाच छल्यो मति मारे, निज कर कंध वसूला रे । भज श्री राजमतीवर भूधर, दो दुरमति सिर धूला रे ॥ भूधरविलास, कलकत्ता, १६वॉ पद । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ २३ अनादिकाल व्यतीत हो गया, क्या तुझे अब भी चेत नहीं हुआ। चार दिनके लिए ठाकुर हो जानेसे क्या तू गतियोंमे घूमना भूल गया है। तू इन्द्रियोंके संग क्या लगा हुआ है। तू चेतनहारा होकर भी चेतता क्यों नही ?" भैयाकी फटकारोंका अन्त नहीं है। कही तो वे कहते है, "हे चेतन ! तेरी मति किसने हर ली है। तू अपने परम पदको क्यो नही समझता।" कही कहा, "हे चेतन ! उन दुःखोंको भूल गये, जब नरकमे पड़े संकट सहते थे, अब महाराज हो गये हो।" अन्तमें समझाते हुए कहा, "भगवंत भजो सु तजो परमाद, समाधि के संग में रंग रहो। अहो चेतन त्याग पराइ सुबुद्धि, गहो निज शुद्धि ज्यों सुक्ख लहो ॥" अपने ही घटमे बसे चिदानन्दको यह चेतन देख नहीं पाता । जब देखता ही नही तो भक्ति कैसी? किन्तु इसका कारण क्या है ? कारण है माया। जैन साहित्यमे मायापर बहुत कुछ लिखा गया है। मायाका सम्बन्ध मोहनीय कर्मसे है। आठ कर्मोमे मोहनीय प्रबलतम माना गया है। मोहके कारण ही यह जीव भटकता फिरता है। मोह और माया पर्यायवाची शब्द है। कबीरने भी मायाको स्वीकार किया है। कबीरके घटमे बिराजे रामको न देख पानेमे भी माया ही कारण है। जैन कवियोने मायाको 'ठगनी' कहा है, क्योकि वह समूचे संसारको ठगकर खा जाती है। जो इसपर विश्वास करता है, वह मूर्ख पीछेसे पछताता है। कबीरने मायाको महाठगनी कहा है, क्योकि उसके जालसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी बच नहीं सके है। इस मायासे बचाने के लिए देवाब्रह्मने एक १. केवल रूप विराजत चेतन, ताहि विलोकि अरे मतवारे । काल अनादि वितीत भयो, अजहूँ तोहि चेत न होत कहा रे ॥ भूलि गयो गति को फिरबो, अब तो दिन च्यारि भये ठकुरारे। लागि कहा रह्यो अक्षनि के संग, चेतत क्यो नहिं चेतन हारे । ब्रह्मविलास, शतअष्टोत्तरी, ५०वॉ पद्य, पृ० १६ ।। २. ब्रह्मविलास, परमार्थपद पंक्ति, २०वॉ और २१वॉ पद, पृ० ११६ । ३. ब्रह्मविलास, शतअष्टोत्तरी, १०२वॉ पद्य, पृ० ३१ । ४. सुन ठगनी माया, तैं सब जग ठग खाया। टुक विश्वास किया जिन तेरा सो मूरख पिछताया ॥ भूधरदास, भूधरविलास, वॉ पद, पृ० ५। ५. माया महाठगनी हम जानी। तिरगुन फाँसि लिये कर डोल, बोलै मधुरी बानी।। कबीर, सबद, सन्तसुधासार, वियोगी हरि सम्पादित, दिल्ली, पृ० १०१ । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि पदमे लिखा है कि जैसे बादीगरका बन्दर, बादीगरके कहने पर बारम्वार नाचता है, वैसे ही यह जीव मायाके आदेशपर नृत्य करता है । कवि रूपचन्दने 'अध्यात्म सवैया' में कहा है कि हे मूढ जीव ! महामाया के वशीभूत होकर तू ब्रह्मके सम्मुख गमन नही कर पाता । महात्मा आनन्दघनने 'आनन्दघनबहत्तरी' मे लिखा है कि हे चेतन ! तुम मायाके बसमे हो गये हो, अतः अपने ही हृदयमें विराजमान समतारूपी आनन्दको प्राप्त नहीं करते। द्यानतरायने मायाममतासे पीछा छुड़ाकर इस बावरे मनको अरिहंतका स्मरण करने के लिए कहा है, २४ "अरहंत सुमर मन बावरे । ख्याति लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लौ लाव रे ॥ युवती तन धन सुत मित परिजन, गज तुरंग रथ चात्र रे । यह संसार सुपन की माया, आँख मींच दिखराव रे ॥ ध्याय- ध्याय रे अब है दाव रे, नाहीं मंगल गाव रे । धानत बहुत कहाँ लौं कहिए, फेर न कछू उपाव रे ॥” बावनी और शतक आदिमें जैन भक्ति मध्यकालीन हिन्दीके जैन भक्त कवियोने बावनी, शतक, बत्तीसी और छत्तीसी आदि रूपोंमें अपने भाव अभिव्यक्त किये हैं । जैनोंके संस्कृत- प्राकृत साहित्य में ऐसी रचनाएँ उपलब्ध नही हैं । अजैन हिन्दी कवियों में भी इनका प्रणयन अल्प ही हुआ है । बारहखड़ीके अक्षरोंको लेकर सीमित पद्योमे काव्य-रचना करना हिन्दीके जैन कवियोंकी अपनी विशेषता है । प० दौलतरामका लिखा हुआ 'अध्यात्म बारहखड़ी' नामका एक बृहद् काव्य ग्रन्थ, दि० जैन मन्दिर बड़ोतके प्राचीन शास्त्र भण्डारमे उपलब्ध हुआ है । यह ग्रन्थ आठ अध्यायोमे विभक्त है । इसमें लगभग आठ हजार पद्य है । बारहखड़ी के प्रत्येक अक्षरको लेकर लिखा गया इतना बड़ा मुक्तक काव्य जैन हिन्दीको अनन्य देन है । बारहखड़ीमें बावन अक्षर होते हैं । अधिकाश रूपमे प्रत्येक अक्षरको लेकर एक-एक पद्यकी रचना कर १. महावीरजी श्रतिशयक्षेत्रका एक प्राचीन गुटका, 'मोहफंदबसि नाचीयो' पद देखिए । २. " मूढ महामायामई को न ब्रह्म सनमुख गमन", अध्यात्मसवैया, मन्दिर बधी - चन्द, जयपुरकी हस्तलिखित प्रति वा पद्य । ३. आनन्दघनबहत्तरी, परमश्रुतप्रभावकमण्डल, बम्बई, १२वाँ पद | Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्तिः प्रवृत्तियाँ २५ बावनियोंका निर्माण होता रहा है। जैन हिन्दी-कवियोंने उनका अधिकाधिक निर्माण किया। उनमे भक्तिपरक अनुपम भाव सन्निहित है ।उदयराज जतीकी 'गुणबावनी', हीरानन्द मुकीमकी 'अध्यात्मबावनी', पाण्डे हेमराजको 'हितोपदेशबावनी', पं० मनोहरदासको 'चिन्तामणि मानबावनी', जिनहर्षकी 'जसराजबावनी', जिनरंगसूरिकी 'प्रबोधबावनी', लक्ष्मीबल्लभकी 'दूहाबावनी' और 'सवैयाबावनी', किशनसिंह की 'बावनी', निहालचन्दकी 'ब्रह्मबावनी' और भवानीदासको हितोपदेश बावनी', बावनी साहित्यकी महत्त्वपूर्ण कृतियां है। हेमराजकी 'मक्षरबावनी" का एक पद्य इस प्रकार है, "उज्ज्वल निरमल चित्त प्रभु नित्य सेव रे । ध्याइये शुकल ध्यान पामीये केवक ग्यान चरण कमल नमित जी अहमेव रे ॥ हीश्रा की कुमति हरि जीव में सुमति धरि पूजिये ज सुद्ध भाव भगवंत देव रे । श्रेणिक रावण जाण पूजिये ज भगवान पूजाघ की जिन पद लह्यो ततषेव रे ॥ हेमराज भणई मुनि सुणो सजन जन मन मेरो उमग्यो है जिण गुण गायबो ॥१०॥" जैन हिन्दी काव्यमें 'शतक' का प्रचलन कम था। १०० पद्योंकी रचनाको शतक कहते है । पद्य १०० से कुछ कम बढ़ भी हो सकते थे। पाण्डे रूपचन्दका ‘परमार्थी दोहाशतक' और भवानीदासके 'फुटकर शतक'का उल्लेख इस ग्रन्थमे है। भैयाके 'परमात्मशतक' मे भावगाम्भीर्यके साथ शब्दालंकारोंका सौन्दर्य भी उपलब्ध है। यमक और श्लेषका खूब प्रयोग हुआ है। पाण्डे हेमराजका 'उपदेश दोहाशतक' दीवान बधीचन्दजीके मन्दिर ( जयपुर ) के शास्त्रभण्डारमे उपलब्ध हुआ है । भवानीदासका 'फुटकर शतक' बनारसके रामघाटके एक प्राचीन जैनमन्दिरमें मिला है। बहत्तरियां तो शतकोसे भी कम रची गयीं। समूचे जैन हिन्दी काव्यमें आनन्दघनकी 'आनन्दधन-बहत्तरी' और श्री जिनरंगसूरिकी 'रंगबहत्तरी' ही बहत्तरीके नामसे रची गयी है। अन्य कृतियां भी हो सकती है । किन्तु वे अभीतक भण्डारोंकी खोजका विषय है। आनन्दघनबहत्तरीमें भक्ति और अध्यात्मका समन्वय है। उसके पद्य भावविभोरता और सरसताके लिए प्रसिद्ध १. हेमराजकी अक्षरबावनीकी हस्तलिखित प्रति बड़े जैन मन्दिर, जयपुरमें मौजूद है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि हैं। 'रंगबहत्तरी' में भी चेतनको भगवान्की ओर उन्मुख होनेकी बात कही गयी है। कवि द्यानतराय और बिहारीदासको दो कृतियां ऐसी है, जिनमें केवल ५० पद्य है। उनके नाम क्रमशः 'अध्यात्म-पंचासिका' और 'सम्बोध-पंचासिका' है। हिन्दी के जैन कवियोंकी सर्वाधिक कृतियां बत्तीसी, छत्तीसी और पच्चीसियोंके नामसे रची गयीं। प्रायः इनका निर्माण व्यंजनाक्षरोको आधार मानकर किया गया है। बनारसीदासको 'ध्यानबत्तीसी' और 'अध्यात्मबत्तीसी', मनरामकी 'अक्षरबत्तीसी', अचलकीतिकी 'कर्मबत्तीसी', लक्ष्मीबल्लभकी 'चेतनबत्तीसी' और 'उपदेशबत्तीसी', भैया भगवतीदासको 'अक्षरबत्तीसी', भवानीदास तथा अजयराजको 'कक्काबत्तीसी' इनमे व्यंजनाक्षरोके आधारवाली ही बात है। भैया भगवतीदासने तो 'मनबत्तीसी', 'स्वप्नबत्तीसी' और 'सूआबत्तीसी' नामकी अन्य बत्तीसियां भी लिखी है । छत्तीसियोकी रचना भी पर्याप्त हुई है। कुशललाभको 'स्थूलभद्रछत्तीसी', सहजकीत्तिकी 'प्रातिछत्तीसी', उदयराज जतीकी 'भजन छत्तीसी', जिनहर्षकी 'उपदेशछत्तीसो', भवानीदासको 'सरधाछत्तीसी' और बनारसीदासकी 'कर्मछत्तीसी' प्रसिद्ध कृतियां है । पच्चीसीमे केवल पच्चीस पद्य होते है । द्यानतरायको 'धर्मपच्चीसो', विनोदीलालकी 'राजुलपच्चीसी' और 'फूल-मालपच्चीसी' तथा बनारसीदासकी 'शिवपच्चीसी' पच्चीसी काव्यकी उज्ज्वल मणियां है। पच्चीसियोकी रचनामे 'भैया' का नाम सर्वप्रथम आता है। उन्होंने 'पुण्यपचीसिका', 'अनित्यपचीसिका', 'जिनधर्मपचीसिका', 'सम्यवत्वपचीसिका', 'वैराग्यपचीसिका', 'नाटकपच्चीसी', . 'ईश्वरनिर्णयपच्चीसी', 'कर्ता-अकर्ता पच्चीसी' और 'दृष्टान्तपच्चीसो' की रचना की है। ये सब 'ब्रह्मविलास'मे संकलित है। रूपकोंमें भक्ति हिन्दीका मध्यकाल रूपकोंका युग था। कबोर और सूरदास दोनों ही ने अपने भक्तिपरक भाव रूपकोके माध्यमसे ही अभिव्यक्त किये है। कबीरपर भले ही सूफी प्रभाव हो, किन्तु उन्होंने प्रेमके रूपकोंमे भारतीय परम्पराको ही अपनाया है । कबीरने पत्नीकी पतिके लिए बेचैनी प्रकट की है, पतिकी पत्नीके लिए नहीं । भगवद्विषयक अनुरागको लेकर हिन्दीके जैन कवि प्रेमरूपकोंकी रचना करते रहे हैं। उनका विवेचन इसी ग्रन्थके तीसरे अध्यायमें किया गया है। वहाँ सुमतिरूपी पत्नीका चेतनरूपी पतिके लिए बेचैनीका भाव प्रकट हुआ है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ एक भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ पतिको पत्नीके लिए व्याकुल दिखाया गया हो। सूरदास आदि सगुणधाराके भक्त कवियोंके सहस्रों पदोंमे-से किसी-किसीमे पृथक्-पृथक् तो रूपक हैं, किन्तु उनकी कोई ऐसी समूची रचना नहीं, जो रूपक संज्ञासे अभिहित होती हो। जैन कवियोंकी अनेक कृतियाँ समूचे रूपमे 'रूपक' है । उनमे पाण्डे जिनदासका 'मालीरासो', उदयराज जतीका 'वैद्यविरहिणी प्रबन्ध', कवि सुन्दरदासका 'धर्मसहेली', पाण्डे रूपचन्दका 'खटोलना गीत', हर्षकीर्तिका 'कर्महिण्डोलना', बनारसीदासका 'माझा', अजयराजका 'चरखाच उपई' एवं 'शिवरमणी विवाह' और भैया भगवतीदासका 'सूआबत्तोसी' और 'चेतनकर्मचरित्र' प्रसिद्ध रूपक काव्य है। कवि बनारसीदासका 'नाटकसमयसार' एक उत्तम रूपक है । उसमे सात तत्त्व अभिनय करते है । जीव नायक और अजीव प्रतिनायक है । ऐमी सरस कृति हिन्दीके भक्ति-काव्यको एक अनूठी देन है। सूरसागरको भांति जैन कवियोके पदोमे से एक-एकमे भी 'रूपक' सन्निहित है । भूधरदासके "मेरा मन सूवा, जिन पद पीजरे वसि, यार लाव न वार रे", "जगत जन जूवा हारि चले", "चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पुराना", द्यानतरायके "परम गुरु बरसत ज्ञान झरी", "ज्ञान सरोवर सोई हो भविजन", भैयाके “काया नगरी जीवनृप, अष्टकर्म अतिजोर" में रूसकोका सौन्दर्य है। जैन कवियोंके रूपक अधिकांशतया प्रकृतिसे लिये गये है। अतः इनमे सौन्दर्य है और शिवत्व भी। वे निर्गुनिए सन्तोकी भांति कलाहीन भी नही है । देवाब्रह्मके एक पदमे चेतन और सुमतिकी होलोसे सम्बन्धित एक रूपक देखिए', "चेतन सुमति सखी मिल, दोनों खेलो प्रीतम होरी ॥टेक॥ समकित ब्रत कौ चौक वणावौ, समता नीर भरावौ जी। क्रोध मान की करो पोटली, तो मिथ्या दोष भगा जी ॥१॥ ग्यान ध्यान की ल्यो पिचकारी, तो खोटा भाव छुड़ावो जी। आठ करम को चूरण करिकै, मै कुमति गुलाल उड़ावो जी ॥२॥ जीव दया का गीत राग सुणि, संजम भाव बँधावो जी । बाजा सत्य वचन थे बोलो, तो केवल वांणी गावो जी ॥३॥ दान सील तो मेवा की ज्यौं, तपस्या करो मिठाई जी। 'देवाब्रह्म' या रति पाई छै, तौ मन बच काया जोड़ी जी ॥४॥" १ देवाब्रह्म, पद, बधीचन्दजीका मन्दिर, जयपुर, पदसंग्रह, ४६३, पत्र २८वॉ। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि जैन भक्तिके विशाल स्तम्भ : प्रबन्ध काव्य हिन्दीके जैन कवियोने अनेक महाकाव्योका निर्माण किया है। उनमे जिनेन्द्र अथवा उनके भक्तोंकी भक्ति ही मुख्य है। जैन अपभ्रंशके महाकाव्योंसे प्रभावित होते हुए भी हिन्दीके जैन भक्ति-काव्योंमे कुछ अपनी विशेषताएँ भी है। अपभ्रंशके महाकाव्य स्पष्ट रूपसे दो भागोमे विभक्त किये जा सकते है । स्वयम्भूका 'पउमचरिउ', पुष्पदन्तका 'महापुराण', वीर कविका 'जम्बूस्वामीचरिउ' और हरिभद्रका 'णेमिणाहचरिउ' पौराणिक शैलीमे तथा धनपाल धक्कड़की 'भविसयत्त कहा', पुष्पदन्तका 'णायकुमारचरिउ' और नयनन्दिका 'सुदंसणचरिउ' रोमाचक शैलीमे लिखे गये है । यद्यपि रोमांचक शैलीके महाकाव्योंका भी मूलस्वर भक्तिपरक ही है, किन्तु उनमे युद्ध और प्रेमका अभिनिवेश भी गौण नहीं है । हिन्दीके जैन महाकाव्योंमे पौराणिक और रोमांचक शैलीका समन्वय हुआ है। सधारुका 'प्रद्युम्नचरित्र', ईश्वरसूरिका 'ललितांगचरित', ब्रह्मरायमल्लका 'सुदर्शनरास', कवि परिमल्लका 'श्रीपालचरित्त', मालकविका 'भोजप्रबन्ध', लालचन्द लब्धोदयका 'पद्मिनीचरित', रामचन्द्रका 'सीताचरित' और भूधरदासका 'पार्श्वपुराण' ऐसे ही महाकाव्य है । इनमे 'पद्मिनीचरित' की जायसीके 'पद्मावत' से और 'सोताचरित' की तुलसीके 'रामचरितमानस' से तुलना की जा सकती है। अवशिष्ट महाकाव्योंमे भी कथाके साथ भक्तिका स्वर ही प्रबल है। जैन महाकाव्योंकी दूसरी विशेषता है बीच-बीचमे मुक्तक स्तुतियोकी रचना। यदि महाकाव्य तीर्थकरके जीवन-चरितसे सम्बद्ध होता है, तो पंचकल्याणकोंके अवसरपर स्तुतियोंका निर्माण होता ही है। अपभ्रंशकी अपेक्षा हिन्दीके महाकाव्योंमें इन स्तुतियोंकी रचना अधिक हुई है । भूधरदासके 'पार्श्वपुराण' में दस स्तुतियां हैं । ठीक प्रसंगपर निबद्ध होनेके कारण उनका सहज सौन्दर्य कथार्की रोचकताका सहारा पाकर और भी बढ़ जाता है। तीसरी विशेषता है इन महाकाव्योंका अन्तिम अध्याय, जिसमें नायकके केवलज्ञान प्राप्त करनेका भावपूर्ण विवेचन होता है। यहां नायकको आत्माके परमात्मरूप होनेकी बात कही जाती है। इसीको जीवात्माका परमात्माके साथ तादात्म्य होना कहते हैं । उस समय अन्तः और बाह्य आनन्दकी सृष्टिको पर्याप्त अवसर मिलता है । अर्थात् कविको भावुकता मुखर हो उठती है। उस समय कविके मुखसे जो कुछ निकलता है, वह आत्माके परमात्मरूपकी उपासना Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ २९ ही होती है। इस भाँति जैन महाकाव्य सगुण : सकल और निर्गुण : निष्कल की भक्तिके रूपमें ही रचे गये है। हिन्दीके जैन खण्डकाव्य अधिकांशतया नेमिनाथ और राजीमतीकी कथासे सम्बद्ध हैं। यद्यपि नेमिनाथ विवाहके तोरणद्वारसे बिना विवाह किये ही वैराग्य लेकर तप करने चले गये थे, किन्तु राजीमतीने उन्हीको अपना पति माना और उनके विरहमें विदग्ध रहने लगी। अतः उनके जीवनसे सम्बन्धित खण्डकाव्योंमे प्रेम-निर्वाहको पर्याप्त अवसर मिला है। उन्हें लेकर जैनकवि प्रेमपूर्ण सात्त्विकी भावोकी अनुभूति करते रहे है । इस दृष्टिसे ये काव्य रोमांचक कहे जा सकते है, किन्तु उनमे युद्धवाली बात नही है । हिन्दीके नेमिनाथपरक खण्डकाव्योमें राजशेखरसूरिका 'नेमिनाथफागु', सोमसुन्दरसूरिका 'नेमिनाथनवरसफागु', कवि ठकुरसीकी 'नेमीसुरकी बेलि', विनोदीलालका 'नेमिनाथ विवाह', मनरंगको 'नेमिचन्द्रिका', ब्रह्मरायमल्लका 'नमीश्वररास' और अजयराज पाटणीका 'नेमिनाथचरित' प्रसिद्ध काव्य-रचनाएं है । हिन्दीमे हरिवंशपुराण भी है, जिनमें नेमीश्वर और उनके भाई वासुदेव कृष्णका समूचा जीवन वर्णित है। हरिवंशपुराणोंकी परम्परा बहुत पुरानी है। हिन्दीके हरिवंशपुराण संस्कृत-अपभ्रंशके अनुवाद-भर है। उनमे कोई मौलिकता नहीं है। किन्तु साथ ही यह भी सच है कि हिन्दीके खण्डकाव्यों-जैसी सरसता और सुन्दरता सस्कृत और अपभ्रंशमे नही है। जैन भक्तिकी शान्तिपरकता कवि बनारसीदासने 'शान्त' को रसराज कहा है। उनका यह कथन जैनोंके 'अहिंसा' सिद्धान्तके अनुकूल ही है। जैन भक्ति पूर्णरूपसे अहिंसक है। जनेतर भक्तिमे हिंसाकी बात कहीसे भी आरम्भ हुई हो किन्तु थी अवश्य । वैदिक याज्ञिक अपने देवताओंको प्रसन्न करनेके लिए बलि दिया करते थे। शक्ति-पूजाके साथ हिंसाकी बात और भी बढ़ी। सोमनाथके शक्तिके मन्दिरमे भाद्रपदकी अमावसकी रातमे एकसो सोलह कुंआरी सुन्दरी कन्याओंकी बलिकी बात प्रसिद्ध ही है। तान्त्रिक-युगमे अहिंसक बौद्ध भी मांस, मदिरा और सुन्दरीसे निर्वाण-प्राप्ति मान उठे थे। जैन देवियां तान्त्रिक-युगसे प्रभावित १. 'नवमो शात रमनिको नायक', नाटकसैमयसार, बम्बई, १०।१३३, पृ० ३६१ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अवश्य है, किन्तु बात मांस और मदिरा तक नहीं बढ़ सकी है। जैन अपभ्रंशके 'दोहापाहुड' आदि ग्रन्थोंमे तान्त्रिक-युगके कतिपय शब्द पाये जाते है, फिर भी जैनभक्ति, चाहे वह पंचपरमेष्ठीसे सम्बन्धित हो, चाहे यक्ष आदि देवताओंसे अथवा पद्मावती आदि देवियोसे, हिंसासे यत्किचित् भी कभी भी प्रभावित नही हुई। जैन मन्दिर और अन्य भक्ति-स्थल सदैव अहिंसाके निदर्शन बने रहे। हिन्दीके जैनभक्तिपरक काव्यमे तान्त्रिक शब्दोंका अभाव तो है ही, हिन्दीके कवियोंने मन्त्राधिष्ठात्री पद्मावती आदि देवियोंकी वन्दना भी अल्पादपिअल्प हो की है। जैन हिन्दीके सभी प्रबन्ध काव्योंका प्रारम्भ सरस्वतीकी वन्दनासे हुआ है। सरस्वती ही उनकी इष्टदेवी है। मुक्तक काव्योंमें भी सरस्वतीकी पृथक् स्तुतियां रची गयी है । सरस्वती देवीको जैन कवियोंने शान्तरसको प्रतीकके रूपमें ही प्रस्तुत किया है। बनारसीदासको सरस्वतीकी स्तुति-वन्दनाका एक पद्य इस प्रकार है, "समाधान रूपा अनूपा अछद्रा, अनेकान्तधा स्याद्वादामुद्रा । त्रिधा सप्तधा द्वादशाङ्गी बखानी, नमो देवि वागीश्वरी जैनवानी ॥ अकोपा अमाना अदम्मा अलोमा, श्रतज्ञानरूपी मतिज्ञानशोभा । महापावनी भावना भव्यमानी, नमो देवि वागीश्वरी जैनवानी ॥" भक्तिके क्षेत्रमें अशान्तिका दूसरा कारण है विलासिता। जैन साहित्यकारोने विलासका सम्बन्ध भक्तिसे नहीं जोड़ा। जैन-साहित्यमें कोई मंगलाचरण ऐमा नही, जिनमें जगन्माताओंके सुहागरातोंका वर्णन हो। 'गीतगोविन्द'की राधा और 'रिट्ठणेमिचरिउ' की राजुलमें बृहदन्तर है । नेमिनाथ और राजुलसे सम्बन्धित सभी जैन काव्य विरह-काव्य है। उनमें राजुलके विरहका वर्णन है। राजुल विरहिणी थी उस पतिकी, जो सदाके लिए वैराग्य धारण कर तप करने गिरिनारपर चला गया था। अतः उसका विरह कामका पर्यायवाची नही था । उसमें विलासिताको गन्ध भी नहीं है। नेमिनाथ और राजुलको लेकर लिखे गये मंगलाचरण सात्त्विकतासे हो संयुक्त है। दूसरी ओर 'गीतगोविन्द' की राधाकी मुखर विलासिताको रवीन्द्रनाथ ठाकुरने भी स्वीकार किया है। गीतगोविन्दने भक्तिकाव्योंमे सस्ते श्रृंगारको स्थान दिलाया। हिन्दीके कवि विद्यापतिकी राधा भक्तिके स्थानपर विलासिताकी ही प्रतीक है। उसपर गीतगोविन्दका स्पष्ट प्रभाव है। हिन्दीके जैन महाकाव्योमे सीता, अंजना और १. बनारसीदास, शारदाष्टक, ५-६ पद्य, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० १६६ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ ३१ राजुलका सौन्दर्य है, उनका प्रेम और विरह भी, किन्तु सब कुछ शोलके ऐसे तागेमें बंधा है, जिसे अश्लीलता कभी तोड़ ही नही सकी । जहाँतक मुक्तक काव्योंकी दाम्पत्यरतिका सम्बन्ध है, वह चेतन और सुमतिके बीचमें हो चलती रही । अर्थात् हिन्दीके जैन कवियोंने दाम्पत्यरतिका सम्बन्ध भौतिक क्षेत्रसे जोड़ा ही नही । सब कुछ आध्यात्मिक ही रहा। उसे प्रकट करने के लिए जिन रूपकोंकी रचना हुई, उनमे भी विलासिताको स्थान न मिला । उपमा और उत्प्रेक्षाएँ भी मांसल प्रेमके क्षेत्रसे न ढूँढी गयीं । अशान्तिका तीसरा कारण है राग राग मोहको कहते है । जैन लोग मोहनीय कर्मको सबसे बड़ा मानते है । उसे काटनेमे सबसे अधिक समय लगता है। उसके कट जाने पर यह जीव परम शान्तिका अनुभव करता है । जैन लोग वीतरागकी उपासना करते है। वीतरागी की भक्तिसे ही समूचा जैन साहित्य भरा पड़ा है । जैन हिन्दी काव्य में तो सबसे अधिक राग छोड़ने की बात कही गयी है। वीतरागी प्रभुपर भी भक्त इसीलिए रीझा है कि वह रागको जीतकर ही प्रभु बने है । जैन भक्त कवि अन्य देवोकी उपासना इसीलिए नही कर सका कि १ "देखे देखे जगत के देव, राग रिस सौं भरे । 'के संग कामिनि कोऊ आयुधवान खरे ॥" काहू द्यानतरायने भी ऐसे ही वीतरागी भगवान्‌को प्रशंसा करते हुए कहा है कि हमने तीनों भवनोको छान डाला है, आपके समान कोई नहीं देखा । आप स्वयं तरे और संसार के जीवोको तारा, ममता धारण नहीं की । और देव रागी, द्वेषी अथवा मानी हैं, तुम राजुलको छोड़कर वीतरागी बने हो, २ "तुम समान कोउ देव न देख्या, तीन भवन छानी । आप तरे भवजीवनि तारे, ममता नहिं भनी ॥ और देव सब रागी द्वेषी, कामी कै मानी । तुम हो वीतराग अकषायी, तजि राजुल रानी ॥ " १. भूधरदास, भूधरविलास, कलकत्ता, २५वॉ पद, पृ० १४ । २. द्यानतराय, धानतपद संग्रह, कलकत्ता, २८वॉ पद, पृ० १२ । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२: जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १. राजशेखरसूरि ( वि० सं० १४०५) राजशेखरसूरिका जन्म प्रश्नवाहन नामके कुलमे हुआ था। वे श्री तिलकसूरिके शिष्य थे। श्री तिलकसूरि अभयदेवसूरिकी परम्परामें हुए हैं। अभयदेव नामके सात सूरिवर भिन्न-भिन्न गच्छोंमें हो चुके हैं। प्रस्तुत अभयदेव हर्षपुरीय गच्छके सूरि थे, इनका समय बारहवीं शताब्दीका पूर्वार्ध माना जाता है।' श्री राजशेखर भी कोटिकगणकी श्रीमध्यम शाखाके हर्षपुरीयगच्छसे सम्बन्धित थे। उनका विरुद मलधारी था। श्री राजशेखरसूरिने 'प्रबन्धकोश' की रचना ज्येष्ठ शुक्ला सप्तमी वि० सं० १४०५ में, दिल्लीमें रहकर की थी। 'प्रबन्धकोश' संस्कृत गद्यका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके उपरान्त ही उन्होंने श्रीधरकी 'न्यायकन्दली' पर एक पंजिकाकी रचना की। उनके 'विनोदकथासंग्रह' में अनेक रस-पद कथाओंका संकलन है । 'नेमिनाथ फागु' उनको एक प्रसिद्ध हिन्दी कृति है। १. मुनि, चतुरविजय सम्पादित, जैनस्तोत्र-सन्दोह, प्रथम भाग, प्रस्तावना, पृ० २१, अहमदाबाद, सन् १९३२ ई० । २. श्रीप्रश्नवाहनकुले कोटिकनामनि गणे जगद्विदिते । श्रोमध्यमशाखायां हर्षपुरीयाभिधे गच्छे ॥ मलधारिविरुद विदित श्री अभयोपपद सूरि सन्ताने । श्रोतिलकसूरिशिष्यः सूरिः श्रीराजशेखरो जयति ।। राजशेखरसूरि, प्रबन्धकोश, पृ० १३१, शान्तिनिकेतन, वि० सं० १६६१ । ३. शरगगनमनुमिताब्दे (१४०५) ज्येष्ठामूलीयधवलसप्तम्याम् । निष्पन्नमिदं शास्त्रं श्रोत्रध्येत्रोः सुखं तन्यात् ।। वही, पृ० १३१ । ४. मोहनलाल दुलीचन्द देसाई, जैन गुर्जरकविओ, भाग १, पृष्ठ १३, पादटिप्पणी, बम्बई, वि० सं० १९८२ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य नेमिनाथ फागु श्री मोहनलाल दुलीचन्द देशाईने 'नेमिनाथ फागु'का रचनाकाल वि० सं० १४०५ के लगभग स्वीकार किया है। 'नेमिनाथ फागु' मे २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ और राजुलकी कथाका काव्यमय निरूपण हुआ है । नेमिनाथ कृष्णके छोटे भाई थे । जूनागढके राजा उग्रसेनकी कन्या राजमती ( राजुल ) के साथ उनका विवाह निश्चित हुआ । बारात गयी, किन्तु भोज्य पदार्थ बननेके लिए एकत्रित किये गये पशुओंके करुण क्रन्दन से दयार्द्र होकर उन्होने वैराग्य ले लिया । वे गिरिनारपर तप करने चले गये । राजुलने दूसरा विवाह नही किया और नेमिनाथके भक्तिपूर्ण विरह में समूचा जीवन व्यतीत कर दिया । 'नेमिनाथ फागु' २७ पद्योंका छोटा-सा खण्ड-काव्य है । इसमें नेमिनाथकी भक्तिकी ही प्रधानता है ।" दृश्योंको चित्रित करनेमे कवि निपुण प्रतीत होता है । विवाह के लिए सजी राजुलके चित्रमे सजीवता है । राजुल चम्पककलीकी भाँति गोरी है, उसके शरीरपर चन्दनका लेप है । सीमन्तमे सिन्दूरकी रेखा खिची है। नवरंगी कुंकुमका तिलक भालपर विराजमान है । मोतियोके कुण्डल कानों में सुशोभित हैं । मुख कमल पानकी लालिमासे रचा है। कण्ठमे हार पड़ा है । कंचुकीने कसा यौवन और उसपर पड़ी विकसित माला, हाथमे कंकण और खनकती मणिकी चूड़ियोंमें, जैसे आज भी राजुलका विवाहोत्साह फूटा पड़ता है । उसकी घाघरीका 'रुणुझुणु' और पायजेबकी 'रिमझिम' तो आज भी कानोंमें पड़ रही है । रागसे लाल हुई उसकी आँखें, मनमे विराजित पतिको देख रही हैं। 3 १. २. ३. ३३ वहीं, पृ० १३ | सिद्धि जेहि सइ वर चरिअ ते तित्थयर नमेवी । फागुबंधि पहु नेमि जिणु गुण गाएसउ केवी ॥१॥ राजल देविसउं सिद्धि गयउ सो देउ थुणीजई । मलहारिहि रायसिहर सूरि किउ फागु रमी जई ||२७|| किम किम राजलदेवि तणउ सिणगारु भणेवउ | चंपइगोरी अइधोई अंगि चंदनु लेवउ ॥ खुपु भराविउ जाइ कुसुम कस्तूरी सारी । सीमंत सिंदूररेह मोतीसरि सारी ॥ नवरंग कुंकुमि तिलय किय रयण तिलउ तसु भाले । मोती कुंडल कनि थिय विवालिय कर जाले ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि राजुलकी शोभा, 'राधासुधानिधि' में वर्णित राधाको शोभासे बहुत कुछ मिलती-जुलती है। दोनों ही उपास्य बुद्धिसे चालित है ।' २. सधारु ( वि० सं० १४११) 'सो सधार पणमइ सरसुति' के अनुसार कविका नाम 'सधार' होना चाहिए, किन्तु अधिकांश स्थलोंपर 'सधार' उपलब्ध होता है; अतः यही ठीक लगता है । सधार अग्रवाल जातिमे उत्पन्न हुए थे। उनके पिताका नाम साह महाराज और माताका नाम सुधनु था, जो गुणवइ (गुणवती) थी। वे एरच्छ नगरमे रहते थे। नरतिय कज्जलरेह नयणि मुंह कमलि तंबोलो। नागोदर कंठलउ कंठि अनुहार विरोलो ॥ मरगद जादर कंचुयउ फुड फुल्लह माला। करे कंकण मणि-वलउ चूड खलकावइ बाला ।। रुणुझुणु रुणुझुणु रुणुणएँ कडि घाघरियाली। रिमझिमि रिमझिमि रिमझिमिएँ पयनेउर जुयली ॥ नहि अलत्तउ वलवलउ से अंसुय किमिसि । __ अंखडियाली रायमइ पिउ जो अइ मनरसि ॥ डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्यका आदिकाल, पृ०१३ पटना, १६५२ ई० १. वही, पृ० १२। २. अगरवालकी मेरी जाति, पुर अगरोए मुहि उतपाति । श्री दि० जैनमन्दिर बधीचन्दजी (जयपुर ) के ग्रन्थभण्डारकी प्रति, वेष्टन नं० ६१२,६७५वॉ पद्य। ३. सुधणु जणणि गुणवइ उर धरिउ, सा महाराज घरह अवतरिउ । एरछ नगर वसंते जानि, सुणउ चरित मइ रचिउ पुराण ॥ वही, ६७६वा पद्य, सुधनुज जणणि गुणवइ उर धरिउ, साह महाराज घरहं अवतरिउ । एयरछ नगवर संत नगर वसंते जाणि, सुणिउ चरितु मई रचिउ पुराणु ॥ दि. जैनमन्दिर सेठका कुंचा, दिल्ली, शास्त्रभण्डार, वि० सं० १६६८ की लिखी हुई प्रति, ७०८वॉ पद्य। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य पाठान्तर भेदसे एरच्छके नाम ऐरछ, एरिछि, एलच, एयरच्छ एवं एरस भी मिलते हैं। मूल प्रतिमे एरच्छ दिया हुआ है, जो ठीक प्रतीत होता है । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवालने एरच्छ नगरको उत्तर प्रदेशमे और श्री अगरचन्द नाहटाने मध्यप्रदेशमे माना है। किन्तु 'एरकच्छ दसण्णेसु' के अनुसार एरच्छ, दशार्ण-बुन्देलखण्डमे होना चाहिए और वहां इस नामका एक कस्बा आज भी है। उसमे मौर्यकाल तकके अवशेष मिलते है।' वहाँ अग्रवाल रहते थे। सधारका 'प्रद्युम्नचरित्र' एक महत्त्वपूर्ण कृति है । प्रद्युम्नचरित्र इसमे श्रीकृष्णके पुत्र प्रद्युम्नका चरित्र वर्णित है। प्रद्युम्न भगवान् जिनेन्द्रका परम भक्त था । जैन परम्परामे इसे कामदेवका अवतार माना गया है। 'प्रद्युम्नचरित्र'का रचना-संवत् विवादग्रस्त है। जयपुर, कामा, दिल्ली और बाराबंकीकी प्रतियोमे वि० सं० १४११ दिया है । सिन्धिया ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट, उज्जैनकी प्रतिमे १५११, और रीवांके दि० जैन मन्दिरकी प्रतिमे १३११ वि० सं० दिया हुआ है। सभीमें स्वाति नक्षत्र, शनिवार अंकित है। किसीमे भादवा सुदी ९, किसीमे भादवा पंचमी, किसीमे भादवा बदी ५, और किसीमे भादवा सुदी ५ लिखा है। पुरानी यन्त्रियोंके आधारपर, इन तिथियोंमे स्वाति नक्षत्र, शनिवारको नहीं बैठता। फिर भी अधिक प्रतियोंमे वि० सं० १४११ ही उपलब्ध होता है, अतः वही मानना उचित लगता है। 'प्रद्युम्नचरित्र' में लगभग ७०० पद्य हैं । इसे 'परदवणु चउपई' भी कहते हैं । यह एक महाकाव्य है। कथानकमे सम्बन्ध-निर्वाह पूर्ण रूपसे हुआ है। प्रारम्भमे हो कविने भक्तिपूर्वक शारदा, पद्मावती, अम्बिका, ज्वालामुखी, क्षेत्रपाल और चौबीस तीर्थंकरोंको नमस्कार किया है। ___ मानवको मूल प्रवृत्तियोंको अंकित करनेमे, कवि निपुण प्रतीत होता है। रुक्मिणी प्रद्युम्नकी मां है। बाहर गये हुए पुत्रके आगमनके हेतु मांका आतुर होना स्वाभाविक ही है। नारदजीने प्रद्युम्नके आनेको बात कही है। पुत्र १. ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी, मध्य-प्रान्तके जैन स्मारक, पृष्ठ ४७ । २. अगरचन्द नाहटा, 'प्रद्युम्नचरित्रका रचना-काल व रचयिता', अनेकान्त, वर्ष १४, किरण ६ (जनवरी १६५७ ), पृष्ठ १७०-१७२ । ३. श्री दि. जैनमन्दिर बधीचन्दजी ( जयपुर ) के ग्रन्थभण्डारकी प्रति, वेष्टन नं. ६१२, पद्य १-३। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि आगमनके संकेत भी मिल गये है, किन्तु पुत्र नही आया। रुक्मिणो बेचैन है । सच यह है कि पुत्र आ चुका है, पर रुक्मिणीको विदित नही हो पाया है। मांकी ममता-सिंचित भावनाओंको कविने चित्रवत् अंकित किया है, "षण षण रूपिणि चढइ अवास, षण षण सो जोवइ चोपास । मोस्यो नारद काउ निरूत, आज तोहि घर आवइ पूत ॥ जे मुनि वयण कहे पमाण, ते सवई पूरे सहिनाण । ध्यारि आवते दीठे फले, अरुआचल दीठे पीयरे ॥ सूकी वापी भरी सुनीर, अपय जुगल भरि आये षीर । तउ रूपिणि मन विभउ भयउ, एते ब्रह्मचारि तहाँ गयउ॥ नमस्कार तब रूपिणि करइ, धरम विरधि खूडा उचरइ । करि आदरु सो विनउ करेइ, कणय सिघासणु वैसण देहु ॥ समाधान पूछई समुझइ, वह भूखउ-भूखउ बिललाई। सखी बूलाइ जणाइ सार, जैवण करहु म लावहु वार ॥ जीवण करण उठी तंखिणी, सुइरी मयण अग्नी थंभीणी। ताजु न चुरइ चूल्हि धुंधाइ, वाह भूखउ-भूखउ चिललाइ ॥" इस महाकाव्यका मूलस्वर भक्तिमय है। स्थान-स्थानपर भक्तिके दृष्टान्त उपलब्ध होते है। एक बार प्रद्युम्न कैलास पर्वतपर जिन-चैत्यालयोकी वन्दना करने गये । उनको ज्योति रत्नोंके समान चमकती थी । प्रद्युम्नने उनकी अष्टद्रव्यसे पूजा की और वापस चले आये। तीर्थकर नेमिनाथको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। उनके समवसरणमें सुरेन्द्र, मुनीन्द्र, भवनवासी देव आये । श्रीकृष्ण तथा हलधर भी पहुंच गये। श्रीकृष्णने स्तुति आरम्भ की : "हे कामको जीतनेवाले, तुम्हारी जय हो। तुम्हारी सुर, असुर सेवा करते हैं । हे देव ! तुम्हारी जय हो। दुष्ट कर्मोको क्षय करनेवाले हे देव ! तुम्हारी जय हो । मेरे जन्म-जन्मके शरण, हे जिनेन्द्र ! तुम्हारी जय हो। तुम्हारे १. वही, पद्य ३८४-३८६ । २. फिर चेताले वन्दे गयण, तिन्हि ज्योति दिपइ जिम्ब रयण । अट्ठविधि पूजउ न्हवणु कराइ, वाहुडि मयण द्वारिका जाइ । वही, पय ६६० । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य प्रसादसे में इस संसार-समुद्रसे तिर जाऊँ तथा फिर वापस न आऊँ।'' जब प्रद्युम्नको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, तो इन्द्रने स्तुति करते हुए कहा, "हे मोहरूपी अन्धकारको दूर करनेवाले ! तुम्हारी जय हो । हे प्रद्युम्न ! तुम्हारी जय हो, तुमने संसार-जालको तोड़ डाला है।" और भी अनेक दृष्टान्त उपलब्ध हैं, जिनके आधारपर 'प्रद्युम्नचरित्र'को भक्ति-साहित्यकी एक महत्त्वपूर्ण कृति माना जाना चाहिए। ३. विनयप्रभ उपाध्याय (वि० सं० १४१२) विनयप्रभ खरतरगच्छके जैन साधु थे। उनके गुरुका नाम दादा जिनकुशल सूरि था। जिनकुशलसूरिका स्वर्गवास वि० सं० १३८९ में हुआ, तदुपरान्त उनके पट्टपर विनयप्रभ ही अधिष्ठित हुए। विनयप्रभ वि० सं० १३८२ मे जैन साधु हो चुके थे। यह मान्यता ठीक नहीं लगती कि वे वि० सं० १३९४ और १४१२ के बीच कभी, उपाध्याय पदसे विभूषित किये गये; क्योकि एक प्राचीन पट्टावलीके भाधारपर यह प्रमाणित है कि दादा जिनकुशलसूरिने अपने जीवनकालमे हो १. देवि पयाहिण करिउ बहूत, फुणि माधव आरंभिउ थुति । जय कंदर्प खयंकर देव, तइ सुर असुर कराए सेव ॥ जह कम्मट्ठ दृढ खिउकरण, जय महु जनम-जनम जिनु सरणु। तुम पसाइ हउ दूतरु तिरउ, भव संसारि नवाहुडि परउ ।। वही, पद्य-६६६,६६७ । २. थुणह सुरेस्वर वाणी पवर, जय जय मोहतिमिर हर सूर । जय कन्द्रप हउ मति नासु, जाइ तोडिवि पालिउ भवपासु ॥ वही, पद्य ६६२। ३. मोहनलाल दुलीचंद देसाई, जैनगुर्जर कविश्रो, प्रथम भाग, पृ० १६, पादटिप्पणी। ४. Ancient Jaina Hymns, Edited by Dr. Charlotte Krause, Scindia Oriental Series No 2, Ujjain, 1952, Renarks on the texts, pp. 10. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि विनयप्रभको उपाध्याय पदपर प्रतिष्ठित किया था।' 'गौतमरासा'को प्राचीन प्रतियोमे, उसके कर्ताका नाम "विनयपट उवझाय' दिया हुआ है। इसका संस्कृत रूप 'विनयप्रभ उपाध्याय' ही है। मिश्रबन्धुओने भी यही नाम स्वीकार किया है। पं० नाथूरामजी प्रेमीको १५वीं शताब्दीके उत्तरार्धको लिखी हुई एक प्रति पाटणके भण्डारमे मिली थी, उसमे 'गौतमरासा के कर्ताका नाम उदयवन्त दिया हुआ है। श्री मोहनलाल दुलीचन्द देसाईने भी विनयप्रभका दूसरा नाम उदयवन्त माना है। अनुमानतः विनयप्रभ साधु जीवनका और उदयवन्त गृहस्थजीवनका नाम होगा। विनयप्रभकी कृतियोमें 'गौतमरासा' के अतिरिक्त ५ स्तुतियाँ और है, जिनमें विविध तीर्थंकरोंका गुणकीर्तन हुआ है। प्रत्येकमे १९-२९ के लगभग पद्य है। डॉ० शारलण्ट क्राउजेने 'सीमन्धर स्वामि स्तवन'को भी, भाषासाम्यके आधारपर उन्हींकी कृति स्वीकार किया है। इस स्तवनके २०वें पद्यमें 'कम्मकरु विणयपर जोडि कर वीनQ'से सिद्ध है कि 'विणयपरु' ही इसके कर्ता थे। "विणयपरु', 'विनयपहु' अथवा 'विनयपह'का बिगड़ा हुआ रूप है । मिश्रबन्धु-विनोदमे 'हंसवच्छरास' और 'शीलरास'को भी इन्हींकी रचना बतलाया गया है। १. "तथा श्री गुरुभि (श्री जिनकुशलसूरिभिः) विनयप्रभादिशिष्येभ्य उपाध्यायपदं दत्तं येन विनयप्रभोपाध्यायेन निधनीभूतस्य निजभ्रातुः सम्पत्तिसिद्ध्यर्थ मन्त्रगभितगौतमरासो विहितः तद्गुणनेन स्वभ्राता पुनर्धनवान् जातः इत्यादि।" मुर्शिदाबादके नेमिनाथके मन्दिरके शानभण्डारमें प्राचीन पट्टावली, जैनगुर्जर कविप्रो, प्रथम भाग, पृ० १६, पादटिप्पणी । २. देवह धुरि अरिहंत नमीनइ, विनयपह उवझाय थुणीजइ । ___ गौतमरासा, अन्त, पद्य ४८, जैनगुर्जर कविप्रो, प्रथम भाग, पृ० १६ । ३. मिश्रबन्धु, मिश्रबन्धु विनोद, प्रथम भाग, पृ० २१२, लखनऊ, वि० सं० १९८३ । ४. पं० नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन-साहित्यका इतिहास, पृ० ३२, जनवरी १९१७ । ५. जैनगुर्जर कविओ, प्रथम भाग, पृ० १५ । ६. Ancient Jaina. Hymns, pp. 90-91 ७. वही, the texts, pp. 124. ८. मिश्रबन्धु विनोद, प्रथम भाग, पृ० २१२ । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य गौतमरासा ___ 'गौतमरासा', गौतम स्वामीको भक्तिमे लिखा गया है। गौतम भगवान् महावीरके प्रमुख गणधर थे। उन्हे भी मोक्ष प्राप्त हुआ था। जैन परम्परामें उनकी पूजा और स्तुतिका बहुत प्रचलन रहा है। संस्कृत और प्राकृतका विपुल साहित्य उनकी भक्तिमे रचा गया है। 'गौतमरासा' प्राचीन हिन्दीका ग्रन्थ है । इसके अनुसार गौतम, मगध देशमें, गुब्बर नामके गांवके रहनेवाले थे। उनके पिताका नाम वसुभूति था, जो विविध गुणोसे युक्त थे। उनकी माताका नाम पृथ्वी था। ___गौतम स्वामीका पूरा नाम इन्द्रभूति गौतम था। वे समूची पृथ्वीमें प्रसिद्ध थे। उन्हें चौदह विद्याएं उपलब्ध थीं। वे विनय, विवेक, विचार और अनेक मनोहर गुणोसे युक्त थे। उनका शरीर सात हाथ प्रमाण था। उनका रूप रम्भाकी भांति था। गौतमके नेत्र, वचन, हाथ और चरणोंकी शोभासे पराजित होकर ही कमल जलमे पैठ गये थे। उन्होंने अपने तेजसे हराकर तारागण, चन्द्र और सूर्यको आकाशमे भ्रमाया था। उन्होने अपने रूपसे कामदेवको अनंग करके निकाल दिया था। वे मेरुके समान धीर और समुद्रको भांति गम्भीर थे। उनका चरित्र उत्तम था। श्वेताम्बर जैन सम्प्रदायमें, 'गौतमरासा' की बहुत प्रसिद्धि है। श्री मोहनलाल दुलीचन्द देसाईने उसको १८ प्रतियोंका विवरण दिया है। इससे उसकी लोकप्रियता प्रमाणित है। डॉ० क्राउजेने उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है, "उसमें भक्तिका तीव्रतम भाव, शैलीकी निराली शान और प्रवाहकी मधुर गति सन्नि. हित है। १. जंबुदीवि सिरिभरहखित्ति खोणीतलमंडणु, मगधदेस सेणिय नरेस रिउ-दलबल खंडणु । घणवर गुन्वर नाम गामु जहिं गुणगणसज्जा, वप्पु वसे वसुभूइ तत्थ जसु पुहवी भज्जा ।। गौतमरासा, पद्य २, हिन्दी जैन-साहित्यका इतिहास, पृ० ३२ । २. वही, पद्य ३, ४। ३. जैनगुर्जर कविओ, तीजो भाग, पृ० ४१६-४१७ । ४. Ancient Jaina Hymns, pp. 91. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि इसका निर्माण वि० सं० १४१२ मे, खम्भातमे हुआ था। प्राचीन हिन्दीके ललित काव्योंमे 'गौतमरासा'का प्रमुख स्थान है। सीमन्धरस्वामीस्तवन ___इस स्तवनके अनुसार सोमन्धर स्वामी, पूर्वविदेहके विहरमाण बीस तीर्थंकरोंमें एक हैं। इनका जन्म पुण्डरीकिनी नामकी नगरीमे, भरतक्षेत्रको विगत चतुर्विशतिकाके १७वें तीर्थंकर कुन्थुनाथ और १८वें तीर्थंकर अरहनाथके मध्यकालमे हुआ था। उनका शासन अभी चल रहा है। वे भरतक्षेत्रको आगामी चतुर्विशतिकाके ७वें तीर्थंकर उदयके समयमे मोक्ष प्राप्त करेंगे। ___ स्तवनमें भक्ति-भाव पूर्णरूपसे विद्यमान है। कविने लिखा है कि मेरुगिरिके उत्तुंग शिखर, गगनके टिमटिमाते तारागण और समुद्रकी तरंग-मालिका, सीमन्धर स्वामीके गुणोंका स्तवन करते ही रहते हैं। भगवान्का स्तवन, अशुभ कर्मोसे उत्पन्न हुए मल-पटलको गलानेमें पूर्णरूपसे समर्थ है। जिननाथका दर्शन करनेसे जन्म सफल हो जाता है, ध्यान लगानेसे संसिद्धि मिलती है, "मेरुगिरि-सिहरि धय-बंधणं जो कुणइ, गयणि तारा गणइ, वेलुआ-कण मिणइ। चरम-सायर-जले लहरि-माला मुणइ, सोवि नहु, सामि, तुह सन्वहा गुणथुणइ ॥ तहवि, जिण-नाह, निय जम्म सफली-कए, विमल-सुह - झाण - संभाण - संसिदए।" १. वही, पृ० ६०; हिन्दी जैन-साहित्यका इतिहास, पृ० ३२; जैन गुर्जर कविनो, प्रथम भाग, पृ०१५। २. यह स्तवन 'Ancient Jaina Hymns' में पृ० १२०-१२४ पर प्रकाशित हो चुका है। भरह-खित्तंमि सिरि-कुंथ-अर-अंतरे जम्म पुंडरिंगणी, विजय पुक्खलवरे । भाविए उदय जिणि सत्तमे सिव-गए, बहूअ-कालेण सिद्धि गमी सामिए । वही, पद्य १६-१७ । ४. Ancient Jaina Hymns, pp. 89-90. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य असुहदल कम्म मल पडल निवासणं, तात, करवाणि तुह संथवं बहुगुणं ॥२-३॥” सुर-भवनोमे गगन, पाताल और भूमण्डलमे, नगरी, पुरी, नीरनिधि और नारि-नर और किन्नर, सीमन्धर स्वामी के मेरु पर्वतकुलोंमें, देव-देवियोंके समूह, आदरपूर्वक गीत गाते है, पायालि, भूमंडले, " सुर-भवणि, गयणि, नयरि, पुरि, नीरनिहि, मेरु- पब्वय - कुले | देव - देवी- गणा, नारि - नर - किन्नरा, तुह्य जस, नाह, गायंति सादर परा ॥ ७ ॥" वे नगर धन्य है, जिनमें भव्यजनोके सब संशयों को हरनेवाले सीमन्धर स्वामी विहार करते हैं । भगवान् कामघट, देवमणि और देवतरुके समान है। उनका नाम लेने मात्र से ही सब इच्छाएँ पूरी हो जाती है, "धन ते नयर जहिं सामि सीमंधरो, विहरए, भविअ जण - सब्व-संसयहरो । - कामघट, देव-मणि, देव-तरु फलियउ, तीह धरि जीह रहिं, सामि, तरं मिलियउ ॥१३॥" ४१ भक्त - विकी तीव्र इच्छा है कि उसका आगामी जन्म पूर्व विदेहमे हो, जिससे वह सीमन्धर स्वामीके चरणोंमें बैठकर उनका दिव्य उपदेश सुन सके । वह वहाँ स्वामी के गुणोके गीत गायेगा, और उनके रूपको देखकर प्रसन्न होगा । उसे पूर्ण विश्वास है कि स्वामीके शासन में दीक्षा लेनेसे कर्म गल जायेंगे और मोक्ष प्राप्त होगा, "कर-जुअल जोडि करि, वयण तू निसुणिसो, बाल जिम हेल देइ, पाय तुह पणमिसो । महुर सरि तुम्ह गुण-गहण हउं गायसो, निय - नयणि रोमंचिउ जोइसो ॥ रूव तुम्ह पासि द्विड, हणिअ कम्माण, चरण परिपालिसो, केवल सिरिं पामिसो ॥१४- १५ ।। " Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि सभी भगवान्की भक्ति भोग-पद, राज-पद, चक्री पद और इन्द्र- पद, विभूतियाँ उपलब्ध होती है और परमपद भी मिलता है, "भोगपद, राजपद, नाण-पद, संपदं, चक्क - पद, इन्द्र- पद, जाब परमं पदं । तुज्झ भत्तीइ सब्वं पि संपज्जए, एह माहप्प तुह सयल जगि गज्जए ॥१६॥" ४२ इस स्तवनमे इक्कीस पद्य है । प्रथम बीसकी प्रत्येक पंक्ति में २० मात्राएँ है । १० के बाद विराम है । आचार्य हेमचन्द्रने छन्दोनुशासनमें इस छन्दका नाम 'आवलि' दिया है । २१वाँ पद्य हरगीतिका छन्दमे हैं ।' स्तवनकी भाषा में लालित्य है और भावोमें स्वाभाविकता । ४. मेरुनन्दन उपाध्याय ( वि० सं० १४१५ ) मेरुनन्दन के दीक्षागुरुका नाम श्री जिनोदयमूरि था । सूरिजीका जन्म वि० सं० १३७५ में, रुद्रपाल श्रेष्ठीकी पत्नी घारलदेविकी कुक्षिसे, प्रह्लादनपुर नामके नगरमें हुआ था । उन्होंने वि० सं० १३८२ में श्रीजिनकुशलसूरि के पास दीक्षा ली, और उनका नाम सोमप्रभ रखा गया । वे वि० स० १४०६ में वाचनाचार्य पदपर प्रतिष्ठित हुए । श्रीतरुणप्रभसूरिने उनको वि० सं० १४१५ मे, 'सूरिपद' और 'जिनोदय' अभिधान दिया। सूरिजीका वि० सं० १४३२ में समाधिपूर्वक स्वर्गवास हुआ। श्रीमेरुनन्दनने, श्रीजिनोदयसूरिसे, वि० सं० १४१५ के उपरान्त दीक्षा ली होगी। उनके 'जिनोदयसूरि विवाहलउ' की रचना वि० सं० १४३२ में हुई थी । अतः मेरुनन्दन उपाध्याय और जिनोदयसूरिका सत्ता समय एक ही था । मेरुनन्दन उपाध्यायकी तीन रचनाएँ उपलब्ध है : 'जिनोदयसूरि विवाहलउ', 'अजितशान्तिस्तवनम्' और 'सीमन्धर जिनस्तवनम्' । तीनो ही भक्तिसे सम्बन्धित है। पहले में गुरु भक्ति और अवशिष्ट दोमें तीर्थंकर भक्ति है । १. Ancient Jaina Hymns, PP. 89-90. २. श्री मेरुनन्दन उपाध्याय, 'श्री जिनोदयसूरि विवाहलड', श्री अगरचन्द नाहटा, ऐतिहासिक जैन -काव्य संग्रह, पृ० ३६०, कलकत्ता, वि० सं० १९६४ । तथा जैन-स्तोत्र सन्दोह, प्रथम भाग, प्रस्तावना, पृ०७३, अहमदाबाद, १९३२ ई० । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य जिनोदयसूरि विवाहल' ___ 'विवाहला' शब्दको व्याख्या करते हुए श्रीअगरचन्द नाहटाने लिखा है, "जीवनके उल्लासदायक अनेक प्रसंगोंमे विवाह, अत्यन्त आनन्द मंगलका प्रसंग है। इसलिए कवियोने इस प्रसंगका वर्णन बड़ी ही सुन्दर शैलीमे किया है। विवाहके वर्णन-प्रधान काव्योंको सज्ञा 'विवाह', 'विवाहलउ', 'विवाहलो' और 'विवाहला' पायी जाती है।" ___ इन 'विवाहला काव्यों में, जैनाचार्योका किसी कुमारी कन्याके साथ नहीं, अपितु दीक्षाकुमारी अथवा संयमश्रीके साथ विवाह रचा गया है। इस तरह ये 'विवाहला' रूपक काव्य है। दीक्षा लेनेवाला साधु दुलहा और दीक्षा अथवा 'संयमश्री' दुलहिन है । 'जिनोदयसूरि विवाहला' मे भी आचार्य जिनोदयका दीक्षाकुमारीके साथ विवाह हुआ है । अर्थात् इस काव्यमे जिनोदयके दीक्षा लेनेका वर्णन है। यह एक ललित एवं सरस काव्य है । गुर्जरधरारूपो सुन्दरीके हृदयपर रत्नोंके हारको भाँति पह्मणपुर नामके नगरमें, एक बार श्रीजिनकुशलसूरि आये। वे अपने ज्ञानके प्रकाशसे, भव्यजनोंके मोहान्धकारको दूर करनेमें समर्थ थे । "अस्थि गूजरधरा सुंदरी सुंदरे, उरवरे रयण हारोवमाणं । लच्छि केलिहरं नयरु परहणपुरं, सुरपुरं जेम सिद्धामिहाणं ॥ अह अवरवासरे पल्हणे पुरवरे, भविय जण कमल वण बोहयंतो। पत्तु सिरि 'जिणकुसलसूरि' सूरोवमो, महियले मोह तिमिरं हरंतो ॥३॥" सेठ रुद्रपाल अपने परिवारसहित सूरिजीकी वन्दना करने गया। सूरिजीने उसके पुत्र समराको देखकर कहा कि यह तुम्हारा समरा कुमार सम्पूर्ण श्रेष्ठ गुणोसे युक्त है और सुविचक्षण भी है। नेत्रोंको आनन्द देनेवाले अपने इस पुत्रका विवाह, हमारी दीक्षाकुमारीके साथ कर लो। १. यह, 'जैन ऐतिहासिक काम-संग्रह' मे, वि० सं० १६६४ में, पृ० ३६०-३६६ पर प्रकाशित हो चुका है। इसने ४४ पद्य है। २. श्री अगरचन्द नाहटा, 'विवाह और मंगल काव्योकी परम्परा, भारतीय साहित्य. डॉ. विश्वनाथप्रसाद सम्पादित, आगरा विश्वविद्यालय, हिन्दी विद्यापीठ, प्रथम अंक, जनवरी १६५६, पृ० १४० । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "अह सयल लक्खणं जाणि सुवियक्खणं, सूरि ठूण 'समरं कुमारं'। मविय तुह नंदणो नयण पाणंदणो, परिणओ अम्ह दिक्खा कुमारिं ॥११॥" इस प्रकार सूरिजीने उस कुमारको जैनदीक्षा पानेके योग्य घोषित किया और भीमपल्ली चले गये । कुमार दीक्षा ग्रहण करनेके लिए बारम्बार आग्रह करने लगा, तो माने समझाया कि तुम्हारे कमलके समान हाथ, अनुपम रूप और उत्तम वंश है । श्रेष्ठ नारियोंके साथ विवाह कर सुखी होओ। नये-नये प्रकारके भोगोंका उपभोग करो और अपने उत्तम कार्योस हमारे कुलको कोत्तिके शिखरपर आरूढ़ कर दो। "तेण कमल दल कोमल हाथ, बाथ म बाउलि देसितउं । रूपि अनोपम उत्तम वंश, परणाविसु वर नारि हडं ॥ नव-नव भंगिहिं पंच पयार, भोगिवि भोग वल्लह कुमार । ऋमि-क्रमि श्रम्ह कुलि कलसु चडावि, होजि संघाहिवइ कित्तिसार ॥१७-१८॥" पुत्र नहीं माना और अपने आग्रहपर अटल रहा। तब कुमारके निश्चयको जननीने जाना, और व्याकुल आँखोसे आंसू ढुलकाती हुई बोली कि हे वत्स ! जो कुछ तेरे मनको अच्छा लगे वह कर । इस प्रकार गद्गद कण्ठसे स्वीकृतिसूचक वचनोंका उच्चारण कर वह चुप हो गयी। "तउ कुमर निच्छयं जणणि जाणेवि, दणहण नयणि मीरं झरती । करिन तं वच्छ जं तुझ मण भावए, __ अच्छए गद गद सरि मणंती ॥२०॥" मांकी इस बेवशीमे स्वाभाविकता है और प्रसाद भी। यह सिद्ध है कि तीव्र गुरु-भक्तिसे अनुप्राणित होकर ही कवि, ऐसे रस-सिद्ध स्थलोंको अंकित कर सका है। अजित-शान्तिस्तवनम् भगवान् अजितनाथ, भरतक्षेत्रकी चतुर्विंशतिकाके दूसरे और शान्तिनाथ सोलहवें तीर्थकर है। संस्कृत और प्राकृत साहित्यमें दोनोंके ही मिले-जुले अनेक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ४५ स्तवन है । प्रस्तुत स्तवन भी प्राचीन हिन्दीमें लिखा गया दोनों तीर्थंकरोंकी भक्तिका काव्य है। भक्त कवि एक स्थानपर कहता है कि भगवान् अजित जिनेन्द्र संसारके गुरु है, और भगवान् शान्तिनाथ नेत्रोंको आनन्द देनेवाले है। दोनों ही विश्वको श्रीसम्पन्न कर कल्याण करते है । जीव मात्रको सुखी बनाना उनका उद्देश्य है । वे सुखरूपी समुद्रके लिए पूनोके चांदकी भांति है । अर्थात् उनकी कृपाके उदित होते ही, जीवोके सुख-समुद्रमे आनन्दकी लहरें उठने लगती है। उन जिनवरोंको प्रणाम करने, उनके गुणोंको गाने और सेवन करनेसे पुण्यके भण्डार भर जाते हैं । वह पुण्य मनुष्य भवको सफल बनानेमें पूर्णरूपसे समर्थ है, "मंगल कमला कंदुए, सुख सागर पूनिम चंदुए । जग गुरु अजिय जिणंदुए, संतीसुर नयणाणंदुए ॥ वे जिणवर पणमेविए, वे गुण गाइ सुसंसेविए । पुन्य भंडार भरेसुए, मानव भव सफल करेसुए ॥" भक्त युग-युगसे भगवान्की शरणमे जाते रहे है। वहां उन्हें शान्ति मिलो है और सुख प्राप्त हुआ है। यहां भी भक्त अजित और शान्तिको शरणमे गया है। उसका कथन है कि वे भगवान् उत्सव और मंगलके जन्मदाता है। उनकी कृपासे संघके समूचे पाप दूर हो जाते है । भगवान्के नेत्र कमलोकी भांति विशाल है, उनमें से दयारूपी सुगन्धि फूटती है। उस सुगन्धिको पाकर यह जीव भवसमुद्रसे पार हो जाता है। अर्थात् अजित और शान्तिनाथकी शरणमे जानेसे यह भोला भक्त, असार संसारको तैरकर मोक्षमे पहुँच जाता है । "वे उच्छव मंगलकरण, वे सयससंघ दुरियह हरण । वे वरकमल वयण नयण, वे सिरि जिणराय भवण रयण ॥ इम भगसिहिं भोलिम तणीए, सिरि भजिय संति जिण थुइ मणिए । सरणइ विडं जिण पाएं, सिरि मिणनंदण उवझाए ॥" सीमन्धरजिनस्तवनम्' इस स्तवनमें ३१ पद्य है। इसकी भाषामें माधुर्य, भावोंमें सौम्यता और सादृश्य वर्णनमें प्रौढ़ता है । दृश्यांकन सफल हुए है। पद्मासनपर विराजे सीमन्धर १. यह स्तवन, प्रथम भाग, मुनि चतुरविजय संपादित, जैन स्तोत्र संदोह, अहमदाबाद, १९३२ ई०, में पृष्ठ ३४०-३४५ पर प्रकाशित हो चुका है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि स्वामी और उदयगिरिपर सुशोभित सहस्रकिरणका सादृश्य ऊहाजन्य नहीं है। उपमान और उपमेयको स्वाभाविक ढंगसे ही संघटित किया गया है। "त तसु अंतरि रयणिहिं घडिउ सिंहासणु झलकंतु, त पायपीटु तसु तलि विमलो मणि निम्मिउ दिप्पंतु । त तह सीमंधर जिणपवरो पउमासणउवविठ्ठ, त सहस किरण जिम उदयगिरि पुण्ण ति जेहिं सुदिछ ॥९॥" चित्रांकनमे तो कविको अभूतपूर्व सफलता मिली है। दृश्योका चित्रांकन कविकी सबसे बड़ी कला है। यह वही कवि कर सकता है, जिसकी अनुभूति सूक्ष्म और कल्पना पैनी हो। एक चित्र यह है, 'सीमन्धर स्वामीके समवसरणमे आती हुई सुर-रमणियाँ परिवारसहित सुविमानो विराजमान है। उनके रूपमे अद्भुत लावण्य है। उड़ते विमानोमें बैठनेके कारण देवांगनाओंके शरीरमे स्पन्दन हो रहा है, और इस भाँति उनकी कमरमे पड़ी किंकिणियां भी हिल रहीं है। उनसे मधुर ध्वनि निकलती है। देवियोंका हृदय भगवान्की भक्तिसे उल्ल. सित है। वे बड़े उत्साहसे दसों दिशाओमे फैलकर भगवान्के गीत गाती हुई समवसरणमे मायी है।' "त रणउणंतकिकिणिरयणि ऊगगमंत सुविमाण, त सपरिवार सुररमणिगणि लवणिमरूव निहाण । त बहुल भत्ति उल्लसिय हिय दस दिसि घणु पसरंत, त समवसरणि आवई सयल सामिय गुण गायंत ॥१॥" इस काव्यमें उपमागभित रूपक भी बहुत हैं। एक रूपकमें लिखा है कि भगवान्की दिव्यध्वनि गंगाकी उन निर्मल तरंगोंकी भांति है, जो सम्पूर्ण अपविवताओंको घोती हुई चली जाती है। संसारमे जलते जीवोंकी दाह केवल अमृतसे ही शान्त हो सकती है, और भगवान्की दिव्यध्वनि एक अमृतके प्रवाहकी भौति ही है। सीमन्धर स्वामीकी दिव्यध्वनि वर्षाके गरजते उन मेघोंकी भांति भी है, जिनकी आवाज सुनकर, 'भव्य' रूपी मयूरोके चित्त फरफर नाच उठते है, "निम्मल ए गंगतरंगचंगु पणासियसयलतमु , भवदव ए संभवदाह फेडणअमियपवाह समु। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ४७ सामिय ए तणउ वषाणु जिम जिम गाजइ मह जिम, तिम तिम ए मवियण चित्त नाचइ फरफर मोर जिम ॥१५॥" आराध्यके गुणोंपर रीझकर ही भक्त, भक्त बना है। वह उन गुणोके गीत गाता ही रहता है । श्रीमरुनन्दनने भी सीमन्धर स्वामीकी प्रशंसा करते हुए लिखा है, उन जिनेन्द्र भगवान्की जय हो, जिनके वचनोमे इतना अमृत भरा है कि उसके समक्ष चन्द्रका अमृत-कुण्ड भी तुच्छ-सा प्रतिभासित होता है। भगवान्के नेत्र कोमल और विशाल कमलको भांति है। देव-दुन्दुभियां भगवान्की महिमाको सदैव उद्घोषित करती है। भगवान् अनन्त गुणोंके प्रतीक है, और उनका कृपाकटाक्ष पल-भरमे ही भक्तको संसार-समुद्रसे पार कर देता है । भक्तको पूरा विश्वास है कि ऐसे भगवान्को प्रणाम करनेसे मन निरालम्ब होकर भ्रमित नहीं होगा। उसने भगवान्से कृपारूपी आलम्बनकी याचना की है, "जय जिणवर ! ससहरहारिवयण ! ____ जय कोमलकमल विसाल नयण !। जय सरस अमियरससरिसवयण ! __ जय महिममहियह देवरयण ! ॥ विलसंत अणंत गुणाण ठाण ! संवच्छरमिच्छियदिन्नदाण!। भवसिंधुतरणतारणसमत्थु ! पडियह आलंबणु देहु हत्थु ॥१८-२०॥" ५. विद्धणू (वि० सं० १४१५) श्री जिनोदयसूरि विद्धणूके भी गुरु थे। सूरिजीका समय वि० सं० १४१५ से १४३२ तक माना जाता है, अतः विद्धणूका भी वही समय है। विद्धणूने अपने गुरुके लिए लिखा है कि वे तारागणोंमें चन्द्रके समान और जलनिधिमे गिरिप्रवरके समान थे। १. नंदउ विह संधु नंदउ सिरि जिणउदय गुरो, जिम्ब तारायण चंदु जिम्ब जलनिधिगुरु गिरिपवरो। श्री विद्धरण , शानपंचमीचउपई, पद्य ५४७, जैन गुर्जर कविप्रो, तीजो भाग,पृ० ४१६ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि विद्धणूके पिताका नाम 'ठक्कर माल्हे' था।' राजगृहके पार्श्वनाथके मन्दिरमे वि० सं० १४१२ का लिखा हुआ एक शिलालेख है, उसपर ३८ श्लोकोंको एक प्रशस्ति अंकित है । उसके एक श्लोकसे स्पष्ट है कि उस प्रशस्तिके कर्ता ठक्कर माल्हेके पुत्र, वैज्ञानिक, सुश्रावक श्री वीधा नामके कोई व्यक्ति थे। विद्धणूका बचपनका नाम वीधा होना स्वाभाविक भी है। विद्धणूकी रची हुई 'ज्ञानपंचमी चउपई' नामकी रचना उपलब्ध है। ज्ञानपंचमी चउपई इसकी रचना, मगधर्म विहार करते समय, कवि विद्धणूने वि० सं० १४२३, भाद्रपद शुक्ला एकादशी, गुरुवारके दिन की थी। इसमे श्रुतपंचमीके दिन व्रत रखनेका माहात्म्य और जिन-शासनकी भक्तिका उल्लेख है। इसकी भाषा प्राचीन हिन्दी है, जिसमे गुजरातीका भी मिश्रण है। पं० नाथूरामजी प्रेमीने उसको गुजरातीकी अपेक्षा हिन्दीकी ओर अधिक झुका हुआ माना है। इसमें ५४८ पद्य है। ___ जिन-शासनके प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए कविने लिखा है कि भगवान् जिनेन्द्रका शासन असीम है, उसका पार प्राप्त नहीं किया जा सकता। जो कोई उसको अहर्निशि पढ़ता, गुनता और पूजता है, उसे श्रुतपंचमीके व्रतका फल मिल जाता है। जिणवर सासणि आछइ सारु, जासु न लन्मइ अंत अपारु । पढ़हु गुणहु पूजहु निसुनेहु, सियपंचमिफलु कहियह एहु ॥ १. ठक्कर माहले पुतु विद्धणु पभणइ सुद्ध मए । वहीं, पद्य ५४६ । २. उत्कीर्णा य सुवर्णा ठक्कुर माल्हांगजेन पुण्यार्थे । वैज्ञानिक सुश्रावक वोधाभिधानेन ॥३८॥ वही, पृ० ४१६ । ३. हरषिहि लागउ चीतु चउदहसई तेवीसमई ए, सिय भादवइ इग्यासि गुरु वासरु बहु ऊपनउ, नयर विहार मका पंचमि पुलु इम्ब गाइयउ ॥ वही, पद्य ५४६। ४. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृष्ठ ३३ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य श्रुतपंचमीका फल यही है कि जो कोई नर, मनमे संयम धारण कर इस व्रतको करता है, वह कभी दुखी नहीं होता और इस दुस्तर संसार-समुद्रको तैर जाता है, ४९ "सियपंचमि फलु जाणइ लोइ, जो नर करइ सो दुहिउ न होइ । संजम मन धरि जो नरु करइ, सो नरु निश्चइ दुत्तरु तरइ ॥ १-२ ॥ " श्रुतपंचमी व्रतका अर्थ है, श्रुतदेवीकी भक्ति करना । श्रुतदेवीका ही दूसरा नाम शारदा या सरस्वती है । कविने चौबीस तीर्थंकरोसे प्रार्थना की है कि शारदा उसे अपने सेवकके रूपमे स्वीकार कर ले। जो शारदा हंसपर चढ़कर चलती है, जिसके हाथमे वीणा सुशोभित है, जो जिनेन्द्रके शासन-प्रसार मे तल्लीन है, जिसने चारों वेदोको साध लिया है, जो 'अठदल कमल पर विराजती है और जिसके चन्द्र-जैसे मुख से अमृत झरता विद्धणु ऐसी शारदाको भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं, "ओंकार जिणइ चडवीस, सारद सामिनि करउ जगीस । वाहन हंस चडी कर वीण, सो जिण सास णिश्रच्छइ लीण ॥ भटदल कमल ऊपनी नारि, जेण पयासिय वेदइ चारि । ससिहर बिंदु अमियरसु फुरइ, नमस्कार तसु 'विद्धणु' करइ ॥ ३-४ ॥ " कविने णमोकार मन्त्र के प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुए लिखा है कि संसारके चिन्ता- समुद्र में फँसकर यह जीव, घरके सभी धर्म-कर्म विस्मरण कर जाता है वह क्रोध, मान, माया, मद, मोह और सन्देहमें पड़कर, मुनिवरोंके योग्य न तो दान देता है न तप तपता है, और न भोग ही भोगता है । जब श्रावकके घरमें जन्म लिया है, तो प्रति दिन मनमे मन्त्रका चिन्तवन करना ही चाहिए । णमोकार सयलइ वीसरइ । "चिंतासायर जबि नरु परइ, घर धंधल कोहु मानु माया (मद ) मोहु, जर झंपे परियउ संदेहु || दान न दिन मुनिवर जोगु, ना तप तपिउ न भोगेउ भोगु । सावय घरहि लियड अवतारु, अनुदिनु मनि चिंतहु नवकारु ॥५-६ ।। " ७ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ६. सोमसुन्दरसूरि (वि० सं० १४५० - १४९९ ) सोमसुन्दरसूरि के पिताका नाम श्रेष्ठि सज्जन और माताका नाम माल्हण देवी था । उनका जन्म प्रल्हादनपुर में वि० सं० १४३० मे हुआ था । माँने सोम (चन्द्र) का स्वप्न देखा था, अतः उनका नाम सोम रखा गया । केवल सात वर्षकी उम्रमे, अपनी बहन के साथ, 'सोम'ने जयानन्द सूरि के पास दीक्षा ली। उनका नाम सोमसुन्दर रखा गया । वि० सं० १४५० में वे सम्पूर्ण जैन वाङ्मयमे पारंगत हो गये । उस समय उन्हें वाचक पद प्रदान किया गया । वि० सं० १४५७ मे, पाटणमें उन्हें श्री देवसुन्दरसूरिने आचार्य पदपर प्रतिष्ठित किया। ये तपागच्छके ५० ५० वें पट्टधर थे 1 २ 1 सोमसुन्दर प्रकाण्ड पण्डित तो थे ही, भव्य और उदार भी थे । उनके अनेकानेक शिष्य थे, जिनमे मुनिसुन्दर, जयचन्द्र, भुवनसुन्दर, जिनसुन्दर और जिनकीत्ति मुख्य थे श्री मन्दिरत्नगणि आदि अनेक विद्वानोने उनका श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है। श्री सोमसुन्दरमूरिने संघसहित, शत्रु जय, गिरिनार, सोपारक और तारंगाजी आदि अनेक तीर्थक्षेत्रोंकी यात्राएं की थीं। 'प्रतिष्ठा' के क्षेत्र में वे अद्वितीय । उनके द्वारा सम्पन्न करवायी गयी प्रतिष्ठाएँ बहुत अधिक है । मुख्य रूपसे वे संस्कृत और प्राकृतके विद्वान् थे । उनको रची हुई कृतियाँ इस प्रकार है : 'चैत्यवन्दनभाष्यावचूरि', 'कल्पान्तर्वाच्य', 'चतुत्रिशति जिनभवोत्कीर्तनस्तवनम्', 'युगादिजिनस्तवनम्', 'युष्मच्छन्दन वस्तवी', 'अस्मच्छन्दनवस्तवी', ' त्रयचूर्णि', 'कल्याणकस्तवः', 'यतिजीतकल्प रत्नकोष', 'उपदेश मालाबालावबोध', 'योगशास्त्रबालावबोध', 'षडावश्यक बालावबोध', 'आराधनापताका बालावबोध', 'भाष्य १. “प्रल्हादनपुरे सज्जनभेष्ठिनो माल्हणदेव्याः कुक्षौ विक्रम संवत् १४३० वर्षेऽस्य जन्म, सोमवावलोकनात् 'सोम' इति प्रादायि नाम ।" जैनस्तोत्र सन्दोह, मुनि चतुरविजय सम्पादिन, प्रथम भाग, प्रस्तावना, पृष्ठ ७४, अहमदाबाद १६३२ ई० । २. जैनस्तोत्र सन्दोह, द्वितीय भाग, मुनि चतुरविजय सम्पादित, अहमदाबाद, १९३६ ई०, प्रस्तावना (गुजराती), पृष्ठ ८४-८५ | ३. श्री रत्नशेखरसरि, आचार प्रदीप प्रशस्ति, श्लोक ७-११, जैनस्तोत्र सन्दोह, प्रथम भाग, प्रस्तावना, पृष्ठ ७५ ४. जैनस्तोत्र सन्द्रोह, प्रथम भाग, प्रस्तावना, पृष्ठ ७५–७८ । ५. जनस्तोत्र सन्दोह, द्वितीय भाग, प्रस्तावना, पृष्ठ ८५ । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य 'नवतत्त्वबालावबोध' और 'पष्टिशतकवालावबोध ।' 'आराधनाराम' गुजरातीहिन्दीका काव्य है । 'मिश्रबन्धु विनोद' मे इसका उल्लेख हुआ है। निशिनाथनवरसफागु' संस्कृत, प्राकृत और गुजराती मिश्रित हिन्दीमे लिखा गया है। आराधनारास इसकी रचना वि० सं० १४५० मे हुई थी। इसी वर्ष उन्हे वाचक पद मिला था। इस समय उनकी उम्र २० वर्षको थी, और वे अनेक विद्याओमे निपुण हो चुके थे। 'आराधनारास' एक प्रौढ़ कृति है। नेमिनाथनवरसफागु यह एक छोटा काव्य है। यह भगवान् नेमिनाथकी भक्तिसे सम्बन्धित है । जिन नेमि जिनेन्द्रके गीतोको शारदा भी गाती है, भला कवि उनकी भक्तिमे तल्लीन क्यो न होगा, "समर विसारद सकल विसारद सारद या परदेवी रे । गाईसु नेमि जिणिंद निरंजन रंजन जगह नमेवी रे ॥" आठ प्रतिहारोको महिमाको धारण करनेवाले भगवान् नेमीश्वरको पुरन्दर भी भक्ति करते है। उन्ही जिनवरके पास सती राजीमतीने उल्लासपूर्वक, संयम धारण किया था, और फलतः उसे मोक्ष मिला था, "प्रथम अशोक विशाल पुल पगर सुकुमाल, नाद मनोहरुए चंचल चामरु ए, हेमसिंहासणकंत भामंडल झलकंत, दुंदुभि अंबरिए त्रिणि छत्र उपरीए । ईम प्रतिहारज पाठ, कसर जितो नगुपाठ, रचई पुरंदरुए भूरि भगति धरुए, पालीय जिनवर पासि, संयम मन उल्लासि, सिवपुरि पुहूती ए राजमती ए सती ए॥३३-३४॥" १. मोहनलाल दुलीचन्द देसाई, जैन गुर्जर कवित्री, प्रथम भाग, पृष्ठ ३२, पादटिप्पणी । २. मिश्रवन्धु, मिश्रबन्धु विनोद, प्रथम भाग, पृष्ठ २१७ । ३. मोदनलाल दुलीचद देसाई, जैन गुर्जर कवित्री, तीजो भाग, बम्बई, १६४४ ई०, पृष्ठ ४३८ पर प्रकाशित। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ७. उपाध्याय जयसागर ( वि० सं० १४७४-१४९५ ) ___ मध्यकालमे जयसागर नामके तीन कवि हुए है । तीनों ही जैन थे और तीनों ही हिन्दी के समर्थ कवि माने जाते है। उनमे प्रथम को उपाध्याय जयसागर कहते है। उन्होंने जिनराजसूरिके पास दीक्षा ली थी, जो जिनोदयसूरिके पट्टधर थे। श्री जिनवर्धनसूरि उनके विद्यागुरु थे। श्री जिनभद्रसूरिने उनको पाल्हणपुरमे 'उपाध्याय' पदसे सुशोभित किया था । ___ उपाध्याय जयसागर संस्कृत और प्राकृतके गण्यमान्य विद्वान् थे। उनकी अनेक रचनाएं उपलब्ध है, जिनमें 'सन्देह दोहावलीपर लघुवृत्ति', 'उवसग्गहरस्तोत्रवृत्ति', विज्ञप्ति त्रिवेणी', 'पर्वरत्नावलीकथा' और 'पृथ्वीचन्द्रचरित्र' बहुत प्रसिद्ध है। मन्त्रविद्यामें भी ये पारंगत थे। सेरीषिकाभिधान गाँवमें, श्री पार्श्वनाथजिन मन्दिरमें पद्मावतीसहित धरणेन्द्रने उन्हे दर्शन दिये थे । मेदपाट नामके देशमें, नागदह नामके शुभस्थानपर, नवखंडपार्श्वचैत्यमे शारदा उनपर प्रसन्न हुई थी। जयसागरके प्राचीन हिन्दीमे लिखे हुए अनेक मुक्तक काव्य प्राप्त हुए हैं, जिनमे "जिनकुशलसूरिचतुष्पदि'-(वि० सं० १४८१ ), 'वयरस्वामी गुरुरास'( १४८६ ), 'गौतमरास', 'नेमिनाथ विवाहलो'-( १४९८ ), 'चैत्यपरिपाटी'(१४८७ ), 'नगरकोट महातीर्थ चैत्य परिपाटी', 'सतगुरुभक्ति', 'आध्यात्मिक विवाह' तीर्थ और चैत्यभक्तिसे सम्बन्धित है । इनके अतिरिक्त उन्होने 'चतुर्विंशति जिनस्तुति', 'अष्टापद तीर्थबावनी', 'अजितस्तोत्र', 'स्तम्भनपार्श्वनाथस्तवन', और 'विहरमान जिनस्तवन' आदि स्तुति-स्तवनोंका भी निर्माण किया था। १. जैनस्तोत्र सन्दोह, द्वितीय भाग, प्रस्तावना, पृ० ६६ । २. सेरीषिकामिधाने ग्रामे श्रीपार्श्वनाथजिनभवने । श्रीशेषः प्रत्यक्षो येषां पद्मावतीसहितः ॥ श्री 'मेदपाट' देशे 'नागद्रह' नामके शुभनिवेशे । नवखण्डपार्श्वचैत्ये सन्तुष्टा शारदा येषाम् ॥ 'श्रीजयसागरउपाध्यायप्रशस्तिः', श्री अगरचन्द नाहटा, ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह, कलकत्ता, १९६४ वि० सं०, पृ० ४००। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ५३ चैत्यपरिपाटी' में पाटण, रायपुर, शत्रु जयगिरि, गिरिनार, पालीताना और जूनागढ़ आदि अनेक तीर्थोका आंखों देखा वर्णन है । इसमें २१ पद्य हैं, जो सोरठा और वस्तु नामके छन्दोंमे लिखे गये है । इस कृति में अनेक स्थल उत्तम काव्यके निदर्शन है । ‘नगरकोट तीर्थ चैत्य परिपाटी" मे नगरकोटके तीर्थों, मन्दिरों और प्रतिमाओंITI आलंकारिक वर्णन है । भाषापर गुजरातीका प्रभाव है । अतः स्पष्ट है कि उपाध्यायजी गुजरात के ही रहनेवाले होगे । १५वीं शताब्दी के कवियोंमे दृश्यको चित्रित करनेकी ऐसी सामर्थ्य बहुत कममे देखी जाती है । उदाहरणके लिए, "नंद वणिहि नंदउ सुचिरु चरम जिणासरचंद | जगु चकोरू जसु दंसणिहिं पामइ परमानंद ॥ पासि पसंसउं कोटिलए गामिहि महि अभिरामि । महमन कोइलि जिम रमउ तसु गुण अंबारामि ॥ हेमकुंभासिरि जिण भवणि ए सवि शुणिया देव । देवलिय कोठी भयरि करउं वीरजिण सेव ॥" ૪ 'जिनकुशलसूरिचतुष्पदी' का निर्माण मलिकहलपुरमे हुआ था । यह एक सरस काव्य है । इसमे सूरि जिनकुशलकी महिमाका वर्णन किया गया है । 'वयरस्वामी गुरुरास' भी गुरुभक्तिका ही निदर्शन है । सभी स्तुति स्तोत्र उत्तम है। 'चतुविशति जिन स्तुति' मे २४ जिनेन्द्र का स्तवन है । भगवान् ऋषभदेवके दर्शनोंसे उत्पन्न होनेवाला आनन्द अनिर्वचनीय है, " सुविहाणउ जइ आज भई, दीठउ रिसह जिणेस, नयण कमल जिम उल्लसइ, ऊगिउ भलइ दिनेस | रोम विहि तणु ऊधसई, हियडई परमानंद, नयण अमिय रस झलिणऊ, दीठउ आदि जिणंद ॥" १. 'चैत्यपरिपाटी' की हस्तलिखित प्रति पाटण भण्डारमें, मुनि पुण्यविजयजीके संग्रह में, सत्क प्रतिपत्र नं ० २- १० पर मौजूद है 1 २. इसकी हस्तलिखित प्रति भी उपर्युक्त भण्डारमें है । ३. नगरकोट, महातीर्थ चैत्य परिपाटी, पद्य ११-१३ । ४. दादा श्री जिनकुशल सूरि, नाहटा सम्पादित, परिशिष्ट ग, पृ० ८२ । ५. जैन गुर्जर कविप्रो, तीजो भाग, पृ०१४७६ | Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कविका विश्वास है कि भगवान् महावीरको शरणमे जानेसे मन-वचनकायसे किये गये सभी राग-द्वेष दूर हो जाते है। उसने भगवान् वीरसे ऐसे प्रसादकी याचना को है, जिससे वह भव-भवमे भगवान्के पैरोंकी सेवा कर सके, "राग दोस बसि जो कियउ, मणवय काय पमाय, तं मिच्छा दुक्कड हवउ, सरण वीर जिण पाय । करि पसाउ मुझ तिम किमइ, महावीर निणराय, इणि भवि अहवा अन्न मवि, जिम सेवउं तु पाय॥" ८. हीरानन्दसूरि ( वि० सं० १४८४-१४९५ ) हीरानन्दसूरिकी गणना, १५वीं सदीके उत्तम कवियोंमें की जाती है। वे पिप्पलगच्छके श्रीवीरप्रभसूरिके शिष्य थे। उन्होने अपनी कृतियोंमे मरुमण्डलके साचौरपुरके वीर भवनका उल्लेख किया है, इससे प्रमाणित है कि वे राजस्थानके रहनेवाले थे। उनकी भाषा भी सरल राजस्थानी ही है। उस समयकी राजस्थानी और हिन्दीमे इतना रूप-भेद नही था, जितना आजकल है। यदि यह कहा जाये कि वे एक ही थीं, तो अत्युक्ति न होगी। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीने राजस्थानीका गुजराती और हिन्दो दोनोसे ही अविच्छेद्य सम्बन्ध स्थापित किया है। इस तरह स्पष्ट है कि हीरानन्दसूरि हिन्दीके महत्त्वपूर्ण कवि थे। उन्होने 'वस्तुपालतेजपालरास' (वि० सं० १४८४), 'विद्याविलास पवाडो' (वि० सं० १. वही, पृ० १४७६ ! २. पोपल गछि गुरुराय श्रीवीरप्रभ सूरि गहगहईए, पामीअ सुगुरु पसाय, मरुमंडलि रुलिआमणुए। पुर साचुर मझारि, वीर भुवण रुलिआमणुए, संघ सहित घरबारि, संवत चऊद पंचाणवईए । "जैन गुर्जर कविओ, तीजो भाग, जम्बूस्वामी विवाहला, अन्तभाग, पद्य ५२-५३, पृ०४२६ । ३. ढोलामारूरा दूहा, श्रीरामसिंह, सूर्यकरण पारीक और नरोत्तमदास स्वामी सम्पा___दित, भूमिका, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, १९३४ ई० पृ०। ४. हिन्दी साहित्यका आदिकाल, पृ०६, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् , पटना, १९५२ ई० । ५. यह पवाड़ा, बडौदासे प्रकाशित 'गूर्जररासावलि' में प्रकाशित हो चुका है । यह 'पवाडा' साहित्यमें सबसे प्राचीन है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १४८५ ), 'कलिकालरास' (वि० सं० १४८६), 'दशार्णभद्ररास', 'जंबूस्वामी वीवाहला' ( वि० सं० १४९५ ) और 'स्थूलिभद्र बारहमासा'की रचना की थी। ___ कविने विद्याविलास पवाडोमे प्रथम जिनेश्वर, शान्तिनाथ, नेमिकुमार और पार्श्वनाथको नमस्कार करते हुए, शारदासे वरदानको याचना की है और उनसे सम्बन्धित मुख्य तीर्थोके प्रति भी भक्ति-भाव प्रदर्शित हुआ है। “पहिलं पणमीय पढम जिणेसर, सित्तुंजय अवतर, हथिणाउरि श्री शांति जिणेसर उजंनि निमिकुमार । जीराउलिपुरि पास जिणेसर, साचउरे वर्द्धमान, कासमीर पुरि सरसति सामिणि, दिउ मुझनई वरदान ॥२" 'जम्बूस्वामी विवाहला', जम्बूस्वामीकी भक्तिसे सम्बन्धित है। उसके मंगल पद्यमे वीर जिनेश्वर, गौतम गणधर और देवी सरस्वतीका स्मरण किया है। "वीर जिणेसर पणमीअ पाय, गणहर गोअम मनि धरीअ, समरी सरसती कवि अण पाय, वीणा पुस्तक धारिणी ए। बोलिसु जम्बू चरित रसाल, नव नव माव सोहामणुअ, रयणह संख्या ढाल रसाल, भविअण माविहिं सोमलुए ॥३-२॥ 'स्थूलिभद्र बारहमासा में मुनि स्थूलिभद्रके बारह महीनोंको जीवनचर्याका भक्ति-पूर्वक वर्णन हुमा है। बारहवर्षीय अकाल पड़नेपर, जब भद्रबाहु स्वामी दक्षिणमें चले गये, तो पाटलिपुत्रमे जैनसंघके अधिष्ठाता स्थूलिभद्र हुए। उन्हें ११ अंगोंका ज्ञान था। इस बारहमासामें २८ पद्य है। अन्तमे लिखा है कि जो आनन्दपूर्वक बारहमासा पढ़ता है, उसके पास ऋद्धि-सिद्धि अचल होकर निवास करती है। १. कलिकालरास, श्रीअगरचन्द नाहटाके सम्पादनके साथ, हिन्दी-अनुशीलन, भारतीय हिन्दी परिषद् प्रयाग, वर्ष १०, अंक १, जनवरी-मार्च १६५७ ई० में, पृष्ठ ५५-५६ पर प्रकाशित हुआ है। २. जैनगुर्जर कविओ, प्रथम भाग, बम्बई, १९२६ ई०, पृ० २५-२६ । ३. जैनगुर्जर कविओ, तीजो भाग, पृ० ४२८-४२६ । ४. स्थूलिभद्र बारे मासड़ा, ए जे भणै धरि आणंद कि । तिहा धरि अचल वधामणुं, ऐ बोले सूरि हीराणंद कि । स्थूलिभद्र बारहमासा, स्वाँ पद्य, जैनगुर्जर कविओ, तीजो भाग, पृ० २६ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ९. भट्टारक सकलकीति (वि० सं० १४९९) सरस्वती गच्छके श्री पद्मनन्दी एक प्रभावशाली भट्टारक थे । वे भट्टारक रत्नकोत्तिके देहली-पट्टपर, वि० सं० १३७५ मे प्रतिष्ठित हुए थे। उनकी प्रशंसा विजौलियाके शिलालेखों (वि० सं० १४६५ और १४८६) मे अंकित है । उनके दो शिष्य थे-भट्टारक शुभचन्द्र और भट्टारक सकलकीत्ति । सकलकोत्ति से ईडर को भट्टारकीय गद्दीकी परम्परा आरम्भ हुई थी। भट्टारक सकलकीत्ति अपने समयके एक प्रसिद्ध विद्वान् थे। उनका संस्कृत भाषापर एकाधिपत्य था। उन्होंने संस्कृतमे १७ ग्रन्थोको रचना की : पुराणसार, सिद्धान्तसारदीपक, मल्लिनाथचरित्र, यशोधरचरित्र, वृषभचरित्र, सुदर्शनचरित्र, सुकुमालचरित्र, वर्धमानचरित्र, पार्श्वनाथ पुराण, मूलाचार प्रदीप, सारचतुर्विशतिका, धर्मप्रश्नोत्तरश्रावकाचार, सद्भाषितावली, धन्यकुमारचरित्र, कर्मविपाक, जम्बूस्वामीचरित्र, श्रीपालचरित्र । ___भट्टारक सकलकोत्ति प्रतिष्ठाचार्य भी थे। उन्होने सैकड़ों मन्दिर बनवाये, मूत्तियोंका निर्माण करवाया और उनके प्रतिष्ठादि महोत्सव, स्वयं आचार्य बनकर सम्पन्न किये। उनके द्वारा प्रतिष्ठित मूत्तियोंमे, तत्कालीन इतिहासकी अनेक बातें अंकित है। सकलकोत्तिका समय विक्रमकी १५वीं शताब्दीका उत्तरार्ध माना जाता है । उन्होंने संघसहित, वि० सं० १४८१ में, बडालीमे चतुर्मास किया था। वहांपर ही उन्होंने श्रावण शुक्ला पूर्णिमा, वि० सं० १४८१ को 'मूलाचार प्रदीप'को अपने कनिष्ठ भ्राता जिनदासके अनुग्रहसे पूरा किया। १. जनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली, पृष्ठ १६ । २. जैनग्रन्थ प्रशस्ति मंग्रह, प्रथम भाग, प्रस्तावना पृ० ६-१०। ३. तिहि अवसरे गुरु आविया, बडाली नगर मझार रे, चतुर्मास तिहां करो शोभनो, श्रावक कीघा हर्प अपार रे, अमीझरे पधरावियां, बधाई गावे नर नार रे।। सकल संघ मिलि बन्दिया, पाम्या जयजयकार रे ॥ संवत् चौदह सौ क्यासो भला, श्रावणमास लसंतरे, पूर्णिमा दिवसे पूरण कर्या मूलाचार महंत रे । भ्राताना अनुग्रह शकी कीघा ग्रन्थ महान रे ।। वही, पृ० १०॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य भट्टारक सकलकीर्ति, वि० सं० १४४४ में, ईडरकी गद्दीपर आसीन हुए थे । वि० सं० १४९९ में, महसाना ( गुजरात ) में उनका स्वर्गवास हुआ । हिन्दीके लिए भी उन्होने जो कुछ प्रयास किया, उसीके फलस्वरूप उनके शिष्य ब्रह्म जिनदास हिन्दी के उत्तम साहित्यकार बन सके । भट्टारक सकलकीर्तिकी हिन्दीमे लिखी हुई पांच कृतियाँ 'आराधनाप्रतिबोधसार', 'णमोकारफलगीत', नेमीश्वरगीत', और 'सोलहकारणव्रतरास ! ।' आराधनाप्रतिबोधसार इसकी भाषा सरल है । उसमे प्रसादगुणका निर्वाह हुआ है । कविने जिनवाणी, गुरु और निर्ग्रन्थ साधुओंको प्रणाम करके, संक्षेपमें आराधनासार कहा है । इसमे संस्कृत आराधनाका सार है । जो कोई नर-नारी इस आराधना सारको कहता और सुनता है वह भव-समुद्रसे पार हो जाता है । यह आराधना मनुष्योंको ज्ञान प्रदान करती है । ५७ उपलब्ध हुई हैं: 'मुक्तावलो गीत ' णमोकारफलगीत णमोकार मन्त्र पंचपरमेष्ठी की वन्दना से सम्बन्धित है । प्रस्तुत कृतिमें णमोकार मन्त्रका फल दिया हुआ है। यह एक गीति-काव्य है, उसके प्रत्येक पद्यमें उत्तम भाव उच्छ्वसित हुआ है । भाषामें प्रसादगुण है । नेमीश्वरगीत यह गीत जयपुरके पं० लूणकरजीके मन्दिर, गुटका नं० ९६ और वेष्टन नं० ३३८ मे निबद्ध है । १. श्रीजिनवरवाणी नमेवि गुरु निर्ग्रन्थ पाय प्रणमेवि । कहुं आराधना सुविचार संक्षेपि सारोद्धार ॥ श्रीरशास्त्र भण्डारकी हस्तलिखित प्रति, पहला पद्य । २. जे भणई सुणई नरनारि, ते जाईं भवि नेइ पारि । श्री सकलकीति कह्यु विचार आराधना प्रतिबोधसार ॥ वही, अन्तिम पद्य । ३. दि० जैन पंचायती मन्दिर बडौनके एक गुटके में निबद्ध । ८ मुक्तावलीगीत यह गीत, जयपुरके बड़े मन्दिरके गुटका नं० ३६, वेष्टन नं० २४५७ में प्रस्तुत है । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-कान्य और कवि १०. श्री पद्मतिलक (वि०की१५वीं शतीका अन्त-१६वीं शतीका भारम्भ) श्री पद्मतिलककी एक मात्र कृति 'गर्भविचारम्तोत्र' है। उससे ऐसा कुछ प्रकट नहीं होता, जिसके आधारपर उनका जीवन-वृत्त अथवा गुरु-परम्परा मादिके विषयमे लिखा जा सके। यह कृति उस गुटकेमे निबद्ध है, जो वि० सं० १६२६ में लिखा गया था, किन्तु 'गर्भविचारस्तोत्र' की भाषासे स्पष्ट है कि उसकी रचना १५वी सदीके अन्त अथवा १६वीके आरम्भमे हुई थी। गर्भविचारस्तोत्र इस स्तोत्रमे २८ छन्द है। गर्भवासके दुःखोंका वर्णन करनेके कारण ही इसको 'गर्भविचारस्तोत्र' कहते है। यह कोट कांगड़ाकी ऋषभ-मूर्तिको लक्ष्य कर लिखा गया है। कोट कांगड़ाके तीर्थंकर ऋषभनाथ दुःख और दुरितोको नष्ट करनेवाले है। उन भगवान्का जाप करनेसे जीवका मन शुद्ध होता है, और वह संसारके भ्रमणसे मुक्त हो जाता है, "सिरि रिसहेसर पद्य णमेति, पुर कोटहं मंडण । कांड दुग्गहं पढमंतित्य दुह दुरिय विहंडण ॥ सामी जंप किंपि दुरक णिय माणस केरउ । गरुवा जिणवर किमइं गखि मुझ भवनउं फेरउ ॥" कविने लिखा है कि मैं अनादिकालसे निगोदमें घूमता रहा । वहाँसे निकला तो एकेन्द्रिय - अग्नि, वायु और वनस्पति आदि बना, मनुष्य जन्म न मिल सका, "श्रादि अनादि निगोद मांहि बहु कालु भमिउं महं । सत्तर साढऊसासमज्झि भव पूरिय जिण महं । णिग्गोदहं णीसरिउ णाह पडियउ एगिदिहिं । पुढवि आउ तहं, तेउ वाउ वणसइ दुहुँ भेदिहिं ॥" पूर्वजन्मके पुण्य-संयोगसे मनुष्य-भव मिला। किन्तु इसके प्राप्त होनेमें भी जीवको नौ मास तक गर्भके दुःख सहने पड़े। वह नौ मास तक रमणीके नाभितलके नीचे पड़ा-पड़ा दुःख सहता रहा, १. यह गुटका बाबू कामताप्रसादजी जैन, अलीगंजके पास है। २. गर्भविचारस्तोत्र, पहला पद्य, वि० सं०,१६२६ के लिखे हुए गुटकेकी हस्तलिखित प्रति । ३. वही, तीसरा पद्य । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "पुन्व पुषण संजोगि पुणवि मणुवत्तणु पाविउ । विविह दुक्ख व मास सड्ढ गब्मिहिं संताविउ ॥ रमणि नामितलि नाल कारि दुहुं पुप्फहं श्रच्छ । कोसगारिहिंता मुठि पुण जोनि पडित्थइ | را भगवान् ऋषभदेवके दर्शनोंकी महत्ता बताते हुए कविने लिखा है कि हे भगवन् ! तुम्हारे दर्शन करनेसे ऐसा विदित होता है जैसे मुझे चिन्तामणि हो मिल गयी हो, जैसे हमारे अंगनमे कल्पवृक्ष विविध फलोसे फर गया हो, और जैसे हमारे घरमे सुरधेनुका ही अवतार हुआ हो । जिस किसीने भगवान् ऋषभनाथको अपनी भक्ति से प्रसन्न कर लिया, उसकी सभी मनोवांछित अभिलाषाएं पूरी हो जाती है, " दंसण तुम्ह विहाण अच्छ चिंतामणि वडियउ । सुरतरु अंगण अम्ह अच्छ विविहप्परि फरियड ॥ सुरहधेणु अंगणिहिं णाह श्रम्हहं अवयरियड । जइ भेउ सिरि रिसहणाह मणवंछिय सरियड ॥ 2,1 ११. ब्रह्मजिनदास ( वि० सं० १५२० > ५९ इस काव्यकी भाषामे अपभ्रंश और प्राकृतके प्रयोग अधिक है। फिर भी उसके सौन्दर्यमे कहीं पर व्याघात उपस्थित नही हुआ है । भाषामे प्रवाह है और भावोंमे स्वाभाविकता | उपयुक्त दृष्टान्तोंसे रस उत्पन्न हो सका है । १. वही, नौवॉ पद्य | २. वही, २७वॉ पद्य । ३. जैन ग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, प्रस्तावना, पृष्ठ ११ । ब्रह्मजिनदास भट्टारक सकलकीर्त्तिके छोटे भाई और शिष्य थे । वे भी कलकीर्त्तिके समान ही उत्तमकोटिके विद्वान् थे। उनकी संस्कृत कृतियोंमें 'जम्बूस्वामीचरित्र', 'हरिवंशपुराण' और 'रामचरित्र' का नाम प्रमुख रूपसे लिया जा सकता है । 'जम्बूस्वामीचरित्र' की रचनामे उन्हे अपने शिष्य ब्रह्मचारी धर्मदासके मित्र - कवि महादेवसे सहायता प्राप्त हुई थी। 'धर्मपंचविंशतिका' अथवा 'धर्मविलास' उन्हीकी रचना है । इनके अतिरिक्त उन्होंने 'यशोधररास', आदिनाथरास, 'श्रेणिक रास', Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० हिन्दी जैन भक्तिकान्य और कवि 'समकितरास', 'करकण्डुरास', 'कर्मविपाकरास', 'श्रीपालरास', 'प्रद्युम्नरास', 'धनपालरास', 'हनुमच्चरित्र' तथा 'व्रतकथाकोष' की रचना की थी। इन सबकी भाषा गुजराती, हिन्दी और राजस्थानीका मिला-जुला रूप है। उनकी बाह्य रूप-रेखाको हिन्दी कहा जा सकता है, जिसपर गुजराती और राजस्थानीका विशेष प्रभाव है। उनके रचे गये पूजा-प्रन्थोमे, 'जम्बूदीपपूजा', अनन्तव्रतपूजा', 'सार्द्धद्वयदीपपूजा,' 'चतुर्विशत्युद्यापनपूजा', 'मेघमालोद्यापनपूजा', 'चतुस्त्रिशदुत्तरद्वादशशतोद्यापन' और 'बृहत्सिद्धचक्रपूजा' ज्ञात हो सके है । इनकी भाषा संस्कृत है। वि० सं० १४८१ मे ब्रह्मजिनदासके अनुरोधसे ही उनके गुरु भट्टारक सकलकोत्तिने बड़ालीमे 'मूलाचारप्रदीप' की रचना की। ब्रह्म जिनदासने स्वयं वि० सं० १५२० मे 'हरिवंशरास' का निर्माण किया । अतः उनका समय १५वीं शतीका उत्तरार्द्ध और १६वी का पूर्वार्द्ध माना जा सकता है। उनकी हिन्दी कृतियोंका परिचय इस प्रकार है : आदिपुराण इस ग्रन्थमे २१५ पद्य है । रचनामें संस्कृतके आदिपुराणोंका सहारा लिया गया है। समाप्त करनेकी शीघ्रतामे 'सम्बन्ध-निर्वाह' ठीकसे नही निभ सका। साथ ही प्रबन्धकाव्यका कोई गुण समुचित रूपसे विकसित नहीं हुआ है। फिर भी भाषा कान्योपयुक्त है। प्रसादगुणने सौन्दर्य-सृष्टि की है। ____ कर्मभूमिके उत्पन्न होनेपर, भगवान् ऋषभदेवने षट्कर्मोकी स्थापना की थी। उन्होंने संसारके प्राणियोंको धर्माधर्मका विवेक भी प्रदान किया था। ऐसा करनेमे वे इसलिए समर्थ हो सके कि उन्होने स्वयं भी मुक्तिवधूको प्रत्यक्ष कर लिया था । संसार उनकी जय-जयकार करता था। १. यशोधररास, आदिनाथरास, समकितरास, धनपालरास और व्रतकथाकोष, आमेरशास्त्रभण्डार जयपुरमें, नथा अवशिष्ट रास पंचायती मन्दिर, देहलीके शास्त्रभण्डारमें मौजूद है। २. इनके नाम विभिन्न गुटकोंमें-से लेकर, श्री परमानन्द शास्रीने प्रशस्तिसंग्रह, प्रस्तावनामें, पृष्ठ १२ पर, दिये है। ३. श्रीमत् भट्टारक रत्नचन्दजीने, सरस्वती गच्छके ब्रह्म प्रेमचन्दसे, सं० १८५६, मगसिर सुदी ३, गाँव श्री मैतवालके मध्य पार्श्वनाथ उपासरेमें, इस काव्यकी प्रतिलिपि करवायी। देखिए भामेरशासभण्डारकी हस्तलिखित प्रति । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ६१ ब्रह्मजिनदासने उन भगवान् के गुणोंको सद्गुरुके प्रसादसे जाना था । भगवान्के गुणोंपर रीझकर ही उन्होंने भव-भवमें भगवान्‌की सेवाकी याचना की ।' कथाकोष संग्रह ' ર इस कोषमे छह कृतियाँ संकलित है : 'दशलक्षणव्रतकथा, 'निर्दोष सप्तमीव्रतकथा', 'चांदणषष्टिव्रतकथा', 'आकाशपंचमीव्रतकथा', 'मोक्षसप्तमी व्रतकथा' और 'पंचपरमेष्ठीगुणवर्णन' । 'पंचपरमेष्ठी गुणवर्णन' एक मुक्तक काव्य है। उसका प्रत्येक छन्द, एक पृथक् भावको सहेजकर चला है । उसमे गीतिपरता है, भाव-विभोरता और लय भी । यह पंचपरमेष्ठियोंको भक्तिसे सम्बन्धित एक उत्तम काव्य है । इस काव्यके सुनने और समझने मात्रसे ही, जीवके सभी मनोवांछित कार्य पूरे हो जाते है, और वह शिवपुरमे पहुँच जाता है । किन्तु सुनते और समझते समय उसका मन निर्मल होना चाहिए । धनपालरा इसमे धनपालके चरित्रका वर्णन है । धनपाल भगवान् जिनेन्द्रका भक्त था । स्थान-स्थानपर उसकी भक्तिका उल्लेख हुआ है । कविका विश्वास है कि चौबीस तीर्थंकर और स्वामिनी शारदाको प्रणाम करनेसे मनोवांछित फल उपलब्ध होते हैं ।" १. षट् कर्म स्वामी थापी पाए, धर्माधर्म वीचार तो, मुगति रमणी प्रगट की यो ए, त्रिभुवन जयजयकार तो । तेह गुण मे जाणो या ए, सदगुरु तणां पमावतो, भवि भवि स्वामी सेवसुं ए, लागु सह गुरु पाय तो । वही अन्तिम प्रशस्ति, पंक्ति ११-१४ । २. आमेरशास्त्रभण्डारकी हस्तलिखित प्रति । ३. पढ़े गुणे जे साभले, मनि घरी निरमल भाउ । मन वंछित फलरूवणा, पावे शिवपुर ठाउ ॥ पंचपरमेष्ठी गुणवर्णन, अन्तिम पाठ, दूसरा पद्य, आनंरशास्त्र भण्डारखाली प्रति । ४. इस रासकी प्रतिलिपि, पाण्डे रूपचन्दके अध्ययनार्थ, वि० स० १८०८ श्रावण सुदी १, रविवारको करवायी गयी थी । श्रमेरशास्त्र भण्डारकी हस्तलिखित प्रति । ५. वीर जिनवर नमुं ते सार, तीर्थंकर चौबीसमो । छित फल बहु दान दातार, सारद सामिण वीनवुं ॥ धनपालरास, मंगलाचरण । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काग्य और कवि मिथ्या दुकड़ यह ब्रह्म जिनदासकी एक सफल कृति है। उसमे सादृश्यगत सौन्दर्य है। कविने एक स्थानपर लिखा है, जैसे दिनकरके निकलते ही कमल खिल जाते है, ठीक वैसे ही आदि जिनेश्वरके दर्शनोंसे भव्यों के मन विकसित हो जाते है। जैसे दिनकरसे अन्धकार फट जाता है, वैसे ही भगवान् मोहको विदीर्ण कर देते है। भक्त युग-युगसे भगवान्के दरवाजेपर जाते रहे है, और वहां उन्होने नि:संकोच होकर अपने पापोको कहा है। उन्हें विश्वास था कि दयालु भगवान् अवश्यमेव क्षमा प्रदान करेंगे। जैन भक्त भी, त्रिभुवनके नाथ भगवान् जिनेन्द्रके पास गया है, "हूँ विनती करूंहवें आपणीय । तूं त्रिभुवन स्वामी सुणि धणीय ॥ जे पाप करया ते कहूँ अनुस । ते मिथ्या दुकढ़ होउ नमंझ ॥२॥" भगवान्के अनन्त गुणोंका वर्णन करते हुए, उनकी वन्दना करना, एक पुराना रिवाज है । यहां भी ऐसा ही एक दोहा है, "जिनवर स्वामी मुगति हिं गामी सिद्धि नयर मंडणो। भव बंधण खीणो समर सलीणो, ब्रह्म जिनदास पाय वंदणो ॥१॥" (अन्तिम) यशोधरचरित्र ___ इसमें भक्त यशोधरका चरित्र वर्णित है। संस्कृत ग्रन्थोंका सहारा लिया गया है। भाषामें प्रसादगुण है। प्रारम्भमे ही कविने मुनिसुव्रतनाथ ( २०वें तीर्थकर ), शारदादेवी, गौतम गणधर और गुरु सकलकोत्तिको प्रणाम किया है "मुनिसुव्रत जिन मुनिसुव्रत जी नतद्वं ते सार। तीर्थकर जे वीसमुं वांछित बहु दान दातार ॥ १. आदि जिणेसर भुवि परमेमर सयाल दुक्ख विणासणो । भुवि कमल दिणेसर मोह तिमिर हर तत्त्व पदारथ भासणो॥ मिथ्या दुकड, पहला पद्य, आमेरशास्त्रभण्डारकी प्रति । २. इस काव्यकी प्रतिलिपि, पण्डित रूपचन्दीके पढनेके लिए, संवत् १८२६ में करवायी गयी थी। प्रशस्तिसंग्रह, पृ० २४८, जयपुर, १९५० ई० । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य सारदा स्वामिणि वलीस्तवु जिमि बुद्धि सार हुं वेगी मागुं । गणधर स्वामि नमस्करूं, वली सकल कीरति गुरु भवतार ॥ तास चरण प्रणमीनें, करें सुरासुर सार ||१|| " 'यशोधरचरित्र की महिमाका वर्णन करते हुए कविने लिखा है, “गुणोके भण्डार यशोधरचरित्रको सुनने मात्र से ही मिध्यात्व और राग मोह दूर हो जाते हैं, तथा शिवपुर उपलब्ध होता है । "गुणहतणुं मंडार सुणिइं, जे नर अनुदिन भणें, हिय मैं धरी बहु भाव, ब्रह्म जिणदास इम परिभ तेहने शिवपुरे हाम || " ६३ सम्यक्त्वरास इसमें भगवान् रामको कथाके द्वारा सम्यक्त्वकी महिमा बतायी गयी है । रामचन्द्र सुन्दर तो थे ही, दिनकरके समान प्रतापशाली भी थे । वे शास्त्रवेत्ता, महामती, धार्मिक और देवशास्त्र-गुरुके परम भक्त थे । कविने उनकी भक्ति की है। " जयवंत जय जगि सार सुंदर रामचंद्र बखानिये | लक्ष्मीधर भe भरत शत्रुघ्न च्यारि पुत्र भरि जाणीइये || कुल कमल दिनकर सकल शास्त्र सुज्ञानवंत महामती । देव धर्महं गुरु परीक्षण रामचन्द्र क्षतिपती ॥१॥" श्रेणिकरा इसमें राजा श्रेणिकका वर्णन है। श्रेणिक मगधका राजा था । उसे बिम्बसार भी कहते हैं । इसीका पुत्र अजातशत्रु था, जिसे जैन शास्त्रो में 'कुणिक' कहा गया है । श्रेणिक भगवान् महावीरके मौसा थे। वैशालीके राजा चेटककी एक लड़की त्रिशला, सिद्धार्थ ( महावीरके पिता ) की पत्नी थी, और दूसरी चेलना, श्रेणिककी रानी । श्रेणिक पहले बौद्धधर्मानुयायी बना और बादमे महावीरका भक्त हो गया । महावीर के समवशरणमे श्रेणिक मुख्य प्रश्न- कर्त्ता था | कविने इस 'रास' के आरम्भमे ही लिखा है कि मै भगवान् महावीरके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ, और अन्य तीर्थंकरोकी भी स्तुति करता हूँ, क्योंकि वे 'मनोवांछित' को पूरा करनेवाले है । स्वामिनी शारदापर न्योछावर होता हूँ, वे श्रेष्ठ बुद्धि प्रदान करती है, १. इसकी हस्तलिखित प्रति श्रारशास्त्र भण्डार में मौजूद है । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि "वीर जिणवर वीर जिणवर नमुं ते सार, तीर्थकर चवीस वांछित बहु दान दातार, सारदा सामिणि वली तवु बुद्धिसार हुं वेगि मागु, गणधर स्वामी नमस्करूं श्री सकल कीरति भवतार, श्री भुवनकीरति गुरुमनि धरु करिसुं रास हुं सार ॥" १२. मुनि चरित्रसेन (वि० सं० १५वीं शताब्दीका प्रथम या द्वितीय पाद ) मुनि चरित्रसेनकी ‘समाधि' नामकी रचना उपलब्ध हुई है। उससे मुनि चरित्रसेनके जीवन और जीवनकालका कोई परिचय नहीं मिलता । 'समाधि' की भाषासे ऐसा अवश्य प्रतीत होता है कि वह १५वी शताब्दीके उत्तरार्द्धकी रचना है । भाषामे सम्माइट्ठी, अप्पणाउ, पणासइ, और पाणिउ-जैसे शब्दोंका प्रयोग है । क्रियाओके उकारबहुला होनेसे अपभ्रंशका पुट अधिक मालूम होता है । उसकी वेश-भूषा प्राचीन हिन्दीकी है । यह रचना समाधि-भक्ति के अन्तर्गत आती है । उसमे "दुक्खक्खभ कम्मक्खभो समाहिमरणं च बोहिलाहो वि । मम होउ तिजग बन्धव तव जिणवर चरणसरणेण” वाली भावनाका ही प्राधान्य है । इसका अर्थ है कि समाधिमरण भी भगवान् जिनेन्द्रकी कृपासे मिल पाता है । गणधर गौतमने लिखा है कि यदि भगवानको कृपासे समाधि मिल जाये तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र समृद्ध होते है, जीव सम्यग्दृष्टि बन जाता है, " गणहर भासिय ए जिय संति समाधी ॥ दंसण णाण चरित समिद्धी, संभाधी जिणदेवहं दिट्ठी । जो करेह सो सम्माइट्ठी ॥ २१ ॥ 1 'समाधिमरण' के धारण करनेपर आत्मा और पुद्गलके एकत्वको ही भावना भानी चाहिए। दोनोंमे कोई सम्बन्ध नही है । दोनों पृथक्-पृथक् है । यौवन, स्त्री, धन और परिजन सभी अस्थायी है, कुछ समय बाद नष्ट हो जायेंगे । अतः हे जीव ! धर्ममें आनन्दका अनुभव करो, १. यह कृति, दिल्लीके मसजिद खजूरके जैन है । यह उस पोथी में निबद्ध है, जिसमें 'कल्याणक विधिरास' भी अंकित हैं। पंचायती मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें मौजूद विनयचन्दकी 'निर्भर पंचमीकथा' और Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य “अइसउ जाणि जिया वेहत्त्य विमिन्ना पुग्गल कम्मवि अप्पउ मिन्ना ।। सम्माधी० ॥ जोवण धणिय घणु परियणु णासय जीव हो! धमु सरीसउ होसइ ।।सम्माधी०॥३६॥" कविने एक स्थानपर लिखा है कि नेमिनाथके समाधिमरणका स्मरण करो। ऐसा करनेसे अन्तःकरणका समूचा विष नष्ट हो जायेगा। फिर वह अन्तिम दिन शुभ होगा जब मृत्युको भी जोतकर यह जीव शिवलोक प्राप्त करेगा, ऐसी शक्तिशालिनी समाधिका जो प्रतिदिन ध्यान करता है वह अवश्य ही अजरामर पदको प्राप्त करता है, "नेमि समाधि सुमरि जिय विसु नासइ । जिय पर मरकरि पाउ पणास ॥ सोहQ सो दिवसु समाधि मरीजइ । जम्मण मरणह पाणिउ दीजइ ॥ अइसी समाधि जो अणु-दिणु झावइ । सो अजरामरु सिव सुह पावइ ॥५०॥" 'समाधि'को भाषामें सरलता है और भावोंमे भक्तिका तारतम्य । स्वाभाविकताने काव्यको सौन्दर्य प्रदान किया है। १३. लावण्यसमय (वि० सं० १५२१) लावण्यसमयका बचपनका नाम लघुराज था। उनके पिताका नाम श्रीधर और माताका नाम झमकल देवी था। उनके तीन भाई थे : वस्तुपाल, जिनदास और मंगलदास । एक बहन थी : लीलावती। वे श्रीमाली वणिक् थे। उनके दादा पाटणनगरसे अहमदाबादमे आकर बस गये थे। उनके सबसे बड़े पुत्र श्रीधर अजदपुरमें रहते थे । वहाँ ही लघुराजका जन्म हुआ था। उनकी जन्मतिथि पौष बदी ३, सं० १५२१ मानी जाती है। लघुराजके जन्माक्षरोंपर विचार करते हुए मुनि समयरत्नने उनके पितासे कहा, तुम्हारा पुत्र तपका स्वामी होगा, अथवा वह कोई तीर्थ करेगा। बड़ा यति, महान् विद्वान् और गुरुके वचनोंपर चलकर बहुत बड़ा वैरागी होगा, १. विमलप्रबन्ध, पद्य ३०-३६, जैनगुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृष्ठ ७६-७७ । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि "सुणउ श्रेष्ट होशि तपधणी, कई ए जाशई तीरथ भणी, कई एथाई - मोट यती, वर विद्या होश दीपती ॥ ४० ॥" इस होनहार बालकको तपगच्छपति लक्ष्मीसागरमूरिने, जेठ सुदी दशमी (वि० सं० १५२९ ) के दिन, पाटणके मध्य, पालणपुरीके अपासरामे, महोत्सवपूर्वक दीक्षा दी और उसका नाम लावण्यसमय रखा। इस प्रकार लावण्य समय के दीक्षागुरु लक्ष्मीसागरसूरि और विद्यागुरु समयरत्न थे । कविने स्वयं एक स्थानपर लिखा है कि सोलहवे वर्षमें मुझपर सरस्वती माताकी कृपा हुई और मुझमे कवित्व शक्तिका जन्म हुआ। जिससे मैं छन्द, कवित्त, चौपई, रास और अनेक प्रकारके गीत तथा राग-रागिनियोंकी रचना कर सका । सिद्धान्त चौपई इन्हीका एक प्रसिद्ध काव्य है । नन्दबत्तीसीकी रचना भी इन्होंने ही की थी । लावण्यसमयकी ख्याति चतुर्दिकमे व्याप्त हो गयी थी। बड़े- बड़े मन्त्री, राजा-महाराजा, सरदार और सामन्त, उनके चरणोमे झुकते थे । वि० सं० १५५५ मे उनको पण्डित पद मिला। वे अनेक देश-विदेशोंमें विचरण कर उपदेश देते थे । एक बार विहार करते-करते सोरठ देशमे आये और गिरिनारपर ठहरे। उन्होंने अनहिलवाड़ पाटणके पास मालसमुद्र नामके गाँव मे चातुर्मास किया । उस समय उन्होंने वि० सं० १५६८ मे 'विमलरास' की रचना पूर्ण की। वि० सं० १५८९ मे उनका स्वर्गवास हो गया। ૪ 'सिद्धान्त चौपई' के आदिमें ही कविने लिखा है कि भगवान् जिनेन्द्रके पैरोंमें १. गुरुवचने वईरागी थयु, मात तात पय लागी रहिउ, जेठ सुदी दिन दसमी तणउ, ऊगणत्रीसई उच्छव धणउ । पाटणि पाहणपुरी पोसाल, जंग हुई चउपट चुसाल, दिई दीक्षा अति आनंदपूर, गच्छपति लषिमीसागरसूरि । संघ सजन सहू साषी समई, नाम ठविडं मुनि लावण्यसमई, नवमइ बरष दीषवर लीध, समयरत्न गुरु विद्या दोघ । वही, पद्म ४१-४३, पृ० ७७ । २. सरसति मात मया तव लही, बरस सोलमई वांणी हुई, रचिआ रास सुंदर संबंध, छंद कवित्त चउपइ प्रबंध | विविध गीत बहु करिआ विवाद, रचीआ दीप सरस संवाद, वही, पद्य ४४-४५, पृ० ७७ । ३. वही, पद्य ४५-४६, १०७८ ४. जनगुर्जरकविभो, प्रथम भाग, पृ० ७०, पादटिप्पणी । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य नमस्कार करनेसे अपार हर्ष होता है। सद्गुरुके प्रसादसे मुझे देवी सरस्वतीकी प्राप्ति हुई है। मै भगवान् महावीरके गुणोको गाता हूँ, जिन्हे सुनकर ही जीव शिवपुरी प्राप्त कर लेता है। ___ लावण्यसमयकी अन्य रचनाओंमे, 'स्थूलिभद्र एकबीसो'-वि० सं० १५५३, 'गौतमपृच्छा चउपई'-वि० सं० १५५४, 'आलोयण विनती'-वि० सं० १५६२, 'नेमिनाथ हमचडी'-वि० सं० १५६२, 'सेरीसा पार्श्वनाथस्तवन'-वि० सं० १५६२, 'वैराग्यविनती'-वि० सं० १५६२, "विमलप्रबन्ध'-वि० सं० १५६८, 'अन्तरिक्ष पार्श्व जिनछन्द'-वि० सं० १५८५, 'सुमति साधु विवाहलो', 'यशोभद्ररास' 'रंगरत्नाकर नेमिनाथप्रबन्ध', 'पार्श्वजिनस्तवनप्रभाती' और 'चतुर्विंशतिजिनस्तवन', भक्तिपरक कृतियां हैं। प्रायः इनके प्रारम्भमे सरस्वतीको वन्दना की गयी है। 'नेमिनाथ हमचडी'. के प्रारम्भमे लिखा है, 'सरसवचन दीयो सरस्वतीरे गायस्यु नेमिकुमारो, सामलवरण सोहामणो, ते राजीमती भरतारो रे हमचडी।' 'अन्तरिक्ष पार्श्वजिनछन्द' मे भी 'सरसवचनयो सरसती मात, बोलीस आदि जस वीख्यात' लिखकर सरस्वतीसे याचना की गयी है। 'सुमति साधु विवाहलो' मे लिखा है, 'सरसति सामिणि दिउ मतिदान मझ मनि अति उमाहला ए।' 'रंगरत्नाकर नेमिनाथ प्रबन्ध' मे कई पद्योमे सरस्वतीके गीत गाये गये है, "तुझ तनु सोहई उज्ज्वल कंति, पूनिम ससिहर परिझलकती, पय धमधम धुग्धर धमकंती, हंसगमणि चालइ चमकंती ॥४॥ चालइ चमकती, जगि जयवंती, वीणापुस्तक पवर धरई, करि कमल कमंडल काजे कुंडल रविमंडल परिकंती करई ॥५॥ सारद सार दयापर देवी, तुझ पय कमल विमल वंदेवि, मागु सुमति सदा तई देवी, दुरमति दूरिथिकी निंदेवि ॥२॥" 'पार्श्वजिनस्तवन प्रभातो' मे, भगवान् पार्श्वनाथको विनती करते हुए कविने. लिखा है, १. सकल जिणंदह पाय नमुं, हिउई हरप अपार, अक्षर जेई बोलिसिउं, साचउ समय विचार । सेविअ सरसति सामिणी, पामिअ सुगुरु पसाउ, सुणि भवीअण जब वीरजिण, पामिअ शिवपुर हाउ ॥१२॥ जैनगुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृ० ६६ । २. जैनगुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृष्ठ ७१-८८ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "वामानंदन जिनवर पास, तुतो निमोवन लील विलास। विनति छोडि भवपाश, हुँ छु देव तुमारो दास ॥१॥ ऋषभदेवकी वन्दना करते हुए, 'चतुर्विशतिजिनस्तवन के प्रारम्ममे ही लिखा है, "कनक तिलक माले हार हीई निहाले, ऋषभपय पखाले पापना पंक टाले । अर जिनवर माले फूटरे फूल माले, नरभव अजुभाले राग निई रोस टाले ॥१॥" 'वैराग्य विनती' में भी भगवान् ऋषभदेवकी ही विनती की गयी है। भगवान् भवसे तारनेवाले और सुखके कारण है, "जय पढम जिणेसर अति अलवेसर, भादीश्वर त्रिभुवनधणीय, शत्रुजय सुखकारण सुणि भवतारण वीनतडी सेवक मणीय ॥१॥" १४. संवेगसुन्दर उपाध्याय ( वि० सं० १५५८ ) संवेगसुन्दर उपाध्याय, बड़तपगच्छके जयसुन्दरसूरिके शिष्य थे। उनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार थी : जयशेखरसूरि, जिनसुन्दरसूरि, जिनरत्नसूरि और जयसुन्दरसूरि'। उनका समय वि० सं० १५४८ के आस-पास माना जाता है। उन्होंने 'सारसिखामनरास'की रचना वि० सं० १५४८ मे की थी। सारसिखामनरास ___इस रासमें २५० पद्य है। उनमे जैनधर्म-सम्बन्धी अनेक शिक्षाओंका उल्लेख हुआ है। इसकी भाषापर गुजरातीका प्रभाव है। पार्श्वप्रभुकी वन्दना करते हुए कविने लिखा है कि मै तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथके पैरोमें, एकचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। मुझे यह एकचित्तता गुरुके प्रसादसे मिली है। १. जैनगुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृष्ठ ६७, पद्य २३३-२३४ । २. पनरसई अडतालई संवत्सरि, मगसिरि सुदि दसमी गुरु मानुष्यपुरि, नितु नितु मंगल जयकरुए। वही, पृष्ठ ६७, पद्य २३५ । जयपुरके बड़े मन्दिरमें, सारसिखामनरासकी जो प्रति है, उसपर भी रचनाकाल १५४८ वि० सं० ही अंकित है। ३. वीसमा श्री पासनाह प्रभु केरा पाय , हुं प्रणमुं एकचित्त थई लही सुगुरु पसाय ॥१॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य देवी सरस्वतीसे वरदान मांगते हुए कविने कहा, "हे माता सरस्वती ! मै आपसे एक वचन मांगता हूँ कि जो कविराज मुझसे पहले हुए है, मेरा मन उनके चरणोमें लगा रहे। उपाध्यायजीने नवकार मन्त्र और चौदह पूर्वोके प्रति भक्तिका प्रदर्शन करते हुए लिखा है, मैं णमोकार मन्त्र और चौदह पूर्वोका ध्यान करता हूँ। उनकी महिमा अपार है, एक जिह्वासे वर्णन करते हुए पार नही पाया जा सकता। श्रुतभक्तिसे अनुप्राणित होकर उन्होंने लिखा है, जो कोई इस काव्यको हृदयमे धारण करता है, उसके सब पाप धुल जाते हैं, और अत्यधिक सुख प्राप्त होता है। वह दुःखसागरसे पार हो जाता है। उसे अविचल शिवसुख मिलता है। श्री संवेगसुन्दरने अपने गुरु जयसुन्दरकी भी आराधना की है। उनके गुरु निर्मल यशके धारण करनेवाले थे। १५. ईश्वरसूरि (वि० सं० १५६१ ) ____ ईश्वरसूरि सण्डेरगच्छके श्रीशान्तिसूरिके शिष्य थे। उनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार है : यशोभद्रसूरि, शालिसूरि, सुमतिसूरि और शान्तिसूरि । शान्तिसूरिका समय १५५० वि० सं० के आस-पास माना जाता है। इसी समय उन्होंने 'सागरदत्तरास' की रचना की थी। यही ईश्वरसूरिका भी समय है। उन्होंने वि. सं० १५६१ मे ललितांगचरित्रको रचना की। ईश्वरसूरिने वि० सं० १५९७ में, नाडलाईके मन्दिरमे, आदिनाथकी प्राचीन प्रतिमाका उद्धार कर, उसे पुनः प्रति१. माता सरसति देवि कन्हई एक सुवचन मागुं, जे कविराज आगई हूआए तेह चरणे लागुं ॥२॥ २. ध्याऊँ श्री नवकार मंत्र च उद पुरव सार, वर्णवतां एक जीभडीए न लहीजई पार ॥३॥ ३. “एक मनां जे हिय धरीसई, भवना सईनां पातिग धोसई, होसई सुख तेह अति धणूए । ए हितसिष्या नितु हईइ घरस्यई, दुखसागर ते निश्चय तरस्यई शिव सुख अविचल पांमस्यइ ॥२३६-३७।। ४. यश कीरति जेह निरमल ए जयसुंदर जेह संवेगनिधि गुरु गणहरुए आराधु तेह ॥४॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ष्ठित किया था। इस प्रतिमाको, श्री यशोभद्रसूरि, मन्त्रशक्तिके बलसे वि० सं० ९९४ मे लाये थे। ___ ईश्वरसूरिका दूसरा नाम देवसुन्दर भी था। उन्होंने 'जीवविचारप्रकरणविवरण', 'ललितागचरित्र', 'श्रीपाल चौपई', 'सटीक षट्भाषास्तोत्र', 'नन्दिषेण मुनिके छह गीत', 'यशोभद्रप्रबन्ध' और 'सुमतिचरित्र'का निर्माण किया। इनमे 'ललितांगचरित्र'का दूसरा नाम 'रासकचूडामणि' और 'यशोभद्रप्रबन्ध'का दूसरा नाम 'फाल्गुचिन्तामणि' भी है। 'सुमतिचरित्र'की रचना वि० सं० १५८१ मे दीवालीके दिन, नाडलाईके मन्दिरमे हुई थी। उसकी भाषा संस्कृत है।' 'ललितांगचरित्र' हिन्दी भाषाका काव्य है। ललितांगचरित्र ___इसमे नृप ललितांगका चरित्र वर्णित है। ललितांग भगवान् जिनेन्द्रका परम भक्त था। अतः इस काव्यका मूल स्वर भक्तिसे ही सम्बन्धित है। इसकी भाषा हिन्दी है; जिसमें प्राकृत और अपभ्रंशके शब्दोका प्रयोग अधिक हुआ है। उसपर गुजरातीका भी प्रभाव है। ईश्वरसूरिके गुरु शान्तिसूरिके 'सागरदत्त चरित्र'मे भी प्राकृत, अपभ्रंश और गुजरातीका मिश्रण है। ___ इस काव्यमे सोलह प्रकारके छन्दोंका प्रयोग हुआ है। वे छन्द इस प्रकार है : गाथा, दूहा, रासाटक, षट्पद, कुण्डलिया, रसाउल्ला, वस्तु, इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रा, अडिल्ल, मडिल्ल, काव्याबोली, अडिल्लाबोली, सूडबोली, वर्णनबोली, यमकबोली, छप्पय और सोरठी। इस भांति यह काव्य विविध छन्दोमे तो निबद्ध है ही, श्रेष्ठ अलंकार और सरस गुणोंसे भी संयुक्त है। कविने स्वयं इसके काव्य-सौन्दर्यको प्रशंसा करते हुए लिखा है, व "सालंकारसमस्थं सच्छन्दं सरससुगुणसंजुत्तं । ललियंगकुमरचरियं ललणाललियम्ब निसुणेह ॥॥" पं० नाथूराम प्रेमीने भी इसके बाह्य और अन्तः दोनों हो प्रकारके सौन्दर्यको प्रशंसा की है। १. प्राचीन जैनलेखसंग्रह, मुनि जिनविजयजी सम्पादित, द्वितीय भाग, ३३६वाँ लेख। २. जैनगुर्जरकविश्रो, प्रथम भाग, पृष्ठ १०७ । ३. जैनगुर्जरकविभो, तीजो भाग, पृष्ठ ५३२ । ४. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृष्ठ ३४ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य भगवान् पार्श्वप्रभुके पूर्वभवका नाम ललितांग था । उन्होंने जिनेन्द्रकी भक्ति - से ही तीर्थंकर पद प्राप्त किया था । अतः यह चरित्र, पार्श्वप्रभुके ही पूर्वभवका चरित्र है । इसी कारण कविने इसको 'पुण्य चरित्र' कहा है, "इय पुण्यवरिय प्रबंध, ललिअंग नृपसंबंध | पहु पास चरियह चित्त, उद्धरिय एह चरित ॥ ७३ ॥ | " ७१ श्री ईश्वरसूरिने, मालवाके राजा नसीरुद्दीन ( १४९८-१५१२ ई० ) के प्रधानमन्त्री श्रीपुंज ( श्रीमाली वंश ) की प्रार्थनासे, इस ललित काव्यका निर्माण, वि० सं० १५६१ में किया था । कविने 'ललितांगचरित्र' के प्रारम्भमे ही आदिप्रभु ऋषभदेव और तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथको नमस्कार करते हुए लिखा है, "पढम ढम जिणंद, पदम निवं पदम धम्म धुर धरणे । वसह वसह जिणेसं नमामि सुरनाभिय पयदेवं ॥ १ ॥ सिरि आससेण नरवर, विशालकुल भमर भोगिंदा । मोदि सहिय पासो, दिसउ सिरि तुम्ह पहु पासो ॥ २ ॥ " १६. चतरुमल ( वि० सं० १५७१ ) कवि चतरुमलका जन्म श्रीमालवंशमें हुआ था । उनके पिताका नाम जसवन्त था। वे बड़े ही धर्मात्मा और सदाचारी व्यक्ति थे । उनके घर पुत्र जन्म हुआ, जिसका नाम चतरु रखा गया । चतरु ज्यों-ज्यों बढ़ने लगा, उसमे जैनधर्मकी निष्ठा भी बढ़ती गयी | जैन पुराणोंके अध्ययनसे, उनका मन नेमोश्वरके चरित्रमे विशेष रूपसे रमा । उन्होंने वि० सं० १५७१ में नेमीश्वरगीतकी रचना की कवि चतरुमल 'गढ़ गोपाचलु' अर्थात् ग्वालियरके रहनेवाले थे । उस समय १. जैनगुर्जरकवि, प्रथम भाग, पृष्ठ १०५ । २. श्रावग सिरीमल अरु जसवन्त, निहचै जिय धर्म धरंत । चरु चलन भवि वंदतो, पुत्र एक ताकेँ घर भयो । जनमत नाउ चतुरु तिन लियो, जैनधर्म दिठु जीयहु धरी । नेमि चरित ताकै मन रहे, सुनि पुरान उर गानो कहे ॥ १ ॥ आमेरशास्त्र भण्डारकी हस्तलिखित प्रति । यह प्रति १८२० वि० सं० की है। इसमें ४४ पद्य हैं । ३. वही, पद्य २ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि महाराजा मानसिंह ग्वालियरके राजा थे। कविने महाराजाके विषयमे लिखा है कि महाराज मानसिंहका धैर्य, भुजबल और साहस जग-प्रसिद्ध था। उसके राज्यमे सब सुखी थे, और राजाके समान ही प्रजा भी सुखोंका उपभोग करती थी। उनके राज्यमे जैनधर्मका भी बहुत प्रकारसे प्रसार हो रहा था। प्रत्येक श्रावक प्रतिदिन, छह आवश्यक कर्मोका अनिवार्य रूपसे सम्पादन करता था। कवि चतरुमल भी, जैन-धर्ममे निष्ठा रखते हुए भगवान् नेमीश्वरके गीत गाते थे। नेमीश्वर गीत यह एक छोटा-सा गीत है। इस गीतका सम्बन्ध भगवान् नेमीश्वर और राजुलके प्रसिद्ध कथानकसे है। प्रारम्भमें ही कविने, अपने भक्ति-पूर्ण भावोंको प्रकट करते हुए, लिखा है कि भगवान् जिनेन्द्रको नमस्कार करनेवाला जीव भवसमुद्रसे पार हो जाता है, पंचगुरुओंको प्रणाम करनेसे मुक्ति मिलती है, शारदाको मनानेसे अपार बुद्धि उपजती है, और जादौराय भगवान् नेमीश्वरके गीत गानेसे गुरु गौतम प्रसन्न होते है। अन्तमें भी लिखा है कि इस गीतको पढ़ने और सुननेसे ज्ञान उत्पन्न होता है। प्रत्येक जीवका कर्तव्य है कि मनको निश्चय करके नेमीश्वरकी भक्तिमें लगाये, "पढत सुनत जी उपज्यै ग्यान, मन निहचल करि जिय धरहु । राजमती जिन संजमु लियौ, नेमी कुंवर नेमी सयल मवी नयौ । नेमि कुंवर नेमि जिन बंदि है।" १. नेमि""देसु सुख सयल निधान, गढ़ गोपाचलु उत्तिम ठान । एक सोवनका लंका जसि, तो वरु राउ सबल वरवीर । भुव बल आयु जु साहस धीर, मानसिंह जम जानिये । ताके राज सुखी सब लोगु, राज समान करहिं दिन भोगु । जैनधर्म बहु विधि चल, श्रावग दिन जु करै षटकर्म । निहचे चितु लावहि जिनधर्म, नेमि कुंवर नेमि जिन वंदि है। नेमीश्वरगीत, पद्य १। २. प्रथम चलन जिन स्वामि जुहारु, ज्यों भव सायरु पावहि पार । लहइ मुकति दुति दुति तिरै, पंच परम गुरु त्रिभुवन सारु ॥ सुमिरत उपजै बुद्धि अपारु, सारद मनाविउ तोहि । गुरु गौतम मो दिउं पसीउ जो गुन गांउ जादुराइ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १७. भट्टारक ज्ञानभूषण (वि० सं० १५७२) ज्ञानभूषण नामके चार भट्टारक हुए हैं। चारों ही मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणसे सम्बन्धित थे, किन्तु उनकी शाखाएं भिन्न-भिन्न थीं। प्रथम ज्ञानभूषण ईडर शाखाके भट्टारक सकलकीत्तिके प्रशिष्य और भुवनकात्तिके शिष्य थे। 'जैन धातुप्रतिमा-लेखसंग्रह' से प्रकट है कि वे सागबाड़े ( बागड़ ) को गद्दीपर वि० सं० १५३२ से १५५७ तक आमीन रहे। तदुपरान्त अपने शिष्य विजयकोत्तिको भट्टारकीय पदपर प्रतिष्ठित कर स्वयं अध्यात्मरसमें मग्न रहने लगे । वे गुजरातके रहनेवाले थे। उनकी ख्याति चतुर्दिक्मे व्याप्त थी। उन्होने केवल मन्दिरोंका निर्माण, मूत्तियोंकी प्रतिष्ठा और विविध तीर्थक्षेत्रोंकी यात्राएँ ही नहीं की, अपितु विभिन्न देशोंकी जनताको आध्यात्मिक रसका पान भी कराया। वे व्याकरण, छन्द, अलंकार, साहित्य, तर्क और अध्यात्म आदि शास्त्ररूपी कमलोंपर विहार करनेके लिए राजहंस थे और शुद्ध ध्यानामृतकी उन्हे लालसा थी। 'परमार्थोपदेश', 'आत्मसम्बोधन' और 'तत्त्वज्ञानतरंगिणी' उनकी विद्वत्ताके द्योतक है । गुजरातो उनकी मातृभाषा थी। उन्होंने हिन्दीमें 'आदीश्वरफागु' की रचना की थी। दूसरे ज्ञानभूषण वे थे, जिनका सम्बन्ध सूरत शाखासे था। उनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार मानी जाती है : देवेन्द्रकीति (वि० सं० १४९३ ), विद्यानन्दि (१४९९-१५३७ ), मल्लिभूषण (१५४४-१५५५), लक्ष्मीचन्द (१५५६१५८२), वीरचन्द ( १५८३-१६००)। ज्ञानभूषण वीरचन्दके शिष्य थे। उनके पश्चात् ज्ञानभूषण ही भट्टारक बने और वि० सं० १६०० से १६१६ तक भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित रहे। उन्होंने 'जीवन्धररास', 'सिद्धान्तसारभाष्य', 'कम्मपयडी टीका' और 'पोषह रासका' निर्माण किया था। १. संवत् १५४२ वर्षे ज्येष्ठ सुदि ८ शनो श्रीमूलसंधे......॥ सकलकीति तत्पट्टे भ० श्री भुवनकीति तत्पट्टे भ० श्री ज्ञानभूषण गुरूपदेशात् जागडा पोरवाड ज्ञातीय स० वाजु मनोजु"""॥ अनेकान्त, वर्ष ४, पृ० ५०२ । २. श्री बुद्धिसागरमूरि, जैन धातुप्रतिमा-लेखसंग्रह, प्रथम भाग, ५६७, ६७२ और १५०६ प्रतिमा लेख। ३. नन्दिसंघ पट्टावली, जैनसिद्धान्तभास्कर, चौथी किरण, पृ० ४३-४५ । ४. भट्टारक सम्प्रदाय, जोहरापुरकर सेम्पादित, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, वि० सं० २०१४, पृ० १६३-१६७। ५. श्री परमानन्द शास्त्री, पोषहरास और भट्टारक शानभूषण, अनेकान्त, वर्ष १३, किरण ४-५, पृ० ११६ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि तीसरे ज्ञानभूषण अटेरशाखाके अन्तर्गत हुए हैं । इस शाखाका प्रारम्भ भट्टारक सिंहकीत्तिसे हुआ था । उन्होने अनेक मूर्तियोकी प्रतिष्ठा करायी थी । उनका समय वि० सं० १५२० सिद्ध है । उनके बाद धर्मकीत्ति और तत्पश्चात् शीलभूषण भट्टारक हुए। ज्ञानभूषण शीलभूपणके अनेक शिष्योमे प्रमुख थे, अतः उनके उपरान्त ज्ञानभूषण ही भट्टारक बने । 'ज्योतिप्रकाश' के एक उल्लेखसे पता चलता है कि उन्होंने चिरकालसे लुप्त हुए जैन तिथि-पत्रकी पद्धतिको प्रकट किया था । वे १७वी शती ( विक्रम ) के द्वितीय पादमे हुए थे । ७४ चौथे ज्ञानभूषण नागौर शाखाके भट्टारक रत्नकीत्ति (द्वितीय) के पश्चात् भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित हुए थे। रत्नकीर्त्तिका समय वि० सं० १७४५ से १७६६ तक माना जाता है, अतः ज्ञानभूषणका समय इसके उपरान्त ही माना जा सकता है । उन्होने कतिपय मूर्तियोंकी प्रतिष्ठाके अतिरिक्त कोई साहित्यिक कार्य नही किया । यहाँ सम्बन्ध प्रथम ज्ञानभूषणसे है, जिन्होने हिन्दीमे 'आदीश्वर फागु'४ की रचना की थी । इनके पूर्व जिनपद्मसूरिका 'थूलभद्दफागु' और राजेश्वरसूरिका 'नेमिनाथफागु' बन चुके थे । 'फागु' एक प्रकारका लोकगीत है । यह प्रायः वसन्तमे गाया जाता था । आगे चलकर उसका प्रयोग किसोके भी आनन्द- वर्णन और सौन्दर्य निरूपणमे होने लगा । जैन हिन्दी कवियोंने भगवान् जिनेन्द्रकी १. सं० १५२० वर्षे आषाढ़ सुदी ७ गुरौ श्री मूलसंघे भ० श्री जिनचन्द्र तत्पट्टे भ० श्री सिंहकीर्ति लंबकंचुकान्वये अउली वास्तव्ये साहु श्री दिपो भार्या इंदा इष्टिकापथ प्रतिष्ठितं ॥ जैनसिद्धान्तभास्कर में प्रकाशित प्रतिमा लेख संग्रह, पृ० १३ । भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ३०३ | २. श्रीजैन दृष्टितिथिपत्रमिह प्रणष्टं स्पष्टीचकार भगवान् करुणाधुरीणः । बालावबोधविधिना विनय प्रपद्य श्रीज्ञानभूषण गणेशमभिष्टुमस्तम् ॥ भट्टारक संप्रदाय, लेखांक ३१६ । ३. नागौरके पट्टाधीशोंकी प्रकाशित नामावली, जैनसिद्धान्तभास्कर १, पृ० ८०, भट्टारक सम्प्रदाय, पाद टिप्पण ५३ । ४. इसकी एक हस्तलिखित प्रति ( वि० सं० १६३४ ), श्रमेरशास्त्र भण्डार जयपुरमें क्रमसंख्या ६५ पर मौजूद है। यह मालपुरा में पाण्डे श्री डूगाकी प्रेरणासे लिखी गयी थी । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य महिमाके अर्थमे 'फागु'का प्रयोग किया है। बनारसीदास आदि कवियोंने 'अध्यात्म फागुओ' को भी रचना की। _ 'आदोश्वरफागु' मे संस्कृत पद्य और फिर उन्हीका भाव हिन्दी पद्यमें दिया गया है। इसमे भगवान् आदीश्वरका समूचा जीवनवृत्त वणित हुआ है। प्रत्येक तीर्थकरका जीवन पंचकल्याणकोमे विभक्त है और इसी रूपमे उपस्थित करनेको परम्परा पहलेसे चली आ रही थी। ‘आदीश्वरफागु' भी इसी शैलीमे लिखा गया है । इसकी रचना वि० सं० १५५१ मे हुई थी। इसमे ५९१ पद्य है। समूचे हिन्दी साहित्यमे सूरदासका बालवर्णन प्रसिद्ध है। उन्होने बालक कृष्णकी अनेक मनोदशाओंका चित्रण किया है। सच यह है कि वे इस क्षेत्रमें अकेले नहीं थे। मध्यकालीन जैन हिन्दी कवियोने तीर्थकरके गर्भ और जन्मसे सम्बन्धित अनेक मनोरम चित्रोंका अंकन किया है। इन अवसरोपर होनेवाले विविध उत्सवोंकी छटाको सूरदास छू भी न सके है। यह जैन कवियोंकी अपनी शैली थी, जो उन्हे अपनी पूर्व परम्परासे ही उपलब्ध हुई थी। इस कृतिमे आदीश्वरके जन्मोत्सव-सम्बन्धी अनेक दृश्य है, जिन्हे कविने चित्रवत् ही उपस्थित किया है । जन्मके पश्चात् तत्काल ही इन्द्र बालक-आदीश्वरको पाण्डुक शिलापर स्नान करानेके लिए ले गया। देवगण भीर-समुद्रसे रत्न-जटित स्वर्ण-कलशोंमे जल भर-भरकर लाने लगे। उस समय विभिन्न बाजोंसे विविध ध्वनियां प्रस्फुटित हो उठी। उनके लिए उपयुक्त शब्दोंका चुनाव कवि-सामर्थ्यका द्योतक है, "आहे रतन जडित अति मोटाउ मोटाउ लीघउ कुंम, क्षीर समुद्र शकू पूरीय पूरीय आणीयू अंम ॥८॥ आहे दुमि मि तबलीय वज्जइ घ्रमि घ्रमि मछल नाद टणण टणण टंकारव झिणि झिणि झल्लर साद ॥८॥" आदीश्वरकी माने उसे मोतियोंका एक मोटा-सा हार पहना दिया है। उससे बालकका सौन्दर्य बढ़ा नही । वह एक बोझा-मात्र बनकर रह गया। किन्तु बेचारी मां अपने दिलको क्या करे। वह अपने पुत्रको विविध आभूषणोंसे सजाना ही चाहती है । वह सोचती है कि बालकका स्वाभाविक सौन्दर्य इससे और भी बढ़ जायेगा। मांकी यह अतृप्ति भी कितनी स्वाभाविक है । १. आहे एकाणउ अधिका शत पंचस लोक प्रमाण । सूधउ मणिसिई लिखिसिई ते नर अतिहिं सुजाण ॥ आदीश्वर फागु, आभेरशास्त्रभण्डारकी हस्तलिखित प्रति, २६२वॉ पद्य । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "आहे कोटइ मोटा मोतीयनु पहिराव्यु हार । पहिरीयां भूषण रंगिन अंगि लगा रज भार ॥४८॥" कविने बालकके प्राकृतिक सौन्दर्यको विविध उपमानोके द्वारा अंकित किया है। उसका मुख पूर्णमामीके चन्द्र के समान है। अनपम है। संसारके किसी पदार्थसे उसकी तुलना नहीं की जा सकती। उसके हाथ कल्पवृक्षको शाखके समान है और वे घुटनो तक लम्बे है, अर्थात् उस बालकके महापुरुष होनेको सूचना देते है, "आहे मुख जिसु पूनिम चंद नरिंदन मित पद पीठ । त्रिभुवन भवन मझारि सरीखउ कोई न दीठ ॥ माहे कर सुरतरु वरं शाख समान सजानु प्रमाण । तेह सरीखउ लहकहीं भूप सरूपहिं जाणि ॥१४४,१४६॥" काव्य-सौन्दर्य कविकी कल्पनापर निर्भर करता है। वह जितनी उर्वरा होगो, सौन्दर्य उतना ही अधिक होगा । यहाँ उसकी कमी नहीं है । बालकके नेत्र कमल-दलके समान है, अर्थात् कमलके पत्तो-जैसे दीर्घायत और सुन्दर है । बालककी वाणीमे कोमलता है । बालक केवल बाह्य सौन्दर्यसे ही नहीं, अपितु आन्तरिक गुणोसे भी युक्त है। उसमे समूचे गुण इस भांति भरे हुए है, जैसे मानो शरद्कालीन सरोवरमे निर्मल नीर भरा हो, "माहे नयन कमल दल सम किल कोमल बोलइ वाणी। __शरद सरोवर निरमल सकल अकल गुण खानि ॥१४५॥" इसी भांति कविने भगवान्के निरन्तर बढ़नेका वर्णन किया है । आदीश्वर दिन-दिन इस भाँति बढ़ रहे है, जैसे द्वितीयाका चन्द्र प्रतिदिन विकसित होता जाता है । उनमें शनैः-शनैः ऋद्धि, बुद्धि और पवित्रता प्रस्फुटित होती जा रही है, जैसे समाधिलतापर कुन्दके फूल खिल रहे हों, "भाहे दिन-दिन बालक बाधइ बीज तणु जिम चन्द । रिद्धि विबुद्धि विशुद्धि समाधिलता कुल कुंद ।।९२॥" यौवन आनेपर आदीश्वर सम्राट् बने । एक दिन उनके दरबारमे नीलांजना नामकी नर्तकी नृत्य करते-करते ही दिवंगत हो गयो । सम्राटके हृदयमे वैराग्यका भाव उदय हुआ। वे सोचने लगे, आयु कमल-दलके समान चंचल है तथा यौवन और धन करतलके नीरकी भांति अस्थिर है । पुत्र, कलत्र और सुमित्रसे मोह होता है, किन्तु विचार तो यह करना है कि मरते समय कौन साथ देता है, "माहे आयु कमल दल सम चंचल चपल शरीर । यौवन धन इव अथिर करम जिम करतल नीर ॥१६॥' Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "आहे पुत्र कलत्र सुमित्र तणीय धणीय छह आथि । तेह मंझारि विचारि कहु कुण आवइ साथि ।। १८०॥" उनका कथन है कि आत्माके बिना यह शरीर किसी काम नही आता, जैसे सुगन्धके बिना पुष्प निरर्थक ही है : "आहे कुसुम असम परिमल लीमधउ कहु केहउ सार । आतम नइ नहीं लाम शरीरि न पुष्ट लगार ॥१८॥" अनेक जैन कवि ऐसे हुए है, जो एक ओर संस्कृत एवं प्राकृतके विशिष्ट विद्वान् थे, अर्थात् सिद्धान्त और तर्कशास्त्रके पारगामी तैराक थे, तो दूसरी ओर सहृदय भी कम न थे। उनका काव्य उनकी सहृदयताका प्रतीक ही है । कवि ज्ञानभूषणकी गणना ऐसे ही कवियोंमे की जाती है । १८. भट्टारक शुभचन्द्र (वि० सं० १५७३ ) ___ भट्टारक शुभचन्द्र पद्मनन्दिको परम्परामे हुए है । उनका क्रम इस प्रकार है : पद्मनन्दि, सकलकोत्ति, भुवनकोत्ति, ज्ञानभूषण, विजयकीत्ति और शुभचन्द्र' । इस भौति ये ज्ञानभूषणके प्रशिष्य और विजयकीत्तिके शिष्य थे। इन्होंने भट्टारक श्री ज्ञानभूषणकी प्रेरणासे ही वादिराजसूरिके पार्श्वनाथ काव्यको पंजिका टीका लिखी थी। भट्टारक शुभचन्द्रका समय सोलहवी शताब्दीका उत्तरार्द्ध और सतरहवींका पूर्वार्द्ध माना जाता है । उन्होंने सं० १५७३ मे आचार्य अमृतचन्द्रके समयसार कलशोंपर अध्यात्मतरगिणी नामकी टीका लिखी थी, और सं० १६१३ मे वर्णी क्षेमचन्द्रकी प्रार्थनासे 'स्वामीकात्तिकेयानुप्रेक्षा' की संस्कृत टीका की । अतः उनका रचनाकाल तो निश्चय रूपसे वि० सं० १५७३ से १६१३ तक माना ही जा सकता है । उनके जन्म और मृत्युके विषयमें कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका। ___ भट्टारक शुभचन्द्र अपने समयके गण्यमान्य विद्वान् थे। उनका संस्कृत भाषापर अधिकार था। उन्हे 'त्रिविधिविद्याधर' और 'षभाषाकविचक्रवर्ती की पदवियां मिली हुई थी। न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त, छन्द, अलंकार आदि विषयोंमें उनकी विद्वत्ता अप्रतिम थी। १. पाण्डवपुराणप्रशस्ति, अन्त भाग, श्लोक १६७-१७१, जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम __ भाग, पृष्ठ ४६-५०। २. पं० नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ ३८३ । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि भट्टारक शुभचन्द्र ने 'पाण्डवपुराण' की रचना वि० सं० १६०८ मे की थी । तत्पश्चात् उन्होने वि० सं० १६११ मे करकण्डुचरित्र और वि० सं० १६१३ मे 'स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा' की टीका लिखी । 'पाण्डवपुराण' की प्रशस्तिमे, उनके द्वारा लिखे गये २५ ग्रन्थोका उल्लेख हुआ है। श्री कस्तूरचन्द्रजी कासलीवालने उनके ४० से भी अधिक ग्रन्थोकी सूचना दी है। भट्टारक शुभचन्द्र ने हिन्दीमे 'तत्त्वसार दूहा' की रचना की थी । १ ७८ तत्वसार दूहा इसकी हस्तलिखित प्रति 'ठोलियान जैन मन्दिर, जयपुर' के शास्त्र भण्डारमे मौजूद है। इसमे ९९ पद्य है । भाषापर गुजरातीका अधिक प्रभाव है । सरल भाषा में उत्तम भाव सन्निहित हो सके है। मोक्षका निरूपण करते हुए कविने लिखा है, निःशेष होय विनाश । "कर्मकलंक विकारनो रे मोक्ष तव श्री जिन कही, जाणवा भावु श्रल्पास ||२६|| " कविने वर्ण और जातियोके भेदको कृत्रिम माना है। उनकी दृष्टिमे सभी जीवोकी आत्मा समान है । आत्मामे ब्राह्मणत्व अथवा शूद्रत्व नहीं आ सकता, क्योंकि उसका स्वरूप तरतमांश रूप नहीं है । इसोको व्यक्त करते हुए कविने कहा है, "उच्च नीच नवि अप्पा हुवि, कर्मकलंक तणो की तु सोइ । बंमण क्षत्रिय वैश्य न शुद्र, अप्पा राजा नवि होय क्षुद्र ॥७०॥ " आत्मा पवित्र है । वह घनी- निर्धन, दुर्बल-सबल, हर्ष-द्वेष, और सुख-दु:ख सबसे परे है । ये दोष उसे नहीं सताते, "अप्पा धनि नवि नवि निर्धन्न, नवि दुर्बल नवि अप्पा धन्न । मूर्ख हर्ष द्वेष नवि ते जीव, नवि सुखी नवि दुखी अतीव ॥७१॥" १. वही, पृष्ठ ३८४ २. प्रशस्तिसंग्रह, श्रीकस्तूरचन्द कासलीवाल सम्पादित । श्रीमहावीरजी अतिशयक्षेत्र कमेटी, जयपुर, प्रस्तावना, पृष्ठ १२ । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ७९ एक स्थानपर कविने लिखा है कि शुद्ध चिदानन्दरूप अपना भाव ही ज्ञान है । उसका चिन्तवन करनेसे मोह-माया दूर हो जाते हैं, और सिद्धि प्राप्त होती है । आत्माको सिद्धिमे ही सुख मिलता है, अन्यथा नही, "ज्ञान निज भाव शुद्ध चिदानन्द, चीततो मूको माया मोह गेह देहए । सिद्धतणां सुखजि मल हरहि, मात्मा भाव शुभ एहए ।।९१॥" गुरुको महिमाका उल्लेख करते हुए कविने स्वीकार किया है कि गुरुकी कृपाके बिना, शुद्ध चिद्रूपके ध्यान करनेसे कुछ नही होगा। गुरुकी कृपासे ही शुद्ध स्वरूप प्राप्त हो सकेगा, "श्री विजयकीर्त्ति गुरु मनि धरी, ध्याऊं शुद्ध चिद्रप । भट्टारक श्री शुभचंद्र मणि था तु शुद्ध सरूपे ॥९॥" ऐसा प्रतीत होता है कि इस काव्यको रचना, किन्हीं 'दुलहा' नामके धर्मप्राण व्यक्तिको प्रेरणासे की गयी थी । स्थान-स्थानपर उसका नाम आया है, "रोग रहित संगीत सुखी रे, संपदा पूरण ठाण । धर्मबुद्धि मन शुद्धि डी, 'दुलहा' अनुक्रमि जाण ॥९॥" चतुर्विशति-स्तुति __ भट्टारक शुभचन्द्रकी यह कृति, श्री दिगम्बर जैन मन्दिर बधीचन्दजी, जयपुरमे मौजूद है । इसकी भाषापर भी गुजरातीका प्रभाव है। क्षेत्रपाल गीत ____पाटौदी दि० जैन मन्दिर, जयपुर गुटका नं० ५३ में ६९वीं संख्यापर निबद्ध है । इस गुटकेका लेखन-काल वि० सं० १७७५ है। अष्टाह्निका गीत ____ यह गीत भी उपर्युक्त मन्दिरके ही गुटका नं० २१६ मे पृ० २१ पर संकलित है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि १९. विनयचन्द्र मुनि (१६वीं शती प्रथम पाद ) ___ मुनि विनयचन्द्र, माथुर संघीय भट्टारक बालचन्द्रके शिष्य थे। वे विनयचन्द्रसूरिसे स्पष्टतया पृथक् है । विनयचन्द्रसूरि चौदहवीं शताब्दीके रत्नसिंहसूरिके शिष्य थे। ___ मुनि विनयचन्द्र, गिरिपुरके राजा अजयनरेशके राज्य-कालमे हुए है। उन्होंने अजयनरेशके राज-विहारमे बैठकर ही अपने 'चूनड़ी' काव्यका निर्माण किया था। अजय नरेशका समय १६वीं शताब्दीका प्रारम्भ माना जाता है, अतः यह सिद्ध है कि विनयचन्द्रका रचनाकाल भी यह ही है। इसके अतिरिक्त जिस गुटकेमे 'चूनड़ी' काव्य लिखा हुआ मिला है, वह विक्रम संवत् १५७६ का लिखा हुआ है। इससे सिद्ध है कि काव्यका निर्माण वि० सं० १५७६ से पूर्व ही हो चुका था। 'चुनड़ी" चूनड़ी एक प्रकारको ओढनी है, जिसे रंगरेज भिन्न-भिन्न प्रकारके बेल-बूटे १. माथुर-संघहँ उदय मुणीसरु । पणविवि बालइंदु गुरु गण-हरु ॥ मुनि विनयचन्द्र, चूनड़ीं, दूसरा पथ, प्रथम दो पंक्तियाँ, अनेकान्त, वर्ष ५, किरण ६-७, पृ० २५८ । २. जैनगुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृष्ठ ५। ३. ति-हुयणि गिरिपुरु जगि विक्खायउ । सग्ग-खंडु णं घर-यलि आयउ॥ तहिं णिवसंते मुणिवरें, अजय गरिंदहो राय-विहारहिं । वेगें विरइय चूनडिय सोहहु, मुणिवर जे सुय धारहिं ॥३१॥ अनेकान्त, वर्ष ५, किरण ५-६, पृष्ठ २६१ ।। ४. यह गुटका, पं० दीपचन्दजी पंडयाको, अजमेर जिलेके देराटू नामक गॉवके जैन मन्दिरसे सम्बन्धित शास्त्रभण्डारमें मिला था। यह गुटका, कुरुजांगल देशके अन्तर्गत सुवर्णपथ दुर्गमें सोनीपत नगरमें, वि० सं० १५७६ ज्येष्ठ कृष्णा प्रतिपदाको, सिकन्दरशाहके पुत्र सुल्तान इब्राहीमके राज्यकालमें लिखा गया था। अनेकान्त, वर्ष ५, किरण ६-७, पृष्ठ २५७ । ५. यह काव्य, श्री दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर जयपुरके गुटका नं० १८३ में भी अंकित है। यह गुटका वि० सं० १५७० वैशाख सदी का लिखा हुआ है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य डालकर रंगता है। काव्यको चूनड़ी वह है, जो बिखरे प्रकीर्णकोंसे छापी गयी हो। इसे 'चुण्णी' या 'चूणि' भी कहते है। मुनि विनयचन्द्रके इस काव्यमे, एक पत्नीने पतिसे ऐसी 'चूनड़ी' छपानेकी प्रार्थना की है, जिसे ओढ़कर जिन-शासनमे विचक्षणता प्राप्त हो जाये। 'चूनड़ो' मे साकेतिक रूपसे जैनधर्म-सम्बन्धी चर्चाओंका संकलन है। उन्हें पढ़कर जैनधर्मके प्रति श्रद्धाका जन्म होता है। पत्नीको पूरा विश्वास है कि ऐसी 'चूनड़ी' में से, शरद्कालको जुन्हयाको भांति शीतल प्रकाश छिटकेगा, जिससे समूचा अज्ञानान्धकार नष्ट हो जायेगा। उसकी इच्छा है कि वह शीतल जुन्हाई, उसके हृदयमे वैसे ही निवास करे, जैसे मानसरोवरमे हंसवधू रहती है, "पणवउँ कोमल-कुवलय-णयणी अमिय गडम जण-सिव-यर-वयणी। पसारवि सानंद जोराह जिम जा अंधारउ सयलु वि णासह । सा महु णिवसउ माणसहि हंस-वधू जिम देवि सरासइ ॥॥" पत्नीने मोह महातमको तोड़नेके लिए दिनकरके समान पंचगुरुसे भी प्रार्थना की है कि उसका पति ऐसी चूनड़ी लावे, जिसके सहारे वह भव-समुद्रसे पार हो सके। 'चूनड़ी' की भाषामे, प्राकृत और अपभ्रंशके शब्दोंका प्रयोग अधिक हुआ है। १. हीरा दंत-पति-पयडती। गोरउ पिउ बोलइ विहसंती ।। सुंदर जाइ सु चेइहरि, महु दय किज्जउ सुहय सुलक्खण । लइ छिपावहि चूनडिय हउँ जिण-सासणि सुठ्ठ वियक्खण ॥३॥ २. विणएं वंदिवि पंच-गुरु, मोह-महा-तम-तोडण-दिणयर । णाह लिहावहि चूनडिय मुद्धउ पभणइ पिउ जोडिवि कर । पहला ध्रुवक । ११ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि उसका समूचा रूप प्राचीन हिन्दीका है । इसमे कुल ३१ प है । इस एक विस्तृत संस्कृत टीका भी है, किन्तु उसके रचयिताका नाम उसमें नही दिया है । निर्झर पंचमीविधानकथा इस कथा में भविष्यदत्तका चरित्र लिखा गया है। भविष्यदत्त, भगवान् जिनेन्द्रका परम भक्त था । कथाका मूल स्वर भक्तिसे ही सम्बन्धित है । प्रारम्भ ही कविने पंचगुरु, शारदा और अपने गुरुके गुरु, मुनि उदयचन्दकी वन्दना की है, ८२ " पणविवि पंच महागुरु, सारद धरिवि मणे । उदयचंदु मुणि वंदिवि, सुमरिवि चाल मुणे ॥" कविका विश्वास है कि जो कोई भव्यजन इस कथाको पढ़ता और पढाता है, उसके सब पाप क्षण-मात्रमे नष्ट हो जाते है । किन्तु ऐसा तभी हो सकता है, जब कि वह गर्व और क्रोधसे मुक्त हो, और उसका मन वशमें हो, "भवियहु पढ़ पढ़ावहु दुरियहु देहु जले | माणु म करहु म रूसहु, मणु खंचहु अचलो ॥" अन्तिम ॥ कविका यह भी कथन है कि जिस भावनासे प्रेरित होकर यह पंचमी कथा कही गयी है, वह सम्यक् भाव अविचल सिद्धिके दर्शन करानेमे पूर्ण समर्थ है, " जेण भणति भडारा पंचमियं वय हो । म्हहि ते दरिसाविय अविचल सिद्धिपहो ॥" अन्तिम ॥ इस कथाकी भाषा भी प्राचीन हिन्दी है, जिसमे अपभ्रंश और प्राकृतके शब्दोंका मिश्रण है । ४ पंचकल्याणकरा तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्षको पंचकल्याणक कहते हैं । १. यह कान्य अनेकान्त, वर्ष ५, किरण ६-७ में पृष्ठ २५८-२६१ तक प्रकाशित हो चुका है। २. देखिए पंचायती मन्दिर दिल्ली, मसजिद खजूरके सरस्वती भण्डारकी एक हस्तलिखित, प्राचीन प्रति । ३. मुनि विनयचन्द्र, निर्झरपंचमीविधानकथा, हस्तलिखित प्रति, पंचायती मन्दिर, दिल्ली, प्रथम पद्य | ४. पंचायती मन्दिर दिल्ली, मसजिद खजूरके भण्डारकी हस्तलिखित प्रति है । पं० दीपचन्द्रजी पण्डयाके उस गुटकेमें, जो उन्हें देराट्र गाँवसे उपलब्ध हुआ है, यह रचना उपलब्ध है । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य इस काव्यमे चौबीस तीर्थकरोके पंचकल्याणकोको तिथियोंका उल्लेख हुआ है। वह उल्लेख जैनआगमानुकूल है, अतः प्रामाणिक है। कविने लिखा है कि तीर्थकरके पांच निर्मल कल्याणक सिद्धि प्राप्त कराने में पूर्ण रूपसे समर्थ है, "सिद्धि सुहंकर सिद्धिपहु, पणविवि ति जयपयासण केवल । सिद्धिहिं कारण थुणमिहउ, सयलवि जिणकल्लाणइ नियमल ॥" कविका विश्वास है कि भगवान् जिनेन्द्रके पंचकल्याणकोंकी भक्ति, निविड़ अन्धकारको विदीर्ण करती है। वह अनेकानेक व्रत-उपवासोंके बराबर फल प्रदान करती है, "एयमत्त एकुजि कल्लाणउ, विहि निधियडि अहवह गट्ठाणउ । तिहु आयंबिलु जिणु मणइ, चउहु होइ उपवास गिहस्थहं ।। अहवा सयलह खबण विहिं, विणयचंदि मुणि कहिउ समस्थहं ।।" भगवान् ऋषभदेव, वासुपूज्य, विमलनाथ और नमिप्रभुको जन्म-तिथियोका उल्लेख करते हुए कविने लिखा है, "पढम परिक दुइजहिं आसाढहिं, रिसह गम्भु तहि उत्तर साढहिं । अंधारी छट्टहिं तहिमि, वंदमि बासुपूज गब्भुच्छउ ॥ विमलु सुसिद्धउ अट्ठमिहिं, दसमिहिं नमिजिण जम्मणु तहतउ ॥" इस रासकी भी भाषा प्राचीन हिन्दी ही है। उसपर अपभ्रंश और प्राकृतका प्रभाव है। २०. कवि ठकुरसी ( वि० सं० १५७८ ) ____कवि ठकुरसी, खण्डेलवाल जातिमे उत्पन्न हुए थे। उनका गोत्र पहाड़या था। उनके पिताका नाम घेल्ह था, जो एक कवि थे। उनकी माता धर्मनिष्ठ थीं। दोनोंका ही प्रभाव पुत्रपर पड़ा, और ठकुरसी एक उदार कवि बन सके । उनका जन्म चम्पावती नामकी नगरीमे हुआ था, जो उस समय धनधान्यादिसे विभूषित थी। वहाँ भगवान् पार्श्वनाथका एक जिन-मन्दिर भी था, जहाँ १. घेल्ह सुतनु गुण गाऊँ, जगि प्रगट ठकुरसी नाऊँ। पंचेन्द्रिय बेल, प्रशस्ति । दीवान बधीचन्दजी जयपुरको हस्तलिखित प्रति, गुटका नं० १६०, पृ० १२६ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि बैठकर भट्टारक प्रभाचन्द्र धर्मोपदेश देते थे । वहाँ तोषक नामके विद्वान् और जीणा, ताहू, पारस, वाकुलीवाल, नेमिदास, नाथूसि और भुल्लण आदि उत्तम श्रावक रहते थे । ८४ कवि ठकुरसीने 'कृपण चरित्र', 'मेघमालाव्रतकथा', 'पंचेन्द्रिय बेल', ‘नेमीसुरकी बेल’, ‘पार्श्व सकुन सत्ताबत्तीसी', 'चिन्तामणिजयमाल', 'गुणबेलि' और 'सीमन्धरस्तवन' की रचना की थी । सभीकी भाषा प्राचीन हिन्दीका विकसित रूप है | उसमे यत्र-तत्र अपभ्रंशके शब्दोंका भी प्रयोग हुआ है । रचनाएं सरस है । सभी में प्रसादगुण मौजूद है । कृपण-चरित्र 3 कवि इस कृतिको वि० सं० १५८० मे, पौष मासकी पंचमी के दिन पूरा किया था। इस काव्यमे ३५ छप्पय है । इसमे एक कंजूसका आँखों-देखा चरित्र चित्रित किया गया है । कविके नगरमे ही एक कृपण रहता था । वह कंजूस था और उसकी पत्नी उदार तथा धार्मिक | एक बार पत्नीने सुना कि गिरनारकी यात्राके लिए संघ जा रहा है। उसने वहाँ चलनेका पतिसे आग्रह किया। उसने कहा कि वहाँ जाकर उन भगवान् नेमिनाथ के दर्शन करेंगे, जिन्होने मूक पशुओकी करुण दशा से द्रवित हो वैराग्य धारण किया था। उनकी वन्दनासे जन्म सफल होगा और अमर पद प्राप्त कर सकेंगे । व्ययको बात सुनकर कृपण बेचैन हुआ और अपने एक दूसरे कृपण मित्रकी सम्मति से पत्नीको, उसकी माँके घर भेज दिया । १४, १. पं० परमानन्द शास्त्री, कविवर ठकुरसी और उनकी कृतियाँ, अनेकान्त, वर्ष किरण १, पृ० १२ । २. यह काव्य बम्बईके दिगम्बर जैन मन्दिरके सरस्वती भण्डारमें, एक गुटके में लिखा है। ३. मै पंदरा सौ असइ, पौष पांच जगि जाण्यो । जिस कृपणु इक दीठु, तिसौ गुणु तासु बखाण्यो । बम्बई के दिगम्बर जैन मन्दिरके सरस्वती भण्डारकी हस्तलिखित प्रति ३५व छप्पय, उद्धृत पं० नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बम्बई, १६१७ ई०, पृ० ३५ | ४. पं० परमानन्द शास्त्री, कविवर ठकुरसी और उनकी कृतियाँ, अनेकान्त, वर्ष १४, किरण १, पृष्ठ ११ । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "कृपणु कहै रे मीत, मझु घरि नारि सतावै। जात चालि धणु खरचि, कहै जो मोहि न मावै ॥ तिहि कारण दुब्बलौ, रयण दिन भूख न लागै। मीत मरणु आइयो, गुज्यु भाखौ तू प्रागै ।। ता कृपण कहै रे कृपण सुणि, मीत न कर मनमाहि दुखु । पीहरि पठाइ दै पापिणी, ज्यों को दिण तू होइ सुख्खु ॥" जब संघ यात्रासे लौटा तो कृपणने देखा कि कई लोग असीम धन कमाकर लाये है । उसे अपने न जानेपर दुःख हुआ। इसी दुःखसे प्रपीड़ित होता हुआ वह मरण-शय्यापर लेट गया। उसने लक्ष्मीसे प्रार्थना की कि मैने तुम्हारी जीवनभर एकनिष्ठतासे सेवा की, अब तुम मेरे साथ चलो। लक्ष्मीने उत्तर दिया, तूने न तो देवमन्दिरोमे जाकर भगवान्के दर्शन-पूजनादिमे ध्यान लगाया, और न तीर्थ यात्रा, प्रतिष्ठा तथा चतुर्विध संघादिके पोषणमे धन व्यय किया, अतः मैं तेरे साथ नही जा सकती। "लच्छि कहै रे कृपण झूठ हौं कदे न बोलों, जु को चलण दुइ देइ गैल लागी तासु चालों। प्रथम चलण मुझु एहु देव देहरै उविज्जैं। दूजे जात पति? दाणु चउसंघहिं दिज्जै, ये चकण दुवे ते भंजिया ताहिविहूणी क्यौं चलौं। झखमारि जाह तुं हो रही वहुटि न संगि थारे चलौं ।" लक्ष्मीके इस उत्तरसे अत्यधिक दुःखी होता हुआ कृपण मर गया। पत्नीने उसके धनको पुण्य-कृत्योंमे व्यय किया। ___इस भांति इस काव्यका मुख्य अंश, कृपणकी कृपणतासे सम्बन्धित होकर भी, भक्तिसे युक्त है । जिनेन्द्रकी भक्ति, इस लोकमे तो लक्ष्मी-सम्पत्ति प्रदान करती ही है, परलोकमे भी पुण्य कर्मके उदयसे लक्ष्मी-चरम शोभा मिलती है, ऐसा इस काव्यका निष्कर्ष है। मेघमालाव्रतकथा __ कवि ठकुरसीने इस काव्यका निर्माण, चम्पावती नामकी नगरीमे, वणिक्पुत्र मल्लिदासके कहनेसे, वि० सं० १५८०, श्रावण सुदी छठके दिन किया था। १. यह काव्य, अजमेरके भट्टारक हर्षकत्तिके शास्त्रभण्डारके एक गुटकेमें अंकित है। २. हाथु व साह महत्ति महंते, पहाचंद गुरु उयएसंते। पणादह सइजि असीते अग्गल सावण मासि छठिखिय मंगल। मेघमालाव्रतकथा,अन्तिम प्रशस्ति,अने कान्त, वर्ष१४, किरण १, पृ०१३, पाद-टिप्पणी । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि इसमे ११५ कडवक और २११ पद्य है। ___ इस काव्यमे मेघमालावत करनेको विधियोंका सांगोपांग वर्णन हुआ है। कथामे निबद्ध होनेके कारण, विधियोके उल्लेखमे रूक्षता नही आने पायी है। यत्र-तत्र भगवान् जिनेन्द्र और पंचगुरुओको भक्तिकी बात भी कही गयी है । पंचेन्द्रिय वेल ___ इसकी रचना वि० सं० १५८५ मे, कात्तिक सुदी १३ के दिन हुई थी। इसमे पाँच इन्द्रियोकी वासनाका चित्र उपस्थित किया गया है। यद्यपि इसका मूल स्वर उपदेश है, किन्तु शैली इतनी रम्य है कि पाठक रस-विभोर हो जाता है। इस काव्यमें केवल छह पद्य है। कविने प्रत्येक इन्द्रियकी हानि दिखलानेके लिए, प्रायः दृष्टान्तोंका सहारा लिया है। इससे काव्यको रमणीयता और भी बढ़ गयी है। घ्राण इन्द्रियका सम्बन्ध गन्धसे है, और गन्धलोलुपी सदैव हानि उठाता है, कविने यह भ्रमरके दृष्टान्तसे पुष्ट किया है । एक भ्रमर कमलमें इसलिए बन्द हो गया कि वह रातभर उसके रसको अधाकर ले सके। किन्तु सूर्योदय के पूर्व ही एक हाथी आया और कमलको नालसहित उखाड़कर पैरोसे कुचल दिया, जिससे भ्रमरको भी प्राण त्यागने पड़े। कविका कथन है कि घ्राण इन्द्रियको वश्यता स्वीकार करने वालोका यही हाल होता है । १. इसकी एक हस्तलिखित प्रति, भामेरशास्त्रभण्डार, जयपुरमें मौजूद है। यह वि० सं० १६८८ में लिखी गयी थी। एक प्रति नया मन्दिर देहलीमें भी है । २. संवत् पन्द्रासैर पिच्यास्यो, तेरसि सुदि कातिग मासे । इ पांच इंद्री वसि राखै, सो हरत परत सुख चाखें । कवि ठकुरसी, पचेन्द्रिय बेल, आमेरशास्त्रभण्डारकी प्रति । ३. "कमल पयट्ठो भमर दिनि घाण गन्ध रस रूढ । रमणि पडीतो सवुड्यो नीसरि सक्यो न मूढ । सो नीसरि सक्यौ न मूढौ अतिघ्राण गंधरस रूढौ । मनचितै रयणि गवाई, रसलेस्सु आजि अघाई। जब ऊगै लौ रवि विमलौ, सरवर विगसै लो कमलो। तब नीसरिस्यौ यह छोड़े रसुलेस्या आइ बहोडै । चिंतति तितै गजु इकु आयौ दिनकरु उगिया न पायो। जलु पैठि सरोवर पोयौ नीसरत कमल पाखडी लीयो । गहि सुंडि पावतलि चांप्यो अलि मार्यो थरहरि कंप्यौ । यह गंध विष वसि हूओ अलि अहल अखूटी मूवो। अलि मरण करण दिठि दीजै अति गंधुलीभु नहि कोजै ॥३॥" पंचेन्द्रिय बेल, पं० परमानन्द शास्त्री, कविवर ठकुरसी और उनकी कृतियाँ अनेकान्त, वर्ष १४, किरण १, पृष्ठ १३ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ___ स्पर्शेन्द्रियको विषमता दिखलाते हुए कविने लिखा है कि इसी इन्द्रियके कारण वनमे स्वच्छन्द विचरनेवाला हाथी, लोहेको शृंखलाओमे बंधता है, और अकुशके धावोंको सहन करता है । कीचक, रावण और शंकरने भी इसी इन्द्रियके कारण अनेकों दुःख उठाये थे। नेमीसुरको बेल ___ इसका दूसरा नाम 'नेमिराजमती बेल' भी है। इसका कोई स्पष्ट संवत् नहीं दिया है, किन्तु अनुमान है कि उपर्युक्त रचनाओके आस-पास ही यह भी रचा गया होगा। इसमे भगवान् नेमिनाथ और राजुलके जीवनका परिचय है। इसमे तीर्थकर नेमीश्वरकी भक्ति ही प्रधान है। पार्श्वनाथ सकुन सत्ता बत्तीसी इस काव्यको रचना वि० सं० १५७८ मे हुई थी। इसकी हस्तलिखित प्रति, पं० लूणकरजीके मन्दिर, जयपुरमे, गुटका नं० २५ मे अंकित है। गुण बेल ___इसकी हस्तलिखित प्रति, पं० लूणकरजीके मन्दिर, जयपुरमे गुटका नं० ९२ मे लिखी है । यह गुटका सं० १७२१ का लिखा हुआ है। 'चिन्तामणिजयमाल' और 'सीमन्धर-स्तवन'का उल्लेख पं० कस्तूरचन्द कासलीवालने किया है। १. वन तरुवर फल सफिरि, पय पीवत हु स्वच्छंद । परसण इन्द्रो प्रेरियो, बहु दुख सहै गयन्द ॥ बांध्यो पाग संकुल घाले, सो कियो मसकै चाले । परसण प्रेरहं दुख पायो, तिनि अंकुश घावा धायो ।। पंचेन्द्रिय बेल, नयामन्दिर देहलीकी हस्तलिखित प्रति । २. परसण रस कोचक पूरयो, गहि भीम शिलातल चूरचौ। परसण रम रावण नामइ, वारयो लंकेसुर रामइ । परसण रस शंकर राच्यौ, तिय आगे नट ज्यों नाच्यो । ३. यह काव्य, श्री दि० जैन बडा मन्दिर जयपुरके गुटका नं०६३ में, और श्री दि० जैन मन्दिर बधीचन्दजी, जयपुरके गुटका नं० २५ में अंकित है । ४. राजस्थानके जैन शास्त्रमण्डारोंकी ग्रन्थ सूची, भाग ३, प्रस्तावना, पृष्ठ १४ । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन-भक्ति काव्य और कवि २१. विनयसमुद्र (वि० सं० १५८३) विनयसमुद्र, उपकेशगच्छके हर्षसमुद्रके शिष्य थे। हर्षसमुद्रके भी गुरुका नाम सिद्धिसूरि था। विनयसमुद्रका रचना-काल वि० सं० १५८३ से १६०५ तक माना जा सकता है। उन्होंने वि० सं० १५८३ मे 'विक्रम प्रबन्ध चौपई की और वि० सं० १६०५ में 'रोहिणेय रास' की रचना की थी। इस समय उनकी आठ रचनाएं उपलब्ध है, सभी उपर्युक्त समयके अन्तर्गत ही रची गयीं।। वे रचनाएं इस प्रकार है : "विक्रमप्रबन्ध चौपई', 'आरामशोभा चौपई', 'अंबड चउपई', 'मृगावती चौपई', 'चन्दनबाला रास', 'चित्रसेनपद्मावती रास' और 'पद्मचरित्र' । इनमें अंबडच उपई श्री मुनिरत्नसूरिके संस्कृतमें लिखे गये 'अंबडचरित्र'का भावार्थ लेकर लिखी गयी है, अवशिष्ट सभी मौलिक है । इन रचनाओंपर गुजरातीका विशेष प्रभाव है। विनयसमुद्रकी कृतियोंमें भक्तिके उद्धरण _ 'विक्रमप्रबन्ध रास मे ४६९ पद्य हैं। इसके प्रारम्भमें ही सरस्वतीकी वन्दना करते हुए कविने लिखा है, "देवि सरसति प्रथम प्रणवेवि, वीणा पुस्तक धारिणी। चंद्र विहंसि सु प्रसंसि वरुलइ कासमीरपुर वासिणी ॥" 'पद्मचरित्र में सीताका चरित्र प्रधान है। उसके शीलकी महिमाका वर्णन १. श्री उवएसगछ गणवर सूरि, चरण करण गुण किरण मयूर । रयण प्रणु गुणगण भूरि, तसु अनुक्रमि जंपइ सिद्धसूरि ॥ तेह नइ वाचक हर्ष समुद्र तसु जसु उजल बीर समुद्र । तसु विनये विन या बुद्धि एह, रच्यु प्रबंध निरखि तणेह ॥ विक्रमप्रबन्ध रास, पद्य ४६७-४६८, राजस्थानके जैनशास्त्रमण्डारोंकी ग्रन्थसूची; भाग ३, पृष्ठ २६६। २. अंबड मोटउ हूयो विसाल, तासु चरित्र सुणी रसाल, श्री मुनिरत्न सूरिनो कह्यो, तेहथकी भावारथ लह्यो। अंबड चउपई, अन्तिम प्रशस्ति, ११वॉ पद्य, जैनगुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृष्ठ १६६ । ३. यह काव्य, जयपुरके ठोलियोंके दि० जैन मन्दिरके गुटका नं० १०२ में अंकित है। रचनाकाल वि० सं० १५८३ दिया है। ४. पद्मचरित्रकी रचना वि० सं० १६०४ में हुई थी। इसकी एक हस्तलिखित प्रति उदयपुरके शास्त्रभण्डारमें मौजूद है। यह प्रति वि० सं० १६५६, आषाढ़ मास, शुक्लपक्ष १४ की लिखी हुई है। जैनगुर्जरकविओ, भाग १, पृ० १७० । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य करते हुए कविने लिखा है कि जो कोई इसको कहता और सुनता है, उसके मनकी सभी आशाएँ पूर्ण हो जाती है, "कीधी कथा ए सीता तणी, सीलतणी महिमा जसु वणी । माई मणिज्य बहुगुण पुणी, पूरइ त्रास सदा मन तणी ॥ १७० ॥” ८९ 9 'आराम शोभा चौपई' ' के आदिमे भगवान् अरिहन्त और रत्नत्रयकी महिमा - का वर्णन किया गया है, "श्री जिन शासनि जगि जयउ, जिणि राजा अरिहंत । दया धर्म भाषउ मलउ, भय भंजण भगवंत ||१|| जिणवरि भाष्या श्रीमुखइ, बोलई त्रिन्नि सुपवित्त | ज्ञान अनई दरिसण वली, चरण तत्व गुणजन्त ॥२॥ रत्नत्रय जे नर लही, पालई ते नर धन्य । afa विशेषि दंसण लही, सुख संयोग सुपुन्य || ३ || " 'मृगावती चौपई' के आरम्भमे भी शारदा, गुरु, चौबीस तीर्थंकर और भगवान् अरिहन्तकी वन्दना की गयी है, "सामणि देवति शारदा, सुगुरुजी हर्ष समुद्र | afts समरथ चडबीस जिण, वारण भवह समुद्र ॥१॥ श्री जिनशासन वर नयर, राजा श्री अरिहंत । समवसरण लईठा सभा, भाषइ श्री भगवन्त ॥ २ ॥” 'चित्रसेनपद्मावती रास" में 'नवकारमन्त्र' की महत्ताका वर्णन किया गया है, "प्रथम क्षीर मंत्रि हि वडऊं, होऊ कार जिमसार । अंतिम सायरइ गंग जलि, मंत्रइ वडड नत्रकार ||४|| " इसी रासके प्रारम्भमे भगवान् शान्तिनाथ, जो पाँचवें चक्रवर्ती भी थे, की वन्दना की गयी है, १. आराम शोभा चौपई, बीकानेरमें, वि० मं० १५८३ में लिखी गयी थी । उसका आदि और अन्तका भाग, श्री मोहनलाल दुलीचन्द्र देसाईने दिया है । जैनगुर्जरकवि, तीजो भाग, पृ० ६२५ | २. मृगावती चौपईकी रचना, बीकानेर में, वि० सं० १६०२ में हुई थी । वही, पृ० ६२६ । ३. चित्रसेन पद्मावती रासकी रचना, जोधपुरमें वि० सं० १६०४ में हुई थी । वही, पृ० ६२७ । १२ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "संति जिणवर संति जिणवर सकल सुखकर, पंचम चके सर पवर संतिकरणं सवि दुरिय दुखहर । अवर सवे तिथेसरु चउद्दसरस बावन गणधर ॥१॥" २२. कवि हरिचन्द (वि० सं० की १६वीं शतीका प्रथम पाद) जैनोमे तीन हरिचन्द हुए है। एक तो संस्कृतके प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने 'धर्मशर्माभ्युदय' नामके प्रसिद्ध काव्यकी रचना की थी। दूसरे भट्टारक हरिचन्द थे, जिनके गद्य-बन्धका उल्लेख बाणभट्टने किया है। उन्होंने चरक-टीका भी लिखी थी। प्रस्तुत कवि हरिचन्द, इन दोनोंसे पृथक् थे। उनकी रचनाओंमे प्राचीन हिन्दीका विकसित रूप पाया जाता है। उनकी एक रचना, वि० सं० १६२० के लिखे हुए गुटकेमे मिली है। इससे सिद्ध है कि उसका निर्माण वि० सं० १६२० के पूर्व ही हुआ होगा। कवि हरिचन्द अग्रवाल वंशमे उत्पन्न हुए थे। __ उनकी रची हुई दो कृतियां उपलब्ध है, 'अनस्तमितव्रतसन्धि' और 'पंचकल्याणक' । दोनोंकी हो भाषामे प्राकृत और अपभ्रंशके शब्दोंका बाहुल्य है। फिर भी उनकी भाषाका मूल रूप, प्राचीन हिन्दीका विकसित रूप ही कहा जा सकता है। अनस्तमितव्रतसन्धि यह काव्य १६ सन्धियोंमें पूर्ण हुआ है। पद्धणिया छन्दका प्रयोग किया गया है। प्रत्येक सन्धिके अन्तमे एक घत्ता है। इस काव्यका विषय रात्रि-भोजनके निषेधसे सम्बन्धित है। शैली इतनी मनोहर है कि निषेधको रूक्षता रंचमात्र भी आभासित नहीं होती। कविने इस काव्यको रचना भक्ति-भावसे की है, ऐसा उसने स्वयं ही लिखा है, __ "भत्तिए जिणु पणवेवि, पयडिउ पद्धणिया छंदेण" १. पं० भगवद्दत्तके अनुसार भट्टार हरिचन्द्र, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यके भाई या निकट सम्बन्धी थे। राजशेखरने लिखा है कि उज्जैनीमें काव्यकार परीक्षामें हरिचन्द्र और चन्द्रगुप्त दोनों परीक्षित हुए थे। देखिए, पं० नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, संशोधित साहित्यमाला, बम्बई, अक्टूबर १९५६, पृ० ३०८।। २. उनकी 'अनस्तमितव्रतसन्धि' रचना, जयपुरके श्री दि. जैन बड़ा मन्दिरके गुटका नं० १७१ में अंकित है। यह गुटका वि० सं० १६२०, पौष सुदी २ का लिखा हुआ है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य सौधर्मेन्द्र भगवान् महावीरका स्नानोत्सव मनानेके लिए आया। आते ही चौबीस तीर्थकरोंको कुसुमांजलि अर्पित की। भगवान महावीरको प्रणाम किया। वे भगवान् कलि-मल और कलुषको नष्ट करनेवाले है। उनका स्नानोत्सव जीवको सभी पापोसे मुक्त कर देता है, "भाइ जिणिंदु रिसहु पणवेपिणु, चउवीसह कुसुमंजलि देप्पिणु । वड्ढमाण जिणु पणविवि मावि, कलमलु कलुसवि वछिउपावें। दुलहउ पावेप्पिणु मणुय जम्मु, जिणनाहें देसिउ मुणिवि धम्म । महु मज्ज मंसु नउ अहिलसेइ, पंचुंवर न कयाइ विगसेइ ॥" कविने अन्तमे लिखा है कि वह इस काव्यको गुरु-भक्ति और जिन-भक्तिसे ही पूरा कर सका है, "वील्हा जंडू तणाएं जाएं, गुरुमत्तिए सरसइहिं पसाएं । अयरबाल वरवंसे, उप्पणइ महहरियदेण । मत्तिए जिणु पणवेवि, पयडिउ पद्धड़िया छंदण ॥" पंचकल्याण कविने प्रारम्भमे ही लिखा है कि मैं उन जिनेन्द्रके गर्भादिक कल्याणोका वर्णन करता हूँ, जिनके चरणोंपर, इन्द्रोंके मणि-जटित मुकुट झुका करते है, "शक्क चक्क मणि मुकुट बसु, चुंवित चरण जिनेश । गम्भादिक कल्लाण पुण, वण्णउ भक्ति विशेष ॥" चारों प्रकारके इन्द्र, मन, वचन और कायसे, तीर्थंकरके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकोका महोत्सव मनाते है, "गम्म जम्म तप णाण पुण, महा अमिय कल्लाण । चउविय शक्का आयकिय, मणवकाय महाण ॥" सौधर्म स्वर्गके इन्द्रने अपने अवधिज्ञानसे प्रभुके गर्भ-कल्याणका अवसर समझा, और उसने कुबेरको प्रभुको जन्म-नगरीको सुन्दर बनानेकी आज्ञा दी, "सौधम्मिदास अवधिधारा, कल्लाण गम्भ जिण अवधारा । णयरी रचणा अग्गादिण्णी, कुम्वेरसिक्ख सिर धर लिण्णी ॥" १. इसकी हस्तलिखित प्रति, १६३४ ई० के लिखे एक गुटकेमें संकलित है। गुटका बाबू कामताप्रसादजी जैन, अलीगंजके पास है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि २३. देवकलश (विक्रमकी ५६वीं शातीका उत्तरार्ध) देवकलश, उपकेशगच्छके उपाध्याय देवकलोलके शिष्य थे। उनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है : देवकुमार, कर्मसागर, और देवकलोल'। देवकलशके जन्म-स्थानके विषयमे कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु उपकेशगच्छीय होनेके नाते यह कहा जा सकता है कि वे गुजरात प्रान्तके ही रहनेवाले थे। उनकी भाषापर भी गुजरातीका अधिक प्रभाव है। ऋषिदत्ता यह देवकलशकी एक-मात्र रचना है। इसका निर्माण वि० सं० १५६९ मे हुआ था। इसकी एक हस्तलिखित प्रति, दिल्ली सेठ कूचाके दिगम्बर जैन मन्दिरमे मौजूद है। 'ऋषिदत्ता' एक कथा-काव्य है। ऋषिदत्ता, राजा सिंहरथकी पत्नी थी। इम काव्यमे उसके शीलगुणका उत्तम वर्णन है। अन्तमे सिंहरथ और ऋषिदत्ता दोनोने ही साधु-दोक्षा धारण कर ली और भद्दलपुर नामकी प्रसिद्ध नगरीसे निर्वाणको प्राप्त हुए । भद्दलपुर भगवान् शीतलनाथकी जन्मभूमि मानी जाती है । ___ इस काव्यको उत्तमकोटिमे गिना जा सकता है । उक्तिवैचित्र्य और भावोन्मेषने ऐसा आकर्षण उत्पन्न कर दिया है कि उससे पाठकके हृदयका तादात्म्य अवश्य ही हो जाता है । आलम्बनमे समानधर्मके निरूपणने 'रस' को जन्म दिया है। भाषामे ऐसा लालित्य है कि उपदेश अथवा वर्णनात्मकताकी शुष्कता भी सरस हो गयी है। सिंहरथके पिता कनकरथके गुणोके वैभवका वर्णन ऐसा ही है, १.श्री उवएस गछसिंगार, वाचकवर श्रीदेवकुमार, विद्या चवद अपार । तासु पाटि उवझाय कर्मसागर, हूआ सर्वगुणमणि रयणागर शास्त्रतणा आधार । तासु पट्टि उवझाय जयवन्त देवकल्लोल महिमावन्त, दिन-दिन ते उदिवन्त । ऋषिदत्ता चौपई,अन्तिम प्रशस्ति, पद्य २६६-२६८, जैनगुर्जरकविश्रो, भाग ३, पृ० ५५५ । २. तास सीसदेग कलसिइं हरसिइ, पनरह सइ गुणहत्तरि बरसिइं।। रचिउ सीलप्रबंध, ए चरित रिषिदत्ता केरउ । सील तणोउ नापन उनवेर उ छइ प्रगट संबंध ॥ दिगम्बर जैन मन्दिर सेठके फूंचा, दिल्लीकी हस्तलिखित प्रति । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "कणकतणी परि तनु अमिराम, तिणि कनकरथ दीधउ नाम । गुणियण संघ घणू तसु मगइ, निरगुण दीठा मन कमकमइ ।। सूरवीर समरांगणि धीर, दाता जलनिधि जिम गंभीर । बोलइ सुललित मधुरी बाणि, सहु को तिणि रीझइ अमिराम ॥१७-१८॥" शीलकी महिमाका वर्णन करते हुए कविने सुन्दर शब्दोंमे लिखा है, "सीलई हूइ नीरोग पुण, सीलई टलइ किलेस, सीलई रूप सरूप हुई, सीलि न दुख लव लेस । सीलइ जस जगि विस्तरइ, सीलि न हुई संताप, सीलई संचई पुण्य धन, सीलि पखालइ पाप । सीलई रीझइ लोक सवि, विबुध करई सुपसाउ, हेमादिक सिद्धह तणउ, सीझई सयल उपाउ ॥४-६-७॥" जो नर-नारी भावपूर्वक 'ऋषिदत्ता चौपई' को पढ़ते है और सुनते है, उनके सभी मनोवांछित कार्य पूर्ण हो जाते है, वे सकल शास्त्रसिद्धान्तोंमे निपुण बन जाते है, तथा वे नवरस, नवतत्त्व और जिनवरके गुणोको पहचान उठते है, "जे नर नारी मावई मणिसिइ, आणी मन ऊलट नितु सुणिसिई, भाव सकति भरपूरि। नितु नितु ते मनवंछित पांमइ, सकल शास्त्र सिद्धंत वखाणइ, नव तत नव रस वाणी जाणइ, जिनवर गुण विहसंति ॥३०१-३०२॥" २४. मुनि जयलाल (विक्रमकी १६वीं शताब्दीका उत्तरार्ध) ___ मुनि जयलालकी रचना 'विमलनाथस्तवन'से मुनिजीके जीवन और गुरुपरम्पराके विपयमे कुछ भी विदित नहीं होता। यह रचना जिस गुटकेमे निबद्ध है, वह वि० सं० १६२६ का लिखा हुआ है, इससे सिद्ध है कि मुनि जयलाल वि० सं० १६२६ से पूर्व कभी १६वी शताब्दीके उत्तरार्धमे हुए है। विमलनाथस्तवन यह काव्य तेरहवे तीर्थकर विमलनाथकी भक्तिसे सम्बन्धित है। वैराटपुर (जयपुर रियासत ) में विराजमान विमलप्रभुकी प्रतिमाको लक्ष्य कर ही इन १. यह गुटका, श्री कामताप्रसादजी जैन, अलीगंजके संग्रहमें मौजूद है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि छन्दोंका निर्माण हुआ है। कहा जाता है कि यह प्रतिमा अतिशयपूर्ण थी । उसकी भक्तिसे पाप तो दूर भागते ही थे, पुण्य-जन्य वैभव भी उपलब्ध होते थे। किन्तु भक्तिमे विभोर कवि वैभव तो चाहता ही नही, मोक्ष भी नहीं चाहता, उसे तो भव-भवमे अपने प्रभुके दर्शनोको ही प्यास है, "तुम दरसन मन हरषा, चंदा जेम चकोरा जी। राज रिधि मांगउ नहीं, मवि भवि दरसन तोरा जी ॥१३॥" भगवान्के दर्शन कर भक्तका हर्षित हो जाना स्वाभाविक है। चकोर जैसे चन्द्रके दर्शन कर प्रसन्न होता है, वैसे ही भक्त भगवान्को देखकर आह्लादित हो जाता है । राज्योंके वैभवसे ऊपर उठना आसान नहीं है, किन्तु जो प्रभुके दर्शनोंको ही भव-भवमें चाहता है, उसके लिए यह कठिन भी नहीं है। कविताकी इन दो पंक्तियोमे ही भक्ति-रस जीवन्त-सा हो उठा है। ___कविका कथन है कि इस विश्वमे प्रभुके अतिरिक्त और कोई निःस्वार्थ भावसे सहायता करनेवाला नही है। विश्वके सभी प्राणी, यहाँतक कि माता, पिता और वनिता भी स्वार्थके साथी है। इस कथनका तात्पर्य है कि प्रत्येक प्राणी भगवान् जिनेन्द्रका ही सहारा ले, अन्यका आश्रय व्यर्थ है, "मात पिता वनिता भाई, स्वारथि सवइ संगाई जी। तुम्ह सम प्रभु कोई नहीं, इहरत परति सहाई जी ॥१४॥" वैराटपुरके तेरहवें जिननायक श्री विमलप्रभुका गुणगान करते हुए कविने लिखा है, वे प्रभु सकल ऋद्धि-सिद्धियोके देनेवाले है। उनकी भक्ति करनेसे मोक्ष तो स्वतः ही उपलब्ध हो जाता है। वे भगवान् चतुर्विध संघका मंगल करते है, और समूचे पापोको जड़से उखाड़ फेंकनेमें समर्थ हैं। मुनि जयलाल वन्दना करते है कि हे भगवन् ! आप अपना शुभ-दर्शन मुझे सदा प्रदान करें। इससे भक्तका जीवन कृतार्थ हो सकेगा, "वैराटिपुर श्री विमल जिनवर सयल रिधि सिधि दायगो। इमि थुणिउ भत्तिहि नियइ सत्तिहि, तेरमउ जिणनायगो ॥ श्री सयल संघह करण मंगल, दुरिय पाप निकंदणो । श्री जयलाल मुणिंद जंपइ, देहि नाण सुदंसणो ॥१७-१८॥" २५. भट्टारक जयकीति ( विक्रमकी १६वीं शताब्दीका उत्तरार्ध) भट्टारक जयकोत्तिको मुनि श्री जयकीत्ति भी कहते है। उनकी रचना 'भवदेव चरित्र', जिस गुटकेमे निबद्ध है, वह विक्रम सं० १६६१, वैशाख सुदी १२ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ९५ १ का लिखा हुआ है । और उनका काव्य 'पार्श्व भवान्तरके छन्द' जिस गुटके मे अंकित है, वह वि० सं० १५७६ का लिखा हुआ है। इससे प्रमाणित है कि उन्होंने अपनी इन कृतियोंका निर्माण विक्रमकी १६वीं शताब्दी के उत्तरार्धमे कभी किया होगा । यह सुनिश्चित है कि भट्टारक जयकीर्ति, उन जयकीर्त्तिसे स्पष्टरूपेण पृथक् है, जिन्होने ‘छन्दोनुशासन'का निर्माण किया था, और जो रामकीर्त्तिके गुरु थे। 3 वे संस्कृतके विद्वान् थे, और भट्टारक जयकीर्तिकी उपर्युक्त दोनों रचनाएँ हिन्दी में हैं । उनकी एक अन्य कृति 'ब्रह्मचर्य उपदेशमाला' के नामसे प्राप्त हुई है, जो दि० जैन बड़ा मन्दिर, जयपुरके गुटका नं० २५८ मे निबद्ध हैं । 'पार्श्व भवान्तर के छन्द' का सम्बन्ध भगवान् पार्श्वनाथकी भक्तिसे है । इसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पूर्व भवोंका वर्णन हुआ है। पार्श्वनाथ जैनोंके तेईसवें तीर्थं - कर थे । इस काव्यमे वर्णनकी शुष्कता नही है, अपितु एक प्रवाह - पूर्ण सौन्दर्य है । २६. श्री क्षान्तिरंग गणि ( वि० की १६वीं शताब्दीका उत्तरार्धं ) श्री क्षान्तिरंग गणिकी रचना खैराबाद 'पार्श्वजिनस्तवन' उस गुटके में निबद्ध है, जो वि० सं० १६२६ का लिखा हुआ है। इससे निश्चित है कि वे इस संवत् से पूर्व कभी हुए हैं । सम्भवतः वे १६वीं शताब्दी विक्रमके उत्तरार्द्धमे मौजूद थे। नगर खैराबाद जिला सीतापुरमें है । उसके जैन मन्दिरमें पार्श्व जिनकी प्रतिमा विराजमान है । कहा जाता है कि वह प्रतिमा अतिशयपूर्ण है । उसमे कुछ ऐसी वीतरागता है कि उससे प्रत्येक दर्शक प्रभावित होता ही है । क्षान्तिरंग गणिने इसी प्रतिमाको लक्ष्य कर 'पार्श्वजिनस्तवन' की रचना की है । भगवान्की महत्ता में भक्तको पूरा विश्वास है । वह जानता है कि भगवान्‌की कृपासे अज्ञान तो दूर होता ही है, किन्तु जन्म-जन्म के मनोवांछित फल भी प्राप्त होते है । खैराबादको सुशोभित करनेवाली पार्श्व जिनेन्द्र की प्रतिमामे मोहिनी १. यह गुटका, श्री दि० जैन बडा मन्दिर, जयपुरमें वेष्टन नं ० २६५२ में निबद्ध है । २. यह गुटका पं० दीपचन्द्र पण्डयाको 'देराटू' नामके गॉवके जैनमन्दिरके शास्त्रभडारकी शोध करते हुए प्राप्त हुआ था । अनेकान्त, वर्ष ५, किरण ६-७, जुलाई १६४२ ई०, पृ० २५७ । ३. पं० नाथूराम प्रेमी, जैनसाहित्य और इतिहास, पृ० ४०५ | ४. यह गुटका, बाबू कामताप्रसादजी जैन, अलीगंजके पास है । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि शक्ति है, किन्तु उस सौन्दर्यको भव्यजन ही देख पाते है । सुर, नर, किन्नर, नाग और नरेन्द्र सभी भगवान्के चरणोमे झुककर अपना जन्म सफल बनाते है। "पास जिणंद खइराबाद मंडण, हरषधरी नितु नमस्यं हो। रोर तिमिर सब हेलिहिं हरस्यूं, मनवंछित फल वरस्यं हो ॥ भुवण विसाल भविक मन मोहइ, अनुपम कोरणि सोहइ हो । सुर नर किंनर नाग नरेसर, पणमइ प्रह सम पाया हो ।।" नगर खैराबादके पार्व जिनेन्द्रका रूप, नेत्र और मन दोनोंको ही अच्छा लगता है। उनके दर्शन करने-मानसे ही मनकी सभी अभिलाषाएँ ऐसे पूरी हो जाती हैं, जैसे मानो वे कल्पवृक्ष ही हों। कोई उन भगवान्से, स्वर्ण-तिलकधारिणी लक्ष्मीकी याचना क्या करे, वह तो स्वयं ही भगवान के चरणोंमें स्थित होकर झुकी रहती है । शान्तिरंग गणिने भी उन भगवान्को प्रणाम किया है, उन्हें विश्वास है कि ऐसा करनेसे सुख दिन-प्रति-दिन बढ़ता ही जायेगा, "इय पास जिणवर नयण मणहर, कप्पतरुवर सोहए। श्री नयर खयराबाद मंडण, भविए जणमण मोहए ।। श्री कनक तिलकु सुसीस सुंदर, लिक्ष्मी विनय मुणीसरो। तसु सीस गणि भांतिरंग पभणइ, हवइ दिन-दिन सुखकरो ॥" २७. श्री गुणसागर (विक्रमको १६वीं शताब्दीका उत्तरार्ध) श्री गुणसागरकी रचना 'पार्श्वजिनस्तवन' भी उपर्युक्त गुटकेमें ही निबद्ध है इस आधारपर उनका समय भी वि० सं० १६२६ से पूर्व माना जा सकता है। उनकी दूसरी कृति 'शान्तिनाथस्तवन', जयपुरके ठोलियोके जैन मन्दिरमें गुटका नं० ९७ में अंकित है। श्री गुणसागरकी दोनों ही कृतियां भक्तिसे सम्बन्धित है। पहलीमे भगवान् पार्श्वनाथकी, और दूसरीमें भगवान् शान्तिनाथको स्तुति की गयी है । 'पार्श्वजिनस्तवन' एक दर्शन-स्तोत्र है। इसमें भगवान पार्श्वनाथके दर्शनोकी महिमा बतलायी गयी है। भगवान्की भक्तिमें विभोर होते हुए कविने लिखा है कि पार्श्व-जिनेन्द्रके दर्शनोंपर न्यौछावर हो जाइए। उनके दर्शनोंमे मन रंग लो और गीत गाओ। भगवान्के दर्शन सभी संकटोंको-चाहे वे मार्ग, घाट और उद्यान में उत्पन्न हुए हों, अथवा नागपाशके कारण आये हों, उपशम करनेमें समर्थ हैं । केवल विकट संकट और कष्ट ही शान्त नही होते, अपितु बड़े-बड़े १. राजस्थानके जैन शास्त्रभण्डारोंकी ग्रन्थसूची, भाग ३, पृ० २६२ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य दुरित और पापोंका भी निवारण हो जाता है। भगवान्के दर्शन अक्षय सम्पत्ति ( मोक्ष ) के कारण है, उसे प्राप्त करनेके लिए सभी आनन्द, रंग और विनोद न्यौछावर कर देने चाहिए, "पास जी हो पास दरसण की बलि जाइय, पास मनरंगै गुण गाइये। पास बाट घाट उद्यान मैं, पास नागै संकट उपसमै । पा०। उपसमै संकट विकट कष्टक, दुरित पाप निवारणो । आणंद रंग विनोद वारू, अषै संपति कारणो ॥पा०॥" २८. बूचराज (वि० सं० १५३७-१५९७ ) बूचराज हिन्दोके एक प्रतिष्ठित कवि थे। राजस्थानके जैन शास्त्रभण्डारोंमें उनकी अनेक रचनाएँ प्राप्त हुई हैं । किन्तु किसीमे भी उन्होंने अपना परिचय नहीं दिया है। उनकी प्रसिद्ध कृति 'नेमिनाथवसंतु'में केवल इतना लिखा है कि वे मूलसंघके भट्टारक पद्मनन्दिको परम्परामें हुए हैं। उनके वंश और मातापिता आदिका कोई उल्लेख नहीं है। 'सन्तोषतिलक जयमाल' में 'रचना-स्थल' हिसार (पंजाब) दिया हुआ है। उनकी रचनाओंपर राजस्थानीका प्रभाव है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वे राजस्थानके रहनेवाले थे। वे ब्रह्मबूचाके नामसे प्रसिद्ध थे। ब्रह्मचारी होनेके कारण वे जगह-जगह घूमते-फिरते थे, अतः किसी ग्रन्थके हिसारमें समाप्त करनेसे, हिसारको उनकी जन्मभूमि मान लेना प्रामाणिक नही है। बूचराजका रचनाकाल वि० सं० १५३७-१५९७ माना जा सकता है । ऐसा उनकी रचनाओसे प्रकट ही है। उन्होंने अपना दूसरा नाम बल्ह, वील्ह और वल्हव भी लिखा है। हो सकता है यह उनका उपनाम हो। इनकी ख्याति अधिक थी। वि० सं० १५८२ में इनको 'सम्यक्त्व कौमुदी'की एक हस्तलिखित प्रति चाटसू नगरमे भेंट की गयी थी। उनकी उपलब्ध रचनाओंका परिचय निम्न प्रकार है: मयण जुज्झ यह एक रूपक काव्य है। इसका निर्माण वि० सं० १५८९ मे हुआ था। इसमे भगवान् ऋषभदेव और कामदेवका युद्ध दिखाया गया है। ऋषभदेव मोक्षरूपी लक्ष्मी प्राप्त करना चाहते है, किन्तु कामदेव बाधा उपस्थित करता है, अतः युद्ध होना अनिवार्य हो जाता है । कामके प्रमुख सहायक मोह, माया, राग, द्वेष है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि वसन्त उसका दूत है । वह पहलेसे जाकर कामको जीतका वातावरण तैयार करता है। वृक्ष एवं लताएं नया रूप धारण करती हैं। पुष्प विकचित हो जाते है । कोकिल कुहू कुहूकी रट लगाती है। भ्रमर गुंजार करते है । युवतियां शृंगार रचाती है, "वज्यउ नीसाण वसंत पायउ छल्ल कंद सिखिल्लियं । सुंगंध मलया पवण झुल्लिय, अंब कोइल्ल कुल्लियं । रुणझुणिय केवइ कलिय महुवर सुतर पत्तिह छाइयं । गावंति गीय बजंति वीणा तरुणि पाइक आइयं ॥३७॥" सन्तोषजयतिलक ___ इसकी एक हस्तलिखित प्रति दि० जैन मन्दिर नागदा, बूंदी ( राजस्थान) के गुटका संख्या १७९ मे पत्र १७ से ३० तक संकलित है । इसमें १२३ पद्य है । गाथा, षट्पद, दोहा, रड, पद्धणी, अडिल्ल, रासा, चंदायणु, गीतिका, त्रोटक, रंगिक्का आदि छन्दोंका प्रयोग हुमा है। इस काव्यकी रचना हिसार नगरके मध्य, वि० सं० १५९१, भाद्रपद सुदी ५, शुक्रवार, स्वाति नक्षत्र, वृष लग्नमें हुई थी। इसकी भाषा प्राचीन हिन्दी है। उसपर राजस्थानोका प्रभाव है। इसमे कविने लोभ, मोह और रोषपर लिखते हुए सन्तोषकी महत्ता स्थापित की है। इसका अन्तिम पद 'रड' छन्दमें है, "पढहिं जे के सुद माएहि जे सिक्खहिं सुद्ध लिखाव, सुद ध्यान जे सुणहिं मनु धरि । ते उत्तिम नारि नर अमर सुक्ख भोगवहिं बहु प्यारे ॥ यहु संतोषह जयतिलय जंपिउ 'वहि' समाइ । मंगलु चौविह संघ कहु करइ वीरु जिणराइ ॥१२३॥" लोभके प्रभावको कहते हुए कविने लिखा है कि वह मुनियों तकको नहीं छोड़ता, "वण मंझि मुनीसर जे वसहि सिव रमणि लोभु तिन हियइ माहि । इकि लोमि लाग्गि पर भूमि जाहि पर करहि सेव जीउ जीउ मणहि ॥" १. संतोषहु जयतिलउ जंपिउ हिसार नयर मंझ में जो सुगहि भविय इक्क मन, ते पावहिं वंछिय सुक्ख ॥१२० ॥ संवत् पनरइ इक्याण, भद्दवि सिय पाक्खि पंचमी दिवसे सुक्क वारि स्वाति वृखे, जेउ तह जाणि वंभना मेण ॥१२॥ सन्तोषजयतिलककी नागदावाली हस्तलिखित प्रति । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य चेतन पुद्गल ढमाल यह कृति उपर्युक्त मन्दिरके उसी गुटकेमे पत्र ३२-४४ पर अंकित है । इसमें १३६ पद्य है। उनमें चेतनको पुद्गलकी संगति न करनेकी बात कही गयी है। चेतनको विविध प्रकारसे सावधान कर चिदानन्दको भक्तिकी ओर प्रेरित किया गया है। इस कृतिकी भाषापर अपभ्रंशका अधिक प्रभाव है। अधिकांश शब्दोकी प्रवृत्ति उकारान्त है। कविने एक पद्यमें लिखा है कि भगवान् जिनेन्द्र इस संसार में दीपकके समान है । इस दीपकके उदित होनेसे मिथ्यारूपी अन्धकार भाग जाता है। इसी दीपकके प्रकाशमे यह जीव संसाररूपी समुद्रको भी तैरकर पार हो सकता है, "दीपगु इकु सवनि जगि, जिनि दीपा संसारि । जासु उदय सहु मागिया, मिथ्या तिमरु अध्यारु ॥२॥ जिण सासण महि दीवडा, 'वल्ह' पया नवकारु । जासु पसाए तुम्हि तिरहु, सागर यहु संसारु ।।३॥" भव-भवमे जिनेन्द्र के पैरोंको सेवाकी याचना करता हुआ भक्त कवि कहता है, "करि करुणा सुणु वीनती, तिभुवण तारण देव । वीर जिणेसर देहि मुगु, जनमि जनमि पद सेव ॥२९॥" चेतन और पुद्गलमें महदन्तर है। चेतन चिरन्तन है और पुद्गल विनश्वर । चेतनमें गति है और पुद्गलमें जड़ता। जैसे फूल मर जाता है और परिमल जीवित रहता है, वैसे ही शरीर नष्ट हो जाता है और चेतन जिन्दा रहता है। इस तथ्यको कोई-कोई ही जानते है, "फूल मरइ परमलु जीवइ, तिमु जाण सहु कोइ । हंसु चलइ काया रहइ किवरु बराबरि होइ ॥८३॥" कवि दृष्टान्त देनेमे निपुण है । जबतक मोती सीपमें रहता है, उसके सभी गुण पलायन कर जाते हैं, इसी भाँति जबतक चेतन जड़के साथ है, उसे दुःख-हीदुःख भोगने पड़ते है, "जब लगु मोती सीप महि, तब लगु समु गुण जाइ। जब लगु जीयडा संगि जड, तब लग दूख सहाइ ॥१०५॥" टंडाणा गीत ____ टंडाणा 'टांड' शब्दसे बना है। टांडका अर्थ है व्यापारियोंका चलता हुआ समूह । यह विश्व भी गतिवान् प्राणियोंका समूह ही है, अतः इस गीतमें टंडाणा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि शब्द संसारके अर्थमें लिया गया है। इसमे प्राणीमात्रको संसारसे सजग रहनेके लिए कहा गया है, "मात पिता सुतसजन सरीरा दुहु सब लोग विराणावे । इयण पंख जिम तरुवर वासे दलहुँ दिशा उडाणावे ॥ विषय स्वास्थ सब जग वंछ करि करि बुधि बिनाणावे। छोडि समाधि महारस नूपम मधुर विन्दु लपटाणावे ॥" नेमिनाथवसन्तु और नेमीश्वरका बारहमासा । बूचराजकी ये दो कृतियां अत्यधिक सुन्दर है। पहलीमे नवयौवना, विरहिणी राजीमतीकी उन मनोदशाओंका चित्रण है, जो नेमिनाथके अकस्मात् वैराग्य लेनेके उपरान्त वसन्त आनेपर बनी थी। दूसरीमें राजीमतीकी विरहावस्थाका वर्णन है। पतिके पथका अनुसरण करने के लिए राजीमतीने वैराग्य भी ले लिया था। तपस्विनी होनेके उपरन्त नवयौवना राजीमतीका वसन्तको देखकर प्रथम अनुभव हुआ, "अमृत अंबु लउ मोर के, नेमि जिणु गढ़ गिरनारै म्हारे मनि मधुकरू निह वसइ, संजमु कुसमु मझारै ॥२॥ सखिय वसंत सुहाल रे, दीसइ सोरठ देसौ कोइल कुहकइ, मधुकर सारि सब वणइ पइसो ॥३॥ विवलसिरी यह महकै हरै, मंवरा रुणझुण कारो गावहि गीत स्वरास्वरि, गंध्रव गढ़ गिरनारो ॥४॥" बूचराजके ८ पद दि० जैन मन्दिर नागदा बूंदी ( राजस्थान ) के गुटका नं० १७९, पत्र १० पर लिखे है। दो पद निम्न प्रकार है "रंग हो रंग हो रंगु करि जिणवरु ध्याईयै रंग हो रंग होइ सुरंग सिउ मन लाइयै ।। लाईयै यहु मनुरंग इस सिउ अवरंगु पतंगिया धुलि रहइ जिउ मजीठ कपड़े तेव जिण चतुरंगिया ॥ जिवलगनु वस्तर रंग तिवलगु इसहि कान रंगाव हो कवि 'वल्ह' लालचु छोडु झूठा रंगि जिवरु ध्याव हो ॥३॥ रंग हो रंग हो मुकति वरणी मनु लाइयै रंग हो रंग हो भव संसार न आईये Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १०१ श्रयै नहु संसार सागर जीय बहु दुख पाइयै जिस वा चहुगति फिरथा लोडै सोइ मारगु ध्याइयै तिमुह तारणु देउ भरहंतु सुगुण निजु गाइयै afar 'a' area छोड झंडा मुकति सिउरंग लाइये || ४ || " २९. छीहल ( वि० सं० १५७५ ) छील सोलहवीं शताब्दी के सामर्थ्यवान् कवि थे । विविध शास्त्र भण्डारोंमे यत्किचित् भी जीवन उनकी पाँच रचनाएँ प्राप्त हुई हैं । किन्तु उनमें कविका परिचय निबद्ध नही है । उनपर राजस्थानीका प्रभाव है। अतः यह सिद्ध है कि वे राजस्थानके निवासी थे। उनकी कृतियाँ मुक्तक है । उन्हे आध्यात्मिक भक्तिका निदर्शन कहना चाहिए | उनमें दो तो रूपक ही है । समूची मुक्तक रचनाको रूपकके रूपमे निर्माणको शैली जैनोकी अपनी है । पंचसहेली गीत ' इसका निर्माण वि० सं० १५७५, फाल्गुन सुदी १५ को हुआ था । इसमें ६८ पद्य है । मालिन, तम्बोलनी, छीपनी, कलालनी और सुनारिन पाँच सहेलियाँ है । पाँचोंने अपने-अपने प्रियके विरहका वर्णन किया है । वास्तवमे वह परमात्माका ही विरह है । जब प्रिय मिल जाता है, तो वह भी ब्रह्मके मिलन - जैसा ही पुष्ट होता है । उसकी साधना है । प्रेम उत्पन्न होकर विरहमे अधूरी नही रह पाती । प्रिय-मिलन होता है। उससे परम आनन्दकी प्राप्ति होती है । यह एक सुन्दर रूपक-काव्य है । इसमें पाँच सहेलियाँ भिन्न-भिन्न जीवोंकी प्रतीक है । उनका प्रिय मिलन ही ब्रह्म-मिलन है । यहाँ रूपकके माध्यम से ब्रह्म-मिलनकी धुन मे विरहजन्य पीड़ा मुख्य है । मालिनका पति उसे भरे यौवनमे छोड़कर कहीं चला गया है। उसका दुःख अनन्त हैं । कमल-वदन मुरझा गया है और वनराजि-जैसा शरीर सूख गया है । पिया बिना उसे एक-एक क्षण, एक-एक बरसके बराबर लगता है । जिस शरीररूपी वृक्षपर यौवन-रससे भरे स्तनरूपी दो नारंगी लगे थे, वह विरहकी अग्निमे १. यह गीत, लूणकरणजी पाण्ड्या मन्दिर, जयपुरके गुटका नं० १४४ में अंकित है । २. संवत् पनर पचहत्तर पूनिम फागुण मास । पंच सहेली वरणवी कवि छीहल्ल परगास || पंचसहेली गीत, पद्य ६८, वही गुटका । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि उसने चम्पाकी पंखड़ियोंसे एक नया यदि वह इसे पतिके बिना पहने तो अंगोंको अंगारों-सा प्रति सूखने लगा है, और सींचनेवाला दूर है। हार गूंथा था । भासित हो, "कमलवदन कुमलाइया सूकी सूख बनराइ | विन पीया रइ एक पिन बरस बराबरि जाइ ॥ तन तरवर फल लग्गीया दुइ नारिंग रसपूरि । सुकन लागा विरह-ल सींचनहारा दूरि ॥ चम्पाकेरी पंखडी गूंध्या नवसर हार । जइ इहु पहिरउ पीव बिन लागइ अंग अंगार ॥" पतिके बिना विरहने तम्बोलनीकी चोलीके भीतर घुसकर उसके शरीरको मारा है। उसके पत्ते झड़ गये है और वेलि सूख गयी है। वसन्तकी रात काटना दूभर हो गया है । ग्रीष्मके सन्तप्त दिन कैसे करें, छाया देनेवाला पति परदेश चला गया है। छीपनीके दिलकी पीरको दूसरा जान ही नही सकता। उसके तनरूपी कपड़ेको, विरहरूपी दर्जी दुःखरूपी कतरनीसे, दिन-रात काटता चला जाता है, पूरा ब्यौंत नहीं लेता । विरहने उसके सुखको नष्ट कर, दुःखका संचार किया है, किन्तु एक उपकार भी किया है, जो उसकी देहको जलाकर छार कर दिया । इससे उसको दुःखोसे मुक्ति मिल गयी । कलालीको देहपर मदमाते यौवनको फाग ऋतु बिखरी हुई है । किन्तु पति दूर है, अतः वह किसके साथ १. दूजी कहइ तंबोलनी सुनि चतुराई बात विरहइ मारया पीव बिन चोली भीतरि गात ॥ २४ ॥ पात झंडे सब रूख के बेल गई तन सुक्कि दूभर राति वसंत की गया पीयरा मुक्कि ||२६| तन बाली बिरहउ दहइ परीया 'दुक्ख असेसि ए दिन दूभरि कंउ भरइ छाया प्रीय परदेसि ॥ २८ ॥ २. तीजी छोपनि आखीया भरि दुइ लोचन नीर । दूजा कोई न जानई मेरइ जीयइ की पीर ॥ ३१ ॥ तन कपडा दुख कतरनी दरजी विरहा एह । पूरा ब्यौतं न योतइ दिन-दिन काटइ देह ||३२|| सुख नाठा दुख संचरया, देही करि दहि छार । विरह कीया कंत बिन इम अम्हसु उपगार ॥३६॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १०३ होली खेले। उसे तो 'विसूरि विसूरि' कर मरना है । सुनारिन विरहरूपी समुद्रमे इस भांति डूब गयी है कि उसकी थाह नहीं मिल पाती । उसके प्राणोंको मदनरूपी सुनारने हृदयरूपी अंगीठीपर जला- जलाकर कोयला कर दिया है। २ अब उनके चेहरे आह्लादित कतिपय दिनोंके उपरान्त फिर वे पाँचों मिलीं। थे । उनका साईं आ गया था । उनके दिन सुखमें बीत रहे थे । वियोग देनेवाला वसन्त चला गया। अब वर्षाऋतुका आगमन हो गया, तो पति भी आ गया है । मनकी सब आशाएं पूरी हो गयी है । तम्बोलनीने चोली खोलकर, अपार यौवनसे भरे गातको निकाला और पतिके साथ बहुत प्रकारसे रंग किया, नयनसे नयन मिलाया । इसे ही रभस आलिंगन कहते है । इसके लिए कबीरका दिल मचला था और उससे भी पूर्व मुनि रामसिंहका । साधक जीव जब ब्रह्मसे मिलता है, तो ऐसे ही अंगसे अंग मिलाकर मिलता है। बिना एक हुए वह रह ही नहीं सकता । तम्बोलनीका यह मिलन रहस्यवादको तुरीयावस्था हैं । परम आनन्द उसीका पर्यायवाची है। वह मिलन देखिए, "चोली खोल तम्बोलनी काव्या गात्र अपार । रंग कीया बहु प्रीयसुं नयन मिलाई तार ॥ ५९॥ " पन्थीगीत यह मंन्दिर दीवान बघीचन्दजी, जयपुरके गुटका नं० २७, वेष्टन नं० ९७३ में निबद्ध है । इसमें केवल छह पद्य हैं । यह भी एक रूपक काव्य है । इसमें प्रचलित कथाका सहारा लेकर रूपककी रचना की गयी है । एक रास्तागीर राहमे चलते-चलते सिंहोके वनमें पहुँच गया। वहीं रास्ता भूल जानेसे वह इधर-उधर भटकने लगा । ऐसी ही अवस्था में उसे, सामने एक मदमत्त हाथी आता हुआ दिखाई दिया। उसका रूप रोद्र था और वह क्रोधमें १. पाता यौवन फाग रिति परम पीया दूरि । रली न पूरी जीय की मरउ विसूरि विसूरि ॥ ४२ ॥ २. कहइ सुनारी पंचमी अंग अपना दाह । हुं तउ बूडी विरहमइ पांउ नाहीं याह ॥ ४५ ॥ हया अंगीठी मूसि जिय मदन सुनार अभंग । कोयला कीया देह का मिल्या सवेइ सुहाग ॥४६॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अपनी शुण्डाको इधर-उधर हिला रहा था। पथिक भयभीत होकर भागने लगा। हाथी भी उसके पीछे-पीछे लग चला। आगे एक अन्धा कुआं था। वह घास-फूससे ढंका था। पन्थी उसे न जान सका और उसमे गिर गया। उसने एक सरकनी टहनी पकड़ ली, जो कुएंको दीवालमें उग आयी थी। उसके सहारे लटकता हुआ वह कठिन दुःख भोगने लगा। ऊपर हाथी खड़ा था, चार दिशाओंमे चार सर्प थे, नीचे अजगर मुंह बाये पड़ा था। टहनीकी जडको दो चूहे काट रहे थे। __उस कूपके पास एक बड़का वृक्ष था। उसमें मधु-मक्खियोंका छत्ता लगा था। हाथीने उसे हिला दिया। अगण्य मक्खी उड़ने लगीं। साथ ही छत्तेसे मधु भी चू उठा और उसकी बूंदें पन्थीके मुंहपर गिरने लगी। उसकी रसना उनका रसास्वादन ले उठी । उस आनन्दमें वह अपने घोर दुःखको भूल गया, "उहिसमौ मधु कणौ अहिर ऊपर पड़त रस रसना लीयो। वा ब्यूंद के सुष लागि लोभी सब्बै दुख बीसरि गयो ॥४॥" यहाँ मधुका बूंद ही सांसारिक सुख है। जीव पथिक है। अज्ञान भयानक हाथी है। संसार ही कुओं है । गति सर्प है। व्याधियां ही मक्खियां है । निगोद अजगर है। यह संसारका व्यवहार है। अतः हे गवार ! तू चेत जा । जो मोहरूपी निद्रामें सोते हैं, वे अत्यधिक असावधान है। शरीर और इन्द्रियोके रसमें भटककर इसने जिनेन्द्र-जैसे परम ब्रह्मको भुला दिया है, अतः उसका नर-जन्म व्यर्थ है। छीहलका कथन है कि अबतक तू नाना दीर्घ दुःखोंको सहन करता रहा है। अब जिनेन्द्रको बतायो युक्तिसे तू मुक्तिके परम सुखको प्राप्त कर सकता है, "संसार को एहु विवहारौ चित चेतहु रे गंवारो ! मोह निद्रा में जे सुता, ते प्राणी भति बेगुता ॥ प्राणी बेगुता बहुत ते जिन परम ब्रह्म बिसारियो । भ्रम भूलि इंदि तनौरसि नर जनम वृथा गंवाइयो । बहु काल नाना दुख दीरघ सझा 'छीहल' कहै करि धर्म । जिन भाषित जुगतिस्यौ त्यो मुक्ति पद रहौ ॥६॥" उदरगीत ___यह गीत भी उपर्युक्त गुटके में ही संकलित है। इसमें केवल चार पद्य है। कृति सुन्दर है । जीव दस मास गर्भमें रहता है। उसे अत्यधिक कष्ट सहने पड़ते हैं। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य वह सोचता है कि इस बार उबरनेपर जिनेन्द्रकी भक्ति करूंगा । जन्म लेता है । संसारकी हवा लगती है, तब वह मूर्ख सब कुछ भूल जाता है । "उदर उदधि में दस मासाह रह्यौ । fisोषि बहु संकटि सह्यौ । बहु संकट उदर अंतरि चितवै चिंता घणी । उबरौ अबकी बार जै हु भगति करिस्यो जिणतणी । ऐसोल संकट पडिहि बोलै बहुडि जगत जामण लयो । संसार की जब वहति लागि मूढ सत्र बीसरि गयो || १ || " १०५ बालकका जन्म हुआ। जमीनपर लोटता रहा। जब भूख लगी, माँका स्तन रोकर पी लिया । मुखसे लार चूनी रही । लक्ष्य - अलक्ष्य और भक्ष्याभक्ष्यमे कोई अन्तर नही किया । बालपन खो दिया, जिनवरकी भक्ति नही की। फिर यौवन आया, उसके नशेमे चारों ओर घूमा, परधन और परतियको ताकता फिरा । ऐसा करनेमे उसे आनन्द आया । किन्तु वह मूर्ख यह न समझ सका कि यह 'विषफल' है, 'अमीफल' तो जिनकी सेवा है। परब्रह्म विसार देनेसे काम, माया, मोहने उसपर अधिकार कर लिया | भावपूर्वक जिनवरकी पूजा नहीं की, यौवन व्यर्थ ही खो दिया, १४ "ओवन मातो नर चिहुँ दिसि ममै, परधन परतिय ऊपरि मनखै । मनखै परधन देखि परतिय चित ठाइ नरषए । छंडे अमीफल सेव जिनकी विषय विषहल चाखए । काम माया मोह व्याप्यो परब्रह्म विसारियो । पुजियो न जिनवर मावसेथी वृथा जीवन हारीयौ ॥३॥" बैरी बुढापा आ गया । सुधि-बुधि नष्ट होने लगी । कानोंने सुनना बन्द कर दिया । नेत्रोकी ज्योति घुंबली पड़ गयी । किन्तु जीवनके प्रति मोह और अधिक बढ़ गया । छीलका कथन है कि हे नर ! तू भ्रममें पड़कर भटकता क्यों फिर रहा है । युक्तिपूर्वक जिनेन्द्रकी भक्ति कर । तू मुक्तिलीलाका आनन्द ले सकेगा, "जरा बुढ़ापा बैरी आइयो, सुधि-बुधि नाठी जब पछिताइयो । पछिताइयो जब सुधि नाठी, श्रवण सबद न बूझए । जीवण कारणि करै लालच, नयन मग न न सूझर । अब कहै छोहल सुण रे नर, भ्रम भूले कांई फिरौ । करि भगति जिन की जुगति स्यौ, त्यो मुकति लीलइ वरौ ॥४॥ " Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि पंचेन्द्रियवेलि ___ यह कृति दि० जैन मन्दिर, पाटौडी, जयपुरके गुटका नं० ६५, पृ० ३०७ पर अंकित है। इसमे भी मनको इन्द्रियोंकी संगतिसे हटाकर जिनेन्द्र भक्तिको ओर उन्मुख किया गया है । जैनोंका वेलि-साहित्य विशाल है। वेलि शब्द संस्कृतके 'वल्ली' और प्राकृतके 'वैल्लि' से समुद्भूत हुआ है। वाङ्मयको उद्यान मानकर, उसकी प्रवृत्तियोंको वृक्ष अथवा वृक्षांगवाची नामोसे अभिहित किया जाता रहा है । जैन वेलि-साहित्य तीन प्रकारका होता है : ऐतिहासिक, कथानकवाची, और उपदेशात्मक । प्रस्तुत कृतिका स्वर तीसरे प्रकारका है। अन्तमे जिनेन्द्रभक्तिको ओर मोड़ देनेके कारण उसको भक्ति-परकता भी स्पष्ट ही है । इसमें चार पद्य है। मनको सम्बोधन करके लिखा गया है। मन चंचल है, भटकनेकी उसकी आदत है। उसे आराध्यकी भक्तिकी ओर मोड़नेका काम भक्त कवि करते रहे है। कबीरका 'चेतावणी को अंग' और तुलसीदासकी "विनय-पत्रिका' इस दिशाकी महत्त्वपूर्ण कड़ियाँ है। जैन और बौद्ध कवियोंका तो उसपर परम्परागत अधिकार ही है। यहां छीहलने लिखा है कि यदि घट पवित्र नहीं है, तो जप, तप और तीर्थ सभी कुछ व्यर्थ है। पहले घटका पवित्र' होना आवश्यक है । उसका उपाय है जिनवरका चिन्तवन । उससे भव-समुद्र तिरा जा सकता है, "कलि-विष-कोटि विनासौ जिनवर नाम जु लाये । जै घट निरमल नाही का जप-तप तीर्थ कराये । का जप तप तीर्थ कराये जै परद्रोह न छंदो। लंपट इन्द्री लघु मिथ्याती जन्म अपणो भंटी। छीहल कहै सुरागै रे नर बावरे सीख सयाणी करीए । चितवन परम ब्रह्म कीजे तो भव दुह सायर तरीए ॥४॥" नाम बावनी इसमें ५० पद्य है। यह एक उत्तम काव्यका निदर्शन है। इसमे विविध विषयोंपर तल्लीन होकर लिखा गया है। अन्तमें जिनेन्द्रके नाम-माहात्म्यका उल्लेख है। उन पद्योंकी विनयपत्रिकाके पदोंसे तुलना की जा सकती है। यह कृति मन्दिर ठोलियान, जयपुरके गुटका नं० १२५ में संकलित है । इस गुटकेका लेखन-काल वि० सं० १७१२, ज्येष्ठ सुदी २ दिया हुआ है । 'नामबावनी'का निर्माण वि० सं० १५८४ में हुआ था। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३०. भट्टारक रत्नकीर्ति (वि० स० १६००-१६५६ ) रत्नकोत्तिके पिताका नाम सेठ देवीदास और माताका नाम सहजलदे था। वे जैनोकी हुँबड जातिमे उत्पन्न हुए थे। बागड प्रदेशका घोषानगर उनका जन्मस्थान था । बुद्धि तीव्र थी। बचपनसे ही सिद्ध होने लगा था कि बालक होनहार है । एक दिन वहाँ भट्टारक अभयनन्दि आये । बालककी प्रतिभाने उन्हे प्रभावित किया। उन्होंने मां-बापकी स्वीकृतिसे उसे शिष्यरूपमे स्वीकार कर लिया। भट्टारक अभयनन्दि अपने युगके ख्यातिप्राप्त व्यक्ति थे। वे एक ओर सिद्धान्त, काव्य, ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद एवं मन्त्र-विद्यामे पारंगत थे, तो दूसरी ओर व्यवहारकुशल तथा प्रभावशाली भी थे । रत्नकीत्ति उन्हींके पास रहे, अध्ययन किया। कतिपय वर्षोंमें ही वे भी प्रामाणिक विद्वान् माने जाने लगे। व्युत्पन्न तो थे ही। अभयनन्दिने उन्हें अपना पट्टशिष्य घोषित किया, और वि० सं० १६४३ मे भट्टारक-पदपर अभिषिक्त कर दिया। वहां वे संवत् १६५६ तक बने रहे । कुछ पहलेसे उनका रचना-काल माना जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति विद्वान् हो, चरित्रवान् हो, सुन्दर हो और लक्ष्मी उसके चरणों तले भूलुण्ठित होती रहती हो, तो वह अतिमानव ही कहलायेगा। रत्नकोत्तिमे ये सभी गुण थे। सौन्दर्यके क्षेत्रमें शायद वे अपने युगके सबसे अधिक सुन्दर युवक ये । वे दूसरे उदयन ही थे। दोक्षा, संयमश्री, मुक्तिलक्ष्मी आदि अनेक कुमारियोंके साथ उनका विवाह हुआ था। उनके सौन्दर्यके गीत उनके शिष्योंने गाये है । कवि गणेशकी कतिपय पंक्तियां है, "अरध शशिसम सोहे शुम माल रे। वदन कमल शुभ नयन विशाल रे॥ दशन दाडिम सम रसना रसाल रे। अधर बिम्बाफल विजित प्रवाल रे॥ कंठ कम्बूसम रेखात्रय राजे रे । कर किसलय-सम नख छवि छाजे रे ॥" उनका शिष्य-परिवार पर्याप्त बड़ा था। एक शिष्या वीरमतिने वि० सं० १. बलात्कारगणकी सूरतशाखाकी ही एक परम्परा भ० लक्ष्मीचन्द्रके शिष्य अभय चन्द्रसे प्रारम्भ हुई। उनके पट्टशिष्य थे अभयनन्दि। अभयनन्दिके शिष्य थे रत्नीकीतिं । भट्टारक सम्प्रदाय, जीवराजग्रन्थमाला, शोलापुर, पृष्ठ २००। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि १६६२ मे भगवान् महावीरकी मूर्ति प्रतिष्ठित करायी थी।' शिष्य जयसागरने बलसाढ़ नगरमे हुए प्रतिष्ठा-महोत्सवका वर्णन किया है। उसमे भट्टारक रत्नकोत्ति अपने संघसहित शामिल हुए थे। शिष्योमे कुमुदचन्द्र सर्वश्रेष्ठ थे । उनकी प्रत्येक रचनामें गुरु रत्नकीतिका स्मरण किया गया है। उन्हीको वि० सं० १६५६ मे अपने पट्टपर प्रतिष्ठित कर रत्नकीति नितान्त उदासीन हो गये थे। उनकी रचनाएँ ___ भट्टारक-पदसे अनेक उत्तरदायित्व सम्बद्ध थे। उनका ठोक निर्वाह करनेके लिए कठोर हृदयको आवश्यकता थी। अधिकाश भट्टारक ऐसे ही हो जाते थे । किन्तु रत्नकोत्तिका हृदय सरस था। वे जन्मजात कवि थे। उनका मर्म सदैव द्रवणशील रहता था। उनके रचे ३८ पद इस कथनके साक्षी है। राजुलने बहुत हटका, किन्तु निष्ठुर नेत्र नहीं माने। हृदय फाड़कर बह चले, उस गिरिकी ओर जानेको आकाक्षा थी, जहाँ नेमीश्वर रहते थे। नहीं तो फिर और क्या करते । यहाँ तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता। रजनी कभी समाप्त ही नही होती, "वरज्यो न माने नयन निठोर । सुमिरि-सुमिरि गुन भये सजल धन, उमंगि चले मति फोर ।। चंचल चपल रहत नहिं रोके, न मानत जु निहोर । नित उठि चाहत गिरि को मारग, जे ही विधि चन्द्रचकोर ।। तन मन धन यौवन नहीं भावत, रजनी न जावत भोर । रतनकीरति प्रभु वेग मिलो, तुम मेरे मन के घोर ॥" नेमिनाथफागु ___ इसमे ५१ पद्य है। इसकी रचना हांसोट नगरमे हुई थी। इसका भी सम्बन्ध नेमीश्वर-राजुलके प्रसिद्ध कथानकसे है। दिगम्बर कवियोंने बहुत कम १, सं० १६६२ वर्षे वैशाख वदो २, शुभ दिने श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० अभयचन्द्रदेवाः तत्पट्टे भ० अभयनन्द तच्छिष्य आचार्य श्रीरत्नकीति तस्य शिष्याणी बाई बीरमती नित्यं प्रणमति श्रीमहावीरम् । वही, लेखांक ५२२, पृष्ठ १६३ । २. नमिबिलास उल्हासस्युं, जे गास्ये नर-नारि । रत्नकीरति सूरीवर कहे, ते लहे सौख्य अपार ।। हांसोट मांहि रचना रची, फाग राग केदार । श्री जिन जुग धन जाणीये, सारदा वर दातार ॥ नेमिनाथफागुकी हस्तलिखित प्रति, पद्य ५१, श्री यश-कीति-सरस्वती-भवन, ऋषभदेव । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य फागुओंकी रचना की है। उनमें भट्टारक ज्ञानभूपणका 'आदीश्वरफागु' सबसे बड़ा है। पिछले पृष्ठोंपर इसका उल्लेख हो चुका है। भट्टारक विद्याभूषणके 'नेमिनाथफागु' मे भी २५१ पद्य है। तीसरा ब्रह्मरायमल्ल रचित 'नेमिनाथफागु' है । यह एक छोटी कृति है। प्रस्तुत रचना चौथा फागु है। इसमे राजुलकी सुन्दरताका एक चित्र इस प्रकार है, "चन्द्रवदनी मृगलोचनी मोचनी खंजन मीन । वासग जीत्यो वेणिई, श्रेणिय मधुकर दीन ॥ युगल गल दाये शशि, उपमा नासा कीर । अधर विद्रुम सम उपमा, दंतनू निर्मल नीर ॥ चिबुक कमल पर षट्पद, आनंद करे सुधापान । ग्रीवा सुन्दर सोमती, कम्बु कपोलने बान ॥" नेमिवारहमासा ___यह एक लघु कृति है। इसमें केवल १२ त्रोटक छन्द है। विरवर्णनके अन्तर्गत 'बारहमासा' आवश्यक तत्त्व माना जाता था। बारह महीनोमे विरहिणीको क्या दशा होती थी, यह दिखाना ही अभीष्ट रहता था। जायसीके 'नागमतीविरहवर्णन' मे भी 'बारहमासा' शामिल है। कविने 'ज्येष्ठमास' का वर्णन किया है। इस मास में 'काम' अधिकाधिक सता उठता है । वह किसी उपायसे उपशम नहीं होता। उसकी ऐसी बेचैनी रहती है कि न तो भोजन अच्छा लगता है और न आभूषण ही सुहाते है, "आ जेष्ठ मासे जग जलहरनो उमाहरे । काई बाप रे वाय विरही किम रहे रे ॥ आररते भारत उपजे अंगरे। अनंग रे संतापे दुख कहे रे ॥ केहने कहे किम रहे कामिनी आरति अगाल । चारु चंदन चीर चिंते माल जाणे ख्याल ॥ कपूर केसर केलि कुंकम केवड़ा उपाय। कमल दल जल छांटणा वन रिपु जाणे वाय ।। १. इसकी भी हस्तलिखित प्रति उपयुक्त भवनमें मौजूद है। उसकी अन्तिम प्रशस्ति है, "लि० संवत् १६१४ वर्षे कात्तिकमासे शुक्ल पक्षे चतुर्थ्या तिथौ भौम दिने लिखितमिदं पुस्तक, जयतु । श्रीकाष्ठासंघे नंदीतटगच्छे विद्यागणे भट्टारक श्रीविद्याभूषण तत् शिष्य ब्रह्मश्री जयपाल पठनार्थ तथा परोपकारार्थं भवतु।" २. इसकी हस्तलिखित प्रति, दि० जैनमन्दिर, संघीजी, जयपुरके ज्ञानभएडारमें है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि भावे नहीं भोजन भूषण, कर्ण केरा माप । रालि करें कर माप ।" परी नग में पान नीको, मध्यकालीन कवियोंने 'विरह' का विवेचन करते हुए 'काम' शब्दका बहुत प्रयोग किया है । किन्तु यह 'काम' शब्द कामदेवका नहीं, अपितु 'विरह' का पर्यायवाची रहा है । पहले 'विरह' के अर्थमे 'काम' का प्रयोग होता था । कालिदास 'कामार्त्ता हि प्रकृतिकृपणा चेतनाचेतनेषु' मे भी 'काम' 'विरह' का ही प्रतीक है । अतः कोई यह न समझे कि नेमिनाथके विरहमे राजुल 'कामप्रपीडिता' रहती थी । ३१. ब्रह्म रायमल्ल ( वि० सं० १६१५ ) ब्रह्म रायमल्ल सत्तरहवीं शताब्दी के प्रथम पादके समर्थ कवि थे । उन्होंने और प्रसादगुणसे युक्त राजमल्ल हो चुके है । हिन्दी के अनेकानेक काव्योंकी रचना की। इनकी भाषा सरस है । इनके पूर्व सोलहवी शताब्दी के अन्तिम पादमे पाण्डे दोनोंमें भेद स्पष्ट है' । पाण्डे राजमल्ल संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंशके विशिष्ट विद्वान् थे । उन्होंने हिन्दीमे तो केवल छन्द-शास्त्र लिखा है । छन्द-शास्त्रमे भी अधिकतर दृष्टान्त अपभ्रंशके ही है । कविवर बनारसीदासने इन्हीं राजमल्लका उल्लेख किया है । डॉ० जगदीशचन्द्र जैनने इन्हीं राजमल्लके विषयमे लिखा है कि आप जैनागमके बड़े भारी वेत्ता एक अनुभवी विद्वान् थे I ब्रह्म रायमल्ल जन्मसे ही जो कवि थे । उनमे हृदयपक्ष प्रधान था । उन्होंने • कुछ लिखा हिन्दीमें लिखा, संस्कृत - प्राकृत में नहीं। उन्होंने जैन नैयायिकों और सैद्धान्तिकोंका भी अध्ययन किया था, किन्तु उनकी शुष्कतासे प्रभावित नही हुए । उन्होंने जैन धर्मके मूल तत्वोंको मानवकी मूल वृत्तियोंके साथ आगे बढ़ाया । उनके काव्यों सरसता है । संस्कृत 'भक्तामर स्तोत्रवृत्ति को इनकी रचना माना जाता है। इसके आधारपर रायमल्लका जन्म 'हूबड़' वंशमें हुआ था। उनके पिताका नाम 'मा' १. पं० नाथूरामजी प्रेमीने दोनोंको एक ही समझा था । हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृ० ५० । २. उधृत कामताप्रसाद जैन, हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृ० ७६ । ३. सेठके कूंचा मन्दिर, दिल्लीकी प्रतिमें लेखकका नाम मुनि रत्नचन्द पड़ा है, इस विषय में खोजकी आवश्यकता है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य और माताका नाम 'चम्पा' था। उनकी माता अनेक गुणोंसे सम्पन्न थीं और व्रतादिक कार्य करती ही रहती थी। वे जिनेन्द्रकी भक्त थीं और इसी कारण उनके पुत्र रायमल्ल भी व्रती और 'जिनपादकंजमधुप' बन सके थे। माताका प्रभाव पुत्रपर पड़ता है । ब्रह्म रायमल्लके गुरुका नाम मुनि अनन्तकीत्ति था। वे मूलसंघ शारदगच्छके आचार्य रत्नकोत्ति के पट्टपर अवस्थित थे। ब्रह्म रायमल्लके रचे हुए सात हिन्दी काव्य उपलब्ध हुए है। इनमें 'नेमीश्वररास' वि० सं० १६१५, मे, 'हनुवन्त कथा' वि० सं० १६१६ मे, 'प्रद्युम्नचरित्र' सं० १६२८ मे, 'सुदर्शनरास' सं० १६२९ मे, 'श्रीपालरास' सं० १६३० में और 'भविष्यदत्त कथा' सं० १६३३ मे रची गयो। 'निर्दोषसप्तमी व्रतकथा' भी इन्हींकी कृति है। उसपर रचना-संवत् नहीं है। इनकी भाषामे गुजरातीका पुट है। अपभ्रंशके शब्दोंका भी प्रयोग हुआ है। नेमीश्वर रास यह रास भगवान् नेमीश्वरकी भक्तिमें बना है। उसमें भगवान् नेमिनाथ तथा राजुलकी कथाका आश्रय लिया गया है। कथानकके रुचिकर होते हुए भी काव्य साधारण कोटिका है। हनुवन्त कथा जैनोंकी प्राचीन कथाओंके अनुसार हनुमान् अंजना-पुत्र थे। अंजना भगवान जिनेन्द्रकी परम भक्त थी। पुत्र भी तदनुरूप ही बना। जैनोंके बलभद्र रामकी भक्ति कर वे अमर हो गये। आराध्यके भक्तोंकी भी भक्ति होती रही है। हनुमान्की भक्तिमे भी अनेक काव्य और रासादिकोंका निर्माण हुआ है। 'हनुवन्त कथा' भी उसी परम्पराका एक काव्य है। __पवनंजै राय, हनुमान्के पिता थे। उनके यहां भगवान् जिनेन्द्रके पूजनकी तैयारियां हो रही है । कुमकुम और चन्दन घिस लिया गया है, उसमे कपूर मिला दिया है। केतकीके पुष्प मंगवा लिये है, उनमें से सुगन्धि निकल रही है। पवनंजने पूजनकी थाली भगवान् जिनेन्द्रके चरणोंमें समर्पित की। उन्हे विश्वास है कि ऐसा करनेसे आत्मा शुद्ध होगी और एक दिन मोक्ष भी मिल जायेगा, १. जैन ग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली, पृ० १०० । २. इसकी एक हस्तलिखित प्रति, सेठ कूँचाके मन्दिर, दिल्लीमें तथा एक प्रति जन सिद्धान्त भवन आरामें मौजूद है। इसी प्रतिके अन्तमें रचना-काल वि० सं० १६१६, वैसाख बदी नवमी दिया है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि "कूकू चंदन घसिवा घरणी, मांझि कपूर मेलि अति धणी। जिणवर चरण पूजा करी, अवर जन्म की थाली धरी ॥ 'राय' भोग केतकी सवास, सो भाविया वंदऊ जास। 'जिणवर आगै धरै पषालि, जाणि मुकति सिर बंधि पालि ॥४१-४२॥" सन्ध्याका समय है। पवनजैराय मित्रोंसहित अपने मन्दिरके ऊपर बैठे है । घोंसलोकी ओर उड़ते हुए पक्षी आसमानमे शब्द कर रहे है । सरोदरके किनारे आते ही उनका 'पुलक' और भी मुखरित हो उठा। वहाँके वृक्षोंपर ही उनके घोंसले है । दिशाओंका लाल मुख काला पड़ गया है। चकवा-चकवी भी पृथक्पृथक् हो गये हैं । चित्रमे स्वाभाविकता है और रस भी, "दिन गत भयो आथयो माण, पंषी शब्द करै असमान । मित्त सहित पवनंजै राय, मन्दिर ऊपर बैठो जाय । देखे पंखी सरोवर तीर, करै शब्द प्रति गहर गहीर । दसै दिसा मुष कालो भयो, चकहा चकिही अन्तर लयो॥" कविने वीर बालकका ओजस्वी चित्र खोचा है । हनुमान् क्षत्रियके पुत्र थे। वीरता उनका स्वभाव था। उनके बाल-तेजसे शत्रु-घटाएं ऐसे विदीर्ण हो जाती है, जैसे बाल-सूर्यसे अन्धकार फट जाता है। सिंह चाहे छोटा ही हो फिर भी दन्तियोको मारनेमे समर्थ होता ही है। सघन वृक्षोसे व्याप्त वन कितना ही विस्तीर्ण हो, अग्निका एक कण ही उसे जलानेमे समर्थ है, "बालक जब रवि उदय कराय, अन्धकार सब जाय पलाय ॥ बालक सिंह होय अति सूरो, दन्तिघात करे चकचूरो । सघन वृक्ष बन अति विस्तारो, रत्तो अग्नि करे दह छारो ॥ जो बालक क्षत्रिय को होय, सूर स्वभाव न छाड़े कोय ॥" प्रद्युम्नचरित्र इसकी एक हस्तलिखित प्रति आमेरशास्त्रभण्डारमें सं० १८२० की लिखी हुई मौजूद है। इस काव्यको रचना हरसोर गढके जिनेन्द्र मन्दिर में हुई थी। वहाँ देव, शास्त्र, गुरुके भक्त श्रावक लोग रहते थे। प्रशस्तिमें ग्रन्थका रचनाकाल वि० सं० १६२८ दिया गया है। प्रारम्भमें ही जगत्के नाथ तीर्थंकरको वन्दना करते हुए कविने लिखा है कि उनका स्मरण करनेसे मन उत्साहसे भर जाता है। अठारह दोष दूर हो जाते हैं, और छियालीस गुण उत्पन्न होते हैं, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य "हो तीर्थकर बंदू जगनाथ । तोह सुमिरण मन होइ उछाह तो हुआ छ अरु होय जी सी ॥ तिह कारण रहै घट पूरि गुण छीयालीस सोभे भला जी।। दोष अठारह किया दूर तो रास भणौ परचमन को जी ॥" सुदर्शन रास यह रास आमेरशास्त्रभण्डारमे मौजूद है। काव्यको रचना वैशाख शुक्ला सप्तमी वि० सं० १६२९ मे हुई थी। वह सम्राट अकबरका राज्य-काल था। कविने अकबरके लिए लिखा है कि वह इन्द्रके समान राज्यका उपभोग कर रहा था । उसके हृदयमें भारतके षट् दर्शनोंका बहुत अधिक सम्मान था, "साहि अकबर राजई, अहो भोगवे राज अति इन्द्र समान । और चर्चा उर राखै नहीं हो छः दरसण को राखै जी मान ॥२॥" काव्यको भाषापर गुजरातीका प्रभाव है और उसकी रचना साधारण ही कही जा सकती है। भगवान् आदिनाथको प्रणाम करते हुए कविने मंगलाचरणमें लिखा है, "प्रथम प्रणमों आदि जिणिंद, नामि राजा कुल उदयाजी चंद। नगर अयोध्या अपने स्वामी पूरब लाख, चौरासी सी जी आई, मरुदे जी मात हे उर धरिडं।" श्रीपालरास इसकी एक प्रति आमेरशास्त्रभण्डार में मौजूद है । इसमें ४० पन्ने है । कुल पद्योंकी संख्या २९७ है । इसका लिपि संवत् १६८९ और रचना सं० १६३० है। इसमे राजा श्रीपालकी कथा है। वे 'कोटीभट' कहलाते थे। अर्थात् उनमे एक करोड भटोंका बल था। सौन्दर्य में कामदेवके समान थे। पूर्व कर्मोके विपाकसे वे कोढ़ी हो गये। एक राजा अपनी कन्या मैनासुन्दरीसे नाराज होकर उसका विवाह उनके साथ कर गया। मैनासुन्दरी भगवान् जिनेन्द्रकी भक्त थी । उसने भगवान्की भक्ति को और जिनेन्द्रको एक मूतिके प्रक्षालित-जलसे ही अपने पतिका कोढ़ ठीक कर लिया। श्रीपाल फिर पहले-जैसे ही सर्वांगसुन्दर हो गये। इस प्रकार काव्यमे जिनेन्द्रको 'भक्ति ही प्रमुख है। मनोरम कथानक और भक्तिपूर्ण भावोने काव्यको उत्तम कोटिका बना दिया है। भापामें शिथिलता है किन्तु खटकनेवाली नहीं । मंगल पद्य इस प्रकार है, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि " हो स्वामी प्रणमो आदि जिणंद, बंदौ श्रजित होई आनंद । संबंदौ जगति स्यौ, हो अभिनंदन का प्रणमो पांइ ॥" भविष्यदत्त कथा धनपालकी अपभ्रंश 'भविसयत्तकहा' प्रो० याकोबी द्वारा सम्पादित होकर सन् १९९८ मे म्यूनिककी 'रॉयल एकेडेमी' से प्रकाशित हुई थी । धनपालके पश्चात् अनेकानेक भविष्यदत्तकथाओंका निर्माण होता रहा । प्रस्तुत काव्य भी उसी परम्पराकी एक देन है । 'भविष्यदत्तकथा' को पंचमी व्रत कथा भी कहते है । इसमे पंचमी - व्रतका माहात्म्य बताया गया है । ग्रन्थका मुख्य आधार भक्ति है । भगवान् जिनेन्द्रकी भक्तिके कारण ही भविष्यदत्त अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त के द्वारा दिये गये भीषण दुःखोंका उन्मूलन कर सका। उसकी माँ 'सुयपंचमी' व्रत रखती है, और वह स्वयं भगवान् जिनकी पूजा करता है । अतः ठीक समयपर एक देवने सहायता की और उसको पत्नी तथा धन-सम्पत्ति दोनों ही प्राप्त हो गये । इसकी एक प्रति वि० सं० १६९० की लिखी हुई आमेरशास्त्र भण्डार में मोजूद है । इसमें ६७ पन्ने है । प्रशस्तिमे लिखा है कि इसका निर्माण सं० १६३३ मे कार्तिक सुदी चौदसको शनिवारके दिन हुआ था । उस दिन स्वाति नक्षत्र और सिद्धि योग था । इस काव्यकी रचना ढूंढाहड देशके सांगानेर नामके स्थानपर हुई थी । सांगानेरकी शोभाका वर्णन करते हुए कविने लिखा है कि उसकी चारों दिशाओं में सुन्दर बाज़ार थे, जिनमे मोती हीरोंका व्यापार होता ही रहता था । वहाँ भगवान् जिनेन्द्रका एक बहुत ऊँचा मन्दिर भी था । उसमें वेशक़ीमतो तोरण टॅगे थे, बहुमूल्य चंदोवा तने थे । वहाँ राजा भगवतदास राज्य करता था । अनेकों राजकुमार उसकी सेवा करते थे । प्रजाको सब प्रकारका सुख था । दुःखी और दरिद्रोंकी भी आशाएं पूरी होती रहती थीं। वहीं बड़े-बड़े धनवान् श्रावक रहते थे । वे जयजयकार करते हुए भगवान् अरिहन्तको पूजा प्रतिदिन करते थे, 1 "देस ढूंढाहर सोभा वणी, पुंजें तहां आलि मणतणी । निमल तले नदी बहु फिरै, सुख से बसै बहु सांगानेरि ॥ १. सोलह से तैतीसा सार, कातिक सुदी चौदस सनिवार । स्वाति नक्षत्र सिद्धि शुभजोग, पीडा खन व्यापै रोग ॥ अन्तिम प्रशस्ति । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य चहुंदिसि बाण्या मला बजार, भरे पटोला मोती हार । भवन उत्तुंग जिनेश्वर तणा, सोभै चंदवा तोरण घणा ॥ राजा राजै भागवतदास, राजकुँवर सेवहिं बहु तास । परजा लोग सुखी सुख बसें, दुखी दलिद्री पुरवै भास ॥ श्रावक लोग बसै धनवंत, पुजा करहि जयहि अरहंत । उपराउ परी बैरन कास, जिहि अहिमिंद सुर्ग सुख वास ॥" ११५ ३२. कुशललाभ ( वि० सं० १६१६ ) कुशललाभ जैसलमेरके रावल हरराजके आश्रित कवि थे । रावल हरराजका समय सत्तरहवीं शताब्दीका प्रथम पाद माना जाता है । कुशललाभका रचनाकाल भी यह ही था । उक्त रावलजीके कहनेसे ही उन्होने राजस्थानीके आदिकाव्य 'ढोला मारू रा दूहा' के बीच-बीचमे अपनी चौपाइयाँ मिलाकर प्रबन्धात्मकता उत्पन्न करनेका प्रयास किया था । इसपर डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीका कथन है, "मुझे लगता है कि भावपूर्ण पदोके बीच रासलीला आदिके समय कथासूत्रको जोड़ने के लिए ये चौपाई-बद्ध पद बादमे जोड़े गये होगे। ढोलाके दोहोंका कथासूत्र मिलानेमे कुशललाभने इसी कौशलका सहारा लिया था ।" यह कहना ठीक नहीं है कि समय-समय पर उसमे दाँव-पेंच भरी हुई कथाओंकी चिप्पियाँ लगाकर उसे मुक्त कसे 'आख्यानक काव्य' बना देनेके प्रयत्न हुए है ।" इन चौपाइयोंसे विरहरसमे कोई व्याघात नही पहुँचा है, अपितु कथाके एक सूत्रमे बँध जानेसे 'प्रबन्धकाव्य' का आनन्द आया है, तो फिर वे 'कथाओको चिप्पियाँ' कैसे हो सकती है । इसके अतिरिक्त वे 'दांव-पेंच भरी' तो तब हों, जब उन्होंने मूलकथाको स्वाभाविकताको विनष्ट किया हो । किन्तु ऐसा नही हुआ है । 3 कुशललाभ खरतरगच्छ के समर्थ गुरु श्री श्री अभयदेव उपाध्याय के शिष्य थे १. हिन्दी साहित्यका आदिकाल, बिहार- राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १६५२ ई०, पृष्ठ ६७/ २. नामवरसिंह, हिन्दी के विकास में अपभ्रंशका योग, साहित्यभवन लिमिटेड, इलाहाबाद, नवीन संस्करण, १६५४ ई०, पृष्ठ २८२ | ३. श्री षरतर गच्छि सहि गुरुराय, गुरु श्री अभयधर्म उवझाय । तेजसार रास, अन्त, १५वॉ पद्य, जैनगुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृष्ठ २१४ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि ऐसा प्रतीत होता है, जैसे उन्हें कवित्व शक्ति जन्मसे ही मिली थी । उन्होंने भक्ति, शृंगार और वीर जैसे प्रमुख रसोपर सफल कविताएं कीं। उनकी शृंगारपरक रचनाका नाम 'माधवानल चौपाई' है । इसे 'माधवानल - कामकन्दला' भी कहते है । इसकी रचना भी श्रावक हरराजकी प्रेरणा से ही फागुन सुदी १३, रविवारके दिन सं० १६१६ मे हुई थी। इसमे साढ़े पांच सौ चौपाइयाँ है । इसमें माधवानल और कामकन्दलाके प्रेमको कथा है। कही लोकमर्यादाका उल्लंघन नहीं हो सका, यही इसकी विशेषता है । आज भी यह ग्रन्थ राजस्थान और गुजरातमे बहुत प्रसिद्ध है । कुशललाभने भक्तिसे प्लावित अनेकानेक काव्योंकी रचना की और उनमे कतिपय ये है : 'श्रीपूज्यवाहणगीतम्', 'स्थूलिभद्रछत्तीसी', 'तेजसार रास', ' स्तम्भन पार्श्वनाथस्तवनम्', 'गोडीपार्श्वनाथस्तवनम्' और 'नवकार छन्द' | ११६ श्रीपूज्यवाहणगीतम् यह गीत, ऐतिहासिक जैन - काव्यसंग्रहमे संकलित है। काव्य सरस है, भाव सुन्दर और भाषा रम्य । कविने भक्तिपूर्ण भावोसे श्रीपूज्यवाहणके चरणोमे अपनी पुष्पांजलि अर्पित की है । गुरुके प्रवचनों के अर्थको वृक्षोंने समझा है, और उसीमे तन्मय होकर मानो वे झूम उठे है । कामिनी कोयलमधुर स्वरमे गुरु महाराजके ही गीत गा रही है। 'पूज्यती देशना' से प्रभावित होकर ही मानो गम्भीर गगन बारम्बार गाज रहा है । मयूरोकी थिरकन और चकोरोको पुलकपूर्ण आँखोमे गुरूपदेशका शुभ भाव स्पष्ट झलक रहा है, "प्रवचन वचन विस्तार अरथ तरवर घणा रे । कोकिल कामिनी गीत गायइ श्री गुरु तणा रे 1 १. रावल मालि सुपाट धरि, कुंवर श्री हरिराज । विरचिएह सिणगारसि तास कुतूहल काज ॥ संवत् सोल सोलोतरइ, जैसलमेर मझारि । फागुण सुदि तेरसि दिवस, विरचि आदित्यवार ॥ गाथा साठी पांचसइ, ए चउपइ प्रमाण । माधवानल चौपई, अन्तिम प्रशस्ति, प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, पृष्ठ २४७-२४८ । २. ऐतिहासिक जैन-काव्यसंग्रह, अगरचन्द नाहटा द्वारा सम्पादित, कलकत्ता, वि० सं० १६६४, पृष्ठ ११०-११७ । 1 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य गाजइ-गाजइ गगन गम्भीर श्री पूज्यनी देशना रे। मवियण मोर चकोर थायइ शुम वासना रे ॥६३॥" गुरुके ध्यानमे स्नान करते ही शीतल वायु मस्त चालसे चल रही है। सारा संसार सुगन्धिसे महक रहा है और वह सुगन्धि गुरूपदेशकी ही है। गुरु महाराजके कारण ही विश्वके सातो क्षेत्रोमे धर्म उत्पन्न हो सका है। यदि ऐसे गुरुका प्रसाद उपलब्ध हो सके तो अवश्य हो सुख मिलेगा, ऐसा भक्तको विश्वास है, "सदा गुरु ध्यान स्नान लहरि शीतक वहइ रे । कीर्ति सुजस विसाल सकल जग मह महइ रे । साते क्षेत्र सुढाम सुधर्मह नीपजइ रे। श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख संपजइ रे ॥६॥" स्थूलभद्र-छत्तीसी यह काव्य बीकानेरको अनूप संस्कृत लायब्रेरीके एक गुटकाके पृष्ठ ९१-९८ पर संकलित है। इसमे रचना-काल नही दिया है । कुल ३७ पद्य है। यह काव्य आचार्य स्थूलभद्रकी भक्तिमे निर्मित हुआ है । इसकी भाषामे सरसता और भावोमे स्वाभाविकता है। प्रारम्भमे हो 'स्थूलभद्र-छत्तीसी' कहनेकी प्रतिज्ञा करते हुए कविने लिखा है, "सारद शरद चन्द्र कर निर्मल, ताके चरण कमल चितलाइकि । सुणत संतोष होइ श्रवणण कुं, नागर चतुर सुनहु चितचाइकि ॥ कुशललाम बुति आनन्द भरि, सुगुरु प्रसाद परम सुख पाइकि । करिहं थूलभउ छत्तीसी, अतिसुन्दर पइबंध बनाइकि ॥१॥" यह कान्य गुरु-भक्तिके अन्तर्गत आता है। गुरुकी महिमा अपार है। शिष्य कितने ही अपराध करे, किन्तु उसे विश्वास रहता है कि उदार गुरुसे क्षमा मिल ही जायेगी, "वैसा वाइक सुणी भयउ लजित मुणि, सोच करि सुगुरु कइ पास आवई । चूक अब मोहि परी चरण तदि सिर धरि, आप अपराध प्रापई खमावइ ॥३७॥" १. राजस्थानमे हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, चतुर्थ भाग, अगरचन्द नाहटा सम्पादित, साहित्य संस्थान, उदयपुर, १९५४ ई०, पृष्ठ १०५ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि ऋषि स्थूलभद्र निर्मल हो चुके है। उन्होंने पापरूपी मलोको विगलित कर दिया है। उनके सुयशके वर्णन करनेमे भक्त-कविको परम आनन्द प्राप्त होता है, "धन्य थूलिभद्र रिषि निर्मल परखि, वाहि कइ सरिस कुण नर कहावइ । धरति जे ब्रह्म तप सुजस तिनका, सूवन कुशल कवि परम आनन्द पावइ ॥३७॥" तेजसार-रास यह रास गुरु अभयधर्म उपाध्यायको प्रेरणासे लिखा गया था। इसकी रचना वीरमपुर नामके नगरमै वि० सं० १६२४ में हुई थी। वाचक कुशललाभका कथन है कि इस जिनपूजाको जो कोई पढ़ता है, उसके सब मनोरथ पूर्ण हो जाते है । "श्री षरतर गच्छि सहि गुरुराय, गुरु श्री अमयधर्म उवमाय । सोलहसई चउबीसि सार, श्री वीरमपुर नयर मझार । अधिकारई जिनपूजा तणइ, वाचन कुशल लाम इम भणइ । जे वांचई नई जे सांमलइ, तेहना सहू मनोरथ फलई ॥१५-१६॥" यह दोप-पूजासे सम्बन्धित काव्य है। इसकी उपलब्ध प्रति पौष शुक्ला १४ वि० सं० १६४४ को तपागच्छके सहजविमलने राजपुरमे को थी। श्रीसहजविमल तपागच्छाधिराज परमगुरु भट्टारक श्रीहेमविमलसूरिके शिष्य मुख्य पण्डित श्री सुमतिमण्डल गणिके शिष्य थे। प्रारम्भमे ही जिन-प्रतिमाके पूजनकी महिमाका उल्लेख है। जिन-प्रतिमा जिनेन्द्रके समान ही है। उसकी पूजा करनेसे इहभव और परभव दोनों ही संभल जाते है, "श्री सिद्धारथ कुलसिलुं चरम जिणेशर वीर। पान्नुगि प्रणमी तसतणा सोविनवन्नसिरीर ॥ १. इति तेजसार दीपपूजाविषये रास समाप्त, सं० १६४४ वेष, पोस सु० १४ राजपुर नगरे, तपागच्छाधिराज श्रीश्रीपरमगुरु भट्टारक श्री हेमविमलसूरि, तत् शिष्य मुख्य पण्डित श्री सुमतिमंडण गणि, तत् शिष्य सहजविमलेन लिखितो अयं रास । जनगुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृ० २१५ । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य जिनवर श्रीमुषि उपदिसउं भविकलोक सुषकाजि । जिन प्रतिमा जिन सारणी माषि श्रीजिनराजि ॥ प्रतिमा जिननी जिनसूरि प्राण हि एकति अहिभव परभव सुष लहई इम भाषई अरिहंत ॥१-३॥" स्तम्भनपार्श्वनाथस्तवनम् ___ श्री कुशललाभने इस स्तवनको रचना खम्भातमें, वि० सं० १६५३ में की थी। स्तम्भन पार्श्वनाथकी सातिशय मूत्ति है। संस्कृतमे स्तम्भन पार्श्वनाथको लेकर अनेकों स्तुति-स्तोत्रोकी रचना होती रही है। तरुणप्रभाचार्य और जिनसोमसूरिके स्तम्भनपार्श्वनाथस्तवनोका संकलन 'मन्त्राधिराजकल्प' में हुआ है। हिन्दीमे कुशललाभका 'स्तम्भनपार्श्वनाथस्तवनम्' उसी परम्परामे है। इस स्तवनका आदि और अन्त निम्न प्रकारसे है, आदि "प्रभु प्रणमुरे पास जिणेसर थमणौ, गुण गावारे भुज मन उलट अति घणौ । ज्ञानी विणरे एहनी आद न को लहै, तोहें पणिरे गीतारथ गूरु ईम कहै ॥" अन्त "ईमि स्तन्यो स्थंभण पास स्वामी नयर श्रीषमायतें, जम सहा गुरु श्रीमुष सुणिव वाणि सास्त्र आगल संमते । ए आद मूरति सकल सुरति सेवता सुख पांमीए, मनभाव आणि लाभ जाणि, कुशललाम पजपये ॥" गौडीपार्श्वनाथस्तवनम् __ गौडी पार्श्वनाथको भी सातिशय प्रतिमा है। उसके दर्शन करनेसे रोग-शोक दूर हो जाते है । श्री यशोविजयका संस्कृतमे लिखा हुआ 'गौडीपार्श्वनाथस्तवन' अत्यधिक प्रसिद्ध है। श्री कुशललाभका 'गोडोपार्श्वनाथस्तवन' हिन्दीकी रचना है । इसमे २३ पद्य है। स्तवनमे गौडीपार्श्वनाथकी भक्ति ही मुख्य है । कविने १. इसकी हस्तलिखित प्रति, श्री दि० जैन मन्दिर बधीचन्दजी, जयपुरके गुटका मं० ६२ में निबद्ध है। २. यह स्तवन, बडोदराके श्री शान्तिविजयजीके भण्डारमें मौजूद है। इसकी दूसरी प्रति, जयपुरके पं० लूणकरणजीके मन्दिरमें, गुटका नं० ६६ में अंकित है। ३. जनस्तोत्रसन्दोह १, मुनि चतुरविजय-द्वारा सम्पादित, अहमदाबाद, पृ० ३६४ । ४. जैन गुर्जरकविओ, पहला भाग, पृ० २१६ । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि प्रारम्भमे उस सरस्वतीकी हाथ जोड़कर वन्दना की है, जो सुराणी है, स्वामिनी है, और वचन - विलासकी ब्रह्माणी है । वह एक ऐमी ज्योति है, जो समूचे विश्वमे व्याप्त है, १२० "सरसति सामनी आप सुराणी, वचन विलास विमल ब्रह्माणी, सकल जोति संसार समाणी, पाद परणमुं जोडि युग पाणि ॥ १ ॥ " ist पार्श्वनाथको वन्दना केवल नर ही नही, किन्तु असुर, इन्द्र, देव, व्यन्तर और विद्याधर आदि सभी करते है । भगवान पार्श्व जिनेन्द्र समूचे संसार के नाथ है । भगवान्के दर्शन उस चिन्तामणिके समान है, जो सभी मनोवांछितोंको पूरा कर देती है । जिनके दर्शनोंमें ऐसी शक्ति हो, उसको महिमा अपरम्पार है, "तेणि धरा जस तुअ उदधि तिहां दिप असंखित, व्योम धरणि पायाल आण सुर बहे अखंडित । असुर इन्द्र नर अमर विविध व्यंतर विद्याधर, सेवे तुज पाय सय न माज सुजपे निरंतर । जगनाथ पास जिनवर जयो मनकामित चिंतामणी, कवि कुशललाभ संपति करण धवलधींग गौडीघणी ॥ अन्तिम कलश || नवकार छन्द १ इसमे १७ पद्य हैं । इसकी हस्तलिखित प्रति अहमदाबाद के गुलाबविजयजी - के भण्डार में मौजूद है। इसमें पंच परमेष्ठीकी वन्दना की गयी है। श्री कुशललाभने लिखा है कि उसका नित्य जाप, संसारकी सुख-सम्पत्तियोंको प्राप्त कराता है, और सिद्धि भी प्रदान करता है । एकचित्तसे पंचपरमेष्ठीको आराधना करनेसे अनेकों अभिलषित ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती है, " नित्य जपीई नवकार संसार संपति सुखदायक, सिद्धमंत्र शाश्वतो इम जंपे श्री जगनायक । नवकार सार संसार दे कुशललाभ वाचक कहे, एकचित्ते आराधीई विविध ऋद्धि वंछित लहे || अन्तिम कलश ॥ " १. जैन गुर्जरकविश्रो, पहला भाग, पृ० २१६ । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३३. साधुकीर्ति ( वि० सं० १६१८) ___ साधुकीत्तिकी गुरु-परम्परा इस प्रकार है : मतिवर्धन, मेरुतिलक, दयाकलश और अमरमाणिक्य ।' अमरमाणिक्य साधुकोत्तिके गुरु थे। ये खरतरगच्छके साधु थे, उन्होंने स्यान-स्थानपर जिनचन्द्रसूरिका स्मरण किया है। एक साधुकीर्ति और हो गये है, जो बड़तपगच्छके जिनदत्तमूरिके शिष्य थे। दोनोंमे भिन्नता स्पष्ट है। साधुकोत्ति भक्त-कवि थे। उन्होंने अनेक स्तुति-स्तोत्रोंकी रचना की। उनमें प्रसिद्ध ये है : 'पदसंग्रह', 'सत्तर-भेदी पूजाप्रकरण', 'चूनड़ी', 'रागमाला', 'शत्रुजय स्तवन', 'नमिराजर्षि चौपई'। इनकी भाषापर गुजरातीका विशेष प्रभाव है। सत्तर-भेदी पूजाप्रकरण इसकी रचना अणहिलपुरमें वि० सं० १६१८ श्रावण शुक्ला ५ को हुई थी। इसकी हस्तलिखित प्रति जयपुरके ठोलियोंके दि. जैन मन्दिरमे गुटका नं० ३३ में संकलित है। श्री कस्तूरचन्द कासलीवालने इसका रचनाकाल वि. सं० १६५८ लिखा है, जब कि इसके अन्तिम पदसे वि० सं० १६१८ सिद्ध है। इसका आदि-भाग इस प्रकार है, "ज्योति सकल जगि जागती है, सरसति समरसु मंद । सत्तर सुविधि पूजातणी, पमणिसु परमानंद ॥" चूनड़ी इसकी प्रति जयपुरके ठोलियोंके जैन मन्दिरमे गुटका नं०१०२ मे निबद्ध है। इस गुटकेका लेखनकाल सं० १६४८ है, अतः यह सिद्ध है कि रचना सं० १६४८ से पहले ही हुई होगी। इसकी पूरी रचना 'थाउलपुरि सोहामणउ, गढ मढ मन्दिर वाई हो' चालमे की गयी है। रागमाला इसकी प्रति भी ठोलियोके दिगम्बर जैन मन्दिरमें गुटका नं० ३३ में निबद्ध है। १. साधुर्कात्ति, आषाढ़भूति-प्रबन्ध, अन्त भाग, पद्म १८२-१८३, जैनगुर्जरकविप्रो, भाग १, पृ० २२० । २. संवत् १६ अठार श्रावण सुदि । पंचमि दिवसि समाजइ ॥३॥ . ___ जैनगुर्जरकविओ, भाग १, पृ० २२० । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि शत्रुजय स्तवन इसकी रचना १७वी शताब्दीके प्रथम पादमें हुई। इसकी एक हस्तलिखित प्रति श्री मोहनलाल दुलीचन्द देसाईके पास है । उसका आदि-अन्त इस प्रकार है । आदि “पय प्रणमी रे, जिणवरना शुभ भाव लई। पुंडरगिरि रे, गाइसु गुरु सुपसाऊ लई ॥" अन्त "इम करीय पूजाय थाजो गहि संघ पूजा आदरई, साहम्मिवच्छल करई मवियाँ, भव समुद्र लीला तरई, संपदा सोहग तेह मानव, रिद्धि वृद्धि बहु लहई, अमरमाणिक सोस सुपरइ, साधु कीरति सुख लहई ॥" नमिराजर्षि चौपई ___ इसकी रचना नागौरमे वि०सं० १६३६ माघ शुक्ला ५ को हुई थी। इसकी प्रति १७वी सदीकी लिखी हुई ही मौजूद है, जिसमें ५ पत्रे है। अन्य स्तोत्र-स्तवन ____ 'एकादशी स्तोत्र', 'विमलगिरि स्तवन', 'आदिनाथ स्तवन', 'सुमतिनाथ स्तवन', 'पुण्डरीक स्तवन', 'जिनादि कवित्त', 'नेमिस्तवन' और 'नेमिगीत' भी साधुकीत्तिकी हो रचनाए हैं। ३४. हीरकलश (वि० सं० १६२४) हीरकलश खरतरगच्छके श्वेताम्बर साधु थे। इसी शाखामे श्री जिनचन्द्रसूरिका जन्म हुआ था, जिनका नाम सुनते ही वादि जन पलायन कर जाते थे। उन्हींके पट्टपर आगे चलकर श्री देवतिलक उपाध्याय विराजमान हुए। उनमें अगाध पाण्डित्य और सुजनताका अभूतपूर्व समन्वय था। उनके शिष्य हर्षप्रभु नामके मुनि हुए । हीरकलश उन्हींके शिष्य थे। १. जैनगुर्जरकविओ, भाग १, पृष्ठ २२०-२२१ । २. जैनगुर्जरकविश्रो, भाग ३, पृष्ठ ६६६ । ३. वही, पृष्ठ ७००। ४. जैनगुर्जरकविओ, भाग १, पृष्ठ २३४-२४० तथा भाग ३, पृष्ठ ७२५-२८ । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १२३ हीरकलशका रचनाकाल वि० सं० १६२४ से १६७७ तक माना जाता है। होरकलशकी सात रचनाएँ प्राप्त है : 'सम्यक्त्वकौमुदी', 'सिंहासन बत्तीसी', 'कुमतिविध्वंस चौपाई', 'आराधना चौपई', 'मुनिपति चरित्र चौपई', 'सोलह स्वप्नसज्झाय', 'अठारह नातरां सम्बन्धी सझाय।' सम्यक्त्वकौमुदीरास ___इसकी रचना वि० सं० १६२४ माह सुदी १५ बुधवार पुष्यनक्षत्रमें हुई थी। कविने रचनास्थलका उल्लेख करते हुए लिखा है कि मैने इस रासकी रचना 'सवालष' नामकी नगरीमे की, जहांके धार्मिक-स्नेहने मुझे बांध लिया था।' इसकी सबसे प्राचीन प्रति वि० सं० १६५२ भाद्र बदी ४ भौमवारकी लिखी हुई मौजूद है, जिसे वनासुत परीष वीरदासने अपने पढ़नेके लिए लिखा था। इस काव्यमे १०५० पद्य है और सभी चौपाइयोमे निबद्ध है। इस रासमें अनेक भक्तोंके चरित्रोका सरस वर्णन है। भाषामे लय है और भावोंमे भक्तिकी सरसता। सिंहासन बत्तीसी इस काव्यकी रचना वि० सं० १६३६ आसोज बदी २ को, सवालष देशके अन्तर्गत मेडता नामके नगरमे हुई थी। इसकी एक प्रति मेवाड़के सरस्वती भण्डारमे वि० सं० १६४६ कात्तिक सुदी १२ रविवारकी लिखी हुई मौजूद है। इस प्रतिमे श्लोक-संख्या ३५०० है। सभी पद्य चौपाई और दोहोंमे हैं। वैसे तो इस काव्यमे विक्रमादित्य भोजका चरित्र वणित है, किन्तु वास्तवमे दानकी महिमा बताना ही कविका मुख्य लक्ष्य था। दानकी महिमाका उल्लेख जैनशास्त्रोके अनुसार ही किया गया है। कुमतिविध्वंस चौपई इस काव्यके निर्माण-कालका उल्लेख करते हुए कविने लिखा है, 'इसकी १. संवत सोलहसई चउवीस, माही पूनम बुध सरोस पुष्य नक्षत्रई लेह, देश सवालष नयरी जेह, धर्म तणउ जिला वाध्युनेह, तिहां कोई च उपई जेह। जैनगुर्जरकविओ, भाग १, पृष्ठ २३४-२३५ । २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग १, डॉ. मोतीलाल मेनारिया सम्पादित, हिन्दी विद्यापीठ, उदयपुर, १६४२ ई०, पृष्ठ १५२-१५३ । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि रचना वि० सं० १६७७ जेठ सुदी १५ बुधवारके दिन कर्णपुरी नामके नगरमें हुई थी।' इसकी एक प्रति वि० सं० १७५९ की लिखी हुई मौजूद है।' __ इस काव्यमे मूर्ति पूजाका समर्थन किया गया है। उस समय मुसलमान और हिन्दुओंके कुछ सम्प्रदाय मूत्ति-पूजाको कुमति मानने लगे थे। इसमे उसका निरास किया गया है। आराधना चौपई इसको रचना वि० सं० १६१३ माह सुदी १३ गुरुवारको नाणोरमे हुई थी। इसकी एक प्रति बीकानेरके नाहटा श्रीके पास है, जिसमे केवल ४ पन्ने है। दूसरी प्रति आसोज बदी १३ वि० सं० १८६९ की लिखी हुई महर भण्डारमे मौजूद है। इसमें केवल ७ पन्ने है। एक तीसरी प्रति और भी है जो १७वीं या १८वों सदीकी लिखी हुई है, जिसमै ६ पन्ने है। इस काव्यमे २४ तीर्थकरोकी आराधना की गयी है। मुनिपति चरित्र चौपई ____ इस चौपईकी रचना वि० सं० १६१८ माह वदी ७ रविवारको बीकानेरमे हुई थी। इसकी प्रति वीरगामके संघ भण्डारमे मौजूद है। इसमे कुल ७३३ पद्य है। इसमे मुनिवर मुनिपतिके चरित्रकी महिमाका वर्णन है। पूरा काव्य 'मुनिभक्ति से ओतप्रोत है। सोलह स्वप्न सझाय इस छोटे-से काव्यका निर्माण वि० सं० १६२२ भादों सुदी ५ को हुआ था। गर्भमें आनेके पूर्व तीर्थंकरकी माता १६ स्वप्न देखा करती है। उन्हींका यहाँ उल्लेख है । इसमे कुल २० पय है । अठारह नातरां सम्बन्धी सझाय ___ इसकी रचना वि० सं० १६१६ श्रावण शुक्लामें हुई थी। जम्बू स्वामीने जिन १८ नातराओका उल्लेख किया है, उन्हींका इसमें वर्णन है। इसमें कुल ५२ पद्य है। १. सोलहसै सत्तोत्तरवास, कर्णपुरी नयरी-उल्हास । जेहि पुनिम ने बुधवारे, श्री संवेगि जोग-अवतार ॥ जैनगुर्जरकविभो, भाग १, पृष्ठ २४० । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १२५ ३५. पाण्डे जिनदास ( वि० सं० १६४२ ) 'जम्बू चरित्र' मे पाण्डे जिनदासने अपना परिचय दिया है। वे आगरेके रहनेवाले थे। उनके पिताका नाम ब्रह्मचारी सन्तीदास था। कुछ विद्वानोंका कथन है कि उन्होने ब्रह्म सन्तीदासके पास शिक्षा प्राप्त की थी। हो सकता है कि उन्होने शिक्षा भी अपने पिताके समीप ही ग्रहण की हो। एक ही व्यक्ति गुरु और पिता दोनों हो सकता है। यदि 'ब्रह्म' विशेषण शंका उत्पन्न करता हो तो यह भी असम्भव नही है कि श्री सन्तीदासने पुत्रोत्पत्तिके उपरान्त ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया हो। इनका रचनाकाल बादशाह अकबरका समय माना जाता है। इन्होंने स्वयं भी ऐसा ही लिखा है। इनके आश्रयदाता अकबरके प्रसिद्ध मन्त्री टोडरशाह थे। उनके पुत्र दीपाशाहके पढ़नेके निमित्त ही 'जम्बूस्वामीचरित्र'को रचना हुई थी। टोडरशाहके परिवारके रिषभदास, मोहनदास, रूप मंगद और लछमीदासका उल्लेख भी उन्होंने किया है। वे सभी धार्मिक व्यक्ति थे और उनकी ख्याति भी विशेष थी। दीपाशाहने मथरामें एक 'निपिद्धिका'का निर्माण करवाया था। हो सकता है उन्होंने मथुराके प्राचीन जैन-स्तूपोका भी जीर्णोद्धार करवाया हो। पाण्डे जिनदासके लिखे हुए अनेक काव्योंका पता चला है। वे इस प्रकार है : 'जम्बूस्वामीचरित्र', 'योगीरासा', 'जखड़ी', 'चेतनगीत', 'मुनीश्वरोंकी जयमाल', 'मालोरासा', और 'पद' । इनमे अन्तिम चार तो नवीनतम खोजके परिणाम हैं। 'चेतनगीत' श्री दि० जैन मन्दिर बधीचन्दजी, जयपुरके गुटका नं० २७ में, 'मुनीश्वरों १. ब्रह्मचार भयो संतीदास, ताके सुत पाडे जिनदास । तित या कथा करी मनलाय, पुन्य हेत मित तत वर ताहि ॥९५॥ दि० जैन मन्दिर, बड़ौतके सरस्वती भण्डारकी प्रति । २. अकबर पातस्याह का राज. कीनी कथा धर्म के काज. भूल्यौ बिसर्यो अक्षर जहां, पंडित गुणी सवारी तहा ॥९२।। ३. कोई धर्मनिधि पासा साह, टोडल सूत आगरे सनाह । ताके नावं कथा यह करी, मथुरा मे जिहि निसही करी ॥९३।। ऋषभदास अरु मोहनदास, रूप मंगद अरु लिष्येभीदास । धर्मबुद्धि तो रहीयो चित्त, राज करे परवार संजुत्त ।।९४॥ ४. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाकी हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थोंकी खोजके वार्षिक २०वे विवरणमें पाण्डे जिनदासका विवरण, नं०३। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि को जयमाल', गुटका नं० १६० मे, 'मालीरासा', गुटका नं० १६२ में और 'पद', गुटका नं० ३२ मे सकलित है। इनके 'पद-संग्रह' का रचनाकाल वि० सं० १६७१ जेठ बदी १३ दिया हुआ है। जम्बूस्वामीचरित्र ___ 'जम्बूस्वामीचरित्र'की रचना वि० सं० १६४२ मे हुई। इसमें जम्बूस्वामी नामक एक जैन-भक्तका चरित्र है। इसकी वह प्रति, जिसका उल्लेख काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकामे है, सं० १७५१ को लिखी हुई है। हिन्दीके प्रसिद्ध जैन कवि विनोदीलालने अपने पढ़नेके लिए लिखी थी । जम्बूस्वामी जैनोके अन्तिम केवली थे और उनकी भक्तिमे ऐसी अनेकानेक रचनाएं बनती चली आ रही है । हिन्दीमे लिखा हुआ यह प्रस्तुत चरित्र भाषा और भाव दोनो ही दृष्टियोसे उत्तम कोटिका है। जब राजा श्रेणिक भगवान महावीरके समवशरणमें गया तो मानस्तम्भके समीपस्थ होते ही उसका मन कोमल हो गया, "मानस्थ्यम्भ पास जब गयौ, गयो मान कोमल मन भयो । तीन प्रदच्छिना दीनी राइ, राजा हरष्यै अंगि न माइ ॥८॥ नमसकार करि पूज कराइ, पुणि मुनि कोठे बैठो आइ। परमेसुर स्तुति राजा करै, बार-बार भगति उचरै ॥९॥" योगीरासा योगि-भक्तिका काव्य है। इसका विवरण काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाकी १७वी त्रैवार्षिक खोज रिपोर्टमे पृष्ठ ८९ पर अंकित है। बीकानेरके अभय जैन पुस्तकालयमे 'जोगी रासो'को कई प्रतियां मौजूद है। योगीरासा'को एक प्रति आमेरशास्त्रभण्डार और एक प्रति महावीरजी शास्त्रभण्डारमे भी है। _ 'योगीरासा' के दो पद्य अत्यधिक सुन्दर है, उनमें दूसरा तो आध्यात्मिक ओजका प्रतीक है। कवि कहता है, "मै मोहके विशाल पर्वतको खोदकर बहा दूंगा। स्थूल इन्द्रियोंको जीवित नही छोडूंगा। कन्दर्परूपी विकराल सर्पके टुकड़ेटुकड़े कर दूंगा और विषम विषसे भरे हुए विषयोंको तो समाप्त ही कर दूंगा, १. संवत तो सोला सै भए, बयालीस ता ऊपर गये । भादौं बदि पाँचै गुरुवार, वा दिन कथा कियौ उच्चार ॥९१॥ २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, पृष्ठ १२६-३० । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य "ना हौं राचौं णा हौं विरचौं, णा कछु मंति ण आणौ । जीव सबै कुइ केवल ज्ञानी, आप्पु समाणा जाणउ ॥२३॥ मोह महागिरि षौदि बहाऊँ. इंद्रिय थूलि न राषउ । कंदर्प सर्प निदप्प करे बिनु, विषया विषम विष नाखौ ॥२६॥" जखड़ी ____यह काव्य 'बृहज्जिनवाणी संग्रह' (पृ० ६०९-६११ ) मे प्रकाशित हो चुका है। इसका रचनाकाल वि० सं० १६७९ है। इसमें सात पद्य है। इसमे चौथा पद्य सम्यग्दृष्टिकी महिमासे युक्त है, "दसण गुण बिन जात जिके दिन सो दिन धिक-धिक जानि । धन्य सोहि सोही परमिनो, भ्रांति म मनमाहिं आनि ॥ भ्रांति सु मिथ्यादृष्टि लच्छन, संशय रहित सुदिष्टी। यों जाने विन गयौ गही जे, पद पावै परमिष्टी ॥२॥" लावणी पाण्डे जिनदासको रची हुई दो लावणी श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र महावीरजीके एक अधजले गुटकेमे निबद्ध है। "मैं भव भव माहीं देव जनेस्वर पाऊँ इन चौरासी कर माहिं फेरि नहीं आऊँ ।। जै जै जैनधरम जिनदास लावणी गाई तेरी अचल अषंडित ज्योति सदा सुखदाई ॥" चेतनगीत इस गीतमें ५ पद्य है। कविने चेतनको सम्बोधन करके कहा है, "चेतन हो तेरो परम नियन, काइ दलिद्री होइ रह्यो हो । निरमोलिक हो नग तेरे हाथ, मुठी बाँधि बीकत रह्यो । कत रह्यो मिथ्या मूंठि बांधि बि, बता नग अछता करो। निजु रत्न भीतरि जतन बाहिरि, दिष्टि कहि कैसे फुरौ ॥ इमि प्रकट परिषि बिहरषु, मानिबी बिलबिउ जिगहि जेतनौ तिम परम पंडित दिव्य दिष्टिहि, कहो तुम स्यों चेतना ॥१॥" १. महावीरजीशास्त्रभण्डारकी हस्तलिखित प्रति । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि मालीरासौ इसमें २६ पद्य हैं । यह एक रूपक काव्य है । जीव माली है और भव एक वृक्ष है । कविका कथन है कि भववृक्षके फल जहरके समान हैं, उन्हें नहीं चखना चाहिए, पद "माली वरज्यौ हो ना रहे, फल चाषण की भूष । बाधि सुगाडी गडगदी, कूदी चढ्यौ भवरूषि हो प्राणी ॥४॥ सुरडालि चढ़ी मालिया, हंसि हंसि ते फल षाय । अंति सु रोने रे कंदरो, जब माला कुमलाइ हो प्राणी ॥५॥” जिनदास के पदों में भक्त कवि हृदयकी स्वाभाविकता सर्वत्र व्याप्त है । एक पदकी कतिपय पंक्तियाँ इस प्रकार हैं, "आनंदरूपी आनंद करता विरद यही अति भारा । सुष समूह का दाता भाई महामंत्र नवकारा हो ॥ २ ॥ ऐसे प्रभु को नाम भविक जन पलक न जात बिसारा हो । जिनदास नाम बलिहारी करि हो मोहि निस्तारा हो ||३|| " ३६. त्रिभुवनचन्द्र ( १७वीं शताब्दी विक्रम पूर्वार्ध) त्रिभुवनचन्द्र हिन्दी के प्रौढ़ कवि थे । वे आगरेके रहनेवाले थे । उन्हें पाण्डे रूपचन्द्र और कवि बनारसीदासका सान्निध्य प्राप्त हुआ था । उनकी रचनाएँ उसी रंग रंगी हुई है, जो बनारसी-मण्डलको मुख्य देन थी । उनके पारिवारिक जीवन और गुरु-परम्परा के विषय में कुछ भी विदित नही है । वे अपनी रचनाओं में केवल 'चन्द्र' का प्रयोग करते हैं । उनकी हिन्दी - रचनाओमें अनित्य पंचाशत, षद्रव्य वर्णन, प्रास्ताविक दोहे और फुटकर कवित है । प्रथम दो संस्कृतकी अनुवाद मात्र है, और अवशिष्ट दो मौलिक कृतियाँ हैं । भाषा-शैलीके आधारपर चन्द्रशतक भी इन्होंकी कृति मालूम होती है । उसमें कविके उपनाम चन्द्रका ही प्रयोग है । त्रिभुवनचन्द्र, १७वीं शताब्दी के प्रथम पादके कवि थे । उनकी रचनाओमे उत्कृष्ट कोटिका साहित्य निबद्ध है । १. प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, प्रस्तावना, पृष्ठ १८ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य अनित्य पंचाशत इसमे पद्य संख्या ५५ तथा इसकी प्रति आमेर के शास्त्र भण्डारमे मौजूद है । छन्द अधिकतर छप्पय और सवैया है। इसकी दूसरी प्रति जयपुर के पण्डित लूंणकरजी के मन्दिर मे विराजमान गुटका नं० ३५ वेष्टन नं० ३१९ मे निबद्ध है । इस गुटकेपर लेखनकाल वि० सं० १६५२ पडा हुआ है । इससे सिद्ध है कि 'अनित्य पंचाशत' की रचना १६५२ से पूर्व हो चुकी थी । बनारसीदासका 'कल्याण मन्दिरस्तोत्र' भी इसी गुटके में निबद्ध है । प्रारम्भिक मंगलाचरणमे ही कविने अत्यधिक सरस ढंगसे उम भगवान्की जय-जयकार की है, जो संसारमे 'परमातम' के नाम प्रसिद्ध है, "सुद्ध स्वरूप अनूपम मूरति जासु गिरा करुनामय सोहै । संजमवंत महामुनि जोध जिन्हों पर धीरज चाप घरी है । मारन को रिपु मोह तिन्हें वह तीक्षन सारक पंकति हो है । सो भगवंत सदा जयवंत नमों जग में परमातम जो है ॥' ज्ञानीजन सासारिक हर्ष और शोकको वास्तविक नही मानते । वे इन दोनोसे ही निरपेक्ष रहते है । इस विचारसे सम्बन्धित एक पद्य देखिए, "जहाँ है संजोग तहाँ होत है वियोग सही, जहाँ है जनम तहाँ मरण को बास है । संपति विपति दोऊ एक ही भवन दासी जहाँ वसै सुष तहाँ दुष को विलास है । जगत में बार-बार फिरै नाना परकार करम अवस्था झूठी थिरता की आस है I १२९ नट कैसे भेष और और रूप होहिं तातें, हरष न सोग ग्याता सहज उदास है ॥५१॥" अन्तमे संस्कृत 'अनित्य पंचाशत' के रचयिता आचार्य पद्मनन्दिकी वन्दना की है । चन्द्रशतक इसकी प्रति जैन सिद्धान्त भवन आरामे मौजूद है। इसमें १०० पद्य है । वित्त और सर्वयोंका ही प्रयोग किया गया है। यह एक प्रौढ़ रचना है । भाषा सरल होते हुए भी सरस है और भाव सीधे-साधे होते हुए भी मधुर है । कवितामे न तो प्रसादकी कमी है और न लालित्यकी । सभी पद आध्यात्मिकतासे ओतप्रोत है । उदाहरण के लिए, १७ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "गुन सदा गुनी माहिं, गुन गुनी मिन्न नाहिं, मिन्न तो विभावता, स्वभाव सदा देखिए। सोई है स्वरूप आप, आप सो न है मिलाप, मोह के अभाव में, स्वभाव सुद्ध पेखिए । छहों द्रव्य सासते, अनादि के ही भिन्न भिन्न, आपने स्वभाव सदा, ऐसी विधि लेखिए। पाँच जड़ रूप, भूप चेतन सरूप एक, __ जानपनों सारा चंद, माथे यों विसेखिए ॥" ३७. कुमुदचन्द (वि० सं० १६४५-१६८७ ) ___ इनका जन्म गोपुर नामके गांवमे हुआ था। पिताका नाम सदाफल और माताका नाम पद्माबाई था। कुल मोढवंशके नामसे विख्यात था। यशपाल मोढके 'मोहपराजय' से विद्वान् परिचित ही होंगे। मोढ गुजराती बनियां होते थे। अवश्य ही कुमुदचन्दके पूर्वज गुजरातसे राजस्थानके गोपुर ग्राममे आ बसे होगे । उनकी रचनाओपर राजस्थानी और गुजरातीका प्रभाव है। प्राचीन हिन्दी, राजस्थानी और गुजरातीमें विशेष अन्तर नही था। अतः कुमुदचन्दकी कृतियोंको इनमें से किसी एक भाषाकी कहना संगत नही है। उन्हे जन्मसे ही उदासीन प्रवृत्ति और अध्ययनशील मस्तिष्क मिला था। पहलीका प्रभाव यह हुआ कि वे युवावस्थासे पूर्व ही उदासीन हो गये । अध्ययनशोल होनेके कारण उन्होंने शीघ्र ही व्याकरण, काव्य और सिद्धान्तपर अधिकार कर लिया। भट्टारक रत्नकोत्ति अपने शिष्यके ज्ञानको देखकर मुग्ध हो उठे। बारडोलीमें नया पट्ट स्थापित किया था। उसपर कुमुदचन्दको वि० सं० १६५६ मे अभिषिक्त कर दिया। इस पदपर वे वि० सं० १९८७ तक प्रतिष्ठित रहे। १. मोढवश शृंगार शिरोमणि, साह सदाफल तात रे। जायो यतिवर जुग जयवंतो, पद्माबाई सोहात रे ॥ धर्मसागरकृत गीत । २. संवत् सोल छपन्ने वैशाखे प्रगट पयोधर थाप्या रे । रत्नकीत्ति गोर बारडोली वर सूर मंत्र शुभ आप्या रे ॥ माई रे मनमोहन मुनिवर सरस्वती गच्छ सोहंत । कुमुदचन्द भट्टारक उदयो भवियण मन मोहंत रे॥ गणेश कवि कृत 'गुरुस्तुति। ३. वही। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य कुमुदचन्दकी ख्याति अधिक फैली, गुरु रत्नकोत्तिसे भी अधिक । राजा और नवाब भी उनको प्रशंसा करते थे। उनके विद्याबलसे बड़े-बड़े विद्वान् वशवर्ती हो गये थे। जहां जाते, जनता उनके पीछे हो जाती। इसका कारण था, विद्वत्ताके साथ-साथ वाणीकी मधुरता और हृदयकी पवित्रता। उनके शिष्य धर्मसागरने एक गीतमे लिखा है कि वे जहां विहार करते, मार्ग कुंकुमसे छिड़क दिये जाते, चौक मोतियोसे पूरे जाते और बबाये गाये जाने लगते।' ___ कुमुदचन्द विद्वान् ही नहीं, अपितु साहित्यकार भी प्रथम कोटिके थे। अबतक उनकी २८ रचनाएँ और अनेक पद तथा विनतियां प्राप्त हुई है। इनकी रचनाओमे गीत अधिक है। उनका सम्बन्ध नेमीश्वर और राजुलके प्रसिद्ध कथानकसे है । 'नेमिजिनगीत'मे राजुलका सौन्दर्य-वर्णन करते उन्होंने लिखा है, "रूपे फूटडी मिटे जूठडी बोले मीठडी वाणी । विद्रुम उठडी पल्लव गोठडी रसनी कोटडी बखांणी रे ॥ सारंग वयणी सारंग नयणी सारंग मनी श्यामा हरी। लंबी कटि ममरी बंको शंकी हरिनी मारि रे ॥" 'नेमिनाथ बारहमासा','प्रणयगीत' और 'हिण्डोलनागीत'मे राजुलका विरह मुखर हो उठा है । फाल्गुनमास आनन्दका बना होता है। पलियाँ पतियोंके साथ फाग खेलती है। उनके वदन प्रसन्नतासे सदैव खिले बने रहते है। किन्तु राजीमती क्या करे, उसके पतिने वैराग्य ले लिया है । वह लौटकर नही आयेगा। उसका विरह फूट पड़ा, "फागुण केसू फूलीयो, नर नारी स्मे वर फाग जी। हंस विनोद करे घणा, किम नाहे धर्यो वैराग जी ॥" 'वणजारागीत' में २१ पद्य है। यह एक रूपक-काव्य है। इसमे मनुष्य वणजारा है। जिस तरह वणजारे इधर-उधर घूमते-फिरते है, उसी भांति यह मनुष्य संसारमे भ्रमण करता है। दिन-रात पाप कमाता है । संसारके बन्धनसे कभी छूटता नही, "पाप कर्यो ते अनंत, जीवदया पाली नहीं। सांचो न बोलियो बोल, भरम मो साबहु बोलिया ॥" १. सुन्दरि रे सहुआवो, तो कुंकुम छडो देवडावो । वारू मोतिये चोक पूरावो, रूडा सहगुरु कुमुदचन्द ने वधावो ॥ धर्मसागरकृत गीत। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि कुमुदचन्दकी विनतियां भक्तिरसकी पिचकारियां ही है। उनका संकलन मन्दिर ठोलियान, जयपुरके गुटका नं० १३१ मे प्राप्त होता है। इस गुटकेका लेखनकाल वि० सं० १७७९ दिया हुआ है। एक विनतीकी कुछ पक्तियाँ इस प्रकार है, "प्रभु पायं लागौं करूं सेव थारी । तुम सुन लो अरज श्री जिनराज हमारी। धौं कस्ट करिदेव जिनराज पाम्यो है सबै संसारनौं दुष वाम्यौ । जब श्री जिनराजनौ रूप दरस्यो जब लोचना सुष सुभाधार वरस्यौ । लहया रतनचिंता नवनिधि पाई मानौं भागणे कल्पतर आजि भायो। मनवांछित दान जिनराज पायौ गयो रोग संताप मोहि सरब त्यागी ॥" कुमुदचन्दके पद मन्दिर लूणकरणजी पाण्डया, जयपुरके गुटका नं० ११४ मे अंकित है । एक पदमे प्रभुको मीठा उपालम्भ देते हुए भक्त कविने लिखा है, "प्रभु मेरे तुमकुं ऐसी न चहीए। सपन विधन धेरत सेवक कू मौन धरी क्यों रहिए । बिघन हरन सुख करन सबनि कू चित्त चिंतामनि कहिए । अशरण शरण अबन्धु कृपासिन्धु को विरद नीवहिए ॥ हम तो हाथ विकाने प्रभु के भब जो करैं सो सहिए। तो मनि कुमुदचन्द कहें शरणागति की सरम जु गहिए॥" उनकी कृतियोंमें 'भारतबाहुबलिछन्द' एक खण्डकाव्य है। इसके कथानकमें भरत और बाहुबलिके प्रसिद्ध युद्धको कथा है। दोनों ही भगवान् ऋषभदेवके चक्रवत्तॊ पुत्र थे। भरत बड़े और बाहुबलि छोटे थे। भरतने अपने चक्रवर्तित्वको सार्वभौम बनानेके लिए बाहुबलिको भी झुकाना चाहा। दोनोमे द्वन्द्व युद्ध हुआ। जीत बाहुबलिको हुई, किन्तु उन्हे संसारसे वितृष्णा हो गयी और वे वनमे जाकर तप करने लगे। पूरे काव्यमे दो रस प्रमुख रूपसे पनप सके है : वोर और शान्त । बाहुबलिका समूचा जीवन एक आदर्शचरित्र है । वे वीरताके वरेण्य और शान्तिके अग्रदूत है । वे ही दोनों रसोंके नायक हैं । द्वन्द्व युद्धको जाते हुए उनका एक दृश्य है, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "चाच्या मल्ल अखाडे बलीभा, सुर नर किम्मर जोवा मलीभा । काछया काछ कशी कह तांणी, बोले बांगड बोली वाणी। भुजा दंड मन सुंड समाना, ताडतावंखारे नाना। हो हो कार करि ते धाया, वछो वच्छ पड्या ले राया। हकारे पन्चारे पाडे, वलगा वलग करी ते वाडे । पग पडधा पोहोवी-तल बाजे, कडकडता तरुवर से भाजे । नाठा वनचर त्राठा कायर, छूटा मपगल फूटा सापर । गड गडता गिरिवर ते पडीओ, फूत फरंता फणपति दरीमा। गड गडगडीमा मंदिर पढीमां, दिग दंतीव मक्या चल चलीभा ॥" इस काव्यका निर्माण वि० सं० १६७० ज्येष्ठ शुक्ला छठको हुआ था। इसको एक हस्तलिखित प्रति आमेरशास्त्रभण्डार जयपुरके गुटका न० ५० में पृ० ४० से ४८ तक अंकित है। __ 'ऋषभ-विवाहला' एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इसकी रचना वि० सं० १६७८ मे घोघानगरमे हुई थी। यह उपर्युक्त गुटकेमे ही पृ० २२७ से २३४ तक निबद्ध है। इसमे ऋषभदेवकी माके १६ स्वप्न देखनेसे लेकर ऋषभदेवके विवाह पर्यन्तका विशद वर्णन है । अन्तमे वैराग्य धारण करने और मोक्ष-प्राप्तिका उल्लेख है । यह सब कुछ ग्यारह ढालोंमे सम्पन्न हुआ है । अन्तिम ढाल मुख्य है। उससे 'विवाहला' शब्द सार्थक सिद्ध होता है। भक्तिपरक कृतियोमे भौतिक विवाह 'विवाहला'नहीं कहलाता, जब आराध्यदेव दीक्षाकुमारी, संयमश्री या मुक्तिवधूका वरण करता है, तो वह 'विवाहला', 'वीवाहला', 'बीवाहलौ' आदि संज्ञाओसे अभिहित होता है। 'ऋषभ-विवाहला'को अन्तिम ढालमे मुक्तिवधूके साथ ऋषभदेवका विवाह हुआ है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि इस काव्यमे अनेक हृदयग्राही दृश्य है । ऋषभदेवका कच्छमहाकच्छ की जिस पुत्री के साथ विवाह होना था उसके सौन्दर्यका एक चित्र है, १३४ " कछ महाकछ राय रे, जेइनुं जग जश गाय रे । तस कुंअरी रूपें सोहे रे, जोतां जनमन मोहे रे । सुन्दर वेणी विशाल रे, अरव शशी सम भाल रे । नयन कमलदल छाजे रे, मुख पूरणचन्द्र राजे रे । नाक सोहे तिलनु फूल रे, अधर सुरंग तणुं नहिं भूले रे ॥" ऋषभदेव माँ मरुदेवी के गर्भमे आये । इन्द्रकी आज्ञासे विविध देवियाँ माँकी सेवा करने आ गयो । सेवामे तल्लीन देवियोका भक्ति भाव देखिए, " एक नित्य निवावे, एक पषाले पाय । एक वीजड़डे चटकावे, सरके वाय ॥ एक वेणी समारे, नयणे काजल सारे । एक पीयल काढ़े, एक अमरी सिणगारे || एक चोसर गूंथे, एक श्रापे तम्बोल | एक पग ते पीले, कुंकम सुरंग रोल ॥" जन्मके उपरान्त बालक ऋषभदेव धीरे-धीरे बढ़ने लगे, " दिन दिन रूपे दीपतो, कांइ बीजतणो जिम चंद रे । सुर बालक साथे रमे, सहु सज्जन मनिं आणंद रे ॥ सुन्दर वचन सोहामणां, बोले बाहुअडो बाल रे । रिम झिम बाजे घूघरी, पगे चाले बाल मराल रे ॥" - ७ पद्य, उपर्युक्त रचनाओके अतिरिक्त कुमुदचन्दनं, 'नेमीश्वर हमची' - ८७ पद्य, 'त्रण्यरतिगीत' - १७ पद्य, 'दशलक्षणधर्मव्रत गीत - ११ पद्य, 'शीलगीत' - १० पद्य, 'सप्तव्यसनगीत ' १३ पद्य, 'अढ़ाईगीत' - १४ पद्य, 'भरतेश्वरगीत ' - ७ पद्य, 'पार्श्वनाथगीत ' १९ पद्य, 'अन्धोलडीगीत' - १३ पद्य, 'भारतीगीत ' 'जन्मकल्याणकगीत' - ८ पद्य, 'चिन्तामणिपार्श्वनाथगीत' - १३ पद्य, 'दीपावलीगीत' - ९ पद्य, 'गौतमस्वामी चौपई' - ८ पद्य, 'पार्श्वनाथकी विनती' - १७ पद्य, 'लोडणपार्श्वनाथजी' - ३० पद्य, 'आदीश्वर विनती' - १० पद्य, 'मुनिसुव्रतगीत' - ७ पद्य, 'गोत' - १० पद्य, 'जीवडागीत' - १० पद्य, 'चौबीस तीर्थकर देह प्रमाण चौपई' १७ पद्य और ' त्रेपनक्रिया विनती - १४ पद्यका भी निर्माण किया था। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३८. कवि परिमल्ल (वि० सं० १६५१ ) कवि परिमल्लकी कुल-परम्परा इस प्रकार है : चौधरी चन्दन, रामदास, आसकरन । परिमल्ल भासकरनके पुत्र थे। चौधरी चन्दनका ग्वालियरके राजा मानके दरबारमे अत्यधिक आदर-सम्मान होता था। रामदास और आसकरनने उस ख्यातिको सुरक्षित रखा। कवि परिमल्लका जन्म ग्वालियरमे ही हुआ था, किन्तु वे आगरामे रहते थे। ग्वालियरमे मानसिक कष्ट रहने के कारण उन्होने आगराको अपनो निवास स्थान बनाया था, जैसा कि 'बसै आगरे मे तजि सल्लु' से स्पष्ट है, "ता आगै चंदन चौधरी, कोरति सब जग में विस्तरी ।। जाति वरहिया गुन गंभीर । अति प्रताप कुल मंडन धीर ॥ ता सुत रामदास परबीन । नंदनु भासकरनु सुषलीन ॥ ता सुत कुल मंडन 'परिमल्ल' । बस आगरे मैं तजि सल्लु ॥" उस समय आगरेमे सम्राट अकबरका शासन था। उसकी प्रशंसा करते हुए कविने लिखा है, "वह दूसरे सूर्यकी भांति तपता है, उसके राज्यमें कही अनीति नहीं है, और उसने समूची पृथ्वीको जीत लिया है", "बब्बर पाति साहि होइ गयो। ता सुतु साहि हिमाउ भयो । ता सुतु अकबरु साहि सुजानु । सो तप तपै दूसरौ भानु । ताके राज न कहूं अनीति । वसुधा सर करै सब जीति ॥३२॥" कवि परिमल्ल बरहिया जातिमें उत्पन्न हुए थे। उस समय बरहियोंके अनेकों घर ग्वालियरमे थे। सभी वैभव-सम्पन्न; मर्यादापूर्ण और यशस्वी थे। उनमें सर्वोत्कृष्ट होनेके कारण ही चन्दन चौधरी कहलाते थे। कहनेका तात्पर्य यह कि कविका जन्म एक उच्च परिवारमे हुआ था। श्रीपाल चरित्र यह काव्य अत्यधिक लोकप्रिय था। इसकी इतनी हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध हैं कि यहां सबका उल्लेख असम्भव ही है। छह प्रतियोंका विवरण काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाकी बीसवी त्रैवार्षिक रिपोर्ट में दिया गया है। ये प्रतियां क्रमशः वि० सं १८०७, १८३५, १८५६, १८७४, १९१३ और १. श्रीपालचरित्र, पद्य ५, काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाकी २०वी त्रवार्षिक रिपोर्ट, नं०४। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि १९२६ की लिखी हुई है। एक प्रति आमेरशास्त्रभण्डार जयपुरमे, दूसरी जयपुरके ठोलियोके दि० जैन मन्दिरमे और तीसरी जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमे मौजूद है। दिल्लीके पंचायती मन्दिरमे भी एक प्रति है। इन सबमे प्राचीन प्रति आमेरशास्त्रभण्डारकी है। यद्यपि काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाकी १९वी विवरणिकाके सम्पादकोने, इसका रचनाकाल वि० स० १६४९ निर्धारित किया है, किन्तु सभी प्राचीन प्रतियोमे वि० सं० १६५१ दिया हुआ है। यह एक उत्तम कोटिका प्रबन्ध-काव्य है। इसमें महाराजा श्रीपालका चरित्र वर्णित है। उनकी पत्नी मैनासुन्दरीने, जिनेन्द्र-भक्तिसे ही अपने पति श्रीपालका कोढ़ ठीक किया था। श्रीपाल भी भगवान् जिनेन्द्रका भक्त हो गया था। इस काव्यमे वीर और भक्ति रसका समन्वय हुमा है। इसको पढ़नेसे स्पष्ट हो जाता है कि रचयिता एक प्रौढ कवि थे। उन्होने आगरे और ग्वालियरका सजीव चित्र उपस्थित किया है। श्रीपाल और मैनासुन्दरीके जीवनको अनेक घटनाओको सुन्दरताके साथ चित्रित किया गया है । धर्म और अधर्म, पाप और पुण्य, हिसा और अहिंसाके घात-प्रतिघातोको भी सुष्ठु ढंगसे दिखलाया है। अन्तमे जैनधर्म और उसके 'भक्तिपरक गीतो' मे ही महाकाव्य पूर्ण हुआ है। ___ कविने जिन-शासन, जिन-माता और जिन-मुनियोके चरणोमे अपनी श्रद्धा समर्पित की है, "वंदौं जिन शासन को धम्म, भाप साय नासै अधकर्म । वंदौं गुरु जे गुण के मूर, जिनके होय ग्यान को पूर। वंदौं माता सींह वाहिनी, जातें सुमति होय अति धनी। वंदौं मुनियन जे गुन धम्म, नवरस महिमा उदतिन कर्म ॥ प्रशस्ति अन्तिम ॥" 'श्रीपाल चरित्र' दोहे-चौपाइयोंमे लिखा गया है। कहीपर भी यति-भंग और छन्द-भंग नही हुआ है। अनुप्रासोका चयन भी सुन्दर है । यद्यपि उसकी भाषामें तद्भव शब्दोंका प्रयोग अधिक हुआ है, किन्तु उसकी गति-शीलता कही भी विशृंखल नही होने पायी है । भाषामे व्रज, अवधी, बुन्देलखण्डी और मारवाड़ीका १. प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, पृष्ठ २७१ । इस प्रतिका लिपिकाल वि० सं० १७६४ दिया हुआ है। २. राजस्थानके जैन शास्नभण्डारोंकी ग्रन्थसूची, भाग ३, पृष्ठ २१६ । ३. वही, पृष्ठ ७६1 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १३७ मिश्रण है । कहीं दीनो, लीनी, कही दियौ, लियो, अजहूँ और कहो कहाड़े, सुवासिणि, सीसाण और मणूं आदि शब्दोका प्रयोग है । मिश्रण होते हुए भी भाषाको 'सधुक्कड़ी' की संज्ञा नहीं दी जा सकती, क्योकि उसमे साहित्यिकता है । ३९. वादिचन्द्र ( वि० सं० १६५१ ) ये मूलसंघके भट्टारक ज्ञानभूषण के प्रशिष्य और प्रभाचन्द्रके शिष्य थे । इनकी गद्दी गुजरातमे कहीं पर थी । इनकी गुरुपरम्परा विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्रके रूपमें कही जाती है । वादिचन्द्र एक समर्थ साहित्यकार थे । उन्होंने संस्कृत और गुजराती मिश्रित हिन्दी में लिखा । इनका संस्कृतमे लिखा हुआ 'पार्श्वपुराण' १५०० श्लोकप्रमाण है। उसकी रचना वाल्हीक नगरमे कात्तिक सुदी ५ वि० सं० १६४० को हुई थी ।' 'ज्ञानसूर्योदय' नाटककी तो बहुत ही ख्याति है । उसका निर्माण माघ सुदी ८ वि० स० १६४८ को मधूकनगरमे हुआ । 'पवनदूत' तो कालिदासके मेघदूतके आधारपर रचा गया एक सरस खण्ड-काव्य है । इसमें कुल १०९ पद्य है ।' 'यशोधर चरित्र' अंकलेश्वर भँरोचके चिन्तामणि पार्श्वनाथके मन्दिर में, वि० सं० १६५७ में पूर्ण किया गया । ર १. वादिचन्द्र, श्रीपाल आख्यान, प्रशस्ति, पद्य ५-८, जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ ३८७, पादटिप्पणी २ । २. शून्याब्दो रसाब्जाके वर्षे पक्षे समुज्ज्वले | कात्तिकमासि पंचम्यां वाल्हीके नगरे मुदा 11 पार्श्वपुराण, प्रशस्ति, ३ श्लोक, प्रशस्तिसंग्रह, भाग १, वीर सेवामन्दिर, दिल्ली, प्रस्तावना, पृ० २४, पाद टिप्पणी १ । ३. वसु- वेद- रसाब्जाके वर्षे माघे सिताष्टमी दिवसे । श्रीमन्मधूकनगरे सिद्धोऽयं बोधसंरम्भः ॥ ज्ञानसूर्योदय नाटक, प्रशस्ति, ३ पद्य, जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३८५, पादटिप्पणी ४ | यह नाटक, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बईसे, सन् १६०६ में, पं० नाथूराम प्रेमी अनुवादसहित प्रकाशित हो चुका है। ४. इसे खण्डकाव्यको स्वर्गीय पं० उदयलालजी काशलीवालने सन् १९१४ में हिन्दी अनुवाद सहित जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित किया था | अब यह निर्णयसागर प्रेसकी काव्यमालाके तेरहवें गुच्छकमें छपा है । ५. अंकलेश्वर सुग्रामे श्रीचिन्तामणिमन्दिरे । सप्तपंच रसाब्जांके वर्पेsकारि मुशास्त्रकम् ॥ यशोधरचरित्र, प्रशस्ति, ८१वॉ पद्य, प्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली, प्रस्तावना, पृ० २४, पादटिप्पणी ४ | १८ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि 'सुलोचना चरित्र' की एक हस्तलिखित प्रति वि० सं० १६६१ की लिखी हुई मिली है । ग्रन्थरचना उससे कुछ पूर्व हुई होगी । १३८ उन्होंने गुजराती मिश्रित हिन्दीमे भी अनेक रचनाएँ की । उनमें महत्त्वपूर्ण ये है : 'श्रीपाल आख्यान', 'भरत बाहुबली छन्द', 'आराधना गीत', 'अम्बिका कथा' और 'पाण्डवपुराण' । श्रीपाल आख्यान इस आख्यानकी एक प्रति बम्बईके ऐलक पन्नालाल सरस्वतीभवनमें मौजूद है । श्री मोहनलाल दुलीचन्द देसाईने जिस प्रतिका उल्लेख किया है, वह वि० सं० १६७६ पौष बदी ३ की लिखी हुई है । आख्यानके विषयमे पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने लिखा है कि यह एक गीतिकाव्य है और इसकी भाषा गुजराती मिश्रित हिन्दी है । इसकी रचना संघपति घनजी सवाके कहनेसे वि० सं० १६५१ मे हुई थी । इसमे आकर्षणकी कोई कमी नही है | नौ रसोंका प्रयोग हुआ है । भाषा में प्रवाह और सरलता है । काव्यमे अधिकतर दोहे और चौपाईका प्रयोग हुआ है। प्रारम्भिक मंगलाचरण देखिए, " आदि देव प्रथमं नमि, अंति श्री महावीर । वाग्वादिनि वदने नमि, गरुड गुण गंभीर ॥" “सरसति सुमति णये अणुंसरि, गौर गहना गोयम मनि भरि । बोलु एक हुँ सरस आख्यान, सुण जे सज्जन सहु सावधान ॥ ५,, इस काव्य के पढ़नेसे जिनेन्द्र के प्रति भक्तिपूर्ण भावोंका उदय होता है । चंचल चित्त स्थिर होकर भगवान्‌की भक्तिमे लग जाता है। दान देने, जिनपूजा करने और सम्यक्त्व धारण करने में मन लगता है । णत्रकार मन्त्रके उच्चारणमे, और ब्रह्मको धारण करनेमें हृदय आनन्दका अनुभव कर उठता है । इस गीतके गानेसे नर-नारियोको अनेक प्रकारके मंगल प्राप्त होते है, "भवियन थिर मन करीनें सुणज्यो नित सम्बन्ध जी ॥९॥ १. इसकी एक हस्तलिखित प्रति ईडरके शास्त्रभण्डारमें मौजूद है, और दूसरी ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वतीभवनमें है । २. जैनगुर्जरकविप्रो, तीजो भाग, पृ० ८०४ । ३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३८७ । ४. संघपति धन जी सवा बचनें केवल श्रीपाल पुत्र सहित तुम्ह नित्य करो जयकार जी ॥ १२ ॥ ५. जैनगुर्जरकविप्रो, तीजो भाग, पृ० ८०३ । कीधो ए प्रबंध जी । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १३९ दान दोजे जिनपूजा कीजे समकित मर्ने राखिजै जी। सुत्रज मणिए णवकार गणिए असत्य न विभाषिजे जी ॥१०॥ लोम तीजे ब्रह्म धरीजे सांमल्यानुं फल एह जी । ए गीत जे नर नारी सुणसे अनेक मंगल तरु गेह जी ।।११।।" भरत-बाहुबली छन्द ___ इसका उल्लेख श्री मोहनलाल दुलीचन्द देसाईने 'जनगुर्जरकविओ' भाग ३ पृ० ८०४-५ पर किया है । उसका एक पद्य इस प्रकार है, "बोलि वादीचंद्र गणनु कुण रत्नाकर, अवनि एक तुं मल अचल महिमा महिमाकर, तुं असलउ अरदेव जित भवतारण, आश्रीतना जे लोक तेहनुं नरक निवारण, ऋषभदेव वंछित मलो, बाहुबल जग जाणीइं, मगति पामी भाव सुं तुम गुण एक वखाणीइ ॥४८॥" आराधना गीत इसकी प्रति सादरापुरमें पार्श्वनाथ चैत्यालयके सरस्वतीभवनमे धर्मभूषणके शिष्य ब्रह्म वाघजीकी लिखी हुई मौजूद है। यह एक मुक्तक काव्य है, और उसमे कुल २८ पद्य है। प्रत्येक पद्य अर्हन्तकी भक्तिसे सम्बन्धित है। प्रथम पद्यमें ही सरस्वती और गणधरकी वन्दना करते हुए कविने कहा है कि जो कोई इस आराधनाको पढ़ेगा अथवा सुनेगा, उसके पापका तो लेश-मात्र भी न रह जायेगा। "श्री सरसती नमी वर पाय, गोरुपा गणधर राय । कहुं आराधना सुविशेस, सुर्णे पाप न रहे लवलेस ॥१॥" अम्बिका-कथा ___ इस कथाकी रचना वि० सं० १६५१ मे हुई थी। इसको एक हस्तलिखित प्रति लखनऊके श्री विजयसेन और यति रामपालजीके पास है। इसमें देवी अम्बिकाके प्रति भक्ति-भाव प्रदर्शित किया गया है। यह कथा प्रकाशित हो चुकी है। १. वही, पृ०८०५ २. अगरचन्द नाहटा, अम्बिकाकथा, अनेकान्त, वर्ष १३, किरण ३-४ । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि पाण्डव-पुराण इसको हस्तलिखित प्रति जयपुरके तेरहपन्थी मन्दिरमे मौजूद है । इसकी रचना वि० सं० १६५४ मे नौधकमे हुई थी। ४०. गणि महानन्द (वि० सं० १६६१ ) तपागच्छके प्रसिद्ध श्रीहीरविजयसूरिकी शिष्यपरम्परामे एक श्री विद्याहर्ष हुए। उनके शिष्य गणि महानन्द थे। सम्भवतया महानन्द गुजरातके रहनेवाले थे, क्योकि उनकी रचनापर गुजरातीका अधिक प्रभाव है। ऐसा प्रतीत होता है कि गुजराती उनकी मातृ-भाषा थी। अपने पूर्वाचार्योका उल्लेख करते हुए उन्होने लिखा है कि श्री हीरविजयसूरिने अकबर बादशाहको उपदेश दिया था, और श्रीविजयसेन गणिने अकबरके दरवारमे भट्ट नामके एक विद्वान्को वाद-विवादमे परास्त किया था, “श्री विजयसेन गणधार रे। जिणि शाहि अकबरनी सभा मांहि, मट्ट सुंरे कीधो कीधो बदुभ मंग रे। मिथ्यामत रेषड़ी करी रे जिणि गढ्यु गढ्यु जिनशासनि रंगरे ॥" महानन्दकी एक-मात्र रचना 'अंजना-सुन्दरी रास' है, जो रायपुरमे वि० सं० १६६१ मे रची गयी थी। अंजना हनुमान्की मां थी। उनपर अनेक आपत्तियां आयीं, किन्तु वे जिनेन्द्रकी भक्तिसे विचलित न हुई। उनका सारा जीवन भक्तिका ही जीवन है। उनकी तुलना मीरासे नही की जा सकती। मीराने लौकिक पक्षको नगण्य समझा, अलौकिकमे ही विभोर बनी रही। अंजनाने लोक और अलोक दोनों ही का समान रूपसे निर्वाह किया। उसने गृहस्थाश्रमके कर्तव्योंका भी पालन किया, और वीतरागी भगवान् से प्रेम भी किया। १. वेदवाणषडब्जांके वर्षे तिषेथ मामि चंद्रे । नोधकानगरेऽकारि पाण्डवानां प्रबन्धकः ॥६७॥ प्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली, प्रस्तावना, पृष्ठ २४, पादटिप्पणी ३ । २. गणि महानन्द, अंजनासुन्दरीरास, अन्तिम प्रशस्ति, जैन सिद्धान्त-भवन धारा की हस्तलिखित प्रति । अंजना सुन्दरी रास, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य ११ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १४१ अंजना सुन्दरी रास इस रासमें अंजनाके जीवनकी विविधता चित्रित की गयी है। अंजनाकी विरहावस्था उन सबमे उत्कृष्ट है। कही प्रियसे मिलनेको उत्कण्ठा है, कहीं प्रियके इष्ट-अनिष्टकी चिन्तामे खाना-पीना तक विस्मरण हो गया है, और कही प्रियकी स्मति जन्य विभोरताने वस्त्रो तकको विशृंखल कर दिया है। सब कुछ नसगिक है, बनावटका आभास भी नहीं। वही पतिव्रता जब अकारण ही पति-द्वारा तिरस्कृत होती है, तो इस दुःखको प्रथम मिलनकी स्मतिसे उपशम कर लेती है। उसकी सासने भ्रमवशात अंजनाको घरसे निकाल दिया, उस समय वह गर्भिणी थी। उस समयका करुणाजनक दृश्य काव्यका मार्मिक स्थल है। किन्तु अंजनाने भगवानका सहारा न छोड़ा। उसके जीवनका यह भाग गहरी भगवद्भक्तिसे युक्त है। बीच-बीचमे प्राकृतिक दृश्योका चित्रण भी स्वाभाविक ढंगसे हुआ है । वसन्त आ गया है। चारो ओर वनमाला फल गयी है। कलियोंमे बहार आने लगी है. जैसे कंकमका रंग घोलकर चारों ओर छिटक दिया गया हो। ऐसी शोभाके मध्यमे सुन्दरी अंजना हाथमें मंजरी लिये अपनी सखियोंके साथ क्रीड़ा कर रही है, "फूलिय वनह वनमालीय वालीय करई रे टकोल । करि कुंकुम रंग रोलीय घोलीय झकम झोल ॥ खेलइ खेल खंडो कली मोकली सहीयर साथ । अंजना सुंदरी सुंदरी मंजरी ग्रही करी हाथ ॥५४॥" मधुकर गुंजार कर रहे है। कोयल बोल रही है, और मलयानिल बह रहा है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि महानप मदनने विरहिणियोंको दण्ड देनेके लिए ही यह सब आयोजन किया हो। तभी तो अलियोंकी गुंजारमे मारका विकार, कोयलको कूकमें कन्तसे मिल नेकी हूक और मन्द-सुगन्ध पवनमे उद्दीपनकी आग है, "मधुकर करई गुंजारव मार विकार वहति । कोयल करई पटहूकड़ा टूकड़ा मेलवा कंत ॥ मलयाचल थी चलकिउ पुलकिउ पवन प्रचंड । मदन महानुप पाझइ विरहीनि सिर दंड॥५५॥" १. इसकी हस्तलिखित प्रनि जैन सिद्धान्त-भवन आरामें मौजूद है। इसमें कुल २२ पन्ने है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि इसी वसन्तमे देवता नन्दीश्वरको यात्रा करते हैं। वहाँके मन्दिरोंमे चढ़ानेके लिए उनके हाथमे सुगन्धित फूल होते है, "एणि समई नंदीसर वरई सुरवर जाइ यात्र । दीसह गयण वहंता कर गृही कुसुमनां पात्र ॥५६॥" अंजनाको जैन मुनियोंकी भक्तिमे आनन्द मिलता था। वह प्रायः उन्हें आहार दिया करती थी। एक बार उसने आहार देनेके लिए 'नन्दन' नामके मुनिका पडिगाहन किया, जिन्होने अपने दुर्द्ध तपसे संसारको जीत लिया था। वे चरमशरीरी थे। उनके गुणोको गाकर प्रत्येक मनुष्य आनन्दका अनुभव करता है, और उसके सब मनोवाछित पूरे हो जाते है, “इणि परिगायु अंजना, सुंदरी नंदन धीर । द्रव्य भाव वेरी प्रबल, जिण जीत्या जा बड़वीर ॥ चरम शरीरी सुगुण नर, गातां होइ आणंद । घइ मनवंछित संपदा, हम बोलह गणि महानंद ॥५६-५७॥" डॉ० रामसिंह तोमरने महाणंदि-द्वारा रचित एक 'आणंद स्तोत्र'को बात कही है । इसमें ४३ पद्य है। किन्तु अब यह प्रमाणित हो गया है कि वे महाणंदि एक भिन्न व्यक्ति थे। उनकी रचना 'आणंदा'से सिद्ध है कि उसका निर्माण विक्रमकी चौदहवीं शताब्दीमे हुआ होगा। 'आणंदा'का प्रकाशन 'सम्मेलन-पत्रिका मे हो चुका है। ४१. मेघराज (वि० सं० १६६१ ) __ ये पार्श्वचन्द्रसूरिगच्छके साधु थे। इनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार थी : पावचन्द्र, समरचन्द्र, राजचन्द्र और श्रवणऋषि । मेघराज श्रवण ऋषिके शिष्य थे। इसी शताब्दीमे एक दूसरे मेघराज भी हुए है, वे मेघमण्डल कहलाते थे और जो दिगम्बर ब्रह्म-शान्तिके शिष्य थे। उन्होने 'शान्तिनाथ चरित्र' की रचना की थी। किन्तु मेघमण्डल सतरहवी शताब्दोके पूर्वार्धमे और मेघराज उत्तरार्धमे हुए थे। एक तीसरे मेघराज और थे जो भानुलब्धिके शिष्य थे और जिन्होंने 'सत्तरभेदी पूजा' का निर्माण किया था। मुनि मेघराज एक प्रौढ़ साहित्यकार थे। भाव, भाषा और शैली सभी दृष्टियों१. नलदमयन्तीरास, अन्त भाग, पच २-५, जैनगुर्जरकविश्रो, भाग १, पृष्ठ ४०२ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य से उनकी रचनाएँ सत्काव्यकी कोटिम आती है। उन्होने स्थान-स्थानपर रोचक ढंगसे अलंकारोंका प्रयोग किया है। संयम प्रवहण इसको 'राजचन्द्र प्रवहण' भी कहते हैं । इसमे राजचन्द्रमूरिके साधुजीवनको महत्ताका उल्लेख है। इसे हम साधु-भक्तिका ग्रन्थ कह सकते है । इसमें राम सरिक पर्वाचार्य सोमरत्नसरि. पासचन्द्रसरि और समरचन्द्र सरिके माता-पिता और आचार्य बनने आदिका भी वर्णन किया गया है। इसकी रचना वि० सं० १६६१ मे हुई थी। इसकी एक प्रति सं० १६८१ आपाढ सुदी १५ की लिखी हुई' जयपुरके ठोलियोके मन्दिरमें वेष्टन नं० ३३९ मे बंधी रखी है। उसका आरम्भ और अन्त इस प्रकार है, "रिसहु जिणिसर जगतिलउ नामि नरिंद मल्हार । प्रथम नरेसर प्रथम जिन त्रिभोवन जन साधार ॥३॥ चक्री पंचम जाणीइ सोलमउ जिनराय । शान्तिनाथ जगि शान्तिकर नर सुर प्रणमइ पाय ॥२॥" अन्तिम-राग-धन्यासी "गछपति दरिसणि अति आणंद । श्रीराजचंद सूरिसर प्रतपउ जा लगि हु रविचन्द ॥४९॥ संयम प्रवहण मालिमगायउ नयर खम्भावत माहि । संवत सोल अनह इकसठई आणी अति उछाह ।।गछ।। सरवण ऋषि गुरु साधु शिरोमणि, मुनि मेघराज तसु सीस । गुण गछपति ना भावइ भाषइ पहुचह आस जगीस ॥१५२॥" अन्य रचनाएँ ___ इनकी अन्य रचनाओं में 'नल-दमयन्ती रास', 'सोल सलीनो रास', 'पार्श्वचन्द्र स्तुति' तथा 'सद्गुरु-स्तुति' और है । इनमे 'पार्श्वचन्द्र-स्तुति' उन पार्श्वचन्द्रकी वन्दना है जिनके नामपर 'पार्श्वचन्द्रसूरिगच्छ' ही चल पड़ा था। 'सद्गुरुस्तुति' मे गुरुकी स्तुति की गयी है और वह एक सुन्दर गीति-काव्य है । १. जैनगुर्जरकविश्रो, भाग १, पृ० ४०१-४०२ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ हिन्दी जैन मक्ति काव्य और कवि ४२. सहजकीति (वि० सं० १६६१-१६९७ ) ___ यह सांगानेर जयपुरके रहनेवाले थे। इनकी कृतियोसे इनके पारिवारिक जीवनका कुछ भी पता नही चलता है। यह खरतरगच्छकी क्षेम शाखाके साधु थे। इन्होंने मुनि जिनचन्द्रका श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है। इनके गुरुका नाम आचार्य हेमनन्दन था। इनकी विशेष ख्याति थी। इनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार थी : जिनसागर, रत्नसार, रत्नहर्प, हेमनन्दन, सहजकीत्ति। इनके 'शत्रुजय महात्म्य राससे आचार्य जिनसिंहमूरि और मम्राट अकबरको भेटका वृत्त विदित होता है।' इनकी रचनाओका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकारसे है : प्रीति-छत्तीसी __इसको रचना सांगानेरमै वि० सं० १६८८ मे विजयदशमीके दिन हुई थी। उसकी प्रति जयपुरके ठोलियोके मन्दिरके गुटका नं० ९७ में संग्रहीत है। इसकी एक प्रति पं० तिलकविजयके शिष्य गोदाके द्वारा श्राविका सभलदेके पढ़नेके लिए लिखी हुई बडोदराके शास्त्रभण्डारमे मौजूद है। उसका आदि और अन्त देखिए, आदि "प्रीति न किणिही जीती जायई, इकइविणु अरिहंतजी, मावई कोडि उपाय करउ कोइ, लागई मंत न तंतजी।" अन्त "प्रोति छत्रीसी ए वयरागि, भविक मणि हितकारजी, . वाचक सहजकीरति कहइ मावइ, श्री संघ जयजयकारजी।" 'पार्श्व-भजन', 'चउवीस','जिनगणधरवर्णन', 'पार्श्वजिनस्थानवर्णन' और 'बीस तीर्थकरस्तुति' ये चारों भक्तिसम्बन्धी काव्य जयपुरके बधीचन्दजीके जैन-मन्दिरमे गुटका नं० ११६ में निबद्ध हैं। उनके रचनाकालके विषयमे कुछ भी विदित नहीं है। हो सकता है कि सतरहवीं शताब्दीका अन्तिम पाद ही इनका रचनासमय हो, क्योंकि इनकी 'प्रीति छत्तीसो' आदिकी रचना उसी समय हुई है। शत्रुजंय महात्म्य-रास इसकी रचना सणकोट में सं० १६८४ में हुई थी। इसकी एक प्रति वि० १. श्री जिनसिंह सिंह जिम दिप्पउ, तसु पाटई चित लावई, अकबर साहि सभासन रंजी, जलनिधि मीन छुड़ावइ रे । शत्रुजय महात्म्य रास, अन्त माग, पद्य ७१वा, जैनगुर्जरकविओ, भाग १, पृ० ५२५ । २. बैनगुर्जरकविनो, भाग १, पृ० ५२६ । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १४५ सं० १८४५ कात्तिक शुक्ला ५ को लिखी हुई मौजूद है, जिसका उल्लेख श्री देमाई महोदयने किया है। सुदर्शन श्रेष्ठि राम ___ इसकी रचना वगडीपुरमे वि० सं० १६६१ मे हुई थी। इसमें सेठ सुदर्शनका जीवन-चरित्र वर्णित है। वह भगवान् जिनेन्द्रका परम-भक्त था। पूरा ग्रन्थ भक्तिसे हो ओतप्रोत है । प्रारम्भिक पंक्तियां इस प्रकार है, "केवल कमलाकर सुर, कोमल वचन विलास, कवियण कमल दिवाकर, पणमिय फलविधि पास । सुरनर किंनर वर भमर, सुन चरणकंज जास, सरस वचन कर सरसती, नमीयइ सोहाग वास । जासु पसायइ कवि लहर, कविजनमई जसवास, हंसगमणि सा भारती, देउ मुझ वचन विलास ।" जिनराजसूरि गीत ___ यह गीत ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रहमे प्रकाशित हो चुका है। इसमे १८ पद्य है । जिनराजसूरिकी महिमाका वर्णन करते हुए कविने लिखा है, "राउल 'भीम' समा मली रे लाल, 'जैसलमेर' मझार । परवादी जीता जियइ रे लाल, पाम्यउ जय जयकार ॥४॥ क्रोध तज्यउ काया थकी रे लाल, दूरि कियउ अहंकार । मायानइ मानइ नहीं रे लाल, लोम न चित्त लिगार ॥८॥" गुरुमे इतने गुण है कि कवि उनका वर्णन नहीं कर पाता - "जिण माहिं बहु गुण सूरिना, देखियइ प्रकट प्रमाण । वरणवी हुँ नवि सकू, तसु विद्या तणड गान ॥७॥ गुरुके दर्शनसे परम आनन्द मिलता है, "सद्गुरु वंदियइ, 'श्री जिनराज सुरिन्द' । दरशन अधिक आणंद, जंगम सुरतरु कंद ॥२॥" १. जैनगुर्जरकविओ, भाग १, पृ० ५२५-२६ । २. जैनगुर्जरकविओ, भाग ३, पृ० १०१६ । ३. ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह, पृ० १७४-१७६ । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि जैसलमेर चैत्य प्रवाडी' इसकी रचना वि० सं० १६७९ मे हुई थी । इसमें ७ गीत है । जैसलमेर के चैत्योंको नमस्कार किया गया है । उसका आदि भाग देखिए, "साधु साधवी श्रावक श्रावी, श्री संघनई परिवार रे भाई, श्री जिनराज सूरीसर हरषई, जैसलमेरु मझारि रे भाई | चैत्र प्रवाडि कर विधि सेती, वाजई वाजित्र सार रे, गावई गीत मधुर सर गोरी, खरतर गच्छ जयकार रे भाई || " अन्य रचनाएँ 1 सहजकीर्तिने 'कलावती राम' वि० सं० १६६७, 'व्यसन सत्तरी' १६६८, 'देवराज वच्छराज चौपई' १६७२, 'सागर श्रेष्ठिकथा' १६७५, 'शीलरास' १६८६, और 'हरिश्चन्द्र चौपाई' १६९७ की भी रचना की थी । ४३. ब्रह्मगुलाल (वि० सं० १६६२ ) श्री ब्रह्मगुलाल रपरी और चन्दवार गाँवोंके समीप 'टापू' नामक गाँवके रहनेवाले थे । यह आज भी आगरा जिलेमे यमुना नदीके किनारे बसा हुआ है । इसके तीन ओर नदी बहती है, अतः यह एक छोटा पूरा प्रायद्वीप ही है । इस भौगोलिक परिभाषासे अनभिज्ञ होनेके कारण ही उसका नाम टापू चल पड़ा होगा, और उस प्रचलित नामको ही कविने लिखा है । श्री कस्तूरचन्दजी काशलीवालने लिखा है कि ब्रह्मगुलालजी ग्वालियरके रहनेवाले थे । किन्तु सत्य तो यह है कि उन्होंने ' त्रेपन क्रिया' की रचना 'गढ़ गोपाचल' अर्थात् ग्वालियर में की थी, किन्तु वे वहाँके रहनेवाले नहीं 1 ૪ १. जैनगुर्जर कविप्रो, भाग ३, पृ० १०२२ । २. मध्यदेश रपरी चंदवार, ता समीप टापू सुषसार । कृपण जगावनकथा, अन्तिम प्रशस्ति, हस्तलिखित प्रति, श्री शान्तिनाथ दि० जैन मन्दिर, अलीगंज । ३. प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, अगस्त १६५०, प्रस्तावना, पृ० २१ । ४. ब्रह्मगुलाल विचारि बनाई गढ़ गोपाचल थानं । छत्रपती चहुँ चक्र विराजे साहि सलेम मुगलाने । त्रेपन-क्रिया, अन्तिम पाठ, प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, १६५०, पृ० २२० ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य १४७ __श्री ब्रह्मगुलालके गुरुका नाम भट्टारक जगभूषण था। वे अपने समयके प्रसिद्ध विद्वान और समर्थ गुरु थे। उन्हीसे ब्रह्मगलालने ज्ञान उपाजित किया था और उन्हीकी प्रेरणासे 'कृपण जगावनहार' का निर्माण किया। वह बादशाह जहाँगीरका समय था। उसका शासनकाल संवत् १६६२ से १६८४ तक माना जाता है। श्री ब्रह्मगुलाल भी इसी समय हुए हैं। उनकी 'बेपन-क्रिया' सं० १६६५ में और 'कृपण जगावनहार' सं० १६७१ में बना। उस समय टापूका राजा कीरतिसिंह था, जो तेग और त्याग दोनोमे ही समान रूपसे निपुण था। वह अपने भव्य गुणोके कारण कुलमे दीपकके समान माना जाता था। वह अपने मण्डलमै गो-रक्षाके लिए प्रसिद्ध था। भगवान्ने उसे अत्यधिक उदार बनाया था। उसीके राज्यमें धर्मदासजीके भतीजे मथुरामलजी रहते थे, जो अपने कुलके सिरमौर, और दान देनेमे सेठ सुदर्शनके समान थे। वे ब्रह्मगुलालजीके घनिष्ठ मित्र थे, यहाँतक कि ब्रह्मगुलालके मुनि बननेपर वे स्वयं भी क्षुल्लक हो गये थे, और ब्रह्मगुलालके साथ ही रहते थे। ___ ब्रह्मगुलाल सच्चे कलाकार थे। एक बार उन्होंने सिंहका वेष बनाया, तो कुछ ऐसा सच्चा सिंहका भाव आया कि उससे एक राजकुमारको हत्या हो गयी। राजकुमारके पिताको सम्बोधन करनेके लिए जब जैन मुनिका वेष धारण किया तो फिर सच्चे जैन मुनि हो गये। मुनि ब्रह्मगुलालकी छह रचनाएं उपलब्ध हुई है : 'बेपन-क्रिया', 'कृपण जगावन कथा', 'धर्मस्वरूप', 'समवशरणस्तोत्र', 'जलगालन क्रिया' और 'विवेक-चौपई'। इनमें 'विवेक-चौपई' जयपुरके ठोलियोंके मन्दिरमे है । १. जगभूषण भट्टारक पाइ, करौ ध्यान-अंतरगति आइ । ताको सेवगु ब्रह्म गुलाल, कीजी कथा कृपन उर-साल॥ कृपण जगावन कथा, अन्तिम प्रशस्ति, हस्तलिखित प्रति, श्री शान्तिनाथ दि० जैन मन्दिर, अलीगंज। २. सोरह से पेंसठि संमच्छर कातिग तीज अंधियारी हो । त्रेपन क्रिया, अन्तिम पाठ, प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, पृ० २२० । ३. सोरह से इकहत्तर जेठ, नुमोहि दिवस सुमरि परमेठि । कृपण जगावन कथा, अन्तिम प्रशस्ति, अलीगंजकी हस्तलिखित प्रति । ४. कृपण जगावन कथा, अन्तिम प्रशस्ति, अलीगंजवाली प्रति । ५. गये मनाने को मथुरामल, यती धर्म महिमा जानी। क्षुल्लक होकर साथ हो लिये, भोग वासना सब हानी ॥ कवि पुत्रपति, ब्रह्मगुलाल मुनिकी कथा। ६.ठोलियान मन्दिर, जयपुरका गुटका नं० १२५/ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि त्रेपन-क्रिया इसकी प्रति आमेरशास्त्रभण्डारमे मौजूद है। इसकी रचना कात्तिक बदी तीज मं० १६६५ मे हुई थी। रचनास्थल ग्वालियर है। उस समय वहाँ सम्राट जहांगीरका राज्य था। इस काव्यमें जनोको त्रेपन धार्मिक क्रियाओंका उल्लेख है। उनका उल्लेख उपास्य बुद्धिसे ही किया गया है, अन्यथा क्रियाओके कोरे विवरणमे गणितको शुष्कता अवश्य आ जाती । काव्यमै रूखेपनके दर्शन भी नही होते । प्रयम मंगलाचरणमें ही कविने स्वीकार किया है कि भगवान् जिनेन्द्रकी चर्चा करने-मात्रसे ही पाप तो तुरन्त ही पलायन कर जाते हैं, और करोडों विघ्न क्षण-मात्रमे नष्ट हो जाते है । भगवान् जिनेन्द्र के मुखसे उत्पन्न हुई सरस्वती देवीका स्मरण करनेसे काव्यके निर्माणमे आशातीत सफलता मिलती है। तीनो लोकके निवासी उस देवीकी वन्दना करनेमे अ "प्रथम परम मंगल जिन चर्चनु, दुरित तुरित तजि मजि हो । कोटि विधन नासन अरिनंदन, लोक सिखरि सुख राजै हो । सुमिरि सरस्वति श्री जिन उद्भव, सिद्ध कवित सुम बानी हो। गन गन्धर्व जत्थ मुनि इन्द्रनि, तीनि भुवन जन मानी हो ॥" कृपण जगावनहार ___ इसकी एक प्रति अलीगंज जिला एटाके शान्तिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिरके शास्त्रमण्डारमे है, दूसरी दिल्लीके पंचायती मन्दिरमे और तीसरी नहरोली, आगराके जैन साधु श्री सुखचन्दजीके पास 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका के खोजकर्ताने देखी थी। इसके कथानकमें सरसता है और भाषामें रमणीयता। इस काव्यमें कृपणकी कथाके साथ-साथ भक्ति-रस पुष्ट हुआ है। क्या मैं क्षयंकरो और लोभदत्त दोनों ही कृपण हैं। उनकी दुर्दशाका कारण जिनेन्द्रकी भक्ति से विमुख हो जाना ही है । क्षयंकरी अपने पूर्व भवमें धवलसेठकी पत्नी मल्लि थी। एक आष्टाह्निक पर्वोत्सवमें उसने कोई उत्साह नहीं दिखाया, अपितु पूजनकी सामग्रीमें सड़ा-गला माल जुटा दिया और मुनियोंके मलिन शरीरको देखकर घृणा की, अतः अगले भवमें वह कोढ़िन हुई और नारकीय दुःख भोगने पड़े। अन्तमे भगवान् जिनेन्द्रको भक्ति करने और साधुओंकी सेवासे ही वह स्वर्गमे देव हुई। ____ कृपण सेठ लोभदत्तकी दो पलियां कमला और लच्छा जिनेन्द्रकी भक्त थीं। एक बार सेठको अनुपस्थितिमें दोनोंने जैन मुनियोंको श्रद्धापूर्वक आहार दिया, १. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाका पन्द्रहवाँ त्रैवार्षिक विवरण । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य अतः उनको आकाशगामिनी और बन्धमोचिनी विद्याएँ सिद्ध हो गयीं। सेठ जब उनको किवाड़ोमे बन्द करके चला जाता था तो वे इन विद्याओंके बलपर सहस्रकूट चैत्यालयकी बन्दना करने जाती थी । सहस्रकूट चैत्यालय के समीप रत्न तो बिखरे ही रहते है | एक बार वे पड़ोसिनको ले गयीं तो वह बहुत-से रत्न समेट लायो । सेठको उसीसे वहाँके रत्नोको वात विदित हुई, और एक दिन वह विमानकी खालमे बैठ गया । किन्तु संयोगवशात् विमानका वह भाग फट गया और सेठकी मृत्यु हो गयी । दोनो सेठानियोको दुःख तो हुआ किन्तु सन्तोषपूर्वक जिनेन्द्रपूजा और मुनियोंको दान देनेमे मन लगाया, अतः वे इहजीवनलीला समाप्त कर स्वर्गमे देव हुई । इस प्रकार 'कृपण जगावन कथा' मे जिनेन्द्रकी भक्ति ही प्रमुख है। इसी कथामे एक जैन आचार्यने राजा वमुपतिको जिनेन्द्रको मृत्ति-पूजाकी उपयोगिता बतलायी है । उन्होंने कहा कि प्रतिमा-पूजन पुण्यका निमित्त है, उससे आत्मा ज्ञानरूपमे परिणमित होती है । प्रतिमा दर्शनसे कषाय गल जाती है । "प्रतिमा कारणु पुण्य निमित्त, बिनु कारण कारज नहिं मित्त । प्रतिमा रूप परिणनै श्रपु, दोषादिक नहिं व्यापै पापु । क्रोध लोभ माया बिनु मान, प्रतिमा कारण परिणवै ज्ञान । पूजा करत होइ यह माड, दर्शन पाए गलै कषाउ || " १४९ धर्मस्वरूप इसकी प्रति आमेरशास्त्र भण्डारमे इसकी रचना भाद्रपद शुक्ला तृतीया सं० स्वरूप वर्णन है । कविने प्रारम्भके मंगलाचरणमें सरस्वती और गणपतिके चरणोंकी वन्दना की है, किन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि ग्रन्थका सम्बन्ध जैन धर्मसे नही है । क्योकि "कीजे वांणी श्री जिणवर सार, संसार संग उतरे पार" और " मन्दिर वेदी दीरघ होइ, जीणवर धरम जपै सो होई" स्पष्ट रूपसे जैन धर्मकी महिमाको बताने में समर्थ है। एक नहीं अनेक जैन कवियोने सरस्वती और गणपतिकी वन्दना से अपने ग्रन्थोका प्रारम्भ किया है । सरस्वतीको भक्ति तो जैन- परम्परामें बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही है, किन्तु गणपतिको भो विद्याके अधिष्ठातृ देवके रूपमे हिन्दीके जैन कवियोंने स्वीकार किया था । मौजूद है । उसमें पद्य संख्या ९२ है । १७२० मे हुई थी । उसमे जैन धर्मका १. कृपण जगावन कथा, अलीगंजवाली प्रति । २. प्रथम सुमरौ सारदा, गणपति लागू पाय । गुण गाऊँ श्री जिण तणा, सुनौ भव्य मन लाय ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ४४, उदयराज जतो (वि० सं० १६६७) 'मिश्रबन्धुविनोद' के रचयिताओंने इनके आश्रयदाताका नाम महाराजा रायसिंह लिखा है, जिन्होंने वि० सं० १६३० से १६८८ तक राज्य किया। किन्तु उदयराजकी लिखी हुई 'भजनछत्तीसी से स्पष्ट है कि इनके आश्रयदाता जोधपुरके राजा उदयसिंह थे। इसी आधारपर श्री अगरचन्दजी नाहटाने "मिश्रबन्धुविनोद' का निराकरण किया है। उदयराज जोधपुरके पासके रहनेवाले थे। मिश्रबन्धुओंने उन्हे बीकानेरका रहनेवाला लिखा है। हो सकता है कि बीकानेर में उनका जन्म हुआ हो और जोधपुरमे आश्रय मिला हो। _ 'भजनछत्तीमी मे अपना परिचय देते हुए कविने लिखा है कि यह ग्रन्थ मैने ३६ वर्षकी उम्रमे बनाया और उसका निर्माणकाल सं० १६६७ है । अत: यह निश्चित है कि उदयराजका जन्म सं० १६३१ मे हुआ होगा। इनके पिताका नाम भद्रसार, माताका नाम हरपा, भ्राताका नाम सूरचन्द्र, पत्नीका नाम पुरवणि, पुत्रका नाम सूदन और मित्रका नाम रत्नाकर था। ये खरतरगच्छीय भद्रसारके शिष्य थे । भद्रसारने 'चन्दनमलयगिरी चौपई की रचना की थी। इनकी रचनाओंमे 'गुणबावनी', 'भजनछत्तीसी', 'चौबीस जिन सवैया' और १.मिश्रबन्धुविनोद, प्रथम भाग, पृष्ठ ३६४ । २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोकी खोज, भाग २, परिशिष्ट १, पृ० १४२-१४३ | ३. साम समये उदयसिंह वास समये योधपुर। भजनछत्तीसी, पथ ३२। ४. मिश्रवन्धुविनोद, प्रथम भाग, पृ० ३६३ । ५. सोलहस सतस, कीध जन भजन छत्रोसी। मोनू वरस छत्रीस, हुःव भनि आवइ ईसी। भजनछत्तीसी, ३७ वें पद्यकी प्रथम दो पंक्तियाँ। ६. समपि पिता भद्रमार जन्म समपे हरषा उर । समपि भ्रात सूरचन्द्र मित्र समपे रयणायर । समपि कलित्र पूरवणि समपि पुत्र सुदन दिवायर रूप अने अवतार ओ भो समपे आपज रहण उदैराज इह लधो रती, भवभव समपे मह महण ॥ मजनवचीसी, पच ३२॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य 'मन प्रशंसा- दोहा' अत्यधिक प्रसिद्ध है । 'मित्रबन्धु विनोद' मे 'रंगेजदीन महताब 'को भो इनकी ही रचना माना है । इसके अतिरिक्त 'वैद्य विरहिणी प्रबन्ध' भी इन्हीका रचा हुआ है । गुगबावनी कही 'सुभाषित वावनी' और कहीं 'गुणभासा' के नामसे प्रसिद्ध है | भजनछत्तीसी इस काव्यकी रचना वि० सं० १६६७ फाल्गुन वदी १३ शुक्रवार के दिन हुई थी । इमका रचनास्थल जोधपुर राज्यान्तर्गत 'मांडावाइ' नामका स्थान माना जाता है । उस समय वहाँ जगमाल नामका राजा राज्य करता था । प्रत्येक भजन भगवान् जिनेन्द्रकी भक्तिसे युक्त है । भाषाके प्रवाह और भावोंकी प्रौढ़ताको देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कविकी काव्य-शक्ति पर्याप्त रूपसे विकसित थी । एक स्थानपर कविने आत्माको सम्बोधन करते हुए कहा है कि तू भगवान् जिनेन्द्रसे प्रीति कर | यह प्रीति सांसारिक सम्बन्धों और मानापमानोंको दूर करनेमे पूर्ण रूपसे समर्थ है, "प्रीति आप परजले, प्रीति अवरां परजालै । प्रीति गोत्र गालबै, प्रीति सुभवंश विटाले ॥ प्रीति काज घर नारि, छेद दे छोरू छोड़े । प्रीति लाज परिहरे, प्रीति पर खंड़े पाड़े ॥ धन घटै देत दुख अंग मैं, अमख भखै श्रजरो जरै । उदैराज कहै सुणि श्रातमा, इसी प्रीति जिणऊं करे ॥ इस छत्तीसोको पढ़नेवालेके दुःख सब दूर हो जाते हैं और पाप पलायन कर जाते है, " मद्रसार चरण प्रणाम करि, मैं अनुक्रम मंख्या कवित । त्रैलोक छतीसी बांचता दुःख जाइ नासै दुरति ॥” १५१ गुण बावनी इस काव्यको रचना बबेरइमें वि० सं० १६७६ वैशाख शुक्ला १५ को हुई थी । इसकी सबसे प्राचीन प्रति वि० सं० १७३६ की लिखी हुई प्राप्त हैं । इस १. मित्रबन्धुविनोद, प्रथम भाग, पृष्ठ ३६४ । २. बदि फागुण शिवरात्रि, श्रवण शुक्रवार समूरत । मांडावाह मंझारि, प्रभु जगमाल पृथी पति || भजनद्यत्तीसी, पद्य ३७ । ३. गुण बावनी, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य ५६, जैनगुर्जरकवि, पृष्ठ ६७६ । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि प्रतिको मुनि महिमाणिक्यने मूर्यपुरके मध्य सुश्रावक साह माणिकजी हांसजीक्के पढ़नेके लिए लिखी थी। दूसरी प्रति भुवन विशाल मणिके द्वारा वि० सं० १८१२ माघ वदी ९ को पूगलमे लिखी हुई अभय भण्डार बीकानेरमे मौजूद है। तीसरी प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरमै उपलब्ध गुटका नं० १२४ मे निबद्ध है। ___इस ग्रन्थमे सन्त काव्यकी भांति पावण्डका निराकरण और आत्माको सम्बोघन कर अध्यात्मसम्बन्धी पद्योंकी रचना की गयी है। इसमे कुल ५७ पद्य है । प्रारम्भिक मंगलाचरणमे ही 'प्रणव अक्षर' रूप परमेश्वरको नमस्कार करते हुए कविने कहा है, "ऊंकाराय नमो अलख अवतार अपरंपर, गहिन गुहिर गंमीर प्रणव अख्यर परमेसर । त्रिएह देव त्रिकाल त्रिएइ अक्षर त्रेधामय, पंचभूत परमेष्ठि पंच इन्द्री पराजय । धुरिमत्र यंत्रइ धंकारि धुरि, सिध साधक मार्षति सह मद्रसार पयंपइ गुर संमत उदैपुत्र ओंकार कहि ॥१॥" अन्तःकरणको निर्मल बनानेसे ही सब काम चलते हैं। बाह्याडम्बर तो व्यर्थ है। 'शिव शिव'का उच्चारण करनेसे क्या होता है, यदि काम, क्रोध और छलको नहीं जीत लिया। जटाओके बढ़ानेसे क्या होता है यदि पाखण्ड न छोड़ा। सिर मुड़ानेसे क्या होता है यदि मन न मुडा। इसी प्रकार घर-बारके छोड़ने से क्या होता है यदि वैराग्यकी वास्तविकताको नहीं समझा, "शिव शिव किधां किस्यू', जीत ज्यों नहीं काम क्रोध छल, काति कहनायां किस्यू, जो नहीं मन माझि निरमल । जटा बधायां किसू, जांम पाखंड न छंडयउ, मस्तक मूख्यां किसू, मन जौं माहि न मूंडयउ, लूगडे किसूं मैले कीये, जो मनमाहि मइलो रहइ, घरबार तज्यां सीधउ किसू, अणबूझा उदो कहइ ॥५३॥" अपनी इस बावनीकी प्रशंसा करते हुए कविने कहा है, "जबतक समुद्र, ध्रुव, मेरु, पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चन्द्र और ब्रह्मा-विष्णु-महेश है, तबतक यह बावनी रहेगी, और उत्तरोत्तर उसकी कला बढ़ती ही जायेगी। इस बावनीके कहने, सुनने और लिखनेसे भी अनेकों ऋद्धि-सिद्धियां प्राप्त होती है। सम्पत्ति बढ़ती है और सुख मिलता है। एक कवित्तके कहने-मात्रसे ही मनुष्य पन्हित हो जाता है, १. गुहनाक्नी, पथ ५५ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "एकोइ कवित्त कहई हुवई, तिकौ मनिष पंडित लहर, उदैराज संपूरण मुखे करइ, तिको अनेक वातां कहइ ॥ ५७|| " चौवीस जिन सवैया' इसकी १९वी शताब्दीकी लिखी हुई एक प्रति बीकानेर बृहद्ज्ञानभण्डारमें सुरक्षित है । इस काव्यमे चौबीस तीर्थकरोकी भक्तिमे २०० सवैयोंका निर्माण हुआ है। सभी भक्ति रसके उत्तम दृष्टान्त है । रचना प्रौढ़ है । उसका आदि भाग देखिए, "प्रथम ही तीर्थंकर रूप परमेश्वर की, वंश ही इक्ष्वाकु अवतंश ही कहायों है 1 वृषभ लांछन पग धोरी रहै धींग जावै, धन्य मरु देव ताकी कुक्षी आयो है ॥ राज ऋद्धि छोर करि मिक्षाचार भेष भये, समता संतोष ज्ञान केवल ही पायौ है । १५३ नाभिराय जू को नंद नमै सुरनर वृन्द, उदय कहत गिरि शत्रुंजे सुहायौ है ॥ १॥" मनःप्रशंसा दोहा इसकी एक प्रति जयपुरके बड़े मन्दिर के गुटका नं० १२४ में निबद्ध है । मनको सम्बोधन करके अनेक दोहोंका निर्माण हुआ है । वैद्य विरहिण प्रबन्ध इसकी एक प्रति वि० सं० १७७२ कार्तिक सुदी १४ की लिखी हुई अभय जैनग्रन्थालय बीकानेर में सुरक्षित है । इसमे कुल ७८ दोहे हैं । सभी शृंगारिक भक्तिसे बोतप्रोत है । विरहज्वरसे प्रपीड़ित नारी ब्रजराजरूपी वैद्यके पास जाती है और उसके सभी रोग ठीक हो जाते हैं । "एकन दिन ब्रजवासिनी, दिल में दई उहार । हौं दुखहारी बैद पै, जाइ दिखाऊं नारि ॥ को विरहिन जिय सोच मैं, घर अपनी जिय श्रास । रिगत पान क्यों कर दनै, गयौ बैद पै पास ||२||” १. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोकी खोज, भाग ४, अगरचन्द नाहटा, उदयपुर, १६५४, पृष्ठ १२२ । २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग २, पृष्ठ ३५-३६ / २० Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि "अपने अपने कंत सूं, रस वस रहिया जोइ। उदैराज उन नारि , जमें दुहागन होइ ॥ जां लगि गिरि सायर अचल, जांम अचल द्र राज । तां लगि रंग राता रहे, अचल जोडि ब्रजराज ॥७८॥" ४५. हीरानन्द मुकीम (वि० सं० १६६८ ) शाह हीरानन्द जगतसेठके पुत्र ओसवाल जैन थे। वे आगराके रहनेवाले थे। उनके पास अरिमित धन था।' आगराके सर्वोत्तम जौहरियोंमे उनकी गणना थी। शहजादा सलोमसे घनिष्ठ सम्बन्ध था। उन्होंने सम्मेदशिखरजीकी यात्राके लिए संघ निकाला था। इसका उल्लेख कविवर बनारसीदासजीके 'अर्धकथानक में हुआ है। उन्होने लिखा है कि वि० सं० १६६१ चैत्र सुदी २ को हीरानन्द मुकीमने प्रयागपुर नगरसे सम्मेदशिखरको संघ चलाया। स्थान-स्थानपर पत्र भेजे गये। चारों ओर सूचना फैल गयी। वनारनीदासजीके पिता खड़गसैनके पास भी पत्र आया और वे इस यात्राके निमित्त घोड़ेपर चढकर घरबारको छोड़कर तुरन्त चल पड़े, और नन्दजीसे जा मिले। उसी वर्ष संघ वापस भी लौट आया। अनेकों मर गये या बीमार हो गये । खड़गसैन भी बीमार अवस्थामें ही घर आये थे। इस यात्राका सम्पूर्ण विवरण प्रस्तुत करनेवाला एक हस्तलिखित गुटका श्री अगर१. साहिब साह सलीम को, होरानन्द मुणीम, औसवाल कुल जोहरी, वनिक वित्त को सीम ॥२२४॥ अर्धकथानक, पं० नाथूराम प्रेमी संपादित, बम्बई १९५७, पृष्ठ २५ । २. आयो संवत् इकसठा, चैत मास सित दूज ॥२२३॥ तिन प्रयागपुर नगर सौं, कीजो उद्दम सार । संघ चलायो सिखर को, उतरयौ गंगा पार ॥२२५॥ ठोर ठोर पत्री दई, भई खबर जित तित्त । चीठी आई सैन कौं, आवह जात निमित्त ॥२२५॥ खरगसन तब उठि चलै, ह तुरंग असवार । जाइ नंदजी की मिले, तजि कुटुम्ब घरबार ॥२२७॥ वही, पृष्ठ २५-२६॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य ६५५ चन्दजी नाहटाको मिला है। यह खरतरगच्छके मुनि तेजसारके शिष्य वीरविजयका लिखा हुआ है। इसका नाम है 'वीर विजय सम्मेतशिखर चैत्य परिपाटो'। इसके अनुसार एक खरतरगच्छीय संघ आगरेसे चला था। शाह हीरानन्दका संघ जो इलाहाबादसे चला था, बनारसमे इस संघसे आकर मिल गया था। शाह हीरानन्दके साथ हाथी, घोड़े, रथ, पैदल और तुपकदार भी थे। वहाँसे चन्द्रपुरी और पावापुरी आदि अनेक तीर्थोकी वन्दना करता हुआ तथा बड़े-बड़े विघ्नोको पार करता हुआ संघ शिखरजी पहुंचा। वहाँ २० टुंक और बहुत-सी मूर्तियोंकी वन्दना की। लौटते समय संघ राजगृहीके पांच पर्वतों तथा बड़गांवमें गौतम गणधरके स्तूप और अनेकानेक जैन मन्दिरोकी पूजा करता हुआ पटना आया । वहां संघ १५ दिन ठहरा और शाह हीरानन्दकी ओरसे सबको पहिरावणो दी गयी। जौनपुरसे संघके व्यक्ति अपने-अपने स्थानको चले गये। __इससे शाह हीरानन्दका जैन तीर्थोके प्रति भक्ति-भाव स्पष्ट है। यह बहुत कम लोगोको विदित होगा कि वे एक अच्छे कवि भी थे। उनको रची हुई 'अध्यात्म बावनी' एक सुन्दर काव्य है। अध्यात्म बावनी ____इसकी रचना वि० सं० १६६८ में आषाढ़ सुदी ५के दिन हुई थी। उसी वर्ष लाभपुरमे भोजिग किशनदास साह वेणीदासके पुत्रके पठनार्थ लिखी गयी इसकी एक प्रति उपलब्ध हुई है। इस काव्यमे ५२ अक्षरोंमे-से प्रत्येकको लेकर एकएक पद्यकी रचना की गयी है। सभी पद्य अध्यात्मसे ओतप्रोत है । सन्तकाव्यको भांति ही 'जड़ चेतन'को सम्बोधन करके अपने हृदयस्थ भावोंको स्पष्ट किया गया है। भाषामे प्रवाह है। "ऊंकार सरुपुरुष ईह अलष अगोचर, अंतरज्ञान विचारि पार पावई नहि को नर । ध्यान मूल मनि जाणि आणि अंतरि हहरावउ, आतम तत्तु अनूप रूप तसु ततषिण पावउ । इम कहहि हीरानन्द संघपति अमल अटलहु ध्यान थिरि सुह सुरति सहित मनमई धरउ भुगति-मुगति दायक पवर ॥३॥" १. श्री अगरचन्द नाहटा, शाह हीरानन्द तीर्थयात्रा विवरण और सम्मेतशिखर चैत्य __ परिपाटी, अनेकान्त, वर्ष १४, किरण १०, पृष्ठ ३००-३०१ । २. गुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृष्ठ ४६६-६७ । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अन्त "मंगल करउ जिन पास आस पूरण कलि सुरतर, मंगल करउ जिन पास दास जाके सब सुरनर । मंगल करउ जिन पास, जास पय सेवई सुरपति, मंगल करउ जिन पास, तास पय पूजइ दिनपति । मुनिराज कहई मंगल करउ, सपरिवार श्री कान्ह सुत्र, बावन बरन बहु फल करहु सघपति हीरानंद तुव ॥५७॥" ४६. हेमविजय (वि० सं० १६७०) हेमविजय वृद्धशाखाके प्रसिद्ध आचार्य हीरविजयसूरिके प्रशिष्य, और विजयसेनसूरिके शिष्य थे। हीरविजयमूरिका असाधारण व्यक्तित्व था, उनमे विद्वत्ता भी उत्तम कोटिकी थी। सम्राट अकबरने उन्हे वि० सं० १६३९ मे दो बार आमन्त्रित किया था। उनका अलौकिक स्वागत हुआ, और उन्हे जगद्गुरुकी पदवी दी गयी।' श्री विजयसेनसूरिको भी सम्राट अकबरने वि० सं० १६५० मे निमन्त्रण देकर बुलाया था। उन्हे सवाई हीरविजयकी उपाधिसे विभूषित किया गया था। श्री हेमविजयने आचार्य हीरविजयकी महत्ताका उद्बोधन करनेवाली अनेकानेक स्तुतियोको रचना संस्कृतमे की थी। उनमे से एक तो अभीतक शत्रुजय पहाड़के शिलालेखमे अंकित है । इसमे ६७ श्लोक है। अपने गुरु विजयसेनसूरिकी प्रशंसामें उन्होंने 'विजय प्रशस्ति' का निर्माण किया। यह भी संस्कृतमे ही लिखी गयी है। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'कथारत्नाकर'की भी रचना की। इसकी प्रसिद्धि बहुत अधिक है। हेमविजय हिन्दोके भी उत्तम कवि थे। उन्होने हीरविजयसूरि और विजयसेनसूरिकी स्तुतिमें छोटे-छोटे बहुत-से हिन्दी पद्य बनाये है। तीर्थकरोंकी स्तवनाके भी कुछ पद रचे हुए मिलते है । 'मिश्रबन्धुविनोद' मे भी इनका उल्लेख है । वहां इनके वि० सं० १६६६ मे बनाये हुए स्फुट पदोंकी बात कही गयी है। १. vide P P. 265-276 Bhandarkar commemoration Volume. २. मोहनलाल दुलीचन्द देसाई, 'Jain Priests at the Court of Akbar', ___ भानुचन्द्र गणि, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, भूमिका, पृष्ठ है । ३. पं. नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, १६१७, पृष्ठ ४८ । ४. मिश्रबन्धुविनोद, प्रथम भाग, पृष्ठ ३६७ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य नेत्रहीन होनेके कारण उनके पदोंमें हृदयको गहरी अनुभूति है । वे हिन्दीके परिचयमात्रको ही नहीं, अपितु प्रौढ़ कवित्व शक्तिको प्रकट करनेमे समर्थ है | नेमिनाथके पढ़ नेमीश्वर राजुलके विवाह द्वारसे वापस लौट आये । उग्रसेनके द्वारपर बंधे पशुओं की करुण पुकारसे उनके हृदयमे वैराग्यने जन्म लिया, और वे जैन मुनि होकर गिरनारपर तप करने चले गये । उस समय राजुलकी आतुरताका हेमविजयने सफल चित्र खींचा है । राजुल बेचैन होकर गिरनारकी ओर दौड़ उठी । सखियोसे कहा कि तुम एक क्षण यहाँ ही खड़ी रहो, किन्तु सखियोंने उसे पकड़ लिया, तो वह निहोरे करके कहने लगी कि तुम 'अबही तबही कबही जबही', अर्थात् अब, तब, कत्र, जब चाहो यदुरायसे जाकर कहो, "हे नेमजी, तोरण-द्वारसे वापस क्यों लौट आये।" वह पद्य देखिए, १५७ "कहि राजमती सुमती सखियान कूं, एक खिनेक खरी रहुरे । सखिरी सगिरी अंगुरी मुही बाहि करति बहुत इसे निहुरे ॥ अबही तबही बही जबही, यदुराय कूं जाय इसी कहुरे । मुनि हेम के साहिब नेम जी हो, अब तोरन तें तुम्ह क्यूं बहुरे ॥” राजुल मानी नहीं । अकेली हो चल पड़ी। यहाँ लोक-मर्यादाका बन्धन उसे बाँध न सका । राजुलको दृष्टिमे वह नेमीश्वरकी पत्नी थी । भारतीय कन्या एक बार पति चुनती है, बार-बार नही । इसी कारण किसीकी परवाह किये बिना वह उस ओर दौड़ गयी । उसका गन्तव्य स्थान दूसरेका पति नहीं, किन्तु अपना ही पति था, इसलिए कुल - कानिका कोई प्रश्न उपस्थित नही होता । नयी-नयी घटाएँ उमड़ रही हैं । इधर-उवरसे बिजली चमक रही है । पियुरे-पियुरे कहकर पपीहा बिलला रहा है। उधर तो आसमानसे बूँदें टपक रही हैं और इधर 'उग्रसेनलली'की आँखों आँसुओंकी झड़ी लग गयी है । वह मुनि हेमविजयके साहब नेमीश्वरको देखनेके लिए अकेली ही निकल पड़ी है, "घनघोर घटा उनयी जु नई, इत उत चमकी बिजली । पियुरे पियुरे पपिहा बिललाति जु, मोर किंगार करंति मिली । बिच बिन्दु परे हग आंसु झरें, दुनि धार अपार इसी निकली । मुनि हेम के साहब देखन कूं, उग्रसेन लली सु अकेली चली ॥' 37 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ४७. नन्दलाल (वि० सं० १६७०) __ कवि नन्दलाल आगरेके पास 'गौसुना' के रहनेवाले थे। उनके पूर्वज बयानामे रहते थे। इनके पिता श्रवणदास गौसुनामे आकर रहने लगे थे। पं० नाथूरामजी प्रेमोने इनको वंश-परम्परा - अमरसी, प्रेमचन्द्र, श्रवणदास और नन्दलालके रूपमे स्वीकार की है। किन्तु नन्दलालके 'यशोधर' और 'सुदर्शन चरित्र' से स्पष्ट है कि उनके पिताका नाम 'भयरौं' अथवा 'भैरो' था। हो सकता है कि श्रवणदासका बचपनका नाम 'भयरो' हो । नन्दलालका वंश अग्रवाल और गोत्र गोयल था। नन्दलालकी मांका नाम चन्दन था। वे धार्मिक प्रवृत्तिको महिला थी। नन्दलालका झुकाव भी धर्मकी ओर था। वे विद्वान् थे और कवि भी । उनको सुजनतापर रोझकर ही प्रसिद्ध पण्डित हेमराजने अपनी विदुषी पुत्री 'जैनी' का उनके साथ विवाह कर दिया था। उनसे बुलाकीदासका जन्म हुआ जिसने अपनी मांकी प्रशंसा करते हुए लिखा है, "सुगुन की खानि कीधौं सुकुत की वानि सुम, कीरति की दानि अपकीरति-कृपानि है। स्वारथ-विधानि पर स्वारथ की राजधानि, रमाहू की रानि कीधों जैनी जिनवानि है ॥" ___ नन्दलालके गुरुका नाम भट्टारक त्रिभुवनकीत्ति था। उनका यश चतुर्दिक्मे विस्तृत था। त्रिभुवनकोत्ति श्रुतके पारंगत विद्वान् थे। उनके भी गुरु मुनिराय सुखेमकीत्ति इतने पवित्र विद्वान् थे कि उनका नाम लेने मात्रसे ही पाप पलायन कर जाते थे। सुखेमकीत्तिके गुरु भट्टारक जशीत्तिका तो बहुत अधिक नाम था। चारों ओर उनके संयमकी ख्याति थी। उन्होने कामदेवको वशमे कर लिया था। नन्दलालको ऐसी विद्वान् और पाचन परम्परा गुरुके रूपमे मिली थी और तदनुरूप ही वे स्वयं भी बने। कविने अपने समयके आगरेको प्रशंसामे बहुत कुछ लिखा है। उस समय वहाँ अकबरके पुत्र जहाँगीरका राज्य था। उसके शासनमे सब प्रजा सुखी थी। १. पं० नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृष्ठ ६५ । २. अगरवाल वरवंश गोसुना गाँव को, गोइल गोत प्रसिद्ध चिन्ह ता ठांव को। माताहि चन्दन नाम पिता भयरोभन्यो, नन्द कहीमनमोद गनी गन नागन्यौ। काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका, हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोजका २० वाँ त्रैवार्षिक विवरण, नन्द वा नन्दलालका विवरण । ३.बुलाकीदास, पाण्डवपुराण, प्रशस्ति । ४. सुदर्शनचरित्र, प्रशस्ति, पद्य ११-१३, का० ना० प्र० प०, २०वा त्रैवार्षिक विवरण। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १५९ कोई धार्मिक प्रतिवन्ध नहीं था । साहित्यकार भी स्वतन्त्र रूपसे लिख रहे थे। कवि नन्दलालकी तीन रचनाएं उपलब्ध है : 'यशोघरचरित्र', 'सुदर्शनचरित्र' और 'गूढ-विनोद ।' यशोधरचरित्र _ 'यशोधरचरित्र'की एक प्रति नया मन्दिर दिल्लोके सरस्वतीभण्डारमें प्राप्त है। यह वि० सं० १९७२ की लिखी हुई है। दूसरी हस्तलिखित प्रति वि० सं० १८३९ की लिखी हुई जयपुरके बधीचन्दजीके दि० जैन मन्दिरमे है। काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाकी बीसवीं त्रैवार्षिक रिपोर्टमे जिस 'यशोधरचरित्र'का उल्लेख है, उसका लेखनकाल नहीं दिया है। नन्दलालने इस काव्यका निर्माण वि० सं० १६७० श्रावण शुक्ला सप्तमीको किया था। ___ इस काव्यमें जैनधर्मके प्रगाढ़ भक्त महाराज यशोधरके जीवन-चरित्रका वर्णन है । अपभ्रंशके प्रसिद्ध कवि पुष्पदन्तसे लेकर नन्दलाल तक अनेक यशोधरचरित्रोंका निर्माण हो चुका था। अतः काव्यका कथानक तो पुराना ही है, किन्तु काव्यत्वको दृष्टिसे नयापन है। उसमें चौपाई छन्दका प्रयोग किया गया है। भाषामें प्रसादगुण है और गतिशीलता। काव्यके प्रारम्भमे सरस्वतीकी वन्दना है, "द्वै कर जोडि नऊ सरसती, बढ़े बुद्धि उपजै शुभ मती। जिन बानी मानी जिन आनि, तिनको वचन चढ्यौ परवान ॥ बिवुध विहंगम नव धन वारि, कवि कुल केलि सरोवर मार। भवसागर तू तारन भाव, कुनय कुरंग सिंघनी भाव ॥ वे नर सुन्दर ते नर वली, जिनकी पुहुमि कथा बहुचली। जिनको तें सारद वर दीयो, सुख सरिता सु अमल जल पीयो ॥" आगरेका वर्णन करते हुए कविने लिखा है कि वहां भगवान् जिनेन्द्रके १. जहाँगोर उपमा देऊ काहि, श्री सुलितान नूरंदो साहि । कोश देश मंत्री मति गूढ, छत्र चमर सिंघासन रूढ ।। धन कन पूरन तुंग अवासु, वसहिं निसक धर्म के दाम । सुदर्शनचरित्र, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य ५०५, ५०३, वही। २. संवत् सोरशे अधिक सत्तरि शावन मास । सुकुल सोम दिन सत्तमी, कही कथा मृदु मास ॥ यशोधरचरित्र, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य ६। ३. यशोधरचरित्र, श्रादि भाग, जयपुरके श्री बधीचन्दजी दि० जैन मन्दिरकी हस्तलिखित प्रति। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि भक्तोंकी कमी नहीं थी। अनेक धर्मवन्तोंने असंख्य रुपया व्यय करके जिनमन्दिरोका निर्माण करवाया था। उनमे जिनमूत्तियोकी प्रतिष्ठा भी हुई थी। जैन पुराणोंकी प्रतिलिपियाँ हो रही थीं। जैन कवि भक्तिसे युक्त कविता रचनेमे प्रवृत्त थे, "होहि प्रतिष्टा जिणवरतनी, दीसहि धर्मवंत बहुधनी । एक करावहि जिणवरधाम, लागे जहां असंषिन दाम ।। एक लिखा के परम पुरान, एक करहि संतीक प्रधान । राज चैन कोऊ सकति न लुपैं, कविता कवित्त तपी तप त।"' सुदर्शनचरित्र _ 'सुदर्शनचरित्र'की एक प्रति पंचायती मन्दिर दिल्लीमे मौजूद है। कवि नन्दलालने इस काव्यको वि० सं० १६६३ माघ शुक्ला पंचमी गुरुवारके दिन रचा था। काव्यमे सेठ सुदर्शनका चरित्र चित्रित किया गया है। वह एक भक्त सेठ था। इसलिए इस काव्यमे प्रारम्भसे अन्त तक भक्तिकी धारा ही प्रवाहित हो रही है। कथानकपर अपभ्रंशके 'सुदंसणचरिउ' का पूरा प्रभाव है। भाषा और भाव दोनों ही सुन्दर है। पूरा काव्य 'चौपाई छन्दमे लिखा गया है। आगरेके निवासी निःशंक होकर अपने-अपने धर्मका पालन करते थे, इस कथनको निरूपित करनेवाली एक चौपाई देखिए, "धन कन पूरन तुंग अवासु । वसहिं निसंक धर्म के दास ॥ छत्राधीश हमाऊं वंश, अकबर नंद वैरि विध्वंस ॥" गूढ़-विनोद 'गूढ-विनोद'की एक हस्तलिखित प्रति जयपुरके पण्डित लूणकरजीके मन्दिरमे रखे गुटका नं० ९ में निबद्ध है। इसमें अध्यात्म-सम्बन्धी पद और गीत हैं। १. यशोधरचरित्र, पद्य ६१४-६१५, नया मन्दिर दिल्लीकी हस्तलिखित प्रति । २. संवत सोरह से उपरंत, सठि जानहु वरिष महंत ।। माष उज्यारे पाष, गुरु वासर दिन पंचमी। बंधि चौपई भाष, नंद करी मति सारशी॥ सुदर्शनचरित्र, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य ६-७, वही । ३. नैना नंदि आदि जो कही, ताहि विधि बांध्यो चौपही ।। सुदर्शनचरित्र, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य १३, वही। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ४८. कवि सुन्दरदास (वि० सं० १६७५) जैन कवि सुन्दरदास हिन्दीके सन्त सुन्दरदाससे पृथक् थे। जैन कवि सुन्दरदास बागड़ प्रान्तके रहनेवाले थे। दिल्लीके आस-पासका प्रदेश बागडके नामसे प्रसिद्ध था। कहा जाता है कि ये शाहजहां बादशाहके कृपापात्र कवियोंमें से थे । बादशाहने इनको पहले कविराय, फिर महाकविरायका पद प्रदान किया था। ये औरंगजेबके समय तक जीवित रहे।' सन्त सुन्दरदासका जन्म 'घौंसा' नामक स्थानपर हुआ था जो जयपुरसे १६ कोस पूर्वमे स्थित है। इनके पिताका नाम चोखा और माताका नाम सती था। इनकी रचनाओमे 'सुन्दर विलास' ही अधिक प्रसिद्ध है। वह अध्यात्मका प्रन्थ है। जैन कवि सुन्दरदास भी अध्यात्मवादी थे। दोनोकी भाषा, शैली और भावधारामे बहुत कुछ साम्य है, किन्तु दोनोंका अन्तर भी स्पष्ट है। जैन कवि सुन्दरदासके चार अन्योंका अनुसन्धान हो चुका है : 'सुन्दर सतसई', 'सुन्दर विलास', 'सुन्दर शृंगार' और 'पाखण्ड पंचासिका'। काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका सम्पादकोने जब 'सुंदर भंगार' की खोज की, तो उसके प्रारम्भमें "श्री जिनाय नमः पुनः गणेशाय नमः, देवी पूजू सरस्वती हरेक पाय । नमस्कार कर जोर कै कहै महाकविराय ॥" लिखा हुआ प्राप्त किया । उसपर टिप्पणी लिखते हुए उन्होने कहा, "इसके प्रारम्भमे 'श्री जिनाय नमः' क्यों लिखा है, यह प्रश्न अपने सभी आश्चर्योंके साथ उपस्थित है। किन्तु हिन्दीके जैन कवि प्रायः अपनी रचनाओंके प्रारम्भमें भगवान् जिनेन्द्रके साथ-साथ गणेश और सरस्वतीको भी वन्दना करते रहे है। श्री अचलकीत्तिने तो अपने 'विषापहार स्तोत्र के प्रारम्भमें "विश्वनाथ विमल गुन ईस । विहरमान बंदौ जिन बीस ॥ ब्रह्मा विष्णु गनपति सुन्दरी । वर दीजो मोहि बागेसुरी" तक कहा है। कवि सुन्दरदासके पदोके मध्यमें स्थान-स्थानपर भगवान् जिनेन्द्र के गुणोंको महिमाका वर्णन है । इससे उनका जिन-भक्त होना सिद्ध ही है। १. का० ना० प्र० पत्रिका, Annual Report Search for Hindi Manuscripts-1901, No. 3. २. डॉ० मोतीलाल मेनारिया, राजस्थानी भाषा और साहित्य, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, वि० सं० २००८, पृ० २६३ । ३.का. ना० प्र० पत्रिका, Annual Report search for Hindi Manuscripts-1901, No. 3. ४. देखिए वही। ५. का० ना० प्र० पत्रिकाका १५वाँ त्रैवार्षिक विवम्ण, अचलकत्तिं जैनका विवरण । २१ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि सुन्दर श्रृंगार काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकामै 'सुन्दर श्रृंगार'की दो हस्तलिखित प्रतियोंका उल्लेख है । पहली जोधपुरके राजकीय पुस्तकालयमे मौजूद है। इसमें ९०० पद्य हैं। यह वि० सं० १७९१ में लिखी गयी थी। दूसरी श्री भाग्यसागर गणिके शिष्य पं० दौलतसागरने कानपुरमें वि० सं० १८३५ में लिखी थी। तीसरी हस्तलिखित प्रति मेवाड़के प्रसिद्ध राजकीय पुस्तकालय सज्जन वाणीविलासमे प्रस्तुत है । यह प्रति वि० सं० १८११ को लिखी हुई है। इसमे ४५९ पद्य हैं ।' इसके अनुसार यमुना तटपर बसे हुए आगरे नगरमें बैठा हुआ शाहजहाँ बादशाह राज्य करता था, "नगर आगरी बसत है जमुना तट सुम थान । तहां पातसाही करें बैठो साहिजिहांन ॥२॥" जयपुरके पण्डित लूणकरजीके मन्दिरमै विराजमान गुटका नं० १२६मे भी श्रो सुन्दरदासजीका 'सुन्दर श्रृंगार' निबद्ध है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति अतिशय क्षेत्र महावीरजीके शास्त्रमण्डारमें मौजूद है। प्रति सुन्दर है। विषय श्रृंगार रससे सम्बन्धित है। पाखण्ड पंचासिका ___ यह रचना जयपुरके बड़े मन्दिरमें विराजमान गुटका नं० १२०में निबद्ध है । इसमें पाखण्डको बुरा कहा गया है। इस काव्यसे प्रमाणित है कि कविराय सुन्दरदास योगीन्दु, रामसिंह और देवसेनकी परम्परामें थे। उन्होंने बाह्य कर्मकलापोके परित्यागकी बात कही है। सुन्दर सतसई और सुन्दर विलास दोनों कृतियां, जसवन्तनगरके दि. जैन मन्दिरके एक गुटकेमें संकलित हैं। यह गुटका स्वयं सुन्दरदासजीने मल्लपुरमें वि० सं० १६७८ में लिखा था।' दोनों रचनाओंमें आध्यात्मिकतासे भरे पोंका समावेश हुआ है । कवि अपने 'जी'को सम्बोधन करते हुए कहता है, "ओरे जिया! तू विषयरसको छोड़ दे, विससे तुझे सुख प्राप्त होवे । तू सम्पूर्ण विकारोंको छोड़कर जिनेन्द्रके गुण गा। १.का. ना प्र० पत्रिका, Annual Report Search for Hindi Manuscripts-1901, No. 3. २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग १, पृ० १५६ ॥ ३. कामताप्रसाद बैन, हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ १२७-२८ । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य तेरी महत्ता इसीमें है कि तुझे फिर इस चतुर्गतिमें न आना पड़े, और ऐसा तभी हो सकेगा जब तू क्षण-क्षणमे भगवान् जिनेन्द्रके गुण गायेगा। अपनी आत्मामें चित्त लगानेवाला पुरुष अचल पद प्राप्त करता है, "जिया मेरे छांदि विषय रस ज्यौ सुख पावै । सब ही विकार तजि जिण गुण गावै। घरी-घरी पल-पल जिण गुण गावै । ताते चतुर गति बहुरि न था। जौ नर निज आतमु चित लावै । सुन्दर कहत अचल पद पावै ॥' सुन्दरदासजीके लिखे हुए पद मन्दिर ठोलियान जयपुरके गुटका नं० ११० मे और दि. जैन मन्दिर बडौतके शास्त्रभण्डारके पदसंग्रहमें संकलित है। एक पदमें जीवको मूर्खता बताते हुए कविने लिखा है कि वह एक ओर तो संसारका आनन्द चाहता है और दूसरी ओर मोक्षसुख । किन्तु यह तो वैसे ही है जैसे कोई पत्थरकी नावपर चढ़कर समुद्रसे पार होना चाहे। शय्या बनाये कृपाणोकी और चाहे विश्राम, यह असम्भव है । वह पद्य इस प्रकार है, "पाथर की करि नाव पार-दधि उतस्थौ चाहै, काग उड़ावनि काज मूढ़ चिन्तामणि बाहै। बसै छाँह बादल सणी रचै धूम के धाम, करि कृपाण सेज्या रमै ते क्यों पा विसराम ॥" कवि सुन्दरदासको अपने आराध्यकी महिमामे अटूट विश्वास था। उनक आराध्यने चिपका ध्यान घरके संसारसे मुक्ति प्राप्त की थी। उसके समान विश्वमे और कोई नहीं है । उसकी भक्तिसे रोग-विरोग दूर हो जाते हैं, "रहत भये संसार सौं जी हिरदै धरि करि ध्यान, ध्यान धरयौ चिद्रूप सौं जी उपज्यौ है केवल ज्ञान । रोग विरोग न संघरै हो मन वछित फळ होइ, कर जोडै सुन्दर मणे स्वामी तुम सम और न कोइ ॥"' १. वही, पृष्ठ १२६ । २. मन्दिर ठोलियान, जयपुरका गुटका नं० ११०, पृष्ठ १२०, पद्य ५वाँ । ३. दि० जैन मन्दिर, बड़ौनके शाखभण्डारके पदमंग्ररकी हस्तलिखित प्रति, पृष्ठ ३३ । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि १६४ धर्म सहेली सुन्दरदासको यह कृति दीवान बन्धीचन्दजीके मन्दिर जयपुरके गुटका नं० ५१ में निबद्ध है । रचना सरस हैं। इसमें केवल ७ पद्य है । ४९. पं० भगवतीदास ( वि० सं० १६८० ) पं० भगवतीदास अम्बाला जिलेके बूढिया नामक स्थानपर उत्पन्न हुए थे । उस समय बुढ़िया धन-धान्यादिसे सम्पन्न एक रियासत थी। अब तो वहाँ खण्डहर अधिक है। भगवतीदासका कुल अग्रवाल और गोत्र वंसल था । उनके पिता किसनदासने वृद्धावस्थामे मुनिव्रत धारण कर लिया था । भगवतीदास बूढ़ियासे जोगिनीपुर ( देहली ) जाकर रहने लगे थे । देहलीमे मोतीबाजार के पार्श्वमन्दिर के पास हो पण्डितजीका निवास-स्थान था । कवि भगवतीदास के गुरुका नाम भट्टारक महेन्द्रसेन था, जो उस समय दिल्लीकी भट्टारकीय गद्दीपर प्रतिष्ठित थे । महेन्द्रसेन काष्ठासंघ माथुरगच्छीय भट्टारक गुणचन्द्र ( वि० सं० १५७६ ) के प्रशिष्य और सकलचन्दके शिष्य थे । भगवतीदासने अपनी प्रत्येक रचना में महेन्द्रसेनका उल्लेख किया है । .२ कवि भगवतीदासकी अधिकांश कृतियाँ सम्राट् जहाँगीर के शासनकाल ( सन् १६०५ - ६२ ) मे पूर्ण हुई । कतिपय अवशिष्ट रचनाएं शाहजहाँके राज्य ( सन् १६२८-५८ ) मे भी रची गयीं। कविबे जहाँगीरको प्रशंसा की है। रचनाओ - का निर्माण किसी एक स्थानपर न होकर देहली, आगरा, हिसार, कैथिया, संकिसा आदि अनेक स्थानोंपर हुआ । उनकी २५ कृतियाँ उपलब्ध हैं, जिनमे १. प्रशस्ति, बृहत्सीतासतु, सलावा प्रति, अनेकान्त, वर्ष ११, पृष्ठ २०५, पादटिप्पण २ | २. भट्टारक सम्प्रदाय, जोहरापुरकर, जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, १६५८, पृ० २४३, लेख संख्या (५६६-६०३ ) । ३. बरे राज लवली जहांगीर का फिरिय जगति तिस आनि हो । शशि रस वसु विदा घर हो संवत मुनहु सुजान हो ॥ गुरु मुनि माहेन्द्रसेनजी पदपंकज नमुं तास हो । सहर सुहाया बूड़िये कहत भगौतीदास हो ||३५| सुगति शिरोमणि चूनड़ी, देखिए वही, लेख संख्या, ५६६, पृष्ठ २३० ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि: जीवन और साहित्य १६५ 'ज्योतिषसार' और 'वैद्यविनोद' नामकी दो रचनाएं भी हैं। अवशिष्ट २३ साहित्यिक कृतियां है। वे आध्यात्मिकता और भक्तिसे पूर्ण है। उनकी भाषा सरस हिन्दी है। भगवतीदासने 'नवांककवली' और 'द्वात्रिशदिन्द्रकवली'को प्रतिलिपि भी की थी। रचनाओका परिचय निम्न प्रकार है, मुगति रमणी चूनड़ी इसकी रचना बूढ़िया गांवमे वि० सं० १६८०मे हुई थी। उस समय जहांगोरका राज्य था। इसमे ३५ पड़ है। यह एक रूपक-काव्य है। इसमें मुक्ति रमणीको चूनड़ी बनाया है। यह चूनड़ो ज्ञानरूपी सलिलमे भिगोकर सम्यक्त्व रूपी रंगमे रंगी जाती है। चूनड़ी स्त्रियोंके ओढ़नका उत्तरीय रंगीन वस्त्र है। लघु सीतासतु ___कविने पहले वि० सं० १६८४ मे 'बृहत्सीतासतु'का निर्माण किया था, किन्तु रचना बड़ी हो गयी थी और उसमे आकर्षण भी नहीं रहा था, अतः उन्होने उसे वि० सं० १६८७ चैत्र शुक्ला चतुर्थी चन्द्रवारको संक्षिप्त करके चौपईबद्ध कर दिया। अब यह उपलब्ध है। ___ 'लघुसीतासतु' मे रावणकी पत्नी मन्दोदरी और सीताका संवाद दिया है। मन्दोदरी सीताको रावणके साथ सम्भोग करनेके लिए प्रेरित करती है और सीता अपने सतीत्वपर दृढ़ रहती है। ये संवाद १२ महीनों में से प्रत्येकको लेकर लिखे गये है । आषाढ़ के संवादकी कतिपय पंक्तियां देखिए, मन्दोदरी : "तब बोलाइ मन्दोदरि रानी, रुति अषाढ़ धनघट बहरानी । पीय गए ते फिर घर आवा, पामर नर नित मंदिर छावा ॥ लवहिं पपीहे दादुर मोरा, हियरा उमग धरत नहिं मोरा । बादर उमहि रहे चौपासा, तिय पिय बिनु लिहिं उसन उसासा ॥ नन्हीं बूंद भरत झर लावा, पावस नम भागमु दरसावा । दामिनि दमकत निशि अंधियारी, विरहिनि काम-वान उरि मारी। भुगवहिं भोग सुनहिं सिख मोरी, जानव काहे मई मति मोरी। मदन रसाइन हुइ जग सारू, संजम-नेमु कथन विवहारू ॥ १. ज्योतिषसार और वैद्य विनोदकी प्रशस्तियाँ ‘भट्टारक सम्प्रदाय में लेखांक ६०१ और ६०२ पर निबद्ध हैं। २. वही, लेखांक ६०४ व ६०५। ३. पचायती मन्दिर देहलीको 'लघु सीतासतु' की हस्तलिखित प्रति । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काम्य और कवि जब लगि हंस शरीर महि, तब लगु कीजह मोगु । राज तजहिं मिक्षा भमहि, हउं भूला सब लोगु ॥" सीता : "शुक-नासिक मृग-हग पिक-बइनी, जानुकि वचन लवह सुखि रहनी अपना पिय पइ अमृत जानी, अवर पुरुष रवि-दुग्ध समानी ॥ पिय चितवनि चितु रहइ अनन्दा, पिय गुन सरत बढ़त जस कंदा । प्रीतम प्रेम रहइ मनपरी, तिनि बालिमु संगु नाहिं दूरी । सुख चाहइ ते बावरी, परपति संग रति मानि । जिउ कपि शीत विथा मरह, तापत गुंजा आनि ॥ तृष्णा तो न बुझाइ, जलु जब खारी पीजिये। मिरगु मरइ धपि धाइ, जल धोखह थलि रेतकह ॥" मनकरहा रास ___ यह एक रूपक-काव्य है। इसमे मनको 'करहा' बनाया गया है । करहा ऊंटको कहते है । सबसे पहले मुनि रामसिंहने अपने 'पाहुड दोहा' मे मनके साथ करहाकी उपमा दो है । मुनिजी राजस्थानी थे, अतः उनके द्वारा दी गयी इस उपमामे मौलिकता और स्वाभाविकता है। पं० भगवतोदास पजाबी थे। उन्होंने अवश्य ही 'मनकरहा' 'पाहुड दोहा से लिया होगा, किन्तु केवल एक शब्द ले लेनेसे कोई रचना 'बासी' नहीं हो जाती। 'मनकरहा रास' एक सरस और मौलिक कृति है। उसमें २५ पद्य हैं। वहां संसाररूपी रेगिस्तानमें मनरूपी करहाके भ्रमणकी कहानी कही गयी है। जोगीरास ___ इसमे ३८ पद्य है । उनमे बताया गया है कि यह जीव इन्द्रिय सुखके कारण संसारमें भटक रहा है। उसे चाहिए कि अपने मनको स्थिर कर, अपने ही आन्तरिक घरमें विराजमान चिदानन्दरूपी शिवनायकका भजन करे । ऐसा करनेसे वह भव-समुन्द्रसे पार हो जायेगा "पेखहु हो तुम पेखहु माई, जोगी जगमहि सोई । घट-घट-अन्तरि वसइ चिदानन्दु, अलख न लखिए कोई । भव-वन-मूल रह्यौ भ्रमिरावलु, सिवपुर-सुध विसराई परम प्रतीन्द्रिय शिव-सुख-तजि करि, विषयनि रहिउ लुभाई। अनंत चतुष्टय-गुण-गण राजहिं तिन्हकी हडं बलिहारी। मनिभरि ध्यानु जयहु शिवनायक, जिउं उतरहु भवपारी ॥" Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य चतुर बनजारा इसमे ३५ पद्य हैं । यह एक रूपक काव्य है । इसमें उस जीवको चतुर बनजारा कहा है, जिसने अपने अनुभवके बलपर संसारको असार समझा है । अनेक जैन कवियोंने जीवकी उपमा बनजारेसे दी है । १६७ जनन्द गीत और राजमती नेमीसुर ढमाल 'वोर जिनिन्द गीत' में पद्य है, उनमे भगवान् महावीरकी स्तुति की गयी १.' पद्योंमें सरसता है । 'राजमती नेमीसुर ढमाल' में राजमती और नेमीसुरके प्रसिद्ध कथानकको लेकर २१ पद्योंमें लिखा गया है । डा एक आध्यात्मिक रचना है। इसमें बताया गया है कि यह जीव ज्ञानी है किन्तु अपने प्रमुख गुणोंको छोड़नेके कारण अज्ञानी बन गया है। उसका कर्तव्य है कि शुक्लध्यान धारण कर केवलज्ञान प्राप्त करे । अन्तिम पद्य देखिए, "धर्म-सुकल धरि ध्यानु अनूपम, कहि निजु केवलनाथा वे । जंपति दास भगवती पावडु, सासउ-सुहु निव्वाथा वे ॥" अनेकार्थ नाममाला यह एक कोश-ग्रन्थ हैं । इसके तीन अध्यायोंमें क्रमशः ६३, १२२ और १ दोहे हैं । अनेकार्थ शब्दोंका पद्य-बद्ध ऐसा कोश हिन्दी साहित्यको अनुपम निधि है । इसकी रचना बनारसीदासजीकी 'नाममाला के १७ वर्ष उपरान्त हुई । किन्तु इस जैसी सरसता नाममालामें नहीं है । इसका रचनाकाल वि० सं० १६८७ आषाढ़ कृष्णा तृतीया गुरुवार और रचना स्थल देहली-शहादरा माना जाता है । इसकी एक हस्तलिखित प्रति पंचायती जैन मन्दिर देहलीके शास्त्र भण्डार में निबद्ध है । मृगांक लेखा चरित इसका निर्माण पं० भगवतीदासने वि० सं० १७०० अगहन शुक्ला पंचमी सोमवार के दिन हिसार नगरके वर्धमान मन्दिरमे किया था। इस ग्रन्थकी भाषा अपभ्रंश है, किन्तु उसमें हिन्दीका बहुत बड़ा अंश गर्भित है । फिर भी यह अपभ्रंशकी अन्तिम कृति मानी जाती है । इसमे चन्द्रलेखा और सागरचन्दके चरित्रका वर्णन है । अनेक विपत्तियाँ आयी किन्तु चन्द्रलेखा अपने सतीत्वपर दृढ़ रही । यह एक खण्ड-काव्य है । कथानकमे आकर्षण है । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि आदित्यत्रतरास आदि पं० भगवनोदासको अवशिष्ट कृतियाँ साधारण है, किन्तु उनमे कहीं-कही भावपरकता भी है । वे रचनाएं इस प्रकार हैं- 'आदित्यव्रत रास' (२० पद्य), ‘पखवाडाराम' (२२), ‘दशलक्षणरास' (३४), 'खिचडीरास' (४०), 'साधुसमाधिरास' (३०), 'रोहिणी व्रतरास' (४२), 'द्वावग अनुप्रेक्षा' ( १२ ), ' सुगन्धदशमीकथा' (५१), 'आदित्यवारकथा' (४६), 'अनथमीकथा' (२६), 'सज्ञानीढमाल', 'आदिनाथ स्तवन', 'शान्तिनाथ स्तवन' । ५०. पाण्डे रूपचन्द (वि० सं० १६८० - १६९४ ) पं० नाथूराम प्रेमीने, 'अर्थ- कथानक' के संशोधित संस्करणमे रूपचन्द नामके चार व्यक्तियों का उल्लेख किया है। उनमें प्रधान वे हैं, जिनके साथ बैठकर कवि बनारसीदास अध्यात्मचर्चा किया करते थे । दूसरे वे है, जिनसे 'गोम्मटसार जीवकाण्ड' पढकर बनारसीदासका मिथ्यात्व दूर हुआ था। तीसरे वे हैं, जिन्होंने संस्कृत में 'समवशरण पाठ' की रचना की, और चौथे वे है, जिन्होंने 'नाटक समयसार' की भाषा- टीका लिखी । इनमे दूसरे रूपचन्द ही पाण्डे रूपचन्द है । कवि बनारसीदासने उन्हे 'गुरु' अथवा 'पाण्डे' कहकर अभिहित किया है। पं० प्रेमीने पाण्डे रूपचन्द और 'समवशरण पाठ' के रचयिता पं० रूपचन्दको भिन्न माना है। किन्तु सत्य यह है कि दोनों एक थे। दोनों संस्कृतके विद्वान् थे, दोनोंने बनारसमे शिक्षा पायी और दोनोंका समय भी एक था । २ 'समवशरण पाठ' को 'केवल ज्ञानकल्याणाच' भी कहते है । इसकी रचना वि० सं० १६९२ मे हुई थी। इसकी प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि पाण्डे रूपचन्दका जन्म कुरु देशके सलेमपुर नामके स्थानपर हुआ था । उनके पितामहका नाम मामट और पिताका नाम भगवानदास था । भगवानदासकी दो पत्नियां थीं । पहली से ब्रह्मदास और दूसरीसे हरिराज, भूपति, अभयराज, कोर्त्तिचन्द और रूपचन्दका जन्म हुआ । रूपचन्दका वंश अग्रवाल और गोत्र गर्ग था । उन्हें १. पं० नाथूराम प्रेमी, अर्थकथानक, पृ० ८६-६८ ॥ २. वही, पृ० ६३ । ३. समवशरण पाठ, अन्त भाग, ३४वाँ श्लोक, प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली, १००वीं प्रशस्ति, पृ० १६१ ४. वही, अन् भाग, पद्म १-३, १० १५८, पद्म ४-५, पृ० १५६ । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य शिक्षा प्राप्त करनेके लिए बनारम भेजा गया। वहां रहकर उन्होने व्याकरण, जैन दर्शन और जैन सिद्धान्तमे निपुणता प्राप्त की । उम समय बनारसमें अवश्य ही जैन - शिक्षाका प्रबन्ध होगा । १६९ बनारस से लौटकर पाण्डे रूपचन्द दरियापुरमे आये । वहाँपर ही उनका परिवार रहने लगा था। वे आगरा भी गये थे, जैसा कि बनारसीदासजीके 'अर्ध- कथानक' से विदित है । वहाँ उन्होंने निहुना साहुके मन्दिर मे निवास किया था। इस मन्दिर मे भट्टारक या उनके शिष्य-प्रशिष्य हो ठहर सकते थे, अन्य नहीं । इसी आधारपर पं० नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि वे किसी भट्टारक के शिष्य थे । उनकी पाण्डे संज्ञा भी इसी अनुमानका समर्थन करती है, उस समय भट्टारकोंके शिष्य पाण्डे कहलाते थे । पाण्डे रूपचन्द विद्वान् थे और कवि भी । उन्होंने जैन ग्रन्थोमे विवेचित अध्यात्म पक्षको भली भाँति समझा था । उसी आधारपर वे बनारसीदास और उनके अध्यात्मी साथियोके उस भ्रमका उन्मूलन कर सके, जो 'समयसार' की राजमल्लीय टीकासे उत्पन्न हुआ था। दूसरी ओर उन्होंने हिन्दीमे गीति-रचना की, जो उत्कृष्ट कोटिका साहित्य मानी जाती है । उनके गीति काव्य इस प्रकार है, 'परमार्थी दोहाशतक', 'गीतपरमार्थी', 'मंगलगीत प्रबन्ध', 'नेमिनाथ रासा', 'खटोलना गीत' । 'अर्ध कथानक' के अनुसार पाण्डे रूपचन्दजीका देहावसान वि० सं० १६९४मे हुआ था परमार्थी दोहाशतक यह काव्य बहुत पहले 'रूपचन्द शतक' नामसे 'जैन हितैषी' में प्रकाशित १. अनायास इस ही समय नगर आगरे थान | रूपचन्द पंडित गुनी आयो आगम जान || तिहुना साहु देहरा किया, तहां आय तिन डेरा लिया । सब अध्यात्मोकियो विचार, ग्रन्थ पंचायो गोम्मटसार ॥ अर्धकथानक, बम्बई, अक्टूबर १६५७, पद्य ६३० - ६३१, पृ०७० । २ वही, प्रथम संस्करण, १६४२ ई०, परिशिष्ट ४, १०७८ ३. वही, संशोधित संस्करण, पद्य ५६३, ५६४, ५६५, और ६३४, पृ० ६६ और ७० । ४. फिरि तिस समै बरस द्वै बोच । रूपचंद को आई मोच ॥ सुनिसुनि रूपचंद के बैन । बानारसी भयो दिढ़ जैन || ६३५ || २२ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि हो चुका है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति जैनसिद्धान्तभवन भारामे भी मौजूद है। ___ यह काव्य अध्यात्म तत्वके मनोरम पद्योंसे युक्त है। यदि आत्मासे कर्ममलीमस दूर हो जायें, तो वह ही परमात्मा है। कबोरने भी माया-रचित जीवकी आत्माको ब्रह्म कहा है। किन्तु वह आत्मा ऐसा सामर्थ्यवान् होते हुए भी, कर्मोके कारण समारमै भ्रमण करता है। उमीको सम्बोधन करते हुए कविने कहा है, "अपनो पद न विचार के, अहो जगत के राय । भववन छायक हो रहे, शिवपुर सुधि विसराय ॥ मववन भरमत ही तुम्हें, बीतो काल अनादि । अब किन धरहिं संवारई, कत दुख देखत वादि ॥ परम अतीन्द्रिय सुख सुनो, तुमहि गयो सुलझाय । किंचित इन्द्रिय सुख लगे, विषयन रहे लुभाय ॥ विषयन सेवते मये, तृष्णा ते न बुझाय । ज्यों जल खारा पीवतें, बाढ़े तृषाधिकाय ॥" पाण्डे रूपचन्द दृष्टान्त देनेमे निपुण है। उनमे बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव समुचित रूपसे प्रतिष्ठित हुआ है। एक स्थानपर उन्होंने लिखा - चेतनसे परिचय बिना जप-तप व्यर्थ है, ठीक वैसे ही, जैसे कणोंके बिना तुषको फटकनेसे कुछ हाथ नहीं आता । यदि चेतनसे परिचय नहीं तो व्रतोके धारण करनेसे क्या होता है। यह तो वैसे ही है जैसे धान्यसे रहित खेतकी बाड़ी बनाना बेकार है, "चेतन चित परिचय बिना, जप तप सबै निरस्थ । कन बिन तुस जिमि फटकतै, आवै कछ न हत्य॥ चेतन सौं परिचय नहीं, कहा भये व्रत धारि । सालि विहूनें खेत की, वृथा बनावत वारि।" यह काव्य एक प्राचीन गुटकेमे 'दोहरा शतक' के नामसे निबद्ध है। यह गुटका बनारसीदासके अनन्य मित्र कुंवरपालका लिखा हुआ है। इसमे भक्तिरससे युक्त एक सुन्दर पद्य दिया है, "प्रभु तेरी परम विचित्र मनोहर मूरति रूप बनी। अंग अंग की अनुपम सोमा, बरनि न सकत फनी ॥ १. जैन हितर्षी, भाग ६, अंक ५-६। २. यह गुटका श्री कुंवरपालने वि० सं० १६८४-१६८५ में लिखा था। यह गुटका पं० नाथूरामजी प्रेमीके पास श्री अगरचन्दजी नाहटाने मेजा था। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य सकल विकार रहित बिनु अंबर, सुंदर सुभ करनी । निराभरन मासुर छबि सोहत, कोटि तरुन तरनी ॥ वसु रस रहित सांत रस राजत, खलि इहि साधुपनी । जाति बिरोधि जंतु जिहि देखत, तजत प्रकृति अपनी ॥ दरिनु दुरित हरै चिर संचितु, सुर-नर-फनि मुहनी । रूपचन्द कहा कहौं महिमा, त्रिभुवन मुकुट-मनी ॥ " गीत परमार्थी यह काव्य भी आत्माको सम्बोधन करके ही लिखा गया है । सद्गुरु अमृतमय तथा हितकारी वचनोसे चेतनको समझाता है, किन्तु वह चेनता नहीं । जब चेतन ज्ञानरूप हैं, और समझानेवाला कोई साधारण व्यक्ति नहीं, अपितु स्वयं सद्गुरु हैं, तब तो उसे समझना ही चाहिए। किन्तु वह नही समझता यह ही आश्चर्यकी बात है, " चेतन, अचरज भारी, यह मेरे जिय आवै । अमृत वचन हितकारी, सद्गुरु तुमहिं पढ़ावै । सद्गुरु तुमहिं पढ़ावै चित है, अरु तुमहू हौ ज्ञानी । तबहू तुमहिं न क्यौं हू आवै, चेतन तत्र कहानी ॥ " १७१ इसके विपरीत यह आत्मा विषयोमे ऐसी चतुर है कि कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता । और यह चतुरता बिना किसी गुरुके प्राप्त हुई है । कविका तात्पर्य है कि सांसारिक विषयो में ऐसा तीव्र आकर्षण होता है कि यह चेतन उसमें स्वतः लिप्त हो जाता है । "विषयनि चतुराई कहिए, को सरि करै तुम्हारी । बिन गुरु फुरन कुविद्या कैसें, चेतन अचरज भारी ॥" निर्गुणवादी सन्तोंकी भांति कविने कहा है कि यह चेतन अपनी वस्नुको भूलकर इधर-उधर भटक रहा है। वह चावल के कणोंको छोड़कर छिलका ग्रहण कर रहा है। उसकी वस्तु उसके ही अन्तरमें विराजमान है। यदि चतुर चेतन स्वानुभवकी बुद्धिसे उसे देखे तो देख सकता है, १. इसके छह गीत, परमार्थ जकड़ी संग्रह, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बई में प्रकाशित हो चुके हैं। इसके दस गीत, बृइज्जिनवाणी संग्रह, पं० पन्नालाल बाकलीवाल सम्पादित, मदनगंज, किशनगढ़, पृ० ५६२ - ५६६, सम्राट् संस्करण में छप चुके है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि "अपनी वस्तु सँभारि विसरी, कहा इत उत मटक ही । बहिरमुख भूल्यों मया कत छोडि कन तुष झटक ही ॥ निज वस्तु अंतरगत विराजित, चिदानंद निकेतना । स्वानुभव बुद्धि प्रर्जुजि देखहि चेति चतुरमति चेतना ॥" मंगल गीत प्रबन्ध' इसे 'पंचमंगल' भी कहते है । इसमे तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्षको लेकर भक्तिपूर्ण पदोकी रचना हुई है । यह काव्य बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ । उसमे कुछ ऐसा सौन्दर्य है जो आज भी प्रत्येकको आकर्षित करता है । भगवान्को गर्भमे आया हुआ जानकर, इन्द्रने कुबेरको भेजा, और उसने भगवान् की नगरीको कनक और रत्नोंसे जड़कर अद्वितीय बना दिया । भगवान्‌के पिताके घरमे छह माह पूर्वसे ही रत्नोंकी वर्षा आरम्भ हो गयी । रुचिकवासिनी देवियाँ प्रसन्न हो-होकर जननीकी सेवा करने लगी, "जाके गरम कल्याणक धनपति आइयो । अवधि ज्ञान परवान सु इन्द्र पठाइयो | रचि नव बारह जोजन नयरि सुहावनी ॥ कनक रयणि मणि मंडित मंदिर अति बनी ॥ ति बनी पौरि पारि परिखा सुवन उपवन सोहये । नर नारि सुन्दर चतुर सुख भे देख जन मन मोहये ॥१॥" भगवान्का जन्मोत्सव मनानेके लिए इन्द्र परिवारसहित स्वर्गसे चल पड़ा । मार्गमें अप्सराओंके नृत्य हुए । उनकी कमर में बँधी कनककी किंकिणियोसे मधुर स्वर निकलता था | घण्टोसे घन घनकी ध्वनि आ रही थी । ध्वजा पताकाएँ फहरा रही थीं । उन्हें देखकर तीनों लोक मोह गये, “दलदलहिं अपर नहिं नवरस हाव भाव सुहावने ॥ मणि कनक किंकिणि वर विचित्र सु अमर मंडप सोहये । घन घंट चंवर धुजा पताका देखि त्रिभुवन मोहये ॥ ६ ॥" केवलज्ञानके उपरान्त भगवान्‌के समवशरणको रचना हुई। उसमे भगवान्‌की सेवा करनेवाले, नारी और नर, परमानन्दका अनुभव करते | मारुत देव भगवान्के चारों ओर योजन प्रमाण पृथ्वीको झाड़कर शुद्ध बना देते है । मेघ १. यह अनेक बार छप चुका है। अब ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, १६५७ ई० में, पृ० ६४ - १०४ पर प्रकाशित हुआ है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य कुमार गन्धोदककी सुहावनी वृष्टि करते हैं। देव भगवान्के पैरोके नीचे कमलोंकी रचना करते है। "अनुसरे परमानंद सब को, नारि नर जे सेवता । जोजन प्रमान धरा सुमार्जहि जहां मारुन देवता ॥ पुनि करहि मेघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सुहावनी। पद कमलतर सुर खिपहिं कमल सु धरणि ससि सोभा बनी ॥१९॥" लघुमंगल पाण्डे रूपचन्दकी लिखी हुई यह कृति दि. जैन मन्दिर, बडौतके गुटका नं० ५५ वेष्टन नं० १७२ पृ० ४५-४७ पर अंकित है। इसमे केवल पांच पद्य है, प्रत्येक पद्यमे छह पंक्तियां है। कविने प्रथम पद्यमे ही अपनी लघुना प्रदर्शित करते हुए लिखा है कि हे प्रभु ! तुम्हारी अतुल महिमाका ठीक-ठीक विवेचन तो गणराज भी नहीं कर सकते, मै तो शक्ति-हीन हूँ, किन्तु तुम्हारी कृपासे मुखरित होकर कुछ कहता हूँ, "जै जै जिन देवन के देवा, सुर नर सकल करे तुम सेवा, अद्भुत है प्रभु महिमा तेरी, वरनी न जाय अलप मति मेरी । मेरी अलप मति वरनि न जाय अतुल महिमा तुम तणिं, गनराज वचननि सो अगोचर पूज्य पद उदोतणी। मैं सकति रहित जिनेसराय दंपति दिपति लाज न जिय धरौ। तुम सकति बसि वाचाल है प्रभु किमपि जस कीर्तन करौ ॥" नेमिनाथ रासा 'नेमिनाथ रासा' की प्रति आमेरके भट्टारक महेन्द्रकीतिके ग्रन्थ-भण्डारके एक गुटकेमे निबद्ध है, जिसे पं० परमानन्दजीने सं० १९४४ मे देखा था। 'नेमिनाथ रासा' एक सुन्दर कृति है। उसका आदि और अन्त भाग निम्न प्रकारसे है, आदि "पणविवि पंच परमगुरु मण-वच-काय ति-सुद्धि । नेमिनाथ गुण गावउ उपजे निर्मल बुद्धि । सोरठ देश सुहावनी पुहमीपुर परसिद्ध। रस-गोरस परिपूरनु धन-जन-कनक समिद्ध ॥" १. प्रशस्ति सग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली, प्रस्तावना पृष्ठ ८१ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि अन्त "रूपचन्द जिन विन, हो चरननु को दासु । मैं इय लोक सुहावनौ, विरच्यो किंचित् रासु ॥ जो यह सुरधरि गावहिं, चित दे सुनहिं जे कान । मन वांछित फल पावहिं, ते नर नारि सुजान ॥" खटोलना गीत ___ यह गोत देहलीके शास्त्र-भण्डारमे मौजूद है। यह अनेकान्त वर्ष १०, किरण २ में प्रकाशित हो चुका है। इसमे १३ पद्य है और सभी अध्यात्म रससे युक्त है । उसमे काव्य-गत रमणीयता भी है। उसका एक पद्य देखिए, "सिद्ध सदा जहां निवसहीं, चरम सरीर प्रमान । किंचिदून मरानोज्झित, मूसा गगन समान ॥" अन्य रचनाएँ उपर्युक्त रचनाओके अतिरिक्त 'सोलह स्वप्न फल' और 'जिन स्तुति' नामको दो रचनाएं और प्राप्त हुई है। पहलो जयपुरके बड़े मन्दिरके गुटका नं १२६ में निबद्ध है, और दूमरी जयपुरके वधीचन्दजीके मन्दिरमे गुटका नं० १२५ मे अंकित है। पाण्डे रूपचन्द हिन्दीके एक सामर्थ्यवान् कवि थे। उनकी भाषाका प्रसाद गुण आनन्द उत्पन्न करता है, तो सीधे-साधे भाव मर्मको रस-विभोर बना ५१. हर्षकीर्ति (वि० सं० १६८३ ) हर्षकोतिने छोटी-छोटी मुक्तक रचनाओंका निर्माण किया है। उनमें अध्यात्म और भक्ति रसको अधिकता है । उनको भाषापर राजस्थानीका प्रभाव है । इससे सिद्ध है कि वे राजस्थानके निवासी थे। हो सकता है कि वे जयपुर अथवा उसके आस-पासके रहनेवाले हों। उस समय जयपुर ऐसे लोगोंका केन्द्र हो रहा था, जो राजस्थानी मिश्रित हिन्दीमे लिख रहे थे। ये हर्षकीर्ति, हर्षकोतिसूरिसे स्पष्टरूपेण पथक है। हर्पकोत्तिमूरि तपागच्छके चन्द्रकोतिसूरिके शिष्य थे। उन्होने गुजरातीमे केवल 'विजय शेठ विजयशेठानी स्वल्प प्रबन्ध' की रचना की । हर्षकीति हिन्दोके कवि थे। उनकी रचनाओमें रस है और गतिशीलता। रचनाओंका विवरण निम्न प्रकार है : Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य पंचगति वेल इसको रचना वि० सं० १६८३ मे हुई थी। इसको एक हस्तलिखित प्रति पंचायती मन्दिर दिल्ली में मौजूद है। दूसरी प्रति जयपुरके ठोलियोके दि० जैन मन्दिरके गुटका नं० १३१ मे मंकलित है। तीसरी प्रति जयपुरके वधीचन्दजीके दि० जैन मन्दिरमै गुटका नं० ५१ में निबद्ध है। इसमे कृतिका रचना-काल वि० सं० १६८३ दिया है । यह गुटका वि० सं० १७५४ का लिम्बा हुआ है। ___ इस काव्यमे पांच इन्द्रियोसे सम्बन्धित विषयोका वर्णन हुआ है । उन विषयोमे फंसनेसे जीव निगोदमे जाता है। जीवका कर्तव्य है कि इन्द्रियोका दास न बने, और भगवान्मे ध्यान लगाये । नेमिनाथ राजुल गीत _ इसकी प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके दिगम्बर जैन मन्दिरमे स्थित गुटका नं० १६२ में निबद्ध है। इसमे कुल ६८ पद्य है। सभीम भगवान् नेमिनाथ और राजुलको लेकर भक्ति दिखायी गयी है। मोरडा इसकी प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके दि० जैन मन्दिरके गुटका नं० ११८ में निबद्ध है । इसमें भी नेमिनाथ और राजुलको लेकर विविध भावोका प्रदर्शन हुआ है, सभी भगवद्विषयक रतिसे सम्बन्धित है । आदि और अन्त देखिए। प्रारम्भ-राग सोरठी ___ "म्हारो रे मन मोडा तू तो गिरनारया उठि भायरे । नेमिजी स्यों युं कहिज्यो राजमती दुक्ख ये सौसे ॥ म्हारौ० ॥ अन्तिम "मोक्ष गया जिण राजइ प्रभु गढ गिरनारि मझार है। राजल तो सुरपति हुवौ स्वामी हर्षकीर्ति सुकारो रे । म्हारो० ॥" नेमीश्वर गीत __ इसकी प्रति बधीचन्दजीके दि. जैन मन्दिरमें गुटका नं० १६२ में निबद्ध है। इसमें कुल ६९ पद्य है। यह भगवान् नेमीश्वरकी भक्तिमे रचा गया एक गीति-काव्य है। बीस तीर्थकर जखड़ी इसकी प्रति जयपुरके ठोलियोंके जैन मन्दिरमें विराजमान एक पाठ-संग्रहमें संकलित है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि चतुर्गति वेलि यह प्रति भी जयपुरके बधीचन्दजीके दिगम्बर जैन मन्दिरमे विराजमान गुटका नं० ४३ और १४८ मे निबद्ध है। पहलेका लेखनकाल वि० सं० १७८२ और दूसरेका सं० १७९९ ज्येष्ठ वदी ११ है। जयपुरके ही पण्डित लूणकरनीके मन्दिरमे गुटका नं० २ और १८ मे भी इसकी प्रति संकलित है। कम-हिण्डोलना ____ इसकी प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमै गुटका नं० १६२ मे लिखी है। इसमे १८१ पद्य है । जयपुरके ठोलियोके जैन मन्दिरमे भी गुटका नं० २६ में इसकी एक प्रति संकलित है। अन्य रचनाएँ ____ 'छहलेश्याकवित्त' और 'भजन व पद-संग्रह' जयपुरके पं० लूणकरजीके मन्दिरमे गुटका नं० १८ मे निबद्ध है। ५२. कनककीर्ति ( १७वीं शताब्दी विक्रम उत्तराई ) कनककीर्ति खरतरगच्छोयशाखाके प्रसिद्ध जिनचन्द्रसूरिकी शिष्य-परम्परामे नयनकमलके शिष्य जयमन्दिरके शिष्य थे। इनकी समूची काव्य रचनाएं गुजराती और हिन्दीमे लिखी हुई हैं। बहुत पहले ही श्री मोहनलाल दुलीचन्द देसाई इनके द्वारा गुजरातीमे रची गयी 'नेमिनाथ रास' और 'द्रौपदी रास'-जैसी रचनाओंका विशद उल्लेख कर चुके है। दोनों ही रचनाएँ १७वी शताब्दीके अन्तिम पादकी कृतियां हैं। इनका निर्माण क्रमशः बीकानेर और जैसलमेरमें हुआ, अतः यह अनुमान किया जा सकता है कि ये उसी तरफ़के रहनेवाले थे। इन्होंने 'तत्त्वार्थ श्रुत सागरी टीका' पर एक विस्तृत हिन्दी टीका लिखी है जो गद्यमें है। __ इनकी हिन्दी कृतियोमे गीत अधिक है। सभी भगवान् या किसी ऋषिमुनिकी स्तुतिमें लिखे गये हैं । कान्यकी दृष्टिसे भी उनकी रचना प्रौढ़ है । भाषा ढुंढारी हिन्दी है, जिसमें 'है' के स्थानपर 'छै' का प्रयोग किया गया है। उन कृतियोंका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकारसे है : १. जैनगुर्जरकविमो, भाग १, बम्बई, १९२६ ई०, पृष्ठ ५६८-७२ । २. इसकी प्रति जयपुरके ठोलियोंके जैन मन्दिरमें, वेष्टन नं०४७ में मौजूद है। इसका लेखनकाल सं०१७४४ कार्तिक वदी है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य मेघकुमार गीत इस छोटे-से गीति-काव्यमे ऋषि मेघकुमारकी स्तुति की गयी है । इसमें कुल ४६ पद्य हैं। इसकी प्रति जयपुरके ठोलियोके दिगम्बर जैन मन्दिरमें वेष्टन सं० ४४० मै निबद्ध है। उसमें केवल दो पन्ने है। इसका अन्तिम भाग इस प्रकार है, "श्री वीर जिणंद पसाइ, जे मेघकुमार रिषि गाइ। ताही अगली वीनस वीजाइ, वसी संपति सगली पाइ ॥ जे मुनीवर मेघकुमार, जीणी चारित पालउसार । गुणरू श्री माणीक सीस, इम कनक मणय नीस दीस ॥" जिनराज-स्तुति इसकी प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके दि० जैन मन्दिर में गुटका नं० १२५ में लिखी है। इसकी लिपि सांगानेर में सं० १७५९ फाल्गुन सुदी ६ को हुई थी। भाषामें गुजरातीका पर्याप्त सम्मिश्रण है । विनती ___ इसकी प्रति भी जयपुरके बधीचन्दजीके दि० जैन मन्दिरके गुटका नं० ५१ वेष्टन नं० १०१७ और गुटका नं० १०८ और वेष्टन नं० १११८ में निबद्ध है। यह 'वंदू श्री जिनदाईसे प्रारम्भ होती है। यह भगवान् जिनेन्द्रकी भक्तिसे सम्बन्धित एक गीत है। श्रीपाल-स्तुति इसकी प्रति भी उपर्युक्त मन्दिरके ही गुटका नं० १०१ में निबद्ध है। इसमें श्रीपालकी स्तुति है, जैसा कि इसके शीर्षकसे विदित है। श्रीपाल, भगवान् जिनेन्द्रका परम भक्त था। यह भक्तकी भक्ति है । पद ___ कनककोत्तिके पद दि० जैन मन्दिर बड़ोतके पद-संग्रहमें संकलित हैं । कतिपय पद जयपुरके ठोलियोके जैन मन्दिर में विराजमान गुटका नं० १११ में भी निबद्ध हैं। जयपुरके छावड़ोंके मन्दिरके गुटका नं० ३४ और बधीचन्दजीके मन्दिरके वेष्टन नं. १०२३ में भी उनके पदोंका संकलन है। एक पदमें उन्होंने लिखा है कि भगवान्का नाम लेनेसे निश्चय ही शिवपद मिलता है, "नर नारी जो गावै रे भाई निहश्चै शिवपुर जावही। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कनककीरति गुण गावै रे भाई अरिहंत नांव हियै धरौ। अब लीयो जाय तोलीज्यो रे माई जिन को नांव सदा मलो ॥" एक दूसरे पदमें अपने देवको अनुपम कहते हुए कविने लिखा है, "तुम माता तुम तात तुमही परम धणी जी । तुम जग संचा देव तुम सम और नहीं जी ॥ तुम प्रभु दीनदयालु मुझ दुष दूरि करो जी। लीजै मोहि उबारि मैं तुम सरण गही जी॥ संसार अनंतन ही तुम ध्यान धरो जी। तुम दरसन बिन देव दुरगति माहि रूल्यो जी ॥२ कर्म घटावलि इसकी प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके दि० जैन मन्दिरमें गुटका नं० १०८ मे सुरक्षित है। इसमें जैन धर्मानुसार आठ कर्मोका बुरा प्रभाव दिखाया गया है। एक पद्यमें कविने लिखा है कि अपने आराध्यमे प्रेम-निष्ठ होनेसे यह जीव भवसमुद्रके पार पहुँच जाता है, "भ्रम्यौ संसार अनंत न तुम भेद लहयो जी। तुम स्यौ नेह निवारि परस्यौ नेह कीये जी ॥ पडता नरक मझारि अब उधारि करो जी। तुम स्यौ प्रेम करेरा ते संसार तिरे जी॥ कनककीरति करि भाव श्री जिन मगति रुचे जी। पढ़ सुन नर नारि सुरगा सुष लहो जी ॥" ५३. कवि बनारसीदास (जन्म वि० सं० १६४३, मृत्यु वि० सं०१७००) पारिवारिक जीवन बनारसीदासका लिखा हुआ 'अर्द्धकथानक है, जिसके आधारपर यहाँ उनका जीवनवृत्त प्रस्तुत किया जा रहा है। प्राचीन और मध्यकालीन साहित्यमें 'बईकथानक' पहला 'आत्मचरित' माना जाता है । १. मन्दिर वीचन्दनीवाली प्रति । २. मन्दिर छावड़ोंवाली प्रति । ३. प्रकथानक, पं० नाथूराम प्रेमी-द्वारा सम्पादित होकर, संशोधित साहित्यमाला बम्बई से अक्टूबर १६५७ में पुनः प्रकाशित हो चुका है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य कवि बनारसीदासजीके पितामह श्री मूलदासजी हिन्दी और फ़ारसीके विद्वान् थे। नरवरके नवाबने उन्हें अपना मोदी नियुक्त किया था। वि० सं० १६०८ सावन सुदी ५ रविवारके दिन मूलदासके घर पुत्र-जन्म हुआ । उसका नाम खड़गसेन रखा गया। वि० सं० १६१३ मे मूलदासका स्वर्गवास हो गया । उनकी धन-सम्पत्ति नवाबने ले ली। मां-बेटे जौनपुरमे आकर रहने लगे। वहाँ खड़गसेनको ननसाल थी। नाना मदनसिंह चिनालिया जौनपुरके प्रसिद्ध जौहरी थे। उस समयका जौनपुर अधिक समृद्धिशाली था। वहां हीरे-जवाहरातका बहुत ऊंचा व्यापार होता था। वह चार कोसमें बसा हुआ था। उसमें ५२ बाजार थे। इस नगरको पठान जौनसाहने बसाया था । बनारसीदासके समयमें जौनपुरका नवाब कुलीचरण था, जिसके अत्याचारसे प्रपीड़ित होकर जौहरी इधर-उधर भाग गये थे। ___ खड़गसेनजी बड़े होकर आगरेमे आये और सुन्दरदासजीके साथ व्यापार करने लगे। इसके पूर्व वे कुछ समय तक बंगालके सुलतान लोदीखांके पोतदार भी रहे थे। सुन्दरदासके साझेमें व्यापार खूब चला। उसी समय इनका विवाह मेरठके सूरदास श्रीमालकी पुत्रीसे हो गया। प्रथम पुत्रके स्वर्गवासी होनेपर उन्होंने रोहतकके पासको 'सती माता' की जात को । दो बार जात करनेपर उनके सं० १६४३ माघ सुदी एकादशो रविवारके दिन एक पुत्रका जन्म हुआ, जिसका नाम विक्रमाजीत रखा गया। छह मासके बालकको लेकर वे भगवान् पार्श्वनाथकी पूजा करनेके लिए बनारस गये। वहां उनकी प्रार्थनापर पुजारीने आशी र्वाद दिया, "भगवान् पार्श्वप्रभुके यक्षने मुझसे प्रत्यक्ष होकर कहा है कि इस बालकको कोई चिन्ता नहीं रहेगी, यदि पार्श्व-प्रभुके जन्म-स्थानके नामपर इसका नाम रखा जायेगा।" उसके निर्देशानुसार विक्रमाजीत बनारसीदास हो गये। ___ ग्यारह वर्षकी उम्रमें अर्थात् वि० सं० १६५४ माघ सुदी १२ को खैराबादके कल्याणमलकी पुत्रीके साथ उनका विवाह हुआ। जिस दिन पुत्र-वधू घरमें आयी, उसी दिन खड़गसेनकी दूसरी पुत्रीका जन्म और नानीका मरण हुआ। तोनों काम एक साथ किये गये। बनारसीदासजीके तीन विवाह हुए, जिनमें से प्रथम दो क्रमशः स्वर्गवासिनी हो गयीं। बनारसीदासजीके नौ बालक जनमे, सभी काल-कवलित हो गये । उनमें दो लड़कियां और सात लड़के थे। उसपर बनारसीदासजीने यह कहकर सन्तोष धारण किया, "तत्व दृष्टि जो देखिए, सत्यारथ की माँ ति। ज्यों जा को परिगह घटै, त्यौ ता कौं उपसांति ॥" Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि बनारसीदासकी शिक्षा-दीक्षा आठ वर्षकी अवस्थामे बनारसीदास चटशालामे विद्या ग्रहण करने जाने लगे। वहीं गुरुके पास वे एक वर्षमे ही लिखना पढ़ना सीख गये । इसके पश्चात् १४ वर्षके होनेपर उन्होंने पण्डित देवदत्तके पास विद्याभ्यास किया, और नाममाला, अनेकार्थ, ज्योतिष, अलंकार, कोकशास्त्र और चार सौ फुटकर श्लोक पढ़े। इसी समय जोनपुर मे उपाध्याय अभयधर्मजी आये, उनके साथ मानुचन्द्र और रामचन्द्र नामके दो शिष्य भी थे। मुनि भानुचन्द्रसे बनारसीदासका स्नेह हो गया, और वे उनके पास विद्याध्ययन करने लगे । मुनिजीसे उन्होंने पंचसन्धि, छन्द, कोश, जैन स्तवन, सामायिक तथा प्रतिक्रमणादि पाठ सीखे । इनके प्रति बनारसीदासजीको अगाध श्रद्धा थी । उन्होने अपनी प्रत्येक रचनामें यहांतक कि 'नाटक समयसार ' में भी उनका स्मरण किया है। बनारसीदासकी कवि-प्रतिभा जन्मजात थी । उन्होंने १५ वर्षकी अल्पायुमें एक 'नवरस' रचना लिखी, जिसमें 'आसिखोका विशेष वरनन' था । उसमें एक हजार दोहा चौपाई थे । श्रेष्ठ ज्ञान होनेपर उन्होंने यह रचना गोमतीमें प्रवाहित कर दी। इससे उनकी कवित्वशक्तिका परिचय तो मिलता ही है । बनारसीदासका वंश और गोत्र बनारसीदासका वंश श्रीमाल और गोत्र बिहोलिया था। इनकी उत्पत्तिके विषयमें बनारसीदासने लिखा है, "रोहतक के पास बिहोली नामका गाँव था, जिसमें राजवंशी राजपूत रहते थे । वे सब एक जैन गुरुके उपदेशसे जैन हो गये । णमोकार मन्त्रको माला पहननेके कारण उनके कुलका नाम श्रीमाल पड़ा । वहाँके राजाने उनके गोत्रका नाम 'बिहोलिया' रख दिया ।" इसपर टिप्पणी करते हुए पं० नाथूराम प्रेमीने लिखा है, "इसमे इतना तो ठीक मालूम होता है कि बिहोली गांवके कारण इनका गोत बिहोलिया हुआ, जैनोंके अधिकांश गोत्रोंके नाम स्थानोंके कारण ही रखे गये हैं, परन्तु समग्र श्रीमाल जातिके उत्पत्ति-स्थानके विषयमें वे कुछ नहीं कहते ।”” पण्डित प्रेमीकी दृष्टिमें श्रीमाल जातिको उत्पत्ति श्रीमाल स्थानसे हुई, जो अब भिन्नमाल कहलाता है । इसके खण्डहर अहमदाबादसे अजमेर जानेवाली रेलवे लाइनपर पालनपुर और आबू स्टेशनसे लगभग १. कथानक, दोहरा ८-१०, ५० २ | २. अर्थकथानक, परिशिष्ट, पृ० ११८ । ३. वही, पृष्ठ ११८ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १८१ ५० मील दूर गुजरातको ओर अवस्थित है। हुएनसांगके समयमें यह नगर गुर्जर देशको राजधानी था। बनारसीदास और उनका सम्प्रदाय बनारसीदासजीका जन्म श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हुआ था, किन्तु न वे श्वेताम्बर थे और न दिगम्बर । उस समय आगरेमें अध्यात्मियोंकी एक सैली या गोष्ठी थी, जिसमें सदैव अध्यात्म चर्चा हुआ करती थी । बनारसीदास उसीके सदस्य थे। 'समयसार'की राजमलजी कृत बाल-बोध टीका पढ़कर, बनारसीदासको अध्यात्म चर्चामे जो रुचि उत्पन्न हुई थी, वह वि० सं० १६९२ में पाण्डे रूपचन्दजीसे गोमट्टसार' पढ़नेके उपरान्त परिष्कृत हुई। परिणामस्वरूप वे अध्यात्म मतके पक्के समर्थक बन सके। यद्यपि बनारसीदाससे पहले ही आगरेमें अध्यात्मियोंको सैली थी, किन्तु उनके आनेके बाद उसमें स्थायित्व आया। बनारसीदासके पांच साथी थे, पं० रूपचन्द, चतुर्भुज, भगवतीदास, कुअरपाल और धर्मदास। ये सब दिन और रात केवल अध्यात्म चर्चा ही नहीं करते थे, किन्तु तदनुरूप साहित्य-सृजन भी करते थे। बनारसीदास और उनके इस साहित्यिक दलने अध्यात्मवादको अनुभूतिमय काव्यका रूप दिया। जिससे उसमें स्थायित्व तो आया हो, आकर्षण भी उत्पन्न हुआ। बनारसीदासके बादका समूचा जैन-हिन्दी साहित्य उनके काव्योंको अन्तश्चेतनासे प्रभावित है। बनारसीदासका दो सन्तोंसे मिलन कहा जाता है कि बनारसीदासजीको महात्मा तुलसीदाससे भेंट हुई थी। तुलसीदासजीने रामायणको एक प्रति बनारसीदासजीको दी थी, और उन्होंने 'विराजे रामायण घट माहि' पद की रचना कर रामायणके प्रति श्रद्धा प्रदर्शित की थी। तुलसीदासजीका स्वर्गवास वि० सं० १६८० में हुआ था, उस समय बनारसीदासको अवस्था ३७ वर्षकी थी। दोनोंकी भेंट होना असम्भव तो नहीं है। पं० नाथूरामजी प्रेमीका कथन है, "यदि गोस्वामी तुलसीदाससे साक्षात् होनेकी बात सच होती तो उसका उल्लेख 'अर्द्धकथानक' में अवश्य होता।" हो सकता है कि इस घटनाको गौण समझकर ही उन्होंने अपने जीवनवृत्तमें कोई स्थान न १. वही, पृष्ठ ३७॥ २. नाटक समयसार, बुद्धिलाल आवककी हिन्दी-टीकासहित, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, वि० सं० १९८६, प्रशस्ति, पद्य २६-२७, पृष्ठ ५३७ । ३. यह पद बनारसी-विलास, जयपुर, १६५४ ई०, पृ० २३३पर संकलित है। ४. भर्द्धकथानक, भूमिका, पृ०१२ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ર हिन्दी जैन भक्ति-कान्य और कवि दिया हो। यह सच है कि तुलसोका यश उनके जीवनकालमें नहीं था। इसके अतिरिक्त वे तुलसीको रामायणकी प्रशंसा पहले ही कर चुके थे। दूसरे सन्त सुन्दरदासजी हैं, जिनसे बनारसीदासको भेंट हुई थी । सुन्दरदासजीका जन्म वि० सं० १६५३ और मृत्यु वि० सं० १७४६ मे हुई। उनका रचनाकाल वि० सं० १६६४ से आरम्भ हुमा था। दोनों समकालीन थे। 'सुन्दर अन्थावली के सम्पादक पं० हरनारायण शर्माने दोनोंकी भेंट होनेकी बात लिखी है। उन्होंने यह भी लिखा है कि दोनोंमे, आपसमें पद्योंका आदान-प्रदान भी हुआ था। पं० नाथूरामजी प्रेमीने इस भेंटको सम्भव माना है।२ 'मर्द्धकथानक' में इस घटनाका भी उल्लेख नहीं है। बनारसीदास स्वयं सन्त थे और उनमें सन्त-समागमको इच्छा स्वाभाविक थी। बनारसीदासका साहित्य बनारसीदासने 'नवरस रचना', 'नाममाला', 'नाटक समयसार,' 'बनारसीविलास', 'अर्घकथानक', 'मोह विवेक युद्ध', 'मांझा' और कुछ फुटकर पदोका निर्माण किया था। बनारसोदास उत्तम कोटिके कवि थे। उनकी रचनाओंमे रसप्रवाह है और गतिशीलता भी। जोवन्त भाषा और स्वाभाविक भावोन्मेष उनका मुख्य गुण है। नवरस रचना बनारसीदासने इसको रचना वि० सं० १६५० में की थी। उस समय उनकी अवस्था १४ वर्षकी थी। रचनाका मुख्य विषय था, 'इश्क' । बनारसीदासने वि० सं० १६६२ में इस कृतिको गोमतीमें बहा दिया था। इस रचनामें एक हजार दोहा-चौपाई थे। नाम-माला इसकी रचना वि० सं० १६७० आश्विन सुदी १० को जौनपुर में हुई थी।' यह एक छोटा-सा शब्द-कोश है। इसमें १७५ दोहे हैं। यद्यपि इसका मुख्य बाधार 'धनंजय नाममाला' थी, किन्तु उसमें हिन्दो, संस्कृत और प्राकृत तीनों १. मोतीलाल मेनारिया, राजस्थनानी भाषा और साहित्य, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, वि० सं० २००८, द्वितीय संस्करण, पृ० २६३-२६५ । २. अक्वानक, भूमिका, पृष्ठ १४ ॥ ३. बनारसी नाममाला, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, पथ १७१-१७२ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य भाषाओं के शब्दोंका समावेश हुआ है। यह एक मौलिक कृति है। नाटक समयसार 'नाटक समयसार' बनारसीदासको सर्वोत्कृष्ट रचना है। इसका निर्माण आगरेमें वि० सं० १६९३, आश्विन सुदी १३ रविवारके दिन हुआ था। उस समय बादशाह शाहजहाँका राज्य था। ____'नाटक समयसार में ३१० सोरठा-दोहे, २४५ सवैया-इकतीसा, ८६ चौपाई, ३७ तेईसा सवैया, २० छप्पय, १८ कवित्त, ७ अहिल्ल और ४ कुण्डलिया है । कुल मिलाकर ७२७ पद्य होते हैं। ___ 'नाटक समयसार'का मुख्य आधार है आचार्य अमृतचन्द्र (९वीं शताब्दी विक्रम ) को 'आत्मख्याति' टीका, जो आचार्य कुन्दकुन्दके प्राकृतमें लिखे गये 'समयसारपाहुड'पर, संस्कृत कलशोंमें लिखी गयो थी, और राजमलजी पाण्डे (१६वीं शताब्दी विक्रम ) की 'बालबोधिनी' टीका, जो हिन्दी-गद्यमें रची गयी थी। किन्तु 'नाटक समयसार केवल अनुवाद-मात्र नहीं है, उसमे पर्याप्त मौलिकता है। 'आत्मख्याति' टोकामें केवल २७७ कलयो हैं, जबकि 'नाटक समयसार में ७२७ पद्य है। अन्तका 'चौदहवां गुणस्थान अधिकार' तो बिलकुल स्वतन्त्र रूपसे लिखा गया है। प्रारम्भ और अन्तके १०० पद्योंका भी 'मात्मख्याति' टीकासे कोई सम्बन्ध नहीं है। जिनका सम्बन्ध है वे भी नवीन हैं। 'कलश' का अभिप्राय तो अवश्य लिया गया है, किन्तु विविध दृष्टान्तों, उपमा और उत्प्रेक्षाओसे ऐसा रस उत्पन्न हुआ है जिसके समक्ष कलश फीका जंचता है। 'नाटक समयसार' साहित्यका ग्रन्थ है जब कि 'समयसारपाहुई और उसको टोकाएं दर्शनसे सम्बन्धित हैं। 'नाटक समयसार'में कविको भावुकता प्रमुख है, जब कि 'समयसारपाई में दार्शनिकका पाण्डित्य। 'समयसार' और 'नाटक' ___ अपने स्वभाव व गुण-पर्यायोंमें स्थिर रहनेको 'समय' कहते हैं । छहों द्रव्य - जोव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - अपने गुण-पर्यायोमें स्थिर रहते है, अतः वे सब 'समय' कहलाते हैं। उन सबमें 'आत्म-द्रव्य' (जीव ) ज्ञायक १. 'भाषा प्राकृत संस्कृत, त्रिविध सुसबद समेत' बनारसी नाममाला, दिल्ली, तीसरा पक्ष । २. नाटक समयसार, बम्बई, प्रशस्ति, पय ३६-३७, पृ० ५४० । ३. वही, प्रशस्ति, पब ३९वा, पृ० ५४१ । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि होनेके कारण सारभूत है, और उसका ही मुख्यतया कथन करनेके कारण इसका नाम 'समयसार' है । १ १८४ आचार्य कुन्दकुन्दने 'समयसार' को नाटक नहीं कहा था, किन्तु अमृतचन्द्राचार्यने अपने संस्कृत कलशोंमें उसे नाटककी संज्ञा प्रदान की । बनारसीदासने भी उसे नाटक कहा है । इसमें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष सात तत्त्व अभिनय करते हैं । उनमें प्रधान होनेके कारण जीव नायक है और अजीव प्रतिनायक | दोनोंके प्रतिस्पर्द्धा अभिनय विभिन्न रूपकोंके द्वारा प्रदर्शित किये गये है । आत्मा (जीव ) के स्वभाव और विभावको नाटकके ढंगपर बतलानेके कारण इसको 'नाटक समयसार' कहते हैं । नाटक समयसार में रूपकत्व आत्मारूपी नट सत्तारूपी रंगभूमिपर ज्ञानका स्वांग बनाकर सदैव नृत्य करता है । पूर्व बन्धका नाश उसकी गायन विद्या है, नवीन बन्धका संवर ताल तोड़ना है, निःशंकित आदि आठ अंग उसके सहचारी हैं, समताका आलाप स्वरोंका उच्चारण हैं, और निर्जराकी ध्वनि ध्यानका मृदंग है । इस भाँति वह गायन और नृत्यमें लीन होकर आनन्दमें सराबोर हैं, "पूर्व बंध नासे सो तो संगीत कला प्रकासे, नव बंध रुधि ताक तोरत उछरि कै । निसंकित आदि अष्ट अंग संग सखा जोरि, समता अलापचारी करै सुर मरि कै। निरजरा नाद गाजै ध्यान मिरदंग बाजै, छायौ महानंद में समाधि राशि करि कै। सत्ता रंगभूमि में मुकत भयौ तिहूं काल, 211 नाचे सुद्धदिष्टि नट ग्यान स्वांग धरि कै ॥ एक-दूसरे स्थानपर आत्माको 'पातुरी' बनाया गया है। एक नटी वस्त्र और आभूषणोंसे सजकर रातके समय नाट्यशालामें 'पट' आड़ा करके आती है तो किसीको दिखाई नहीं देती । किन्तु जब दोनों ओरके शमादान ठीक करके १. आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार, पाटनी दि० जैन ग्रन्थमाला, मारोठ, मारवाद, फरवरी १६५३, दूसरी गाथा, अमृतचन्द्राचार्यकी संस्कृत टीका, पृ० ८-६ २. बनारसीदास, नाटक समयसार, श्री बुद्धिलाल श्रावककी टीका सहित, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, वि० सं० १९८६, ७६१, पृ० २१५-२१६ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य 'पट' हटाया जाता है तो सभाके सब लोग उसको भलीभांति देख लेते है । ठीक ऐसे ही आत्मा, जो मिथ्यात्व के परदेमे ढंका हुआ था, जब ज्ञानके शमादानके उजाले में प्रकट होता है तो सभी जीव उसे देख सकते हैं । आत्माको इम रूपमें देखनेवाले जीव संसार के ज्ञायक बनते हैं, " जैसे कोऊ पातुर बनाय वस्त्र आभरन, आवति अखारे निसि आढ़ौ पट करि कै, दुहूं और दीवटि संवारि पट दूरि कीजै, सकल सभा के लोग देखें दृष्टि धरि के || तैलें ज्ञान सागर मिथ्याति ग्रंथि भेदि करि, 1 उमग्यौ प्रगट रह्यौ तिहूं लोक भरि के ऐसो उपदेस सुनि चाहिए जगत जीत, सुद्धता संमारै जा जाल सौं निसरि कै ॥१३५॥” चेतन, अचेतनकी संगति में अचेत हो रहा है, उसीको कविने निद्राका रूपक मायाकी शय्यापर सो रहा । कर्मोंका बलवान् उदय ही देकर प्रस्तुत किया है | चेतन कायाकी चित्रसारीमें हैं | मोहके झकोरोंसे उसके नेत्रके पलक ढक गये हैं श्वासका शब्द है । विषय-सुख के लिए भटकना स्वप्न है। तीनों काल मग्न रहता है, इस मूढ़ दशामे आत्मा "काया चित्रसारी में करम परजंक मारी, माया की संवारी सेज चादर कलपना । शैन करे चेतन अचेतनता नींद किये, मोह की मरोर यह लोचन को ढपना ॥ उदे बल जोर यहै श्वास को शब्द घोर, विषै सुखकारी जा की दौर यह सपना । ऐसी मूढ़ दशा में मगन रहै तिहुं काल, धावे भ्रम जाल में न पावै रूप अपना || ७|१४|| " नाटक समयसारमें भक्ति २४ कवि बनारसीदासने नवधा भक्तिका निरूपण किया है, और वह इस प्रकार है, " श्रवन कोरतन चितवन, सेवन, वंदन, ध्यान लघुता, १८५ समता, एकता, नौधा भक्ति प्रदान |||९८|" Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि 1 कविकी यह भक्ति कही अरिहन्त, कहीं अरिहन्त बिम्ब, कहीं सिद्ध, कहीं श्रुतदेवी, कही साधु और कहीं सम्यग्दृष्टियोके चरणोंमे समर्पित हुई है । अर्थात् कविने यदि एक ओर सगुणको वन्दना की है, तो दूसरी ओर निर्गुणकी आराधना । बनारसीदासका 'आत्मा' ज्ञानका नहीं, किन्तु भाव- क्षेत्रका विषय है। उन्होंने आत्मासम्बन्धी सिद्धान्तको नही अपितु आत्मानुभवको अपने इस नाटकका मुख्य विषय माना है । उन्होने कहा, "शुद्ध आत्माके अनुभवके अभ्याससे ही मोक्ष मिल सकता है अन्यथा नही ।"" उनका यह भी कथन है कि आत्माके अनेक गुणपर्यायोके विकल्पमें न पड़कर शुद्ध आत्माके अनुभवका रस पीना चाहिए। अपने स्वरूपमें लीन होना और शुद्ध आत्माका अनुभव करना ही श्रेयस्कर है । इस भाँति उनका आत्मा ज्ञेय कम और उपास्य अधिक है । भगवान् सिद्ध शुद्ध आत्माके प्रतीक है। उनकी वन्दना करते हुए कवि कहता है, 3 'अविनासी अविकार परम रस धाम हैं । समाधान सरवंग सहज अभिराम हैं ।। सुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत हैं । जगत शिरोमनि सिद्ध सदा जयवंत हैं । जिनराज वह ही है, जिसने शुद्ध आत्माके दर्शन कर लिये है । वह शुद्ध आत्मरूप जिनराज घट-मन्दिर मे विराजता है । कविने उसके चरणोमे अपनी भक्ति समर्पित करते हुए कहा है, "जामें लोकालोक के सुभाव प्रतिभा से सब, जगी ग्यान सकति विमल जैसी आरसी । दर्शन उद्योत लीयौ अंतराय अंत कीयौ, गयौ महामोह भयौ परम महारसी ॥ सो घट- मन्दिर में चेतन प्रगट रूप, ऐसो जिनराज ताहि वंदत बनारसी ॥ ૧૮૨ १. सुद्ध परमातमा को अनुभी अभ्यास कीजें, यहे मोख पंथ परमारथ है इतनो ॥ नाटक समयसार, १० । १२५, पृ०३८८ । २. गुन परज में द्रिष्टि न दीजै । निरविकल्प अनुभी रस पीजै ॥ आप समाइ आप मैं लीज । तनपी मेटि अपनुपो कीजै ॥ वही, १०/११७, पृ० ३८३ । ३. वही, मंगलाचरण, पृ० ५-६ । ४. वही, १।२९, पृ० ५९ । ४ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैम भक्त कवि : जीवन और साहित्य १८७ बनारसीदासने आत्माको चिदानन्दके नामसे भी अभिहित किया है । चिदानन्दकी स्तुति करते हुए उन्होंने लिखा, "शोभित निज अनुभूति जुन चिदानन्द भगवान । सार पदारथ आतमा, सकल पदारथ जान ॥" बनारसीदासजीने सगुण ईश्वरकी भक्तिमे भी अनेकानेक पद्योंका निर्माण किया है। भगवान् पार्श्वनाथकी स्तुति करते हुए उन्होंने कहा कि भगवान्का स्मरण करने-मात्रसे ही भक्तोके सब भय दूर हो जाते हैं। "मदन-कइन-जित परम धरम-हित, सुमिरत भगति भगति सब डरसी। सजल-जलद-तन मुकुट सपत-फन, कमठ-दलन जिन नमत बनरसी। भगवान् जिनेन्द्र पापरूपी धूलको दबानेके लिए बादलके समान है। वे भक्तके भयको दूर करते है, उसे कभी नरकमे नही जाने देते और उसे भवसमुद्रसे पार कर देते है। वे भगवान् कामदेवके वनकी अग्निको जलानेके लिए स्द्राग्निके समान है, “पर-अघ-रजहर जलद, सकल जन-नत भव-भय-हर ।। जमदलन नरक-पदन्छयकरन, अगम अतट भव जल तरन । वर-सकल-मदन-वन हरदहन, जय जय परम अभय करन।" ___ जिन-बिम्ब भी जिनेन्द्र-जैसा ही है। उसका यश जपनेसे हृदयमे प्रकाश उत्पन्न होता है । मलिन बुद्धि पवित्र हो जाती है । "जा को जस जपत प्रकास जगै हिरदै मैं, सोइ सुद्धमति होइ हुती जु मलिन-सी। कहत बनारसी सुमहिमा प्रगट जाकी, ___ सोहै जिन की छवि सुविद्यमान जिन-सी।" बनारसीने साधुकी भक्ति करते हुए कहा है कि साधु, धर्मका मण्डन और भ्रमोंका उन्मूलन करता है। वह परम शान्त होकर कर्मोंसे लड़ता है, और जीतकर संसारमे विराजता है।। "धरम को मंडन मरम को विहंडन है, परम नरम है के करम सों लर्यो है। ऐसो मुनिराज भुवलोक में विराजमान, निरखि बनारसी नमसकार कर्यो है।" जिनवाणी भगवान्के हृदयरूप तालाबसे निकलकर शास्त्ररूप समुद्रमें Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि प्रविष्ट हुई है। इसे सम्यग्दृष्टि जीव जान सकते है, मिथ्यादृष्टि नहीं । ऐसी जिनवाणो संसारमें सदा जयवन्त हो, "वासु हृदै-द्रह सौं निकली, सरिता सम है श्रुत-सिन्धु समानी ॥ यातें अनंत नयातम लच्छन, सत्य स्वरूप सिधंत बखानी। वुद्ध लखै न लखै दुरखुद्ध, सदा जग माहि जगै जिनबानी ॥" बनारसी विलास ___ यह बनारसीदासकी फुटकर रचनाओंका संग्रह है। आगरेके दीवान जगजीवनने वि० सं० १७०१ चैत्र सुदी २ को उनकी बिखरी रचनाओंको एक स्थानपर संकलित कर दिया था। और उस संकलनका नाम रखा था 'बनारसी विलास। __ 'बनारसी विलास' में बनारसीदासको ५० रचनाएं संगृहीत की गयी हैं। उनमें 'कर्मप्रकृतिविधान' नामको अन्तिम कृति भी है, जो फागुन सुदी ७ वि० सं० १७०० को समाप्त हुई थी। 'सूक्त मुक्तावली' संस्कृतके सिन्दूर प्रकरणका पद्यानुवाद है। इसमें कुछ पद्य बनारसीदासके मित्र कुँअरपालके रचे हुए है।''ज्ञान-वावनी' पीताम्बर नामके किसी कविकी रचना है। उसमे बनारसीदासका गुण-कीर्तन किया गया है। अवशिष्ट रचनाओमे 'जिनसहस्रनाम', 'शिवमन्दिर', 'शिवपचीसी', 'भवसिन्धु चतुर्दशी', 'शारदाष्टक', 'नवदुर्गा विधान', 'अष्टप्रकारोजिनपूजा', 'दसबोल', 'अजितनाथके छन्द', 'शान्तिनाथ स्तुति', 'साधु वन्दना' और फुटकर पद्य पंचपरमेष्ठी और देवियोंकी भक्तिसे सम्बन्धित हैं । 'ध्यान बत्तीसी', 'अध्यातम फाग', 'अध्यातम गीत', 'अध्यात्म पदपंक्ति' और 'परमार्थ हिंडोलना', आत्मा, ब्रह्म अथवा सिद्धकी वन्दनामें रची गयी कृतियां हैं। ___ उपर्युक्त ५० रचनाओंमें केवल चारके निर्माणका काल दिया है । 'ज्ञानबावनो' वि० सं० १६८६ में, "जिनसहस्रनाम' वि० सं० १६९० में, 'सूक्त मुक्तावली' वि० सं० १६९१ में और 'कर्मप्रकृति विधान' वि० सं० १७०० में रची गयी थी। बची हुई कृतियोंका रचनाकाल 'अर्द्धकथानक से विदित हो जाता है। 'बनारसी विलास' की फुटकर रचनाएँ उत्तम काव्यकी निदर्शन हैं। उनमे भक्ति और आध्यात्मिकता तो है ही, भावोन्मेष भी कम नहीं है। इसके साथ-साथ १. बनारसी विलास, जयपुर, पृ० २४१ । २. इसमें ४ पछ है, जिनमें २१ तक तो बनारसीदासका नाम है, और उसके बाद ५६,६४, ६७, ७, ८० और ८२, छह पदोंमें 'कोरा' या कुंभरपालका । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १८९ अलंकारोका प्रयोग भी नैसर्गिक ढंगसे ही हमा है। भाव और कला दोनों ही पक्षोमें सौन्दर्य है और मर्यादा भी। एक स्थानपर कविने चिन्ता प्रकट की है कि न जाने कब इस मनकी दुविधा जायेगी, और यह अपने निरंजनके स्मरणमे लो लगायेगा। न जाने कब हमारे नेत्र-चातक आत्मारूपी घनसे टपकनेवाली अमृत-बूंदोंका स्वाद लेंगे तथा न जाने कब, हम तनकी ममता त्याग कर, आत्माका शुभ ध्यान लगायेंगे, "दुविधा कब जैहै या मन की। कब जिननाथ निरंजन सुमिरौं, तजि सेवा जन जन की। कब रुचि सौं पी रग चातक, बूंद अखय पद धन की। कब शुभध्यान भरौं समता गहि, करूं न ममता तन की ॥ दुविधा कब जैहै या मन की ॥"' सन्त कवियोंकी भांति बनारसीदासने कहा कि यह जीव मूर्ख है, क्योंकि यह उस ईश्वरको संसारमें ढूंढता फिरता है, जो उसके घटमें ही विराजमान है । उसका यह ढूंढ़ना कस्तूरी मृगके भ्रमणको भांति ही व्यर्थ है, "ज्यौं मृगनामि सुवास सों, ढूंढ़त बन दोरै। त्यों तुझमें तेरा धनी, तू खोजत भोरै ।। करता भरता भोगता, घट सो घट माहीं । ज्ञान बिना सद्गुरु बिना, तू समुझत नाहीं ॥" बनारसीदास ईश्वरको देवोंका देव मानते है। उसके चरणोंका स्पर्श करनेमात्रसे ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है । अठारह दोषोंसे रहित उस प्रभुकी सेवा करना परम कर्तव्य है, "जगत में सो देवन को देव । जासु चरन परसैं इन्द्रादिक होय मुकति स्वयमेव ॥जगत०॥ नहिं तनरोग न श्रम नहिं चिंता, दोष अठारह मेव । मिटे सहज जाके ता प्रभु की, करति 'बनारसि' सेव ॥जगत०॥" शारदा देवीकी स्तुतिमें भाव-विभोरता है, तो अनुप्रासोंकी छटा भी। उसमें संगीत-सा आनन्द सन्निहित है, . "अतीता अजीता सदा निर्विकारा। विष वाटिका खंडिनी खंग धारा ।। पुरापाप विक्षेप कर्तृकृपाणी । नमो देवि वागेश्वरी जैन वानी ॥ १. अध्यात्मपद पंक्ति, पद्य १३, बनारसी विलास, जयपुर, पृ० २३१-२३२ । २. वही, पद्य १५, पृ० २३२ । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि अशोका मुदेका विवेका विधानी । जगज्जन्तुमिन्ना विचित्रावसानी ॥ समस्तावलोका निरस्ता निदानी । नमो देवि वागीश्वरी जैनवानी ॥" अर्द्धकथानक अर्द्धकथानककी रचना वि० सं० १६९८ में हुई थी। इसमे बनारसीदासके जीवनके ५५ वर्षकी 'आत्म-कथा' है। यह नाम स्वयं बनारसीदासका दिया हुआ है। उन्होंने अपनी १०० वर्षकी आयु मानकर, ५५ वर्षोंको आधी आयुमे शामिल किया, और इसका नाम 'मर्द्धकथानक' रखा। किन्तु इस रचनाके दो वर्ष उपरान ही उनका स्वर्गवास हो गया। अतः 'बनारसी-पद्धति' में आगेका जीवन होगा, एक अनुमान-मात्र है। ___ इस कथानकमें ६७५ दोहे-चौपाइयां है। उनमें बनारसीदासके जीवनको मर्मस्पर्शी घटनाओके साय-साथ तत्कालीन भारतको सामाजिक अवस्थाका भी यथार्थ परिचय अंकित है। आजसे ३०० वर्ष पहलेके साधारण भारतीय जीवनका दृश्य ज्योंका-त्यों उपस्थित किया गया है। ___ यह एक सफल आत्म-कथा है। इसमें जो कुछ कहा गया है, संक्षेपमे और निष्पक्षताके साथ। बनारमीदास चतुर्वेदोने लिखा है, "अपनेको तटस्थ रखकर अपने सत्कर्मों तथा दुष्कर्मोपर दृष्टि डालना, उनको विवेककी तराजूपर बावन तोले पाव रत्ती तौलना, सचमुच एक महान् कलापूर्ण कार्य है।" डॉ० माताप्रसाद गुप्तका कथन है, "कभी-कभी यह देखा जाता है कि आत्म-कथा लिखनेवाले अपने चरित्रके कालिमापूर्ण अंशोंपर एक आवरण-सा डाल देते है - यदि उन्हें सर्वथा बहिष्कृत नहीं करते - किन्तु यह दोष प्रस्तुत लेखकमे बिलकुल नही है।" पं. नाथूराम प्रेमीने भी लिखा है, "इसमे कविने अपने गुणोंके साथ-साथ दोषोका भी उद्घाटन किया है, और सर्वत्र ही सचाईसे काम लिया है।" १. शारदाष्टक, पद्य ७, ६, बनारसी विलास, पृ० १६६-१६७ । २. अर्द्धकथानक, पद्य ६७०, पृ० ७४ | ३. वही, पद्य ६६३, पृ० ७३ । ४. अर्द्धकथा, डॉ० माताप्रसाद गुप्त-दारा सम्पादित, हिन्दी साहित्य परिषद् , प्रयाग विश्वविद्यालय, भूमिका, पृष्ठ १५।। ५. बनारसीदास चतुर्वेदी, 'हिन्दीका प्रथम प्रात्मचरित', अनेकान्त, वर्ष ६, किरण १, पृष्ठ २१। ६. वही, पृष्ठ २४ । ७. अर्द्धकथा, प्रयाग, भूमिका, पृष्ठ १४ । ८. अर्द्धकथानक, बम्बई, भूमिका, पृष्ठ २२ । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य इसकी भाषाके विषय में स्वयं बनारसीदासजीने कहा है कि वह मध्यदेशकी बोलीमें लिखा जायेगा । मध्यदेशकी सीमाएँ बदलती रही है, किन्तु प्रत्येक परिवर्तनमे व्रजभाषा और खड़ी बोलीके प्रदेश शामिल रहे ही हैं । बनारसीदासजीकी भाषा ब्रज भाषा है, किन्तु उसमें यत्किचित् खड़ी बोलीका भी सम्मिश्रण है । डॉ० हीरालाल जैनने लिखा है, 'अर्द्धकथानक' मे उर्दू फ़ारसो के शब्द काफ़ी तादाद मे आये है, और अनेक मुहावरे तो आधुनिक खड़ी बोली के ही कहे जा सकते हैं । इसपर से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बनारसीदासजीने 'अर्द्धकथानक' की भाषा में, ब्रजभाषाको भूमिका लेकर, उसपर मुग़लकालमे बढ़ते हुए प्रभाववाली खड़ी बोलीकी पुट दी है, और इसे ही उन्होने मध्यदेशकी बोली कहा है। 'अर्द्धकथानक ' से स्पष्ट है कि बनारसीदासके जीवन में सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे अच्छाई और बुराईका विश्लेषण करते हुए अपने जीवनको अच्छाईकी ओर ही बढ़ाते गये । वे किसी एक रीति रिवाज या परम्परासे चिपके न रह सके । एक समय था जब आशिक़ीको ही उन्होंने अपना धर्म समझ रखा था । परिवर्तन हुआ और वे जैन भक्त बन गये । 1 "कहैं दोष कोड न तजै, तजै अवस्था पाइ । जैसे बालक की दसा, तरुन भए मिटि जाइ ॥ उदै होत सुम करम के, मई असुभ की हानि । तार्तें तुरत बनारसी, गही धरम को बानि ॥ " नित उठित प्रात जाइ जिन मौन | दरसन बिनु न करै दंतौन । चौदह नेम विरति उच्चरे । सामायिक पडिकौना करे || १९१ हरी जाति राखी परवां न । जाव जोव बैंगन पचखान । पूजा विधि साधै दिन आठ । पढ़े बीनती पद मुख-पाठ //t बनारसीदासकी यह जैन-भक्ति नित्य प्रति बढ़ती हो गयी । जब खैराबादसे ब्याह करके लाये, तो मां और भार्याके साथ तीर्थयात्राको गये । अहिच्छत्रकी पूजा करने के उपरान्त वे हस्तिनापुर पहुँचे, वहाँ शान्ति- कुन्थु और अरहनाथकी भक्ति में एक कवित्त बनाया, जिसका वे नित्य प्रति पाठ करते थे। उस कवित्तको देखिए, १. मध्यदेस की बोली बोलि । गर्भित बात कहीं हिम खोलि || अर्द्धकथानक, पद्य ७, पृ० २ । २. कर्द्धकथा, प्रयाग, भूमिका, पृष्ठ १४-१५ । ३. डॉ० हीरालाल जैन, 'अर्द्धकथानककी भाषा', अर्द्धकथानक, पृष्ठ १६ । ४. अर्द्धकथानक, पद्य २७२-२७५, पृष्ठ ३१ । ५. वही, पद्म ५८०-५८२, पृष्ठ ६४-६५ । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि "श्री विससेन नरेस, सूर नृप राय सुंदसन । अचिरा सिरिआ देवि, करहिं जिस देव प्रसंसन ॥ तसु नंदन सारंग, छाग नंदावत लंछन । चालीस पैंतिस तीस, चाप काया छवि कंचन ॥ सुखरासि बनारसीदास मनि, निरखत मन आनंदई । हथिनापुर, गजपुर, नागपुर, सांति कुंथु श्रर वंदई ।" " मोह - विवेक युद्ध' इसमें ११० पद्य है । दोहा चौपाई छन्दोंका प्रयोग किया गया है। इसकी अनेकानेक हस्तलिखित प्रतियां जैन-भण्डारोंमें पायी जाती है। बीकानेर के खरतर गच्छीय भण्डार के एक गुटके में 'बनारसी विलास' के साथ यह भी लिखा हुआ है । इसकी पाँच प्रतियाँ जयपुर के शास्त्र भण्डारोंमें भी सुरक्षित हैं। बीकानेरवाली प्रतिके भक्ति से सम्बन्धित दो पद्य इस प्रकार हैं, “श्री जिन भक्ति सुद्दढ़ जहां, सदैव मुनिवर संग । कहै क्रोध तहां मैं नहीं, लग्यौ सु श्रतम रंग ॥ ५८ ॥ अबिभचारिणी जिनभगति, आतम अंग सहाय । कहै काम ऐसी जहां, मेरी तहाँ न बसाय ॥३२॥" जैन धर्म वीतरागी है । रागका अर्थ है मोह । मोहको जीतने में ही जीवन की सार्थकता है | ज्ञान वही है जो मोहको जीत ले । अतः मोह और विवेकका यह युद्ध जैन-परम्पराके अनुकूल ही है । बनारसीदासके पूर्व इस विषयपर अनेक कृतियाँ रची गयी थीं। उनमें यशः पाल मोड़का 'मोहपराजय', वादिचन्द्रसूरिका 'ज्ञानसूर्योदय', हरदेवका 'मयणपराजय चरिउ', नागदेवका 'मदनपराजयचरित' और पाहलका 'मनकरहारास' प्रसिद्ध हैं। सभीमें मोह और विवेकका युद्ध है । बनारसीदास ने अपने पूर्ववर्त्ती तीन कवियों - मल्ल, लालदास और गोपालके 'मोह-विवेक-युद्ध' का उल्लेख किया है । वे उनसे प्रभावित थे। तीनों हिन्दी में लिखी गयी थीं । प्रस्तुत कृतिके लिए वे मूलाधार बनीं । बनारसीदासने 'मोह-विवेक-युद्ध' का निर्माण 'नवरस' रचनाके गोमतीमें प्रवाहित करने के उपरान्त ही किया होगा । 'काम' की प्रतिक्रियासे यह स्पष्ट ही है । १. वही, पच ५८३, पृष्ठ ६५ । २. बीर वाणी, वर्ष ६, अंक २३-२४, में श्री भगरचन्दजी नाइटा द्वारा प्रकाशित हो चुका है। वीर पुस्तक भण्डार, मनिहारोंका रास्ता, जयपुर से पुस्तकाकार रूपमें भी निकल चुका है। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य इससे सिद्ध है कि यह उनकी प्रारम्भिक कृति है । अतः उसकी शैली बनारसीकी अन्य प्रौढ कृतियोंसे नही मिलती । आज हिन्दीके अनेक ख्यातिप्राप्त कवि हैं, जिनकी प्रथम रचनाएँ उनको प्रतीत नहीं होती । इस कृतिके अन्तके तीन पद्योंमें बनारसीका नाम भी दिया हुआ है । फिर भी प्रामाणिक निर्णयके लिए ठोस विचारको आवश्यकता है । मांझा यह रचना जयपुर के बधीचन्दजीके मन्दिरके गुटका नं० २८ में निबद्ध है । इसमें १३ पद्य है । इसकी छठी पंक्ति देखिए, " मानुषजनम अमोलक हीरा, हार गंवायो खासा" १९३ नये पढ़ पं० नाथूराम प्रेमीके द्वारा सम्पादित 'बनारसो- विलास में तीन नये पदोंका संग्रह किया गया था। अब जयपुरसे प्रकाशित 'बनारसी-विलास' में दो और नये पदोंका प्रकाशन हुआ है । पाटौदी मन्दिर जयपुरके गुटका नं० २२ पृ० १३६ पर मैंने बनारसीदासका एक नया पद देखा है - तू ब्रह्म भूलो तू ब्रह्म भूलो अज्ञानी रे प्राणी ! ५४. मनराम ( १७वीं शती विक्रम, उत्तरार्ध ) उनकी रचनाओंसे यह सिद्ध है कि मनराम सत्रहवीं शताब्दीके कवि थे । वे बनारसीदासजी के समकालीन थे । उन्होंने अपने मनराम विलासमें श्री बनारसीदासजीका सादर स्मरण किया है। उनकी रचनाएँ भी बनारसीदासकी भाँति ही आध्यात्मिक - रससे ओतप्रोत है । उन्होंने खड़ी बोलीका प्रयोग किया है। हो सकता है कि वे मेरठ के आस-पास किसी प्रदेशके रहनेवाले हों। वैसे उनकी कृतियोंसे यह विदित नहीं होता कि वे कहाँके निवासी थे और उनके माता-पिताका क्या नाम था ? श्री कस्तूरचन्दजी कासलीवालने उन्हें संस्कृतका प्रौढ़ विद्वान् कहा है, क्योंकि उनकी रचनाओंमें संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया गया है। किन्तु यह आधार बहुत निर्बल है। केवल संस्कृतके शब्दोंका प्रयोग करने मात्र से कोई संस्कृतका उद्भट विद्वान् नहीं कहा जा सकता। उनकी रचनाओंका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार से है : १. श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल, हिन्दीके नये साहित्यकी खोज, अनेकान्त, वर्ष १४, किरण १२, पृष्ठ ३३३ | २५ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि मनराम-विलास इसकी प्रति जयपुर के ठोलियोके दिगम्बर जैन मन्दिरके वेष्टन नं० ३९५ में निबद्ध है । इसमें कुल १० पृष्ठ और ९६ पद्य है । इनका संग्रह किन्ही बिहारीदास नामके व्यक्तिने किया था। उसने लिखा है, "मेरे चित्तमे ऊपजी, गुनमनराम प्रकास । सोधि बीनए एकठे, किये बिहारीदास ॥" अर्थात् बिहारीदासने केवल संग्रह ही नहीं, किन्तु सम्पादन भी किया था, तभी तो वह मूल पद्योंको शुद्ध कर सके। यह काव्य सुभाषितोसे सम्बन्धित है। इसमें दोहा, सवैया, और कवित्त आदि विविध छन्दोका प्रयोग किया गया है। प्रारम्भमें हो पंच-परमेष्ठीको वन्दनामें भक्ति है, और सरसता भी, "करमादिक अरिन को हरै अरहंत नाम, सिद्ध करै काज सब सिद्ध को मजन है। उत्तम सुगुन गुन आचरत जाकी संग, आचारज भगति वसत जाकै मन है। उपाध्याय ध्यान तै उपाधि सम होत, साध परि पूरण को सुमिरन है। पंच परमेष्ठी को नमस्कार मंत्रराज धावै मनराम जोई पावै निज धन है।" भगवान् के स्वरूपका विवेचन करते हुए मनरामने लिखा है कि - वह भगवान् निर्विकार, निश्चल, निकल, निर्मल ज्योति, ग्यानगम्य और ज्ञायक है, उसका वर्णन कहांतक किया जाये। जिस-किसीने भगवान्के इस रूपको जान लिया है, फिर उसे विश्वमें कुछ और करनेको नहीं रह जाता, "निर्विकार निश्चल निकल निर्मल ज्योतिग्यानगम्य ग्यायक कहां लौं ताहि बरनौं । निहचै सरूप मनराम जिन जानौ ऐसौ, ताकौ और कारिज रहयौ न कछू करनौ ॥३५॥" मोहकर्मको सामर्थ्य सभीको विदित है। उसने जगके सभी प्राणियोंको भ्रममें सान रखा है। भ्रमवशात् ही यह जीव अदेवोंको देव मानकर उनकी सेवा करता है। सच्चा देव तो उसकी देहके भीतर ही रहता है, जिसे भूलकर वह इधर-उधर भटकता फिरता है, "देषो चतुराई मोह करम की जग ते, प्रानी सब राषे भ्रम सानि के। देवनि को देव सो तौ बसै निज देह मांझ, ताको भूल सेवत अदेव देव मानि कै ॥६३॥" मनरामने अंगोंकी सार्थकता इसीमें मानी है कि वे आराध्यकी ओर लगे रहें, Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य और उनके बताये मार्गपर चलनेमे ही अपनेको कृतकृत्य मानें। वह पद्य इस प्रकार है, "नन सफल निरर्ष जु निरंजन, सीस सफल नमि ईसर झावहि । श्रवन सफल जिहि सुनत सिद्धांतहि, मुषज सफल जपिए जिन नांवहि । हिर्दो सफल जिहि धर्म बसै ध्रुव, करज सुफल पुन्यहि प्रभु पावहि । चरन सफल मनराम वह गनि, जे परमारथ के पथ धावहि ॥९०॥" भगवान्के नामकी महिमाका उल्लेख करते हुए कवि मनरामने लिखा है कि यदि शुद्ध मनसे चौबीस जिनेन्द्रक नाममन्त्रका उच्चारण किया जाये तो अघरूपी सर्प कैसे ठहर सकता है, "मन शुद्ध मनराम चौ सो जिनंद नाम मन्त्र जपै अघ व्याल कैसे ठहराति है ॥२॥" यह संसार बहुत ही विचित्र है। इसमे अधिकतर मूर्ख रहते है । वे उसको योगी कहते है, जिसकी केवल वेष-भूषा योगकी है, किन्तु उसके मनको नही देखते जो भोगोंसे भरा है। जो मनको देखकर योगीकी परख करते है वे ही ज्ञानी है । ऐसे व्यक्ति सम्पत्तिसे भी अधिक योगीका सम्मान करते है, "मन भोगी तन जोग लखि जोगी कहत जिहान । मन जोगी तन भोग तसु जोगी जानत जान ॥७२॥ सबै अरथ जुत चाह पर पुरुष जोग सनमान । ए समझे मनराम जो बोलत सो जग जान ॥७३॥" रोगापहार-स्तोत्र इसकी प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके दिगम्बर जैन मन्दिरमे विराजमान गुटका नं. १७ में निबद्ध है। इसमे रोगोंको दूर करनेके लिए भगवान् जिनेन्द्रसे प्रार्थना की गयी हैं। भक्त-कविको विश्वास है कि भगवान् जिनेन्द्रकी उपासनासे आत्मामें ऐसे विशुद्ध भावोंका संचार होगा, जिससे शारीरिक और मानसिक सभी रोग स्वतः विलीन हो जायेंगे। बत्तीसी इसकी प्रति जयपुरके ठोलियोंके दिगम्बर जैन मन्दिरमे गुटका नं० ११० में Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि निबद्ध है । इसमें ३४ पद्य हैं और सभी भगवान् जिनेन्द्रको भक्तिसे सम्बन्धित हैं। बड़ाकक्का इसकी एक प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके दिगम्बर जैन मन्दिरमे विराजमान गुटका नं० १२६ में मौजूद है। गुटकेका लेखनकाल सं० १७०४ आषाढ़ सुदी ५ दिया हुआ है। अक्षरमाला __इसकी प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके दिगम्बर जैन मन्दिरमें गुटका नं० ४२ में संकलित है। ५२ अक्षरों में से प्रत्येकपर एक-एक पद्य का निर्माण किया गया है। धर्मसहेली ___ इसकी भी प्रति उपर्युक्त मन्दिरके ही गुटका नं० १६२मे निबद्ध है । यह गुटकेके पृष्ठ १६३पर लिखा हुआ है। इसमे कुल २० पद्य है । इसमे जैन धर्मको महिमाका उल्लेख है। ___ इनके अनेकों पद प्राप्त है, जिनमें भगवान् जिनेन्द्रके भक्ति-रसका ही आधिक्य है। इनके दो पद जयपुरके बधोचन्दजीके मन्दिरमे विराजमान गुटका नं० १७ मे संकलित हैं । उनके शीर्षक क्रमशः, 'चेतन यो घर नाही तेरो' और 'जिय तें नरभवि यों ही खोयो' हैं। इनका तीसरा पद इसी मन्दिरके गुटकानं० २९, चौथा पद इसी मन्दिरके गुटका नं. ९६मे निबद्ध है। चौथेका शीर्षक 'अखियां आज पवित्र भई मेरी' से प्रारम्भ हुआ है। यह पद ठोलियोके जैन मन्दिरके गुटका नं० १११मे भी लिखा हुआ है। मनरामके अनेक सरस पद दि० जैन मन्दिर बड़ौतके 'पदसंग्रह' की एक हस्तलिखित प्रतिमे संकलित हैं। अतिशय क्षेत्र महावीरजी के शास्त्रभण्डारकी एक अधजली हस्तलिखित 'पदसंग्रह' को प्रतिमें भी मैंने मनरामके कतिपय पद देखे थे। गुणाक्षरमाला इसकी एक हस्तलिखित प्रति जयपुरके ठोलियोंके दि० जैन मन्दिरमे गुटका नं० १३१में संकलित है। यह गुटका वि० सं० १७७९ मगसिर बदी ३का लिखा हुवा है । इस काव्यमें ४० पद्य है । सभीमें भगवान् जिनेन्द्रके गुणोंका वर्णन है। 'हे भाई तूने नरभव प्राप्त किया है, इसलिए भगवान् जिनेन्द्रकी भक्ति कर', ऐसे भावसे युक्त पद देखिए, "मन वच कर या जोडि कैरे वंदौ सारद मायरे । गुण भकिस्माका कहुँ सुगौ चतर सुख पाई रे । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य परम पुरुष प्रणमौ प्रथम रे, श्री गुर गुन पाराधौरे । ग्यान ज्यान मारिगि लहै, होई सिधि सब साधो रे। भाई नर मव पायो मिनख को॥" इस जीवने होरा-जैसे जन्मको यों ही गंवा दिया, भगवान्का भजन नहीं किया, "हा हा हासी जिन कौरे, करि करि हासी आनौ रे। हीरौ जनम निवारियो, बिना भजन भगवानौ रे॥ पढ़े गुनै भर सरदहै रे, मन वच काय जो पीहारे । नीति गहै अति सुख लहै, दुख न ब्यापै ताही रे ॥ माई नर भव पायौ मिनख हो॥" ५५. कुअरपाल (वि० सं० १६८४ ) कुंअरपाल कवि बनारसीदासके अनन्य मित्र थे। जिन पांच साथियोंमे बैठकर बनारसीदास परमार्थ-चर्चा किया करते थे, उनमे कुंअरपालका भी नाम है।' बनारसीदासके उपरान्त कुअरपाल सर्वमान्य हो गये थे। पाण्डे हेमराजने उन्हे 'कोरपाल ग्याता-अधिकारी' कहा है। महोपाध्याय मेघविजयने 'युक्ति-प्रबोध' में उनकी सर्वमान्यता स्वीकार की है। कविने स्वयं 'समकित बत्तीसी' में 'पुरि पुरि कंवरपाल जस प्रगट्यो' लिखा है। १. रूपचन्द पंडित प्रथम, दुतिय चतुर्भुज नाम । तृतिय भगौतीदास नर कौरपाल गुनधाम ॥ धर्मदास ये पंच जन, मिलि बैठे इक ठौर । परमारथ चरचा करें, इनके कथा न और ॥ नाटकसमयसार, प्रशस्ति, पद्य, २६-२७, पृ० ५३७ । २. बाल बोध यह कीनी जैसे, सो तुम सुणहु कहूँ मै तैसे । नगर मागरे मै हितकारी, कारपाल ग्याता अधिकारी ॥ पाण्डे हेमराज, प्रवचनसारकी बालबोध टीका, पद्य चौथा । ३. महोपाध्याय मेघविजय, युक्तिप्रबोध, ऋषभदेव-केसरीमल श्वेताम्बर-संस्था, रतलाम, पद्य २-८ के नीचेकी टीका। ४. परि परि कंवरपाल जस प्रगटचौ. बह बिध ताप बंस बरणिज्जह । घरमदास जस कंवर सदा धनि, बउसाखा बिसतर जिम कोजइ॥ कुँअरपाल, समकित बत्तीसी, जैसलमेर में कुंभरपालके लिए लिखा गया गुटका, ३१वॉ पद्य। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ___कुंअरपालका जन्म ओसवाल वंशके चौरडिया गोत्रमे हुआ था । गौड़ी दासके दो पुत्र थे - अमरसिंह और जसू । कुंअरपाल अमरसिंहके पुत्र थे।' जसूके पुत्रका नाम धरमदास या घरमसी था, जिनके साझेमें बनारसीदासने जवाहरातका व्यापार किया था। पं० नाथूरामजी प्रेमीने उनका जन्मस्थान जैसलमेर माना है । वि० सं० १७०४मे गजकुशलगणिने उनके पढ़ने के लिए संग्रहणी सूत्र, जैसलमेरमे ही लिखा था। एक गुटका, वि० सं० १६८४-१६८५ मे स्वयं कुंअरपालके हाथका लिखा हुआ उपलब्ध है। इसमे 'आनन्दघनके पद', 'द्रव्यसंग्रह भाषा टीका', 'फुटकर सवैया', और 'चतुर्विशति स्थानानि' रचनाएं संग्रहीत है । उसमे कविकी स्वयंकी कृतियां भी है। उनके अन्तमे 'चेतन कंवर' उपनाम दिया गया है । एक पद्यमें कविने लिखा है कि जिन प्रतिमा', भगवान् जिनेन्द्रके समान ही होती है। उसके निमित्तको पाकर हृदयमे राग-द्वेष नहीं रहता। जिन-प्रतिमाका दर्शन जिसको अच्छा नहीं लगता, वह मिथ्यादृष्टि है। अनिमेष नेत्रोंसे जिन-प्रतिमाको देखनेसे सब कर्म कट जाते है। "जिन प्रतिमा जिन सम लेखीयइ, ताको निमित्त पाय उर अंतर, राग दोष नहि देखीयइ ॥ सम्यग्दिष्टी होइ जीव जे, जिण मन ए मति रेखोयइ । यहु दरसन जाकू न सुहावइ, मिथ्यामत मेखीयइ ॥ चितवत चित चेतना चतुर नर, नयन मेष न मेखीयइ । उपशम कृया उपजी अनुपम, कर्म कटइ जे सेखीयइ ॥ बीतराग कारण जिण मावन, उवणा तिण ही पेखीयह। चेतन कंवर मये निज परिणति, पाप पुन दुइ लेखीयइ ॥", १. खितमधि ओसवाल अति उत्तम, चोरोडिया बिरद बहु दोजह । गोडीदास अंस गरक्त्तन, अमरसीह तसु नंद कहीजइ ।। वही, ३१वे पछकी प्रथम दो पंक्तियाँ। २. भर्द्धकथानक, पद्य ३५२-३५४, पृ० ३०-४० । ३. वही, परिशिष्ट, पृ० १०२। ४. यह गुटका, श्री अगरचन्दजी नाहटाने पं० नाथूरामजी प्रेमीके पास भेजा था, ___ और उन्हीं के पास रहा। ५. अर्द्धकथानक, परिशिष्ट, पृ० १०२ । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मत कवि : जीवन और साहित्य एक दूसरा गुटका और है, जो कुंअरपालके पढ़नेके लिए अन्य किसी लेखकने लिखा था। इसमे कुंअरपालकी लिखी हुई 'समकित बत्तीसी' नामकी रचना भी संकलित है।' इसमे ३३ पद्य है। ३१-३३ तकके पद्योमे कविका अपना परिचय है। अवशिष्ट पद्य 'क' से 'ह' तकके अक्षरोसे आरम्भ हुए है। इसका विषय 'आतम-रस' से सम्बन्धित है । इसका अन्तिम पद्य देखिए, "हुओ उछाह सुजस भातम सुनि, उत्तम जिके परम रस मिन्ने। ज्यउं सुरही तिण चरहि दूध हुइ, ग्याता तेरह प्रन गुन गिन्ने । निजबुधि सार बिचारि अध्यातम, कवित बत्तीस मेंट कवि किन्न । कंवरपाल अमरेस तनूमव, अतिहित चिन पादर कर लिन्नै ॥'' ५६. यशोविजयजी उपाध्याय (वि० सं० १६८०-१७४३) ___ 'सुजसवेलीभास' के आधारपर यशोविजयजीका जीवन-परिचय थोड़ाबहुत प्राप्त होता है । यदि यह कृति न होती, तो हम उनके विषयमें भी सिवा अनुमान रचनेके और कुछ न कर पाते। उन्होंने स्वयं अपने विपुल साहित्यमें कहींपर अपने विषयमें एक शब्द भी नहीं लिखा। यह भारतीय परम्पराके अनुरूप ही था। 'सुजसवेलीभास' के रचयिता मुनिवर कान्तिविजयजी उनके समकालीन थे। अतः कृतिकी प्रामाणिकता असन्दिग्ध ही मानी जानी चाहिए। ___ उपर्युक्त रचनामें यशोविजयजीके जन्म-स्थानके विषयमें कुछ नहीं लिखा है। अभीतक इस विषयपर मतभेद था, किन्तु अब महाराजा कर्ण देवके वि० सं० ११४० के ताम्रपत्रसे सिद्ध हो गया है कि उनका जन्म गुजरातके 'कनाडा गांवमें हुआ था । यह तत्कालीन गम्भूताक्षेत्रमे शामिल था। आज भी वह गांव 'रूपेणनदी'के किनारे बसा है । उसमें कनौडिया ब्राह्मण और पटेलोंकी आबादी है। किसी समय वहां वणिक् भी अच्छी संख्यामें रहते थे। मध्यकालमें यह गांव 'काणोदा'के नामसे प्रसिद्ध था। यशोविजयजीके पिताका नाम नारायण और माताका सौभाग्यदेवी था। दोनों धर्मपरायण, दानशील और उदार वृत्तिके व्यक्ति थे। उनका प्रभाव १. यह गुटका भी श्री अगरचन्दजी नाहटाने, पं० नाथूराम प्रेमीके पास भेजा था, उन्हींके पास है। २. अर्द्धकथानक, पृ० १०१। ३. महेसाणासे पाटण जानेवाली रेलवे लाइनपर दूसरा स्टेशन पीणोज है, इससे चार मील पश्चिममें कनोडा गाँव है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि यशवन्तपर भी पड़ा। यह यशोविजयके बचपनका नाम था। उनका एक छोटा भाई और था, जिसका नाम पद्मसिंह था। दोनोंकी राम-लक्ष्मण-सी जोड़ी थी। एक बार वे मौके साथ उपाश्रय गये, वहां गुरुवरके मुंहसे भक्तामर सुना । यशवन्तको उसी क्षण याद हो गया। उस समय संस्कृत तो दूर, उन्होने गुजराती भी पढ़ना शुरू नहीं की थी। बालककी इस अद्भुत स्मरण शक्तिका परिचय सबसे पहले मांको प्राप्त हुआ। उन्होने तीन दिनसे अन्न-जल ग्रहण नही किया था। तीन वर्षाके कारण वे भक्तामर नहीं सुन सकी थी, अतः भोजन कैसे करती। बालक यशवन्तको जब यह विदित हुआ, तो उसने तुरन्त ही मांको भक्तामर सुना दिया। उच्चारण शुद्ध था। मां उस बालकमें अलौकिक व्यक्तित्वका आभास पा सकी। वर्षाके रुकनेपर उन्होंने यह सब गुरुवरको सुनाया, और बात हवाकी तरह बहते-बहते अहमदाबाद पहुंची। वहां प्रसिद्ध हीरीश्वरजीके चतुर्थ पट्टधर पं० नयविजयजीने सुनी। उन्होने प्रयास किया। सफल हुए। परिणामस्वरूप वे वि० सं० १६८८ में बालक यशवन्तको, उसके मां-बापकी स्वीकृतिके साथ दीक्षा दे सके । अब वे यशोविजय हो गये। पं० नयविजयजी प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, व्याकरण, कोश, ज्योतिष आदि विद्याओंमे पारंगत थे। उनके सान्निध्यमें यशोविजयका विद्याध्ययन प्रारम्भ हुआ। वे प्रतिभाशाली तो थे ही, शीघ्र ही व्युत्पन्न होने लगे। एक बार अहमदाबादमें उन्होंने अष्टावधान किये । उनकी अद्भुत स्मरण शक्ति और प्रखर बुद्धिसे प्रभावित होकर सेठ धनजी सूराने दो सहस्र चांदीकी दोनार, उनके उच्च अध्ययनके लिए प्रदान की। वे वाराणसो गये और वहाँके सर्वोत्कृष्ट विद्वान् भट्टाचार्यजीसे षड्दर्शनका पारायण किया। तीन वर्ष उपरान्त वहाँसे चले आये। फिर वि. सं० १७०३-१७०७ तक चार वर्ष आगरेमें किसी न्यायाचार्यके पास कर्कश तर्क ग्रन्थ पढ़े। यह समझमें नहीं आ पाता कि उन्होंने तीन वर्ष उपरान्त ही बनारस क्यों छोड़ दिया, और आगरेमें वह कौन-सा न्यायाचार्य था, जिससे उन्होंने तर्क-प्रन्य पढ़े। क्या वह विद्वान् बनारसके विद्वानोंसे अधिक ज्ञानी था? अवश्य ही यशो. विजय-जैसे प्रतिभाशाली छात्रने तीन वर्षमें 'षड्दर्शन' का सूक्ष्म अध्ययन कर लिया होगा। किन्तु जैन न्यायके तल-स्पर्शी विवेचनकी क्षुधा उन्हें आगरा ले आयी होगी। उस समय वहां दिगम्बर सम्प्रदायके अनेक पण्डित रहते थे। जैन न्यायके क्षेत्रमें उनको विद्वत्ता असन्दिग्ध थी । उनसे प्रभावित होकर ही पं० बनारसीदास दिगम्बर १. भकथानक, बम्बई, १६५७ ई०, प्रस्तावना, पृ० १० । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य बन सके थे। पाण्डे रूपचन्दजी तिहुना साहुके मन्दिरमै ठहरे ही रहते थे । 'अष्ट सहस्री' जैन दिगम्बर न्यायका दुरुह ग्रन्थ है। यशोविजयजी उमपर एक उत्तम टीका लिखने में समर्थ हो सके । हो सकता है कि उन्होंने इसका अध्ययन आगरेमे किया हो । अगाध विद्वत्ताके साथ लौटे यशोविजयजी । गुजरात तो इसी प्रतीक्षामें था। अहमदाबादके सूबेदार महावतखांने अपने दरबारमे उनका शानदार सम्मान किया। वहां उन्होने अपनी विद्वत्ता और स्मरणशक्तिके परिचायक अठारह अवधान प्रस्तुत किये । सब प्रभावित हुए और युवासाधुके गीत गाये जाने लगे। अहमदाबादमे ही वि० सं० १७१८ मे उन्हे 'उपाध्याय' पदसे विभूषित किया गया। वि० सं० १७१९ से १७४३ तकका समय उनके साहित्य-मजनका काल था। उन्होंने तीन सौ ग्रन्थोंका निर्माण किया। संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दीपर उनका समानाधिकार था। उन्होंने इन्ही चार भाषाओमे लिखा, जमकर लिखा । इससे भारतीय दर्शन और साहित्यके विद्यार्थी सदैव अनुप्राणित रहेगे। ___ यशोविजयजीका स्वर्गवास वि० सं० १७४३मे 'डभोई नामके नगरमे हुआ। आज भी वहां छह जैन मन्दिर और दो पाठशालाएं है। उस समय इसका नाम दर्भावती था। यह लाट देशको प्रमुख नगरियोमे गिनी जाती थी। प्रसिद्ध न्यायवेत्ता श्री देवसूरिजी और श्री मुनिचन्द्र सूरीश्वरजीका जन्म इसी नगरीमे हुआ था। प्रसिद्ध मन्त्री वस्तुपालने यहाँ एक सीमादुर्ग भी बनवाया था। पं० नाथूरामजी प्रेमी डभोईको यशोविजयजीका जन्म-स्थल मानते रहे। अब यह मान्यता खण्डित हो चुकी है। यशोविजयजी पूर्ण ब्रह्मचर्य, सच्ची साधुता, अगाध पाण्डित्य और गौरवके साथ लगभग ६५ वर्ष जीवित रहे। श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य के उपरान्त भारतीय धरा एक बार फिर प्रकाण्ड विद्वत्ताके तेजसे गौरवान्वित हो उठी थी। साहित्य-सृजन उनके द्वारा रचित तीन सौ ग्रन्थोका परिचय देना न तो सम्भव है और न प्रसंगानुमोदित । उन्होंने मुख्य रूपसे तर्क और आगमपर लिखा । किन्तु व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्यके क्षेत्रमे भी उनकी गति अप्रतिहत थी। उन्होंने टीकाएँ और भाष्य लिखे। अनेक मौलिक कृतियोका भी निर्माण किया। उनमे 'खण्डनखण्डखाद्य'-जैसे ग्रन्थ उनकी पैनी विद्वत्ताके मानस्तम्भ है । १. आज भी यह, दक्षिण-पूर्व रेल्वे लाइनपर, बड़ौदासे १६ मील दूर स्थित एक स्टेशन है। इसकी आबादी तीस हजार है। २. पं० नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बम्बई, सन् १९१७ ई०, पृ०६२। २६ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ___ "जैन भक्ति-काव्यको पृष्ठभूमि' की भूमिकामे लिखा जा चुका है कि जैन आचार्य केवल दार्शनिक ही नहीं होते थे, वे कुछ-न-कुछ भक्तिसम्बन्धी साहित्य भी रचते अवश्य थे। श्री यशोविजयजीने गुजरातीमे अनेक स्तवन, सज्झाय, गीत और वन्दनाओंका निर्माण किया है । बनारस और आगरेमे रहनेके कारण हिन्दीपर भी उनका अच्छा अधिकार था। उनका 'जसविलास' हिन्दीका प्रसिद्ध काव्य है । इसके अतिरिक्त 'आनन्दघन अष्टपदी', 'दिग्पट ८४ बोल' और 'साग्य शतक' भी उनकी हिन्दीकी ही कृतियाँ हैं। जसविलास यह काव्य, 'मज्झाय, पद अने स्तवन संग्रह' नामके मुद्रित संकलनमें छपा है। इनमे ७५ मुक्तक पद है । सभी जिनेन्द्रको भक्तिसे सम्बन्धित है । एकमे लिखा है कि भक्त ज्योंही प्रभुके ध्यानमें मग्न हुआ कि उसकी समूची दुविधा पल-मात्रमे नष्ट हो गयी। भक्तको आराध्यकी निष्ठामें, हरि-हर और ब्रह्माको निधियां भी तुच्छ दिखाई देती हैं। भक्त तो अब अपने प्रभुको अक्षय निधिका स्वामी है। उसके रसके आगे उसे और कोई रस भाता ही नहीं, "हम मगन भये प्रभु ध्यान में। विसर गई दुविधा तन-मन की, अचिरा सुत गुन गान में । हरि-हर-ब्रह्म-पुरन्दर की रिधि, श्रावत नहिं कोउ मान में। चिदानन्द की मौज मची है, समता रस के पान में ॥ इतने दिन तूं नाहिं पिछान्यो, जन्म गंवायो अजान में । अब तो अधिकारी है बैठे, प्रभु गुन अखय खजान में ॥ गई दीनता समी हमारी, प्रभु तुझ समकित दान में । प्रभु गुन अनुभव के रस आगे, आवत नहिं को ध्यान में ॥" आनन्दघन अष्टपदी इसमें हिन्दोके जैन सन्त आनन्दघनकी स्तुति की गयी है। कहा जाता है कि उपाध्याय यशोविजय और आनन्दघनजीकी भेंट हुई थी। आनन्दघन सदैव अध्यात्मरसमें मग्न रहते थे । वे कभी जंगलोंमें घूमते और कभी गुफाओमे योगसाधना करते। जन-सम्पर्कमे शायद ही कभी आते । जब आते तो सुबोध और सुरुचिपूर्ण शैलोमे उपदेश देते । अवधूत-से इस साधुकी बात श्रीमद् यशोविजयजीने भी सुनी थी । वे उनसे मिलना चाहते थे। एक बार अर्बुद क्षेत्रके समीपस्थ गांवमे १. भानन्दधन पदसंग्रहमें पृ० १६४ पर छप चुकी है। यह संग्रह अध्यात्मशान प्रसारक मण्डल, बम्बईसे वि० सं० १९६६ में प्रकाशित हुआ था । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २०३ यशोविजयजी व्याख्यान दे रहे थे। उस सभाम एक ओर उदासीन-सा वृद्ध साधु बैठा था । वे आनन्दघन थे। उनसे भेंट हुई । यशोविजयजी इस भांति प्रभावित हुए कि अपनेको रोक न सके । अटपदी उनके भावोद्गारोंका सही प्रतीक है । यशोविजय जिस अध्यात्मरसके पण्डिन थे, वह ही आनन्दघनकी अनुभूतियोमे गहरा उतरा था । आनन्दधन 'अध्यात्मरस' ही थे। यह ही तो कारण था कि यशोविजय-जैसा विद्वान् इन्हें देख भाव-विमुग्ध हो उठा। उनकी संगतिसे यशोविजयमे भी अध्यात्मरसकी लहरें उठने लगी थी। इमीको उन्होंने लिखा है कि 'पारस'की संगतिसे लोहा भी 'स्वर्ण' हो जाता है, "आनन्दधन के संग सुजल हो मिले जब, तव आनन्दसम भयो सुजस । पारस संग लोहा जो फरसत, कंचन होत ही ताके कस ॥ खीर नीर जो मिल रहे आनन्द,जस सुमति सखी के मंग भयो है एक रस। भव खपाइ, सुजस विलास भये सिद्धस्वरूप लीये घसमस ॥" आनन्दघन मार्गमे चलते-चलते गा उठते थे। उनके मुखपर लोकसे न्यारा रूप सदैव बरसता रहता था। वे कभी सुमति सखीसे दूर नहीं होते । उनसे मिलकर यशोविजयको गौरवका अनुभव हुआ, "मारग चलत-चलत गात, आनन्दवन प्यारे, रहत आनन्द भरपूर ।। ताको सरूप भूप निहुँ लोक थे न्यारो, बरखत मुख पर नूर ॥ सुमति सखी के संग, नितनित दोरत, कबहुं न होत ही दूर ॥ जशविजय कहे सुनो आनन्दधन, हम तुम मिले हुजूर ॥" आनन्दघनको पहचाननेके लिए अपने चित्तके भीतर भी उसी आनन्दकी अनुभूति होनी चाहिए। आनन्दधन आनन्दके ही बने है। वे आनन्दक अक्षय खजाने है। उन्होने 'सहज अलखपद' के सुखका अनुभव किया है। आनन्दघनके सही दर्शनके लिए इसी भावभूमि तक उठना होगा, "आनन्द की गत आनन्दघन जाणे ॥ वाइ सुख सहज अचल अलख पद, वा मुख सुजस बखाने ॥ सुजस विलास जब प्रगटे आनन्दरस, मानन्द अखय खजाने । ऐसी दशा जब प्रगटे चित्त अंतर, सोहि आनन्दधन पिछाने ॥" दिक्पट चौरासी बोले ___ यह रचना पं० हेमराजजीके "सितपट चौरासी बोल' का खण्डन करने के १. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग ४, उदयपुर, सन् १९५४, पृ० १३६ । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि लिए लिखी गयी थी। यहां पं० सुखलालजीका यह अभिमत कि "उपाध्यायजी थे पक्के जैन और श्वेताम्बर ।" ठीक ही प्रतीत होता है उन्होने 'अध्यात्म-मत खण्डन' में भी दिगम्बर मान्यताका निराकरण किया है। यदि उपाध्यायजी इस श्वेताम्बर-दिगम्बरके ऊपर उठ पाते तो आचार्य हेमचन्द्रसे भी बड़े सिद्ध होते। आजका युग समन्वयवादी है । उसमे उपाध्यायजीका स्थान निर्धारित करते समय यह ही एक 'अटकाव' बना रहेगा। ___ 'दिक्पट चौरासी बोल' की एक हस्तलिखित प्रति १९वी शताब्दीको लिखी हुई अभय जैनग्रन्थालय बीकानेर में मौजूद है। इसमे १६१ पद्य है। प्रारम्भिक पद्य इस प्रकार है, "सुगुणध्यान शुमध्यान, दान विधि परम प्रकाशक । सुवट मान प्रमान, आन जस मुगति अभ्यासक ॥ कुमत वृन्द तम कन्द, चन्द परिद्वन्द्व निकाशक । कचिअ मन्द मकरन्द, सन्त आनन्द विकासक ॥ यश वचन रुचिर गंभार निजे, दिगपट कपट कुठार सम । जिन वर्धमान सोई वंदिय, विमल ज्योति पूरण परम ॥" साम्यशतक इसमे १०५ पद्य है। यह श्री विजयसिंहसूरिके 'साम्यशतक'को आधार मानकर मुनि हेमविजयके लिए रचा गया था। इसकी एक हस्तलिखित प्रति उपर्युक्त ग्रन्थालयमें ही संकलित है। आदि और अन्तके दो पद्य देखिए, आदि, "समता गंगा मगनता, उदासीनता जात । चिदानन्द जयवन्त हो, केवल भानु प्रमात ॥" अन्त, "मावन जाकू तत्त्व मन, हो समता रस लीन । ज्युं प्रगटे तुझ साहब सुख, अनुभव गभ्य अहीन ॥" ५७. महात्मा आनन्दघन (जन्म वि० सं० १६८०, मृत्यु वि० सं० १७४५) आनन्दधन एक जैन साधु थे। किन्तु यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वे तपागच्छके थे अथवा खरतरगच्छके । उनको स्वयं गच्छोंसे कोई ममत्व नहीं १. वही, पृ०१। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य था । शायद इसी कारण उसका कहीं उल्लेख नहीं है । उन्होंने अपने पारिवारिक जीवनके विषय में किंचिन्मात्र भी इशारा नहीं किया है । वे सच्चे अध्यात्मवादी थे, अतः उन्होंने आत्माका सम्बन्ध ही सच्चा माना और उसीका वर्णन किया । उनको प्रशंसा में लिखी गयी यशोविजयजीकी 'अष्टपदी' उपलब्ध है, किन्तु वह भी उनके आध्यात्मिक गुणों का वर्णन करके चुप हो जाती है । इतना अवश्य विदित है कि उनका दूसरा नाम लाभानन्द था । श्री के० एम० झावेरीने उनको लाभविजय भी कहा है। २०५ अभीतक उनके मूल निवास स्थानका भी पता नहीं लग सका है । कुछ लोगोने विभिन्न कल्पनाएँ की है। गुजरातीके प्रसिद्ध लेखक श्री मनसुखलाल रजवी भाई मेहताने बहुत दिन पूर्व आनन्दघनपर एक ४०-४२ पृष्ठका निबन्ध लिखा था । उनकी भाषाको आधार बनाकर मेहताजीने भाषा-विवेक शास्त्रकी दृष्टिसे अनुमान किया था कि वे अमुक-अमुक प्रान्तोमे घूमे होगे और अमुक प्रान्तके वासी होगे । उनकी कल्पनाके अनुसार आनन्दवन भी गुजरातके रहनेवाले थे । आचार्य क्षितिमोहन सेनने इसका खण्डन करते हुए उनको राजपूतानेका सिद्ध किया है । उनकी दृष्टिसे गेय पदोंकी भाषाको आधार बनाकर किसी व्यक्तिके मूल देशका निर्धारण नही किया जा सकता । गानेवालोके मुखसान्निध्यसे गेय पद बदल जाते है और उनमें कुछ विलक्षणता आ ही जाती है। श्री आनन्दघनजीने अपना अन्तिम समय मेड़ता नगरमे व्यतीत किया था, जो पश्चिमी राजपूतानेमे अवस्थित है । उनकी वाणियोकी ख्याति भी राजपूताने मे ही अधिक फैली । आनन्दघनका समय तो लगभग निश्चित-सा ही है । मेडता नगरमे ही यशोविजयजीसे उनका साक्षात्कार हुआ था । यशोविजयजी इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनकी प्रशंसा 'अष्टपदी' का निर्माण किया । यशोविजयजीका जन्म संवत् १६८० और स्वर्गवास सं० १७४५ में हुआ था । दभोईनगरमे उनके समाधि-स्थानपर यह मृत्यु सवत् लिखा हुआ है । अतः यह प्रमाणित है कि आनन्दघनजी इन * १. श्री के० एम० झावेरी, माइलस्टोन्स इन गुजराती लिटरेचर, पृष्ठ १३६ ॥ २. आचार्यं चितिमोहन सेन, जैन-मरमी श्रानन्दघनका काव्य, वीणा, अंक १, नवम्बर १६३८, पृष्ठ ६-७ ॥ ३. यह अष्टपदी श्रानन्दघन - अष्टपदीके नामसे सज्झाय, पर अने संग्रह में सबसे पहले प्रकाशित हुई थी। अब तो बुद्धिसागरजी के आनन्दघन पद संग्रहमें भी छपी है। ४. जैन स्तोत्र सन्दोह, प्रथम भाग, मुनि चतुरविजय द्वारा सम्पादित, प्रस्तावना, पृ० ६०-१०१ । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि दो संवोंके वीचमे अवश्य ही मौजूद रहे होगे। आचार्य क्षितिमोहन सेनने थी यशोविजयको आधार मानकर ही लिखा है, "मेड़ता नगरमे आनन्दघनके साय यशोविजयजीने कुछ समय बिताया था, इसलिए ये दोनो ही समसामयिक थे। आनन्दघन कुछ उमरमे बडे हो सकते है। अतएव सम्भव है कि १६१५ ई० मं० १६७२ के आस-पास उनका जन्म और १६७५ ई० स० १७३२ के लगभग देहावसान हुआ हो । बनारस विश्व विद्यालयके पण्डित विश्वनाथप्रसाद मिश्रने भी इसी आधारपर उनको १७०० वि० सं० के आम-पासका माना है। यह सच है कि उनके विषयमे कोई निश्चित तिथि तो नहीं दी जा सकती, किन्तु वे सत्तरहवी शताब्दीके अन्तिम और अठारहवीके प्रथम पादमे अवश्य मौजूद थे, यह निश्चित है। ___ आनन्दघन एक उदार हृदयके व्यक्ति थे। यद्यपि उनकी शिक्षा-दीक्षा जैनधर्ममे हुई थी और जैनत्त्रके प्रति उनकी प्रगाढ श्रद्धा भी थी, किन्तु उन्होने जैनधर्मके उस दम्भ और पाखण्डवाले पहलूको कभी स्वीकार नहीं किया जो अन्तिम श्रुतकेवलीके उपरान्त शनै:-शनैः पुष्ट होता ही चला आ रहा था। जिन संकुचित सीमाओको तोड़ने के लिए एक बार जैनधर्मने क्रान्ति की थी, उन्हीम वह स्वयं आबद्ध हो गया था। आनन्दघन उनसे निकलकर बाहर जा खड़े हुए। आचार्य क्षितिमोहन सेनके कथनानुसार उनपर मध्य युगके 'मरमिया सहजवाद'का विशेष प्रभाव पड़ा । यह सच है कि उनके भाव कबीर, दादू और रज्जव आदिसे मिलते है, किन्तु यह भी सच है कि वे बनारसीके अध्यात्मवादसे अत्यधिक प्रभावित थे। 'आनन्दधन बहत्तरी' उन्ही आध्यात्मिक भावोसे ओतप्रोत है, जो बनारसीदासकी देन थी। इसमें कोई प्रमाण नहीं है कि वे "साधु वेश त्याग करके मरमी भक्तोके समान दीर्घ अंगावरण पहना करते और सितार, दिलरुबा प्रभृति यती-जनविवजित वाद्य-यन्त्र लेकर घूमा करते थे। यद्यपि उनके विचार वेश-भूषाके समर्थनमे नही थे, किन्तु इससे यह प्रमाणित नही होता कि वे जैन साधुकी वेश-भूषा त्याग१. आचार्य क्षितिमोहन सेन, जैन-मरमी आनन्दधनका काव्य, वीणा, अंक १, नवम्बर २६३८, पृ०८। २. विश्वनाथप्रसाद मिश्र, घनानन्द कवित्त, भूमिका, पृ० १५ । ३. श्री नाथूराम प्रेमीने कुंअरपाल-चौरडियाके वि० सं० १६८४-१६८५ के लिखे हुए एक गुटकेके आधारपर आनन्दधनका समय १७वी शताब्दीका मध्य भाग माना है। उन्होंने अनेक तोंके आधारपर यशोविजय और आनन्दधनकी भेंटको भी मिथ्या सिद्ध किया है। अर्द्धकथानक, बम्बई, पृ० ११६-११७ । ४. प्राचार्य घितिमोहन सेनका उपयुक्त लेख, वोण्या, नवम्बर १९३८, पृ० ८। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य कर मरमी-भक्तको धारण करते थे। वेश-भूषा दोनो ही है और मेरी दृष्टिमे उन्होंने दोनों को ही खिलाफ़त को । एक यनी ज्ञानसागर हुए है, जिनकी टोकासे यह स्पष्ट है कि वे जैन साधुके वेशमे ही रहते थे। उत्तरमध्यकालमे आनन्दघन, घनानन्द और आनन्द नामके कई कवि हुए हैं। उनमे-से सुजानवाले घनानन्द और जैन आनन्दघनको आचार्य क्षिनिमोहन सेनने 'जैन मर्मी आनन्दधन' वाले लेखमे एक ही प्रमाणित किया है। शायद आचार्यजीका यह अनुमान शिवसिंह सेंगरके 'सरोज' मे घनानन्दके लिए निर्धारित सं. १७१५ पर आधारित है, जो अब गलत प्रमाणित हो चुका है। आचार्य पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्रने उनका समय अठारहवी शताब्दीका अन्तिम पाद अनेक प्रमाणोसे सिद्ध किया है । यद्यपि दोनोके विचारोंमे कहो-कही बहुत साम्य है, किन्तु फिर भी घनानन्दने 'सजान' को कभी नही छोडा. जब कि आनन्दघनने इस शब्द तकका प्रयोग शायद ही कही किया हो। एक तीसरे आनन्दघन नन्दगांवके थे, जिनका साक्षात्कार श्री चैतन्यदेवजीसे हुआ था । अतः उनका समय सोलहवीं शताब्दीका उत्तरार्द्ध ठहरता है, और वे उपर्युक्त दोनोंसे पृथक् थे। एक चौथे आनन्द और हुए है, जिन्होने काम-विज्ञानपर 'कोक मंजरो'का निर्माण किया था। बहुत दिनो तक इनको और घनानन्दको एक ही माना जाता रहा, किन्तु अब उनका पृथक्त्व स्पष्ट हो गया है । आनन्दघनकी रचनाएँ ___ इनकी दो रचनाएं हैं, एक तो 'चौबीसी' और दूसरी 'आनन्दघन बहत्तरी 'चौबीसी' गुजरातीमे है और 'बहत्तरी' हिन्दीमें। चौबीसीमे चौबीस स्तोत्र हैं, जो चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुतिमें रचे गये थे। इसके रचना-कालपर विचार करते हुए पण्डित विश्वनाथप्रसाद मिश्रने 'अध्यात्मवादी आनन्दघन अने श्री यशोविजय' नामके लेखका आधार लेकर लिखा है कि "उनकी चौबीसीकी कई पंक्तियां सर्वश्री समयसुन्दर । सं० १६७२ । जिराजमूरि । सं० १६७८ । सकलचन्द्र । सं० १६४० और प्रीति विमल । सं० १६७१। के जिन स्तवनादि ग्रन्थोमे आये चरणोंसे मिलती १. 'आजकल' जून सन् १९४८ ई० में पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्रका लेख, आनन्दघन का निधन संवत्, पृ० १२, और घनानन्द कवित्त, प्रस्तावना, पृ० १८१ २. का० ना० प्र० पत्रिका, वर्ष ५३, अंक १ में पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्रका लेख. नन्दगाँवके श्रानन्दधन, पृष्ठ ४६ । ३. डॉक्टर ग्रियर्सनका दि मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑव हिन्दुस्तान, पृष्ठ ६२, संख्या ३४७। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि हैं, इससे चौबीमीका समय सं० १६७८ के अनन्तर हो ठहरता है। किन्तु इससे कोई निश्चित तिथि विदित नहीं हो सकी । श्री के० एम० झावेरोने अपने 'माइल स्टोन्म इन गुजराती लिटरेचर में स्पष्ट रूपमे इसका रचना संवत् १६८७ दिया है। इसपर श्री यनोविजयजी उपाध्याय, ज्ञानविमलसूरि और ज्ञानसारने पृथक्पृथक् 'बालावबोध टबाकी रचना की थी। यशोविजयजीने जिस मूल प्रतिको लिया, उसमे केवल २२ स्तवन थे, किन्तु ज्ञानविमलसूरि और ज्ञानसारको प्रतियोंमे २४ म्तवन थे, और उन्होंने उन सबपर टबाकी रचना की। यह चौबीसी पिछले टबामहित 'चौबीम स्तवन आनन्दघन चौबीसी' नामसे श्रावक भीमसिंह माणिकके यहाँसे प्रकाशित हो चुकी है। . आनन्दघन बहत्तरी ___यह हिन्दीको प्रसिद्ध रचना है । यद्यपि गुजराती प्रकाशनोंने उसको भाषाको गुजरातीमे ढालनेका प्रयास किया है, किन्तु उसका मूल रूप छिप नहीं सका, और आज वह बड़े-बड़े विद्वानोंकी दृष्टिमे भी हिन्दीकी ही कृति है। इसके अनेकों प्रकाशन हो चुके है । सवत् १९४४ में यह बम्बईके श्रावक श्री भीमसिंह माणिकके यहाँसे प्रकाशित हुई । इसमें १०६ पद हैं, और कोई भूमिका अथवा टीका-टिप्पणी नहीं है । दूसरा प्रकाशन श्रीयुत् मोतीचन्द गिरधरलाल कापड़िया सोलोसिटरके मम्पादनमे 'मानन्दघन पद्यरत्नावली, प्रथम भाग' के नामसे, जैन धर्म प्रसारक ममा भावनगर' से हुआ। इसमे बहत्तरीके केवल ५० पद्योंपर विवेचन किया है । श्री बुद्धिसागरजीके बृहद् विवेचनके साथ 'आनन्दघनपद-संग्रह' अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल बम्बईसे प्रकाशित हुआ है। यह एक सुन्दर ग्रन्थ है । और आनन्दघनजीके पदोका भावार्थ विस्तारमे समझाया गया है। बहुत दिन पूर्व रायचन्द काव्यमालासे भो एक 'आनन्दधन बहत्तरी' छपी थी। इसमें १०७ पद्य है। रचनाके शीर्षकसे स्पष्ट है कि इस कृतिमे ७२ या कुछ अधिक पद होने चाहिए, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वे १०० से भी अधिक हो जायें। फिर तो उसका नाम शतक पड़ जायेगा। 'आनन्दधन बहत्तरी' के १०७ पदोंपर आपत्ति उठाते हुए पं० नाथूरामजी प्रेमीने लिखा है, "जान पड़ता है, इसमें बहुत-से पद बोरोंके मिला दिये गये है। थोड़ा ही परिश्रम करनेसे हमें मालूम हुआ है कि इसका ४२ वा पद 'अब हम अमर भये न मरेंगे' और अन्तका पद 'तुम ज्ञान विमी फूली बसंत' ये दोनों द्यानतरायजोके हैं। इसी तरह जांच करनेसे औरोंका १. का० ना० ५० पत्रिका, वर्ष ५३, अंक १ में पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्रका लेख, 'नन्दगाँवके भानन्दवन', पृ० ४८ | Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २०९ भी पता चल सकता है ।"" इसकी बढी हुई संख्याको आचार्य क्षितिमोहन सेनने भी सन्देहकी दृष्टिसे देखा है । मेरी दृष्टिमे श्री महाराज वुद्धिसागरजीका 'आनन्दघन पद- संग्रह' उपयुक्त रचना है । इसका रचना सं० १७०५ स्वीकार किया गया है । 'मिश्रबन्धु विनोद' में भी यह हो रचनाकाल दिया गया है। यह अठारहवी शताब्दी के प्रथम पादकी कृति है । 3 भक्ति विषय आनन्दघनजीके जमे हुए विचार थे। लौ, उसका विशिष्ट गुण माना है, मन कही भी जाये, किन्तु उसकी लो भगवान्‌के चरणोंमे हो लगी रहे, तभी वह भक्ति है अन्यथा नही । कविने उमीको विविध और सुन्दर दृष्टान्तोसे पुष्ट किया है, "ऐसे जिन चरण चित पद लाऊं रे मना, ऐसे अरिहंत के गुण गाऊं रे मना । उदर भरण के कारणे रे गउवां बन में जाय, चारौ चरै चहुँ दिसि फिरै, बाकी सुरत बछरुभा माँय ॥" अर्थात् जिस प्रकार उदर भरणके लिए गौएँ वनमे जाती है, घास चरती हैं और चारों ओर फिरती है, परन्तु उनका मन अपने बछड़ोंमे लगा रहता है । ठोक इसी प्रकार संसारके सब काम करते हुए भी हमारा मन भगवान्‌के चरणोंमें लगा रहे और अरिहंतके गुण गाता रहे, तभी वह भक्त है । “सात पाँच सहेलियाँ रे हिल मिल पाणीड़े जायँ । ताली दिये खल खल हँसे, वाकी सुरत गगरुभा मायँ ॥" सहेलियाँ हिल-मिलकर पानी भरनेके लिए तालाब या कुएँपर जाती है । रास्ते ताली बजाती है और हँसती-खेलती भी है, किन्तु उनका ध्यान सिरके घड़ेपर ही लगा रहता है। ठीक इसी भाँति संसारके अन्य काम करते हुए भी हमारा मन भगवान्मे लगा रहना चाहिए । "नटवा नाच चौक में रे, लोक करै लख शोर । बाँस ग्रही बरते चढ़े, बाकौ चित न चलै कहुँ ठोर ॥' नट बांस लेकर रस्सी पर चढ़ता है और उसपर अपना उत्तम नृत्य दिखाता है, जिसकी कुशलता देखकर लोग शोर-गुल मचाते हैं। इधर-उधर देखते हुए भी १. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पादटिप्पणी, पृ० ६१ । २. आचार्य क्षितिमोहन सेनका उपर्युक्त लेख, पृ० ४ ३. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, संख्या ३४४ १, पृ० ४२८-२६ । ४. आनन्दधन पद संग्रह, श्रीमद् बुद्धिसागरकृत गुजराती भावार्थसहित, अध्यात्मज्ञान प्रसारक मण्डल, बम्बई, वि० सं० १९६६, पद ६५, पृ० ४१३- ४१५ / २७ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि उसका ध्यान रस्सीपर ही रहता है। वैसे ही संसारके बीच यश-प्रशंसा सुनते हुए भी हमारा मन सदैव प्रभु मे ही तल्लीन रहना चाहिए । भक्ति-साहित्यमें 'लघुता-प्रदर्शन' भक्तका मुख्य गुण माना जाता है। आनन्दघनको लघुतामें हृदय रमा है और इसी कारण उसमे दूसरोको विभोर बना देनेकी शक्ति है । भक्त एक प्रेमिकाकी भांति अपने आराध्यके आनेको प्रतीक्षा करता है और बेचैन होकर पुकार उठता है, "मैं रात-दिन तुम्हारी प्रतीक्षा करता हूँ, पता नहीं तुम घर कब आओगे। तुम्हारे लिए मेरे समान लाखों है, किन्तु मेरे लिए तो तुम अकेले ही हो । जोहरी लालका मोल कर सकता है, किन्तु मेरा लाल तो अमूल्य है। जिसके समान कोई नही, भला उसका क्या मूल्य हो सकता है ? इम भावके दो पद्य देखिए, "निशदिन जोउँ तारी वाटडी, घरे आवो रे ढोला। मुज सरिखा तुज लाल है, मेरे तुहीं अमोला ॥ निश० ॥१॥ जव्हरी मोल करे लाल का, मेरा लाल अमोला। ज्या के पटन्तर को नहीं, उसका क्या मोला ॥ निश० ॥२॥" आनन्दधनका उदार भाव था । वे एक अखण्ड सत्यके पुजारी थे। उसको कोई राम, रहीम, महादेव और पारसनाथ कुछ भी कहे, आनन्दधनको इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। उनका कथन था कि जिस प्रकार मिट्टी एक होकर भी पात्र-भेदसे अनेक नामो-द्वारा कही जाती है, उसी प्रकार एक अखण्ड-रूप आत्मामे विभिन्न कल्पनाओंके कारण अनेक नामोकी कल्पना कर ली जाती है। उन्होंने अपने इस कथनको राम, रहीम, कृष्ण, महादेव, ब्रह्म और पार्श्वनाथके नामोंकी व्युत्पत्तियोंसे सार्थक बनाया है। वह पद्य इस प्रकार है, "राम कहो, रहमान कहो कोऊ, कान कहो महादेव री। पारसनाथ कहो, कोई ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री ॥ भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूपरी। तैसे खण्ड कल्पना रोपित, आप अखण्ड सरूप री ॥ राम०॥ निजपद स्मै राम सो कहिए, रहिम करे रहिमान री। कर्षे करम कान सो कहिए, महादेव निर्वाण री ॥ राम० ॥ परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिह्ने सो ब्रह्म रो। इहविधि साधो आप आनन्दघन, चेतनमय निष्कर्म री ॥ राम०॥" आत्माका अनुभव एक फूलकी तरहसे है, जिसमें से बास तो उठती है, किन्तु उसे नाक ग्रहण नहीं कर पाती। नाक स्थूल है और वह सुगन्धित दिव्य तथा Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य २११ अलौकिक है, अत. उसे सूंघनेको सामर्थ्य नाकमें नहीं है। और यदि कोई भुक्तभोगी उसका वर्णन करे तो उसपर कान विश्वास नहीं करते । "आतम अनुमव फूल की, कोउ नवेली रीति ।। नाक न पकरै वासना, कान गहै न प्रीति ॥" भक्त वही जो भगवान्का होकर रहे । यहाँ आनन्दधन भी अपने आराध्यदेव ब्रजनाथके हाथों बिक गये है। उनको ब्रजनाथके अतिरिक्त और कोई ऐसा देव दृष्टिगोचर नही हुआ, जिसकी शरणमे वे जा सकें, "ब्रजनाथ से सुनाथविण, हाथो हाथ बिकायो। विचको कोउ जन कृपाल, सरन नजर न आयो ॥ ब्रज० ॥१॥" भक्त प्रेमिका बनकर भगवान्की शरणमे आया है। उसे इस प्रकार आनेमे किसीका कोई भय नही है । वह भगवान्से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! यह निश्चय जानो कि यद्यपि मैने करोड़ो अपराध किये है, किन्तु यह जन आपका ही है, अतः उसपर कृपा करो, "मैं आयी प्रभु सरन तुम्हारी, लागत नाहिं धको । भुजन उठाय कहुं औरन सूं, करहुंज कर ही सको ॥ अपराधि चित्त ठान जगत जन, कोरिक मांति चको । आनन्दघनप्रभु निहचै मानो, इह जन रावरौथ को ॥" ५८. जगजीवन (वि० सं० १००१) जगजीवनके पिताका नाम सन्घवी अभयराज था। वे आगरेके प्रसिद्ध धनी व्यक्ति थे। अहंकार नाम-मात्रको भो न था। दानादि होता ही रहता था। कोई भी साधु-संन्यासी, किसी भी सम्प्रदायका हो, उनके द्वारसे खाली हाथ नही लौटा। उनके पास वैभव था और उदारता भी। उनकी अनेक स्त्रियोंमे 'मोहन दे संघइन' अधिक प्रसिद्ध थी, उसको जैसा रूप मिला था वैसे ही गुण भी। भगवान् जिनेन्द्रके मार्गमे उसको श्रद्धा बहुत अधिक थी। उसीके गर्भसे जगजीवन १. नगर बागरे मे आरवाल आगरी, गरगगौत आगरे मे नागर नबलसा । संगही प्रसिद्ध अभैराज राजमान नीके, पंच बाला नलिनि मे भयो है कंवल सा ।। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि का जन्म हुआ। वह सम्राट् जहाँगीरका शासनकाल था। चारों ओर सुख-शान्ति विराजमान थी। जगजीवनका कुल अग्रवाल और गोत्र गर्ग कहलाता है। श्रेष्ठ शिक्षा और मांक प्रभावसे जगजीवन जिन-मार्गमे सुदृढ तो हुए ही, विद्वान् भी बन गये। चारो ओर उनकी यश-सुगन्धि विकोणित होने लगी। उन्होने स्वयं लिखा है, "समै जोग पाइ जगजीवन विख्यात भयौ, ज्ञानिनकी मण्डलोमे जिसको विकास है।" उस समय आगरेकी ज्ञानियोको मण्डलीमे जगजीवन प्रमुख व्यक्ति थे। दूसरी ओर के राजनीतिम भी दक्ष थे। जाफरखां नामके किसी प्रसिद्ध उमरावने उन्हे अपना मन्त्री नियुक्त किया था।' वे बनारसीदामके परमभक्त थे। उनकी बिखरी रचनाओको वनारसीविलासमे संकलित करनेका महत्त्वपूर्ण कार्य उन्होने ही किया था। इसके अतिरिक्त उन्होने बनारसीदासके 'नाटक समयसार'की टीका भी लिखी थी। इस भांति 'बनारसी-साहित्य' को अमर और लोक-प्रिय बनानेमे जगजीवनका बहुत बड़ा हाथ रहा है। उनकी मौलिक रचनाओंमे उनके अनेको पद लिये जा सकते है, जो सरस है तथा भाव-प्रवण भी। उन्होंने 'एकीभाव स्तोत्र' की भी रचना की थी। पद ___इनके रचे हुए पद जयपुर बधीचन्दजीके मन्दिरमे विराजमान गुटका नं० २९मे संकलित है । इस गुटकेका लेखनकाल सं० १८४१ है। इस गुटकेको प्रतिलिपि सांगानेरके सन्तोषराम अजमेराने की थी। एकीभाव स्तोत्र ___ इसको एक प्रति जयपुरके ठोलियोके दि० जैन मन्दिरके गुटका नं० १११में निबद्ध है । वादिराजके संस्कृत एकीभाव स्तोत्रको आधार मानकर इसका निर्माण हुआ है । रचनामे सरसता है। ताके परसिद्ध लघु मोहनदं संघइनि, जाके जिन-मार्ग विराजत धवल-सा। ताही को सुपूत जगजीवन सुदिढ़ जैन, बनारसी बैन जाके हिय मे सबल सा ॥ बनारसी विलास, संग्रहकर्ता परिचय, पृ० २४१, जयपुर, १६५४ ई० । १. ताको पूत भयो जगमानी, जगजीवन जिनमारगमानी। जाफरखां के काज संभारे, भया दिवान उजागर सारे ॥५॥ पं० हीरानन्द, पंचास्तिकाय टीका। २. राजस्थानके जैन शास्त्र-भण्डारोंकी ग्रन्थ सूची, भाग ३, पृष्ठ १२० । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २१३ उनका रचनाकाल अठारहवी शताब्दीका प्रथम पाद मानना चाहिए । उन्होने संवत् १७०१ मे 'बनारसी विलास' का संग्रह किया था । जगजीवनका व्यक्तित्व असाधारण था । उनकी प्रेरणासे ही अनेकानेक कवियोंने अनुपम साहित्यका सृजन किया । उनकी प्रेरणा एक जादू-सा होता था । पण्डित होरानन्दजी केवल दो माह पंचास्तिकायका अनुवाद कर सके, वह केवल इन्हीकी प्रेरणाका फल था । उस समय श्री जगजीवन आगरेकी साहित्यिक गतिविधियोंके केन्द्रसे हो रहे थे । वे रूपवान्, पवित्र और धन-धान्यसे युक्त थे । समय पाकर उनके हृदयमें यथार्थ धर्मका भाव उदित हुआ । फिर तो उन्हें रात और दिन ज्ञान मण्डलीमें ही चैन मिलने लगा । इस मण्डलीका प्रधान उन्हीको कहना चाहिए । 'एकीभाव स्तोत्र' मे भगवान्‌की भक्तिका स्वर ही प्रबल है । कविने एक पद्यमे लिखा है कि जिनेन्द्रदेव सकल लोकके भगवान् है और बिना प्रयोजनके बन्धु है । उनमे सब पदार्थ आभासित होते रहते है और विलास अबन्ध रूपसे वास करते हैं, " सकल लोक का तूं भगवान, बिना प्रयोजन बन्धु समान । सकल पदारथ मासक भास, तो मैं वसै घबन्ध विलास ॥ " कविका कथन है कि जिसके हृदयमे भगवान् जिनेन्द्र देव विराजमान है, उसके लिए अब किसी उपकारकी आवश्यकता नही है | उसने आत्मारूपी निधि प्राप्त कर लो है, जिसकी तुलना में अन्य कोई निधि आ ही नहीं सकती । वह अनुपम और अतुल है, पद " जाके हिये कमल जिनदेव, ध्यानाहूत विराजित एव । ताकै कौन रह्यो उपगार, निज आतम निधि पाई सार ॥ " जगजीवन के पद अनेक शास्त्र भण्डारोंको हस्तलिखित प्रतियोंमे बिखरे पड़े है । जयपुरके तेरहपन्थी मन्दिरमे सबसे अधिक हैं। मैने महावीरजी ( अतिशय क्षेत्र ), अजमेर और बड़ोतके शास्त्र भण्डारोंमें भी उनके पद देखे है । उनके पदों भक्ति और आध्यात्मिकताका समन्वय हुआ है । भक्तके नैनोंमे बसे भगवान्के रूपकी एक झलक देखिए, १. सुन्दर सुभग रूप अभिराम परम पुनीत घरम धन धाम ॥ काल-लबधि कारन रस पाइ, जग्यो जथारथ अनुभौ आइ । ग्यान मण्डली कहिए कौन, जामै ग्यानी जन परनोन ॥ एकीभाव स्तोत्र, पद्य ८१-८२ | Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "मूरति श्री जिनदेव की मेरे नैनन मांझ बसी जी। अद्भुत रूप अनोपम है छवि राग दोष न तनक सी ॥१॥ कोटि मदन वारूं या छवि पर निरखि निरखि आनन्द झर बरसी। जगजीवन प्रभुकी सुनि वाणी सुरति मुकति मगदरसी ॥२॥" भगवान्की 'समतारस भीनी छवि' देखकर भक्तको परम आनन्द मिला। उसके भव-भवके पाप कट गये और ज्ञान-भानुका प्रकाश प्राप्त हो गया । वह पद इस भांति है, "प्रभु जी श्राजि मैं सुख पायो । अधनाशन छवि समतारस मोनीसो लखि मैं हरषायो ॥प्रभुजी०॥१॥ भव-मवके मुझि पाप कटे हैं, ज्ञान मान दरसायो ।॥प्रभुजी०॥२॥ जगजीवन के माग जगे हैं, तुम पद सीस नवायो ॥प्रभुजी०॥३॥" भगवानका विरद है 'दीनबन्धु' और दीनबन्धु भी बिना प्रयोजनके । भक्तका निवेदन है कि उस विरदका निर्वाह करो, "जामण मरण मिटावी जी, महाराज म्हारो जामण मरण ॥टेक॥ भ्रमत फिरयो चहुँगति दुख पायो सो ही चाल छुड़ावो जीजामण०१॥ बिनहीं प्रयोजन दीनबन्धु तुम सो ही विरद निवाहो जी ॥जामण० ॥२॥ जगजीवन प्रभु तुम सुखदायक, मोकू शिवसुख द्यावो जी॥जामण०॥३॥" भक्त ऐसे सतगुरुकी बलिहारी जाता है, जो ध्यानस्थ होकर अलखसे लो लगाये रहता है। "ऐसा सतगुरु की बलिहारी ॥टेक॥ बड़ उजाड़ में बैठक जिनकी पलक न एक बिडारी । मोह महा भरि जीते पक में लागी अलख सू तारी॥ऐसा०॥१॥ ५९. पाण्डे हेमराज (वि० सं० १७०३-१७३०) ___ पाण्डे हेमराज जयपुर राज्यान्तर्गत सांगानेरमे उत्पन्न हुए थे, किन्तु किसी कारणवश कामागढ़ जाकर रहने लगे थे। वहां कीर्तिसिंह नामका राजा राज्य १. तेरहपन्थी मन्दिर, जयपुर, पदसंग्रह ६४६, पत्र ६१ । २. मन्दिर तेरहपन्थी, जयपुर, पदसंग्रह ६४६, पत्र ६३-६४ । ३. वही, पत्र ६०॥ ४. वही, पत्र ६२। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ११५ करता था । उसके खड्गको पैनी धारसे दुर्जनोंके सिर कट-कटकर गिर जाते थे । पाण्डे हेमराज पण्डित रूपचन्दजी के शिष्य थे, जैसा कि उनकी 'पंचास्तिकाय भाषा वचनिका' के अन्तिम अंशसे स्पष्ट है । उन्होने अपने गुरुके पास रहकर, जैन सिद्धान्त - शास्त्रोका सूक्ष्म अध्ययन किया और थोड़े ही समय मे अगाध विद्वत्ता प्राप्त कर ली । संस्कृत और प्राकृत विद्वान् होते हुए भी, उन्होने जो कुछ लिखा हिन्दी में ही लिखा । हिन्दी गद्य लेखक और कवि दोनों ही रूपोमे उनकी प्रतिष्ठा थी । उन्होंने 'प्रवचनसार' की भाषा टीका वि० सं० १७०९ में, 'परमात्म प्रकाश की वि० सं० १७१६ में, 'गोम्मटसार कर्मकाण्ड' की वि० सं० १७१७ मे, 'पंचास्तिकाय' की १७२१ मे और 'नयचक्र' की भाषा टीका वि० सं० १७२६ में लिखी । इन सभी में हेमराजके स्वस्थ गद्यके दर्शन होते हैं । पाण्डे हेमराज कवि भी उत्तम कोटिके थे। उन्होंने 'प्रवचनसार' का पद्यानुवाद भी किया है। इसके अतिरिक्त उन्होने 'सितपट चौरासी बोल' की रचना कुंअरपालजीकी प्रेरणा से की थी । इसीके उत्तरमे यशोविजयजीने 'दिक्पट चौरासी बोल' लिखा था । मानतुंग के 'भक्तामर स्तोत्र' का सुन्दर पद्यानुवाद इन्हीका किया हुआ है | अनुवाद होते हुए भी उसमे 'मौलिक काव्य' की सरसता है । 'हितोपदेश बावनी', 'उपदेश दोहा शतक' और 'गुरु-पूजा' भी उन्हीको कृतियां है। इससे प्रमाणित है कि वे अपने समयमें विद्वान् और कवि दोनों ही रूपोमे प्रसिद्ध थे । उनकी कविताओंपर स्पष्ट रूपसे 'वाणारसिया सम्प्रदाय' का प्रभाव था । १. उपजी सांगानेरि को, अब कामांगढ़ वास । वहाँ हेम दोहा रचे, स्व-पर बुद्धि परकास ॥ कामांगढ़ बस जहाँ, कीरतिसिंह नरेस । अपने खड्ग बल बसि किये, दुर्जन जितके देम ॥ उपदेश दोहा शतक, दोहा ६८-६६, दीवान बधीचन्दजीका मन्दिर, गुटका नं० १७, वेष्टन नं ० ६३६ | २. " यह श्री रूपचन्द गुरुके प्रसाद श्री पाण्डे श्री हेमराजने अपनी बुद्धि माफिक लिखत कीना ।" पंचास्तिकाय भाषा टीका, अन्तिम प्रशस्ति । ३. इसमें पथ संख्या ४३८ है । इसकी हस्तलिखित प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमें, वेष्टन नं० ७१८ में निबद्ध है । ४. हेमराज पाण्डे किये, बोल चुरासी फेर । या विघ हम भाषा वचन, ताको मत किय जेर ॥ यशोविजयजी, दिक्पट चौरासी बोल, १५६वाँ पद्य । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कवि बुलाकीदासके 'पाण्डव पुराण' वि० स० १७५४ से स्पष्ट है कि बुलाकोदासको माना 'जैनुलदे' अथवा 'जैनो', पाण्डे हेमराजकी पुत्री थी। उन्हीके अनुसार पाण्डे हेमराजका गोत्र गर्ग और जाति अग्रवाल थी।' सितपट चौरासी बोल यह अभीतक अप्रकाशित है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति जयपुरके पं० लूणकरजीके मन्दिरमे विराजमान गुटका नं० १५७में निबद्ध है। इस गुटकेका लेखनकाल वि० स० १७८४ है। इसको एक अन्य प्रति इसी मन्दिरके वेष्टन नं. ४४१ मे पृयक्से बंधी रखी है। इस प्रतिका लेखन काल पौष सुदी ५ वि० सं० १७२३ दिया है। ___'सितपट चौरासी बोल' से विदित है कि उसको कविता उत्कृष्ट कोटिकी थी। एक पद्य देखिए, "सुनयपोष हतदोष, मोषमुख सिवपददायक, गुनमनिकोष सुघोष, रोषहर तोषविधायक । एक अनन्त सरूप सन्तवन्दित अमिनन्दित, निज सुमाव पर भाव भावि मासेह अमंदिन अविदितचरित्र विलसित अमित, सर्व मिलित अविलिप्त तन, अविचलित कलित निजरस ललित, जय जिन दलित सु कलिल धन ॥" उपदेश दोहा शतक ___ 'उपदेश दोहा शतक'की रचना वि० सं०१७२५ में कात्तिक सुदी पंचमीको हुई थी। इस कान्यकी हस्तलिखित प्रति दीवान बधीचन्दजीके मन्दिर जयपुरके गुटका नं० १७ और वेष्टन नं० ६३६में निबद्ध है । इसको भावधारा सन्तकवियोसे मिलती-जुलती है। वाह्य संसारमे ईश्वरको ढूंढ़नेवाले जीवको फटकारते हुए कविने एक स्थानपर लिखा है कि अरे ओ जीव ! तू अन्धेकी भांति उसको स्थान-स्थानपर क्यों खोजताफिरता है । वह निरंजन देव तो तेरे घटमें ही बसा है, वहां क्यों नहीं खोजता, १. हेमराज पण्डित बसे, तिसी मागरे ठाइ । मरग गोत गुन आगरी, सब पूजे जिस पाइ।। बुलाकीदास, पाण्डवपुराण भाषा, अन्तिम प्रशस्ति । २. अर्धकथानक, पृ० १०७। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य "ठौर और सोधत फिरत, काहे अंध अबेव । तेरे ही घट में बमो, सदा निरंजन देव ॥"' कविने सन्त कवियोकी भांति ही कहा कि - शुद्धातमके अनुभव के बिना तीर्थ क्षेत्रोंमें स्नान करना, मूंड़ मुंडाना और तप तपना सभी कुछ व्यर्थ है। "सिव साधन कौं जानियै अनुमौ बड़ो इलाज। मूढ सलिल मंजन करत सरत न एको काम ॥ ५ ॥ कोटि बरस लौं धोइये अठसठ तीरथ नीर। सदा अपावन ही रहै मदिरा कुम्म सरीर ॥३०॥ तज्यौ न परिगह सौं ममत मिव्यौ न विष विलास । अरे मूंढ सिर मुंडि के क्यों न छान्यो घरबास ॥९॥ कोटि जनम लौं तप तपै मन बच काय समेत । सुद्धातम अनुभौ बिना क्यों पानै सिवषेत ॥ १८ ॥" हितोपदेश बावनी इसे 'अक्षर बावनी' भी कहते हैं। इसमें हिन्दी वर्णमालाके ५२ अक्षरोंमे से प्रत्येकपर एक-एक पद्यको रचना की गयी है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरके वेष्टन नं० २२२२ में निबद्ध है। उसपर लेखनकाल सं० १७५७ पड़ा है। यह प्रति विनयसागर गणिके शिष्य पं० विनोदसागरने यशरूप देवीके पढ़नेके लिए रूपनगरमे लिखी थी। बावनीका भक्ति-भावसे भरा एक सवैया देखिए, "मन मेरो उमग्यौ जिन गुण गायबो, टालत है गर्भवास सिवपुर दीयै वास छाँडि कै जिणंददेव और कहाध्यायबो। तन मन लागो तोय कछु न सुहाचे मोय सब दुंद दूरि करि तोसुं चित लायबो । सकल साहिब मेरो प्रगट प्रताप तेरो दोन को दयाल पायो सब सुख पायबो। हेमराज मणई मुनि सुरागें सजन जन मन मेरो उमग्यौ है जिण गुण गायवो ॥ ३॥" हिन्दी-भक्तामर आजसे २५ वर्ष पूर्व यह स्तोत्र, पं० पन्नालालजी बाकलीवाल-द्वारा सम्पादित 'बृहज्जिनवाणी संग्रह मे छपा था। अभी 'ज्ञानपीठपूजांजलि' में भी प्रकाशित हुआ १. वही, २५वाँ दोहा। २. संवत् १७५७ मिती वैशाख सुदी ११ दिने गुरुवासरे लेखयोस्तुः। श्री विनयसागर गणि शिष्य पं० विनोदसागरेण लेखयोस्तुः, रूपनगरमध्ये, बहूजी यशरूपदेवी वाचनार्थ-लेखयामि ।। प्रशस्ति, पृ० १२ । २८ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि है। इस भक्तामरकी प्रशमा करते हुए पं० नाथूरामजी प्रेमोने लिखा है, अनुवाद सुन्दर है और इसका खूब ही प्रचार है । इससे मालूम होता है कि हेमराजजी कवि भी अच्छे थे।" मूल संस्कृतका भक्तामर शार्दूलविक्रीडित छन्दोमे लिखा गया है, किन्तु पाण्डे हेमराजने चौगाई, छप्नय, नाराच और दोहोका प्रयोग किया है। चौपाईमें कुछ क्लिष्टता तो है, किन्तु उसमे सुन्दरतामे कोई विघात नही आ पाया है। एक स्थानपर कविने लिखा है कि भगवान्के नाममे असीम बल है। जिन शत्रुओंके प्रचण्ड बलको देखकर धैर्य विलुप्त हो जाता है, वे भगवान्का नाम लेने मात्रसे ही ऐसे भाग जाते हैं, जैसे दिनकरके उदयसे अन्धकार विलुप्त हो जाता है, "राजन को परचंड देख बल धीरज छीजै ॥ नाथ तिहारे नाम त सो छिनमाहिं पलाय । ज्यों दिनकर परकाश ते अंधकार विनशाय ॥"" आराध्यके सम्मुख अपनी लघुताका प्रदर्शन भक्तिका मुख्य अंग है। एक स्थानपर भक्त हाथ जोड़कर कहता है कि हे भगवन् ! शक्ति-हीन होते हुए भी, भक्ति-भावके कारण आपकी स्तुति कर रहा हूँ, ठोक वैसे ही जैसे कोई मृगी बलहीन होते हुए भी, अपने पुत्रकी रक्षाके लिए मृगपतिके सम्मुख चली जाती है, "सो मैं शक्ति हीन थुनि करूँ, मकि भाव वश कछु नहिं डरूँ। ज्यो मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ॥" भक्तको यह पूरा विश्वास है कि भगवानकी शरणमे जानेसे जन्म-जन्मके पाप क्षण-मात्रमे नष्ट हो जाते हैं, "तुम जस जपत जन छिनमाहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं। ज्यौं रवि उगै फटै ततकाल, अलि वत नील निशा-तम-जाल ॥" गुरु-पूजा पाण्डे हेमराजको लिखी हुई 'गुरु-पूजा' जैन-परम्पराके अनुसार ही रची गयी है। अर्थात् पहले अष्ट द्रव्यपूजा है और फिर जयमाला। यह पं० पन्नालाल बाकलीवाल द्वारा सम्पादित 'बृहज्जिनवाणी संग्रह मे संकलित है। दीपकसे पूजा करते हुए पूजक कहता है कि मैं जगमगाते दीपकसे सुगुरुके चरणोकी सदैव पूजा करता हूँ। इससे अज्ञानरूपी अन्धकार नष्ट हो जायेगा, और १. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृ० ५२ । २. पाण्डे हेमराज, भक्तामर भाषा, ४२वाँ षट्पद, दृज्जिनवाणी संग्रह, मदनगंज, किशनगढ, सितम्बर १६५६, पृ० २०१। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ज्ञानरूपी उजाला फैल जायेगा । इस भाँति मुझे कभी भी मोह मोहित न कर सकेगा । हमारे गुरु संसारके भोगोसे विरक्त होकर मोअके लिए तपस्या है । वे भी भगवान् जिनेन्द्रके गुणोका नित्य प्रति जाप करते है, कर रहे " दीपक उदीत सजोत जगमग सुगुरुपद पूजों सदा । तमनाश ज्ञान उजास स्वामी, मोहि मोह न ही कदा ॥ भव भोग तन वैराग्यधार, निहार शिव पद तपत हैं। तिहुँ जगतनाथ अधार साधु सु, पूज नित गुन जपन हैं ।' 'पंचपरमेष्ठी' का साधु ही गुरु है। मुनि भी उसीका नाम है। वे राग-द्वेषको दूर कर दयाका पालन करते है । तीनो लोक उनके सामने प्रकट रहते है । वे चारों आराधनाओके समूह है । वे दुर्द्धर्प पंच महाव्रतोको वारण करते है और छहों द्रव्योंको जानते हैं। उनका मन सात भगोके पालनमे लगा रहता है और उन्हें आठो कृतियाँ प्राप्त हो जाती है, " एक दया पालें मुनिराजा, राग द्वेष हैं हरनपरं । atri लोक प्रगट सब देखें, चारों श्राराधन निकर || पंच महाव्रत दुद्धर धारै, छहों दरत्र जानें सुहितं । सात मंगवानी मन लावैं, पावैं आठ ऋद्धि उचितं ॥" नेमि राजमति जखड़ी इसकी एक हस्तलिखित प्रति, जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमे, १२४ में अंकित है । इसका अन्तिम भाग इस प्रकार है, "तीस दिन अरु, निराधार जी । हेम मणे जीन जानिये । ते पावै भव पार जी ।" २१९ गुटका नं० रोहिणी व्रत कथा इसकी हस्तलिखित प्रति, मसजिद खजूर बेहलीके जैन मन्दिरमें मौजूद है। १. गुरु-पूजा, पद्य ६ । २. गुरु-पूजाकी जयमाला, पद्य ३ ६० पं० मनोहरदास ( वि० सं० १७०५ - १७२८ ) इनका दूसरा नाम मनोहरलाल भी है। इन्होंने कविनामे प्रायः 'मनोहर' का प्रयोग किया है । ये खण्डेलवाल जातिके सोनी गोत्रमे उत्पन्न हुए थे । कभी इनके पूर्वजोंने जैन संघ निकाला होगा, इस कारण उनको मूल-संत्री भी कहा जाता है । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ये सांगानेरके रहनेवाले थे किन्तु 'कर्मके उदय तै' धामपुरमे आकर रहने लगे थे। धामपुर एक रमणीक स्थान था, जिसके चारों ओर बाग़-बगीचोकी प्राकृतिक छटा बिखरी हुई थी। उनमें कोयल पंचमरागसे कूकती ही रहती थी। कूप, बावली और पोखरी निर्मल जलसे भरी हुई थी। कमलिनी विकसित थी, जिनपर भ्रमर गुंजार करते थे। वहाँ मनोहरदास सेठ, 'आसू' के आश्रयमे रहते थे। वह नगर-सेठ कहलाता था। लक्ष्मीकी उसपर अपार कृपा थी, वैसा ही उसे दान देनेका उदार हृदय भी मिला था। एक बार बनारसका प्रसिद्ध सेठ प्रतिसागर पापक उदयसे दरिद्र हो गया। वह अयोध्या आया किन्तु अयोध्याके सेठने उसे 'आसू के पास भेज दिया। उसने विपुल दान देकर प्रतिसागरको अपनी बराबरीका करके पुनः बनारस वापस भेज दिया। ऐसे दानी और उदार सेठको पाकर मनोहरदास भी कृतकृत्य थे। किन्तु उनकी रचनाओंपर सेठजीकी इच्छाकी कोई छाप नही है, वे सब स्वान्तःसुखाय ही लिखी गयी है। मनोहरदासमे विनम्रताका भात्र मुख्य था, उन्होने अपनी विद्या, बुद्धि और कवि-प्रतिभाका कभी अहंकार नहीं किया। उनकी कृतियोसे प्रकट है कि वे उच्च कोटिके विद्वान् और अच्छे कवि थे। किन्तु उन्होंने सदैव यह ही कहा, 'मै व्याकरण, छन्द और अलंकार आदि कुछ भी नही जानता। मेरी बुद्धि तुच्छ है, और मुझे भले-बुरेका भी ज्ञान नहीं है। जिनेन्द्रकी दुहाई देकर कहता हूँ कि मुझे तो केवल भगवान् १. कविता मनोहर खण्डेलवाल सोनी जाति, मूल संघी मूल जाको सांगानेर वास है । कर्म के उदय ते धामपुर में वसत भयौ, सबसो मिलाप पुनि सज्जन को दास है ॥ हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृष्ठ ६७। २. धर्मपरीक्षा, प्रशस्ति, प्रशस्ति मंग्रह, जयपुर, पृष्ठ २२५ । ३. वही, पृ० २२५ । ४. वाराणसी सेठ प्रतिसागर पृथ्वी प्रसिद्ध कोटिक को धनी ताकै पाप उदै आयो थो। सदन सौ निसि अजोध्या को गमन कीनी अजोध्या के सेठ उह उद्धिम करावें थो॥ आनी बराबरि को करि नाना भांति सेती देकर बड़ाई निज थान को पठायो यो। जैसे हम आसू साह राखै निज बांह देके कहै 'मनोहर' हम पुनि जोग्य पायौ थो॥ वही, पृष्ठ २२५-२६ । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २२१ जिनकी ही आस है।' 'जिनकी दुहाई जाकै जिन ही की आस है' में कवित्व है, और भक्ति भी। धर्म-परीक्षा इसकी रचना सं० १७०५में धामपुरमे हुई थी। कविने आगरेके रावत सालिवाहण, हिसारके जगदत्त मिश्र और धामपुरके ही पण्डित गेगुराजसे प्रेरणा पाकर इसकी रचना की। यह आचार्य अमितगतिकी 'धर्मपरीक्षा'का भाषानुवाद है। इस ग्रन्थमे ३००० पद्य है। उनमे भक्तिका भाव ही मुख्य है । आचार्य अमितगतिके मूल ग्रन्थमे भी भक्ति ही प्रधान है। इसकी अनेक प्रतियां विविध भण्डारोमे सुरक्षित है। उन्होने 'धर्म-परीक्षा'मे दोहा, सोरठा, सवैया और छप्पयका विशेष रूपसे प्रयोग किया है । आरम्भिक मंगलाचरण देखिए, "प्रमणु अरिहंतदेव गुरु निरग्रंथ दया धरम । ___ भवदधि तारन एव अवर सकल मिथ्यात मणि ॥" 'धर्म-परीक्षा'को एक हस्तलिखित प्रति दि० जैन मन्दिर बड़ोतके वेष्टन नं. २७२ गुटका नं० ५७ मे संकलित है। यह प्रतिलिपि प्रेमचन्दने वि० सं० १८३२ मे की थी। कविने एक पद्यमे लिखा है कि परम ब्रह्मको छोड़कर अन्य मार्ग अपनाना व्यर्थ है । वह पद्य इस प्रकार है। "सर्व देव नित नवे, सर्व मिक्षक गुरु मानें । सर्व सासतरि पढ़ें, धर्म तें धर्म न जाने । सर्व तीरथ फिर आवै, परम ब्रह्म कौं छोड़ि प्रान मारग कौं ध्या । इह प्रकार जो नर रहै, इसी भाँति सोभा लहैं । अचरिज पुत्र वेश्या तणौ, कहाँ बाप कासौं कहैं ।।१॥" १. व्याकरण छंद अलंकार कछु पढ्यौ नाहि, भाषा में निपुन तुच्छ बुद्धि को प्रकास है। बाई दाहिनी कछ समझै संतोष लीय जिनकी दुहाई जाकै जिन ही की आस है ।। हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृष्ठ ६७ । २. वही, पृष्ठ ६७ । ३. प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, पृ० २२६ । ४. सुमुनि अमितगति जान सहसकीत्ति पूर्व कही। या मै बुधि प्रमान भाषा कीनी जोरि के। वही पृष्ठ २२५ । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि इसी भांति कविने एक दूसरे पद्यमे लिखा है कि यदि कोई दुर्जन इस भवसमुद्रसे पार उतरना चाहता है, तो उसके लिए सिवा जिनेन्द्रको दुहाईक अन्य कोई आलम्बन नही है । २२२ " बारिधि के तरिब को बोहित विधान कियां, सरता उतरने की नौका बनाई है। तम के नसावे को दीपकस्य भार घरी, रोग के नसावे कौं ऊषद बनाई है ॥ धाराधर घूसने को मंदर अटारी गोम, असुभ सो राषवे की किनि सुभ पाई है । ऐसि विधि दुरजनके उत बिहरबे की, उदगत भयो जिनकी दुहाई है ॥ ३ ॥ " ज्ञान चिन्तामणि इन क व्यकी रचना संवत् १०२८ माह मुदी ७ भृगुवारको बुरहानपुरमे हुई थी। इनकी एक प्रति सं० १८२४, आपाढ वदी १० को लिखी हुई अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेरमे मौजूद है। इसकी प्रति गुटकाकार है और इसमें कुल वीस पन्ने है । उनपर १२९ पद्य अंकित है। दूसरी प्रति पचायती मन्दिर दहलीके शास्त्रभण्डारमे रखी हुई है। इसमें कुल ८ पन्ने है । उसपर रचना संवत् १७२८ पड़ा हुआ है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति दीवान बधीचन्दके मन्दिर, जयपुरके वेष्टन नं० १०१७, गुटका नं० ५१ मे निबद्ध है । उनमे १८ दोहरा, ५२ गाथाएं और ५८ चौपाई है । इसका विषय 'अध्यात्म से सम्बन्धित हैं, किन्तु मानवको मूलवृत्तियोके साहचर्य से उसकी शुष्कताका परिहार हुआ है। ज्ञानकी प्रधानता होते हुए भी यह स्पष्ट कहा गया है कि ज्ञान भक्ति से ही उपलब्ध हो सकता है । वह दोहा इस प्रकार है, १. ऐसी जान ज्ञान मन घरो निरमल मन परमारथ करो । संवत् १७२८ माही मुदी मप्तमो भृगुवार कहाई ॥ १२३ ॥ नगर बुरहानपुर खान देश माही, मुमारख पुरा बसे गुणग्राह । घनें श्रावक बसें विख्यात, सदा धरम करें दिन रात ||१२४ || बीकानेरवाली प्रतिका अन्न, राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खीज, चतुर्थ भाग, पृष्ठ १३१ । २. अनेकान्त वर्ष ४, किरण १०, पृष्ठ ५६२ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "श्री आदि जिन समरतां, हिरदै श्रायो ज्ञान | ब्रह्म सुथानिक में कहौ, लिख्यौ धरम वरु ध्यान ॥ १२६ ॥ जीवकी मूर्खताका वर्णन करते हुए कविने लिखा है कि यह जीव गुरुके वचनोको तो सुनता नही, दिन और रात पाप करता है, विषय-विषमे मंलग्न है । धर्मका मर्म भी नही जानता । "गुरु का वचन सुणै नहिं कान, निसि दिन पाप करै अज्ञान । विषया विष सूं रचि पचि रहयौ, ध्यान धर्म को मरम न लहथौ ॥ ३५ ॥ " यौवन के आनेपर यह जीव मदमत्त हाथीकी भाँति झूम उठता है, भगवान्‌का २२३ भजन नहीं करता । मस्ती मे ही उसका जीवन बीतता रहता है, "मरि जोवन हूवो मैमंत, भजो नहीं केवल भगवंत । hares दिन इ विधि गया, तीस बरस का जिव नर मया ॥ ३६ ॥ " चिन्तामणिमान बावनी इसकी एक हस्तलिखित प्रति दीवान वधीचन्दजीका मन्दिर जयपुर के गुटका नं० ८ निबद्ध है । यह गुटका वि० सं० १७२७, आसोज सुदी १४ का लिखा हुआ है । इस प्रतिमे कुल २० पद्य है । इसकी एक दूसरी प्रति इसी मन्दिर के गुटका नं० २७ मे संकलित है । इसमे ५३ पद्य है और वह एक पूर्ण प्रति है । 'चिन्तामणिमान बावनी' एक महत्त्वपूर्ण रचना है । इसके कतिपय पद्यों में रहस्यवादी रूपकोका निर्माण किया गया है। भक्तिका स्वर निर्गुणवादी सन्तोसे मिलता-जुलता है । तनके मध्य मे रहनेवाले अलख निरंजनके ध्यानकी बात उन्होंने भी कही है, " ध सब जुग कहै म ण कोइ लहंत, अषु निरंजन ज्ञानमय इहि तनु मध्य रहंत | जग है मर्म्म नर थोड़ा बुझइ, ब्रह्म बसै तनु मध्य मोहपटल हणवि सुष मय । मकु गुरु केरा वचन एहु कज्जल करि मंजन, ह्रिदय कमल जे नय सुमति अंगुलि किण अंजन | जिम मोह पटल फट्टइ सयल द्विष्टि प्रकास फुरंत अति, श्रीमानु कहै मति अग्लौं हो धर्मं पिछाण ण एहु गति ॥ ३५॥ " सुगुरुसीप इसकी एक प्रति उसी मन्दिरके गुटका नं० लिपिको साह हरीदामने लिखा था। इसकी एक १६१ मे निबद्ध है । इस प्रतिदूमरी प्रति वि० सं० १८३२ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि की लिखी हुई दि० जैन मन्दिर बडौतके गुटका नं० ५४, वेष्टन नं० २७२ में संकलित है | इसमें केवल ११ पद्य है । इसमे जीवको संसारसे विरक्त करनेकी प्रेरणा दी गयी है । कतिपय पद्य देखिए, " दिन दिन आव घटे है रे लाल, २२४ ज्यों अंजली कौ नीर मन माहिं ला रे । कयो जाय ठोकर लै रे लाल, थिरता नहीं संसार मन माहिं का रे ॥ सी सुगुरु की मानि लै रे लाक ॥ ६ ॥ बाल पण पोयो ष्याल मै रे लाल, ज्वांण पण उनमान मन माहिं का रे । बृभ पण सकति घटी रे लाल, करि करि नाना रंगि मन माहिं ला रे ॥ सीष० ॥६॥ समकित स्यों परयौ करो रे लाल, मिथ्या संगि निवारि मन माहिं का रे । ज्यों सुष पावै अति घणां रे लाल, मनोहर है विचार मन माहिं का रे ॥ सीष ॥ ११ ॥” गुण ठाणा गीत यह गीत दीवान बधीचन्दजीके मन्दिर, जयपुरके गुटका नं० २७ मे पृ० ३१४ पर निबद्ध है । इसमें १७ पद्य हैं, जो परम चिदानन्दकी भक्तिमें लिखे गये है । उनमें से एक इस प्रकार है, "परम चिदानन्द सम्पद पद धरा, अनन्त गुणाकर शंकर शिवकरा । शिवकराए श्री सिद्ध सुन्दर गाउं गुण गण ठाणए, बिम मोक्ष सौख्ये सुख साधु केवल णाण प्रमाण ए । शुभचन्द्रसूरि पद कमल युगलई, मधुपत्रत मनोहर धरए, इत श्री वर्धमान ब्रह्म एह बाणि भयीयण सुखकर ए ॥ " १७०७ लालचन्द लब्धोदय ( वि० सं० इन्होंने अपनी रचनाओंमें प्रायः 'लब्धोदय' का प्रयोग किया है। यह इनका उपनाम प्रतीत होता है । वैसे लालचन्द नामके कई जैन कवि हो गये हैं, जिनमें से ७ ) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य लालचन्द विनोदी और लालचन्द लाभवर्द्धन तो बहुत ही प्रसिद्ध है। इनमें से प्रथमका उल्लेख हो चुका है, दूसरे खरतरगच्छीय जैन यति थे, जिनकी गणना प्रतिष्ठ विद्वानोमे की जाती है । उनकी आठ प्रसिद्ध रचनाओका विवेचन श्री अगरचन्दजी नाहटाने किया है। इनका रचनाकाल सं० १७२३ से १७७० तक माना जाता है। लालचन्द लब्धोदय मेवाड़के राजा जगतसिंहके आश्रयमे रहते थे । जगनसिंहका राज्यकाल सं० १६८५ से सं० १७०९ तक स्वीकार किया गया है । लालचन्दकी प्रसिद्ध रचना 'पद्मिनी चरित' का निर्माण सं० १७०७ मे हुआ था । यह भी खरतरगच्छीय थे। इनकी गुरु-परम्परा जिनमाणिक्यसूरि, विनयममुद्र, हर्पविलास, ज्ञानसमुद्र और ज्ञानराजमणिके रूपमें स्वीकार की गयी है। इन्होंने अपने गुरु ज्ञानराजमणिका अत्यधिक श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है । उनको 'साधुशिरोमणि' और 'सकल विद्या भूषित' कहा है ।" लब्धोदयकी विद्वत्ता विषयमें तो कुछ नहीं कहा जा सकता, किन्तु इतना स्पष्ट है कि प्रबन्धकाव्योंकी रचनामें वे निपुण थे । यद्यपि 'मलय सुन्दरी चौपई' के अन्तमे इनको 'व्याकरणतर्क साहित्य, छन्दकोविद, अलंकार रस जाण जी' कहा गया है, किन्तु एतत् सम्बन्धी उनको कोई रचना उपलब्ध नही होती । 'पद्मिनी चरित्र', 'मलयसुन्दरी चौपई' और 'गुणावली चौपर्ड' नामसे इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हुई है। इनमें से 'पद्मिनी चरित्र' प्रबन्ध-काव्य, 'मलयसुन्दरी चौपई' खण्ड-काव्य और 'गुणावली चौपई' एक छोटा-सा कथा-काव्य कहा जा सकता है । तीनों सरसता है । अलंकार और छन्दोंका भी समुचित प्रयोग हुआ है। २२५ पद्मिनी चरित्र ५ खरतरगच्छके सूरीश्वर जिनरंगके प्रसिद्ध श्रावक हंसराजकी प्रेरणासे इस रचनाका निर्माण वि० सं० १७०७ चैत्र शुक्ला १५ शनिवार के दिन हुआ था । इसकी चार प्रतियोंका उल्लेख 'जैन गुर्जर कविओ' में हुआ है । वे क्रमश सं० १. राजस्थानमें हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, द्वितीय भाग, पृ० १५६ २. का० ना० प्र० पत्रिकाका पन्द्रहवाँ त्रैवार्षिक विवरण, संख्या १३१ । ३. जैन गुर्जर कविओो भाग २, पृष्ठ १३४ । ४. साधु मीरोमणी सकल विद्यागुण सोभतारे, वाचक श्रीज्ञानराज, ताम प्रसादई सीलनणा गुण मथुण्यारे श्री लब्धोदय हितकाज । वही, पृष्ठ १३७, १५वॉ पद्य । ५. वही, पृ० १३४ । ६. वही, पृ० १३८ । २९ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि १७६१, १७७१, १७७३ और १८३७ को लिखी हुई है। एक वह प्रति है जिसका संक्षिप्त परिचय काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाके पन्द्रहवें त्रैवार्षिक विवरणमे संख्या १३१ पर अंकित है। यह प्रति गोकुल, जिला मथुराके पण्डित मयाशंकर अधिकारीके पास है। इसका लिपिकाल सं० १७५७ दिया हुआ है। इसमे राजा रतनसेन और पद्मावतीकी कथा है। कुछ घटनाक्रमके अतिरिक्त यह समूची कथा जायसीके पद्मावतसे मिलती-जुलती है। इसको भी 'काल्पनिक' और 'ऐतिहासिक' ऐसे दो भागोंमे बांटा जा सकता है । 'काल्पनिक' कथानकमे हीरामन तोतेका प्रयोग नहीं हुआ है। रतनसेनने अन्य उपायोंसे पद्मिनीके सौन्दर्यको सुना है। रतनसेनकी रानीका नाम भी नागमती न होकर प्रभावती है। उसे रूपमें रम्भाके समान कहा गया है। एक बार राजाने अच्छा भोजन न बननेकी शिकायत की, जिसपर प्रभावतीने क्रोधित होकर पद्मिनी नारीके साथ विवाह करनेकी बात कही, जो स्वादिष्ट भोजन बनानेमें निपुण हुआ करती है। राजाने भी ऐसी नारोको प्राप्त कर प्रभावतीके गुमानको नष्ट करनेकी प्रतिज्ञा की। वह औघड़नाथ सिद्धको कृपासे भयानक समुद्रोको पार करता हुआ सिंहलमें पहुंचा, और वहाँके राजाको अपनी वीरतासे प्रसन्न कर उसकी पुत्री पद्मावतीके साथ विवाह कर, छह माह बाद चित्तौडगढ़में वापस आ गया। इस कथानकमे कल्पनाएँ तो है, किन्तु उनमें वैसी असम्भवनीयता नहीं आ पायी है जैसी कि 'पद्मावत' मे पायी जाती है। यह कथानक मानव जीवनके अधिक निकट है। ऐतिहासिक भाग वैसा ही है, किन्तु यहां राघव और चेतन नामके दो पण्डित हैं, जो रतनसेनसे अप्रसन्न होकर अलाउद्दीनके दरबारमे रहने लगे। उन्होंने स्वयं पद्मावतीके रूपका वर्णन बादशाहसे नहीं किया, अपितु एक तोतेके मुंहसे करवाया १. पटराणी पद्मावती रूप रम्भ समान । देखत सुरी न किन्नरी असी नारि न आन ॥ का० ना० प्र०प०, पन्द्रहवाँ त्रैवार्षिक विवरण, संख्या १३१ । २. तब लड़की बोलो तिसे जी, राणी मनकरि रास। नारी आणी कान भीजी, दयो मत झूठो दोस ।। हने केलवी जाणा नही जी, किसु करीज बाद । पद्माकी का परणरे नवीजी, जिम भोजन है स्वाद ।। ३. राणे तो हूँ रतनसी परणु पदमनि नारि भो सातो बोले मुन्हें जे मैं राषो भाज परणुं तुरणी पदमिनी गालुं तुझ गुमान । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २२७ है । कंकण दिखाकर कंकणवालीको अगाध रूप-राशिका अनुमान करवानेमे अधिक स्वाभाविकता नही है । अन्तमें अलाउद्दीनका आक्रमण, युद्ध और रतनसेनका बन्दी होना आदि सब कुछ वैसा ही वर्णन है । इस कथाके प्रारम्भमे ही दिया हुआ मंगलाचरण है जिसमे भगवान् जिनेन्द्रकी भक्ति प्रबल है । "श्री आदीसर प्रथम जिन, जगपति ज्योति सरूप । निरभय पदवासी नमूं, अकल अनन्त अनूप ॥ चरण कमल चितसुं नमूं चौबीस मो जिण चन्द | सुषदाइक सेवक भणी, सांचो सुरतरु कन्द ॥ सुप्रसन्न सारद सामिणी, होज्यो मात हजूर । बुधि दीजो मु जन बहोत, प्रगट वचन पंडूर | कविने इस कथाको नौ रसोमें लिखा है, किन्तु उसमे वीर और शृंगार ही प्रधान है । इसीकी घोषणा करते हुए कविने कहा, "सरस कथा नवरस सहित, वीर श्रृंगार विशेष । कहिस्युं कवित कल्लोलसु, पूरब कथा संखेप ॥' उन रसोमे-से वीर-रसका एक दृष्टान्त देखिए, "सूर कहावें सुमट सहू अपर्णे श्रपणे मन्न, दाडं पढ़े दुष उद्धरे तेह कहिई धन्न धन्न । सामिधरम बादल समौ, हूभ न कोई होइ, जुधि जीतो दिल्ली घणी, कुळ उजियाल्या दोय । राणोजी छोडाविया, राणी पदमिणि राषी, बीरुद बड़ो षाट्यो वसु, सुभटां राषि साषि । चट्टन राज चित्रोको, कीधो बादल वीर, नवखंडे यस विस्तर्यो, स्वामी धरमी रणधीर ॥ गुरु-भक्तिका एक दोहा निम्न प्रकारसे है, " ज्ञाता दाता ज्ञानघन, ज्ञानराज गुरु राज, तास प्रसाद थकी कहु, सती चरित सिरताज ।" मलयसुन्दरी चौपई' इसका उल्लेख श्री देसाईजीने 'जैन गुर्जरकविओ मे किया है। इसका निर्माण सं० १७४३ घनतेरस के दिन हुआ था । १. जैन गुर्जर कविओो, खण्ड २, भाग ३, पृष्ठ ११८५-८६ । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि गुणावली चौपई इसमे ज्ञानपंचमीकी कथा है। इसका निर्माण सं० १७४५ कार्तिक शुक्ला १० को उदयपुरमे हुआ था। इनका उल्लेख नाहटाजीकृत 'निनचन्द्र सूरि' के पृ० १६४ पर हुआ है। सीमन्धर स्तवन इसकी प्रति जयपुरके ठोलियोकै दिगम्बर जैन मन्दिरके गुटका नं० ५७ मे संकलित है । इस स्तवनकी रचना सोमन्धर भगवान्की भक्तिमे की गयी है। ६२. पं० होरानन्द (वि० सं० १७११) ये पण्डित तो थे ही, कवि भी अच्छे थे। इनका रचनाकाल अठारहवीं शताब्दीका प्रथम पाद माना जाता है। पण्डित जगजीवनके समयमे ये शाहजहांनाबादमे रहते थे। विद्वानोमे उनकी गणना थी। जगजीवनके कहनेपर उन्होंने 'पंचास्तिकाय'का पद्यानुवाद केवल दो माहमे किया था ।' 'पंचास्तिकाय' आचार्य कुन्दकुन्दको रची हुई प्राकृत भाषाको रचना है। इसमे उच्चस्तरके दार्शनिक सिद्धान्तोंका विवेचन है। उसका इतनो शीघ्रतासे हिन्दी-पद्यमे, वह ही अनुवाद कर सकता है, जो एक ओर तो प्राकृत और हिन्दीका समरूपसे जानकार हो, और दूसरी ओर दर्शन तथा कवित्वमें भी निष्णात हो। होरानन्द दार्शनिक थे और कवि भी। उस समय आगरेमे ज्ञाताओकी एक मण्डली थी, जिसमें संघवी जगजीवन, पं० हेमराज, रामचन्द, संघी मथुरादास, भवालदास, और भगवतीदास शामिल थे। उसी मण्डलीमे पं० हीरानन्दका भी नाम आता है। उनकी रची हुई चार कृतियोंका परिचय निम्न प्रकारसे है, पंचास्तिकाय भाषा इसकी रचना वि० सं० १७११ में श्री जगजीवनकी प्रेरणासे की गयी थी। यह ग्रन्थ बहुत पहले छपा था, और सं० १९७२ में जैनमित्रके ग्राहकोंको उपहार १. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृष्ठ ६० । २. पं० हीरानन्द, समवशरण स्तोत्र, अन्तिम पद्य, २८१-८६, लूणकरणजी पारड्या मन्दिर, जयपुरकी हस्तलिखित प्रति, गुटका नं० १४४, पृष्ठ ३११ । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २२९ स्वरूप भेंट दिया गया था । इसमें काल-द्रव्यको छोड़कर अवशिष्ट पांच- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशका निश्चय नयसे वर्णन हुआ है। जहांनक हिन्दी कविताका सम्बन्ध है, वह मध्यम कोटिकी है। श्री नाथूगमजो प्रेमीने लिखा है कि " कविता बनारसी भगवतीदास आदिके समान तो नहीं है, पर बुरी भी नहीं है।" उन्होंने अपने इस कथन के समर्थनमे दो पद्य प्रस्तुत किये है, जो निम्न प्रकार है, "सुख दुख दीसै भोगना, सुख दुख रूप न जीव | सुख दुख जाननहार है, ज्ञान सुधारस पीव ॥ ३२१ ॥ संसारी संसार में, करनी करै असार । सार रूप जानै नहीं, मिध्यापन की टार ॥ ३२४ ॥ " इससे इतना तो स्पष्ट ही है कि कविता सादगी है, सरलता है और प्रवाह है। द्रव्य संग्रह भाषा यह प्राकृत भाषाके 'द्रव्य संग्रह' का हिन्दी पद्यानुवाद है। मूल ग्रन्थका निर्माण श्री नेमिचन्द्राचार्यने किया था, जो जैनोके प्रसिद्ध ग्रन्थ जीवकाण्ड और कर्मकाण्डके रचयिता है । 'द्रव्य संग्रह मे छह द्रव्योका वर्णन है । यह अनुवाद अप्रकाशित है । इसकी हस्तलिखित प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरके गुटका नं० ३२ में निबद्ध है । इस गुटकेका लेखनकाल सं० १७१८ माघ वदी ९ है । इससे स्पष्ट है कि यह कृति इसके पूर्व ही रची गयी होगी । समवशरण स्तोत्र इसकी रचना वि० सं० १७०१, सावन सुदी ७, बुधवार के दिन हुई थी। संघवी जगजीवनने 'संस्कृतका आदिपुराण' पं० हीरानन्दको पढ़नेके लिए दिया था, उसकी सहायतासे उन्होने हिन्दोके 'समवशरण स्तोत्र' की रचना की । इस भाँति यह स्तोत्र 'निकलंक' और 'पुराण- सम्मत' है । 3 १. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृ० ६० । २. एक अधिक सत्रह सौ समे सावन सुदि सातमि बुध रमे । ता दिन सब संपूरन भया, समवसरन कहबत गरिनया || पं० हीरानन्द, समवशरण स्तोत्र, २९२वॉ पद्य, लूणकरणजी पाण्ड्या मन्दिर, जयपुरकी हस्तलिखित प्रति, गुटका नं० १४४, पृ० ३११ । ३. इतनी सुनि जगजीवन जबै, आदिपुरान मंगाया तबै । इस देखि तुम कहो निसंक, हम जाने ह्वे है निकलंक ॥ २९०॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ___इसमे ३०१ पद्य है। इसको प्रतिलिपि लाभपुर नामके नगरमे श्री विजय सूरिने वि सं० १७०४ में करवायी थी। यह प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरमे, वेष्टन नं० १८९९ मे निबद्ध है । एक दूसरी प्रति लणकरणजी पाण्डयाके मन्दिर, जयपुरके गुटका नं० १४४ मे पत्र २९३ से ३११ तक संकलित है । इसमे समवसरणकी शोभाका वर्णन करते हुए लिखा है। "रतन सिषर नम मैं छवि देत, देव देखि उपजावत हेत । रंगभूमि तिनि साला माहिं, ऐसी सोम और कहुं नाहिं ॥६॥ तिनमैं नर्तत अमरांगना, हाव भाव विधि नाटक धना। चंचल चपल सोम बीजुली, जनु सोमा धन विचि ऊछली ॥६८॥ किंनर सुरकर वीणा लिये, गावत मधुर मधुर इक हिये । सुणि सुनि मोहैं कौत्हली, साता जिन सुमरै भूवली ॥७॥" एकीभाव-स्तोत्र यह वादिराजसूरिके संस्कृत 'एकीभाव स्तोत्र'का आलम्बन लेकर लिखा गया है। इसकी प्रतियां जयपुरके बड़े मन्दिरके गुटका नं० ९५, २१५ और ३२० मे निबद्ध है। नं० ९५ वाले गुटकेको प्रतिलिपि सं० १८१० की की हुई है। इससे स्पष्ट है कि इसकी रचना सं० १८१० से पूर्व ही हुई होगी। भूधरदासने भी एक 'एकीभाव स्तोत्र' बनाया था, किन्तु हीरानन्दका यह स्तोत्र उससे अधिक सरल, सरस और प्रवाहपूर्ण है। ६३. रायचन्द (वि० सं० १७६३) रायचन्द नामके अनेकों कवि हुए हैं। मिश्रबन्धुओने एक रायचन्द नागरका उल्लेख किया है, जिन्होंने 'गीतगोविन्दादर्श' और 'लीलावती' की रचना की थी। इनका रचनाकाल १७०० के लगभग था। गुजरातीमे तीन रायचन्द हुए हैं, जिनमे से 'रायचन्द पहेला' गुणसागरके शिष्य थे। इन्होने 'विजय सेठ विजयासती रास' नामका ग्रन्थ स० १६८२ मे लिखा था। दूसरे रायचन्द १९वो शताब्दीके इतना कारन लहि करि होर, मनमे उद्दिम धरै गहीर । समोसरन कृत रचना भेद, जथा पुरान समस्त निवेद ॥२९॥ वही, पृ० ३११॥ १. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, पृ० ४२५ । २. गुर्जरकविश्रो, प्रथम भाग, पृ० ५१४ । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २३१ पूर्वार्धमे हुए थे। उन्होने 'समाधिपचबीसी', 'गौतमस्वामी रास', 'कलावती चौपई', 'मृगलेखनी चौपई', 'ऋषभ चरित' आदि अनेक सुन्दर गुजराती काव्योंकी रचना की। तीसरे रायचन्द वे थे, गान्धीजी जिन्हें अपने गुरुके समान पूज्य समझते थे । उन्होने 'अध्यात्मसिद्धि'की रचना की थी। इनमे-से दूसरे रायचन्दका उल्लेख अगरचन्दजी नाहटाने 'राजस्थानमे हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज' द्वितीय भागमे भी किया है। उनकी दृष्टिम इन्ही रायचन्दने कल्पसूत्रका हिन्दी पद्यानुवाद किया था। प्रकृत रायचन्द इन सभीसे भिन्न है। वे हिन्दीके एक उच्चकोटिके कवि थे। उन्होंने 'सीताचरित'को रचना वि० सं० १७१३ मे को थी। यद्यपि इस ग्रन्थका आधार आचार्य रविषेणका पद्मपुराण था, किन्तु फिर भी उसमे अनेकों स्थल ऐसे है, जो मौलिक है। भाषामे जीवन है । सीताके चरित्रको प्रमुखता दी गयी है, और उसमे नारीगत भावोंका चित्रण उत्तम रीतिसे अंकित हुआ है। वैसे भी कविमें दृश्योंको उपस्थित करनेकी सामर्थ्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि कविको बाह्य और अन्तः दोनों ही प्रकृतियोंका सूक्ष्म ज्ञान था। उसने एक ओर तो मानवके मर्मको पहचाना है और दूसरी ओर प्रकृतिको रमणीयताको अंकित किया है। यद्यपि इसमे तुलसी-जैसी भावुकता तो नही थी, किन्तु गम्भीरता वैसी ही थी। ___ इस महाकाव्यमे ३६०० पद्य है । इसकी एक प्रति श्री नया मन्दिरजी धर्मपुरा दिल्लीके शास्त्रभण्डारमे 'अ ३२ ग' पर मौजूद है। एक दूसरी प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरजीके वेष्टन नं० २०९५ मे निबद्ध है। यह प्रति सं० १७७८ की लिखी हुई है । उपलब्ध प्रतियोमे सबसे अधिक प्राचीन है। इसमे १९६ पृष्ठ हैं । इसकी दशा पूर्ण एवं शुद्ध है। एक तीसरी प्रति इसी मन्दिरके गुटका नं० २१९ में संकलित है। इसका रचनाकाल संवत् १७१३ दिया हुआ है। इसमे कुल २५४९ पद्य हैं । एक चौथी प्रति वह है जिसका उल्लेख 'मिश्रबन्धु विनोद', भाग २ की संख्या ३८९।२ पर हुआ। इसमें भी रचनाकाल वह ही दिया हुआ है। इस १. गुर्जरकविओ, भाग ३, पृ० १४२ । २. यह कृति 'श्रीमद् राजचन्द्र' नामके ग्रन्थमें छप चुकी है। ३. संवत सतरह तेरोतर, मगिसर ग्रंथ समापति करें। नया मन्दिर, देहलीवाली प्रति ।। ४. कीयो ग्रन्थ रविषेण नैं रघुपुराण जिय जाण । . वहै अरथ इण मे कह्यो, रायचंद उर आंण ॥२७॥ ५. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, पृ० ४६१ । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि प्रतिसे यह स्पष्ट है कि कविका उपनाम 'चन्द्र' था। इतने विवरणोंसे कविका रचनाकाल अठारहवीं शताब्दीका प्रथम पाद प्रमाणित होता है। ग्रन्थके एक-दो स्थल देखिए, राम और जानकीमे अपरिमित गुण है, भला इतनी सामर्थ्य किस कविमे है, जो अपनी वाणीसे उनका वर्णन कर सके। किन्तु कवि 'चन्द' ने अपने देव, गुरु और धर्मको सिर झुकाकर यत्किचित् कहनेका प्रयास किया है, "राम जानकी गुन विस्तार, कहे कौन कवि वचन विचार । देव धरम गुरु कुं सिर नाय, कहै चंद उत्तिम जग माय ॥" रावणको जीतकर राम सीताको लेकर अयोध्यापुरीमे आ गये हैं। राजा रामके शासनमे सभी सुखी है, निहाल है। स्वर्गके समान मनमाने सुखोंका उपभोग करते है, किन्तु कोई उच्छृखल और पापी नहीं है। रामका राज्य न्यायपर आधारित है। धार्मिक जन सदैव रामके गणोंको गाते है। "रावन कौं जीत राम सीता विनीता आये, ___ वरतै सुनीत राज पलक सुहावनौ। सुष में विनीत काल दुष को वियोग हाल, सव ही निहाल पाप पंथ मैं न आवतो ॥ वाही वर्तमान दीसै सब ही सुबुध लोक, सुरग समान सुष भोग मनभावनौ । कोऊ दुषदाई नाहि सजन मिलायो मांहि, सब ही सुधर्मी लोक राम गुन गावनौ ॥" एक महत्त्वपूर्ण प्रतिका उल्लेख काशी नागरी प्रचारिणी-पत्रिकाके बारहवें खोज विवरणमे हुआ है। यह प्रति बाराबंकीके जैन मन्दिरसे उपलब्ध हुई थी। इसका लिपि-काल सं० १८६२ दिया हुआ है। इसपर भी रचना संवत् १७१३ ही पड़ा है। इस प्रतिमे कुल ३०० पृष्ठ है । इस प्रतिमे दिये हुए कुछ प्रारम्भिक दोहे और चौपाइयां देखिए, दोहरा "अनमो परम पुनीत नर, वरधमान जिनदेव । लोकालोक प्रकास तस, करै समकिती सेव ॥ १ ॥ तस गधर गौतम प्रमुख, धर्मवन्त धनपात । जिनसेवत भवि जन सदा, विलै मोहतम राति ॥ २॥" १. का० ना० प्र० पत्रिकाका बारहवाँ त्रैवार्षिक विवरण, एपेन्डिक्स २, पृ० १२६१ । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य चौपाई दोहा " कवि बालक यह कीन्हो ख्याल | हसौ माती बुधिवंत विसाल ॥ राम जानकी गुन विस्तार । कहै कौन कवि वचन विचार ॥ ३ ॥ देव धर्म गुरु कू सिरनाइ । कहै चंद उत्तम जग मांइ ॥ पर उपकारी परम पवित्त । सज्जन भाव भगत के चित्त ॥४॥ पंच परमगुरु प्रधान । ए सुमिरौ उर लक्षन आन ॥ जिनि के मत्र श्रति ही तुच्छ रहै, गुरु के बैन हिये जिन प्रहै ॥ || " "पंच परमगुरु कौ नमी मंगलीक सिवलीक | आप समान भगत कौं करै तुरन्त तहकीक || " अन्तिम दोहा २३३ "जो जाण निज जाणंतों वहै जात परवांण । जाण पणस्य जाणियै जाण पणौ परधान ॥" ३० ६४. जिनहर्ष ( वि० सं० १७१३-१७३८ ) बोहरागोत्रीय जिनहर्षसूरि और आद्यपक्षीय जिनहर्षसूरिसे कविवर जिनहर्ष पृथक् हैं । ये खरतरगच्छके प्रसिद्ध आचार्य जिनचन्द्रसूरिकी परम्परा में हुए थे । इनके गुरुका नाम वाचक शान्तिहर्ष था, जो एक मंजे हुए विद्वान् थे। जिनहर्षने उन्हीं से शिक्षा प्राप्त की थी। जिनहर्षने जन्मसे ही कविका हृदय पाया था । उन्होंने पचासों स्तुति-स्तवन, रास और छप्पयोंकी रचना की है। उनकी कृतियोंमें रस है । शायद इसी कारण उनको अपने समयमे ही कविवर कहा जाने लगा था । उनको 'जसराज' भी कहते हैं । उन्होने इस नामके आधारपर ही 'जसराज बावनी'की रचना की थी। उनका गुजराती और हिन्दी दोनों भाषाओंपर समानाधिकार था । आज उनकी अनेकों हिन्दी रचनाएं भी उपलब्ध हैं । वे साधु थे और घूमते १. श्री गच्छ खरतर दीपतो, गच्छराज श्री जिनचन्द, सूरिस सूरि-सिरोमणी, वदै तास नरिंद वाचनाचारिज वदन वारिज, आर्य वचन विलास, श्री शान्तिहरप वाचक तेणं, जिनहर्षे कोयो राम ॥ रत्नशेखर रत्नवती रास, प्रशस्ति, जैन गुर्जरकविप्रो, खण्ड २, भाग ३, पृ० ११७० ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि रहना ही उनका काम था, किन्तु फिर भी वे पाटणमे अधिक रहे । उनका अन्तिम काल तो विशेष रूपसे वहाँपर ही बीता। __ कविवरका व्यक्तित्व मोहक और आकर्षक था। उनमें अनेकों ऐसे सद्गुण थे, जिनके कारण उनको लोक-प्रियता बहुत अधिक बढ़ गयी थी। जैनधर्मसम्बन्धी शुद्ध क्रियाओ और नियम-उपनियमोंका वे कठोरतासे पालन करते थे। क्रोध तो उन्होंने अपने जीवनमे कभी किसीपर नही किया। सरलता ही उनका जीवन था। उनके हृदयमे किसीके प्रति राग-द्वेषका भाव नहीं था। धैर्य और साहसके साथ उन्होने पंच महाव्रतोका पालन किया था। साधु वही है जिसके हृदयमें समता-रस उत्पन्न हो गया हो। जिनहर्षके समता-भावकी कहानियां उस युगमें ही चलने लगी थीं। उनका सबसे बड़ा काम गच्छ ममत्वका त्याग था, जिसके आधार रूपमें उन्होंने 'सत्यविजयपन्यास रास' की रचना की, जो अब प्रकाशित हो चुका है। उनके इस सद्गुणसे तपागच्छीय वृद्धिविजयजी बहुत अधिक प्रभावित थे । अन्तिम समयमै जब कि कविवरको व्याधि उत्पन्न हुई, तो वृद्धिविजयने ही उनकी अधिकसे अधिक सेवा की थी। अन्तिम आराधना भी उन्होंने करवायी। कविवरके भक्तोंने भी उनकी अन्तिम क्रिया ( माण्डवी रचनादि ) भक्ति-पूर्वक ही सम्पन्न की। कविकी भी अन्तिम श्वास पंचपरमेष्ठीका ध्यान करते हुए ही निकली। जिनहर्षकी रचनाओंका संक्षिप्त परिचय 'जैन गुर्जरकविओ'मे प्रकाशित हो चुका है। इसके अतिरिक्त और भी कई कृतियां श्री नाहटाजीको प्राप्त हुई है। राजस्थानके जैन शास्त्रभण्डारोको ग्रन्थ-सूचियोसे भी इनकी कतिपय हिन्दी रचनाओंका पता लगा है । 'राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज' भाग ४ में भी इनको कुछ कृतियोंका विवरण छपा है। कविवर जिनहर्षकी स्वयंकी हस्तलिपिका एक चित्र 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित हुआ है। जसराज बावनी इसकी रचना सं० १७२८ फाल्गुन बदी ७ गुरुवारके दिन हुई थी। इसकी १. कविवरके इन गुणोंका विवेचन 'कवीयण' के 'कविवर जिनहर्षगीतम् में हुआ है। उनके दो गीत 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में पृ० २६१-६३ पर निबद्ध हैं। २. जैन गुर्जरकविओ, खण्ड २, भाग ३, पृष्ठ ११४४-११८० और भाग २, पृष्ठ ८१११६ । ३. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ५२ । ४. वहीं, पृ० २६० और २६१ के बीचमें। ५. जसराज बावनी, अन्त, ५७वॉ पद्य, राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, पृ०८५ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २३५ एक प्रति संवत् १८५९ को लिखी हुई अभय जैनग्रन्थालय बीकानेरमें मौजूद है। यह प्रति श्री प्रतापसागरके पढ़नेके लिए कोटडीमे लिखी गयी थी। इसमे १३ पन्ने हैं, किन्तु बावनी केवल अन्तिम तीन पत्रोंपर ही अंकिन है। इसमें कुल ५७ सवैया है। एक दूसरी प्रतिका उल्लेख 'जैन गुर्जरकविओ' में हुआ है। यह प्रति पण्डित जीवविजयके शिष्य जसविजयकी लिखी हुई है। प्रारम्भमे हो 'ऊंकार' का माहात्म्य बताते हुए कवि कहता है, "ऊंकार अपार जात आधार, सबै नर नारी संसार जपे है। बावन अक्षर मांहि धुरक्षर, ज्योति प्रद्योतन कोटि तपे है। सिद्ध निरंजन भेख अलेख सरूप न रूप जोगेन्द्र थपे है। ऐसो महातम है ऊँकार को, पाप जसा जाके नाम खपे है ॥१॥" कविको अपने धर्ममें अटल श्रद्धा है। वह धर्मको छोड़कर अवर्मको स्वीकार करनेके लिए तैयार नही है। धर्मको त्याग कर अवर्मको लेना ऐसे ही है, जैसे चिन्तामणिको छोड़कर पत्थर ग्रहण करना और कामधेनुको छोड़कर बकरी स्वीकार करना। "नग चिन्तामणि दारिक पत्थर जोउ, ग्रह नर मूरख सोई । सुंदर पाट पटंबर अंबर छोरिक भोढंण लेत है लोई॥ कामदूधा घरते — विडार के छेरि गहें मतिमंद जि कोई । धर्म कुंछोर अधर्म को जसराज उणे निज बुद्धि विगोई ॥ २॥" सन्त-परम्पराकी भांति कवि भी बाह्याडम्बरोंके विरोधमे है। उसकी दृष्टिमें सिर मुंडाना, जटा धारण करना, हाथसे केशलोंच करना, दिगम्बर रहना, शरीरपर भस्म रमाना और पंचाग्नि तप तपना सब कुछ व्यर्थ है। ऐमा करने-मात्रसे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । मोक्षके लिए ज्ञान अनिवार्य है, "क्षौर सुसीस मुंडावत हैं केइ लंब जटा सिर केई रहावें। लूंचन हाथ सूं केई करे रहै मून दिगम्बर केइ कहावें ॥ राषसूं कई लपेट रहें केइ अंग पंचांगनि माहें तपावें। कष्ट करे जसराज बहुत पे ग्यान बिना शिव पंथ न पावें ॥५६॥" उपदेश-छत्तीसी इसको रचना संवत् १७१३ में हुई थी। इसको एक प्रति अभय जैन ग्रन्यालय बीकानेरमें मौजूद है। एक दूसरी प्रति वह है जिसका उल्लेख 'जैन गुर्जर १. जैन गुर्जरकविओ, भाग २, पृष्ठ ११६ । २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, पृ० १०१ । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कविओ में हुआ है। इसमें केवल ३६ पद्य हैं । इसका प्रारम्भ हो भगवान् जिनेन्द्रको स्तुतिसे किया गया है। संसारके माया-मोहसे मनको हटाकर भगवान् जिनेन्द्रके चरणोंमें समर्पित कर देनेका उपदेश इस काव्यमे दिया गया है। ऐसा अनेक भक्त कवियोने किया है। स्पष्ट रूपसे ही यह उपदेश दर्शन और सिद्धान्तजन्य उपदेशसे पृथक् माना जायेगा । इसका आरम्भिक पद्य देखिए, "सकल सरूप यामें प्रभुता अनूप भूप, धूप छाया माया है न जैन जगदीश जू । पुण्य है न पाप है न शील है न ताप है, जाप के प्रज्ञा प्रग. करम अतीस जू॥ ज्ञान को अंगज पुंज सुख वृत्त को निकुंज, अतिशय चौंतीस अरु वचन पैंतीस जू । ऐसो जिनराज जिनहरस प्रणमि, उपदेश की छतीसी कहूं सवइये छतीस जू ॥" चौबीसी इसमे चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुति है । कुल २५ पद्य है। पद्य रागोंमे लिखे गये है। अर्थात् उनका स्वर संगीतात्मक है। इसकी एक प्रति सं० १७९९ माघ बदी १० को लिखी हुई अभय जैन ग्रन्थालयमे मौजूद है। इस प्रतिको पण्डित भुवनविशाल मुनिने मारीटमे लिखा था। प्रारम्भमे ही भगवान् आदिनाथकी भक्तिमें लिखा गया एक पद देखिए जो कि 'राग ललित'में निबद्ध हुआ है, "देख्यौ ऋषम जिनंद तव तेरे प्रातिक दूरि गयो, प्रथम जिनंद चंद कलि सूर-तरु कंद । सेवे सुर नर इंद आनंद भयौ ॥३॥०॥ बाके महिमा कीरति सार प्रसिद्ध बढ़ी संसार, कोऊ न लहत पार जगत्र नयौ । पंचम आरैमें आज जागै ज्योति जिनराज, भव सिंधुको जिहाज आणि कै ढयो॥२॥दे. बण्या अद्भुत रूप, मोहिनी छवि अनूप, धरम को साचौ भूप, प्रभु जी जयो। कहै जिन हरषित नयण भारे निरखित, सुख धन बरसत, इति उदयौ ॥३॥दे॥ ___ कविका यह दृढ़ विश्वास है कि जो भक्ति-भावपूर्वक चौबीसों तीर्थंकरोंकी कीतिका गान करता है, उसे नौ प्रकारकी निधियां उपलब्ध हो जाती हैं । भगवान् कल्पवृक्षके समान हैं। उनके सामने की गयी प्रत्येक याचना फलीभूत होती है। चौबीसों भगवान् सुख प्रदान करनेवाले हैं , १. जैन गुर्जरकविप्रो, खण्ड २, भाग ३, पृ० ११७७ । २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, पृ० १२३ । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "जिनवर चउबीसे सुखदाई भाव भगति धरि निज मनि थिरकरि, कीरति मन सुध गाई ॥ १ ॥ जि० ॥ जाके नाम कलपवष समवर, प्रणमति नव निधि पाई । चौबीसे पद चतुर गाईभो, राग बंध चतुराई ॥ २ ॥ जि० ॥ श्री सोमगणि सुपसाउ पाइकै, निरमल मति उर आई, शान्ति हरष जिन हरष नाम तैं, होवत प्रभुवर दाई ॥ ३ ॥ जि० ॥" नेमि-राजीमती बारहमास सवैया इसके सभी पदोमे 'जिनहर्ष' के स्थानपर 'जसराज' का प्रयोग किया गया है । इसमे भगवान् नेमिनाथ और राजीमतीका प्रसिद्ध कथानक है । यह एक छोटा-सा विरह काव्य है । इसमे लौकिक रामके सहारे अलौकिक रामका विवेचन हुआ है । इसे हम रामानुगा भक्तिका ही दृष्टान्त कह सकते हैं । इसमे कुल १३ पद्य है । इसकी एक प्रति अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेरमे मौजूद है। दूसरी प्रति वह है जिसका उल्लेख देसाईजीने किया है । उसे किन्हीं पण्डित विनयचन्दने सं० १७६३ आषाढ़ सुदी १ को जैसलमेर में लिखा था । इसका आदि और अन्त देखिए, २३७ " सावन मास घना घन बास, श्रावास में केलि करे नर नारी । दादुर मोर पपीहा रटे, कहो कैसे कटे निशि घोर अंधारी ॥ बीज झिलामळ होई रही, कैसे जात सही समसेर समारी । भाइ मिल्यौ जसराज कहे, नेम राजुल कुं रति लागें दुखारी ॥ ३ ॥ " अन्त "राजुल राजकुमारी विचारि के संयम नाथ के हाथ गह्यो है । पंच समिति तीन गुपति धरो निज, चित्त में कर्म समूह दो है ॥ राग द्वेष मोह माया नहैं, उज्ज्वल केवल ज्ञान लह्यो है । दम्पति जाइ बसें शिव गेह में, नेह खरो जसराज कह्यो है ॥१३॥ १. वही पृ० १६१ । २. जैन गुर्जर कविप्रो, खण्ड २, भाग ३, पृ० ११८० । 19 - बारहमासा यह एक दूसरा बारहमासा है, जिसका विषय भी वही है। इसकी एक प्रति जिनदत्त सरस्वती भण्डार बम्बई में मौजूद है। इसको किन्ही मुनि उदयसूरिने Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि लिखा था। दूसरी प्रति अभय जैनग्रन्थालयमे है। दोनोंमें हो १२ सवैया है । पद्योंमें लोच है और आकर्षण । इसके दो पद्योंको देखिए, "धन की घनघोर घटा उनहीं, विजुरी चमकंति झलाहलि-सी। विचि गाज अगाज अवाज करत सु, लागत मो विषवेलि जिसी ॥ पपीया पीट पीट रटत रयण जु, दादुर मोर वदै ऊलिसी। ऐसे श्रावण में यदु नेमि मिले, सुख होत कहै जसराज रिसी ॥१॥" अन्त "प्रगटे नम बादर आदर होत, धना धन आगम आली भयो है। काम की वेदन मोहि सता, भाषाढ़ में नेमि वियोग दयो है। राजुल संयम ले के मुगति, गई निज कन्त मनाय लयो है। जोरि के हाथ कहै जसराज, नेमीसर साहिब सिद्ध जया है ॥१२॥" सिद्धचक्र स्तवन ___ इसको एक हस्तलिखित प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमें विराजमान गुटका नं० ११६, वेष्टन नं० ११५५ मे निबद्ध है। कृति सिद्धचक्रकी भक्तिसे सम्बन्धित है । कतिपय पद्य देखिए, "सूरवहराय तम तिमर देव, देवासुर खेयर विहिय सेव । सेवाप्रगय मय राय पाय, पायमिय पणामहकय पसाय ॥२॥ सायर सम समया मय निवास, वासव गुण गोयर गुण निकास । कासुजल संजल सील लोल, लीलाय विहिय मोहावहील ॥३॥" पार्श्वनाथ नीसाणी ___ यह स्तुति महावीरजी अतिशय क्षेत्रके शास्त्रभण्डारमे, एक प्राचीन गुटकेमे पृ० १३४ पर लिखी हुई है। इसमें २६ पद्य है। पद्योमे सरसता और गतिशीलता है। प्रारम्भके दो पद्य इस प्रकार है, "सुष संपति दायक सुरनरनायक परतष्प पाप निकंदा है। जाकी छवि क्रांति अनोपम उपम दीपत जाणि जिणंदा है॥ मुष जोति झिगामग झिगमग पूनिम पूरण चंदा है। सब रूप सरूप बाणे भूप सो तूं ही त्रिभुवन नंदा है ।।३॥ १. वही, पृ० १९७६ । २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, पृ० १६२ । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य १३९ करुणा रस सागर नागर लोक सबै मिलि जस्म पुणंदा है, तोरि षिजमति कर इकचित्त सुसेवक तो धरणिंदा है। तै जलती आगि निकाल्या नाग किया वम्माग सुरंदा है, तो चरणां आय रह्या लपटां इकला अति केलि करंदा है ॥२॥" श्रेणिक चरित्र ____ महाराजा श्रेणिक भगवान् महावीरके परम भक्त थे। जैनोंके अनेकों अन्य श्रेणिकके प्रश्नसे आरम्भ हुए है। उन्हींका चरित्र इस काव्यमें अंकित है। इसको सूचना 'हिन्दी जैन साहित्यके इतिहास में अंकित है। इसको रचना सं० १७२४ में हुई थी। ऋषिदत्ता चौपई ___ यह चौपई बाबू कामताप्रसादजी जैनके संग्रहमें मौजूद है।' इसमें कुल ३२ पद्य है । इसका आदि और अन्त देखिए, "अष्टापद श्री आदि जिनंद, चंपा वासुपूज्य जिनचंद । पावा मुगति गया महावीर, अवर नेमि गिरनार सधीर ॥१॥" अन्त "उत्तम नमतां लहीये पार, गुण गृहतां कहीए निस्तार । जाइनें दूर कर्मभी कोड़, कहै जिनहर्ष नमूं कर जोर ॥३२॥" मंगल गीत इसको एक प्रति जयपुरके लूणकरजीके मन्दिरमें विराजमान गुटका नं० ८१ में संकलित है। यह गुटका सं० १८०० का लिखा हुआ है। ६५. अचलकीर्ति ( वि० सं० १०१५) अचलकोत्तिके पारिवारिक जीवन और गुरु-परम्परा आदिके विषयमे कुछ भी विदित नहीं है । उनको 'बठारहनाते' नामक पुस्तकसे केवल इतना ही मालूम हो सका है कि वे फिरोजाबादके रहनेवाले थे। वे भट्टारक थे और मट्टारकीय १. हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृ० १६० । २. सहर फिरोजाबाद मे हौ, नाता की चौढाल । बार बार सबसौं कहो हो, सोषो धर्म विचार ।। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि परम्परामें ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई थी। उनका 'विषापहार स्तोत्र' जैन समाजमें बहुत ही प्रसिद्ध है। अभी उनको एक और रचना 'कर्मबत्तीसी' भी प्राप्त हुई है । इसके अतिरिक्त उनको रची हुई 'रविव्रतकथा' दिल्लीके पंचायती मन्दिरके भण्डारमें सुरक्षित है। यह मुनिश्चित है कि अचलकोत्ति अठारहवीं शताब्दीके कवि थे। उनकी एक-दो रचनाओके काल-संवत्से ऐसा स्पष्ट भी है। वे एक अच्छे कवि थे। उनकी कविता उनके अन्तर्हृदयका निदर्शन है । भाषामें सरलता और प्रवाह है। 'विषापहार स्तोत्र' तो भक्ति-रसका प्रधान काव्य माना जाता है । 'धर्मरासो' भी उन्हींकी कृति है। विषापहार स्तोत्र इस स्तोत्रकी रचना नारनौलमें वि० सं० १७१५ में हुई थी। पड़थ, जिलामैनपुरोको एक प्रतिमें इसका निर्माण-संवत् 'पन्द्रास सत्रा शुभ थान । बरनी फागुन सुदी चौदस जान ।' दिया हुआ है, जो कि अशुद्ध है। काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाके सन् १९०० के विवरणमें इसके रचना संवत्का उल्लेख 'सत्रहसे पन्द्रह सुभथान । नारनौल तिथि चौदसि जान' रूपमे हुआ है। जयपुरके सेठ बधीचन्दजोके दिगम्बर जैन मन्दिरमे स्थित इसकी एक प्रतिपर भी रचना-संवत् १७१५ ही दिया हुआ है। दि० जैन मन्दिर, बड़ौतके वेष्टन नं० २७२, गुटका नं० ५७ में भी पृ० ३२ पर एक हस्तलिखित प्रति निबद्ध है। उसमे रचना सं० १७१५ दिया हुआ है। संस्कृतमें महाकवि धनंजयने 'विषापहार स्तोत्र' की रचना की थी। वह एक प्रौढ़ रचना थी और आज भी उसकी ख्याति है। हिन्दीमें उसके अनुकरणपर अनेकानेक विषापहारोंकी रचना हुई, किन्तु वैसी सरसता कोई न ला सका। कवि शान्तिदास और अखैरामके 'विषापहार स्तोत्र' तो जूठन-जाठन-से प्रतीत होते हैं। उनमें कविका हृदय नही रम पाया है। यदि हृदय रमे तो पुराना भाव भी वसन्तकी भांति नये रूपमें लहलहा उठता है। परम्परा-पालनके लिए किया गया कोई भी काम स्वाभाविक नहीं हो सकता। अचलकीतिका 'विषापहार स्तोत्र' भी धनंजयसे अनुप्राणित है, किन्तु हम उसको 'नकल-भर' नहीं कह सकते । भक्तकी भाव-मग्नता और अभिव्यंजनाकी काम महाबली जी, सुन पिय चतुर सुजान ॥५८॥ दिगम्बर जैन पंचायती मन्दिर दिल्लीकी हस्तलिखित प्रति । १. सेठ बधीचन्दजीका दि. जैन मन्दिर, जयपुरके गुटका नं० ३८ और वेष्टन नं० १००२ । इस गुटकेका लेखनकाल सं० १८२३ दिया हुआ है। - - - -- Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य २४१ नवीनताने उसे सरस और मौलिक बना दिया है। आराध्यकी महिमासे सम्बन्धित कतिपय पद्य देखिए, "प्रभुजी पतित उधारन आउ, बाहं गहे की लाज निबाहु । जहां देषो तहां तुमही आव, घट घट जोति रही ठहराय ॥१६॥ मसम व्याध समन्तभद्र को मई, संमौ स्तुत जिण अस्तुति ठई। गई व्याधि विमल मति मई, तहां प्राणपत तुम सुध लई ॥१८॥" कर्म-बत्तीसी इसकी रचना पावानगरमे संवत् १७७७ में हुई थी। इसमें पावानगर और वीरसंघका भी वर्णन है। इसमें बड़े ही सरस ढंगसे कर्मोके प्रभावकी बात कही गयो है । कुल ३५ पद्य है। भाषामें प्रवाह और सरलता है । अठारह नाते इसका निर्माण फिरोजाबादमें किया गया था। हो सकता है कि भट्टारकीय पदपर प्रतिष्ठित होनेके पूर्व ही अचलकीत्तिने इसको बनाया हो। उसमें वह प्रौढ़ता नहीं है जो उनकी अन्य रचनाओंमें पायी जाती है। इसकी एक प्रति श्री जैन पंचायती मन्दिर दिल्ली में सुरक्षित है। जैन-परम्परामे अठारह नातोंकी कथाका प्रचलन बहुत पुराना है । अचलकात्तिने भी किसी संस्कृत कथासे ही इसका कथानक लिया था। रवि-व्रत कथा इनकी बनायी हुई 'रवि-व्रतकथा' भो उपर्युक्त मन्दिरके शास्त्रमण्डारमें ही सुरक्षित है । उसपर रचना-संवत् १७१७ दिया हुआ है। धर्म रासौ ___ इसकी रचना वि० सं० १७२३ में हुई थी। वि० सं० १७२६ की लिखी हुई एक प्रति, महावीरजी अतिशय क्षेत्रके शास्त्रमण्डारमें मौजूद है। पद __अचलकोत्तिने अनेक भक्ति-परक पर्दोका निर्माण किया था। एक सरस पद लूणकरणजी पाण्ड्या मन्दिर जयपुरके गुटका नं० ११४, पत्र १७२-७३ पर अंकित है । कतिपय पंक्तियां इस प्रकार है, १.दि० जैन मन्दिर, बड़ौतकी हस्तलिखित प्रति । २.गुटका नं० १५, वेष्टन नं० ६३७, बधीचन्द्रजीका मन्दिर, जयपुर। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि "काहा करूं कैसे तिरूं भवसागर भारी ॥ टेक ॥ माया मोह मगन भयो महा विकल विकारी ॥ काहा० ||१|| मन हस्ती मद आठ, सुमन-सा मंजारी । चित चीता सिंघ सांप ज्युं अतिबल अहंकारी || काहा० ||२|| बाला तन पेलत गयो, सुधि बुधि न चितारी । चेतन चिति नहिं चेतना, सुचि नहीं सु विचारी ॥ ३ ॥ अब क्या गति या जीव की, तीन्हों पण हारी । अचलकीरति श्राधार है, प्रभु सरन तुम्हारी ||६|| " अचलकीतिका एक 'फागु' दि० जैन मन्दिर बड़ोतके एक पदसंग्रहमे, जो वेष्टन नं० ४०५ में निबद्ध है, पृ० ३२ पर अंकित है । "डफ बाजन लागे हो, हो होरी सब मिलि फाग सुहावनी हो पेलत हैं नर नारि ॥टेक॥ छाँडि गयो महा सांवरो प्यारो, जाय चढ्यो गिर नारि ॥ डफ० ॥१॥ नि बाहिर भीतर षडी हो, बिस सम है गृह बास । पिय दुख कदे न वीसरूं हो अब मन भयो है उदास ॥ डफ० ||२|| हां जुगल जुगल मिलि पेल ही हो, अबीर गुलाल उड़ाइ । नेमकंवर दरसन करि प्यारे पावोगे उत्तम वास ॥डफ०||३|| हां सषी सहित राजमती चाली, छोडि सकल सिंगार । म कंवर चित लायक हो, लियो है संजम मार || डफ० ||५|| जनम मरन मय जीति कै हो, वेळत मुकति मंझारि । अचलकीर्ति जी यौ कहै हौ, मेरौ आवागमन निवारि ॥ डफ० ||६|| " ६६. रामचन्द्र ( वि० सं० १७२० - १७५० ) 1 ये खरतरगच्छके प्रधान श्री जिनसिंहसूरिराजकी शिष्य परम्परामे थे । श्री जिनसिंहरिके शिष्य पद्मकीर्ति चौदह विद्याओंमें पारंगत और चारों वेदोंमें निष्णात थे। उनके भी शिष्य पद्मरंगकी विद्वत्ता और सुजनताका चारों ओर यश फैला हुआ था । लोग उनकी महिमाके गीत गाते फिरते थे । उन्होंके शिष्य श्री रामचन्द्र थे 1 1 १. श्री जिनसिंह सूरि सुखकारी, नाम जपै सब सुर नर नारी । जाऊँ शिष्य सिरोमण कहिये, पद्मकीर्ति गुरुवर जसु लहिये ॥ ९२ ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २५३ "मिश्रबन्धविनोद'में उनका उल्लेख 'रामचन्द्र साको बनारसवाले' कहकर हुआ है, किन्तु न तो ये बनारसके रहनेवाले थे और न इनका उपनाम ही 'साको' था। ये साधु थे, अतः घूमते ही रहते थे। हो सकता है कि कभी बनारस भी गये हों। 'साकी' 'सक्को' का बिगड़ा हुआ रूप है। इन्होने 'रामविनोद' की अन्तिम प्रशस्तिमे लिखा है, "उत्तर दिसि खुरसांन मैं, बानु देस प्रधान । सजल भूमि रै सर्वदा, सबकी सहर सुम थान।" इसका अर्थ है कि उत्तर दिशाम खुरासांन देशके अन्तर्गत 'बानू' नामका प्रदेश था, जिसका 'सक्को' प्रसिद्ध नगर था। वहाँ पानीको कोई कमी नहीं थी, भूमि हरी-भरी थी। स्थान शुभ माना जाता था। कविने लिखा है कि उस समय वहां औरंगजेवका राज्य था। उसने शासनको प्रशंसा की है। वहां सुख और शान्ति थी। रामचन्द्रने उसी नगरमे 'रामविनोद'का निर्माण किया था। यहां भी ये घूमते-घूमते ही पहुंचे होंगे। इनके मूल निवासस्थानके विषयमे निश्चयपूर्वक कुछ भी नही कहा जा सकता। रायबहादुर बाबू हीरालाल बी० ए० कटनीने इनकी भाषापर राजस्थानीके विशेष प्रभावको देखकर इनको राजपूतानेका रहनेवाला घोषित किया है। श्री अगरचन्दजी नाहटाने भी इनके ग्रन्थोपर राजस्थानीके प्रभावको बात स्वीकार की है। ये जिस शाखाके साधु थे, वह विद्वत्ता, साधुता और कविता तीनों ही के लिए प्रसिद्ध रही है। जिनसिंहमूरिका तो अकबर और सलीम दोनो ही ने सम्मान किया विद्या च्यार दस कंठ बखाणे, वेद च्यार को अरथ पिछाने, पद्मरंग मुनिवर सुखदाई, महिमा जाकी कही न जाई ॥१३॥ रामचन्द मुनि इन परिभाख्यौ, सामुद्रिक भाषा करि दाख्यो । जां लगि रहिज्यो सूरि जी चंदा, पढहु पंडित लहु आणंदा ॥९॥ सामुद्रिक भाषा, प्रशस्ति, राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्योंकी खोज, भाग २, पृ० १२४-२५॥ १. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, पृ० ४६६, संख्या ४२३ । २. जैन गुर्जरकविओ, खण्ड २, भाग ३, संख्या १८०४ पर रामविनोदकी प्रशस्ति, पृ० १२१७। ३. मरदानौ अरु महाबली, अवरंग साहि नरंद, तास राजमै हर्षसुं, रच्यो शास्त्र आनंद ।। ३०० ।। वही। ४. का० ना० प्र० पत्रिका, नवीन संस्करण, भाग ८, पृ० ४६७ । ५. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोकी खोज, भाग २, पृ० १५६ । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि था। रामचन्द्र भी एक यशस्वी व्यक्ति थे। वैद्यक और ज्योतिषपर तो उनका एकाधिकार था। उनके द्वारा रचे गये स्तवनोंसे स्पष्ट है कि कवितामें भी उनका असाधारण प्रवेश था। दार्शनिक विद्वत्तासे सम्बन्धित उनका कोई ग्रन्थ देखनेको नहीं मिलता। इन साधुओंका सम्मान वैद्यक और ज्योतिषके अगाध ज्ञानपर ही टिका था। बड़े-बड़े सम्राट भी इनकी भविष्यवाणियां सुनने के लिए तरसा करते थे। जहांतक कविताका सम्बन्ध है, भक्तिपूर्ण हो होती थी। उनके द्वारा लिखे गये सैकड़ों स्तुति-स्तोत्र प्राप्त होते है। ___ काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाके १९०९ और १९११ के खोज विवरणके लिखनेवालेने रामचन्द्रको जैन नहीं माना है। उनका कथन है कि 'रामचन्द्र' नाम किसी जैनका नहीं हो सकता। शायद उनको दृष्टिमे हिन्दू ही रामचन्द्रको भगवान् मानते है, जैनोके भगवान् तो महावीर है। किन्तु 'रामचन्द्रजी' के आदर्श चरित्रको लेकर विपुल जैन साहित्यको रचना हुई है। विवरण-लेखकका दूसरा तर्क है कि श्री रामचन्द्रके 'रामविनोद' के प्रारम्भमे गणेशको वन्दना की गयी है, जो कि हिन्दुओका देवता है, जैनोंका नहीं। किन्तु गणेश तो विद्याका अधिष्ठातृ देव है, और उसकी आराधना हिन्दू तथा जैनोंने ही नही, अपितु मुसलमानो तकने को है। जैनोंके तो अनेक महत्त्वपूर्ण कवियोके साहित्यका प्रारम्भ गणेश-वन्दनासे ही हुआ है। अतः इस आधारपर रामचन्द्रको जैन होनेसे इनकार नही किया जा सकता। तीसरा तर्क यह है कि ग्रन्थमें कहींपर भी जैन-मतका उल्लेख नहीं है । किन्तु वैद्यकसम्बन्धी ग्रन्थमे सैद्धान्तिक विषयके निरूपणको अवसर हो कहां था। इसके अतिरिक्त रामचन्द्रने स्वयं अपने पूर्वगुरुओंके वैद्यक ज्ञानको स्वीकार किया है। वे गुरु जैन थे। जैन होते हुए भी वैद्यकके ग्रन्थमें जैन-तत्त्वोंकी बात न कहना अजैनत्वकी निशानी नहीं है। जैन अथवा अजैनके पास मिलनेसे किसी भी ग्रन्थके रचयिताको जातिका अनुमान लगाना भी ठीक नहीं है। १. भानुचन्द गणिचरितकी भूमिकामें निबद्ध, "Jain priests at the court of Akbar" और "Jain Teachers at the Court of Jahangir" पृ०१०,२०। २. अकबरने हीरविजयमरिसे अपना भविष्य जाननेकी प्रार्थना की थी, किन्तु उन्होंने ___ स्पष्ट रूपसे इनकार कर दिया था। वही, पृ० ७ ३. का० ना०प्र० पत्रिका, नवीन संस्करण, भाग ८, पृ०४६५ । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य रचनाएँ उन्होंने वैद्यकपर 'रामविनोद' और 'वैद्यविनोद' तथा ज्योतिषपर 'सामुद्रिक भाषा' का निर्माण किया था । 'रामविनोद' की रचना वि० सं० १७२० मग. सिर सुदी १३ बुधवारको सक्कीनगरमे हुई थी । यह ग्रन्थ लखनऊसे छप चुका है । 'वैद्यविनोद' का निर्माण वि० सं० १७२६ वैशाख शुक्ला १५ को मारीटमे हुआ था । यह सारंगधरका भाषानुवाद है । इस ग्रन्थके अन्तमे 'कविकुल वर्णन चौपाई' दी हुई है । किन्तु उससे पारिवारिक जीवनका कुछ भी पता नही चलता, उसका सम्बन्ध पूर्व गुरुओंकी प्रशस्तिसे है । 'सामुद्रिक - भाषा' की रचना वि० सं० १७२२ माघ कृष्ण पक्ष ६ को मेहरामे हुई थी । मेहरा पंजाब में वितस्था नदोके किनारे बसा हुआ सुन्दर स्थान था । उसमे चारो वर्ण सुखपूर्वक रहते थे । वहाँ उस औरंगजेबका राज्य था, जिसकी बड़े-बड़े बादशाह सेवा किया करते थे। इसकी प्रति जिनहर्षसूरिभण्डारमें मौजूद है, जिसका उल्लेख श्री अगरचन्दजी नाहटाने किया है । रामचन्द्रने काव्यसम्बन्धी चार ग्रन्थोंकी रचना की थी, जिनमें तीन स्तवन और एक चरित्रसम्बन्धी चौपई है । कतिपय पद भी प्राप्त होते हैं । 'सम्मेदशिखर स्तवन' सं० १७५० मे बना था । इसमे जैनोके प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र सम्मेद शिखरकी स्तुति की गयी है । सम्मेदशिखर से जैनोंके २० तीर्थंकरोका निर्वाण हुआ है । उसकी पवित्रताको सभीने मुक्त कण्ठसे स्वीकार किया है। २४५ 'बीकानेर आदिनाथ स्तवन' की रचना वि० सं० १७३० जेठ सुदी १३ को हुई थी। इसमें बीकानेरस्थ आदिनाथ प्रभुकी मूर्तिको लक्ष्य बनाकर हृदयके कतिपय उद्गारोंका स्पष्टीकरण हुआ है । आदिनाथ, जैनोंके प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको कहते है | 'दशपचक्खाण' का निर्माण वि० सं० १७२१ पौष सुदी १० को हुआ था । १. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग २, पृ० ५१, ५२ । २. बनवारी बहु बाग प्रधान, बहे वितस्था नदी सुधान । च्यार वर्ण तहाँ चतुर सुजान, नगर मेहरा श्री युग प्रधान ॥ बड़े बड़े पातिसाह नरिदा, जाकी सेव करें जन कन्दा | पातिसाह श्री ओरंग गाजी, गये गनीम दसौं दिस भास जी ॥८९॥ सामुद्रिकभाषा, प्रशस्ति, देखिए वही, पृ० १२४ । ३. वही, पृ० १२५ । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि इसकी एक प्रतिका उल्लेख 'जैन गुर्जरकविओ' में भी हुआ है। यह प्रति श्राविका मनमांके पढ़नेके लिए की गयी थी। इसमे कुल ३३ पद्य है। _ 'मूलदेव चौपई' की रचना सं० १७११ फाल्गुनमे, नवहटमे हुई थी। यह एक ऐतिहासिक काव्य है । इसमे किन्हीं मूलदेवका वर्णन है । इसकी एक प्रतिका उल्लेख श्री देसाईजीने किया है। मिश्रबन्धु-विनोद'मे इनके द्वारा रचित 'जम्बूचरित्र' की भी बात कही गयो है। रामचन्द्रके कतिपय पद दि० जैन मन्दिर बड़ौतके पदसंग्रह ५८ मे निबद्ध है । उनमे भक्त हृदयका प्रस्फुटन तो है ही, लालित्य और कल्पना भी है। यदि कोई भक्त आराध्यके चरण-कमलोंके प्रतापसे स्वयंको जान सके, अपूर्व ज्ञान तथा परम सुख प्राप्त कर ले, तो अत्युक्ति क्या है । जबतक उसका इष्टदेव मिला नही था, वह भव-भवमे भटकता फिरा, अब भटकनेकी क्या आवश्यकता है, "अब जिनराज मिलिया, गुणगणधर सुन्दर अनूप । जबलौ भेद लौ नहि प्रभु को, गति गति में अति रुलिया। निद्रा मोह गई अब ही मम, ग्यान अपूरब पुलिया। दरसन करि निज दरसन पायो, सुख सत्तादिक मिलिया। चरन कमल पूजत थिरता लहि, एक अहं सुधि मिलिया। रामचन्द्र गुन बरनत ही सकल पाप टलि चलिया।" आदि प्रभु ऋषभदेव वनमे खड़े होकर तप साध रहे हैं। उनका एकाग्र मन, शान्त दृष्टि, अलौकिक मुसकान, अपूर्व छटा बिखेर रही है। वह भक्त ही क्या, जो ऐसे रूपके दर्शन और वर्णनमे खप न सके, "चलि जिन आदि देखें, सुर गन खग वंदित सभूप । सकल संग तजि ऋणवत् वन में नगन चिदातम पेषे । नासा ध्यान खड़े कर लंबे अनसन ऐन विसे ॥ अन्त अकाम मास षट भोजन धीर चलत भूले। धर्म तीर्थकर का कर उपरि दानी को कर पेषै । रामचन्द्र धनि दानी कहै सुररतन वृष्टि करि पेषै।"' १. जैन गुर्जरकविप्रो, भाग २, पृ० ३०७-८ । २. वही, खण्ड २, भाग ३, पृ० १२६६ । ३.मिश्रबन्धु विनोद, माग २, पृ०४६६ । ४. पदसंग्रह ५८, पत्र २५, दि० जैन मन्दिर, बड़ौत । ५. कही। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्क कवि : जीवन और साहित्य रामचन्द्रने सतमको भक्तिमें भी अनेक पदोंका निर्माण किया । वे सभी सरस है । उनमें प्रसाद गुग है। उपर्युक्त ‘पद संग्रह में उनका भी संकलन है । ६७. जोधराज गोधीका ( वि० सं० १७२१) ___ गोधीका ढूंढाड देशके मुख्य नगर सांगानेरके निवासी थे। उन्होंने लिखा है कि "मैंने सहस्रो नगरीको देखा है, किन्तु उसके समान और कोई नहीं है । ऐसा प्रतीत होता है कि सागानेर वास्तवमे एक प्रसिद्ध स्थान था, वहाँपर ही अनेकों जैन-कवि उत्पन्न हुए थे। वह एक साहित्यिक केन्द्र था। जोधराजके पिताका नाम अमरराज अथवा अमरसिंह था। वे जातिसे बनिया थे। जैन धर्ममें उनकी अटूट श्रद्धा थी। पिताका प्रभाव पुत्रपर भी पड़ा और जोधराज भगवान् जिनेन्द्रके भक्त बने । उनको सव साहित्यिक रचनाएं जिनेन्द्रको भक्तिसे ही सम्बन्धित हैं । जोधराजकी शिक्षा एक प्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वानके द्वारा सम्पन्न हुई । उनका नाम हरिनाम मिश्र था। मिश्रजी अनेकों विद्याओमे पारंगत थे। जोधराजने उन्हीसे छन्द, व्याकरण और ज्योतिष आदि ग्रन्थोंका पारायण किया। संस्कृतमें व्युत्पन्न हो जानेपर उन्होंने हिन्दी काव्योका निर्माण किया। जोधराजके कथनसे ऐसा प्रतीत होता है कि मिश्रजोने उनको जैन-शास्त्र भी मूल भाषामें पढ़ाया था। उस समय सांगानेरमे राजा अमरसिंहका राज्य था। उसकी प्रशंसा करते १. सांगानेर सुथान में देश ढुंढाहडि सार । तासम नहि को और पुर, देखे सहर हजार ॥ अमरपूत जिनवर भगत, जोधराज कविनाम । वासी सांगानेर को, करी कथा सुखधाम ।। सम्यक्स्वकौमुदी, भामेर भण्डारको प्रति, अन्तिम प्रशस्ति । २. मिश्र एक हरिनाम सुनी, पढयो छन्द व्याकरण प्रमानि । ज्योतिष ग्रन्थ पढयौ बह भाय, मिश्र जोध कहै सुखदाय ॥ तिनहिं पढायो जोध को, मूल ग्रन्थ परवांन । तापर भाषा गुन कीयो, जोधराज सुखथांन । पंडित चतुर सुजान है, इह जोष हरनाम है। ताकी संगति जोष को, भयो सासतर लाभ ।। बही, अन्तिम प्रशस्ति। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ हुए कविने लिखा है, 'वह भूपोमें सिरमौर है, पोषण करता है । उसके समान और कोई हुआ है । शान्ति और सुव्यवस्था के होनेके निर्माण कर सके । हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि और प्रजाका सुष्ठु प्रकारसे पालनराजा नहीं है । सब जगह चैन छाया कारण हो जोधराज अनेक ग्रन्थोंका बाबू ज्ञानचन्दजीने अपनी 'दिगम्बर जैन भाषा ग्रन्थनाम सूची के पृष्ठ ४-५ पर जोवराजकी सात रचनाओंका उल्लेख किया है। उनमें केवल 'भावदीपिका' हिन्दी गद्यका ग्रन्थ है, अवशिष्ट सब कृतियां पद्यमे लिखी गयी हैं । इनके अतिरिक्त कुछ पद भी मिले है । उनमे भगवान् जिनेन्द्रको भक्ति प्रधान है | भाव उत्तम है और भाषा प्रौढ़। 'चित्रबन्ध दोहा' और 'पद्मनन्दिपंचविंशतिका - भाषा' भी उन्हीं की कृतियाँ है । ये अभीकी खोजोंमे उपलब्ध हुई हैं । उनको रचनाओंका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकारसे है : सम्यक्त्वकौमुदी २ इसकी रचना वि० सं० १७२४ फाल्गुन वदी १३ शुक्रवारको पूर्ण हुई थी। संवत् १७८४ की लिखी हुई एक प्रति नया मन्दिर दिल्लीके शास्त्र भण्डारमे मौजूद है। इसमें ६८ पृष्ठ है । दूसरी प्रति संवत् १७९३ की लिखी हुई आमेरके शास्त्रभण्डारमें रखी हुई है। इसमें कुल ६१ पृष्ठ है । तीसरी प्रति जयपुरके ही बघीचन्दजीके मन्दिरके शास्त्र भण्डार के वेष्टन नं० ५८२ में निबद्ध है । यह प्रति सं० १८३० कार्तिक वदी १३ की लिखी हुई है। इसमें कुल ५६ पन्ने है । रचनाकाल सं० १७२४ फाल्गुन वदी १३ दिया हुआ है । यह प्रतिलिपि हरीसिंह टोंग्याने चन्द्रावतोंके रामपुरामे की थी । कविने यह रचना अपने मामा कल्याणके लिए की थी । कल्याण लुहाडी १. परम प्रजा पाल सदा, सब भूपनि सिरमौर | रामसिंह राजा प्रगट, ता सम नाहीं और ॥ ताकै राज सुचैन स्यों, कियो ग्रन्थ इह जोध | वही । २. संवत् सत्रह सौ चोईम, फागुन बदि तेरस सुभदीस । सुकरवार संपूरन भई, यह कथा समकित गुन ठई ॥ सम्यक्त्वकौमुदी, हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बम्बई, १६१७, पृ० ६७ । ३. नया मन्दिर, दिल्लीके शास्त्रभण्डारकी अ ५२ ( ग ) प्रति । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य २४९ जातिके धर्मदासका छोटा पुत्र था।' लुहाडी बनियोंकी एक उपजाति है, जो राजस्थानकी तरफ़ अब भी पायी जाती है। यह रचना मौलिक कृति नहीं है। कविने उसको मूल संस्कृतमे पढा था। उसका यह भाषानुवाद है। इसमें जैन-भक्तोंकी कहानियां हैं, जो ११७८ दोहेचौपाइयोंमे निबद्ध को गयो है। अनुवाद होते हुए भी भाषा और शैलीकी दृष्टिसे नवीन कृति है । आदि और अन्त देखिए, "परम पुरुष आनंदमय, चेतन रूप सुजान । नम् शुद्ध परमात्मा, जग परकासक मान । परम जाति आनंदमय, सुमनि होइ भानंद । नामिराज सुत आदि जिन, बंदी पूरण बंद ॥" अन्त "बंदी सिव अवगाहना, भर वंदो सिव पंथ । असह देव वंदौ विमल, वंदो गुरु निरगंथ ॥ जिनवाणी पूजौ सही, ताते सब सुख होय । कविता दुखन नहीं लगौ, सुख से पूरण होय ।। चंद सूर पानी भवनि, पवन अरु आकास । मेरादिक जब लग अटल, तब लग जैन प्रकास ॥" धर्म सरोवर इसकी रचना वि० सं० १७२४ आषाढ़ सुदी पूर्णिमाको हुई थी। अर्थात् 'सम्यक्त्व कौमुदी' से आठ माह पूर्व । इसकी एक प्रति 'जैन मन्दिर सेटका कुँचा १. धर्मदास को पूत लघु, जाति लुहाड्यौ जोय । नाम कल्याण मजानिये, कवि को मामी सोय ॥ नया मन्दिर दिल्लीकी हस्तलिखित प्रति, प्रशस्ति । २. ग्यारासैं अठहत्तरि इहै छंद चौपई जान । कह्यौ कौमुदी ग्रन्थ को जोध सुमनि अनुमान ॥ वही। ३. वही, पृ० २६१-२६२ । ४. संवत सत्रह से अधिक, है चौईम सुजानि । सुदि पून्यो आपाढ कौ, कियो ग्रंथ सुषदानि ।। जोधराज गोधीका, धर्मसरोवर, पद्य ३८५, सेठ कुंचा दिल्लीकी प्रति, नं० ३६३ पर निबद्। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि दिल्ली में मौजूद है। इसमे कुल २३ पत्र है। इसपर रचना संवत् १७२४ दिया हुआ है । यह प्रति नवीन है और सं० १९८४ की लिखी हुई है। यह एक मौलिक कृति है। इसमे विविध सुभापित और स्तुतियोंके द्वारा जैन धर्मका निरूपण किया गया है। एक स्तुति देखिए, "शीतलनाथ मजो परमेश्वर अमृत मूरति जोति वरी । मोग संजोग सुत्याग सबै सुषदायक संजम लाभ करी ॥ क्रोध नहीं जहां लोम नहीं कछू मान नहीं नहिं है कुटिलाई । हरि ध्यान सम्हारि सजो सुभ केवल जोध कहै वह बात खरी ॥" प्रीतंकर चरित्र इसको रचना संवत् १७२१ मे हुई थी। उसकी एक प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरके गुटका नं० ११२ मे निबद्ध है। यह गुटका सं० १७२४ फाल्गुन सुदी १० का लिखा हुआ है। इसका उल्लेख ज्ञानचन्दजीको सूचीमें भी किया गया है। इसमें महाराजा प्रीतंकरका चरित्र है, जो भगवान् जिनेन्द्रके परम-भक्त थे। कथा-कोश ___ इसकी रचना सं० १७२२ में की गयी थी। इसका उल्लेख पण्डित नाथूरामजी प्रेमी और श्री कामताप्रसादजी जैनने किया है। उनका आधार श्री ज्ञानचन्द. जीवाली सूची है। ज्ञान समुद्र __इसका निर्माण सं० १७२२ चैत्र सुदी १० को हुआ था। इसको एक प्रति इसो संवत्की लिखी हुई जयपुरके बड़े मन्दिरमे वेष्टन नं० ५३३ मे निबद्ध है। इस प्रतिको स्वयं जोधराज गोधीकाने सांगानेर में लिखा था। इसमें ३३ पृष्ठ है। इसकी एक प्रतिका उल्लेख बाबू ज्ञानचन्दजीवाली सूचीमें भी हुआ है। प्रवचन सार ___ इसकी रचना संवत् १७२६ मे हुई थी। इसकी एक प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरके वेष्टन नं० ११९४ में बंधी रखी है। इसपर रचनाकाल सं० १७२६ पड़ा हुआ है। यह प्रति सं० १७२९ कात्तिक बदी १ भृगुवारकी लिखी हुई है। इसमें ६४ पन्ने है । यह आचार्य कुन्दकुन्दके प्रवचनसारका भाषानुवाद है । " १. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बम्बई, १९१७, पृ० ६८ । २. हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहासे, पृ० १५६ । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ बैन मक कवि : जीवन और साहित्य चित्रबन्ध-दोहा ___ इसका रचनाकाल तो मालम नहीं है, किन्तु इसको प्रति जिस गुटकेमे संकलित है, वह सं० १७२६ का लिखा हुआ है, अत: यह स्पष्ट है कि इसकी रचना उमसे पूर्व ही हुई होगी। यह एक नयी रचना है। इसको प्रति जयपुरके लूणकरजीके मन्दिरमे स्थित गुटका नं० १७६ में निवद्ध है। जैनीमें चित्रवन्ध काव्यको परम्परा बहुत पुरानी है। पद्मनन्दि पंचविंशतिका भाषा इसका निर्माण सं० १७२४ मे हुआ था। यह भी एक नयी खोज है। इसकी प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरके वेष्टन नं. ९७१ मे बंधी रखी है। यह प्रति स० १७२४ की ही लिखी हुई है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह जोधराजके हाथकी ही लिखी हुई है। इसमे १५७ पन्ने है । अन्तिम ३९ पत्र नहीं है। यह भी पद्मनन्दि पंचविंशतिकाका भाषानुवाद है। जोधराजके पद ___ जोधराजके रचे हुए पद नयी खोजोम उपलब्ध हुए है। जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमे स्थित गुटका नं० ८० और १२८ मे इनके कतिपय पद संकलित है । बड़ोतके दि० जैन मन्दिरके गुटका नं० ५५, बेष्टन नं० १७२ मे जोधराजकी एक विनती पृ० ९९-१०५ पर अंकित है। इसमे २४ पद्य है। विनतीमे पर्याप्त सरसता है, "जै जै येक अनेक सरूप, जै जै धर्म प्रकासक रूप । वरन रहित रस रहित सुभाव, जै जै सुध भातम दरसाव ॥१२॥ जै जै देव जगत गुरु राज, जै जै देव सकल संवारन काज । जै जै केवल ग्यान सरूप, मोह तिमिर पंडन रवी रूप ॥१४॥ जब लग जीव भ्रमो संसार, पाय सरूप लयो अधिकार । जब लग मन वच काय करेय, जिनवर भगति हीय न धरेय ॥१५॥" ६८. जगतराम (वि० सं० १०२२-१७३०) इनके पितामहका नाम भाईदास था, जो श्रावकोमे उत्तम और धार्मिक कार्यो१ राजस्थानके जैन शास्त्र भण्डारोंकी ग्रन्थ सूची, जयपुर, भा॰ २, पृ० १५६ । २. वी, भाग ३, पृष्ठ क्रमशः १३७, १५३ । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि के निष्पन्न करने और करवानेमे प्रसिद्ध थे। वैसी ही उनकी पत्नी थी। वह कमलाकी भांति सुन्दरी और गुणवती थी। उसके गर्भसे दो पुत्र उत्पन्न हुए, एकका नाम था रामचन्द्र और दूसरेका नन्दलाल । दोनों ही मां-बापके अनुरूप स्वस्थ, रूपवान् और गुण-सम्पन्न थे। जगतराम इन दोमे-से किसी एकके पुत्र थे। कवि काशीदासने अपनी 'सम्यक्त्व-कौमुदी' मे उनको रामचन्द्रका सुत कहा है। 'पद्मनन्दि पंचविशतिका'को प्रशस्तिमें उनको स्पष्ट रूपसे नन्दलालका पुत्र स्वीकार किया गया है। श्री अगरचन्दजी नाहटाने उनको रामचन्द्रका पुत्र माना है। ___ इनके पितामह शहर गुहानाके रहनेवाले थे, किन्तु उनके दोनो पुत्र पानीपतमे आकर रहने लगे थे। जगतरामकी रचनाओं और उनके आश्रित कवियोंके कथनसे १. भाईदास मही में जानिये, ता तिय कमला सम मानिये । ता सुत अति सुन्दर वरवीर, उपजे दोऊ गुण सायर धीर ।। दाना भुगता दीनदयाल, श्री जिनधर्म सदा प्रतिपाल । रामचद नन्दलाल प्रवीन, सब गुण ग्यायक समकित लीन ।। कवि काशीदास, सम्यक्त्व-कौमुदी, डॉ. ज्योनिप्रसाद, हिन्दी जैन साहित्यके कुछ अज्ञात कवि, अनेकान्त वर्ष १०, किरण १० । तथा भाईदास श्रावक परसिद्ध, उत्तम करणी कर जस लिद्ध । नन्दन दोइ भये तसु धोर, रामचद नन्दलाल सुवीर ॥ सालिभद्र कलियुग मे एह, भाग्यवत सब गुण को गेह । पुण्यहर्ष, पद्मनन्दि पंचविंशतिका, प्रशस्ति संग्रह, जयपुर, अगस्त १६५०, पृ० २३३ । २. रामचंद सुत जगत अनूप, जगतराय गुण ग्यायक भूप । काशीदास, सम्यक्त्वकौमुदी, प्रशस्ति, अनेकान्त वर्ष १०, किरण १० । ३. सुजानसिंघ नन्दलाल सुनन्द, जगतराय सुत है टेकचंद । जो लौ सागर ससि दिनकार, तो लौं अविचल ए परिवार ॥ पुण्यहर्ष, पचनन्दिपंचविंशतिका, प्रशस्ति, प्रशस्ति संग्रह. पृ० २३४ । ४. अगरचन्द नाहटा, 'आगरेके साहित्य प्रेमी जगतराय और उनका छन्द रत्नावली ग्रन्थ', भारतीय साहित्य, वर्ष २, अंक २, अप्रैल १६५७, आगरा विश्वविद्यालय, हिन्दी विद्यापीठ, आगरा, पृ० १८१।। ५. सहर गुहाणावासी जोइ, पाणीपंथ आई है सोइ । रामचंद सुत जगत अनूप, जगतराय गुण ग्यायकभूप ॥ सम्यक्त्व-कौमुदी, प्रशस्ति, अनेकान्त वर्ष १०, किरण १० ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य २५३ ऐसा प्रतीत होता है कि जगतराम स्वयं अपने परिवारसहित आगरेमे आकर बस गये थे। वे औरंगजेबके दरबार में किसी उच्च पदपर प्रतिष्ठिन थे। उन्हें राजाकी पदवी मिली हुई थी। शायद इसी कारण लोग उन्हें जगतरामके स्थानपर जगतराय कहने लगे थे। काशीदासने उन्हे "भूप' और 'महाराज'-जैसे विशेषणोसे युक्त किया है। उनकी जाति अग्रवाल और गोत्र सिंघल था। वे स्वयं राजा थे किन्तु अहंकार नाम-मात्रको भी नहीं था। उन्होने अनेक कवियोको उदारतापूर्वक आश्रय दिया, उनमे एक काशीदास भी थे। डॉ० ज्योतिप्रसाद जैनके कथनानुसार यह सम्भव है कि वे जगतरायके पुत्र टेकचन्दके शिक्षक भी हों। श्री अगर चन्द नाहटाने लिखा है, "जगतराय एक प्रभावशाली धर्म-प्रेमी और कवि-आश्रयदाता तथा दानवीर सिद्ध होते है।" रचनाएँ जगतरामको रचनाओंके विपयमै विवाद है। पं० नाथूरामजी प्रेमीने "दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ' मे जगतरायको तीन छन्दोबद्ध रचनाओका उल्लेख किया है : 'आगम विलास', 'सम्यक्त्व-कौमुदी' और 'पद्मनन्दी पंचविंशतिका'। अनेकान्त वर्ष ४, अंक ६, ७, ८ में प्रकाशित दिल्लीके नये मन्दिर और सेठके कुँचेके मन्दिरको ग्रन्थ सूचीके अनुसार जगतराय 'छन्द रत्नावली' और 'ज्ञानानन्द श्रावकाचार'के भी रचयिता थे। इनमें 'श्रावकाचार' गद्यका ग्रन्य है। दिल्लोकी ग्रन्थ सूचीक अनुसार 'आगमविलास' एक संग्रह-काव्य है। यह संग्रह वि० सं० १७८४ माघ सुदी १४ को मैनपुरीम किया गया था। उसकी प्रशस्निमे लिखा है कि द्यानतरायके सं० १७१३ में स्वर्गवास हो जानेपर उनके १. सहर आगरौ है मुख थान, परतपि दीस स्वर्ग विमान । चारो वरन रहे सुख पाइ, तहां बहु शास्त्र रच्यो सुखदाइ । पभनन्दिप चविशतिका, प्रशस्ति संग्रह, पृ० २३४ । २. अनेकान्त वर्ष १०, किरण १०, पृ०३७५ । ३. काशीदास, सम्यक्त्व-कौमुदी, प्रशस्ति और पुष्पिका, अनेकान वर्ष १०, किरण १०। ४. अग्रवाल है उमग्यानि, सिघल गोत्र वसुधा विख्यात । पुण्यहर्ष, पद्मनन्दिपंचविंशतिका, प्रशस्ति सग्रह, पृ० २३३ । ५. भारतीय साहित्य, वर्ष २, अंक २, आगरा, पृ० १७१। ६. पं० नाथूराम प्रेमी, दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ, जैन-हितेषी, १६११ ई०, पृ० ४२ । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि पुत्र लालजीने आलमगंजके झांझूको यह सत्रह दे दिया। जगतरायने उससे लेकर संकलनका नाम 'आगम विलास' रख दिया। सम्यक्त्व-कौमुदीको पं० नाथूराम प्रेमीने जगतरायको कृति कहा है। उन्होंने उसका रचनाकाल वि० सं० १७२१ माना है। श्री अगरचन्दजी नाहटाका कथन है, "प्रेमीजी और कामताप्रसादजीने तो इस ग्रन्थको जगतरायका हो बनलाया है क्योंकि उन्होने प्रति व प्रशस्ति नहीं देखी।" प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इसकी रचना वि० सं० १७२२ वैशाख सुदो १३ को हुई थी। इसमे ४३३६ पद्य है। इसके रचयिता कवि काशीदास थे। किन्तु इस प्रशस्तिके अन्तमे लिखा है, 'इति श्रीमन् महाराज श्री जगतरायजी विरचितायां सम्यक्त्व कौमुदी-कथायां अप्टम् कथानकम् सम्पूर्णम् ।" इसका अर्थ है कि जगतरायके द्वारा विरचित सम्यक्त्वकौमुदीमें आठवां कथानक पूरा हुआ। डॉ० ज्योतिप्रसादने 'विरचित' शब्दको दूसरोके द्वारा रचवानेके अर्थमे लिया है, किन्तु विरचित शब्द स्वयं रचनेकै अर्थम ही आता है। इसके अतिरिक्त प्रशस्तिमे यह भी लिखा हुआ है, "रामचंद सुत जगत अनूप, जगलराय गुण ज्ञायक भूप। निन यह कथा ज्ञान के काज, वरणी आगे समकिन साज ॥"" ऐसा प्रतीत होता है कि जगतरायने वि० सं० १७२१ मे इसकी रचना की, और काशीदासने वि० सं० १७२२ मे उसकी प्रतिलिपि, उनके पुत्र टेकचन्दके पढ़ानेके लिए की । इस कथामे अनेकानेक जिनेन्द्र भक्तोकी कथाएं है। 'पद्मनन्दी पचविंशतिका' ज्ञानचन्द जैनीकी "दिगम्बर जैन भाषा प्रन्थ नामावली' के अनुसार जगतरायको कृति है। किन्तु उसकी प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि १. वही, पृ० ४२ । २. भारतीय साहित्य, वर्ष २, अंक २, आगरा, पृ० १८० । ३. विक्रम संवत् तै जानि, सत्रह से बाईस बखान । माधवमास उजियारो सही, तिथि तेरस भुसुत सौं लहो ।। ता दिन ग्रंथ सम्पूर्ण भयो, समकित ज्ञान सकल तरु बयो । काशीदास, सम्यक्त्व कौमुदी, प्रशस्ति, भारतीय साहित्य, पृ० १८० । ४. पुष्पिकामें भी जगतरायके प्रसंगसे 'विरचिताया' पदका प्रयोग करना इस बातको निर्विवाद सूचित करता है कि जगतराय ने इस ग्रन्थको रचा नहीं था, रचवाया था। डॉ. ज्योतिप्रसाद, हिन्दी जैन साहित्यके कुछ अज्ञात कवि, अनेकान्त वर्ष १०, किरण १०, पृ० ३७६ । ५. कवि काशीदास, सम्यक्त्वकौमुदी, प्रशस्ति, भारतीय साहित्य, पृ० १८० । ६. बाबू ज्ञानचन्द जैनी, दिगम्बर जैन भाषा ग्रन्थ नामावली, लाहौर, सन् १६०१ ई०, पृ०४, नम्बर 1 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मत कवि : जीवन और साहित्य २५५ पुण्यहर्ष और उनके शिष्य अभयकुशलने, इसकी रचना वि० सं० १७२२ फाल्गुन सुदी १० मंगलबारको आगरेमे जगतरायके लिए की थी। प्रशस्तिके "कोनी भाषा एह, जगनराय जिहि विधि भाषो" से सिद्ध है कि जगतरायने जैसे कहा, वैसे ही इसका निर्माण हुआ। ___ आगरेके नवाब हिम्मतवानके कहनेमे जगतरायने 'छन्द रत्नावली'को रचना वि० सं० १७३० कानिक मुदीमे, आगग्मे की थी। यह हिन्दी साहित्यका एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्य है । इसमे विविध प्रकारके छन्दोंका विवेचन हुआ है। इसमें सात अध्याय है । छठे अध्यायम फारमीके छन्दोका और मातमे तुकोके भेदोंका विशद वर्णन है । जगतर,यने उस समयके उपलब्ध सभी छन्द-शास्त्रोका अध्ययन करके, और उनका मार लेकर इस ग्रन्थको रचना की थी। इस ग्रन्थको एक हस्तलिखित प्रति नया मन्दिर धर्मपुराके दिगम्बर जैन सरस्वती भण्डारमें मौजूद है, इस प्रतिमे पत्रसंख्या १००, श्लोकसंख्या २८०० और निर्माणकाल १७३७ दिया हुआ है। उसके प्रारम्भिक दो पद्योमे हिम्मतखानका यशोल्लेख है। कहींकहीं जैन पारिभाषिक शब्द भी आये है। ___ नवीन खोजोमें जगतरामके बनाये हुए कुछ पद भी प्राप्त हुए हैं। जगतरामको 'जैन पदावली' का उल्लेख काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाके एक खोज-विवरणमै हुआ है । इसके अतिरिक्त उनकी रची हुई विनतियां भी उपलब्ध हुई है। जैन-पदावली ___ इसकी सूचना काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाके पन्द्रहवें वार्षिक विवरणमें संख्या ९४ पर अंकित है । सम्पादकोंने इसकी प्रति किरावली जिला आगराके १. पद्मनन्दिपंचविंशनिका, प्रशस्ति, भारतीय साहित्य, पृ० १८१। २. जुगतराई मो यो कह्यो, हिम्मतखान बुलाई । पिंगल प्राकृत कठिन है, भाषा ताहि बनाई ॥३॥ छंदो ग्रन्थ जिनेक है, करि इक ठौरे आनि । समुझि मबको सार ले, रतनावली बखानि ॥४॥ छन्द रत्नावली, नया मन्दिर, धर्मपुरा दिल्लीकी प्रति, नम्बर ६१। ३. उज्जल जम अंबर को दम दिस हिंमतखान । मुकता तजि सुर सुन्दरिन, भूषन कियो कान । हिम्मतखां मो अरि कपन, भाजत लै लै जीय । अरि रि हमे हूँ मॅग लै, बोलत तिनकी ती ॥ वही, पृ० १८३। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि जैन मन्दिरसे उपलब्त्र की थी। इसमें श्री जगतरामके रचे हुए २३३ पद हैं। उनपर आलोचनात्मक टिप्पणी लिखते हुए सम्पादकोने कहा है, "इन्होने अष्टछाप कवियोंकी शैलीपर पदोकी रचनाएँ की, जिनका एक संग्रह प्रथम खोजमे प्रथम बार उपलब्ध हुआ है। इसमें तीर्थकरोकी स्तुतियां सुन्दर पदोंमे वर्णन की गयी है।" जगतरामके पद छोटी-छोटी रसको पिचकारियों से मालूम होते है । उनके पदोंमें कविका उद्दाम आवेग जैसे फूटा ही पड़ रहा है। एक स्थानपर कवि अपनी भूलको स्वीकार करते हुए कहता है, "हे प्रभु! हमने विषयकषायोका खूब सेवन किया और तुम्हारी सुध बिसरा दी। उन्होने मुझे विषधर नागको भाँति डंस लिया। अब मै मोहरूपी जहरकी लहरसे आक्रान्त हो उठा हूँ। अब उसके उपशमनका एकमात्र उपाय भक्तिरूपी गारुड़जड़ी है। अतः हे भगवन् ! हम आपके चरणोंको शरणमे आये है। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपकी उदारतापूर्ण कृपा उपलब्ध होगी। आपके बिना हमारा कोई सहायक नहीं। और सब देवता स्वार्थके साथी है", "प्रभु बिन कौन हमारी सहाई। और सबै स्वारथ के साथी, तुम परमारथ माई ॥ भूल हमारी ही हमको इह, मयी महा दुखदाई। विषय कषाय सस्य संग सेयो, तुम्हरी सुध विसराई ॥ उन दसियो विष जोर भयो तब, मोह लहरि चढ़ि आई । मक्ति जड़ी ताके हरिबे कू, गुर गारुड़ बताई ॥ यातें चरन सरन आये हैं, मन परतीति उपाई। भब जगराम सहाय की येही, साहिब सेवगताई ॥" जगतरामके पदोंमे आध्यात्मिक फागुओंकी अनोखी छटा विद्यमान है। ये फागु छोटे-छोटे रूपकोमे निबद्ध है । एक फागु इस प्रकार है, "सुध बुधि गोरी संग लेय कर, सुरुचि गुलाल लगा रे तेरे। समता जल पिचकारी करुणा केसर गुण छिरकाय रे तेरे ॥ भनुभव पानि सुपारी चरचानि सरस रंग लगाय रे तेरे । १. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाका पन्द्रहवाँ त्रैवार्षिक विवरण, संख्या १४ । २. महावीरजी अनिशयक्षेत्रका एक प्राचीन गुटका, साइजx६.पृ० १६० । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य राम कहे जे इह विधि खेले मोक्ष महल में जाय रे ॥ सु०॥" पद-संग्रह ___ जैन पदावलीके अतिरिक्त और भी अनेक पदोका निर्माण जगतरामने किया था। बडौतके दि० जैन मन्दिरके शास्त्र भण्डारके एक पद-संग्रहम जगतरामके शतशः पद अंकित है। उनके पद जयपुरके बधीचन्दजीके शास्त्र भण्डारके गुटका नं० १३४ मे भी निबद्ध है । जगतरामने अपने नामके स्थानपर कही 'राम' और कही 'जगराम' भी लिखा है। उनके पद अध्यात्ममूला भक्तिके प्रतीक हैं। एक पदमे कविके 'आनन्दघन बरसन' को चाहना और 'सेवा पद परसन' की लालसा देखिए, "मोहि लगनि लागी हो जिन जी तुम दरसन की ॥ टेक ।। सुमति चातकी की प्यारी जो पावस ऋतु सम आनंदधन बरसन की ।। बार बार तुमकों कहा कहिये तुम सब लायक हो मेटो विथा तरसन की । त्रिभुवनपति जगराम प्रभु, अब सेवक कौं यो सेवा पद परसन की ॥" भक्त कविको प्रभुकी छवि अनुपम लगती है। उसे पूर्ण विश्वास है कि यदि ऐसे प्रभुका, 'सुमरन' किया जाये तो अवश्य ही मोक्ष प्राप्त होगा। "अदभुत रूप अनूपम महिमा तीन लोक में छाजै। जाकी छबि देखत इन्द्रादिक चन्द्र सूर्य गण लाजै ॥ धरि अनुराग विलोकत जाकौं अशुम करम तजि माजै । जो जगराम बनै सुमरन तौ अनहद बाजा बाजै ॥" लघुमंगल इसमें केवल १३ पद्य है। इसकी हस्तलिखित प्रति दि० जैन मन्दिर बड़ोतके गुटका नं० ५४ पत्र ९९-१०२ पर अंकित है। तीर्थकरकी मांके गर्भवती होनेपर इन्द्रने कुबेरको नगरकी नयी रचना करनेके लिए भेजा। उसने उसे नी योजनमें विस्तृत बनाया। उसे स्वर्ण और रलसे जड़ दिया । देवकुमारियां माताकी सेवाके लिए रख दी गयीं। छह माह तक रत्नोंकी वर्षा होती रही, "सुरपति धनिन्द्र पठाइयो, नगर रच्यो बिसतारौ जी । नौ बारा जोजन तणौं, कनक रतन मई सारो जी ॥ १. मन्दिर बधीचन्दजी, जयपुर, पद-संग्रह नं० ४६२, पत्र ७८1७४ । २. बडौतके दि० जैन मन्दिरका पदसंग्रह, पृ०१०। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि देवकुमारी मात पै, सेवा कान रषाई जी। तातै गहे पट मांस लौं, रतनावृष्टि बरषाई जी॥" ६९. विश्वभूषण ( वि० सं० १७२९ ) विश्वभूषण एक प्रसिद्ध भट्टारक थे। उनका सम्बन्ध बलात्कारगणकी अटेरशाखासे था। उनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार थी : शीलभूषण, ज्ञानभूषण और जगद्भूषण । विश्वभूपणने वि० सं० १७२२ माघ कृष्ण ५ को एक सम्यग्दर्शनयन्त्र स्थापित किया था। उन्होंने शौरीपुरमें वि० सं० १७२४ वैशाख कृष्ण १३ को एक मन्दिरका भी निर्माण करवाया था। 'ज्योति प्रकाश' नामके ग्रन्थमें इनकी और इनके कार्योंको प्रशंसा की गयी है। इनके उपदेशसे ही पं० हेमराजने शहर गहेलीमे सुगन्धदशमीकथा लिखी थी।" इस शहरको विश्वभूषणका जन्मस्थान माननेका कोई आधार नही है। __उनकी भट्टारकीय गद्दी हथिकान्तमें थी। उस समय यह जिला आगरेका प्रसिद्ध नगर था। वहां बड़े-बड़े धार्मिक श्रावक रहते थे। उनमे विश्वभूषणका १. भट्टारक सम्प्रदाय, विद्याधर जोहरापुरकर सम्पादित, शोलापुर, पृ० १३२ । २. "सं० १७२२ वर्षे माधवदि ५ सौमे श्रीमूलसंघे भ० जगद्भपण तत्पट्टे भ० श्री विश्वभूषण तदाम्नाये यदुवंशे लंवकंचुक पचोलने गोत्रे सा भावते हीरामणि।" जैनसिद्धान्तभास्कर, प्रतिमालेख संग्रह, पृ० १८, भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० १२८ । ३. श्रीमूलसंघे वलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये श्रीजगत्भूषण श्री भ० विश्वभूषणदेवाः स्वरीपुरमै जिनमदिर प्रतिष्ठा सं० १७१४ वैशाखवदि १३ को कारापिता।" जैनसिद्धान्तभास्कर, अंक १६, पृ० ६४, भट्टारकसम्प्रदाय, पृ० १२८ । ४. "ज्ञानभूषण जगदिभूषण विश्वभूषण गणाग्रणी त्रयी चिन्मयी स्वविनयी हिताश्रयी स्ताद् यतो भवति मे विधिजयी।" वही, पृ० १३, वही, पृ० १२८ ।। ५. सुगंधदशमीकथा, दिल्ली, सन् १६२१, पद्य ३७-३६ । ६. का० ना० प्र० पत्रिकाके १५वें त्रैवार्षिक विवरणमें, इन्हें शहर गहेलीका निवासी लिखा है। ७. "नगर बड़ो हथिकंत, अहो हथिकंत प्रसिद्ध, धर्मभाव श्रावग तां हैं।" जिनमतखिचरी, हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृ० १६६ । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य बहुत सम्मान था। वै विद्वान थे और धार्मिक भी। उनके अनेको शिष्य थे, जिनमें भट्टारक ललितकीतिका विशेष नाम है। विश्वभूषणके अलौकिक व्यक्तित्व और असाधारण गुणोंसे केवल जनसाधारण ही नहीं, अपितु विद्वान् भी आते थे । वे हिन्दीके अच्छे कवि थे। उन्होंने पूजाओं, कथाओं और अनेकानेक पदोंको रचना की। 'जिनदत्तचरित्त','जिनमत खिचरी' और 'निर्वाण मंगल' इन्हीकी कृतियाँ है। इन्होंने एक 'ढाईद्वीप' भी रचा था, जिसकी कई जयमालाएँ हिन्दीमे है । विश्वभूषणका रचना संवत् अठारहवी शताब्दीका पूर्वार्द्ध ठहरता है। ऐसा इनकी कई कृतियोंके रचनाकालसे स्पष्ट है। निर्वाण मंगल इसका सम्बन्ध निर्वाण-भक्तिसे है। यह हिन्दी-पद्य में लिखा गया है। इसकी एक प्रति जयपुरके लणकरजीके मन्दिरमे स्थित गुटका नं० १६१मे निबद्ध है। इसकी रचना वि० सं० १७२९में हुई थी। यह एक छोटा-सा गीति-काव्य है, जिसमे निर्वाण-सम्बन्धी भावोंको व्यक्त किया गया है। अष्टाह्निका-कथा इस कथाका निर्माण वि० सं० १७३८मे हुआ। इमका उल्लेख श्री कामताप्रसादजी जैनने अपने 'हिन्दी जैन साहित्यके संक्षिप्त इतिहास' पृ० १६६ पर किया है । इसमे नन्दीश्वरकी भक्तिको प्रकट करनेवाली कथा है । आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुनके अन्तिम आठ दिनोमें अष्टाह्निका-पर्व मनाया जाता है। इन दिनों नन्दीश्वर द्वीपको पूजा-भक्ति की जाती है। एतद्सम्बन्धी भाव ही इस कथामें प्रकट हुए है। आरती __इसकी हस्तलिखित प्रति मन्दिर ठोलियान, जयपुरके गुटका नं०१३१मे निबद्ध है । यह गुटका वि० सं० १७७९ मगसिर बदी ३का लिखा हुआ है। इस कृतिमें ९ पद्य है। कतिपय पंक्तियां इस प्रकार है, "पहली भारति प्रभुजी की पूजा। देवनिरंजन और न दूजा ॥ दुसरी भारति सिवदेवी नंदन । मक्ति उधारण करमनि कंदन ॥ १. राजस्थानके जैन शास्त्र भण्डारोंकी ग्रन्थसूची, भाग २, पृ० ११२ । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि आठई आरति सिव सुष पावै । नेमजी के गुण विश्वभूषण गावै ॥" नेमिजीका मंगल इसको हस्तलिखित प्रति दि० जैन मन्दिर पाटौडी, जयपुरके गुटका नं० १२ में, पन्ना १६-१७ पर निबद्ध है। कविने इसकी रचना सिकन्दराबादके 'पाव जिन देहुरे'मे की थी। इसका रचनाकाल वि० सं० १६९८ श्रावण शुक्ला ८ दिया हुआ है । अवश्य ही उस समय विश्वभूषण केवल मुनि होगे, भट्टारक नही । उस समयके सिकन्दराबादमें धार्मिक श्रावक रहते थे। उनको दानमें प्रवृत्ति थी। प्रारम्भिक पंक्तियां है, "प्रथम जपो परमेष्टि तो हीयौ धरौ सरस्वती करहुं प्रणाम कवित्त जिन उच्चरौ । सोरठि देस प्रसिद्ध द्वारिका अति बनी ___ रची इन्द्र नै भाइ सुरनि मनि बहुकनी ॥" पार्श्वनाथका चरित्त इसको हस्तलिखित प्रति भी उपर्युक्त गुटकेमे ही संकलित है। इसका रचनाकाल नहीं दिया है। कविने अन्तिम पद्यमे स्वीकार किया है कि इसकी रचना आचार्य गुणभद्रके उत्तरपुराणको आधार मानकर की गयी है। रचनामें प्रवाह है। प्रारम्भिक पद्य देखिए, "मनउ सारदा माई, मजौ गनधर चितु लाई । पारस कथा सम्बन्ध, कहौ भाषा सुखदाई ॥ जम्बू दखिन मरथ मैं, नगर पोदना मांझ । राजा श्री अरविन्दजू, भुगतै सुख अवाझ ।। विप्र तहाँ एक वसै, पुत्र द्वौ राज सुचारा । कमठु बड़ौ विपरीत, विसन से जु अपारा ॥ लघु भैया मरुभूति सौ वसुधरि दई ता नाम । रति क्रीड़ा सेज्या रच्यो हो कमठ भाव के धाम ॥" पंचमेरु-पूजा इस पुजाकी प्रति बधीचन्दजीके मन्दिर जयपुरमें स्थित गुटका नं० १२५में निबद्ध है। तीर्थकरोंके अभिषेक-जलसे पंचमेरु तीर्थक्षेत्र कहे जाते हैं। सुदर्शन, विजय, अचल, मन्दिर और विद्युन्माली, पंचमेरुमोके नाम हैं। इनपर अस्सी जिन Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ जैन मक्क कवि : जीवन और साहित्य चैत्यालय बने हुए है । सुर-गण भी इनकी प्रदक्षिणा दिया करते है । जिनदत्त-चरित्त ___ इसका निर्माण वि० सं० १७३८मे हुआ था। सबसे पहले इसका उल्लेख पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने किया।' 'मिश्रवन्धु-विनोद'मे भी इसकी सूचना निबद्ध है। बावू कामनाप्रसादजीने श्री प्रेमीजीके आधारपर ही इसका उल्लेख किया है। जिनदत्तकी भक्तिमे इस चरितकी रचना हुई थी। जिनमत-खिचरी यह एक छोटा-सा मुक्तक काव्य है। इसमें १४ पद्य है । जीवात्माको परमात्माके दर्शनकी प्यास लग रही है। क्यो न लगे, परमात्मा उसका पति है। पति अभीतक नहीं आया। अवश्य ही वह मोहमहामद पीकर किसी भ्रम-जालमे फंस गया है, "लगु रही मो हिय हो दरसन की, पिया दरसन की आस दरसनु कहि न दीजिये ॥१॥ काहं हो भूले भ्रम पीया, भूले भ्रम जाल, मोह महामद पीजिये ॥२॥" अन्तमे कविने लिखा है कि इसके पढ़नेसे मंगल होता है। मंगल इसीलिए होता है कि इसमे भगवान् जिनेन्द्रको शरणमे जानेका भाव ही प्रधान है । वह पद्य देखिए, "सुनियो हो मवि मनु दे, अहो मवि मनु दे याहि मंगल होहि शरणा तनै । कीनी हों परमारथ, अहो परमारथ हेत, विश्वभूषन मुनिराजन ॥१४॥" पद इनके द्वारा रचा हुआ एक पद जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमे विराजमान गुटका नं. ५१मे संकलित है। यह गुटका सं० १८२३ कार्तिक बदी ७का लिखा हुआ है। इस पदकी आरम्भिक पंक्ति 'जिण जपि जिण जपि जीयडा' है । उसमें १.हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृष्ठ ७० । २. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, पृष्ठ ५०६ । ३.हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ १६६ । ४. वही, पृष्ठ १६६। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि भगवान् जिनेन्द्रको जपनेका हो भाव प्रधान है । एक दूसरे पदमे अपनी निन्दा कर यह बताया गया है कि "मैंने स्वयं अपनेको कर्मोंमे बांधा है फिर मै उनको तोड़ कैसे सकता हूँ। मैने देव-शास्त्र गुरुको निन्दा कर मिथ्यात्वको स्वीकार किया है। रात-दिन विषय-चर्चा करके संयमको डुबा दिया है। तब तो हंस-हंसके कर्मोको बांध लिया, अब उनको भुगतते हुए रोना आता है। अब तो सम्यक्त्वसे रुचि करनेसे ही कर्म दूर हो सकते है ।" देखिए, "कैसे देहुं कर्मनि पोरि! आप ही में कर्म बांधो, क्यों करि डारौँ तोरि ॥१॥ देव गुरु श्रुत करी निन्दा, गहीं मिथ्या डोरि । कर णिसु दिन विष चरचा, रछौ संजमु बोरि ॥२॥ हांसी करि करि कर्म बांधे, तवहि जानी थोरि । अबहि भुगतत रुदनु आवै, जैसे वन घन मोरि ॥३॥ चतुर रुचि सम्यक्त सौं करि, तस्व सौं रुचि जोरि । विश्वभूषन ! जोति जो जोवत, सकल कर्मनु फोरि ॥४॥" विश्वभूषणके अनेक पद' दि० जैन मन्दिर बडौतके पद-संग्रह ५८मे संकलित है। वे उत्तम काव्यके निदर्शन है। विश्वभूपण भक्त थे और कवि भी, यह उनके पदोसे स्पष्ट ही है। उनकी दृष्टिमे इस 'बोरे' जीवको सदैव जिनेन्द्रका नाम लेना चाहिए। यदि यह 'परम तत्व प्राप्त करना चाहता है, तो तनकी ओरसे उदासीन हो जाये। यदि ऐसा नहीं करेगा तो भव-समुद्रमे गिर जायेगा और चहुँगतिमे घूमना होगा । विश्वभूषण भगवान्के 'पद-पंकज' मे इस भांति राँच गया है, जैसे कमलोमे भौंरा "जिन नाम लैरे बौरा, तू जिन नाम लेरै बौरा । जैतू परम तत्व कौ चाहे तो तन को लगन जौरा ॥ नातरकै भवदधि में परिहै भयौ चहूंगति दौरा।। विसभूषण पदपंकज राच्यो ज्यौं कमलन विचि मौरा ॥" अनेकान्तरूपी लहरके जागृत होते ही ममता भाग जाती है। कविने उसे नागिन कहा है। यह वह नागिन है, जिसके रूप नही, रेखा नही, वर्ण नहीं, शोभा नही। यह अमृत-रसमे पगी रहती है। इसके डसनेसे अमरपद मिलता है। इसके फणाटोपमे ऐसी ज्वाला उत्पन्न होती है, जो योग-रसायनका काम १. कामताप्रसाद जैन, हिन्दी साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृ० १६६ । २. पदसंग्रह नं० ५८, दि. जैन मन्दिर, बड़ौत, पन्ना ४८ | Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मा कवि : जीवन और साहित्य २६३ करती है । जो इसको समझ लेना है, उसे अवश्य ही मोक्ष-सुम्ब उपलब्ध होता है, "साधो नागनि जागी। जाके जागन ममता मागी, साधो नागनि जागी । स्याद सुथान मोमिकावासी वमै तही अनुरागी । रूप न रेख वरन नहिं मीमा अमृन रस सौं पागी । जाके दसै लहै भमरापद मई अवस्था नांगी। फणाटोपमें ज्वाला जागी जोग स्मायण लागी। वाद विवाद दोष सब छांडे लोक विमाषा दागी। विमभूषण जो याकौं समझे होय मुकति मुख आगी।" कवि उस योगीमें चित्त लगाना चाहता है, जिसने सम्यक्त्वको डोरी कसके शीलका कछोटा पहना है। ज्ञानरूपी गूदडी गलेमे लपेट रखी है। योगरूपी मासनपर बैठा है। वह आदिगुरुता चेला है। उमने मोहरूपी कान फड़वाये है, उनमें शुक्लध्यानकी बनी मुद्रा पहनी है, उनकी शोभा कहते नहीं बनती। क्षायकरूपी सिंगी उसके पास है, जिसमें से करणानुयोगका नाद निकलता है । वह तत्त्व गुफामे बैठकर दीपक जलाता है और चेतनरूपी रत्नको प्राप्त कर लेता है। वह अष्टकर्मके कण्डोंकी धूनी रमाता है, ज्ञानकी अग्नि जलाता है। उपशमके छन्नेसे छानकर सम्यक्त्वरूपी जलसे मल-मलकर नहाता है । इस प्रकार वह योगरूपी सिंहासनपर बैठकर मोक्षपुरी जाता है। उसने ऐसे गुरुकी सेवा की है, जिससे उसे फिर कलियुगमें नहीं आना होगा, "ता जोगी चित लाऊँ। सम्यक् डोरो सील कलोटा घुलि घुलि गांठि लगाऊँ। ग्यान गूदरी गल में मेलौं जोग आसन ठहराऊँ ॥ आदि गुरु का चेला होकै मोह का कान फराऊँ। शुक्लध्यान मुद्रा दोउ सोहै ताकी सोभा कहत न पाऊँ ।। प्यायक सींगी गलमें मेल करणा नाद सुनाऊँ। तत्त्वगुफा में दीपक जोऊँ चेतन रतनहिं पाऊँ ।। अष्ट करम काण्ड की धूनी ग्याना भगनि जराऊँ। उपसम छन नाम सम छानिकै मलि मलि अंग लगाऊँ॥ इह विधि जोग सिंहासन बैठो मुकतिपुरी कौं जाऊँ। विसभूषण ऐसे गुरु से बहुरि न कलि में भाऊँ।" १. वहीं, पन्ना ४६ । २. वडी, पन्ना ४६ । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ढाईद्वीप-पाठ ___ वैसे तो इमको रचना संस्कृतमे की गयी है, किन्तु इसकी कई जयमालाएं हिन्दीमे है । उनमे काव्यत्व है और भक्ति भी। ७०. जिनरंगसूरि (वि० सं० १७३१ ) ___ आपका जन्म श्रीमाल जातिके 'सिन्धूड' वंशमें हुआ था। उनके पिताका नाम सांकरसिंह और मांका नाम 'सिन्दूरदे' था। उन्होंने अनुपम रूप पाया था । प्रतिभा भी असाधारण थी। जैसलमेरमे सं० १६७८ फाल्गुन कृष्णा ७ को उन्होंने श्री जिनराजसूरिसे दीक्षा ली थी। श्री सूरिजी खरतरगच्छ शाखाके पट्टधर मूरि थे। उनमें पूर्वाचार्य जिनचन्द और जिनसिंह सूरि थे, जिनको सम्राट अकबर और जहांगीरने अनेकों बार सम्मानित किया था। श्री जिनराजसूरि भी एक प्रसिद्ध आचार्य थे। उनकी विशेष ख्याति थी। उन्होंने खरतरगच्छके कल्याणको दृष्टिमे रखकर ही जिनरंगको उपाध्याय पदसे विभूषित किया । उनमे 'उपाध्याय'के योग्य योग्यता थी और व्यक्तित्व भी। १. कामताप्रसाद जैन, हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृ० १६६ । २. सिंधुड़ वंश दिनेसरु, सांकरशाह मल्हार न रे । 'पिन्दूरदै' उर हंसलउ, खरतरगच्छ सिणगार न ॥ मनमोहन महिमा मिलउ, श्रीरंगविजय उवझाय न रे । सेवत सुरतरु सम बड़इ, सबहि कइ मनि भाय न रे ।।६।। राजहंसकृत, जिनरंगसूरि गीत, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० २३१ । ३. संवत् सोल अठहतरइ, जैसलमेरु मंझारि तरे ।। फागुण बदि सत्तमि दिनइ, संयमल्यइ शुभ वार न रे ॥ मनमोहन० ॥२॥ वही, पृ० २३१ । ४. भानुचन्द्र गणि चरित्रकी भूमिकामें श्री मोहनलाल दुलीचन्द देसाईकृत Jain Priests at the court of Akabar al Jain Teachers at the court of Jahangir, पृष्ठ क्रमशः १०,२०। ५. निज गच्छ उन्नति कारणइ, श्री जिनराज सुरिन्द न रे । पाठक पद दोघउ विधइ, प्रणमइ मुनि ना वृन्द न रे॥ मनमोहन० ॥४॥ राजहंसकृत जिनरंगसूरि गीत, ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह, पृ० २३१ । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २६५ ર उनकी सरस और सुकोमल 'देसना' से समूचा संसार विमोहित हो जाता था । उनका हृदय भी छल-कपटसे रहित था । वे चौदह विद्याओमे पारंगत थे 1 दीक्षा समयका उनका नाम रंगविजय था । ज्ञानकुशलके "जिनरंगसूरि गीत" मे और सुमतिविजयके 'जिनराज मूरिगीत नं० ६' में उनको 'युवराज' पदसे सम्बो धिन किया गया है । यह उनकी महत्ताका ही सूचक है । रंगविजकी ख्यातिको सम्राट् शाहजहाँने भी सुना । आमन्त्रण देकर बुलाया और इतना अधिक प्रभावित हुआ कि सात मूबोमे उनके वचन प्रमाण करनेका आदेश फ़रमानके द्वारा दिया । शाहजहाँके पुत्र दाराने उनको 'युगप्रधान' के पदमे विभूषित किया था। सं० १७१० मे मालपुरेमे उनको 'युगप्रधान का पद दिया गया। इस अवसरपर नेमिदास सिन्धुड़ने एक शानदार महोत्सव मनाया, जिसमें अन्य आयोजनो के साथ-साथ महाजन संघको नालेरकी प्रभावना भी दी गयी । नाम भी 'रंगविजइ' से जिनरंगसूरि' हो गया। और वह अन्त तक इसी नाम से प्रतिष्ठित रहे। जिनरंगसूरिकी महिमाका बखान करनेवाले तीन गीतों का संकलन, 'ऐतिहासिक जैन- काव्य संग्रह मे हुआ है। तीनोंके निर्माता क्रमशः राजहंस, ज्ञानकुशल और कमलरत्न है । ५ १. सरस सुकोमल देसना, मोहइ सहूय संमार न रे । कूड काट हीयइ नहीं, सहु को नइ हितकार न रे ॥३॥ भवियण वांद भावस्यूं, जिम पायउ सुख सार न रे । रूप कला गुण आगलउ, निर्मल सुजस भंडार न रे ॥२॥ ज्ञानकुशलकृत जिनरंगमूरि गीत, ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह, पृ० २३२ ॥ २. जिनराजसूरि पाटोधक, दस च्यार विद्या जाण । वचन सुधार वरमतो, मान सहु को आण ॥१॥ कमलरत्नकृत युगप्रधान पदगीतम्, वही, पृष्ठ २३२ | ३. खरतरगच्छ युवराजियड, थाप्यउ श्री जिनराज न रे । पाठक रंगविजय जयन, सब गच्छपति सिरताज न रे ॥ १ ॥ ज्ञानकुशलका गीत, वही, पृष्ठ २३२ ॥ ४. तीन प्रदिक्षण तूं देइ करीरे, श्री जी रे तुं लागे पाय रे । वलि युवराजा 'रंगविजइ' भणोरे, इनरउ करिजे वीर साय रे ॥२॥ आ० ॥ सुमतिविजयकृत जिनराजमूरि गीत, वही, पृष्ठ १७७ । ५. कमलरत्नकृत युगप्रधान पदगीतम् पद्य २ -- ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृष्ठ २३२-३३ । ३४ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मन्ति-काव्य और कवि ___ जिनरंगमूरि विद्वान् तो थे ही, काव्यरचनामे भी निपुण थे। उन्होंने अनेक स्तवनोका निर्माण किया, जिनमे-ये कुछका प्रकागन दिल्लीके यति रामगलजीने किया है। उनको रचनाओमे 'सौभाग्यपंचमी चौपई', 'प्रबोध बावनी', 'रंग बहत्तरी', 'चतुर्विगतिजिनस्तोत्र', 'चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तवन', 'प्रास्ताविक दोहा' और नवतत्त्वबालास्तवन' मुख्य है । उनका परिचय निम्न प्रकारसे है, सौभाग्यपंचमी चौपई ___ इसको रचना मं० १७४१ में हुई थी। उसकी सूचना मिश्रबधुविनोद', 'हिन्दो जैन साहित्यका इतिहास' और 'ऐतिहानिक जैनकाव्य संग्रह'को भूमिकामे दी गयी है। इसके अतिरिक्त उसका और कुछ परिचय आदि वहाँ अंकित नहीं है। 'जैन गुर्जरकविओ'मे भी इसकी सूचना-भर ही दी है। अब यह चौपई दिल्लीसे प्रकाशित हो चुकी है। प्रवोध-बावनी इसको 'अध्यात्म बावनी' भी कहते है। इसमे आत्माको सम्बोवन कर-करके भ्रमाकुलित संसारसे उन्मुक्त होनेकी बात कही गयी है। इसकी रचना संवत् १७३१ मगसिर सुदी २ गुरुवारको हुई थी। इसकी एक प्रति संवत् १८०० आषाढ़ सुदी २ को लिखी हुई अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेरमे मौजूद है। दूसरी प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमे विराजमान गुटका नं० ९२ मे निबद्ध है। इस रचनाके आगे निर्माण संवत् १७३१ दिया हुआ है। इसमे ५४ पद्य है । 'प्रबोध बावनी' उत्तम काव्यका निदर्शन है। उसका प्रत्येक पद्य एक गुलदस्तेकी भांति है। एक पद्यमे ऊंकार मन्त्रकी महिमाका बखान है, १. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, पृ० ५१३ । २. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृ० ७१ । ३. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० १२, प्रारम्भमें ही निबद्ध काव्योंका ऐतिहासिक सार। ४. जैन गुर्जरकविश्रो, खण्ड २, भाग ३, पृ० १२७७ । ५. शशिगुन मुनि शशि' संवत् शुक्ल पक्ष, मगसर बीज गुरुवार अवतारी है। स्वल दुरुबुद्धि को अगम भांति भौति करि, सज्जन मुबुद्धि को सुगम सुख कारी है ॥५४॥ प्रबोधवावनी, राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, पृ० ८८ | ६ वही, पृ०८७-८८। ७. राजस्थानके जैन शास्त्रभण्डारोंकी ग्रन्थसूची, भाग ३, पृ० १४१ । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "ऊंकार नमामि सोहे भगम अपार, अति यह तत्तमार मंत्रन का मुख्य मान्यो है। इनहीं त जोग मिद्धि साध की सिद्धि जान, साधु मय सिद्ध तिन धुर उर धान्यो है। पूरन परम परसिद्ध परसिद्ध रूप, बुद्धि अनुमान याको विबुध बखान्यो है। जपै जिनरंग एसो भक्षर अनादि आदि, ___जाको हेय मुन्द्धि तिन याको भेद जान्यो है ॥३॥" रंग-बहतरी इसको 'प्रास्ताविक दोहा' और 'दूतावन्ध बहतरी के नानसे भी पुकारा जाता है। इसमे ७२ दोहे है। उनका विषय नीति, अध्यात्म और भक्तिसे सम्बन्धित है। बहत पहले इसका प्रकाशन दिल्लीसे हुआ था। अब उसका पुन. प्रकाशन 'वीरवाणी' मे हुआ है। अगरचन्द नाहटाका सम्पादन है। अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेरवाली प्रति उनका मूलाधार है। इस प्रतिमे ७१ दोहे है । बाह्य और अन्तः दोनो ही दृष्टियोसे काव्य उत्तम कोटिका है । एक दोहेमे यमक अलंकारको छटाके साथ भक्तिका रंग है, "धरम ध्यान ध्या नहीं, रहे जु आरत माहिं । जिनरंग वे कैस नर, जिन रंग रत्ता नाहिं ॥२॥" यह मनुष्य अपने जीवनका बोझ नहीं उठा पाता, इसपर भी अन्य बोझ स्वीकार करता जाता है, फिर भला वह अपने लक्ष्य तक कैसे पहुंच सकेगा ? एक उपाय है । जगदीशको जपे, ध्यान करे, पूजा करे, "अपना मार न उठ सके, और लेत पुनि सीस । सो पेडे क्यों पहुंच है, जपि जिनरंग जगदीश ॥५०॥" एक पक्षी ऐसे पिंजडेमे बन्द है, जिसके दस दरवाजे है। उन दरवाजोंके होते हुए भी यदि पक्षी उडता नहीं, तो आश्चर्य है, यदि उड़ जाता है, तो आश्चर्य क्या है। उसे उड़ ही जाना चाहिए । यहाँ शरीरको पिंजडा बनाया है और दम इन्द्रियोंको दस दरवाजे । आत्मारूपी पक्षी उममे कैद है। मौतके समय वह उसमे-से निकल जाता है। कविको दृष्टिमे यह स्वाभाविक है। कविने इस स्वाभाविकताका उत्तम ढंगसे निरूपण किया है । रूपकको शान निराली है, "दसूं द्वार का पिंजग, आतम पंछी मांहि । जिनरंग अचरिज रहनु है, गये अचम्मौ नाहिं ॥१८॥" Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि जिनरंग एक उदार कवि थे। उन्होने धर्मके नामपर कौमियतको प्रश्रय नही दिया । उनका अभिमत था कि धर्म अविरोधी होता है। यदि उसमे दूसरे धर्मसे विरोध है, तो कहीं-न-कहीं कमी अवश्य है । शैव जैन और मुसलिम धर्मोमे विरोध नहीं है। तीनोंके मिलनेसे ही यह जीव भवसमुद्रके पार उतर सकता है, “शैवगति जैनी दया, मुसलमान इकतार । जिनरंग जो तीनों मिलै, तो जीउ उतरै पार ॥३७॥" चतुर्विशति जिनस्तोत्र चौबीस तीर्थकरोकी भक्तिमे इसका निर्माण हुआ है। इसकी प्रति जयपुरके श्री बधीचन्दजीके मन्दिरमे स्थित गुटका नं० ९२ मे सकलित है। उसपर रचना और लेखनकाल आदि कुछ भी दिया हुआ नहीं है । चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तवन ___ इसमें यह बताया गया है कि भगवान् पार्श्वनाथकी भक्तिसे सब मनोकामनाएं पूरी हो जाती है। उनका स्तवन 'चिन्तामणि' के समान फलदायी होता है। इसकी भी एक प्रति जयपुरके श्री बधीचन्दजीके मन्दिरमे रखे हुए गुटका नं० ९२ मे लिपिबद्ध है । इसमें कुल १५ पद्य हैं। नवतत्त्व बाला स्तवन __ यह श्राविका कनकादेवीके लिए रचा गया था। इसमे नवतत्त्वोंका विवेचन है । इसका प्रकाशन दिल्लीसे हो चुका है। ७१. भैया भगवतीदास - (वि० सं० १७३१-१७५५) जैन साहित्यमे भगवतीदास नामके चार विद्वान् हुए है, जिनमे पहले ब्रह्म चारी भगवतीदास थे। उनका उल्लेख पाण्डे जिनदासने 'जम्बूस्वामीचरित्र' में किया है। ये पाण्डे जिनदासके गुरु थे। दूसरे "भगौतीदास' बनारसीदासजीके पंच महापुरुषों में से एक थे, जिनकी प्रेरणासे 'नाटक समयसार' की रचना हुई। तीसरे भगवतीदास भट्टारक महेन्द्रसेनके शिष्य थे, किन्तु वे भट्टारक न होकर 'पण्डित' विशेषणसे विख्यात थे। उनका जन्म अम्बाला जिलेके बूढ़िया गांवमे हुआ था। उनका कुल अग्रवाल और गोत्र बंसल था। वे दिल्लीमे आकर रहने लगे १. अनेकान्त, वर्ष ७, किरण ५-६, पृष्ठ ५४-५५ । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन भौर साहित्य २६९ थे । उनके लिखे हुए लगभग २५ काव्य-ग्रन्थोका पता चला है, उनमे 'लघु सीता सनु', 'अनेकार्थ नाममाला' और 'मृगाकलेखा - चरित' से अधिकांश विद्वान् परिचित है । 'मृगांक लेखाचरित' अपभ्रंशकी रचना है। चौथे भगवतीदास वे है, जिनका उल्लेख पं० हीरानन्दजीने अपने ‘पंचास्तिकाय' के हिन्दी अनुवादमे किया है। श्री नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि ये ही 'ब्रह्म-विलास' के कर्त्ता भैया भगवतीदास है । उनका साहित्यिक काल संवत् १७३७ से १७५५ माना जाता है । भैया भगवतीदास आगरा के रहनेवाले थे । उस समय औरंगजेबका राज्य था, जिसकी आज्ञा अभंग रूपसे बहती थी । नृपतिकी उपकार दृष्टिके कारण इति-भीति कहीपर भी व्याप्त नही थी। भगवतोदासका जन्म ओसवाल कुलमे हुआ था । उनका गोत्र 'कटारिया' कहा जाता है । उनके पितामहका नाम दथरथ साहु था, जो आगरेके वैभव-सम्पन्न पुरुषोंमे से एक थे। वे धर्मात्मा और पुण्यवन्त भी थे । उनके पुत्रका नाम लालजी था। ये हो भैया भगवतीदास के पिता थे। भैयाको धार्मिकता, भक्ति और लक्ष्मी जन्मसे ही मिली थी । उन्होंने भो इस परम्परागत देनको भलीभांति निभाया। उनका समय आध्यात्मिक ग्रन्थोके पठन-पाठन और गृहस्थोचित पट्कर्मोके पालनमे व्यतीत होता था । 'भैया' उनका उपनाम था । प्रायः उसीका प्रयोग है। कही कही 'भविक' और 'दासकिशोर' का भी प्रयोग हुआ है । I ५ भैया एक विद्वान् व्यक्ति थे । प्राकृत और संस्कृतपर तो उनका अटूट अधिकार था । हिन्दी, गुजराती और बंगला भी विशेष गति थी। इसके साथ-साथ उन्हे उर्दू और फारसीका ज्ञान था । उनकी कविताएँ इस तथ्यका निदर्शन है । मारवाड़ी शब्दोका प्रयोग भी अधिक हुआ है । ओसवाल जाति मारवाड़ देशमे उत्पन्न हुई, अतः उसका प्रभाव स्वाभाविक ही हैं । सबसे बड़ी विशेषता है कि उनकी भाषा १. पं० नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बन्बई, पृष्ठ ५३ | २. ब्रह्मविलास में वि० सं० १७३१ से १७५५ तककी ही रचनाएं संगृहीत है । ३. जम्बूद्वीप सु भारतवर्ष । तामे आर्य क्षेत्र उत्कर्ष । तहाँ उग्रसेनपुर थान, नगर आगरा नाम प्रधान ॥ नृपति तहाँ राजे औरंग । जाकी आज्ञा बहै अभंग | इति-भीति व्यापै नहि कोय, यह उपकार नृपति को होय ॥ भैया भगवतीदास, ब्रह्मविलास, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, द्वितीय संस्करण, सन् १९२६ ई०, ग्रन्थकर्त्तापरिचय, पृष्ठ ३०५, पद्य १, ३ । ४. वही, पद्य, ४, ५, पृष्ठ ३०५ । ५. वही, पद्य ६, पृष्ठ ३०५ । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि प्राजल तथा अर्थबोधक है। कठिन रूपक भी आसान प्रतीत होते है। भैयाम आध्यात्मिकता और भक्तिका समन्वय था। वे आध्यात्मिकताके शिखरपर चढ़े थे। उन्होने भक्ति-मरोवरमे स्नान भी किया था। अध्यात्ममूला भक्तिके जैसे दृष्टान्त भैयाको रचनाओमे उपलब्ध होते है, अन्य किसीमे नही। कवि बनारसीदासको भक्ति भी ऐसी ही थी। 'नाटक समयसार' और 'विलास'की अनेक रचनाएं इसका निदर्शन है । किन्तु बनारसी-काव्य अथसे इति तक प्रसाद गुणको ही लेकर चला है. जब कि भैयामे ओज अधिक है । उनका 'ब्रह्मविलास' ओजसे भरा सिन्दूर-घट है। बनारसीका 'शान्तरस' शान्तिकी गोदमे पनपा, जब कि भैयाका वीरताके प्रभंजनमे जनमा, पला और पुष्ट हुआ। अध्यात्म और भक्तिके क्षेत्रमे वीररमका प्रयोग भैयाकी अपनी विशेषता थी। ब्रह्म-विलास _ 'ब्रह्म-विलाम' की रचना वि०सं० १७५५ वैशाख शुक्ला तृतीया रविवारके दिन समाप्त हुई थी। इसका नाम 'ब्रह्म-विलास' स्वयं भैया भगवतीदासका ही दिया हुआ है। इसका प्रकाशन बहुत पहले सन् १९०३ मे जैन ग्रन्यरत्नाकर कार्यालय बम्बईसे हुआ था। इसका द्वितीय सस्करण भी वहाँसे ही सन् १९२६ मे निकल चुका है। इसमें 'भैया'को रत्री हुई ६७ रचनाओका संकलन है। 'द्रव्य संग्रह नामको रचना 'भैया'के मित्र मानसिंहकी रची हुई है । 'चेतनकर्मचरित्र', 'बावीस परीपह', 'मूढाष्टक', 'वैराग्यपचीसिका', 'पंचेन्द्रिय संवाद', 'मनबत्तीसी', 'स्वप्नबत्तीसी' और 'परमात्मशतक' तथा फुटकल कवित्तोमे, आध्यात्मिक विचारोका सरस ढंगसे भावोन्मेष हुआ है। 'जिनपूजाष्टक', 'चतुर्विंशति जिन स्तुति', 'परमात्माकी जयमाल', 'तीर्थंकर-जयमाला', 'मुनिराजजयमाला', 'अहिक्षिति पार्श्वनाथ स्तुति', 'जिनगुणमाला', 'सिज्झाय और परमेष्ठी नमस्कार', 'निर्वाण काण्ड भाषा', 'नन्दीश्वरको जयमाला', 'सुबुद्धि-चौबीसी', 'अकृत्रिम चैत्यालयकी जयमाला', 'परमात्मछत्तीसी,' 'चतुर्विशति जयमाला', और फुटकल विषय भक्तिरससे सम्बन्धित है । १. सनन मत्रह पंच पचास। ऋतु वसंन वैशाख सुमान । शुक्लपक्ष तृतिया रविवार । संघ चतुर्विध को जयकार ॥ ३०५ २. तिहूँ काल के जिन भगवान । वंदन करों जोरि जुग पान । भया नाम भगवतीदास । प्रगट होहु तसु ब्रह्म विलास ॥१०॥ वही, पृष्ठ ३०५। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्क कवि : जीवन और माहित्य भैयाके पदोमे कुछ ऐमा आकर्षण है, जिससे पाठक बच नहीं पाना । एक भक्त भगवान् जिनेन्द्रकी पुप्पाने पूजा करता हुआ कहना है कि हे भगवन् ! इस कामदेवने समूचे विश्वको जीत लिया है, इसी कारग इनको घमण्ड भी बहुत अधिक हो गया है। मुझे पूरा विश्वास है कि आपके चरणोकी शरणमे जानेसे प्रबल कामदेवकी निर्दयताका मै शिकार न हो पाऊंगा । देविए, "जगत के जीव जिन्हें जीत के गुमानी मयौ, ऐसो कामदेव एक जोधा जो कहायो है। ताके शर जानियत फलनि के वृन्द बहु, केतकी कमल कुंद केवरा सुहायो है। मालती सुगंध चारु बेलि की अनेक जाति, चंपक गुलाब जिन चरण चढ़ायो है। तेरी ही शरण जिन जारे न बमाय याको, __ सुमत सों पूजे तोहि मोहि ऐसो भायो है ।।५॥" यह मन मंसारके विभिन्न रसोंमे भटकता फिर रहा है। उमको सम्बोधन करते हुए कवि कहता है कि हे मन! तू कहां दौड़ा हुआ चला जा रहा है, इस देह-रूपी देवालयमे भगवान् केवली रहता है, तू उसकी सेवा क्यों नहीं करता ? "आंख देखै रूप जहां दौड़ तू ही लागे तहां, सुने जहां कान तहां त् ही सुने बात है। जीम रस स्वाद धेरै ताको त् विचार करे, नाक सूंधै बास तहां तू ही विरमात है ।। फर्स की जु पाठ जाति तहां कहो कौन मांति, जहां तहां तेरो नांव प्रकट विख्यात है। याही देह देवल में केवलि स्वरूप देत्र, ताकी कर सेव मन कहां दौड़ जान है ॥१७॥ भक्त जबतक अपने आराध्यको सर्वोत्कृष्ट न समझेगा, उसमें एकतानता नहीं आ सकती । भगवान् जिनेन्द्र ऐसे है जिनके यशको तीनो लोक गाते है । वे सुखदायक और शिवनायक है। उनके दर्शन मात्रसे ही पातक कांप उठते हैं और अनन्त प्रकारके गुण तथा ऋद्धियां प्रकट हो जाती है, "देव एक जिनचंद नाव, त्रिभुवन जस जंपै । देव एक जिनचंद, दरश जिह पातक कंपै॥ १. जिनधर्म पीसिका, ब्रह्मविलास, पृ० २१५ । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि देव एक जिनचन्द, सर्व जीवन सुखदायक। देव एक जिनचन्द, प्रकट कहिये शिवनायक ॥ देव एक त्रिभुवन मुकुट, तास चरण नित वंदिये । गुण अनंत प्रगटहि तुरत, रिद्धि वृद्धि चिरनंदिये ॥१५॥ यह भव-समुद्र बहुत विकट है, उसे पार करना कोई आसान काम नही है, किन्तु भक्त-कविको यह पूरा विश्वास है कि परमात्माके शुद्ध ध्यानमे वह पार हो सकता है, "विकट मौसिंधु ताहि तरिबे को तारू कौन, ___ताकी तुम तीर आये देखो दृष्टि धरिकै । अबकै संमारे ते पार भले पहुँचत हो, अबकै संभारे बिन बूड़त हो तरिक॥ बहुर्यो फिर मिलबो नाहिं ऐसो है संयोग येह, देव गुरु ग्रन्थ करि भाये हिय धरिक । ताहि तू विचारि निज आतम निहारि 'भैया' धारि परमातमाहि शुद्ध ध्यान करिकै ॥७॥" पार्श्व जिनेन्द्रके भक्तमे अपने भगवान्के प्रति अगाध निष्ठा है । वह कहता है कि हे जीव ! तू काहेको इधर-उधर भटकता फिरता है, क्यो तू अन्य देवीदेवताओको सिर झुकाता है। तेरी तो दिन-रातको चिन्ता भगवान् पार्श्व प्रभुकी सेवासे ही नष्ट हो जायेगी, "काहे को देशदिशांतर धावत, काहे रिझावत इन्द नरिंद। काहे को देवि औ देव मनावत, काहे को शीस नवावत चंद ॥ काहे को सूरज सों कर जोरत, काहे निहोरत मढ़ मुनिंद । काहे को सोच करे दिन रैन तू , सेवत क्यों नहिं पार्श्व जिनन्द ॥१४॥ भगवान्के नामको हृदयमे धारण करनेसे हृदय भगवत्त्वके गुणोसे ओतप्रोत हो जाता है। उसमे कुछ ऐसी सद्वृत्तियां आ जाती हैं, जिससे वह सांसारिक दुःख-सुखोंसे छुटकारा पा ही जाता है। भगवान्के नामकी महिमामे अपार शक्ति है, १. वही, फुटकल कविता, पृ०६१। २. वही, शत अष्टोत्तरी कवित्त, पृ०६ । ३. वहीं, फुटकल कविता, पृ० ६१ । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक कवि : जीवन और साहित्य तेरो नाम कल्प वृक्ष इच्छा को न राखे उर, तेरो नाम कामधेनु कामना हरत है। तेरो नाम चिन्तामन चिन्ता को न राखे पास, तेरो नाम पारस सो दारिद डरत है। तेरो नाम अमृत पियेते जरा रोग जाय, तेरो नाम सुखमल दुःख को दरत है। तेरो नाम वीतराग धरै उर वीतरागी, भव्य तोहि पाय भवसागर तरत है ॥३॥ णमोकार मन्त्रके अपनेसे एक ओर तो पाप और भूत-प्रेतादि भाग जाते हैं, तो दूसरी ओर विविध प्रकारके वैभव उपलब्ध होते है। अतः णमोकार मन्त्र का प्रतिदिन ध्यान करना चाहिए, "जहां जपहि नवकार, तहां अघ कैसे आवें। जहां जपहि नवकार, तहां ब्यंतर भज जावें ॥ जहां जपहिं नवकार, तहां सुख संपति होई । जहां जपहिं नवकार, तहां दुख रहै न कोई ॥ नवकार जपत नव निधि मिले, सुख समूह आ सरब । सो महामन्त्र शुमध्यानसों, 'मैया' नित जपबो करब ॥१७॥"* सम्यक्त्वकी जैन शास्त्रोंमें बहुत अधिक महिमा है। सम्यक्त्व धारण करनेवाले सन्त सदैव पूजे जाते रहे है। यहाँ भी एक कवित्तमें उनकी स्तुति की गयी है, "स्वरूप रिझवारे से सुगुण मतवारे से, सुधा के सुधारे से सुप्राण दयावंत हैं। सुबुद्धि के अथाह से सुरिद्धपातशाह से, सुमन के सनाह से महावडे महंत हैं। सुध्यान के धरैया से सुज्ञान के करैया से, सुप्राण परखैया से शकती अनंत है। सबै संघनायक से सबै बोललायक से, सबै सुखदायक से सम्यक के संत है ॥१०॥" १.बही, सुपन्थ कुपन्य पीसिका, पृ०१००। २. वहीं, फुटकर विषय, पृष्ठ २७७ । ३. वही, पुण्य पर्चासिका, पृष्ठ ४ । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि अहिक्षेत्रके पार्श्वप्रभुकी स्तुति करते-करते तो भक्त कवि जैसे भावोंके आधिक्यमे बह ही गया है, "आनंद को कंद किंधों पूनम को चंद किधों, देखिए दिनंद ऐसो नंद अश्वसेन को । करम को हरै फंद भ्रम को करै निकंद, चूरै दुख द्वन्द्व सुख पूरै महा चैन को || सेवत सुरिंद गुन गावत नरिद मैया, ध्यावत मुनिंद तेहू पावें सुख ऐन को । ऐसो जिनचंद करे छिन में सुछंद सुतौ, २७४ ऐक्षित को इंद पार्श्व पूजों प्रभु जैन को ||२०|| " " 'भैया' भगवतीदास और एक किंवदन्ती कहा जाता है कि भैया भगवतीदास, दादूपन्थी बाबा सुन्दरदास और रसिक शिरोमणि श्री केशवदासने एक ही गुरुसे शिक्षा पायी थी। तीनों गुरुभाई थे । केशवदासने अपनी रसिकप्रियाकी एक-एक प्रति दोनों साथियोंके पास भेजी और दोनों ही ने उसकी कड़ी आलोचना की । सुन्दरदासजी द्वारा की गयी उसकी निन्दा 'सुन्दर विलास' में निबद्ध है। भैयाने भी एक छन्द बनाया और उसके मुखपृष्ठपर लिखकर वापस कर दिया। वह छन्द इस प्रकार है, "बड़ी नीति लघुनीत करत है, वाय सरत बदबोय मरी । फोड़ा आदि फुनगुणी मंडित, सकल देह मनु रोग दरी ॥ शोणित हाड़ मांसमय भूरत, वापर रीशत घरी घरी । ऐसी नार निरख कर केशव, रसिक प्रिया तुम कहा करी ||१९|| १३ इस भाँति 'भैया', केशवदास के समकालीन थे । किन्तु केशवदासका स्वर्गवास वि० सं० १६७० में हो गया था। आचार्य रामचन्द्र शुक्लके अनुसार, उनका जन्म सं० १६१२ और मृत्यु सं० १६७४ के आस-पास हुई । रसिकप्रियाकी रचना वि० सं० १६४८ में हुई थी। इससे प्रमाणित है कि भैयाका जन्म वि० सं० १६४८ से कमसे कम २५ वर्ष पूर्व तो हुआ ही होगा। तभी तो १. वही, अहिक्षित पार्श्वनाथकी स्तुति, पृष्ठ १६२ | २. ब्रह्मविलास, सुपन्थ कुपन्थ पचीसिका, पृष्ठ १८४ ३. पण्डित रामचन्द्र शुक्लकृत, हिन्दी साहित्यका इतिहास, संशोधित और परिवर्धित संस्करण, १६६७ वि० सं०, पृष्ठ २५० । ४. वही, पृष्ठ २५७ ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य दोनों साथ-साथ पढ़ सके होंगे, किन्तु भैयाका साहित्यिक काव्य १७३१-१७५५ निश्चित है, तो फिर यह तो हो मकता है कि सं० १७०० से दस-बारह वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ हो, किन्तु १७वी शताब्दीका प्रथम पाद तो किसी भी दशामे प्रमाणित नहीं होता । सम्भावना तो यह है कि भैयाने अपने साहित्यिक कालमे 'रसिकप्रिया' कहीसे भी लेकर पढ़ी होगी और उसपर यह कवित्त रच डाला होगा। ___ यह भी सच है कि भैयाने केशवके अश्लील शृंगारको भले ही दुरदुराया हो किन्तु उनकी अलंकारप्रियतासे वे अवश्य ही प्रभावित हुए थे। उनके काव्यमें रूपक, यमक, अनुप्रास और चित्रालंकारोंकी भरमार है। रूपकके लिए उनके 'चेतन कर्म चरित्र', 'शत अष्टोत्तरी' और 'मधुविन्दुक चौपाईको लिया जा सकता है । यमकका एक दृष्टान्त, इस प्रकार है, "उजरे भाव अज्ञान, उजरे जिहँ तें बंधे थे। उजरे निरखे भान, उजरे चारहु गतिन तें ॥६॥" 'ब्रह्म विलास' अनुप्रासकी छटासे तो व्याप्त ही है। कई भापाओंके ज्ञाता होनेसे 'भैया'का शब्दज्ञान परिपुष्ट था। उसीके बलपर पदे-पदे अनुप्रासका सौन्दर्य बिखर सका । सबसे बड़ी बात है उसकी स्वाभाविकता। केगवकी भांति प्रयत्नपूर्वक खींचतान नहीं है। इसी कारण कृत्रिमता नही है। सहज गति है। ऐसे ही अनुप्रासोंके निर्झरसे जब वीररस फनफनाकर बह उठता है, तो चित्र-सा खिच जाता है, "अरिन के ठट्ट दह वट्ट कर डारे जिन, करम सुमन के पट्टन उजारे हैं। नर्क तिरजंच चट पट्ट देके बैठ रहे, विषेचौर झट्ट झट्ट पकर पछारे हैं। मौ बन कटाय डारे भट्ट मद दुट्ठ मारे, मदन के देश जारे क्रोध हु संहारे है। चढ़त सम्यक्त सूर बढ़त प्रताप पूर, सुख के समूह भूर सिद्ध के निहारे हैं। चित्रबद्ध कविता 'ब्रह्मविलास' के पृ० २९२ से ३०४ तक संकलित है । उसमे १. यमकके लिए परमात्मशतकके ३-१५, २०, २५, २६, ४० और ४१वें दोहोंको देखिए ब्रह्मविलास, पृष्ठ २७६-२८५ । २. "हे आत्मन् ! अज्ञान भाव । ( उजरे ) उजड़े अर्थात् विनाशको प्राप्त हुए, जिनसे आत्मा ( उजरे ) उजले अर्थात् प्रगट रूपसे बन्द हो रहा था। और जब ज्ञानसूर्य (उजरे ) उज्ज्वल देखे गये, तब चारों गतियोसे उजरे अर्थात् छूटे, जिसका अर्थ है सिद्धावस्थाको प्राप्त हुए।" ब्रह्मविलास, परमात्मशतक, पद्य ६, हिन्दी अनुवाद, टिप्पणी, पृ० २७६ । ३. ब्रह्मविलास, फुटकर कवित्त, पृ० २७३ । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अन्तापिका और बहिर्लापिका भी निबद्ध हैं। चित्रबद्ध कविताओंकी परम्परा जैनोंमें बहुत पुरानी है। संस्कृतके जैन रीति-ग्रन्थोके कर्ताओंने भी चित्रबद्धकविताकी रचना पर्याप्त मात्रामे की है। ७२. शिरोमणिदास (वि० सं० १७३२ ) शिरोमणिदास नामके तीन कवि हुए है। उनमे प्रथम शिरोमणि मिश्र थे। उन्होने सं० १६७४में 'जसवन्त विलास की रचना की थी। दूसरे शिरोमणिदास भी ब्राह्मण थे। वे शाहजहाँके दरवारमें रहते थे। वहां उनकी प्रतिष्ठा थी। उनका समय १७०० के आस-पास माना जाता है। प्रस्तुत शिरोमणिदास पण्डित गंगादासके शिष्य थे। उनकी जैन धर्ममें निष्ठा थी। उन्होंने तत्सम्बन्धी ग्रन्थोका ही निर्माण किया। ऐसा प्रतीत होता है कि ये भट्टारक सकलकीर्तिसे प्रभावित थे। उनके उपदेशोंसे प्रेरित होकर ही इन्होने नगर सिंगरौनमे रहकर एक बृहद् ग्रन्थका निर्माण किया था। उस समय सिंगरौनमें राजा देवीसिह राज्य करते थे। इस ग्रन्थका नाम 'धर्मसार' था। 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका के खोज-विवरणोंमे जिस 'धर्मसार का उल्लेख है, उसकी समाप्ति आगरेमे मानी गयी है। और भट्टारक सकलक्रीतिसे प्रभावित होनेकी कोई बात नहीं है। इसका समर्थन इनके रचे हुए एक दूसरे ग्रन्थ 'सिद्धान्त शिरोमणि से भी होता है, जिसमें उन्होने श्वेताम्बर यतियों और दिगम्बर भट्टारकों दोनों ही को खरी-खरी सुनायी है। इनकी रचनाओंमें सम्यक्त्व प्रधान है। उन्हें बनारसीदासक 'अध्यातमियाँ' सम्प्रदायकी परम्परामें गिना जाना चाहिए । वे आगरेके ही रहनेवाले थे। ___ अभीतककी खोजोंमे उनकी दो रचनाएं उपलब्ध हुई है-'धर्मसार' और सिद्धान्त शिरोमणि' । दोनों हो में भक्ति-कालकी मुख्य-मुख्य प्रवृत्तियां प्रधान है। 'सिदान्त शिरोमणि'मे धर्मके नामपर आडम्बरके विरोधमे विद्रोह है, जैसा कि सन्त कवियोंमें था। 'धर्मसार में निर्गुण और सगुण भक्तिका समन्वय है । उसमें मनको सम्बोधन कर-करके संसारके माया-मोह और अपने शुद्ध रूपको प्राप्त करनेकी प्रेरणा है तथा तीर्थकर, जिनवाणी और पंचपरमेष्ठीको वन्दना भी है। १. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, पृ० ४२४ । २. वही, पृ० ४१८। ३. का ना० प्र० पत्रिकाका पन्द्रहवाँ त्रैवार्षिक विवरण, संख्या २००, अन्तिम प्रशस्ति । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य सिद्धान्त शिरोमणि यह एक छोटी-सी रचना है। इसमें सम्यक्त्वको सही परिभाषाका विश्लेषण है । मध्यकालमें धर्मके नामपर बढ़ते शिथिलाचारका प्रभाव जैनोपर भी पड़ा था। श्वेताम्बर यति और दिगम्बर भट्टारक उसके प्रतीक थे। शिरोमणिदासने उनकी खरी आलोचना की। उन्हें जन-विरोध सहना पड़ा । उन्होंने परवाह नही की। जो आत्माको सही आवाज न सुन सके, वह क्या कानवाला कहलायेगा ! उनकी निर्भीकता कबीर-जैसी यो किन्नु कबीर जैसा मस्तानापन नहीं था। कबीरने तो मर्यादा मानी ही नहीं। वे उसके धेरैमें कभी न घिरे, शिरोमणिदास घिरे , किन्तु उसको गलत बन्दिशको कभी स्वीकार नहीं किया। शिरोमणिदासके दो पद्य है, "नहीं दिगम्बर नहीं वृत धार, ये जती नहीं मव ममैं अपार । यह सुन के कछु लीजे सार, उत्तर चाही मव के पार ॥५७॥ सिद्धान्त सिरोमनि सास्त्र को नाम, कीनौ समकित राषिबै कै काम । जो कोउ पढे सुनै नर नारि, समकित लहै सुद्ध अपार ॥५४॥" धर्मसार इसकी रचनाके विषयमे दो संवत् उपलब्ध होते है । प्रामाणिक पांच प्रतियोंमे इसका रचना-संवत् १७३२ वैशाख सुदी ३ पड़ा हुआ है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति, जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमे, वेष्टन नं० ८६९ मे बंधी रखी है। जिस प्रतिपर रचना-संवत् १७५१ पड़ा हुआ है, उसका उल्लेख 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका'के पन्द्रहवें वार्षिक विवरणको संख्या २२० पर हुआ है। सम्पादकोंको यह प्रति जैन मन्दिर कठवारी, डा० रुनुकता, जिला आगरासे प्राप्त हुई है। इस संवत्का समर्थन करनेवाला दोहा देखिए, "संवत सत्रै सै इकावना, नगर आगरे माहिं । ___ भादों सुदि सुष दूज को, बाल पाल प्रगटाय ॥" पं० नाथूरामजी प्रेमीने वि० सं० १७३२ को ही रचनाकाल माना है। १. हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृ० १६८ । २. संवत् १७३२ वैशाख मान उज्ज्वल पुनि दोस । तृतीया अक्षय शनीसमेत भविजन को मंगल सुखदेत ॥ देखिए, श्री मन्दिरजी कुँचा सेठ दिल्लीकी हस्तलिखित प्रति । ३. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बम्बई, १६१७ ई०, पृष्ठ ६७ । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ हिन्दी जैन भक्ति कान्य और कवि हो सकता है १७५१ लेखनकाल हो । 'धर्मसार में ७६३ दोहा-चौपाई हैं। एक भक्ति-भरा पद्य है, “वीर जिनेसुर पुनवौं देव । इन्द्र नरेन्द्र कर तुम सेव । और वन्दौं हूँ गुरु जिन पाय । सुमिरत तिनके पाप नसाय ॥ बरतमान नो जिन पर ईस । कर जोरू जिन नाऊँ सीस । जै जिनेन्द्र भवि मुनि कहैं । पूजहूर्त में सरमन गहैं।" ७३. द्यानतराय (जन्म वि० सं० १७३३, साहित्यिक काल १७८०) द्यानतराय आगरेके रहनेवाले थे। इनका जन्म अग्रवाल वंश और गोयल गोत्रमे हुआ था। इनके पिताका नाम श्यामदास और पितामहका नाम वीरदास था। इनके पूर्वज लालपुरके निवासी थे और वहांसे ही आगरेमे आकर रहने लगे थे। द्यानतरायका जन्म वि० सं० १७३३ मे आगरेमें हुआ। शिक्षा भी ठीक ढंगसे हुई। एक ओर तो उन्हें उर्दू-फारसीका ज्ञान कराया गया और दूसरी और संस्कृतके माध्यमसे धार्मिक ग्रन्थोंका पठन-पाठन हुआ। अतः उन्हें संस्कृत और फ़ारसी दोनों ही का ज्ञान था। उनकी भाषापर भी दोनोंकी छाप है। जहांतक भाव-धाराका सम्बन्ध है, उन्होंने फ़ारसी साहित्यसे कुछ नहीं लिया, सब कुछ संस्कृत साहित्यसे ही अनुप्राणित है। साहित्यिक-परम्परा, जिसका उन्होंने अनुकरण किया, विशुद्ध भारतीय है। ___कवि जब केवल १५ वर्षके थे, अर्थात् वि० सं० १७४८ में उनका विवाह हो गया। उन्होंने गृहस्थाश्रमका बड़ा ही करुणा-भरा चित्र अंकित किया है। हो सकता है कि उनका गृहस्थ जीवन दुःखोंसे ओत-प्रोत रहा हो। एक स्थानपर उन्होने लिखा है, "न तो रोजगार ही बनता है और न घरमें ही धन है। खानेको बहुत फ़िकर है और पत्नी गहना चाहती है। कही उधार नहीं मिलता। साझोदार चोर स्वभावके हैं, घरमें धन नहीं आ पाता। एक पुत्र ज्वारी हो गया और एक मर गया। पुत्री जब ब्याहके योग्य हुई तो उसका विवाह कर दिया, किन्तु विवाहोपरान्त वह भी दिवंगत हो गयी। इन सुख-दुःखोंको जो जानता है, उसका भला क्या कहना?" १. रुजगार बन नाहिं धन तो न घर माहिं खाने की फिकर बहु नारि चाहै गहना। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २७९ उस समय आगरेमें मानसिंह और बिहारीदास जैन धर्म के घुरन्धर विद्वान् कहे जाते थे । वे आध्यात्मिक चर्चाओंके केन्द्र थे । 'मानसिंहकी सैली' तो अत्यधिक प्रसिद्ध थी । द्यानतराय उनसे बहुत प्रभावित हुए, और दोनों ही को अपना गुरु बनाया । इस भाँति वि० सं० १७४६ में उन्होंने जैनधर्मसम्बन्धी सुदृढ़ निष्ठा प्राप्त की। यह निष्ठा रुकी नहीं, आगे चलकर जैन-भक्तिके रूपमें विकसित हुई । द्याननरायने अनेकानेक जैन पूजाओंका निर्माण किया । उन्होंने आध्यात्मिक पदोंकी भी रचना को, जो 'धर्मविलास' में संकलित हैं। वैसे तो जैन - भक्तिकी परम्परा निरन्तर चली आ रही थी, किन्तु हिन्दी पूजाओंके रूपमें ऐसा सरल योगदान, सिवा द्यानतरायके कोई दूसरा न दे सका था । उन्होंने वि० सं० १७७७ में शिखरजीकी यात्रा भी की थी। वि० सं० १७८० मे वे दिल्लीमे आकर रहने लगे । वहाँ पण्डित सुखानन्दजी धर्म- चर्चाओके जीवन्त केन्द्र थे । उनके संसर्गसे कविका भक्ति प्रवण हृदय उत्तरोत्तर विकसित होता गया, और आज वे अपनी रचनाओंमें अमर है । धर्मविलास' यह द्यानतरायकी समूची रचनाओंका संकलन है। इसकी समाप्ति वि० सं० १७८० में हुई थी । उस समय कवि महोदय आगरेसे दिल्लीमें आकर रहने लगे थे । इसमें केवल पदोंकी ही संख्या ३३३ हैं, कुछ पूजाएं हैं और अन्य ४५ विषयोंपर भी लिखा गया है । ग्रन्थके साथ विस्तृत प्रशस्ति भी निबद्ध है, जिससे तत्कालीन आगरेकी सामाजिक परिस्थितिका अच्छा परिचय मिलता है ।" देने वाले फिरि जाहि मिले तो उधार नाहि साझी मिले चोर घन आवै नाहि लहना ॥ कोऊ पूत ज्वारी भयो घर माहिं सुत थयो, एक पूत मरि गयौ ताको दुख सहना । पुत्री वर जोग भई व्याही सुना जम लई, एते दुःख सुख जाने तिसे कहा कहना ॥ धर्मविलास, कलकत्ता, अन्तिम प्रशस्ति । १. कुछ अंशोंको छोड़कर शेषका प्रकाशन जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्तासेहो चुका है। २. इधै कोट उ बाग जमना बहै है बीच, पच्छिम सों पूरब लों असीम प्रवाह सौं । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ___कविको अहंकार बिलकुल नहीं था। विनय और लघुताका भाव ही प्रबल था। इस रचनाके अन्तमे अपनी लघुता दिखाते हुए कविने कहा, "अक्षरोंसे तुक हुई और तुकसे छन्द बने । छन्द और अर्थ मिलकर आगम बना। किन्तु इस आगम, अर्थ और सुछन्दके कर्ता हम नहीं है। यह तो गंगाका जल लेकर गंगाको ही अर्घ्य दिया गया है। हमने तो अनादि अनन्त शन्द-गंगासे ज्ञान लिया और उसीको समर्पित कर दिया।" इस रचनाके कतिपय पदोंको भावसहित नीचे दे रहा हूँ। उससे स्पष्ट हो जायेगा कि द्यानतराय कठिनसे कठिन भावको भी आसान भाषामें व्यक्त कर सकते थे। ___ भगवान्ने, सेठ सुदर्शन, सती सीता, वारिषेण, श्रीपाल और सोमापर आनेवालो विपत्तियोंको दूर किया। इससे वे अत्यधिक सुखी हुए। किन्तु न जाने क्यों भगवान्ने मेरे समय बहुत विलम्ब किया है। मुझे अभीतक उनकी कृपा प्राप्त नहीं हुई। ऐसा उपालम्भ देते हुए भक्त कहता है, "मेरी बेर कहा ढील करी जी। सूली सों सिंहासन कीना, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी ॥ सीता सती अगनि में बैठी, पावक नीर करी सगरी जी। वारिषेण पै खडग चलायो, फूल माल कीनी सुथरी जी॥ धन्या वापी परथो निकाल्यो, ता घर रिद्ध अनेक मरी जी। सिरीपाल सागर ते तारयो, राजमोग कै मुकति वरी जी ॥ सांप कियो फूलन की माला, सोमा पर तुम दया धरी जी। 'द्यानत' में कछु जांचत नाही, कर वैराग्य दशा हमरी जी ॥" द्यानतरायके उपालम्भ अत्यधिक सरस होते है। उनमे भावप्रवणता और हृदयको छूनेको सामर्थ्य होती है। भक्तने भगवान्से कहा कि - आप दीनदयालु कहलाते हैं, किन्तु हम दीन इस संसारमें ही मर-खप रहे हैं और आप स्वयं मोक्ष अरमनी कसमोरी गुजराती मारबारी, नरौ सेती जामै बहु देस बसैं चाह सौं। रूपचंद बानारसी चंद जी भगौतीदास, जहां भले भले कवि द्यानत उछाह सौं। ऐसे आगरे की हम कौन भांति सोभा कहें, बड़ो धर्म थानक है देखिए निगाह सौं। धर्मक्लिास, कलकत्ता, अन्तिम प्रशस्ति, ३०वाँ पद्य । १. वही, ५४वाँ पद्य। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भन कवि : जीवन और माहित्य २८. में जा बैठे हैं। हम मन, वचन, कायसे तुम्हारा नाम जपते है, लेकिन तुम हमें कुछ नहीं देते। हम भले-बुरे जो कुछ भी है, तुम्हारे भक्त है । हम अपराधी हैं, किन्तु आप तो कम्णाके ममुद्र हो। हे भगवन् ! केवल एक बार हमको इस भवमे निकाल लो, "नुम प्रभु कहियत दीनदयालु । मापन जाय मुकति मैं बैठे, हम जु रुलत जग जाल । नुमरो नाम जपं हम नीके, मन वच तीनों काल । तुम तो हमको कछ देत नहि, हमरो कौन हवाल | भले बुरे हम भगत तिहार, जानत हो हम चाल । और कछु नहिं यह चाहत हैं, राग दोष को टाल ॥ हम सौं चूक परो सो बकसो, तुम तो कृपा-विसाल । धानत एक बार प्रभु जगत, हमकों लेहु निकाल तुम०॥" मनको एकाग्र किये बिना कुछ नहीं हो सकता । योग, समाधि, जप, तप और पूजादि सभी मनको एकाग्रता तो अभीष्ट है ही। परमेश्वरके प्रति सत्य रहनेसे और लौकिक वैभवोंकी चाह छोड़ देनेसे मनमे स्थिरता आती है। स्थिर मनसे ही वह तप तपा जा सकता है. जिससे फिर न तपना पहे. स्थिर मनसे ही वह जप जपा जा सकता है, जो फिर न जपना पड़े। स्थिर मनसे ही वह व्रत किया जा सकता है जो फिर न करना पडे, और स्थिर मनसे ही ऐसी मौत मरा जा सकता है जो फिर न मरना पड़े। पंचपरमेष्ठियोंकी शरणमें जानेसे मनमे एकाग्रता तो आती ही है, पंचेन्द्रियाँ भी वशमें हो जाती है, "ऐसो सुमिरन कर मेरे माई, पवन भै मन कितहुं न जाई । परमेसुर सौं साँच रहीजै, लोकरंजना को तज दीजै ॥ जप अरु नेम दोउ विधि धार, आसन प्राणायाम संमार । प्रत्याहार धारना कीजे, ध्यान समाधि महारस पीजै ।। सो तप तपो बहुरि नहिं तपना, सो जप जपो बहुरि नहिं जपना । सो व्रत धरो बहुरि नहिं धरना, ऐपो मरो बहुरि नहिं मरना । पंच परावर्तन लखि लीजै, पांचों इन्द्री को न पनीजै । 'धानत' पांचों लच्छि लहीजै, पंच परम गुरु शरन गहीजे ॥" पूजा-साहित्य द्यानतरायने अनेकानेक पूजाओंका निर्माण किया। कुछ तो प्रतिदिन मन्दिरमें पढी जाती है और कुछ केवल पर्वके दिनोमें ही । ये मुख्य है' : देवशास्त्रगुरु पूजा, १. सभी 10 पन्नालालजी बाकलीवाल-द्वारा सम्पादित वृहज्जिनवाणी संग्रहमें प्रकाशित हो चुकी हैं और कुछ भारतीय ज्ञानपीठ पूजांजलि में भी छपी हैं। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि बीस तीर्थकर पूजा, विदेहक्षेत्र पूजा, पंचमेरु पूजा, दशलक्षण धर्मपूजा, सोलह कारण पूजा, रत्नत्रय पूजा, निर्वाण क्षेत्र पूजा, नन्दीश्वर द्वीप पूजा, अष्टाह्निका पूजा, सिद्धचक्र पूजा, सरस्वती पूजा । इनमे-से देवशास्त्रगुरु पूजाकी अधिक ख्याति है। देवसे तात्पर्य साक्षात् भगवान अरिहन्तसे है, साधारण देवोसे नही। शास्त्रपूजाका अर्थ उन शास्त्रोसे हैं, जिनमे भगवान् अर्हन्त के मुंहसे निकले हए दिव्य वचन निबद्ध है। आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु माने गये है। वे ही संसार-समुद्रसे पार करनेके लिए जहाजके समान है। तीनो ही की समुच्चय रूपसे अष्ट द्रव्योसे पूजा की गयी है। तीनों हो 'रतन' के ममान है, जिनको भक्तिसे 'परमपद' प्राप्त होता है, "प्रथम देव अरहंत सुश्रुत सिद्धान्त जू । गुरु निरग्रन्थ महंत मुकतिपुर पंथ जू॥ तीन रतन जगमाहिं सो ये भवि ध्याइये । तिनकी भक्ति प्रसाद परम पद पाइये ॥१॥ पूजों पद अरहंत के, पूजों गुरु पद मार। पूजों देवी सरस्वती, नितप्रति प्रष्ट प्रकार ॥२॥" सोलह कारण पूजामे गम्भीर गुणवाले जिनेन्द्रके चरणोपर कंचन-झारीसे निर्मल-नीर चढ़ाते हुए भक्त भाव-विभोर होकर जय-जयकार करते हुए एक लयमे कह उठता है : "कंचन-भारी निरमल नीर पूजों जिनवर गुन-गंभीर । परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरशविशुद्धि भावना माय सोलह तीर्थकर-पद-दाय । परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥" पंचमेरुओंको पूजामे संगीतकी लय है । पंचमेरुओके अस्सी जिन मन्दिर और सब प्रतिमाओंको नमस्कार करते हुए भक्त कहता है, हे नाथ ! आपको देखकर मुझे ऐसा सुख होगा, जिसे 'परम सुख' के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। "सीतल-मिष्ट-सुवास मिलाय, जल सों पूजौं श्री जिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पाँचों मेरु असी जिन धाम, सब प्रतिमा को करों प्रनाम । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥" १. शानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०६ ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक कवि : जीवन और साहित्य २०३ नन्दीश्वरके ५२ चैत्यालय और उनमें विराजमान प्रतिमाओंमे में कुछ ऐसा तेज फूटता है, जिसके समक्ष करोड़ो चन्द्र और मूर्योको दुति भी फोकी है। ने वचनसे नहीं बोलने, किन्तु उनको तो देखने- मामे ही मम्यक्त्व पैदा हो जाता है : "कोटि-शशि-मान-दुति-नेज छिप जान है। महा-बैराग-परिणाम ठहरात है ।। वयन नहिं कह लखि होत सम्यक्वरं । मौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकर ॥२॥" 'निर्वाण-क्षेत्र-पूजा'को जयमालामे 'सम्मेदशिखर' की महिमाका वर्णन करते हुए कविने कहा कि एक बार जो कोई उसको वन्दना कर लेता है, उमे फिर नरक-पशु-गति नही होती है। नर-पति देव-पति बन जाता है। वह इहलौकिक भोगोंको भोगकर भी शिव-सुखको पा लेता है। सम्मेदशिखर विघ्नोंका विनाश करके कल्याण करनेवाला है। उममे ससारसे पार लगानेको सामर्थ्य है. "बीसों सिद्ध भूमि जा ऊपर। शिखर सम्मंद-महागिरि भू पर ॥ एक बार बंद जो कोई। ताहि नरक-पशु-गनि नहिं होई ॥८॥ नरपति नृप सुर शक्र कहावै । तिहुँ जग-मोग मोगि शिव पाचै । विघ्न-विनाशन मंगलकारी। गुण-विलास बंदौ भवतारी ॥९॥" स्तोत्र-साहित्य द्यानतरायने 'स्वयम्भू स्तोत्र', 'पार्श्वनाथ स्तोत्र' और 'एकीभाव स्तोत्र'को रचना की थी, जिनमें प्रथम दो मौलिक और अन्तिम श्री वादिराज सूरिके संस्कृत 'एकीभाव स्तोत्र' का भावानुवाद है। स्वयम्भ स्तोत्रमे चौबीस पद्य है। चौबीस तीर्थकरोम-से प्रत्येकको महिमामे एक-एकका निर्माण हुआ है। यह स्तोत्र प्रायः पूजाओकी समाप्तिपर पढा जाता है । भगवान् पार्श्वनाथ और वर्द्धमानकी महिमामे बने हुए दो पद्य देखिए। "देत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि आयो फनिधार । गयो कमठ शठ मुख कर श्याम, नमों मेरु सम पारस स्वाम ॥२३॥ भव सागर तें जीव अपार, धरम पोत मैं धरे निहार । डूबत काढ़े दया विचार, वदमान वंदौं बहुबार ॥२॥" Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि 'पार्श्वनाथ स्तोत्र' प्रसिद्ध हैं । इसमे संगीतकी लय है और भावोंका प्रवाह | वह भगवान् दुःखियोंके दुःखको हरनेवाला, सुख देनेवाला और सेवकोंके हृदय में महान् आनन्दको वर्षा करनेवाला है। उसके सेवको के पास भय तो फटकता हो नहीं । वह भगवान् दरिद्रोंको धन, अपुत्रोंको पुत्र भी देता है । देखिए, "दुखी दुःखहर्त्ता सुखी सुक्खकर्त्ता । सदा सेवकों को महानन्द भर्त्ता ॥ हरे यक्ष राक्षस भूतं पिशाचं । विषं डांकिनो विघ्न के भय भवाचं ॥ ३॥ दरिद्वीन कों द्रव्य के दान दीने । पुत्रीन को तू मले पुत्र कीने ॥ महासंकटों से निकारै विधाता । सबै संपदा सर्व को देहि दाता ॥ ४ ॥ " २८४ आरती साहित्य द्यानतरायको पाँच आरतियाँ 'जिनवाणी संग्रह 'मे प्रकाशित हो चुकी है । ये पाँचों क्रमशः 'इह विधि मंगल आरति कीजै', 'आरति श्री जिनराज तिहारी', 'आरति कीजै श्री मुनिराज की', 'करों आरती वर्द्धमान की', और 'मंगल आरती आतमराम' से प्रारम्भ होती है । प्रथम आरती पंचपरमेष्ठीकी भक्ति में रची गयी है । वे भव-समुद्रसे तारनेवाले, भव-फेरीको मिटानेवाले, जन्म-मरणके दुःखोंको दूर करनेवाले, पापोंको हटानेवाले और कुमतिका विनाश करनेवाले हैं । द्वितीय आरती श्री जिनराजकी आरती है, जो कर्मोका दलन करनेवाले और सन्तोंके हितकारी है । वह भगवान् ही सब देवोंका देव है और सुर-नर-असुर सभी उसकी सेवा करते है । जो कोई उसकी शरणमें गया वह भव- समुद्रसे तिर गया । भगवान्के गुण इतने अधिक हैं कि गणधर भी पार नहीं पा पाते। वह भगवान् करुणाका सागर है और अपने भक्तको सदैव सुख देता है, "सुर नर असुर करत तुम तुमहीं सब देवन के आरति श्री जिनराज करम दलन संतन भव भय मीत शरन ते परमारथ पंथ १. बृहज्जनवाणी संग्रह, पृष्ठ ५१७ १ सेवा । देवा ॥ तिहारी । हितकारी || जे आये । लगाये ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य जो तुम नाम जपै मन माहीं। जनम मरन भय ताको नाहीं॥ तुम गुण हम कैसे करि गावें। गणधर कहत पार नहिं पावै ।। करुणासागर करुणा कीजे। धानत सेवक को सुख दीजे ॥" तृतीय आरती श्री मुनिराजको है, जो अधर्मोका उद्धार करनेवाले है । उनके चरित्रका गुणगान करते हुए कवि कहता है, "वे शत्रु-मित्र और सुख-दुःखको समान मानते है तया लाभ और अलाभको भी बराबर समझते है।'' चतुर्थ आरती भगवान् महावीरको भक्तिमे रची गयी है। वे भगवान् मनुष्योको तारनेमें भी वैसे ही पटु हैं, जैसे कि अपने कर्मोके विदीर्ण करनेमे । वे शीलवानोंमे सर्वोत्कृष्ट है और 'शिव-तिय' का भोग करनेवाले हैं। वे मन-वचन और कायसे योगी है, "राग-विना सब जग जन तारे; द्वेष विना सब करम विदारे । करौं भारती वर्द्धमान की, पावापुर निरवान था। की ॥१॥ शील धुरंधर शिवतिय मोगी, मनवचकानि कहिये योगी ॥ करौं आरती वईमान की। पावापुर निरवान थान की ॥२॥" पंचम आरती आतमरामको है। इसमें एक उत्कृष्ट रूपक है। आत्मा ही भगवान् राम है। वह भगवान् तनरूपी मन्दिरमें विराजमान है। भक्त अष्ट द्रव्योंसे उसको पूजा करता है। समरसका आनन्द ही जल-चन्दन है, तत्त्वस्वरूप तन्दुल, अनुभव-सुख नैवेद्यका भरा हुआ थाल, ज्ञान दोपक, ध्यान धूप और निर्मल-भाव महाफल है। सबको मिलाकर अर्घ्य बन जाता है। इस भांति भविक जन जो नवधा-भक्तिमें प्रवीण है, सगुणकी भांति ही आत्मारूपी राममें एकनिष्ठ हो तल्लोन हो रहे हैं। देखिए, "मंगल आरतो आतमराम । तन मंदिर मन उत्तम ठान । समरस जल चंदन आनंद । तंदुक तत्व स्वरूप अमंद ।। समयसार फूलन की माल । अनुभव सुख नेवज भरि थाल । दीपक ज्ञान ध्यान की धूप । निर्मल माव महाफक रूप ।। सुगुण भविक जन इकरस लीन । निहचै नवका मक्ति-प्रवीन ॥" १. बृहज्जिनवाणी संग्रह, पृष्ठ ५१६ । २. शानपीठ पूजांजलि, खण्ड ७, पृष्ठ ५३४ । ३. बृहजिनवाणी संग्रह, पृ० ५२२ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि जब कोई व्यक्ति अत्यधिक उत्साह के साथ अन्तर्हृदयमे विराजमान परमात्माका ध्यान लगायेगा, तो यह सिद्ध बात है कि ध्यानकी उत्कृष्ट अवस्थामे वह परमात्मामय हो जायेगा, अर्थात् वह और उसका साहब एक हो जायेगा । जैन लोग ऐसे ध्यानको शुक्ल ध्यान कहते है । द्यानतरायने भी ऐसा ही कुछ कहा है, २८६ "धुनि उतसाह सु अनहद गान । परम समाधि निरत परधान || बाहिर श्रातम भाव बहावै । अन्तर है परमातम ध्यावै ॥ साहब सेवक भेद मिटाय । यात एकमंक हो जाय ॥ " समाधिमरण द्यानतरायका रचा हुआ समाधिमरण छोटा समाधिमरण कहलाता है। इसमे कुल दस पद्य है | यह 'बृहज्जनवाणी संग्रह' मे प्रकाशित हो चुका है। धर्म पच्चीसी इसमे कुल २७ पद्य है । यह भी उपर्युक्त 'जिनवाणी संग्रह' में निबद्ध है । इसमे जैन धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा प्रदर्शित की गयी है। एक स्थानपर कविने कहा है कि जैन धर्मके बिना मनुष्य वैसे ही है जैसे चन्द्रके बिना रात्रि, दाँतके बिना हाथी, और कन्तके बिना तरुण नारी, "चंद विना निश गज विन दंत । जैसे तरुण नारि विन कंत ॥ धर्म विना यों मानुष देह । तातैं करिये धर्मं सनेह ॥ " नीरके बिना सरोवर शोभा नही पाता, गन्धके बिना पुष्पका कुछ मूल्य नहीं और घनके बिना घरमे कोई सौन्दर्य नही आ पाता, ठोक वैसे ही धर्मके बिना मनुष्य भी सुशोभित नहीं होता, " जैसे गंध बिना है फूल । नीर विहीन सरोवर धूल ॥ ज्यों धन बिन शोभित नहिं मौन । धर्म विना नर स्यौं चितौन ॥३३॥" 1 कमला चपल है और यौवन जरामे बदल जाता है। सुत, मित्र और नारीका संयोग भी क्षणिक है । संसारका भोग स्वप्नके समान है । यह देखकर शुद्ध स्वभावसे जैन धर्म में श्रद्धा रखनी चाहिए। जैसा भाव होगा वैसी ही गति मिलेगी, "मला चपल रहे थिर नाय । यौवन कांति जरा लपटाय || सुमित नारी नाव संजोग । यह संसार सुपन का मोग ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मत कवि : जीवन और साहित्य यह लखि चित धर शुद्ध मुमाव । कीजे श्री जिनधर्म उपाय ॥ यथामाव जैसी गति गहै । जैसी गनि तैमा मुग्व लहै ॥१६॥" अध्यात्म पंचासिका इममे ठीक पचास पद्य है, जैसा कि इसके नामसे भी स्पष्ट है। इसको 'सम्बोध पचामिका' भी कहते है । इममे कहा गया है कि विशुद्ध आत्माके पास होते हुए भी यह जीव इधर-उधर भटकता फिरता है । भ्रमाकुलिन जीवकी दशा विविध दृष्टान्नोसे व्यक्त की गयी है। "जैसे काहू पुरुष के द्रव्य गव्यो घर माहि । उदर भरै कर मीग्व ही, ब्यौरा जानैं नाहिं ।।१३।। ता नर सों कि नहीं कहीं तू क्यौ मांग भीख । तर घर मैं निधि गड़ी, दीनी उत्तम सीख ॥१४॥" अन्य रचनाएँ द्यानतरायकृत कुछ रचनाओंकी सूचना 'राजस्थानके जैन शास्त्र भण्डारीको ग्रन्थ-सूची भाग ३'से भी प्राप्त हुई है। इसमें १०८ नामोंको गुणमाला' 'दशस्थान चौबीसी' और 'छह ढाला' प्रसिद्ध हैं। 'दशस्थान चौबीसी'में चौबीस तीर्थंकरोंके नाम, माता-पिताके नाम, ऊँचाई और आयु आदि १० बातोका वर्णन है। इसकी प्रतिलिपि मीठालाल शाह पावटावालेने जयपुरमें सं० १९४४ में की थी। ७४. विद्यासागर ( वि० सं० १७३४) ___ इनकी रचनाओंका पता अभी-अभी दूंणो', अर्थात् द्रोणपुरोके शास्त्रभण्डारको खोजते समय लगा है। वैसे तो इस भण्डारके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी संख्या १०४ ही है, किन्तु उसमे कुछ महत्त्वपूर्ण संकलन भी है। दो गुटकोमे हिन्दीकी ऐसी रचनाओका संकलन है जो अभीतक अज्ञात थो। उनमे-से पहला तो सं० १८०१ का लिखा हुआ है, और दूसरा भी इसीके आस-पासका प्रतीत होता है, क्योंकि १. वही, पृ० ६५८। २. दूणी जयपुरसे १० मील और टोंकसे ३० मीलपर अवस्थित है। यह देवली बाने वाली सडकसे लगभग २ मील दूर है। इसका प्राचीन नाम द्रोणपुरी है। इसमें तहसील है। एक हजार वर्ष पुराना विशाल जैन मन्दिर है। २२ जैन घर हैं। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि उसमे प्रायः अठारहवीं शताब्दीकी रचनाएं है। उसी में विद्यासागरको छह कृतियां निबद्ध है। विद्यामागर नामक दो कवि गुजरातीमे हो गये है, किन्तु दोनों ही सत्रहवी शताब्दीमे उत्पन्न हुए थे। एक तो तपागच्छीय विजयदान सूरिके शिष्य थे, उन्होंने सं० १६०२ में 'सुकौशल गीत'का निर्माण किया। दूसरे खरतरगच्छोय सुमतिकल्लोलके शिष्य थे। उन्होंने सं० १६७३ आसोज सुदी १० को 'कलावती चौपई' की रचना की थी। प्रस्तुत विद्यासागर उपर्युक्त दोनोंसे ही पृथक है। उन्होंने जो कुछ लिखा हिन्दीमे हो लिखा । उनका समय भी अठारहवी शताब्दीका पूर्वार्द्ध माना जाना चाहिए, जैसा कि उनकी रचनाओंसे स्पष्ट है । उन्होने संवत् १७३४ मे 'भूपाल स्तोत्र छप्पय'का निर्माण किया था। विद्यासागर कारंजाके रहनेवाले थे। उनके पिताका नाम राखू साह था। वे बघेरवाल जातिमें उत्पन्न हुए थे। बघेरवाल जैनियोंकी एक उपजाति है, जो अब भी कारंजाकी तरफ अधिक रहती है। पिताके नामसे ऐसा स्पष्ट ही है कि ये एक साहूकार थे और लक्ष्मीको उनपर कृपा थी। वे धर्मनिष्ठ भी थे, भगवान् जिनेन्द्रकी भक्तिमे ही उनका अधिकतर समय व्यतीत होता था। विद्यासागर भी वैसे ही बने । वे मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगणके शुभचन्द्रके गुरुभ्राता थे। उनके गुरुका नाम अभयचन्द्रसूरि था। विद्यासागर ब्रह्म विद्यासागर कहलाते थे। इससे स्पष्ट है कि वे ब्रह्मचारी थे। उनकी रचनाएं उनके भक्तहृदयको द्योतक है । प्रायः सभी मुक्तक हैं। उनमे सवैया और छप्पयोका अधिकतर प्रयोग किया गया है। रचनाएँ 'सोलहस्वप्न छप्पय' नामको कृतिमे तीर्थकरकी मांके सोलह स्वप्नोंका भक्ति-मय विवेचन है। इसमे केवल ९ पद्य हैं और यह अठारहवी शताब्दीके प्रथम पादमे लिखी गयी थी। "जिन जन्म महोत्सव षट्पद'मे भगवान् जिनेन्द्रके जन्मकालीन महोत्सवकी शांकी है। इस अवसरपर इन्द्र इन्द्राणी तथा अन्य देवोंसहित आकर विविध उत्सवोंकी रचना करता है। उसीका एक सफल चित्र इस छोटे से काव्यमें प्रस्तुत किया गया है। इसका रचनाकाल भी अठारहवीं शताब्दीका प्रथम पाद ही है। इसमे कुल १२ पद्य है । एक पद्य देखिए, १. जैन गुर्जरकविओ, खण्ड १, भाग ३, पृ० क्रमश: ६४७, ६६६ । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "चाल्यो सुरग तदा वियति मागे विमाने । हाव भाव सविलास करी करं नृत्य सु ताने ।। धुमि धुम धुनिये सार उदार ज महल बज्जे । हमि हमि शब्दे चंग फार दों दल बहु गज्जे || झिकिटि झिकिटि सुस्वरे करि धुग्धरी धम्म के बहु तदा | विद्यासागर कहे सुणी सुर किल्याणक कर यदा ||१५||” 'सप्न व्यमन सवैया' मे सात व्यसनोको छोड़ने की बात कही गयी है । इसमें कुल सात पद्य है । इसका भी रचनाकाल वह ही है । सवैयांका प्रयोग किया गया है । ' दर्शनाष्टक' भगवान् जिनेन्द्र के दर्शनोसे सम्बन्धित है। इसमें बताया गया है कि भगवान्‌के दर्शन करने मात्रसे ही यह जीव भव समुद्रसे पार हो जाता है । इसमें ११ पद्य है । रचना - काल वह ही है । २८९ 'विषापहार छप्पय ' सबसे बड़ा काव्य है । इसमें ४० पद्य हैं । यह छप्पयोंमें लिखा गया है । इसका रचनाकाल भी अठारहवीं शताब्दीका प्रथम पाद ही है । इसमे भगवान् जिनेन्द्रको भक्तिसे इहलौकिक और पारलौकिक दुःखोंके छूट जानेका विवेचन है । एक पद्यमें जिनेन्द्रका रूप इस प्रकार अंकित किया है - " शब्द शरीरातीत स्वामि तु हे वृषभेश्वर, रूप गंध रस रहित प्रभु तुं श्री जगदीश्वर | देह गंध सरूप शब्द ना ज्ञान ने जांणे, लोक त्रि परमाण मांण जिन ज्ञाने बखांणे । अन्य लोक अभिमान थी समरे नहीं तुझ ने कदा, वर विद्यासागर व तुझे गुण समरु हु सदा ॥ ३४॥” 'भूपाल स्तोत्र छप्पय' मे कुल २७ छप्पय हैं । इसमें चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुति की गयी है । इसकी रचना सं० १७३० आश्विनमास सुदी सप्तमी गुरुवार के दिन कारंजामे हुई थी । एक पद्यमे भगवान् के दर्शनका आनन्द देखिए, "निरख्यो नयने आज रसायन मंदिर सुखकर, नव विधान तु स्थान श्राज मिनि रख्यो दुखहर | मिद्ध सुरस तु सदन आज में नयने निरख्यौ, चितामणि मुझे आज निरख्यु मुझ है यहु हरख्यो । जिनगृह निरखे मैं सहु आज में निरख्या निरमला, विद्यासागर कहें जिन निरंखे पातिग गल्या ॥२५॥" ३७ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ७५. बुलाकीदास (वि० सं० १७३७-१७५४ ) बुलाकोदासकी वंश-परम्परा इस प्रकार थी : साहु अमरसी, प्रेमचन्द, श्रमणदाम, नन्दलाल और बुलाकीदाम । ये मूलतः बयानाके रहनेवाले थे। किन्तु लाला श्रमणदास बयाना छोड़कर आगरेमे रहने लगे थे। उनका पुत्र नन्दलाल योग्य, स्वस्थ और रूपसम्पन्न था, जिसपर मोहित होकर प्रसिद्ध पण्डित हेमराजने अपनी एक मात्र पुत्री 'जैनी' ब्याह दी थी। जैनी रूप और शीलमे अनुपम तथा सरस्वतीको तो साक्षात् अवतार हो थी। उसीके गर्भसे बुलाकीदासका जन्म हुआ। विदुपी मांकी देख-रेखमे बुलाकीदासका पालन-पोषण हुआ। वे विद्वान् भी बन सके और महाकवि भी। उनका कुल अग्रवाल और गोत्र गोयल था। __'नागरी प्रचारिणी पत्रिका के सम्पादकोंने उनके द्वारा रचित 'श्रीमन्महाशोलाभरणभूषित' नामके ग्रन्थके आधारपर लिखा है, "वे मूलरूपसे बयानाके रहनेवाले थे, किन्तु अन्न-पानके संयोगसे जहानाबादमे आकर रहने लगे, जहाँ औरंगजेबके शासनमे सब प्रजा सुखी थी, उनके गुरुका नाम रतन था, जो गढ़ गोपाचलके रहनेवाले थे।" किन्तु 'श्रीमन्महाशीलाभरणभूषित' उनकी किसी रचनाका नाम नहीं है, अपितु अपनी माताकी स्मृति रक्षाके लिए उन्होंने पाण्डवपुराणके प्रत्येक सर्गके अन्तमे 'श्रीमन्महाशीलाभरणभूषितायां जैनीनामांकितायां भारतभाषाया' लिखा है। उन्होने पाण्डवपुराणकी रचना अपनी माँकी आज्ञासे ही की थी। जहाँतक जहानाबादका सम्बन्ध है, हो सकता है कि उनके पूर्वज वहां भी कुछ दिनों रहे हों। बुलाकीदासने 'वचनकोश', 'प्रश्नोत्तरश्रावकाचार' 'पाण्डवपुराणऔर 'जैन चौबीसी' की रचना की थी। इनमे पूर्णतया भक्तिसे सम्बन्धित 'जैन चौबीसी' ही है, किन्तु अवशिष्ट तीन ग्रन्योमें भी भक्तिके अनेकों स्थल है। कही जिनेन्द्रको स्तुतियां, कहीं जिन मन्दिरोंका सानिशय वर्णन और कही भक्तोंकी चमत्कारपूर्ण कहानियां है। यहाँ सभी ग्रन्थोंका संक्षेपमे परिचय दिया जा रहा है : १.५० प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बम्बई, १९१७ ई०, पृष्ठ ६५ । २. “वतन बुलाकीदास को, मूल वयोना जान। और रतन गुरुदेव को, गढ़ गोपाचल थान | अन्न पान संजोग तें नगर जहानांवाद"नगर जहानाबादमे साहिब औरंग साहि, विधिना तिस छत्तर दयौ, रहे प्रजा सुख माहि।" देखिए का ना० प्र० पत्रिकाके हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थोंका १५वाँ त्रैवार्षिक विवरण। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य २९१ वचनकोश __ इसकी एक प्रति 'सटका कुंचा दिल्ली के जैन मन्दिरके शास्त्र भण्डारमै मौजूद है। इसकी रचना वि० सं० १७३७में हुई थी। यह प्रति वि०म० १८८३ को लिखी हुई है । इसमे १३० पृष्ट है । इसकी दूसरी प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरके वेष्टन नं० १६४१ मे निवद्ध है। यह प्रति बिलकुल शुद्ध एवं पूर्ण है। इममे १५७ पृष्ठ है। इसपर लेखनकाल स० १८.३ पड़ा हुआ है। यह अन्य जैन-सिद्धान्तका विषय है, किन्नु हिन्दी-पद्योमे लिखा गया है। उद्योम सरसता है। प्रश्नोत्तर-श्रावकाचार ___ इसकी प्रति दिल्लीके पंचायती मन्दिरके ग्रन्यभण्डारमं मौजूद है। इसका रचनाकाल मं० १७४७ और लेखनकाल सं० १९१७ में दिया हुआ है। इसमे कुल १०३ पृष्ठ है। इसको दूसरी प्रति जयपुरमे लगकर जोक मन्दिरके वेष्टन नं० १०८ मे निबद्ध है। इसपर भी रचनाकाल सं० १३४७ पड़ा है, किन्तु लेखनकाल सं० १९४१ है। यह प्रतिलिपि नासरोवा ग्रामके दीवान धनकुँअरजी तेरापन्थीने लिखवायी थी। इसमे पृष्ठसंख्या १४५ है। इस ग्रन्थका विषय जैन धर्मानुसार श्रावकोके आचारसे सम्बन्धित है। किन्तु हिन्दी-पद्यमे लिखा गया है और उसने अनेक स्थलोंपर साहित्यिक आनन्द सन्निहिन है। पाण्डवपुराण यह बुलाकीदासका प्रसिद्ध महाकाव्य है । इसमे जैन-परम्परानुमोदित पाण्डवोंकी कथा है । इसकी रचना वि० सं० १७५४ मे दिल्लीमे रहकर को गयी थी। वहां उनकी मां जैनुलदे या जैनीने शुभचन्द्र भट्टारकका संस्कृत पाण्डवपुराण पढ़ा और अपने पुत्रको हिन्दीमै रचनेकी आज्ञा दो।' उन्हीने उस अज्ञाको पूरा किया। इस काव्यमे ५५०० पद्य हैं । उनको काव्य-शक्तिपर अपना मत अभिव्यक्त करते हुए प्रसिद्ध पण्डिज्ञ नाथूरामजो प्रेमीने लिखा है, "रचना मध्यम श्रेणोको है, पर कही-कही बहुत अच्छी है। कविमे प्रतिभा है, पर वह मूलग्रन्थ १. ताको अर्थ विचारक, भारत भाषा नाम । कथा पांडु सुन पंच को, कीजै बहु अभिराम ॥ सुगम अर्थ श्रावक सबै, भने भनाव जाहि । ऐमो रचिक प्रथम हो, मोहि सुनावी ताहि ।। पाण्डवपुराण प्रशस्ति, दिल्लीवाली प्रति । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि की कैदके कारण विकसित नही हो पायी। मूल ग्रन्थकी ही रचना बढ़िया नही है।" काव्य-शक्ति मॅजी हुई और पुष्ट है, किन्तु कथानकसम्बन्धी घटनाओंके घुमाव-फिरावमे कुछ दोष है, जो मूल ग्रन्थसे सम्बन्धित है। सम्बन्ध-निर्वाह भी विशृंखल है। का० ना० प्र० के सम्पादकोका विचार है, "प्रस्तुत ग्रन्थ अत्यन्त रोचक है । कविता अच्छी है।" पत्रिकाके सम्पादकोंने बछनेरा (आगरा)के जैन मन्दिरके शास्त्रभण्डारसे एक प्रति प्राप्त की थी। उसपर रचना-संवत् १८२३ पड़ा हुआ है, जिसका खण्डन स्वयं सम्पादकोंने ही किया है। इसकी एक प्रति नया मन्दिर दिल्लीके हस्तलिखित ग्रन्योमे मौजूद है। लिपि सं०१८९२ की हुई है। इसमे २०१ पृष्ठ हैं। दूसरी प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके जैन-मन्दिरमे वेष्टन नं० ६४४मे निबद्ध है। इसमे पत्रसंख्या २०२ है और रचनाकाल सं० १७५४ दिया हुआ है। अछनेरावाली प्रतिके आधारपर प्रारम्भका एक छप्पय छन्द देखिए, "सेवत सत सुरराय स्वयं सिद्धिशिव सिद्ध मय । सिद्धारथ सरवस नय प्रमाण सो सिद्धि जय ॥ करम कदन करतार करन हरन कारन चरन । असरन सरन अम्बार मदन दहन साधन सदन ॥ इहविधि अनेक गुणगण सहित, जग भूषण दूषण रहित । तिहि नन्दलाल नन्दन नमत, सिद्धि हेत सरवज्ञ नित ॥" जैन-चौबीसी इसका उल्लेख काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाके हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थोके पन्द्रहवें त्रैवार्षिक विवरणमे हुआ है। पत्रिकाके सम्पादकोंको इसकी प्रति 'मांगरौल गुजर'के रहनेवाले श्री दुर्गासिंह राजपूतके पास प्राप्त हुई थी। मांगरोलका डाकखाना रुनकता, तहसील किरावली और जिला आगरा है। इसमे १९६ अनुष्टुप् छन्द है। सभी २४ तीर्थकरोंकी भक्तिसे सम्बन्धित है। भगवान् आदिनाथकी वन्दनामें एक छन्द इस प्रकार है, "बन्दौ प्रथम जिनेस को, दोष अठारह चुरी, वेद नक्षत्र ग्रह औरष, गुन अनन्त मरी पुरी। १. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बम्बई, १६१७ ई०, पृ० ६६ । २. काना०प्र० पत्रिकाके हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थोंकी खोजके त्रैवार्षिक पन्द्रहवें विवरणमें देखिए। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्क कवि : जीवन और साहित्य २९३ नमो करि फेरि सिद्धि को भष्ट करम कीए छार, सहत आठ गुन सो मई, करै भगत उधार । आचारज के पद फेरि णमो, दूरी अन्तर गति माउ, पंच अचरजा सिद्धि ते, मार जगत के राउ ॥" ७६. विनयविजय ( वि० सं० १७३९ तक थे ) ___ ये एक श्वेताम्बर साधु थे। इनके गुरुका नाम कीनिविजय उपाध्याय था। कातिविजयजी वीरमगामके रहनेवाले थे। कीर्तिविजयको गणना अच्छे विद्वानोम थो । विनयविजय इन्हीके शिष्य थे। उन्होंने अपनी गुरु-परम्पराका उल्लेख इम प्रकार किया है : हीरविजय, विजयदेव, विजयसिंह, कीतिविजय, विनयविजय ।' विनयविजयजी यशोविजयके समकालीन थे। दोनोने साथ रहकर ही काशीमें विद्याध्ययन किया था। विनयविजयकी न्याय और साहित्यमे समान गति थी। इनका 'नयकणिका' नामका ग्रन्थ अंगरेजी टोकासहित छप चुका है। 'पुण्यप्रकाशस्तवनम्' और 'पंचममवायस्तवनम्' भक्तिसे सम्बन्धित है। गुजराती साहित्यको उनकी विशाल देन है। उसमें 'नेमिनाथ भ्रमर गीतास्तवन', 'नेमिनाथ बारमास स्तवन', 'आदिनाथ विनती', 'चौबीसी', 'वीशी' और 'शाश्वत जिनभाष' अत्यधिक प्रसिद्ध है। काशी में रहनेके कारण उन्होने हिन्दीमे भी समुचित योग्यता प्राप्त कर ली थी। उनका हिन्दीका एक ग्रन्थ 'विनय-विलास'के नामसे छा चुका है। इसमे कुल ३७ पद है । विनय-विलास यह शरीर झूठा है, किसीके साथ नहीं जाता, यहां ही पड़ा रह जाता है। जीव उसको प्रेम करता है, करना नहीं चाहिए । आत्मा हो जीव है, जो कभी व्यय नहीं होता, जो कभी मरता नहीं। इसीको कविने एक सुन्दर रूपकके द्वारा उपस्थित किया है। आत्मा या जीव सवार है और शरीर घोड़ा। यह खानेमे तो होशियार है, किन्तु जब इसपर जीन कसो, तब यह सोना चाहता है। इसपर १. नेमिनाथ भ्रमर गीता स्तवन, गुजराती, २६वाँ पद्य । जैन गुर्जर कविप्रो, भाग २, बम्बई, १६३१ ई०, पृ० ७ । २. जैन स्तोत्र सन्दोह, प्रथम भाग, मुनि चतुरविजय-द्वारा सम्पादित प्रस्तावना, पाद ___ टिप्पणी, पृ० ६३। ३. सभीका संक्षिप्त विवरण 'जैन गुर्जरकविप्रो', भाग २, पृ०६-१७ में अंकित है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कितना ही रुपया व्यय करो, कितना ही अच्छा चारा दो, सवारीके समय यह अवश्य ही इधर-उधर बहकेगा। यह सेवाएं तो बहुत प्रकारकी करवाता है, किन्तु सवारको कही दूर जंगलमें जा पटकना है। अतः इस विगडैल घोडेको ठीक रास्तेपर लानेके लिए, चावुकसे काम लेना होगा। बिना ऐसा किये यह संसाररूपी मार्ग कैसे पार कर सकेगा? वह रूपक देखिए, "धारा झूठा है रे तू मत भूले असवारा । तोहि मुधा ये लागत प्यारा, अंत होयगा न्यारा ॥ चरै चीज और डरै कैद सौं, ऊबट चलै अटारा । जीन कसै तब सोया चाहै, खाने कौं होशियारा ॥ खूब खजाना खरच खिलाओ, यो सब न्यामत चारा । असवारी का अवसर आवै, गलिया होय गंवारा ॥ छिनु ताता छिनु प्यासा होचे, खिजमत बहुत करावन हारा। दौर दूर जंगल में डारे, झरै धनी विचारा ।। करहु चोकड़ा चातुर चौकस, द्यौ चाबुक दो चारा। इस घोरे को 'विनय' सिखावो, ज्यों पावो भवपारा ॥" यह मनुष्य सांसारिक सुखोको प्राप्त करनेके लिए बहुत ललचाता है। एकके बाद दूसरेको प्राप्त करनेकी उसकी तष्णा कभी बुझती नहीं। वह मृगतृष्णाकी भाँति उनके पीछे अविराम गतिसे दौड़ता है किन्तु कुछ मिलता नहीं। जीवन व्यर्थ चला जाता है। उसे यह पता नही कि उसके भीतर ही सुधाका सरोवर लहरा रहा है। उसमें स्नान करनेसे सब दुःख दूर हो जाते है, और परमानन्दकी प्राप्ति होती है। शाश्वत सुख उसके पास ही है। वह व्यर्थमे ही इधर-उधर भटकता फिरता है, "किया दौर चहुं ओर जोर से, मृगतृष्णा चित लाय । प्यास बुझावन बूंद न पाई, यों ही जनम गमाय ॥ __ प्यार काहे कुंतू ललचाय ।। सुधा सरोवर है या घट में, जिसने सब दुख जाय । 'विनय' कहे गुरुदेव सिखावे, जो लाऊं दिल आय ॥ प्यारे काहे कू तू ललचाय ।।" सांसारिक पदार्थोंके लिए ललचाना मूर्खता है । जिनके लिए यह जीव व्याकुल होकर 'मेरी मेरी' करता है, वे जलके बुलबुलेके समान क्षणिक हैं। क्षणिक पदार्थो में चिरन्तन सुख ढूंढ़ना मूर्खता ही है। माया-जन्य विकल्पोंने जीवके शुद्ध Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मा कवि : जीवन और साहित्य २९५ स्वभावको आच्छादित कर रखा है। वह अतृप्तिके कांटोंपर लेटकर दुःख पा रहा है, ज्ञान-कुमुमोंकी गय्यापर लेटनेका उसे कभी सौभाग्य ही प्राप्त नहीं हुआ। देखिए, "मेरी मेरी करत बाउर, फिर जीउ अकुलाय । पलक एक में बहुरि न देम्बे, जल-बुंद की न्याय ॥ प्यारे काहे 5 ललचाय ॥ कोटि विकल्प व्याधि की वेदन, लही शुद्ध लपटाय । ज्ञान-कुसुम की मेज न पाई, रहं अघाय अघाय । प्यारे काहे कू ललचाय ॥" ___ यहाँ 'बाउरे' शब्द ऐसे उपयुक्त स्थानपर बैठा है, जिसमे ममचे पद्यमे जीवन आ गया है। उपयुक्त स्थानपर शब्दोंको बिठाना मच्चे कलाकारका ही काम है । विनयविजयको भाषा, शैली और भाव मभी कुछ मनोहारी है । ७७. देवाब्रह्म ( १८वीं शताब्दीका पूर्वार्ध) अभीको खोजोंमे देवाब्रह्मकी कुछ रचनाओका पता चला है, जिनके आधारपर यह निश्चिन्त होकर कहा जा सकता है कि वे हिन्दीके उत्कृष्ट कवि थे। सैकड़ों बिखरे पदों और विनतियोंमे जैसे उनका हृदय ही फूट पड़ा है। भाषा भी परिमाजित है। उसपर कुछ राजस्थानीका प्रभाव है। देवाब्रह्मके अधिकांश पद्य भगवान् जिनेन्द्रके चरणोमे समर्पित हुए है। ___ 'देवाब्रह्म'मे ब्रह्म शब्द उपाधिसूचक है जो उनके ब्रह्मचारी होनेकी बात घोषित करता है। उनका नाम 'देवजी' था। यह स्वीकार करते हुए भी कि 'देव' का प्रयोग प्रायः नामके अन्तमें ही होता है, निश्चय रूपसे यह भी तो नहीं कहा जा सकता कि 'देवजी' नाम नहीं हो सकना । नामोंकी विचित्रता सभीको विदित है। बाबू कामताप्रसादजीने अपने इतिहासमे देव ब्रह्मचारी और केशरीसिंहको लेकर एक शंका उपस्थित की है। उनका कथन है कि "देव ब्रह्मचारी ( केशरी सिंह ) कृत 'सम्मेदशिखर विलास' नामक रचना हमारे संग्रहमे है। अर्थात् क्या १.भाराधना कथाकोशके कर्ना नेमिदत्तने और प्राकृत श्रत स्कन्धके रचयिता हेमचन्द्रने __उपाधिके रूपमें ब्रह्म शब्दका प्रयोग किया है। २.हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृ० १६५ । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि देव ब्रह्मचारी केशरीसिंह थे ? और यह रचना क्या केशरीसिंहकृत है ? किन्तु उसके अन्तिम पद्योसे स्पष्ट है कि न तो देव ब्रह्मचारी केशरीसिह थे, और न यह कृति केशरीसिंहकी ही है। लोहाचार्यके जिस पत्ताबन्ध पुनीत सुग्रन्थके आधारपर देवाब्रह्मने इस रचनाका निर्माण किया, उसका अर्थ पण्डित केशरीसिहने समझाया था। पण्डितजी जयपुर नगरमै लश्करके मन्दिरमे रहते थे। देव ब्रह्मचारी भी जयपुरके ही रहनेवाले थे। ब्रह्मचारी होनेके कारण देवाब्रह्मजी स्थान-स्थानपर घूमते थे और वहाँकी जनताको उपदेश देते थे। एक बार उन्होंने चम्पावती नगरीमे चौमासा किया और वहाँको प्रजाको ज्ञानका मार्ग दिखाया। उन्होने एक पद्यमे चम्पावतीका विशद वर्णन किया है। चम्पावतीके बडे देउरेमे एक 'पांडेमाली' रहते थे। उनके १. श्री लोहाचारज मुनि धर्म विनीत हैं । तिन कृत घत्ता बंध सुग्रन्थ पुनीत है ।। ता अनुसार कियो सम्मेद विलास है। देव ब्रह्मचारी जिनवर को दास है ॥ केसरी सिंह जान, रहै लसकरी देह । पण्डित सब गुण जन, याको अर्थ बताइयो । देखिए, वही। २. देवाब्रह्म चौमासो छायो, नगरी में सुष पाय । सब पंचां को ग्यांन सुणायो, समकति व्रत अधिकाय ।। देखिए, महावीरजी अतिशय तीर्थ क्षेत्रके एक प्राचीन गुटकेमें संकलित देवाब्रह्मजीके पद और विनतियाँ। ३. जंबूदोप भरतषेत्र मै, देस ढुंढाहड सार । नगरी बसै चंपावतो जी, देवपुरी गुणधार जी ॥ राजनीति पाल सही जी प्रजा सुषी घर बारि । उत्तिम पुरिष सदा बसै जो पूजा दानि करारि जी । जिन मंदिर तो बड़ो बडयो जी, कोटि बीचि बिसतारि । गढ के बाहिर बसती बिचे, फुनि जिन मन्दिर सार जी ॥ दोय गो विराजे सदा जी, प्रीति भाव सुषकार । परम ध्यान साधैं सबै जी, धरि धरि मंगलाचार जी । ऐसी नगरी देषि के जी, तपसी आवै साध । सब पंचां की ग्याण सुनावै, सुरग मुकति करतार जी ॥ वही, पब १-५॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य और जैन पंचायत के बीच मन्दिरको लेकर झगड़ा हुआ। लोगोंने उसे समझाया वह माना नही | देवाब्रह्मजोने उसे निम्नलिखित पंक्तियो मे समझाया --- मन बड़ा कारण जी, " झगड़ा मैं कछु हाथ न आवै, अरथ बिनां ही मार । बांधै करम अपार जी ॥ और ठिकाण पाप करै सो मंदिर में कटि जाय । जिन मंदिर में दोष उपावै, कैसे उतरे पार जी ॥ भूत प्रेत लागै छै ज्यां कों, बैद उतारै आप । क्रोध मान की चोकड़ी को, ग्यान षिमां उतार जी ॥ किसका मंदिर किसकी संपति, किसका ये घर दार | सुनको मेलो बरायो जो, झूठो सब संसार जी ॥ " देवाब्रह्मजीका एक 'विनती संग्रह' जयपुरके बधीचन्दजी के मन्दिर में विराजमान गुटका नं० ५४ मे संकलित है । इस गुटके में ३२ पन्ने है । महावीरजी अतिशय क्षेत्रके शास्त्र भण्डार मे भी एक प्राचीन लिखा हुआ गुटका है, जिसमे देवाब्रह्मजी - की विनतियाँ और पद लिखे हुए है । इस गुटके की एक विनती देखिए, २९७ ." अंजनरु चौर जू सात बिसन मैं, ताकूं भी जिन तारयो । मील सरीषो पापी प्राणी, भौ सागर मैं उबारथौ ॥ श्री जिनदेव पाया जी, उदै मेरा भाग आया जी ॥ मडक जौंषि पसूतणीं, जिहि दरसण भाव लगायो । गज पग नीचे प्राण छोड्यौं, सुरंगा मैं पद पायौ ॥ घोटी जाति चिंडाल की जी, घात करै अधिकाय । जिनवर नांव जप्पां थकां जी, आवागमण मिटाय ॥ सरधा करिकै पूजै ध्यावै, मन वंछित फल पावै । देवाब्रह्म चरणांचित लाबै, करम कलंक मिटावै ॥ " देवाब्रह्मजी के पद दि० जैन मन्दिर बड़ौतके पदसंग्रहको एक हस्तलिखित प्रतिमें अंकित है । उनके पदोंका एक संकलन जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरके शास्त्र भण्डार के पदसंग्रह ४९३ सं० मे भी रखा है। उनके पदोंका प्रसादगुण पाठकके मनको मोहित किये बिना नही रहता । एक पद इस प्रकार है, "जगपति ९. वही, पद्य ११ - १४ | ३८ त्योरा ला महाराज, विडद विचारो ला महाराज ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि में अपराध अनेक किया जो, माफ करो गुणराज ॥ और देवता सब ही देप्या, खेद सहो बिन काजि ॥ थाको जस तो सुर नर गावे, पावै पद सिव काज ॥ देवाब्रह्म चरणां चित ल्यावै, सेवग करि हित काज ।" देवाब्रह्मको एक अन्य रचनाका नाम 'सासबहूका झगड़ा' है, जो पदोंके रूपमें ही लिखी गयी है। इसकी एक प्रति जयपुरके ठोलियोंके जैन मन्दिरमे वेष्टन नं. ४३८ मे निबद्ध है । इसमे केवल १७ पद्य है । राजस्थानीका प्रभाव है। ७८. सुरेन्द्रकीति मुनीन्द्र (वि० सं० १७४० ) ___ ये मूलसंघ बलात्कार गणकी नागौर शाखाके भट्टारक देवेन्द्रकीत्तिके शिष्य थे। सुरेन्द्रकीत्ति सं० १७३८ की ज्येष्ठ शुक्ला ११ को भट्टारक पदपर अधिष्ठित हुए थे और ७ वर्ष तक रहे। वे विरथरा ग्रामके निवासी थे। गोपाचल गढ़ अधिक जाया करते थे। इनका गोत्र पाटणी था। इन्होने हिन्दीमें 'आदित्यवार कथा' और अनेक सरस पदोंकी रचना की थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'पंचमास चतुर्दशी व्रतोद्यापन' और 'ज्ञान पच्चीसी व्रतोद्यापन' नामकी कृतियां हिन्दी जयमालाओंके रूपमे लिखी। वे अर्हन्त-भक्तिकी प्रतीक है। एक दूसरे सुरेन्द्रकोत्ति और हुए हैं। उनका सम्बन्ध काष्ठासंघ, नन्दीतटगच्छसे था। वे इन्द्रभूषणके शिष्य थे और उनके उपरान्त भट्टारक बने । उन्होंने अनेक यन्त्र और मूर्तियोकी स्थापना की। उन्होने कल्याणमन्दिर, एकीभाव, विषापहार और भूपाल स्तोत्रोंका हिन्दी छप्पयोंमे रूपान्तरण भी किया था। हिन्दीमे कोई मौलिक रचना उन्होंने नही लिखी। इनका समय सं० १७४४ से १७७३ माना जाता है। तीसरे सुरेन्द्रकीर्ति वे थे, जो बलात्कार गण, जेरहट शाखाके सकलकोत्तिके उपरान्त सं० १७५६ मे भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित हुए। इन्होने किसी हिन्दी रचनाका निर्माण नहीं किया। चौथे भट्टारक बलात्कारगण दिल्ली जयपुर शाखाके क्षेमेन्द्रकीत्तिके शिष्य थे। वे सं० १८२२ में भट्टारक बने थे। इनसे Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २९९ जयपुरको भट्टारकीय गद्दीका आरम्भ हुआ था। यहां पहले सुरेन्द्रकीतिसे मतलब है । वे 'सुरेन्द्रकीति मुनीन्द्र' कहलाते थे। आदित्यवार कथा ने इस कथाका निर्माण वि० स० १७४० को गोपाचलगढ़मे रहकर किया था। इस कथाको वीरसिह जैन इटावासे सन् १९०६ मे प्रकाशित कर चुके है । कथाकी रचना गोपाचलगढ़के जैसवाल शाह जसवन्तके भाई भगवन्तकी धर्मपत्नीको प्रार्थनापर की गयी थी। कथाका सम्बन्ध जिनेन्द्रकी भक्तिसे है । कतिपय पंक्तियाँ है, "कामी देश बनारस ग्राम । सेठ बड़ो मतिसागर नाम ॥ तासु घरनि गुण सुन्दर सती । सात पुत्र ताके सुभमती ॥ सहसकूट चैत्यालयो एक । आये मुनिवर सहित विवेक ॥ आगम सुनि सब हरषित भये । सबै लोक वंदन को गये ॥" पद ___इनके लिखे हुए विविध पद महावीरजी अतिशयक्षेत्रके एक प्राचीन गुटकामे संकलित है। जिनेश्वर पार्श्वनाथको भक्तिमे लिखा हुआ एक पद है, "जै बोलो पाश जिनेश्वर की ॥ जुगल नाग जिहिं जरता राख्या, पदवी दी फणीश्वर की ॥ बाल पणे जिहिं दीष्या लीनी, लक्ष्मी छोड़ि नरेश्वर की ॥ केवलज्ञान उपाय भयो है, जो ही सिद्ध मुनीश्वर की ॥ कीर्ति सुरेन्द्र नमैं तसु पद कू, नित प्रति पूजि गणेश्वर की ॥" सुरेन्द्रकीत्तिके पदोमे आध्यात्मिक होलियोकी छटा मोहित करनेवाली है। गोरी सुमति अपने पति चेतनके साथ होली खेल रही है, "श्रातम ग्यान तणी पिचकारी, चरचा केसरी छोरो री। चेतन पिय पै सुमति तिया तुम, समरस जल मर छोरो री॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि सतिवागो तप चंदन छिनको, कीरति अतर सुवासो री। सहजानन्द मीठा इ जो सु, ज्ञान अमल को प्यारीरी।। गुरु के बच्चन बजावौ बाजा, नटिनी कुमति नचावी री, मवि के चित्र कुराग तजि कैं, आतम होरी गावो री॥ अनुमौ अमृत कुं पाना चौ, निज घरि हरष बढ़ावौ री। कीर्ति सुरेन्द्र कहैं इस जग में घेलन हार जयो जोरी ॥" पंचमास चतुर्दशी व्रतोद्यापन ___ इसकी एक प्रति जयपुरके ठोलियोंके जैनमन्दिरमे वेष्टन नं० १२९ मे निबद्ध है। इस संग्रहमें ६५४ पृष्ठ है, जिनमे ३०६ से ३११ तक यह व्रतोद्यापन लिखा हुआ है । इस संग्रहका लेखनकाल सं० १८६५ है । ज्ञान-पच्चीसी प्रतोद्यापन यह भी उपर्युक्त संग्रहमे ही संकलित है। यह पृष्ठ ५३७ से ५४५ तक अंकित है। इसका लिपिकाल सं० १८४० दिया हुआ है। यह लिपि जयपुरके चन्द्रप्रभ चैत्यालयमे हुई थी। ७९. खेतल (वि० सं० १७१३-१७५५) इन्होंने कवितामें अपना नाम खेता, खेतसी, खेताक और कही-कही खेतल रखा है। नन्दीसूचीके अनुसार इनका मूल नाम खेतसी था, किन्तु जब दीक्षा ली तो दयासुन्दर हो गया। खेतसी नामके कई कवि हो गये है, जिनमे-से एक तो साई शाखाके चारण कवि थे, जो जोधपुरके महाराजा अभयसिंहके आश्रयमे रहते थे। इन्होंने सं० १७८० मे 'भाषा-भारथ' नामका डिंगल भाषामें एक ग्रन्थ लिखा था। इसमें महाभारतके अठारह पर्वोका सारांश तेरह हजार छन्दोंमे Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य लिखा गया है। ये खेतसी उच्चकोटिके विद्वान् और प्रतिभावान् कवि थे। किन्तु उन्होंने कविनामें अपना नाम सर्वत्र 'सोह' लिखा है, अतः प्रस्तुत खेतसोसे उनका पृथक्करण स्पष्ट ही है। एक दूसरे खेतसी और हए है जो कि जैन ही थे। वे मेवाड़के रहनेवाले थे और उन्होने मेवाड़के वैराट गाँवमे 'धन्नारास'की रचना सं० १७३२ मे की थी। उन्होंने अपनेको लोकागच्छके पूज्य दामोदरजीका शिष्य बतलाया है। खेतल खरतरगच्छीय थे और खरतरगच्छके आचार्य जिनराजसूरिके शिष्य दयावल्लभके शिष्य थे। इन्होंने प्रसिद्ध आचार्य जिनचन्द्रसूरिजीके पास सं० १७४१ फाल्गुन बदी ७ रविवारको दीक्षा ली थी। खेतल कहांके रहनेवाले थे यह प्रामाणिक रूपसे नहीं कहा जा सकता। किन्तु उनकी भाषापर मेवाड़ी झलक देखकर स्पष्ट-सा है कि वे मेवाड़के ही रहनेवाले होंगे। इसके अतिरिक्त उन्होने उदयपुर शहरको गजल लिखी है, जो कि मेवाड़की राजधानी थी। गजल तो उन्होने चित्तौड़गढ़की भी लिखी है और ऐसा अनुमान होता है कि जती होनेके बाद वे इन दोनों स्थानोंपर रहे थे। उन्होंने उदयपुरके महाराणा अमरसिंह और जयसमुद्र तालाबको रमणीयताका उल्लेख किया है। उदयपुरकी गद्दीपर अमरसिंह नामके दो महाराणा हुए है। एक तो महाराणा प्रतापसिहके पुत्र थे, जिन्होंने संवत् १६५३ से १६७६ तक राज्य किया। दूसरे महाराणा जयसिहके पुत्र थे। उनका राज्य संवत् १७५५ से १७६७ तक माना जाता है। खेतल दूसरे महाराणा अमरसिंहके राज्यमे मौजूद थे। क्योंकि उन्होंने जिस जयसमुद्र नामके तालाबका वर्णन किया है, वह पहले अमरसिंहके समयमे नही था। उसका निर्माण महाराणा जयसिंहने करवाया था। अतः खेतलका समय अठारहवीं शताब्दीका मध्याह्न मानना चाहिए। श्री अगरचन्दजी नाहटाने उनको उदयपुर ग़ज़लका निर्माण संवत् १७५७ मगसिर बदी ५ बतलाया है। मुनि जिनविजयजीने जिस 'उदयपुर ग़ज़ल'का सम्पादन किया था, उसपर रचनासंवत् नहीं था , किन्तु अभय जैन ग्रन्थालयकी प्रतिपर रचनाकाल ८०वे पद्यमें १. राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २४५ । २. जैन गुर्जरकविप्रो, भाग २, पृ० २८६-८७ ३. देखिए, उनके द्वारा रचित बावनीका ६४वाँ पद्य । ४. देखिए, उदयपुर राजल, गजल नं० १५-१७ और ७१ । भारतीय विद्या, वर्ष १, अंक ४, पृ० ४३१ और ४३५ । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि दिया हुआ है । 'चित्तौड़ गजल' इसके पहले ही बनी थी। खेतल जती खेता कहे जाते थे। उन्होने एक स्थानपर जतीके गुणोको गिनाया है । वे एक उदार साधु थे। उन्होंने भगवान् जिनेन्द्रके साथ-साथ अन्य देवी-देवताओंको भी नमस्कार किया है । उनको गजलें वर्णनात्मक होते हुए भी रस-युक्त हैं। खेतलको बावनी जिनेन्द्र भक्तिसे सम्बन्धित है। 'जैन यती गुण वर्णन' भी उन्हींकी कृति है। चित्तौड़की ग़ज़ल __ इस गजलको मुनि कान्तिसागरजीने फार्बस गुजराती साहित्य सभा बम्बईके त्रैमासिक पत्रमे छपवाया है । इसकी एक दूसरी प्रति 'अभय जैन ग्रन्थालय' बोकानेरमे मौजूद है। उसका सक्षिप्त परिचय श्री अगरचन्दजी नाहटा-द्वारा सम्पादित 'राजस्थानमे हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोकी खोज, द्वितीय भाग' में प्रकाशित हो चुका है। इसके पचपनवे पद्यके अनुसार इसका रचनाकाल स० १७४८ श्रावण बदी १२ मानना चाहिए। वह राणा जयसिंहका समय था। इसमे कुल ५६ पद्य है। उदयपुरकी ग़ज़ल यह 'भारतीय विद्या' के वर्ष १ अंक ४ मे मुनि जिनविजयजी-द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हो चुकी है। परन्तु इसमें रचना-संवत् नही है। इसकी दूसरी प्रति अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में मौजूद है, और उसका संक्षिप्त परिचय 'राजस्थानमे हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, द्वितीय भाग'मे छप चुका है। उसपर रचना-संवत् पड़ा हुआ है। प्रारम्भमे हो कविने एकलिंगजी, नाथद्वारेके श्रीनाथजी, राठसेन गिरिदेव, आवेरी उमारमण, भुवाणा भोलानाथ, और १. संवत सतरे सतावन, मगसिर मास धुर परव धन्न । कीन्हीं गजल कौतुक काज, लायक सुणतसु मुख लाज ॥८॥ राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, द्वितीय भाग, पृष्ठ १०१। २. वही, पृष्ठ १०३। ३. खरतर जती कवि खेताक, आंखै मौज सुं एताक । संवत् सतरेसे अड़ताल, सावण मास ऋतु वरसाल ॥ वदि परव वाखी तेरी कि, कीनी गजल पढियो ठीकि ॥५५॥ देखिए, वही, पृ० १०३ । ४. भारतीय विद्या वर्ष १, अंक ४, पृ०४३०-३५ ।। ५. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग २, पृ० १००-१। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य रतनपुर के हनुमन्तको नमस्कार किया है। उदयपुरके भी सभी देवी-देवताओंका दरबार, महल, मन्दिर, बाज़ार और स्मरण किया है । इसके बाद महाराणाके बाग-बगीचोका सुन्दर वर्णन है । बावनी इसकी रचना संवत् १७४३ मगसिर सुदी १५ शुक्रवार के दिन दहरवास नामके गाँवमे हुई थी । इसकी एक प्रति श्री नाहटाजीके पास है । इसमे कुल ६४ पद्य है । कवि खेतलने दहरवासमे 'चौमासा' किया था, उसी मध्यमे इसको रच sor होगा । इसके अन्तिम कुछ परिचयात्मक पद्य देखिए, "संवत् सत्तर त्रयाल, मास सुदी पक्ष मगस्सिर । तिथि पूनम शुक्रवार, थयी बावनी सुथिर | बारखरी रो बन्ध, कवित्त चौसठ कथन गति । दहरवास चौमास समय, तिणि भया सुखी अति । श्री जैनराज सुरिसवर, दयावल्लभ गणि तास सिखि । सुप्रसाद तास खेतल, सुकवि लहि जोड़ि पुस्तक लिखि || ६४ || " जैन यती गुण-वर्णन -कवि खेतलकी यह रचना 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' पृ० २६० पर प्रकाशित हो चुकी है । छोटी-सी रचना में प्रवाह है। जैन यतीके प्रति अत्यधिक श्रद्धानके कारण गुण गिनानेका काम भी सरस हो गया है : “केइ तो समस्त न्याय ग्रन्थ में दुरस्त देखे, फारसी में रस्त गुस्त पूजे छत्रपती है । frer करै तप की प्रशस्त धरै योग ध्यान, हस्त के विलोकवे कुं सामुद्रिक मती है । गृहस्त के वस्त्र के जु ग्राहक हैं, चुस्त है कला में, हस्त करामात छती है । खेतसी कहत षट् दर्शन में खबरदार, जैन में जबर्दस्त ऐसे मस्त 'जती' हैं ॥ " पूज के ३०३ ८०. भाऊ ( १७वीं - १८वीं शताब्दीका पूर्वार्ध ) एक जैन कवि थे । इनका जन्म गर्ग गोत्रमे हुआ था । इनके पिताका १. वही, पृष्ठ १४४-४५ । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि नाम 'मुलू' था, 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका'के खोज-विवरणमे उनका नाम मलूक दिया हुआ है, जो उसीमें अंकित 'पुष्पदन्तपूजा' की अन्तिम प्रशस्तिसे असत्य प्रमाणित हो जाता है ।' 'मुलूको पूत'का स्पष्ट अर्थ है 'मुलूका पुत्र । मलूकका पुत्र होनेके लिए एक और 'क'को आवश्यकता थी। जहांतक भाऊके रचनाकालका सम्बन्ध है काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका के सम्पादकोने उसको 'अविदित' कहा है। इस विषयमे कोई स्पष्ट लेख अभीतक मालूम नहीं हो सका है। वैसे उनको 'आदित्यवारकथा' एक ऐसे गुटकेमे निबद्ध है, जिसका लेखन-काल सं० १७६३ है। अब 'नेमिनाथ रास' नामको रचना और प्राप्त हुई है, वह जिस गुटके में संकलित है, उसका लेखन वि० सं० १६९६ में समाप्त हुआ था। इससे स्पष्ट है कि भाऊ इमसे पूर्व ही हुए होंगे। अभीतककी खोजोमे इनकी चार रचनाओंका पता लगा है : 'आदित्यवारकथा', 'पाश्वनाथ कथा', 'पुष्पदन्त-पूजा' और 'नेमिनाथ रास' । चारों ही भक्तिसे सम्बन्धित है । आदित्यवार-कथा इसका दूसरा नाम 'रविव्रत कथा' भी है। जैन-परम्परामें 'रविव्रत कथा' सम्बन्धी विपुल साहित्य है। वैसे यह है तो अतसे सम्बन्धित, किन्तु इसमे भगवान् पार्श्वनाथकी भक्ति ही प्रधान है। गुणधरको रत्नोंका संचय देनेवाले भगवान् पार्श्वनाथके शासनदेव और देवी, धरणेन्द्र तथा पद्मावती ही थे । उन्हींकी प्रेरणासे गुणधरके सब भाइयोंने रवि-व्रत करना प्रारम्भ किया, और रवि-प्रत पूजाके लिए उन्होंने एक विशाल जैन मन्दिरका निर्माण करवाया। 'रविनत' में 'रविव्रत-पूजा' ही प्रमुख है। भाऊकी 'आदित्यवार कथा' अत्यधिक लोकप्रिय हुई। जयपुरके लूणकरजीके मन्दिरके गुटका नं० ८७ और बड़े मन्दिरके गुटका नं० ९९ मे उसको एक-एक प्रति निबद्ध है। बधोचन्दजीके मन्दिरके ९ गुटकोंमें और ठोलियोके तीन गुटकोमे पृथक्-पृथक् प्रतियां लिखी हुई है। इनमें बधीचन्दजीके मन्दिरका गुटका 'नं. १५' सबसे पुराना लिखा हुआ है । वह सं० १७५९ मे लिखा गया था। और सब प्रतियां इसके बादकी हैं। गुटका नं० १३६ में इस कथाके सबसे अधिक पद्य सन्निहित है, अर्थात् १५४ । प्रारम्भमे चौबीस तीर्थंकरोंकी फिर शारदाको स्तुति की गयी है, १. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाका त्रैवार्षिक पन्द्रहवाँ खोज विवरण, Appen dix II. पृष्ठ ८६ । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य " सारद वणी सेवा मन धरौ, जा प्रसाद कवित्त ऊचरौ, मूरष तै पंडित पद होई, ता कारणी सेवै सब कोई, छह दरसण मुषी भेडन साण ॥ वरह गलगज मोती हार, गलै पाटी यौ सोचनं सरीर कानां कुंडल रतनं जडी, सीस मोगी मोत्या झलमलै ॥ चरण नेवर रुणझुण करै, हंस चढ़ी कर वीण ह सुरत दुधी महाफल देह, सारद नवणी कर बहु भाई || " पार्श्वनाथ कथा यह भी एक पद्य बद्ध काव्य है । इसमें भगवान् पार्श्वनाथका जीवन चरित्र दिया हुआ है । यह जयपुरके बड़े मन्दिरके गुटका नं० १६५ में निबद्ध है । पुष्पदन्त-पूजा इस पूजाका उल्लेख 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के पन्द्रहवें वार्षिक विवरणके 'Appendix II' में, पृष्ठ ८९ पर हुआ है । सम्पादकोंको इसकी प्रति किरावली, आगराके जैन मन्दिरसे प्राप्त हुई थी। इसमें ६७२ अनुष्टुप् छन्द हैं + जैनोंके नौवें तीर्थंकर पुष्पदन्तकी पूजा की गयी है । इसका आदि और अन्त देखिए, आदि अन्त "अगर अवर धूप चन्दन घेवो भविजन लाय । देखे सुर ष आनि कौतिग डाय मेरु सुदर्शन ॥ धूपं नालिकेर दाम पिता पूगी फल दे आदि । चढ़ाइए जिन चरन आगे मोषक लडत पादि ॥ ' ३०५ "अजर अमर सोउ जित्य भयौ, सो जिनदेव सभा को जयौ । दीन दीख्यौ रच्यौ पुरान, ओछी बुधि में कियो बखान ॥ ही अधिक जो अछिस होय, ताहि संवारौ गुनियर लाये । उत्तम नगर तिहुन पुर जानि, तहां कथा को भयो बषान ॥ " नेमिनाथरा यह एक उत्तम कृति है । इसमें १५५ पद्य हैं। सभी चौपाई छन्दमें लिखे गये हैं । इस 'राम' का, नेमिनाथको वैराग्य लेनेवाली घटनासे सम्बन्ध है । ३९ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि समुद्रविजयके द्वारपर बारात पहुँची । दुलहा थे नेमीश्वर, कृष्णके छोटे भाई । किन्तु द्वारपर बँधे असंख्य जीवों को विलाप करते देख, वे दीक्षा लेकर गिरनारपर तप करने चले गये । जीवोंको काटकर भोज्यपदार्थ बनाना था । नेमीश्वरके हृदयमें करुणा उपजी । संसारकी निःसारता स्पष्ट झलक उठी। बिना विवाह किये चले गये । किन्तु राजीमती क्या करे । इसका विश्वव्यापी विरह गरज उठा । उसकी बेचैनी दुरूह थी । यह रास उसीको लेकर चला है । ३०६ बारात आ रही है । दुलहिनकी उत्सुकताका क्या ठिकाना है | कही से उसने सुना है कि नेमीश्वरको शृंगार अधिक प्रिय है । राजपुत्रीको श्रृंगार-साधनोंकी कमी नहीं थी । उसने हाथोमे हीरों-जड़े कंगन पहने, गलेमे मोतियोंकी माला धारण की, वेणीको फूलो से सजाया । ललाटपर तिलक, नेत्रोमे काजल और मुखमें पान सुशोभित हो उठा। सजी राजुलका चित्र है, 1 " रूप अन्चगल णेमिकुमार, सुण राजमती कियो शृंगार | कर कंकण बहु हीरा जड्यो, पहिरि हार गज मोती भन्यो ॥ कुसुम-सीस बंधे बहुताय, तिलकु लिलाट न वर्णो जाय । नया कज्जल मुखि तंबोलु, अंगि चढाइयो कुंकुम रोल ॥ पहिरि पटोरे दक्षिण चीर, जणिकुं सिंदूरह मिलियो खोरु | चन्ह नेवर कौ झणकार, सब वर्ण तो होइ पसार ॥ " जब राजुलने सुना कि नेमीश्वर दीक्षा लेकर तप करने चले गये हैं, तो मूच्छित होकर गिर पड़ी। उसने दूसरा विवाह न किया । उस एकके विरह मे जीवन बिता दिया, जो न कभी आया, न आनेवाला था । इस काव्यमे विरहके अतिरिक्त वीररसके छुटपुट दृश्य है । वे मूल प्रसंग में जड़से गये है । कथानक सशक्त है । अवान्तर कथाएँ मुख्य कथाकी सहायक के रूपमे प्रस्तुत हुई है । रसमे प्रवाह है । आरम्भमे सरस्वतीकी वन्दना की गयी है । "सरस्वती माता बुद्धिदाता, करहु पुस्तक लेई । उर पहिरि हारू करि सिंगारू हंस चढ़ी वर देई ॥ सेवंत सुर-नर नवहिं मुनिवर, छहौं दरसण तोहि । कवि जंप भाउ करि पभाउ, बुद्धि फल मोहि ॥" यह रचना जैनमन्दिर पाटोडो जयपुरके गुटका नं० ६५ में पू० ६२९ से ६३३ पर अंकित है । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ८१. लक्ष्मीवल्लभ ( १८वीं शताब्दीका दूसरा पाद ) आप खरतरगच्छोय शाखाके उपाध्यक्ष लक्ष्मीकीतिजीके शिष्य थे। उनके लिए 'अमरकुमार-चरित्र-रास'में 'वाणारसी लखमीकिरति गणी'का प्रयोग हुआ है। इससे सिद्ध है कि वे बनारसके रहनेवाले थे । अवश्य ही विद्वत्ताके क्षेत्रमे उनकी विशेष ख्याति रही होगी। लक्ष्मीवल्लभने उन्हीके चरणोमे बैठकर अपनी शिक्षा-दीक्षा आरम्भ की थी। कुछ ही समयमे वे व्युत्पन्न हो गये और उन्होंने विपुल साहित्यका निर्माण किया। उनका हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती और संस्कृत चारो भाषाओपर समानाधिकार था। संस्कृतमे निर्मित हुए उनके साहित्यसे यह प्रमाणित है कि वे उच्चकोटिके विद्वान् थे। 'कल्पसूत्र' और 'उत्तराध्ययन'की जिसने वृत्तियां लिखी है, वह कोई साधारण विद्वान् नही हो सकता। 'कालकाचार्य' तथा 'पंचकुमार कथा', 'कुमारसम्भव वृत्ति' और 'मात्रिकाक्षरधर्मोपदेश स्वोपज्ञवृत्ति' भी उन्हीकी संस्कृत कृतियां है। उनकी हिन्दी रचनाओपर गुजरातीका अधिक प्रभाव है। वैसे भाषा परिमार्जित है, और उसमें संस्कृतके तत्सम शब्दोका अधिक प्रयोग हुआ है। चौबीस स्तवन यह स्तवन चौबीस तीर्थंकरोंकी भक्तिसे सम्बन्धित है। इसकी दो प्रतियां अभय जैन पुस्तकालय बीकानेरमे मौजूद है। पहली प्रति पीपासर गाँवमे सं० १७५५ माह बदी ४ को लिखी गयी थी। और दूसरीको किन्ही सुखरत्न गणिने सं० १७९० फाल्गुन बदी ४ गुरुवारको मुल्तानमे लिखा था। दोनों ही मे चार-चार पन्ने है। यह एक मुक्तक काव्य है । पदोको रचना राग-रागिनियोंमे की गयी है । आदिका एक पद्य है, "आज सकल आनंद मिले, आज परम आनंदा । परम पुनीत जनम भयो, पेखे प्रथम जिनंदा । १. उपाध्याय श्री लखमीकीरति शिष्य, लखमिवल्लभ मति सारइ । छोपी करी बार ढाल करि, भवीयणनई उपगारइ । रत्नहास चौपई, जैन गुर्जरकविओ, खण्ड २, भाग ३, पृ० १२५३ । २. खेम साख श्री खरतर गच्छ भणी, वाणारसी लखमोकीरति गणि । जैन गुर्जरकविओ, खण्ड २, भाग ३, पृ० १२४७ । ३ राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, पृ० २२-२३ । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि फटे पडल अज्ञान के, जागी ज्योति उदारा। अंतरजामी मैं लख्यौ, आतम अविकारा ॥ तू करता सुख संग कौ, वंछित फलदाता | और ठौर ठौर राचे न ते, जे तुम संग राता ॥ सकल अनादि अनंत तू, भत्र मय तैं न्यारा । मूरख भाव न जान ही, संतन कूं न्यारा ॥ परमातम प्रतिबिंब सी, जिन मूरति जानै । ते पूजित जिनराज कूं, अनुभव रस मांने ॥" महावीर गौतम स्वामी छन्द इसका निर्माण सं० १७४१ से पहले ही हो गया था। इसमें ९६ पद्य है। सभी भगवान् महावीर और उनके प्रमुख गणधर गौतमको भक्ति से युक्त है । इसकी दो प्रतियोका उल्लेख श्री मोहनलाल दुलीचन्दजी देसाईने किया है, वे क्रमशः संवत् १७४१ और १७८५ की लिखी हुई है। उन्होने दोनोंकी सूचना नाहटा संग्रह से प्राप्त की थी। उसका आदि और अन्त देखिए, " वर दे तुं वरदायिनी, सरसति करि सुप्रसाद । वांचु वीर जिणंदसुं गौतम गणधरवाद ॥ १ ॥ पाठक लक्ष्मीकीर्त्ति प्रगट, सुप्रसादै सरस्वती तणै । गौतमवाद निज ज्ञान सम, रसिक 'राज' इण विध मणे ॥९६॥ " दूहा बावनी श्री नाहटाजीने इसकी दो प्रतियोंका उल्लेख किया है, जो अभय जैन पुस्तकालय में मौजूद है । पहली प्रतिको श्री हीरानन्द मुनिने संवत् १७४१ पौस सुदी १ मे लिखा था । दूसरी प्रति संवत् १८२१ आश्विन बदी ७ को लिखी हुई है, जिसको भुवनविशाल गणिके शिष्य फहदचन्दने लिखा था । उसका आदि और अन्त इस प्रकार है, "ऊं अक्षर अलख गति, धरूँ सदा वसु ध्यान | सुर नर सिद्ध साधक सुपरि, जाकुं जपत जहांन ॥१॥ दोहा वावनी करी, आतम परहित काज । पढत गुणत वाचत लिखत, नर होवत कविराज ॥ ५८ ॥ १. जैन गुर्जरकविश्रो, खण्ड २, भाग ३, १० १२५१ । २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, पृ० ८६ । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य सवैया बावनी इसमे ५८ सवैये है। इसकी रचना संवत् १७३८ मगसिर सुदी ६ को हुई थी। इसकी एक प्रति संवत् १७३८ मगसिर शुक्ला ६ की ही लिखी हुई मौजूद है, उसका उल्लेख श्री मोहनलाल दुलीचन्दजी देसाईने किया है।' नेमि-राजुल बारहमासा एक प्रौढ़ रचना है। सवैयोंमे लिखी गयी है। कुल १४ पद्य है। रचना भगवान्के प्रति दाम्पत्यविषयक रतिका समर्थन करती है। इसको एक प्रति अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेरमे मौजूद है। इसके दो सवैये देखिए जो भाषा, भाव और शैली सभी दृष्टियोसे उत्तम कहे जा सकते है, "उमटी विकट घनघोर घटा चिहुँ ओरनि मोरनि सोर मचायो। चमके दिवि दामिनि यामिनि कुंभय मामिनि कुं पिय को संग मायो । लिव चातक पीउ ही पीड़ लई, मई राज हरी भुंइ देह छिपायो। पतियां पै न पाई री प्रीतम की अली, श्रावण आयो पै नेम न आयो॥ ज्ञान के सिंधु अगाध महाकवि मेसर छीलर नीर निवासो। . हैं जु महाकवि तो दिन राज से, मेरो निसाकर कौ सौ उजासो। ताते करूं बुध सुं यह वीनति, मेरी कहुं करियौ जनि हांसो। आपनी बुध सूं राज कहै यह, राजल नेमि को बारह मासो ॥१४॥" भावना-विलास इसकी रचना संवत् १७२७ पौष वदी १० को हुई थी। इसमे जैनधर्मसम्बन्धी बारह भावनाओंका आकर्पक ढंगसे वर्णन हुआ है। सवैयोंका यहाँपर भी प्रयोग किया गया है। यह रचना भूधरदासके 'राजा राणा छत्रपति से भी अधिक रोचक है। इसकी एक प्रति बीकानेरके अभय जैन ग्रन्थालयमे मौजूद है। इसको मुनि हर्षसमुद्रने नापासरमे सं० १७४१ आसोज १४ को लिखा था। संवत् १८५४ १. जैन गुर्जरकविओ, खण्ड २, भाग ३, पृ० १२४६-५० । २. द्वीप युगल मुनि शशि वरसि, जा दिन जन्मे पास । ता दिन कीनी राज कवि, यह भावना विलास ॥५१॥ भावना विलास, राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, पृ० १५२ । ३. वही, पृष्ठ १५२ । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि और १८६८ मे लिखो गयो प्रतियोंका उल्लेख 'जैन गुर्जरकविओ' में हुआ है ।' इसका प्रारम्भिक सवैया इस भाँति है, " प्रणमि चरणयुग पास जिनराज जू के, विधि के चूरण हैं पूरण है आस के । दिढ दिलमांझि ध्यान धरि श्रत देवता को, सेवैतै संपूरत है मनोरथ दास के ॥ ज्ञान हग दाता गुरु बड़े उपगारी मेरे, दिनकर जैसे दीपै ज्ञान परकास के । इनके प्रसाद कवि राज सदा सुखकाज, सवीये बनावत है भावना- विलास के ॥१॥" चेतन बत्तीसी । इसमे ३२ पद्य है इसकी रचना सं० १७३९ मे हुई थी। इसकी क प्रति मुनि हीरानन्दने सं० १७४१ आसोज बदी ८ को लिखी थी, जो नाहटा संग्रह मौजूद है | एक दूसरी प्रति और है, जो सं० १८६८ मे लिखी गयी थी । यहाँ भ्रमाकुलित चेतनको चेतानेका प्रयास किया गया है 3 "चेतन चेत रे अवसर मत चूके, सीख सुणे तूं साची । गाफिल हुई जो दाव गमायौ, तौ करसि बाजी सहु काची ॥१॥ उपदेश बत्तीसी इसमे भी ३२ पद्य है । आत्माको सम्बोधन कर उसको विकृत पथसे निरत करने की बात कही गयी है। दो पद्य इस प्रकार है, "आतमराम स्याणे तूं झूठे भरम भुलाना किसके माई किसके भाई, किसके लोक लुगाई जी, तू न किसी का को नहीं तेरा, आपो आप सहाई ॥ १ ॥ इस काया पाया का लाहा, सुकृत कमाई कीजै जी, राज कहे उपदेश बत्तीसी, सद्गुरु सीख सुखीजै जी ॥२॥" १. जैन गुर्जर कवि, खण्ड २, भाग ३, पृ० १२४६ ॥ २. सुवच एह अमीरस सरिखा, पंडित श्रवणे पीसी, सतरहसे गुणयालें संवत, बोले राज बतीसी ॥३२॥ चेतन बत्तीसी, जैन गुर्जरकविओो, खण्ड २, भाग ३, पृष्ठ १२५० ॥ ३. वही, पृष्ठ १२५० । ४. वही, पृष्ठ वही । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य देशान्तरी छन्द ___ इसमे ३९ पद्य है । इसमें भगवान् पार्श्वनाथको भक्तिका उल्लेख है । इसकी एक प्रतिको पालणपुरमे श्री तेजविजय गणिने सं० १९०१ पौस सुदी ११ को लिखा था। इसमे 'त्रिभंगी' छन्दोंका प्रयोग किया गया है। प्रारम्भमे ही देवी सरस्वतीकी वन्दना है। "सुवचन खूपों सारदा, मया करो मुझ माय तो सुप्रसन सुवचनतणों, तुमणा न होवे काय ॥ कालीदास सरिखा किया, रंक थकि कविराज, महेर कार माता मुणे, निज सुत जाणी निवाज ॥" अन्य रचनाएँ उपर्युक्त कृतियोंके अतिरिक्त इनकी अन्य रचनाएं भी उपलब्ध है। 'अभयंकरत्रीमती चौपई', 'अमरकुमार रास', 'विक्रमादित्यपंचदण्डचौपई', 'रत्नहास चौपई', 'कवित्व बावनी', 'छप्पय बावनी', 'भरत बाहुबली मिडाल छन्द', 'बीकानेर चौबीसटा-स्तवन', 'शतकत्रयटबा', और स्तवनादिका नाम श्री अगरचन्दजी नाहटाने गिनाया है। ___ अठारहवीं शताब्दीका दूसरा पाद ही उनके साहित्यका निर्माणकाल माना जा सकता है । वे इस शताब्दीके महत्त्वपूर्ण साहित्यकार थे। ८२. विनोदीलाल (वि० सं० १७५०) विनोदीलाल साहिजादपुरके रहनेवाले थे। उसको शाहजहाँदपुर भी कहते है। शायद इस नगरको स्थापना बादशाह शाहजहांके नामपर हुई थी। यह गंगाके किनारेपर बसा हुआ एक रमणीक स्थान था। उसकी प्रशंसा करते हुए कविने लिखा है, "कौशल देशके मध्यमे 'शाहिजादपुर' नामका एक नगर है। वह गंगाके किनारे बसा हुआ अपनी छटामे अनुपम है। उसकी तुलना अन्य कोई नगर नही कर सकता। उसमे बड़े-बडे महाजन और श्रावक रहते है। सभी अपने-अपने धर्ममे लोन है । श्रावकोंका जैन धर्ममे दृढ़ श्रद्धान है। वहाँ भगवान् जिनेन्द्रके तीन चित्र-विचित्र चैत्यालय है, जिनमे विविध प्रकारसे धर्मध्यान होता ही रहता है । उस नगरमें यतियों और व्रतियोंका अत्यधिक आदर-सम्मान होता १. वही, पृष्ठ १२५४ । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि है । उस समय वहां वादशाह औरंगजेबका राज्य था । कविने उसकी अत्यधिक प्रशंसा की है। विनोदीलाल औरंगजेबके दरबारी कवि नही थे, यह सुनिश्चित है। अतः उनके द्वारा की गयी प्रशंसा निःस्वार्थ ही कही जायेगी। शायद उन्होंने जैसा देखा वैसा ही लिखा। न जाने क्यों औरंगजेबके शासन-कालमे हुए जैन-हिन्दीके सभी कवियोंने मुक्त कण्ठ और एक स्वरसे उसकी प्रशंसा की है। हो सकता है कि इतिहासके नये जिज्ञासुओको इससे कुछ मौलिक सामग्री उपलब्ध हो सके। विनोदीलाल कुछ दिनोंके लिए दिल्लीमें भी आकर रहे थे। वहाँपर ही उन्होंने 'भक्तामर भाषा-कथा' और 'सम्यक्त्व-कौमुदी'की रचना को । सच तो यह है कि उनका झुकाव जैन धर्मके भक्ति-अंशकी ओर हो अधिक था। शाहजहाँपुरमे भी वे इसो रूपमें प्रसिद्ध थे। उनका जन्म अग्रवाल वश और गर्ग गोत्रमें हुआ था। इनके विषयमे मिश्रबन्धुओंने लिखा है, 'ये हीन श्रेणीके थे, करौली नरेशके यहां रहते थे और देवीदास इनके आश्रित थे। विनोदीलाल ने अनेक स्थानोंपर १. कौशल देश मध्य शुभ थान । शाहिजादपुर नगर प्रधान ॥ गंगातीर बसे शभ ठौर। पटतर नाहीं तास पर और।। बसे महाजन बहुविधि लोग । अपने धर्म लीन संभोग ।। श्रावक लोग बसें जहं घने । जैन धर्म रत सत आपने ॥ चैत्यालय जिनवर के तीन । चित्र विचित्र रचित प्रवीन ॥ धर्म ध्यान सब विधि सो करे । जती व्रती को अति आदरे ॥ काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाका त्रैवार्षिक बारहवॉ विवरण, परिशिष्ट २, पृष्ठ १५७४, भक्तामर चरित, बाराबंकीवाली प्रति। २. नौरंग साहिबली को राज । पातसाह सब हित सिरताज ॥ सुख विधान सक बंध नरेस । दिल्लीपति तप तेज दिनेस ॥ अपने मत मे सम्यक् वंत । शील शिरोमणि निज तिय कंत ।। दीप दीप है जाकी आन । रहै साह अरु संका मान ॥ साहिजहां के वर फरिजंद । दिन-दिन तेज बढ़े ज्यों चन्द । भयो चकत्ता उनस उदोस । सिंह बली बन जैसे होत ॥ बही। ३ ते पुर लाल विनोदी रहे। जैन धर्म की चर्चा कहै। अगरवाल जैनो शुभ वंस । गर्ग गोत प्रगट्यो सरहंस ।। वही। ४. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, संख्या ५२२।१, पृ० ५१५ । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य अपनेको हीन और दीन कहा है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे वास्तवमे वैसे थे। उस समय भगवान्के समक्ष अपनी लघुताके प्रदर्शनका यह ही ढंग था। महात्मा तुलसीदासने भी ऐमा ही किया है । विनोदीलाल भगवान् नेमीश्वरके परम भक्त थे। उनका अधिकांश साहित्य नेमिनाथके चरणोमे ही समर्पित हुआ है। विवाह-द्वारसे लौटते नेमीश्वर और विलाप करती राजुल, उन्हे बहुत ही पसन्द है। राजुलके बारहमासोंमे शृंगार और भक्तिका समन्वय हुआ है ।। __राजुल भगवद्विषयक अनुरागका सरस निदर्शन है। उसमे जैसे शील और सौन्दर्यको संजोया गया, अप्रतिम है। केवल नेमीश्वर ही नहीं, अन्य तीर्थंकरोंकी भक्तिमे भी विनोदीलालने बहुत कुछ लिखा है। 'चतुर्विशति जिन स्तवन सवैया' इसका दृष्टान्त है। इससे अतिरिक्त 'नौका बन्ध', 'प्रभात जयमाल', 'फूलमाल पच्चीसी' और 'रत्नमाल' सरसभक्तिके प्रतीक है। भगवान् ऋषभदेवकी भक्तिके कारण हो उन्होने 'भाषा-भक्तामर' की रचना की थी। वह संस्कृतके प्रसिद्ध स्तोत्र 'भक्तामर'को छायापर बना है। किन्तु उसकी भाषा-शैली मौलिक है । मूल कविके भावोमे व्याघात नही आ पाया है। यह हो उसकी विशेषता है । 'श्रीपाल विनोद' भो ऐमा ही एक अनुवाद है। विनोदीलालको जन्मसे ही भक्त हृदय मिला था। उनकी कृतियोमे तन्मयताका भाव सर्वत्र पाया जाता है। प्रसादगुण उनको विशेषता है। नेमि-राजुल बारहमासा ___यह बहुत पहले ही 'बारहमासा-संग्रह मे प्रकाशित हो चुका है । साहित्यमें 'बारहमासों का प्रचलन बहुत पुराना है। उसका प्रारम्भ लोक-गीतोंसे मानना चाहिए । भारतके प्रत्येक भागको जन-भाषामें बारहमासे प्रचलित है । भाव भी सबके मिलते-जुलते है। मानव-मन किभो भी देश और कालका हो, सदैव एक रहा है । मनुष्यके इस सामान्य मनको लेकर चलनेवाला साहित्य ही अमर हो सका, अवशिष्ट तो कालके थपेड़ोको न सहकर मर गया। बारहमासे उसी अमर साहित्यका प्रतिनिधित्व करते है। हिन्दीके अन्य बारहमासोमे विरहिणीका अपना दुःख तो दिखाया गया है, किन्तु दूरस्थ पतिके दुःखका उसे ध्यान ही नहीं है, जायसीको नागमतीका जाड़ा जब रुईसे भी नहीं जाता, तो वह पतिको बुलाना चाहती हैं, किन्तु वह यह नही १. देखिए जैन पुस्तक भवन, कलकत्तासे प्रकाशित, बारहमासा संग्रह, पृ० २३-३० । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि सोचती कि ऐसे जाड़ेमे प्रवासी पतिका क्या हाल होगा। विनोदीलालकी नायिकाको पतिका अधिक ध्यान है, अपना नही, पशुओंको करुण दशाको देखकर नेमीश्वर विवाह-द्वारसे वापस लौट गये। किन्तु राजुलने उन्हीको अपना पति माना । वह उनके पास गयी, और कहा कि हे पिय ! सावनमे व्रत मत लो। जब घनघोर घटाएँ घिरेगी, मोर शोर मचायेंगे, कोकिल कुहकेगी, दामिनी दमकेगी और पुरवाईके झोंके चलेंगे, तो तुम्हारा तप-तेज क्षण-मात्रमे नष्ट हो जायेगा, "पिया सावन में व्रत लीजै नहीं, धन घोर घटा जुर आवेगी । चहुं ओर ते मोर जु शोर करें, वन कोकिल कुहक सुनावैगी ॥ पिय रैन अँधेरी में सूझै नहीं, कछु दामन दमक डरावेगी। पुरवाई की झोंक सहोगे नहीं, छिन में तप तेज छुड़ावैगी ॥४॥" नेमिनाथको यह मालूम था कि सावनकी प्रकृति उतनी भयावह नही हो सकती जितना कि प्रबल यमराज स्वयं है, जो प्रत्येकके लिए अनिवार्य रूपसे आता है। सावनकी प्रकृति नेमिनाथमें साहस और वीरताका संचार करती है, “या जिय को कोई न राखनहार, कहो किसकी शरणागत जैये । काल' बली सबसों जग में, तिह सों निशिवासर देख डरैये ॥ इंद्र नरेंद्र धरेंद्र सबै, जम आन परै तब बांध चलये। यातें कहा डर सावन का सुन, राजुल चित्त को यों समुझेये ॥५॥" पौषके माहमे घना जाड़ा पड़ता है। सौड़मे भी शीत नही जाती। उस समय राजुलको अपनी चिन्ता नही, वह पियकी बात ही सोचती है कि जब उन्हें शीत लगेगा तो क्या मोठेंगे ? पत्तोंकी 'धुवनी' तो पर्याप्त न होगी। इस ऋतुमे ही कामदेव अपनी सेना लेकर आक्रमण करता है, उनका शरीर कोमल है, कैसे मुकाबला करेंगे । भारतीय नारीको पतिके सुख-दुःखकी चिन्तामें जो सात्त्विकता है, "पिय पौष में जाड़ो परैगी धनो, बिन सौंड़ के शीत कैसे मर हो। कहा ओढोगे शीत लगे जबही, किधौं पातन की धुवनी धर हो । तुम्हरो प्रभु जी तन कोमल है, कैसे काम की फौजन सों लर हो। जब आवेगी शीत तरंग सबै, तब देखत ही तिनको डर हो ॥१४॥" किन्तु नेमोश्वरका विचार है कि ठण्डी हवाके झोके इस शरीरका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। शरीरका बिगाड़ तो विविध कर्मोके आस्रवसे होता है, रागद्वेषसे होता है, इन्द्रियोंको वश्यतासे होता है और 'पर' को 'स्व' माननेसे होता है। जिसने 'स्व'का विचार कर लिया है, वह वनमे रहे या घरमे, डूब नहीं सकता। इस भांति पौषकी सर्दी नेमीश्वरको नहीं सता पाती और न कामदेव ही आक्रमण कर पाता है, Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३१५ "आस्रव होय जहाँ पर शोभित, शीत लगै अरु पौन झकोरे । इंद्विय पांच पसार जहां तहां, राग रोष ते नातो हि जोरै ॥ आठ महामद माते रहैं, पर द्रव्य को देख जहां चित दौरै। जो पर आप विचार न राजुल, तो गृह आपत आपही बार ॥१५॥" जेठका माह लगनेपर बहुत अधिक गरमी पडेगी, लू लगेगी और जलती धूपमे बड़े-बड़े पर्वत भी बह जायेंगे। उस समय तो पक्षी और पतंगे तक अपने-अपने घरमे ही रहना पसन्द करेंगे। भूख और प्याससे शरीर सूख जायेगा। ऐसी दशामे पतिका महाव्रत कैसे निभ पायेगा। राजुल चाहती है कि उसका पति इन कष्टोको न भोगे । उसका मन प्रियके सुखमे तन्मय है। उसे कामकी प्यास नही, पतिके हितको चिन्ता है, "धर्म की बात तो साँची है नाथ, पै जेठ में कैसे धर्म रहैगो। लह चलै सरवान कमान ज्यौं, धाम परे गिरमेरु बहैगो। पक्षी पतंग सबै डर हैं, अपने घर को सब कोई चहैगो । भूख-तृषा अति देह दहै तब, ऐसो महाव्रत क्यों निबहेगो ॥२४॥" जेठको ऐसी भीष्म दोपहरीसे नेमीश्वरको किंचिन्मात्र भी भय नही है । उनको मालूम है कि नर-भव-दुर्लभ है, और उसमे भी श्रावक-योनि । अतः अब दशलक्षण और सोलह भावनाओंवाला जिन-धर्म पाल लेना चाहिए। उसीसे इस जीवका कल्याण हो सकता है। जेठ नेमीश्वरके भयको नहीं, अपितु वीतरागी भावको जगाता है। “दुर्लभ है नर को भव राजुल, दुर्लम श्रावक योनि हमारी । दुर्लभ धर्म जु है दशलच्छन, दुर्लभ षोडश मावना भारी। दुर्लभ श्री जिनराज को मारग, दुर्लभ है शिवसुन्दर नारी। यह सब दुर्लभ जान तब, जब दुर्लभ है सन्यास की तैय्यारी ॥२५॥" विरहके दु.खमे आनन्ददायक वस्तुएं भी दुःख देनेवाली हो जाती है। कार्तिकका महीना है, सब स्त्रियां घर सजा रही है । भाँति-भांतिके चित्रोको रचना कर मंगल-गीत गाती है। पियको बुलाकर नये-नये शृंगार करती है । और दीवालीके दीपक जलाते हुए तो जैसे उनका हर्ष ही फूटा पड़ता है। किन्तु इस सबको देखकर राजुलका जी तरसकर रह जाता है। सबके पति घर आ गये किन्तु राजुलका नहीं आया। फिर भी वह "बिछुरी मोरि जोरी' कहकर झुरती नही और न अपने सिरमे छार मेलती है। देखिए, "पिय कातिक में मन कैसे रहे, जब भामिनि मौन सजावेगी। रचि चित्र विचित्र सुरंग सबै, घर ही घर मंगल गावेगी। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि पिय नूतन नारि सिंगार किये, अपनी पिय टेर बुलावेंगी। पिय बारहिबार बरे दियरा, जियरा तुमरा तरसावेगी ॥१०॥" यहाँ पियको तरसानेकी ओटमे राजुलका तरसना ही ध्वनित हो रहा है। किन्तु नेमिनाथ कानिकके इस साज-शृंगारसे विचलित होनेवाले जीव नही है। उन्होंने आत्मा और शरीरके भेदको समझ लिया है। यह प्रसन्नता शरीरसे सम्बन्धित है, आत्मासे नही । कलिधारमे वह हो डूबता है जो जड़ और चेतनके भेदको नहीं समझता । जैसे हंस दूधको पी लेता है, और जलको छोड़ देता है, वैसे ही जब यह जीव समझेगा, तव कही वह परमात्मारूप आत्माको समझ सकेगा। "तो जियरा नरसै सुन राजुल, जो तन को अपनो कर जाने । पुद्गल मिन्न है मिन्न सबै तन, छोडि मनोरथ आन समानै । बूढ़ेगी सोई कलिधार में, जड़ चेतन को जो एक प्रमान । हंस पिवै पय मिन्न करै जल, सो परमातम आतम जानै ॥११॥" नेमि-ब्याह' यह एक छोटा-सा खण्ड-काव्य है। इसमे नेमिनाथके विवाहकी कथा है । नेमिनाथके पिताका नाम समुद्रविजय और मांका नाम शिवदेवी था। इनका जन्म सौराष्ट्रान्तर्गत द्वारावतीमे हुआ था। यह यादववंशी राजकुमार थे। कृष्ण और बलभद्र इन्हीके वंशज बड़े भाई थे। नेमिकुमार बचपनसे ही शक्तिसम्पन्न और धर्मात्मा थे। इनका विवाह झूनागढ़के राजा उग्रसेनकी कन्या राजुलके साथ निश्चित हुआ। बारात पहुंची। अगवानीके उपरान्त टीकाके लिए जाते समय अनेक पशुओंको बंधे और चीत्कार करते देखा। उस करुण-क्रन्दनको सुनकर उनको वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे तुरन्त ही वीतरागी दीक्षा ले गिरिनारपर तप करने चले गये। मंगलगीत रुक गये, शहनाइयां शान्त हो गयी। मां-बापने राजुलको बहुत समझाया, किन्तु उसने अन्यको पति चुननेसे स्पष्ट इनकार कर दिया। वह भी नेमीश्वरको ही अनुगामिनी बनी। विनोदीलाल चित्र उपस्थित करनेमे अनुपम थे। दुलहा नेमीश्वर विवाहके लिए जा रहे है। सिरपर मौर रखा है, और हाथोंमे कंकणकी डोरी कसकर बांध दी गयी है । कानोमें कुण्डल झलक रहे हैं, और भालपर रोली विराजमान हैं। वक्षस्थलपर पड़े मोतियोंके हारकी तो शोभा ही न्यारी है । देखिए, "मौर धरो सिर दूलह के कर कंकण बांध दई कस डोरी। कुंडल कानन में झलके अति माल में लाल विराजत रोरी । १. इसकी हस्तलिखित प्रति, जैन सिद्धान्त भवन, पारा में मौजूद है। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य ३१७ मोतिन की लड़ शोभित है छबि देखि लजें बनिता सब गोरी। लाल विनोदी के साहिब के मुख देखन को दुनियां उठ दौरी ॥" ऐसा प्रतीत होता है जैसे विनोदोके साहबको देखनेके लिए दुनिया आज भी उठकर दौडी चली आ रही है। 'उठ दोरी' में देखनेकी ऐसी व्याकुलता है, जो देखते ही बनती है। पशुओके करुण-क्रन्दनको सुनकर नेमिकुमार उदास हो गये। उनके हृदयमे जीव मात्रका कल्याण करनेकी भावना उदित हुई। किन्तु इसके लिए असीम आत्मिक बलकी आवश्यकता थी। उसे सम्पन्न किये बिना दूसरोका कल्याण कैसे हो सकता है। एतदर्थ ही वे गिरिनारपर तप करने चले गये। उस समयका दृश्य देखिए, "नेम उदास भये जब से कर जोड़ के सिद्ध का नाम लियो है। भम्बर भूषण डार दिये सिर मौर उतार के डार दियो है॥ रूप धरौ मुनि का जबहों तबही चढ़ि के गिरिनारि गयो है । लाल विनोदी के साहिब ने तहां पांच महाव्रत योग लयो है ॥" उदासीनताको लहरके आते ही उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान् सिद्धको नमस्कार किया, जैसे मानो उनकी कृपासे ही यह उत्तम भाव उत्पन्न हुआ हो। वस्त्राभूषण उतार फेंके और वह मौर भी धराशायी हो गया, जो विवाहका प्रतीक था। मुनिका रूप धारण कर पंच महाव्रत ले लिये। ___"वर द्वारसे ही तो लौट गया, भांवरें तो नहीं पड़ने पायी, अतः राजुलको अन्य पति चुननेका अधिकार है।"- माता पिताके ऐसा कहते ही राजुलकी भौं कुंचित हो उठी । उसने फटकारते हुए कहा, "काहे न बात सम्हाल कहो तुम जानत हो यह बात भलो है। गालियां काढत हो हमको सुनो तात भली तुम जीम चली है। मैं सबको तुम तुल्य गिनो तुम जानत ना यह बात रली है। या भव में पति नेमप्रभू वह लाल विनोदी को नाथ बली है ॥" माँ-बापको फटकारना कोई अच्छी बात नहीं है। वे जो कुछ भी कह रहे थे, अपनी समझसे तो भलेकी ही कह रहे थे। किन्तु राजुल भी क्या करे, उसे दुःख था कि उसीके मां-बाप, उसे जानकर भी न जान पाये। उन्हे अपनी पुत्रीके साधारण भोग-जन्य सुखका ही ध्यान था। किन्तु राजुलने तो विवाहको पवित्रबन्धन माना था, भोगका सहारा नहीं। मनमें एक बार जिसे पति मान लिया जीवन-भर वह ही रहेगा। पति कुछ भी करे। नारीके इस पावन आदर्शपर Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि आघात करनेवाला कोई भी क्यों न हो, राजुल खरी-खोटी सुनाये बिना नही रह सकती । उसमें माँ-बापका ध्यान भी भुला देना होता है । पण्डित रामचन्द्र शुक्लने इसीको बड़े धर्म के लिए छोटे धर्मको न्योछावर कर देनेकी बात कही है। वह यहाँ पूर्ण रूपसे घटित होती है । राजुल पच्चीसी अनेकानेक भण्डारोमे इसकी प्रतियाँ मौजूद है। बीकानेर के अभय जैन पुस्तकालयमे जो प्रति है, वह वि० सं० १७८२ मगसिर बदी ६ को लिखी हुई है । जयपुर के बीचन्दजीके दिगम्बर जैन मन्दिरके गुटका नम्बर १६१ मे इसकी जो प्रति निबद्ध है, वह वि० सं० १७९३ की लिखी हुई है । जयपुरके ही ठोलियोंके दिगम्बर जैन मन्दिरमे वेष्टन नम्बर १९९ मे बंधी हुई 'राजुल पच्चीसी' वि० सं० १७६९ की लिखी हुई है। श्री मन्दिर जी कूंचा सेठ, दिल्लीके शास्त्र भण्डार के वेष्टन नं० ३०४मे इसकी एक प्रति मौजूद है। इस काव्यमे नेमिनाथ और राजुलका भावमय चित्र अंकित है । नेमजी रेखता २ इसकी प्रति बीकानेर के अभय जैन पुस्तकालयमे मौजूद है। इसकी भाषापर उर्दू-फारसीका अधिक प्रभाव है । फरजन्द, विलन्दसीस, फुरमाया, खुसदिल आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है । इसमे नेमीश्वरके विवाहार्थ आनेसे लेकर राजुलके स्त्रीलिंगको छेदकर स्वर्ग जाने तककी विविध बातें है । मुक्तक छन्दोमे ही सब कुछ कहा गया है । अतः इस रचनामे मुक्तक और खण्डकाव्य दोनों ही का आनन्द सन्निहित है । गीतावलीकी भांति उसमे मुक्तकता है और कथाका प्रवाह भी । आदि अन्त देखिए, आदि " समुदविजय का फरजंद व्याहने को आपने नेमनाथ खूब वनरा कहाया है 1 वखत विलंदसीस सेहरा विराजता है, जादोंराय पंजकोटि जान खूब लाया है ॥ यानवर देखिकै महरबान हुआ श्राप, इनको खलास करौ येही फुरमाया है । जाना है जिहान को दरोग है विनोदीलाल, गिरनार जाय भक्ति ऐसी चित लाया है" १. पण्डित रामचन्द्र शुक्ल, मानसेकी धर्मभूमि, चिन्तामणि, पहला भाग, प्रयाग, १६५० ई०, पृ० २११ । १. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, उदयपुर, पृष्ठ १४५ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य अन्त "गिरनेरगढ़ सुहाया, सुख दिल पसंद आया तहां जोग चित लाय तन कहां गया है । शुभ ध्यान चित दीन्हां नवकार मंत्र लीन्हा, परहेज कर्म किया है ॥ स्त्रीलिंग छेद कीन्हा पुल्लिंग पद लीन्हा ससद रहे स्वर्ग पहुंची ललितांग पद भया है। खुस रेखत बनाये लाल विनोदी गाये अनुसाफ दर्प ढाते, राजुल का भया है ॥" ३१९ प्रभात जयमाल इसे 'मंगल प्रभात' और 'नेमिनाथजीका मंगल' भी कहते है । इसकी रचना वि० सं० १७४४ मे हुई थी । इसकी एक प्रति जयपुरके ठोलियोंके जैन मन्दिर के एक पाठसंग्रहमे निबद्ध है । इसकी एक दूसरी प्रति पंचायती दिगम्बर जैन मन्दिर दिल्ली में मौजूद है। इसमें भगवान् नेमिनाथकी भक्तिमे कतिपय मुक्तक पद्योंका निर्माण हुआ है । सभी भक्ति से ओतप्रोत है । प्रातःकाल उठकर उनका उच्चारण करनेसे शुभ- गति मिलती है । चतुर्विंशति जिन स्तवन सवैयादि इसकी प्रति वि० सं० १८३९ भाद्रपद कृष्णा तृतीया शुक्रवारकी लिखी हुई बीकानेर के अभय जैन ग्रन्थालय मे मौजूद है ।' यह श्रावक वेणीप्रसादके बाँचनेके लिए लिखी गयी थी । इसमे कुल ७९ पद्य हैं और सभी सवैया है । इसके प्रारम्भके ८-९ पद्य आदिनाथके, फिर नवकार, १२ भावना और पार्श्वनाथ के सर्वये है । पद्मांक ४७ से आगे प्रत्येक छन्दमे एक-एक तीर्थंकरकी क्रमशः स्तुति है । प्रथम तीर्थंकर आदिनाथकी वन्दना करते हुए भक्त कहता है, " जाके चरणारविन्द पूजित सुरिंद इंद देवन के वृन्द चंद सोमा अति भारी है । जाके नख पर रवि कोटिन किरण वारे मुख देखे कामदेव सोमा छविहारी है ॥ जाकी देह उत्तम है दर्पन-सी देखियन अपनों सरूप भव सात की विचारी है । कहत विनोदीलाल मन वचन तिहुकाल ऐसे नाभिनंदन कूं वंदना हमारी है ॥" फूल माल पच्चीसी जैसा कि इसके नामसे स्पष्ट है, इसमें कुल २५ पद्य है । दोहा, छप्पय और नाराच छन्दोंका प्रयोग किया गया है। इसका प्रकाशन 'बृहद् महावीर कीर्तन' नामकी पुस्तक हो चुका है। विषय भक्ति से सम्बन्धित है। तीर्थंकर नेमिनाथ के १. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, उदयपुर, पृष्ठ ११८ २. बृहद् महावीर कीर्तन, श्री दिगम्बर जैन पुस्तकालय, महावीरजी, जयपुर. जनवरी १६५३ ई०, पृष्ठ २१६-२१६ । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि चरणोंमे इन्द्रने उत्साहपूर्वक एक फूलमाला समर्पित की, जिसे इन्द्राणीने भिन्नभिन्न प्रकारके पुष्प, मोती और मणि-माणिक्योसे गूया था। उस मालाकी शोभा देखिए, "सुगन्ध पुष्प बेलि कुन्द केतकी मंगाय के। चमेलि चम्प सेवती जुही गुही जु लायकें । गुलाब कंज लाइची सबै सुगन्ध जाति के । सुमालती महाप्रमोद लै अनेक भांति के ॥५॥ सुवर्णतार पोह बीच मोति लाल लाइया। सुहीर पन्न नील पीत पद्म जोति छाइया ॥ शची रची विचित्र भांति चित्त दे बनाइ है। सु इन्द्र ने उछाह सों जिनेन्द्र को चढ़ाइ है ॥६॥" वह माला अमूल्य हो गयी थी। उसे शचीने गूंथा, इन्द्रने बढ़ाया और भगवान्का स्पर्श पाकर वह स्वयं भी पवित्र हो गयी थी। उसे प्राप्त करनेके लिए विभिन्न देशोंसे विभिन्न जातियोके लोग आये। उनमें साधारण थे और असाधारण भी, गरीब थे और मालदार भी, कंजूस थे और दिलदार भी तथा सामन्त थे और राजा-महाराजा भी । सभी मालाको लेनेके लिए अधिकसे अधिक मूल्य देना चाहते थे, किन्तु कुछ कंजूस विस्फारित नेत्रोसे यह देख रहे थे, कि ये लोग एक छोटी-सी मालाको लेनेके लिए असीम धन क्यों लुटाये दे रहे हैं। उस अवसरपर मानवके विविध भावोंका एक छोटा-सा चित्र देखिए, "सु अग्रवाल बोलिये जु माल मोहि दीजिये। दिनार देहुं एक लक्ष सु गिनाय लीजिये ॥ खण्डेलवाल बोलिया जु दीय लाख देउंगो। सु बांटि के तमोल मैं जिनेन्द्रमाल लेउंगो ॥१६॥ कितेक लोग भाइकें खड़े ते हाथ जोरि के। कितेक भूप देखिकें चले जु बाग मोरिकें । कितेक सूम यों कहें जु कैसे लक्षि देत हो। लुटाय माल आपनो सु फूल माल लेत हौ ॥२०॥" इस भक्तिके अवसरपर अनेक श्राविकाएं जब अपने उद्दाम भावोंको रोकनेमें असमर्थ हो गयीं, तो नृत्य कर उठों और उनकी प्रत्येक थिरकनमें भक्तिका उद्वेलन था। मृदंग-तालोंके साथ-साथ सुकण्ठोंसे मंगल-गीत भी फूट उठे, "कई प्रधीन श्राविका जिनेन्द्र को बधावहीं। कई सुकण्ठ राग सों खड़ी जुमाल गावहीं । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३२१ कई सुनृत्य को करें नटें अनेक भावहीं। कई मृदंग ताल पै सु अंग को फिरावहीं ॥२१॥" वीतरागकी माला खरीदनेके लिए भक्तिकी आवश्यकता है। गुरु महाराजने घोषणा की कि माला उसोको मिलेगी, जो अधिकसे अधिक जिनेन्द्र भक्तिका परिचय देगा। भक्त वह है, जो जिनेन्द्र यक्ष और बिम्ब प्रतिष्ठा करवाकर संघ चलानेका श्रेय प्राप्त करेगा, "कहैं गुरु उदार धो सु यों न माल पाइये । कराइये जिनेन्द्र-यक्ष बिंबहू मराइये ॥ चलाइये जु संघजात संघही कहाइये। तबै भनेक पुण्य सों अमोल माल पाइये ॥२२॥ संबोधि सर्व गोटि सो गुरु उतार के लई । बुलाय के जिनेन्द्र माल संघराय को दई ॥ अनेक हर्ष सों करें जिनेन्द्र तिलक पाइये । सुमाल श्री जिनेन्द्र की विनोदिलाल गाइये ॥२३॥" भक्तामर स्तोत्र कथा और भक्तामर चरित 'भक्तामर स्तोत्र कथा' का निर्माण वि० सं० १७४७ सावन सुदी २ को हुआ। यह रचना पद्यमे न होकर हिन्दी-गद्यमे है। इसकी एक प्रति वि० सं० १९४७ को लिखी हुई, जयपुरके ठोलियोके जैन मन्दिरमे विराजमान है। वि० सं० १९०९ की लिखी हुई हस्तलिखित प्रतिको सूचना 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका के वि० सं० २००६ के हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोजके परिशिष्टमे अंकित है। इस विवरणके सम्पादकोका विचार है कि वह एक उत्तम कृति है। किन्तु वह गद्यमे न होकर पद्यमे है, और इसका नाम भी 'भक्तामरचरित' दिया हुआ है। एक 'भक्तामरचरित'का उल्लेख काशी नागरी प्रचारिणी सभाके बारहवें त्रैवार्षिक विवरणमे हुआ है । उसकी प्रति बाराबंकीके जैन मन्दिरसे प्राप्त हुई थी। इसपर भी निर्माणकाल वि० सं० १७४७ पड़ा हुआ है। इसमे दोहा, अडिल्ल, कुण्डलिया और सोरठा आदि छन्दोंका प्रयोग किया गया है। इसके अन्तमे कवि और उसके समयका भी संक्षिप्त परिचय दिया है। १. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाका बारहवाँ त्रैवार्षिक हिन्दी ग्रन्थोंकी खोजका विवरण, परिशिष्ट २, पृष्ठ १५७४ । २. दोहा छंद अडिल्ल बनायो । कहुं कुंडलिया सोरठा लायो॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अन्य रचनाएँ 'पंच कल्याणक कथा'की प्रति दिल्लीके पंचायतो दि० जैन मन्दिर में मौजूद है । 'नौका बन्ध' नामकी रचना जयपुरके पं० लूणकरजीके मन्दिरमे गुटका नं १०३ मे निबद्ध है। 'सुमति कुमतिकी जखड़ी' जयपुरके बडे मन्दिरके वेष्टन नं० २१३४ में बंधी रखी है। इसपर लेखनकाल सं० १७८९ पडा है । विनोदीलालने 'सम्यक्त्व कौमुदी'की रचना वि० सं० १७४९ मे की थी। 'विष्णुकुमारमुनिकथा' और 'श्रीपाल विनोद कथा' दोनों ही विनोदीलालकी कृतियाँ है । वे नया मन्दिर दिल्लीके शास्त्रभण्डारमें मौजूद है । 'श्रीपाल विनोद'की रचना वि०सं० १७५० में हुई थी 'षट्कर्मोपदेश रत्नमाला' की रचना वि० सं० १८१८ मे हुई । इसकी प्रति अछनेरा ( आगरा )मे मौजूद है। यह अनुष्टुप् छन्दोमे लिखा • गया है। ८३. बिहारीदास (वि० सं० १७५८ ) पण्डित बिहारीदास आगरेके रहनेवाले थे। उनकी गणना उत्तम कोटिके विद्वानोमे की जाती थी। जैन हिन्दी भक्ति-साहित्यके प्रसिद्ध कवि द्यानतराय उन्हीके शिष्य थे। उन्होंने अनेक स्थानोपर अपने गुरुका नामोल्लेख किया है। उस समय आगरेमे दो ही विद्वान् थे, पं० मानसिह जौहरी, जिनको 'सैली' चलती थी और पण्डित बिहारीदास । विहारीदास कवि भी थे और उन्होने सर्वत्र 'विहारी' का प्रयोग किया है। कही-कही अपनेको बिहारीलाल भी लिखा है, किन्तु ये 'सतसैयाकार'से स्पष्ट रीत्या पृथक् है। वैसे भी बिहारी अथवा बिहारीलाल नामके कई कवि हुए है । उनमें से एक तो कायस्थ थे, जो ओरछाके रहनेवाले थे। उनका रचनाकाल सं० १८१० माना जाता है। दूसरे वे थे जिनका उल्लेख 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका के द्वितीय त्रैवार्षिक रिपोर्ट में हुआ है। इन्होंने सं० १८२० मे 'नखशिख संवत् सत्रह से सैंताल। सावन सुदी दुतिया रविवार ॥ देखिए वही। १. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाका हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंका पन्द्रहवां त्रैवार्षिक विवरण। २. मिश्रबन्धु विनोंद, भाग २, पृ० ७०७ । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३२३ रामचन्द्रजो' की रचना की थी। तीसरे वे है जिन्होने १८१५ मे 'हरदौल चरित्र' लिखा था। चौथे प्रसिद्ध योगी हरिरामदासके मुख्य शिष्य थे। हरिरामदासके स्वर्गारोहणके उपरान्त वे उनकी गद्दीके अधिकारी भी हुए। उन्होने 'नीसाणी' नामको एक प्रौढ़ रचनाका निर्माण किया था, जो संवत् १८३५ के बादकी कृति है। अर्थात् ये सब उन्नीसवी शताब्दोके कवि थे। पण्डित बिहारीदासका रचनाकाल अठारहवी शताब्दीका पूर्वाद्ध माना जा सकता है। श्री द्यानतरायका जैनधर्मको ओर झुकाव सं० १७४६ मे पण्डित बिहारोदासको प्रेरणासे ही हुआ था । अर्थात् इस समय तक वे विद्वत्ता-जन्य ख्याति प्राप्त कर चुके थे। अतः यह निश्चित है कि उनका जन्म अठारहवीं शताब्दीके प्रारम्भमे हुआ होगा। __बिहारीदासने 'सम्बोध पंचासिका', 'जखड़ी', 'जिनेन्द्र स्तुति' और 'भारती'का निर्माण किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि द्याननराय उन्हीके विकसित रूप थे। सम्बोध पंचासिका इसका दूसरा नाम 'अक्षर बावनी' है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति वि० सं० १८३२ को लिखी हुई दि० जैन मन्दिर बड़ोतके वेष्टन नं० २७२ गुटका नं. ५५ मे पृ० ३६-४० पर निबद्ध है। इसके अन्तमे कृतिका रचनाकाल वि० सं० १७५८ कात्तिक वदी १३ दिया हुआ है। इससे यह भी सिद्ध है कि बिहारीदास आगरेके रहनेवाले थे। जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमे विराजमान गुटका नं० १२८ मे भी इसको एक प्रति संकलित है। श्री दि० जैन मन्दिर कुँचा सेठ, दिल्लीके वेष्टन नं० ३११ मे इसकी एक हस्तलिखित प्रति मौजूद है । उसकी लिखावट उत्तम है । उसपर भी रचना सं० १७५८ ही दिया हुआ है। इस कृतिमे ५० पद्य है । विविध ढालोमे इसकी रचना की गयी है । प्रारम्भमे कविने 'ऊँकार' मे बसे पंच परम पदकी वन्दना करके अपनी लघुता प्रदर्शित __"ऊँकार मंझार पंच परम पद वसत है। तीन भवन मैं सार वंदौं मन वच काय के ॥१॥ १. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाकी १६०५ की खोज रिपोर्ट । २. डॉ. मोतीलाल मेनारिया. राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० ३०६ । ३. पण्डित प्रेमीकृत हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृ०५८ । ४. ये उद्धरण बड़ौतवाली हस्तलिखित प्रतिसे लिये गये है। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अक्षर ग्यान न मोहि छंद भेद समझु नहीं।। बुध थोरी कीम होय माषा अक्षर बावनी ॥२॥" कविका कथन है कि नरभव प्राप्त करना अत्यधिक कठिन है। उसे व्यर्थ नहीं खोना चाहिए। यदि वह खो गया तो समुद्रमे राईकी भांति फिर प्राप्त न होगा । केवल पछताना ही हाथ रह जायेगा, "आतम कठिन उपाय पाय नरभव क्यों तजे। राई उदधि समानी फिर ढुढ नहीं पाइये ॥३॥ इ विधि नरमव को पाय विषै सुष सौरभ । सो सठ अमृत पोय हालाहल विष आचरै ॥४॥ ईश्वर भाषै यह नस्मव मति षोवै वृथा। फिर न मिलै यह देह पछताओ बहु होयगो ॥५॥" जीवको सावधान करते हुए कविने लिखा है कि तूने विषयोमे अपना मन लगा रखा है, आत्माका हित नहीं करता। थोडे-से सुखके लिए तू भवसमुद्रमे पड़ गया है। पाप-लहर तुझ कष्ट देती है। अतः धर्मरूपी जहाज पकड़कर, सुखपूर्वक इस भवसमुद्रसे पार हो जाओ, "जो दू विषयीन सौ लग्यौ मन माई रे। मातम हित न्ही हो ही चेत मन माई रे ॥२३॥ टूक सुष को मवदधि परौ मन माई रे। पाप लहर दुष दैहि चेत मन भाई रे ॥ पकरै धर्म जिहाज ज्यौ मन माई रे। सुषस्यो पार करै हि चेत मन भाई रे ॥२४॥" धर्मसे प्रेरित होकर जो जिनेन्द्रकी पूजा करता है, जिनेन्द्रके चरणोमें चित्त लगाता है, उसे मनवांछित फल मिलता है। जिनेन्द्रके द्वारा बताये गये शिवमार्गको जो थोड़ा भी जान पाता है और अन्तमे समाधिमरण करता है, उसे चतुर्गतिका दुःख नहीं भोगना पड़ता। "लागि धरम जिन पूजिये, सांच कहयो सब कोइ । चित्त प्रभु चरन लगाइयो, तब मन वांछित फल होइ ।।७३॥ सिव मारग जिन माषियो, किंचित जाणौ कोइ । मंति समाहि मरण करै चउ गइ दुष नहिं होइ ॥४४॥" Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य जखड़ी विगत पृष्ठोपर यह लिखा जा चुका है कि जैन भक्ति-साहित्यमे जखड़ियोंकी परम्परा पुरानी है। हिन्दीके कवि भी लिखते रहे है। रूपचन्द, दौलतराम, भूधरदास, रामकृष्ण और जिनदासको जखड़ियां तो बहुत ही प्रसिद्ध है। 'जखड़ो'को हिन्दीका स्तोत्र कह सकते है । बिहारीदासने भी एक जखड़ीका निर्माण किया था। उसमे ३६ पद्य है। उसकी एक प्रति जयपुरके ठोलियोंके दिगम्बर जैन मन्दिरमे वेष्टन नं० ४८ मे सुरक्षित है। इसमे कुल ४ पन्ने है । इसको एक दूसरी प्रति जयपुरके ही बड़े मन्दिरके गुटका नं० ८० मे संकलित है। इस प्रतिपर रचना-संवत् १७५६ पडा हुआ है। इसका अर्थ है कि 'जखडी', 'सम्बोध-पंचासिका'से दो वर्ष पूर्व बन चुकी थी। जखड़ीमे तीर्थक्षेत्रों, अकृत्रिम चैत्यों, कल्पवृक्षों, धवल-जयधवल और आचार्योकी वन्दना की गयी है । कतिपय पद्य इस प्रकार है, "शिखरी देश के मध्य विराजै सम्मेदाचल वंदौं जी। कम काटि निर्वाण पहुंच्या बीस जिनेश्वर वंदौं जी ।। जम्बू शालमली वृक्ष वंदौं चैत्य वृक्ष सब वंदौं जी। रजत गिरि कुलाचल वंदौं कंचन गिरि सब वंदौं जी। अरिहंत सिद्ध सूर उपाध्याय साध सकल पद वंदौं जी। जो सुमरथा सो भवदधि तिरया मेटो कर्म कुफंदा जी ॥" जिनेन्द्र-स्तुति ___ यह रचना 'बृहज्जिनवाणी संग्रह' (पृ० १२६ ) मे प्रकाशित हो चुकी है। इसमे भगवान् जिनेन्द्रके स्तुति-परक भावोंका प्रकाशन हुआ है। भक्त कवि भगवान्के उस रूपपर रीझा है, जिसमे वस्त्राभूषणका आडम्बर नही, अपितु मुद्रासे शान्ति बिखर रही है और दृष्टि नासाके अग्र भागपर स्थित है । भगवान्के चरण कमल-जैसे है। उनके नखोंसे करोड़ों सूर्योको प्रभा निकल रही है। उनपर देवेन्द्र, नाग और नरेन्द्रोंको मुकुट-मणियां झुक रही है, "वस्त्राभरण विन शान्त मुद्रा, सकल सुर नर मन हरै। नासाग्रदृष्टि विकारवर्जित, निरखि छवि संकट हरै ॥ तुम चरण पंकज नख प्रमा, नभ कोटिसूर्य प्रभा धेरै। देवेन्द्र नाग नरेन्द्र नमत सु, मुकुट मणि धुति विस्तरै ॥" १. ये पद्य ठोलियोके मन्दिरवाली प्रतिके माधारपर दिये गये हैं। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ हिन्दी जैन भक्ति-काम्य और कवि भगवान्की शोभा केवल बाह्य नहीं है, उनका अन्तः भी असाधारण रूपसे लस रहा है। उनकी जाप लगानेसे पाप-समूह नष्ट हो जाते है, और उनका ध्यान करनेसे शिव-थल प्राप्त हो जाता है । यह जीव बुराइयोमे फंसकर संसारके बड़े-बड़े दुःखोंको सहन करता रहा है, उसे सुख तो सरसोके समान भी नहीं मिला । भगवान्की भक्तिसे ही उसे मुख मिल सकता है। "अंतर बहिर इत्यादि लक्ष्मी, तुम असाधारण लसै। तुम जाप पापकलाप नास, ध्यावते शिवथल बसै ॥ मैं सेय कुदृग कुबोध अवत, चिर भ्रम्यो मव वन सवै । दुख सहे सर्व प्रकार गिरि सम, सुख न सर्षप सम कबै ॥" संसारके जीव विषय-कषायोमे निमग्न है। जो चेत जाता है, वह ही इस भवसमुद्रको तिर जाता है। अपनी विगत करनीपर पश्चात्ताप करना ही शिव-पथकी ओर बढ़ना है। यह पश्चात्ताप ही जीवको भगवान्के चरणोंमे ले जाता है और भक्तके अन्तःकरणसे यह ही लहर उठती है कि "हे भगवन् ! मुझे आपकी भक्तिके अतिरिक्त और कुछ भी वैभव नही चाहिए।" एतत् सम्बन्धी एक पद्य है, "परचाह दाह दहयो सदा, कबहूँ न साम्यसुधा चख्यो। अनुभव अपूरब स्वादु विन नित, विषय रस चारो भख्यो । अब बसो मो उर में सदा प्रभु, तुम चरण सेवक रहों। . वर भक्ति अति दृढ़ होहु मेरे, अन्य विभव नहीं चहों ॥ ५॥" भक्तको यह पूर्ण विश्वास है कि भगवान्को शरणमे जानेसे जन्म-मरणके कष्टोसे छुटकारा मिल जायेगा, "मंगल सरूपी देव उत्तम, तुम शरण्य जिनेश जी। तुम अधम तारण अधम, मम लखि मेट जन्म कलेश जी ॥" आरती बिहारीदासको लिखी हुई एक सरस आरती जयपुरके छावड़ोके मन्दिरमे विराजमान गुटका नं० ५० के पू० ४ पर अकित है। आरतो 'आतमदेवा'की की गयी है। "करों भारती प्रातमदेवा गुण परजाय अनंत अमेवा ।। जामैं सब जग वह जग माहीं बसत जगत में जग समा नाहीं॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ब्रह्मा विष्णु महेश्वर ध्यावें साधु सकल जिह के गुण गाचै । बिन जाने जिय चिर भव डोले __जिहि जानै छिन सिवपट खोले । व्रती अव्रती विध व्यौहारा सो तिहुंकाल करम सौ न्यारा ।। गुरु शिष्य उमय वचन करि कहिये । वचनातीत दसा तिस लहियै ॥ सुपर भेद को खेद न छेदा । भाप आप मैं आप निवेदा ॥ सो परमातम पद सुख दाता हौंह बिहारोदास विख्याता ॥" ८४. किशनसिंह (वि० सं० १७६३ ) इनके पितामह सिंगही कल्याण रामपुरके रहनेवाले थे। उनका वंश खण्डेलवाल और गोत्र पाटणी था। किसी तीर्थ यात्राके लिए संघ निकलवानेके कारण उन्हें 'संघी' कहा जाने लगा था। "सिंगही' उसीका बिगड़ा हुआ रूप है। आज भी ऐसोंके वंशधरोंको 'संघई जू' कहते है। सिंगही कल्याण अनेकानेक गुणोंके निधान थे, अतः उनका यश भी बहु बड़ा था। भगवान् जिनेन्द्रका पूजन और जिन-श्रुतका अध्ययन उनका नित्य-नैमित्तिक कर्म था। दान भी बहुत देते थे। उनके दो पुत्र थे - सुखदेव और आनन्दसिंह । भगवान् जिनेन्द्रके पदोंकी वन्दनासे सुखदेवके तीन 'सुनन्द' उत्पन्न हुए : थान, मान और किशन । किशन ही किशनसिंह बने । 'क्षेत्र विपाकी कर्म'के उदयसे वे 'निजपुर'को छोड़कर सागानेरमे १. खंडेलीवालं वंस विसालं नागरचालं देसथियं । देवनिवासं धर्मप्रकासं प्रगटकियं ॥ संगहीकल्याणं सबगुण जाणं गोत्र पाटणी सुजसलियं । पूजाजिनरायं श्रुतगुरुपायं नमैं सकति निज दाम दियं ॥१॥ पनक्रियाकोश, प्रशस्ति, प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, १९५०, पृ० २२० । २. तसु सुत दुय एवं गुरुमुखदेवं लहुरो आणंदसिंह सुणौ । सुखदेव सुनंदन जिनपदवंदन थान मान किसनेस सुणौ ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.८ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि रहने लगे थे। उस समय वहाँ राजा सवाई जयसिंहका राज्य था। सब प्रजा सुखी और धन-धान्यसे पूर्ण थी। किशनसिंहका जीवन भी सुखमय था। उनका अधिकाश समय भगवान् जिनेन्द्रकी भक्ति और साहित्य-रचनामे व्यतीत होता था। उन्होने जो कुछ लिखा, हिन्दीमे हो लिखा। उनके हृदयमे जो कुछ था, भगवान् जिनेन्द्रके चरणोमें ही समर्पित हुआ। वे एक भक्त कवि थे, जिनकी भाषामें माधुर्य था और भावोमें स्वाभाविकता। पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने उनकी केवल तीन रचनाओंका उल्लेख किया था : 'क्रियाकोश', 'भद्रबाहुचरित्र' और 'रात्रिभोजनकथा। अब राजस्थानके शास्त्र-भण्डारोंमें उनकी लगभग २० रचनाओं का पता लगा है। उनमें से अधिकांश जैन-भक्तिसे सम्बन्धित हैं। क्रिया-कोश इसका निर्माण वि० सं० १७८४ में हुआ था। इसका प्रकाशन बहुत पहले हो जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय हीराबाग, बम्बईसे हो चुका है। इस ग्रन्थमे २९०० पद्य हैं, उनमे जैनोको धार्मिक क्रियाओंका उल्लेख है। रचना मौलिक है, किन्तु कविताको दृष्टिसे साधारण है । कुछ भक्तिसम्बन्धी पद्य हैं, “समवसरन लक्ष्मी सहित, वर्द्धमान जिनराय । ममौ विवुध वंदित चरन, भविजन को सुषदाय ॥ वृषम आदि जिन आदि है, पारश लौं तेईस । मन वच काया पद पद्म, वंदों करि धरि सीस ॥ किसन इह कीनी कथा नवीनी निजहित वीनी सुरपद की। सुखदाय क्रिया भनि यह मनवचननि सुद्धपलें दुरगति पद की ॥२॥ वही, पृ० २२० । १. क्षेत्र विपाकी कर्म उदै जब आईया, निजपुर तजि के सांगानेरि वसाईया। तह जिन धर्म प्रसादि गमैं दिन सुत लही, साधर्मीजनमानै दे हित गही ॥ वही। २. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृ० ६६ । ३. 'सत्रहसै संवत दौरासियाजु भादो मास, वर्षारितिश्वेत तिथि पुन्यौ रविवार है।' वपनक्रियाकोश, प्रशस्ति, प्रशस्तिसंग्रह, पृ० २२१ । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "नमो सकल परमातमा, रहित अठारह दोष । छियालिस गुन प्रमुष जे, है अनंत गुन कोष । आचारज उवझाय गुरु, साधु त्रिविध निरग्रन्थ । भवि जगवासी जननि को, दरसा सिव पंथ ॥" भद्रबाहु चरित इसकी एक प्रति नया मन्दिर दिल्लीके शास्त्रभण्डारमें मौजूद है। इसमें ३६ पृष्ठ हैं । यह प्रति वि० सं० १९२९ की लिखी हुई है । इसकी रचना हिन्दी-पद्यमें हुई थी। दूसरी प्रति जयपुरके ही ठोलियोंके दिगम्बर जैन मन्दिरके वेष्टन नं० ७८ में बंधी रखी है । इसमे ३५ पृष्ठ है। इसपर रचनाकाल सं० १७८३ पडा हुआ है। इसी मन्दिरके गुटका नं० २५ मे भी 'भद्रबाहुचरित' संकलित है । यह एक नवीन प्रति है और इसपर रचनासंवत् १७८३ पड़ा है, जिसका समर्थन उसको अन्तिम प्रशस्तिसे होता है। इसमें आचार्य भद्रबाहुका चरित्र अंकित है । भद्रबाहु मन्तिम श्रुतकेवली थे और उनको भक्तिमें विपुल साहित्यका निर्माण होता रहा है, उन्हींमे-से एक प्रस्तुत रचना भी है। इसका आधार आचार्य रत्न. नन्दिके द्वारा विरचित संस्कृतके 'भद्रबाहु चरित' को बताया गया है। किशनसिंहके 'भद्रबाहु चरित' में भाव और भाषा दोनों ही उत्तम कोटिके हैं। आदिका एक पद देखिए, "केवल बोध प्रकास रवि उदै होत सखि साल। जग जन अन्तर तम सकल छेयो दीन दयाल । सनमति नाम जु पाइयो जैसे सनमति देव । मोको सनमति दीजिए नमो त्रिविध करि सेव।" १. नया मन्दिर दिल्लीके 'अ २९' पर निबद्ध 'भद्रबाहु चरित' देखिए । २. संवत सतरह से असी उपरि और है तीन । माघ कृष्ण कुज अष्टमी ग्रन्थ समाप्त कीन ॥२०॥ गुटका नं० २५, मन्दिर ठोलियान, जयपुर । ३. मूल-ग्रन्थ कर्ता भये रतन नन्दि सु जानि । तापरि भाषा प्रहरि कोनी मती परमान ॥१॥ किसनसिंह विनती कर, लखि कविता की रीति । बह चरित भाषा कियौ, बालबोध धरि प्रीति ॥१७॥ वही, प्रशस्ति । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि रात्रि-भोजन-कथा ___ इसको 'नागश्री कथा' भी कहते है। इसकी एक प्रति पंचायती मन्दिर दिल्लीके हस्तलिखित ग्रन्थोंमें मौजूद है । इसमे २८ पृष्ठ है । इसपर रचनासंवत् १७७३ पड़ा हुआ है। इसकी दूसरी प्रति 'नागश्री कथा' के नामसे जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरके वेष्टन नं० ६०८ मे निबद्ध है। उसके आगे भी रचनासंवत् १७७३ ही दिया हुआ है। पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने भी किसी प्रतिके आवारपर यही रचनाकाल निर्धारित किया है। इसकी एक प्रति आमेरके शास्त्रभण्डारमे रखी है। इसमे कुल २६ पृष्ठ है, जिनपर ४१५ पद्य अंकित है। इस कथाका आरम्भिक पद्य इस प्रकार है. "समोसरण सोमा सहित जगत पूज्य जिनराज । नमौ त्रिविध भवदधिन को तरण विरुद्ध जिहाज ।। जिन मुख अंबुज खरी, स्याद्वाद मय सोय । ता स्वर सुति कौं भाव धरि, नमौं सकल मद खोय ॥" बावनी इसको एक प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरके वेष्टन नं० १२६७ मे निबद्ध है । इसमे कुल १८ पृष्ठ है । इसपर रचनाकाल सं० १७६३ पड़ा है। अगरवन्दजी नाहटाने बावनियोका एक छोटा-सा संकलन, 'राजस्थानमे हिन्दीके हस्तलिखित अन्थोंकी खोज', भाग चतुर्थ ( पृष्ठ ८३ ) पर दिया है, जिसमे किशनकी बावनी भी है। यह प्रति बीकानेरके 'अभय जैन ग्रन्थालय' मे मौजूद है । इसपर रचनासंवत् विजयदशमी १७६७ पड़ा है। उसका आदि मंगलाचरण देखिए, "ऊंकार अपर अपार अविकार अज भजरजु है उदार, दादनु हुश्न को। कुंअर ते कीट परजंत जग जंतु ताके, अंतर को जामी बहुनामी सामी संत को। १. अनेकान्त वर्ष ४, किरण ६, ७, पृ० ५६३ । २. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृ० ६६ । ३. सिरि सिंघराज लोकां गछ सिरताज, आज तिन की कृपा जू कविताई पाई पावनी। संवत सतर सतसठे विजेदसमी की, ग्रन्थ की समापत भई है मनभावनी ।। अभय जैन ग्रन्थालयकी प्रति । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य ३३० चिंता को हरनहार चिता को करनहार, पोषन भरनहार किसन अनंत को। अंत कहै अंत दिन राखे को अनंत विन, ___ ताके तंत अंत को भरोसो भगवंत को ॥१॥" आदिनाथजीका पद इसकी रचना वि० सं० १७७१ मे हुई थी। यह प्रथम तीर्थकर भगवान् आदिनाथकी भक्तिमे निर्मित हुआ है। इसकी प्रति जयपुरके दि० जैन मन्दिर बधीचन्दजीके शास्त्रभण्डारमें गुटका नं० १६१ मे संकलित है। यह लिपि मयाचन्द गंगवालने रौझड़ोमे की थी। चेतन-गीत ___ यह गीत अपने चेतनको शिक्षा देनेसे सम्बन्धित है। चेतन भ्रममें फंसकर सचाईको भूल गया है । यह गीत उपर्युक्त मन्दिरके ही गुटका न० ५१ मे निबद्ध है । यह गुटका सं० १८२३ कार्तिक बदी ७ का लिखा हुआ है। कविका कथन है कि यह चेतन गुणवान् होते हुए भी अपनेको भूल गया है, जागृत नहीं होता । वह चतुर होते हुए भी इस संसारमें सुख मान रहा है। वह भव-भ्रमणको बात विस्मृत कर चुका है "तुम सूते काल अनादि के जागो जागो जी चेतन गुणवान । होजी सुष मानत संसार में इह ठाम्यौ जी तुम कौण सयाण । कहु भूलि गये मव भ्रमण को किन सोवो जी पुरबल बाता ॥" आत्मतत्त्वको न जाननेके कारण यह जीव चारों गतियोमें भ्रमण करता है। चह ठगिनो कुमतिके चक्करमे फंस जाता है और उसका अनादिकाल व्यर्थ ही बीत जाता है, "हो जी इह विधि चहुँ गति मैं भ्रम्यो बिन आतम तत्त्व तकी पहचानि । हो जी काल अनादि गुमाइयो इस कुमति उगौरी के बचमांनी ।।" विनती ___ इस विनतीका निर्माण तीर्थकरकी भक्तिमे किया गया है। इसकी प्रति उपर्युक्त मन्दिरके ही वेष्टन न० १०१५ मे मौजूद है । उसमे केवल एक पृष्ठ है। उसपर रचना और लेखनकाल कुछ नहीं दिया है । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि पद ___इन्होंने कुछ पर्दोको भी रचना की थी। इनके कतिपय पद दि० जैन मन्दिर बड़ोतके पदसंग्रहकी हस्तलिखित प्रतिमे, कुछ पद अतिशय क्षेत्र, महावीरजीके एक प्राचीन गुटके में और कतिपय जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरके गुटका नं० १५८ में संकलित हैं। उन्होंने एक पदमे मध्यकालीन जैन सन्तोंको भांति ही कहा कि हृदयको शुद्ध किये बिना भगवान्के नामोच्चारण और तीर्थयात्राओंसे भी कुछ नहीं होता, "जिन आपकू जोया नहीं, तन मन कूषोज्या नहीं। मन मैल कुं धोया नहीं, अंगुल किया तो क्या हुआ टेका। लालच करै दिलदाम की, षासति करै बद काम की। हिरदै नहीं सुद्ध राम की, हरि हरि कहथा तो क्या हुमा । कुंता हुआ धन मालदा, धंधा करै जंजालदा। हिरदा हुआ च्यमालदा, कासी गया तो क्या हुआ ॥" एक-दूसरे पदमें विशुद्ध भक्तकी भांति ही कविने कहा कि जिनकी आँखें भगवान् जिनेन्द्रसे लग गयी, वे उनके बिना रह नहीं सकते । जिनेन्द्रके देखनेपर ही उन्हे सुख मिलता है। बिना देखे बे ब्याकुल हो उठते है । एक भक्तमे भगवान्को निरन्तर देखते रहनेको ऐसी अदम्य प्यास होती है, जो कभी बुझती ही नहीं, "लागि गई ये अँखियाँ जिन बिन रह्यो हुन जाय । जब देषे तब ही सुख उपजे विन देख्या उकलाय । मिटत हदे रो सूर्य उदय ते मिथ्या तिमिर मिटाय । इन्द्र सरीसा तृप्त न हूबा लोचन सहस बनाय । चिरम भारख अब है मेरै कर लूं कहूं बनाय ॥ अनुभव रस उपज्यौ अब मेरे भानंद उर न समाय । दास किसन ऐसे प्रभु पाये लखि लखि ध्यान लगाय ॥" पुण्याश्रवकथाकोश ____ यह एक महत्त्वपूर्ण कृति है, जिसकी रचना वि० सं० १७७३ मे हुई थी। इसका संकलन जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरके गुटका नं० ३८ में किया गया है। यह गुटका सं० १८२३ में लिखा गया था। इसमे जैन-भक्तोकी पद्य-बद्ध कथाएँ हैं। १. जयपुरके मन्दिर वर्धाचन्दका पदसंग्रह ४६२, पत्र १८५ । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य चतुर्विंशति जिनस्तुति यह स्तुति उपर्युक्त मन्दिरके ही गुटका नं० १०२ वेष्टन नं १९०९ मे अंकित है । भगवान् पार्श्वनाथकी स्तुतिमे रचा गया एक छप्पय देखिए, "अश्वसेन नृप पिता देवि वांमा सुमाता । हरित काय नव हाथ वरषस्त आयु विष्याता वाणारसी सु जन्म वंश इक्ष्वाकु मंझारी लछिन सरप जु वन्यौ प्रभु उपसर्ग निवारी ३३३ गणवर जुभये दश ग्यान घर कोस पाँच समवादि मनि । श्री पार्श्वनाथ वंदौ सदा कमठ मान वनदव अगनि ||२८|| " किशनसिंहजीने भक्तिसम्बन्धी अनेक गोत और स्तुतियोकी रचना की है। इनका संकलन उपर्युक्त मन्दिरके ही गुटका नं० ५०२ में किया हुआ मौजूद है । इस गुटके २०२ पृष्ठ है, जिनमे से पृष्ठ ५५ तक तो किशनसिहका ही रचा हुआ 'भद्रबाहुचरित भाषा' लिखा है, और अवशिष्टपर उनकी भक्तिसम्बन्धी छोटीछोटो रचनाएँ निवद्ध है । वे इस प्रकार है, 'श्रावक मुनि गुण वर्णन गीत,' 'चौबीस दण्डक' (सं० १७६४), ' णमोकार रास' (१७६० ), 'जिनभक्ति गीत', 'गुरुभक्ति गीत,' 'चेतन लोरी', 'निर्वाणकाण्ड भाषा' ( सं० १७८३, संग्रामपुर ) इसी गुटकेमें उनकी 'एकावली व्रत कथा' और 'लब्धि विधान कथाएँ' भी संकलित हैं। 'लब्धि-विधान कथा' की रचना सं० १७८२ मे आग में हुई थी। ८५ खुशालचन्द काला ( वि० सं० १७७३ ) खुशालचन्दका जन्म सांगानेरमें हुआ था । उनके पिताका नाम सुन्दर और माता का नाम अभिवा था । मूलसंघी पण्डित लक्ष्मीदास उनके गुरु थे । उन्हें इन्द्र के समान ख्याति प्राप्त हुई थी । उनके पास विशद ज्ञान था, जिसका १. यह स्तुति वि० सं० १७६६ वैशाख कृष्णा त्रयोदशी सोमवार के दिन पूर्ण हुई थी, ऐसा इस स्तुतिके ३२वे पद्यसे स्पष्ट है। यह इस स्तुतिका अन्तिम पद्म है । २. और सुणी आगे मन लाय, में सुन्दर को नंद सुभाय । सिंह तिया अभिषा मम माय, ताहि कूंखि में उपजू आय । चंद खुशाल कहै सब लोक, भाषा कीनी सुणत असोक ॥ व्रत कथाकोश, प्रशस्ति, प्रशस्तिसंग्रह, पृ० २५७ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि वितरण भी वे कामधेनुके समान ही किया करते थे। वे क्षमावान्, ज्ञानवान् और विवेकवान् थे। ऐसे उत्तमकोटिके विद्वान्के पास रहकर खुशालचन्दने शिक्षा प्राप्त की थो। शिक्षा-ग्रहणके उपरान्त ही वे जहानाबादमे आकर जयसिंहपुरा नामके मुहल्ले में रहने लगे थे। दिल्लीका ही नाम जहांनाबाद था। उस समय वहाँ सेठ सुखानन्दजी शाह बहुत प्रसिद्ध थे। उनके घरमे रहनेवाले गोकुलचन्द नामके ज्ञानी पुरुषकी प्रेरणासे ही श्री खुशालचन्दने 'हरिवंश पुराण'का पद्यानुवाद किया था। कविकी अधिकांश रचनाएं जयसिंहपुरामें रहकर ही बनीं । कभीकभी सागानेर भी आते रहते थे। उनकी जाति खण्डेलवाल थी। खुशालचन्दने 'हरिवंशपुराण' (वि० सं० १७८०), 'उत्तरपुराण' ( वि०सं० १७९९), 'धन्यकुमारचरित्र', 'यशोधरचरित्र' (वि० सं० १७८१), 'जम्बूचरित्र', 'सद्भाषितावली'-( वि० सं० १७७३ ), 'व्रतकथाकोश' (वि० सं० १७८७ ), 'पद्मपुराण' (वि० सं० १७८३ ), पद और चौबीसी पाठका निर्माण किया था। इनमे पुराण और चरित्र अनूदित रचनाएँ है । पद ___ इनके रचे हुए पद जयपुरके ठोलियोके मन्दिरके गुटका नं० १२४ और जयपुरके ही बधीचन्दजीके मन्दिरके पदसंग्रह ४९२ में अंकित है। ठोलियोके मन्दिरका एक पद अत्यधिक सरस है। उसमें भक्त उलाहना देते हुए भगवान्से कहता है कि आपने अनेक अधमोंको तार दिया फिर मेरी बेर ढील क्यो करी है। आप मेरे गुण और अवगुणोंपर ध्यान मत दीजिए, अपने विरदको ओर निहारिए, "तुम प्रभु अधम अनेक उधारै । ढील कहा हम बारो जी ॥ तारन तरन विरद सुन आयो और न तारण हारो। तुम बिन जनम मरण दुख पायौ । कमन आवै पारो जी । मो गुण अवगुण प्रति मत जावो । अपणी ओर निहारो। अंजन से पल मैं ही सुधारे और कहा अधिकारो जी॥ मैं विनती करहुं त्रिभुवन पति मेरो कारिज सारो। चंद खुस्याल सरन चरनन को सो भवपार उतारो जी ॥" १. देव इन्द्र कोरति भये जु मूलस्यंघ भट्टारक को पदस्थ जाको सोहितु है। पूजारु प्रतिष्ठा करवाई अविसमकार मोहनी सुमूरति लखेतै मोहितु है ॥ जाही के सुगच्छ मांहि पण्डित श्रीय जु दास बानी कामधेनु तै सुज्ञान दोहिइतु है। खिमावान म्यानवान पण्डित विवेकवान राति घोष आगम विचार टोहिइतु है ।२. बही. पृ० २५६। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य चौबीसी स्तुतिपाठ दि० जैन मन्दिर बड़ौतके एक गुटकेमे खुशालचन्दजीको चौबीस स्तुतियां संकलित है। इस गुटकेका लेखनकाल सं० १८३२ है। पूरा गुटका उनकी स्तुतियोंसे ही पूर्ण हुआ है। प्रत्येक स्तुतिके अन्तमे अपने नामके लिए केवल 'चन्द' का प्रयोग किया गया है। ___माराध्यको सर्वोत्तम और अपनेको लघुतम मानना भक्तिको प्रथम विशेषता है । कही तो भक्त कहता है कि हमारे आराध्यको सुर, नर, शेष सदैव सेवा करते है, भ्रमरके समान उनके चरण-कमलको ओर दिन-रात लगे रहते है, कहीं कहता है कि भगवान्की भक्तिरूपी नौकापर चढ़कर प्रत्येक जीव भवसागरके पार हो जाता है । यह सच है कि भगवान्के समान कोई शिवनायक और सुविधाम नही है । वे अविनाशी पद प्रदान करते है। यह जानकर हो भक्त उनकी शरणमे जाता है। उसे पूरा विश्वास है कि वे संसार दु.खसे दूर कर देंगे। ऐसे महिमावान् प्रभुसे उसका प्रेम हो गया है। वह भव-भवमे उनकी सेवाका अधिकार चाहता है। "सुर नर सेस सेवा करै जी, चरन कमल की वोर । मंवर समान लग्यौ रहै जी निसि वासर अरु मोर ।। जे जस गावै भाव सौ करत आपणो काज । भवसागर को पार कै जी, चढ़ी तुम नाव जिहाज ।। तम सम अवरज को नहीं प्रभ सिवनायक सषधाम । अविनासी पद देत हो प्रभू फिर नहीं जग सों काम ।। दाता लषि मैं जाचियो जी कीजे मोहि हू पार । भव दुष सौ न्यारौ रहो प्रभू राषो सरण आधार ।। चंद करै या बिनती जी सुणिज्यौं त्रिभुवनराई । जन्म जन्म पाऊं सही प्रभु तुम सेवा अधिकार ॥" ८६. भूवरदास (वि० सं० १७८३) भूधरदासको रचनाओसे केवल इतना ही पता चलता है कि वे आगराके रहनेवाले थे और खण्डेलवाल जातिमे उत्पन्न हुए थे। पण्डित दौलतरामजीने उन्हे १. गुटका नं० ४७, दि० जैन पंचायती मन्दिर, बड़ौत, सम्भवनाथजीकी बीनती। २. आगरे में बालबुद्धि भूधर खंडेलवाल, बालक के ख्याल सो कवित्त करि जाने है । भूधरदासे, जैनशतक, कलकत्ता, १३वें पद्यकी प्रथम दो पंक्तियाँ। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि 'भूधरमल' के नामसे सम्बोधित किया है, और लिखा है कि वे आगरेमें स्याहगंजमें रहते थे। स्याहगंजके मन्दिरमे ही उनका प्रतिदिन शास्त्र-प्रवचन हुआ करता था। भूधरदास कवि थे और पण्डित भी। अध्यात्म-चर्चामें उन्हें विशेष रस आता था। भूधरदास आगरेकी उसी अध्यात्म-परम्परामें-से थे, जो महाकवि बनारसी. दाससे प्रारम्भ हुई थी। भूधरदासका साहित्यिक-काल निश्चयरूपसे अठारहवीं शताब्दीका अन्तिम पाद था, जैसा कि 'जनशतक' और 'पावपुराण' के रचना-संवत्से प्रकट है। भूधरदासने विपुल साहित्यका निर्माण किया, और वह सभी सरस तथा मनोरम है। उनकी रचनाओंमें विस्तार है, तो ठोसपन भी। प्रसाद उनका सबसे बड़ा गुण है । सरलता और प्रवाह किसी भी शैलीको सुचारु बना देते हैं, फिर भूवरदासको अभिव्यक्तिमें तो स्वाभाविकता भी है। काव्यको दृष्टिसे उनके साहित्यको दो भागोंमे विभक्त किया जा सकता है,, एक तो मुक्तक काव्य और दूसरा महाकाव्य । मुक्तककाव्यमें उनके द्वारा रचित 'भूधरविलास', 'पदसंग्रह', 'जखडी', 'विनतियाँ', 'बारह भावनाएं', बाईस परीषह और स्तोत्र शामिल हैं। महाकाव्यके रूपमे उन्होने 'पार्श्वपुराण'का निर्माण किया। यह उच्च कोटिकी कृति है । मध्यकालोन हिन्दीमें उसका प्रतिष्ठित स्थान है। उसमे भगवान् पार्श्वनाथको भक्तिका स्वर ही प्रमुख है। मुक्तक रचनाओंमे भक्ति है, तो अध्यात्म भी। 'जैन दर्शन' की भांति "जैन साहित्य में भक्ति और अध्यात्म नितान्त पृथक् दो पहलू नहीं है । अधिकांशतया दोनो समन्वित होकर ही चले है। भूधरदासकी रचनाओमे भी ऐसा ही है। जैन-शतक इसकी रचना वि० सं० १७८१ पौष कृष्णा त्रयोदशी रविवारके दिन पूर्ण हुई थी। इसको रचनेको प्रेरणा धर्मानुरागी शाह हरीसिंहसे मिली थी। इसमें १. अनेकान्त वर्ष १०, किरण १, पृष्ठ ६, १०॥ २ इसका प्रकाशन 'जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय, बम्बई' और 'जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, 'कलकत्ता' से हो चुका है। . ३. सतरहसै इक्यासिया, पौह पाख तम लोन । तिथि तेरस रविवार को शतक समापत कीन ॥ जैनशतक, कलकत्ता, अन्तिम दोहा, पृ० ३२ । ४. हरीसिंह साह के सुवंश धर्मरागी नर, तिनके कह सों जोरि कोनी एक ठाने हैं। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३३७ १०७ कवित्त, सवैया, दोहा और छप्पय है । इस छोटे से काव्यके प्रारम्भमें अर्हन्त, सिद्ध, जिनवाणी और साधुओकी स्तुतियाँ है, मध्य में असार संसारसे विमुख होने की बात और अन्तमे कुछ आध्यात्मिक उपदेश तथा जैनत्वकी महिमाका वर्णन है । यह संसार असार हैं । इसमें जन्म और मृत्युका चक्कर चला ही करता है । एक ही समयमे कही तो जन्मकी बधाइयाँ बजती है, और कहींपर पुत्रवियोगसे हाहाकार मचता है । किन्तु सब कुछ जानते हुए भी यह मूढ़ नर चेतता नहीं, और करोड़ोंकी एक-एक घड़ीको व्यर्थ करता हो जाता है, "काहु घर पुत्र जायौ काढू के वियोग आयो, काहू रागरंग काहू रोधारोई करी है । जहाँ मानु ऊगत उछाह गीत गान देखे, साँझ समै ताही थान हाय हाय परी है ॥ ऐसी जग रीति की न देखि भयभीत होय, हा हा नर मूढ़ तेरी मति को हरी हैं । मनुष जनम पाय सोवत विहाय जाय, खोवत करन की एक एक घरी है | २१|| " सासारिक प्राणी चाहता है कि किसी प्रकार सम्पत्ति मिल जाये, तो हृदयकी सभी मनोनीत अभिलाषाएं उपशम हो जायें । फिर तो एक प्रासाद बन जायेगा, पत्नीको गहना गढ़ जायेगा, और सुता-सुतका ब्याह कर 'बैना' भी बांट लूंगा, किन्तु अचानक जम आ जाता है और शतरंजकी बाजी रुपीको रुपी ही रह जाती हैं, "चाहत है धन होय किसी विध तौ सब काज सरै जियरा जी । गेह चिनाय करूं गहना कछु, व्याहि सुतासुत बांटिये भांजी ॥ चिंतत यौं दिन जाहिं चले, जम आनि अचानक देत दगा जी । खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाय रूपी शतरंज की बाजी ॥ ३२ ॥” फिर फिर प्रेरे मेरे आलस का अन्त भयो, उनकी सहाय यह मेरो मन माने है || जैन शतक कलकत्ता, पृ० ३२ । ४३ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति काव्य और कवि भगवान् सिद्धने ध्यानरूपी अग्निमे कर्मरूपी शत्रुओंको झोककर जला डाला है । उन्होंने दिव्य ज्ञानकी किरणोंसे संसारके जीवोंका शोकरूपी अन्धकार नष्ट कर दिया है । वह भगवान् सिद्धलोकमे बसते है । भक्त उनके चरणोकी त्रिकाल धूलि लेते हुए अपनेको गौरवान्वित मानता है । "ध्यान हुताशन में अरि ईंधन झोंक दियौ रिपु रोक निवारी | शोक हस्यो मविलोकन कौ वर, केवल ज्ञान मयूख उधारी ॥ लोक अलोक विलोक भये शिव, जन्म जरामृत पंक पखारी । सिद्धन थोक बसै शिवलोक, तिन्हें पगधोक त्रिकाल हमारी ॥११॥| " ३३८ भगवान् नेमिनाथकी स्तुति करते हुए भक्त कहता है कि ऐ भगवन् ! जिस तरह आपने उग्रसेन कुमारीके जन्मकादि दुःखोंको नष्ट कर दिया, ठीक वैसे ही मुझे भी इस संसार - जाल से मुक्त कर दो । भक्तको भगवान्की इस शक्तिमे विश्वास है, "शोमित प्रियंग अंग देखें दुख होय भंग, लाजत अनंग जैसे दीप भानु भासतें । बाल ब्रह्मचारी उग्रसेन की कुमारी जादौनाथ तैं निकारी जन्मकादौ दुखरास तं ॥ मोम भवानन में आन न सहाय स्वामी, अहो नेमि नामी तकि आयो तुम तास तैं । जैसे कृपाकन्द बन जीवन की बन्दि छोरि, ही दास को खलास कीजै भवपास ॥७॥ भक्तका विश्वास सच्चे देवमे है। जिस किसीमे भी सच्चे देवके लक्षण हो, भक्त उसकी वन्दना करनेको तैयार है। ऐसी उदारता बहुत कम भक्तोंमे देखो गयी है । प्रायः भक्त ऐसे रहे है जो सचाईको नही किन्तु देव - विशेषके उपासक होनेमे ही अपना अहोभाग्य समझते हैं । भूधरदास उन अन्य भक्तोंमे नही है । आचार्य समन्तभद्रकी भाँति उनकी भी एक कसौटी है, जिसपर खरा उतरनेवाला ही उनका आराध्य हो सकता है । देखिए, "जौ जगवस्तु समस्त, हस्त तल जेमनिहारे । जगजन को संसार, सिंधु के पार उतारै || आदि-अन्त अविरोधि, वचन सबको सुखदानी । गुन अनन्त जिहमाहिं, रोग की नाहिं निशानी ॥ माधव महेश ब्रह्मा किधौं, वर्धमान के बुद्ध यह । ये चिन्ह जान जाके चरन, नमो नमो मुझ देव वह ||४६ ॥ * "" Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य भूधर विलास भूधरदासको छोटी-बड़ी रचनाओका संग्रह है। इसकी एक प्रति जयपुरके ठोलियोके मन्दिरमे वेष्टन नं० १३२ मे निबद्ध है। उसमे ११९ पन्ने हैं। एक भूधर-विलासको सूचना काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाके हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्योंके चौदहवें वार्षिक विवरणमे अंकित है। इस विवरणके सम्पादक डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल थे । यह प्रति ग्राम-मोहना, डा०-इटौंजा, जि०-लखनऊ के रहनेवाले लाला रिखबदास जैनके पास देखनेको मिली थी। डॉ० बड़थ्वालने सम्पादकीय टिप्पणीमे लिखा है, "भूधरदासजीकी इन रचनाओमें कुछ तो स्वतन्त्र है और कुछ अनुवाद है। भाषामे यद्यपि कविका लक्ष्य व्रजभाषाकी ओर झुका हुआ है फिर भी उन्होने कही-कहीं स्वतन्त्रतासे खड़ीबोलीका भी प्रयोग किया है। थोड़ा-सा प्रयोग गुजरातीका भी है।" "भूधर-विलास' जिनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकत्तासे प्रकाशित हो चुका है। इसमे ५३ पद्य हैं। भूधरदासका विश्वास है कि यदि भवसागरको पार करना चाहते हो तो भक्तिरूपी जहाज सजाओ, "भूधर जो भवसागर तिरना, भक्ति जहाज सजो ॥" वे भगवान्के नाममे असीम बल मानते है। यदि किसाने भजन-सुधारससे अपनी रसनाको नहीं धोया, तो वह व्यर्थ है। "भजन सुधारस सों नहिं धोई, सो रसना किस काम की ॥ जपि माला जिनवर नाम की ॥३९॥" भक्तने भगवान् अजितनाथसे प्रार्थना की कि है भगवन् ! तुम कल्पवृक्षके समान हो, मेरी मनोकामना पूरी करो। मुझे हाथी-घोडा नहीं चाहिए, मेरे हृदयमे तो आप तबतक बसो, जबतक मुझे मोक्ष न मिल जाये। "तुम त्रिभुवन में कलप तरुवर, श्रास भरो मगवान जी ।। ना हम माँगे हाथी घोड़ा, ना कछु संपति आन जी। भूधर के उर बसो जगत गुरु, जब लौं पद निरवान जी ॥३६॥" पदसंग्रह भूधरदासका 'पदसंग्रह' बहुत पहले ही प्रकाशित हो चुका है । एक 'पदसंग्रह' जयपुरके पण्डित लूणकरजीके मन्दिरमे गुटका नं० १२९ और वेष्टन नं० ३३३ मे निबद्ध है । वैसे तो भारतके विभिन्न जैन भण्डारोंके विविध गुटकोमे भूधरदासके पद १. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका "खोजमें उपलब्ध, हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थोंका चौदहवाँ त्रैवार्षिक विवरण, १९२६-३१" परिशिष्ट १। २. वही । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि विखरे हुए है। प्रकाशित 'पदसग्रह" मे ८०पद और विनती आदि हैं । उनका विषय जिनेन्द्र, जिनवाणी और गुरुको भक्तिसे सम्बन्धित है। अनेक पद आध्यात्मिक भावोंके द्योतक भी है । मनको चेतावनी देते हुए लिखनेके पीछे जैनोंकी अपनी परम्परा है । भूधरदासको इस शैलीपर कबीरका प्रभाव स्वीकार नही किया जा सकता। यह जीव संसारके सुख और वैभवोंमें सराबोर होकर भगवान्का नाम लेना भी भूल जाता है। दुःखोंमें तो सभी भगवान्को शरणमें जाते है, किन्तु सुखमे जो भगवान्की भक्ति करे वही सच्चा भक्त है। यहां भक्त कवि संसारकी असारताको बतलाता हुआ जीवको भगवान्के भजनकी ओर प्रेरित कर रहा है, "भगवन्त मजन क्यों भूला रे ? यह संसार रैन का सुपना, तन धन बारि-बबूला रे । भगवन्त भजन क्यों भूला रे? इस जोबन का कौन भरोसा, पावक में तृण-तूला रे । काल कुठार लिये सिर ठाड़ा, क्या समझै मन फूला रे ॥ मगवन्त भजन क्यों भूला रे ? ॥ स्वारथ साधै पांच पांव तू, परमारथ कौं लूरा रे । कहुं कैसे सुख पैये प्राणी, काम करै दुख मूला रे ॥ ___ मगवन्त भजन क्यों भूला रे ? ॥ मोह पिशाच छल्यो मति मारे, निज कर कंध वसूला रे । मज श्री राजमतीवर भूधर दो दुरमति सिर धूला रे ॥ भगवन्त मजन क्यों भूला रे ॥" न जाने कब मौत आ जाये, इसलिए भगवान् जिनेन्द्रके चरणोंको तो कभी विस्मरण करना नहीं चाहिए। उनके दर्शन-मात्रसे ही दुःख भाग जाते हैं और पूजासे तो बड़े-बड़े पाप भी नष्ट हो जाते है। भगवान्के चरणोंका एकचित्त हो ध्यान करनेसे मनोकामनाएं पूरी हो जाती है, मंगल संघटित हो उठते है और पाप टल जाते हैं। मस्तकके झुकाते ही मोहरूपी धूल भी झड़ जाती है। भक्त कवि भूधरदासका कथन है कि जबतक कफ कण्ठमे आकर नहीं अड जाता, तबतक भगवान्को भज ले । घरमें अग्निके प्रविष्ट हो जानेसे कूप खोदना चातुर्य नहीं है, "जिनराज चरन मन, मति बिसरै। को जाने किहिं बार काल की, धार अचानक भानि परै ॥ १. यह पदसंग्रह 'जनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकता' से प्रकाशित हुआ था। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ जैन भात कवि : जीवन और साहित्य देखत दुख मजि जाहिं दशौं दिश, पूजत पातक-पुंज गिरे। इस संसार-सार-सागर सौं और न कोई पार करै । इक चित ध्यावत वांछित पावत, आवत मंगल विधन टरै । भोहनि धूल परी माथे चिर, सिर नावत तत्काल झरै ॥ तबलौं भजन सँवार सयानै, जबलौं कफ नहिं कंठ भरै । अगनि प्रवेश भयो घर 'भूधर' खोदत कूप न काज सरै ॥" परमार्थ जखड़ी जैनोंमे जखड़ियां लिखनेकी परम्परा बहुत पुरानी है। हर्षकीर्ति, रूपचन्द, दौलतराम, रामकृष्ण और जिनदास आदि सभीने जखड़ियाँ लिखी हैं । भूधरदासकी इस जखड़ीमे केवल पांच पद्य है । पं० पन्नालाल बाकलीवाल-द्वारा सम्पादित 'जिनवाणीसंग्रह' मे इसका प्रकाशन हो चुका है।' __ मनको सीख देते हुए कवि कह रहा है कि ओ मेरे मन ! तुझे इस संसारमे थोड़े ही दिन तो जीवित रहना है, इसलिए तू भगवान् जिनेन्द्रके चरणोसे प्रेम कर । जिनेन्द्र-भक्तिके बिना करोड़ बरसों तक जीवित रहना भी व्यर्थ है । जब तूने नरपर्याय प्राप्त की है तो ज्ञानी गुरुकी बात समझकर भगवान् 'जिन' की भक्ति कर, "अब मन मेरे बे, सुन सुन सीख सयानी। जिनवर चरना बे, कर कर प्रीति सुज्ञानी ॥ कर प्रीति सज्ञानी शिवसुख दानी. धन जीतब है पंच दिना। कोटि वरस जीवौ किस लेखे, जिन चरणाम्बुज भक्ति विना ॥ नर परजाय पाय अति उत्तम गृह बसि यह लाहा लेरे। समझ समझ बोलें गुरु ज्ञानी, सीख सयानी मन मेरे ॥१॥" गुरु-स्तुति भूधरदासने दो गुरु स्तुतियोंकी रचना की थी, और दोनों ही 'जिनवाणी संग्रह' में प्रकाशित हो चुकी हैं। जैनोमे देव, शास्त्र और गुरुकी पूजा बहुत पुराने समयसे चली आ रही है। गुरुके बिना न तो भक्तिकी ही प्रेरणा मिलती है और न ज्ञान ही प्राप्त होता है। इसीलिए एक ओर तो ज्ञानियोमे गुरुकी महिमा है, तो दूसरी भोर भक्त भी गुरुके बिना नहीं चल पाता। यहां भूधरदासजी कर्म-शृंखलाओंको काटना चाहते हैं, किन्तु उनको पूरा १. बृहजिनवाणी संग्रह, किशनगढ़, सम्राट् संस्करण, पृ० ६०४,६०५ । २. बृहब्जिनवाणी संग्रह, किशनगढ, सम्राट संस्करण, सितम्बर १९५६, पृ० १२८-१५१ । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि विश्वास है कि गुरुके अनुग्रहके बिना वे कट नही सकती। गुरु एक उस राजवैद्यकी भांति है, जो भ्रमरूपी रोगको तो तुरन्त ही ठीक कर देता है। उनका गुरु केवल 'परोपदेशे पाण्डित्यं' वाला गुरु नही है, अपितु वह स्वयं भी इस संसारसे तरता है और दूसरोको भी तारता है । देखिए, "बंदी दिगम्बर गुरु चरन जग, तारन तरन जान । जे भरम मारी रोग को हैं, राजवैद्य महान ॥ जिनके अनुग्रह बिना कमी, नहिं कटै कर्म जंजीर । ते साधु मेरे उर वसहु, मम हरहु पातक पीर ॥" जैन गुरु तपस्वी होता है । वे जेठको तपती दोपहरियोमे, जलते पर्वतोंको उत्तुग शृंगपर, पावसकी भयावह रातोमें, टप-टप् करते वृक्षोंके नीचे, और शीतकालमें तुषारावृत नदी और सरोवरोंके तटपर ध्यान धारण कर बैठते है । भूधरदास ऐसे गुरुको अपने मनमे स्थापित कर, अपनेको गौरवान्वित मानते है,२ "जेठ तपै रवि आकरो, सूखै सरवर-नीर । शैल-शिखर मुनि तप तपैं, दाझै नगन शरीर ॥ __ ते गुरु मेरे मन बसो॥ पावस रैन डरावनी, बरसे जलधर धार । तरुतल निवसें साहसी, बाजै झंझावार । ते गुरु मेरे मन बसो ॥ शीत पड़े कपि-मद गलै, दाहै सब बन राय । ताल तरंगिनि के तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ॥ ते गुरु मेरे मन बसो॥ यह विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों काल मझार । लागे सहज सरूप में, तनसो ममत निवार ॥ ते गुरु मेरे मन बसो॥" भूधरदासका गुरु वह ही है, जिसने इन्द्रियोंको वशमें किया हो और सुख तथा वैभवाको लात मार दी हो। जो पहले रंगमहलोंकी कोमल शय्याओंपर पौढ़ता था, और अब रातके पिछले पहरमे थोड़ा-सा शरीरको संकोच कर, भूमिपर सो लेता है। पहले जो चतुरंगिणी सेना सजाकर हाथीपर चलता था, अब जमीनको देख-देखकर चलता है। ऐसे गुरुओंके चरण जहाँ पड़ते है, वह स्थान १. वही, पहली गुरु स्तुति, पृ० १४८ । २. वहीं, दूसरी गुरुस्तुति, पृष्ठ १५० । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य तीर्थक्षेत्र बन जाता है । उस धूलको मस्तकपर चढ़ाते हुए भूधरदास अत्यधिक गौरवान्वित है, "रंग-महल में पौढ़ते, कोमल सेज बिछाय । ते पच्छिमनिशि भूमि में, सो| संवरि काय ॥ ते गुरु मेरे मन बसो॥ गज चढ़ि चलते गरब सों, सेना सजि चतुरंग। निरखि निरखि पग वे धरै, पालें करुणा अंग ॥ ते गुरु मेरे मन बसो॥ वे गुरु चरण जहाँ धरै, जग में तीरथ जेह । सो रज मम मस्तक चढ़ौ, 'भूधर' मांगे येह ॥ ते गुरु मेरे मन बसो॥" बारह-भावना ___ यह अनेकों बार प्रकाशित हो चुकी है। अभी-अभी 'ज्ञानपीठ पूजाजलि' मे भी इसका प्रकाशन हुआ है। इसमे सासारिक जीवनकी असारताको सरसताके साथ कहा गया है। इस संसारमें राजा और रंक सबको मरना है । मरते समय कोई रोक नही सकता, बड़ीसे बडी ताक़त भी नही। यह जीव संसारमें जब तक रहा, दुःखी रहा, चाहे उसके पास धन था या नहीं, "राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार ॥ दल बल देई देवता, मात-पिता परिवार । मरती बिरियां जीव को, कोई न राखन हार ॥ दाम बिना निधन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहूं न सुख संसार में, सब जा देख्यो छान ॥ आप अकेलो अवतरै, मरै अकेलो होय । यूं कबहूं इस जीव को, साथी सगा न कोय ॥" जिनेन्द्र-स्तुति भूधरदासके द्वारा निर्मित तीन जिनेन्द्र-स्तुतियोंका प्रकाशन 'जिनवाणी सग्रह' मे ही हुआ है। जिनमे-से 'अहो जात गुरु एक'वालो सरस स्तुति उचित संशोधनके १. वही, दूसरी गुरुस्तुति, पृष्ठ १५१ ॥ २. ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, १६५७ ई०,खण्ड ६, पृ० ५२८-५२६ । ३. बृज्जिनवाणी संग्रह, पृ० १३२-३४, ५२८-३०, ५३०-३१ ।। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि साथ 'ज्ञानपीठ पूजाजलि'मे भी छपी है। ___ संसारमै दुष्ट कर्मोके ही कारण इस जीवको विविध दुख मिलते है । कर्म एक बहुत बड़े दुश्मनके समान है। उससे छुटकारा पानेके लिए दुखिया भक्त दीनदयाल प्रभुसे प्रार्थना कर रहा है, "महो जात गुरु एक, सुलिए अरज हमारी। तुम प्रभु दीनदयाल, मैं दुखिया संसारी ॥ इस मव-वनके माहि, काल अनादि गमायो । भ्रम्यो चहुंगति माहि, सुख नहिं दुख बहु पायो । कर्म महारिपु जोर, एक न कान करै जी । मन माने दुख देहिं, काहू सों न डरै जी।" पाप और पुण्यने मिलकर पैरोमे बेड़ो डाल दो है, और तनरूपी कारागृहमें बहुत अधिक दु.ख दिया है। हे जगवन्ध ! मैने इनका कुछ नहीं बिगाडा था, ये तो अकारण ही बैरी बन गये हैं। अब मैं आपके सुयगको सुनकर आपकी शरणमें आया हूँ। हे नीति-निपुण जगराय ! हमारा न्याय कर दीजिए। "पाप पुण्य मिलि दोय, पायनि बेड़ी ढारी। वन काराग्रह माहि, माहि दियो दुख मारी ॥ इनको नेक विगार, मैं कछु नाहिं कियो जी। विन कारन जगवन्य, बहुविध बैर लियो जी ॥ अब आयो तुम पास, सुन जिन सुजस तिहारो। नीति-निपुन जगराय, कोने न्याव हमारो॥" भूधरकी भक्ति स्वामि-सेवक भाव ही प्रधान है। फिर भी उनका सेवक गुलामकी घिनौनी अवस्था तक नहीं पहुंचा है। आप कहीपर भी उसे घिधियाते नहीं देखेंगे। उसने सुना कि भगवान् पतितोंका उद्धार करनेवाले हैं और वह भी अपने दुखोंको लेकर उनके पास पहुँच गया, "जै जगपूज परम गुरु नामी, पतित उधार न अंतरजामी । दास दुखी तुम अति उपगारी, सुनिए प्रभु ! अरदास हमारी ॥॥" भव-भवमे आत्मा उज्ज्वल बने और समाधिमरणपूर्वक अन्त हो। ऐसा मोक्षप्राप्ति तक होता रहे । यह सब कुछ भगवान्की भक्तिसे ही सम्भव है, और भगवान् १. ज्ञानपीठ पूजांजलि, खण्ड ६, पृष्ठ ५२२-५२३ । २. वही, पृष्ठ ५२२ । ३. वही, पृष्ठ ५२३ । ४. बहज्जिनवाणी संग्रह, पृष्ठ १३२ । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य को भक्ति भी-भगवान्को कृपासे ही मिल सकती है । देखिए, "मव मव अनुभव प्रातमकेरा; होहु समाधिमरण नित मेरा । जबलौं जनम जगत मैं लाधौं, काल लब्धि बल लहि शिव साधौं । तबलौं ये प्रापति मुझ हूजो, भक्ति प्रताप मनोरथ पूजौं । प्रभु सब समरथ हम यह लोरें, भूधर अरज करत कर जोरै ॥" पार्श्वनाथ स्तुति __ इसमें भगवान् पार्श्वनाथकी महिमाका वर्णन है। इसका प्रकाशन 'जिनवाणी संग्रह में हो चुका है। कविने लिखा है, भगवान् पार्श्वनाथका नाम सुधारसके समान शीतलता और शान्ति प्रदान करनेवाला है। उसकी पूरी महिमा गानेमें शक्र भी समर्थ नहीं है, फिर मैं तो उपहासास्पद ही लगूंगा। अब तो यह ही प्रार्थना है कि जबतक मैं मोक्ष प्राप्त करूं, तबतक प्रत्येक जन्ममें आप स्वामी और मैं सेवक रहूँ, "पारस प्रभु को नाउँ, सार सुधारस जगत मैं । मैं वाकी बलि जाउँ, अजर अमर पद मूल यह ॥१॥ यों अगम महिमा सिंधु साहब, शक्र पार न पावहीं। तजि हासमय तुम दास भूधर भगतिवश यश गावहीं। अब होउ भव-भव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहौं। कर जोरि यह वरदान मागौं, मोखपद जावत लहौं ॥ १०॥" पार्श्वनाथ स्तोत्र यह स्तोत्र भी उपर्युक्त 'जिनवाणी संग्रह' मे ही छप चुका है। इसमे कुल २२ पञ्च है । दोहा-चौपाईका प्रयोग किया गया है। स्तुतिको अपेक्षा यह स्तोत्र अधिक सरस और जीवन्त है। भगवान् पार्श्वनाथके यशका वर्णन जब चार ज्ञानके धारक मुनि भी नहीं कर पाते, तो एक साधारण भक्तकी क्या सामर्थ्य है, जो उसका कीर्तन कर सके। किन्तु भगवान्को भक्तिसे प्रेरित होकर उससे जो कुछ करते बनता है, वह करता. ही है । इस भांति भक्तको लघुताका यह चित्र अतीव सुहावना है, "प्रभु इस जग समरथ ना कोय । जासों तुम यश वर्णन होय ।। चार ज्ञान धारी मुनि थकैं। हम से मंद कहा कर सके। १. वही, पृष्ठ १३३-३४ । २. वही, पृष्ठ १३५-३७ । ३. वही, पृष्ठ २६१-६४। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि यह उर जानत निश्चय हीन । जिन महिमा वर्णन हम कीन ॥ पर तुम भक्ति थकी वाचाल । तिस वश होय कहूँ गुणमाल ॥" मिथ्या-मतका वृक्ष लगा हुआ है, उसपर जन्म और मरणके फूल लगे हैं। वह दुःख रूप फलोंको देनेवाला वृक्ष सिवा भक्तिरूपी कुठारके और किसीसे नहीं कट सकता, "जन्म जरा मिथ्यामत मूल । जन्म मरण लागे तहँ फूल ॥ ____सो कबहूँ बिन भक्ति कुार । कटै नहीं दुख फळ दातार ॥ १३ ॥" एकीभाव स्तोत्र ___ यह वादिराज मुनिके 'एकीभाव स्तोत्र'का भाषानुवाद है। किन्तु इतना सफल अनुवाद है कि मूलका रस कहींपर भी विशृंखल नहीं हो पाया है। भगवान्की भक्तिरूपी गंगामें जो स्नान कर लेता है, वह फिर कभी अपवित्र नहीं हो पाता। यह गंगा स्याद्वादरूपी पर्वतसे निकलकर मोक्षरूपी समुद्रमे गिरती है, "स्याद्वाद गिरि उपजे मोक्ष सागर लौं धाई। तुम चरणाम्बुज परस भक्ति गंगा सुखदाई। भौचित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरब तामै । अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय यामैं ॥ १६॥" तत्त्वविद्या धनके धारी गुरु गणेशजी कहते हैं कि हे जिन ! तुम ज्योतिस्वरूप हो और दुरितरूपी अन्धकार निवारण करनेवाले हो। जबतक तुम मेरे चित्तरूपी घरमें बसोगे, तबतक पापरूपी अन्धकारको रहने का अवकाश ही नहीं मिल सकता, "तुम जिन जोति स्वरूप दुरित अँधियारि निवारी । सो गणेश गुरु कहैं तत्त्व विद्या धन धारी ।। मेरे चितघर माहिं बसौ तेजोमय यावत । पाप तिमिर अवकाश तहां सो क्यों करि पावत ॥ २॥" पार्श्वपुराण, इस महाकाव्यको रचना वि० सं० १७८९ आषाढ़ सुदी ५ को हुई थी। १. स्तोत्रका प्रकाशन जिनवाणी संग्रहमें हुआ है। इसमें कुल २७ पद्य है । जिनवाणी संग्रह, पृष्ठ २४६-५२। २. संवत् सतरह से समय, और नवासी लीय। सुदि अषाढ़ तिथि पंचमी, ग्रन्थ समापत कीय ॥ पाचपुराण, ३३६वाँ पद्य, पृष्ठ ११ । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य इसका प्रकाशन बहुत पहले 'जिनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकत्ता' से हुआ था। यह एक मौलिक कृति है, अर्थात् किसी संस्कृत रचनाका अनुवाद नहीं है। जैनपरम्परामे चरित ग्रन्थ लिखनेके लिए कुछ ऐसी निश्चित बातें है, जो प्रत्येक रचनामे पायी जायेगी, और वह इसमे भी है। पूर्व भवोंका वर्णन, नगरियों और प्राकृतिक शोभाका उल्लेख, माके सोलह स्वप्न, और पचकल्याणोंका भक्ति'प्रवाह प्रत्येक कृतिमे मिलेगा। शैली-गत भिन्नता ही नवीनता कही जा सकती है। भूधरदासको शैली प्रसादगुणयुक्त है, और भाषा कोमलकान्त पदावलीसे समन्वित । 'पावपुराण' एक महाकाव्य है । इसमे ९ अधिकार हैं। भगवान् पार्श्वनाथको जन्मसे ही नही, किन्तु पूर्व भवोंसे लेकर निर्वाण पर्यन्तको कथा है। प्रथम अधिकारसे अन्तिम सर्ग तकको कथामें एक सम्बन्धनिर्वाह है। अवान्तर कथाएं मुख्य कथानककी पुष्टि और अभिवृद्धि करतो हो है। नायक क्षत्रिय राजकुमार और तीर्थकर है। शान्तरसको प्रधानता है, वैसे अन्य रसोंका भी समावेश हुआ है। सभी अधिकारोंमे दोहा-चौपाईका बहुत अधिक प्रयोग है, कही-कहीं सोरठा और छप्पय भी आये है । विविध प्राकृत दृश्योंका वर्णन है। प्रारम्भ और अन्तमे मंगलाचरण भी है । काव्यका नामकरण नायकके नामपर हुआ है। इस भांति महाकाव्य के सभी लक्षण इसमें वर्तमान है। प्रारम्भमे ही भगवान् पार्श्वनाथकी स्तुति की गयी है। कविका अटल विश्वास है कि उनको वन्दना करनेसे, अनादिकालसे बंधे हुए कर्म छूट जायेंगे, "बाघ सिंह वश होंहिं, विषम विषधर नहिं डकैं। भूत प्रेत बैताल, व्याल बैरी मन शंकैं॥ शाकिनि डाकिनि अगनि, चोर नहिं भय उपजावें। रोग सोग सब जाहिं, विपत नेरे नहिं आवै ॥ श्री पार्श्वदेव के पद कमल, हिये धरत निज एक मन । छूटें अनादि बंधन बंधे, कौन कथा विनशैं विधन ॥ ५॥" महाराजा आनन्दने मुनिवर विपुलमतीसे पूछा कि "प्रतिमा धातु परवान को, प्रगट अचेतन अंग । पूजक जन को पुण्य फल, क्यों कर देय अभंग ॥ तुम जग में १. महाकाव्यके इन लक्षणोंके लिए आचार्य विश्वनाथका साहित्यदर्पण, छहा परिच्छेद, पद्य ३१५-२४ देखिए । २. पाश्वपुराण, पृष्ठ १। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** हिन्दी जैन मक्ति काव्य और कवि *" संजय तिमिर, दूर करन रवि रूप । यह मुझ भरम मिटाइए, करें वीनती भूप ॥ अर्थात् भगवान् जिनेन्द्रको अचेतन प्रतिमा पूजक जनको पुण्य फल कैसे प्रदान करती हैं ? मुनिने जो उत्तर दिया, वह इस प्रकार है, 'जैसे चिन्तामणि रतन, मनवांछित दातार । तथा अचेतन बिम्ब यह, वांछा पूरन हार ॥ ज्यों याचत सुख कल्पतरु, दानी जन को देय । स्यों अचेत यह देत है, पूजक को सुख श्रेय ॥ afण मन्त्राधिक औषधी, हैं प्रतच्छ जड़ रूप । विष रोगादिक को हरै, त्यों यह अघहर भूप ॥ तपस्वी पार्श्वनाथपर कमटके जीवने बहुत बड़ा उपसर्ग किया। पार्श्वने उसे हँसते-हंसते झेल लिया । उसीका एक चित्र यहाँ उपस्थित किया गया है। यदि चित्रांकन उत्तम काव्यकी कसोटी है तो यह पद्य भी उत्तम काव्यका ही निदर्शन माना जायेगा, “किलकिलंत बैताल, काल कजल छवि सजहिं । afare विकराल, माल मदगज जिमि गज्जहिं ॥ मुंडमाल गल धरहिं लाय लोयननि डरहिं जन । मुख फुलिंग फुंकरहिं करहिं निर्दय धुनि हन हन ॥ इहि विधि अनेक दुर्वष धरि, कमठ जीव उपसर्ग किय | तिहुं लोक बंद जिनचन्द्र प्रति, धूलि डाल निज सीस लिख ॥ ३ भगवान् पार्श्व प्रभुको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इन्द्र देवताओंके साथ भगवान् के समवशरणमे आया । भगवान्‌की पूजा की और सिर झुकाकर स्तुति करने लगा, उसका अन्तिम पद्य है, "तिस कारण करुणानिधि नाथ, प्रभु सनमुख जोरे हम हाथ । जबलों निकट होय निरवान, जगनिवास छूटै दुख दान ॥ तबलों तुम चरनाम्बुज वास, हम उर होहु यही अरदास । और न कछु वांछा भगवान, यह दयाल दीजै वरदान || " ४ १. वही, पृष्ठ २६ | २. वही, पृष्ठ २७ । ३. वही ८२३, पृष्ठ ६५ । ४. वही, आठवाँ अधिकार, १० ७३ । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य अन्य रचनाएँ गज भावना और पंचमेरु पूजा, वे रचनाएँ है, जिनका कि अभी पता चला है । ये दोनों ठोलियोंके दिगम्बर जैन मन्दिरमें विराजमान ६४८वें 'पाठसंग्रह' में निबद्ध हैं । इसी 'पाठसंग्रह' में 'वज्रनाभि चक्रवर्तिको वैराग्यभावना' नामकी रचना भी संकलित है। तीनों ही भूधरदासकी कृतियाँ है । इनमे से 'वैराग्यभावना', "जिनवाणी संग्रह' में छप भी चुकी है। बाईस परीषह भी भूधरदासकी कृति है । इनका पृथक् प्रकाशन 'जिनवाणी संग्रह' मे पृष्ठ ७०६-१५ तक हो चुका है । ८७. निहालचन्द (वि० सं० १८वींका अन्तिम पद ) afaar निहालचन्द पार्श्वचन्द्र गच्छके वाचक हरषचन्दके शिष्य थे । उनकी रचनाओंसे उनके पारिवारिक जीवनपर कोई प्रकाश नही पड़ता। इतना अवश्य विदित होता है कि उनके जीवनका अधिकांश समय बंगालमे कटा । उनकी मातृभाषा गुजराती थी, अतः यह स्पष्ट है कि वे गुजरातमे ही कहीं उत्पन्न हुए होंगे। उनकी पाँच रचनाओं में से तीन गुजरातीमे और दो हिन्दीमे है । इनका समय संवत् १८०० के आस-पास है । निहालचन्द एक उत्तम कोटिके कवि थे । अभीतककी खोजोमे उनकी केवल पाँच रचनाओका पता चला है : 'मणिकदेवीरास', 'जीवविचारभाषा', 'नवतत्त्वभाषा', 'बंगालकी गजल' और 'ब्रह्मबावनी' | इनमे अन्तिम दो हिन्दीमे लिखी गयी थीं । ब्रह्मaratt कविवर निहालचन्दकी यह एक प्रसिद्ध रचना है । इसीके आधारपर उन्हें महाकवि कहा जा सकता है। इसकी रचना वि० सं० १८०१ कार्तिक सुदी ६ को १. राजस्थानके जैन शास्त्र भण्डारोंकी ग्रन्थसूची, भाग ३, पृष्ठ ३११ । २. बृहज्जनवाणी संग्रह, पृष्ठ ५६१-६५ । ३४९ ३. पासचन्द गच्छ स्वच्छ वाचक हरषचन्द, कीरतें प्रसिद्ध जाकी साधु मन भावनी । ताके चरणारविन्द पुन्यतें निहालचन्द, कीन्ही जिन मतिते पुनीत ब्रह्मवावती ॥ बावनी, ५१ वें पकी अन्तिम पंक्तियाँ, राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, उदयपुर, १६५४, पृष्ठ ८८ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि मुर्शिदाबादमे हुई थी। इसकी एक प्रति बीकानेरके 'अभय जैन ग्रन्थालय'मे मौजूद है। इसमें ५२ पद्य हैं । उसपर उपर्युक्त रचना-काल दिया हुआ है। दूसरी प्रति 'जैन सिद्धान्तभवन आरा'के हस्तलिखित ग्रन्थोमें मौजूद है। यह प्रति भी शुद्ध एवं पूर्ण है। एक प्रति वह है, जिसका उल्लेख श्री मोहनलाल दुलोचन्दजी देसाईने किया है। इस प्रतिमें भी ५२ पद्य है। प्रति पूर्ण एवं इसमें जैन-परम्पराके अनुसार भगवान् सिद्ध, जो निराकार और अदृश्य है, की उपासना की गयी है। निराकार आत्माका वर्णन होने के कारण उसमें अव्यात्म और वैराग्यका पुट अधिक है। निर्गुण-ब्रह्मकी भक्तिमें सन्त कवियोंकी रचनाएँ जैसे मधुरता-सिक्त हैं, वैसे ही इसमे भी आकर्षक ढंगसे भावोंको गूंथा गया है। ओकार रूप भगवान् सिद्धकी भक्तिमें कहा गया एक पद्य देखिए, "आदि ओंकार आप परमेसर परम जोति, अगम अगोचर अलख रूप गायौ है । द्रव्यता में एक पै अनेक भेद परजो मैं, ___जाको जसवास मत बहुंन मैं छायौ है। त्रिगुन त्रिकाल मेव तीनों लोक तीन देव, ___ अष्ट सिद्धि नवों निद्धि दायक कहायौ है। अक्षर के रूप में स्वरूप भुअलोक हुंको, ऐसो ओंकार हर्षचन्द मुनि ध्यायो है।" मोकार मन्त्रकी प्रशंसा करते हुए कविने लिखा है कि इसके बराबर दूसरा मन्त्र नहीं है। यह सिद्धोंको सिद्धि, सन्तोंको ऋदि, महन्तोको महिमा, योगियोंको योग, देव और मुनियोंको मुक्ति, तथा भोगियोंको भुक्ति देता है । यह चिन्तामणि, १. संवत् अठारे से अधिक एक कातो मास, पख उजियारे तिथि द्वितीया सुहावनी। पुर में प्रसिद्ध मखसुदाबाद बंग देस, जहाँ जैन धर्म दया पतित को पावनी ।। ब्रह्मबावनी, ५१वें पद्यकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ। २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, चतुर्थ भाग, पृष्ठ ८८-८९ । ३. प्रेमी अमिनन्दन ग्रन्थमें निबद्ध जैन सिद्धान्तभवन, पाराके कुछ हस्तलिखित हिन्दी-ग्रन्थ, पाँचवीं संख्या । ४. जैन गुर्जरकविमो, तीजो माग, खण्ड १, पृष्ठ ८,६ । ५. वही, पृष्ठ । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य कल्पवृक्ष और कामधेनुके समान है । विशुद्ध ज्ञानको दृष्टि भी उसीसे मिलती है , "सिद्धन कौं सिद्धि, ऋद्धि देहि संतन कौं महिमा महन्तन कौं देत दिन माही है, जोगी को जुगति हूं मुकति देव, मुनिन कू, भोगी कुंभुगति गति मति उन पांही है। चिन्तामन रतन, कल्पवृक्ष, कामधेनु सुखके समाज सब याकी परछांही है, कहैं मुनि हर्षचन्द निर्षदेय ज्ञान दृष्टि ऊंकार मंत्र सम और मन्त्र नाहीं है।" ___ कवि निहालचन्द सादृश्य-विधानमें निपुण थे। उन्होने अपनी लघुता दिखाते हुए सादृश्यकी रचना की है। कविने लिखा है कि मेरा यह काव्य बालक्रीडाकी भांति है, उसमें गलतियोंका होना स्वाभाविक है। सज्जन अपनी सुबुद्धि और उदारचित्तसे उनको सुधार लें। मेरे इस काव्यको वे पवनके स्वभावसे स्थानस्थानपर प्रसिद्ध कर दें, पन्नगके स्वभावसे एकचित्त होकर सुनें, भ्रमरके स्वभाक्से अर्थको सुगन्धि ग्रहण करें और हंसके स्वभावसे गुणोंको चुन लें, "हम पै दयाल होकै सज्जन विशाल चित्त मेरी एक वीनती प्रमान करि लीजियो। मेरी मति हीन तातें कीन्हो बाल ख्याल इहु. अपनी सुबुद्धि ते सुधार तुम दोजियो । पौन के स्वभाव तै प्रसिद्ध कीज्यौ और ठौर, पञ्चग स्वमाव एक चित्त में सुणीजियो। अलि के स्वभाव ते सुगन्ध लीजियो अरथ की, ' हंस के स्वभाव होके गुन को ग्रहीजियौ । बंगाल देशकी गजल इसपर रचनाकाल नही दिया है, किन्तु इसके वर्णनसे ऐसा प्रतीत होता है कि इसका निर्माण वि० सं० १७८२-९५ के बीचमे कभी हुआ। इसमें मुख्यतया बंगालके मुर्शिदाबादका वर्णन किया गया है। उस समय वहाँ नवाब शुजाशाह राज्य कर रहा था। बंगालके इतिहाससे स्पष्ट है कि शुजाशाहने ई० सं० १७२६ से १७३९ तक मुर्शिदाबादकी नवाबी की। इसी आधारपर उपर्युक्त संवत्की कल्पना की गयी है। मुनि कान्तिसागरजीने यह गजल 'भारतीय विद्या' में प्रकाशित करवा दी है। मुनि जिनविजयजीने उसका ऐतिहासिक सार भी दिया है। १. जैन सिद्धान्त भवन आरावाली प्रति । २. अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेरवाली प्रति । ३. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग २, उदयपुर, १९४७ ई०, पृष्ठ १५२ | ४. भारतीय विद्या, वर्ष १, अंक ४, पृष्ठ ४१३-२६ । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ हिन्दी जैन भकि-काव्य और कवि ८८. पं० दौलतरामजी (वि० सं० १७७७-१८६९) पं. दौलतरामजीका जन्म जयपुर स्टेटके वसवा नामक गाँवमे हुआ था। आज भी यह जयपुरका एक कसबा है। यह दिल्लीसे अहमदाबाद जानेवाली बी० बी० एण्ड सी० आई० आर० का एक स्टेशन भी है। दौलतरामजीके पिताका नाम आनन्दराम था। उन्होने अपनी प्रत्येक रचनाके अन्तमे 'आनन्दराम सुत दौलतरामेन' लिखा है। उनकी जाति खण्डेलवाल और गोत्र कासलीवाल था । वे जयपुरमे आकर रहने लगे थे। वसवामे दौलतरामजीके घरके सामने हो विशाल जैन मन्दिर था। वहां जिनपूजन, शास्त्रस्वाध्याय तथा तत्त्वचर्चा होती ही रहती थी। बालपनमें दौलतरामजीका झकाव जैनधर्मको और नहीं था। इसी मध्य उनका आना आगरा हआ। वहाँ बनारसीदासको अध्यात्म-परम्परा अनेक विद्वानोका जमघट था। उनमे पं० भूधरदासजीको सर्वाधिक ख्याति थी। दौलतरामजीने उन्हें भूधरमलके नामसे पुकारा है। उनके अतिरिक्त हेमराज, सदानन्द, अमरपाल, बिहारीदास, फतेहचन्द, चतर्भुज और ऋषभदासके नाम भी विशेषरूपसे उल्लेखनीय है। इन्हीं में से ऋषभदासजीके उपदेशसे दौलतरामको जैनधर्मपर विश्वास हुआ और आगे चलकर वह विश्वास अगाध श्रद्धाके रूपमे परिणत हो गया। दौलतरामने अपने गुरु ऋषभदासका अनेक स्थानीपर स्मरण किया है। पं.दौलतरामजीका व्यक्तित्व असाधारण था। ये एक ओर तत्कालीन जयपुर और उदयपुरको राज्यनीतिके सूत्रधार थे और दूसरी ओर साहित्य-साधक भी। उनकी रचनाओसे उनकी विद्वत्ता भी स्पष्ट है । संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओंपर उनका समान अधिकार था। उन्होने जैन पुराणों और आध्यात्मिक ग्रन्थोका सफल हिन्दी-अनुवाद किया है । उनका गद्य हिन्दीको अमूल्य निधि है । 'अध्यात्म बारहखड़ी' नामके ग्रन्थमें उनकी मौलिक काव्य-प्रतिभाके दर्शन होते है। पं० दौलतरामजी जयपुरके महाराज सवाई जयसिंहके पुत्र माधवसिंहके मन्त्री थे। माधवसिंह उदयपुरमे रहते थे, अतः पं० दौलतराम भी वि० सं० १८८६ से सं० १८०८ तक उदयपुरमे रहे । माधवसिंहके जयपुराधीश होनेपर वे जयपुर में आकर रहने लगे। उनका लम्बा समय उदयपुरमें बीता। वैभवसम्पन्न होते हुए १. पुण्याश्रव टीकाको अन्तिम प्रशस्ति । २. वसुवा का वासी यह अनुचर जय को जानि । मंत्री जयसुत को सही जाति महाजन जानि ।। पुण्याश्रवकथाकोशकी अन्तिम प्रशस्ति । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य भी पण्डितजीका हृदय उदार और दयालु था। उनका जो समय राज्यकार्योसे बचता था, उसका उपयोग वे पूजन, ध्यान, अध्ययन और ग्रन्थ-निर्माणमें करते थे। उनका रहन-सहन सादा और पवित्र था। रचनाएँ पं० दौलतरामने सर्वप्रथम 'पुण्यास्रव कथाकोश'को भाषा-टीका वि० सं० १७७७ मे की। तदुपरान्त उन्होने 'वसुनन्दीश्रावकाचार'को टब्बा टोकाका निर्माण वि० सं० १८०८मे किया। उनके द्वारा 'पद्मपुराण' को भाषा-टीका वि० सं० १८२३, 'आदिपुराण'को १८२४, 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय'की १८२७ और 'हरिवंशपुराण'की १८२९ मे की । श्रीयोगीन्दुके 'परमात्मप्रकाश'की टोकाके विषयमे डॉ० ए० एन० उपाध्येने लिखा है, "इस बातको कोई अस्वीकार नही कर सकता कि इस हिन्दी अनुवादके ही कारण जोइन्दु और उनके 'परमात्मप्रकाश'को इतनी ख्याति मिली है।' उन्होंने 'हरिवंशपुराण' के साथ ही 'श्रीपालचरित'का भी हिन्दी अनुवाद किया था । इन टोकाओमे मौलिकता भले ही न हो, ऐमी सरसता है, जिसके कारण आज भी लोग उन्हें रुचिपूर्वक पढते है । अनेक जैन नर-नारियोंने केवल 'पद्मपुराण' पढ़नेके लिए हो हिन्दी सीखी और बावा भागीरथ-जैसे अनेक अजैन 'पद्मपुराण'की हिन्दी टीका पढ़कर जैन-श्रद्धानी हो गये। 'परमात्मप्रक्राग'को टीकामे पं० दौलतरामको आध्यात्मिक प्रवृत्ति स्पष्ट हो है। उन्होंने 'अध्यात्मवारहखड़ी' नामके एक मौलिक ग्रन्थका भी सृजन किया था। उन्होंने उसका दूसरा नाम 'भक्त्यक्षरमालिका बावनी स्तवन' भी लिखा है। यह पण्डितजीकी समर्थ काव्यशक्तिका प्रतीक है। इसकी अनेक हस्तलिखित प्रतियां विविध शास्त्र-भण्डारोमें मौजूद है । बड़ा मन्दिर जयपुर, दि० जैन मन्दिर बड़ौत और नया मन्दिर दिल्लीकी प्रतियां मैने देखी हैं। सभोमे इसका रचनाकाले वि० सं० १७९८ दिया हुआ है। इस कृतिमे हिन्दोके ५२ अक्षरोमे-से प्रत्येकको लेकर काव्य-रचना की गयो है। इसमे आठ परिच्छेद है। पं० दौलतरामने सबसे पहले मन्दाक्रान्ता, मालिनी, स्रग्धरा, उपेन्द्र वज्रा और शार्दूलविक्रीडित-जैसे संस्कृतके छन्दोका हिन्दीमे प्रयोग किया। इस रचनामें गोता और मोतीदाम-जैसे नवीन छन्द भी है। इनके अतिरिक्त उन्होने दूहा, चौपई, सवैया, कवित्त, छप्पय, बरवै, कुण्डलिया, अडिल्ल, त्रोटक, पद्धणी, भुजंगप्रयात, नाराच, त्रिभंगी और सोरठामे भी कविता की। १. परमात्मप्रकाशकी अंगरेजी प्रस्तावनाका हिन्दी अनुवाद । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि इसका विषय भक्ति और अध्यात्म दोनो ही से सम्बन्धित है । इसमे लगभग ५००० पच हैं। 'अध्यात्म बारहखड़ो में भक्तिरस अपनी चरम सीमापर पहुंच गया है । ऐसी भाव-विभोरता, ऐसी तल्लीनता बहुत कम रचनाओमे देखी जाती है। पं० दौलतरामने उस 'राम' को वन्दना की है, जो सबमें रम रहा है । ऐसा कोई स्थान नहीं जहां वह राम न हो, "वंदो केवल राम कौं, रमि जु रह्यो सब माहि । ऐसी और न देषिए, जहां देव वह नाहिं ॥१०॥" आत्मा और जिनेन्द्रके रूपमें कोई अन्तर नही है। अतः कविने 'आतमदेव' की सेवा करनेकी बात लिखी है । "पूजौं आतमदेव कौं, करै जु प्रातम सेव । श्रेयातम जगदेव जो, देव देव जिनदेव ॥३०॥" । उदार भक्त कवियोने अपने देवमे हो अन्य देवोंके भी दर्शन किये है। सूरने कृष्णमें रामको और तुलसीने राममे कृष्णको देखा है। जैन कवियोंको जिनेन्द्रमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनो ही दिखाई दिये हैं। छन्द नाराचमे इन विचारोंकी सरसता देखिए, "तुही जिनेश शंकरो सुषंकरो प्रजापती तुही हिरण्यगर्म को गर्म को धरापती महा स्व शक्ति पूरको तुही जिनो रमापती रमा जु नाम माम नाहिं, शक्ति रूप है छती ॥५०॥" नराधिप, सुराधिप और फणाधिप तेरा भजन करते हैं। अनादिकालके कर्म दूर भाग जाते है । हे ईश्वर ! न तू बाल है, न युवा है और न वृद्ध ही है। तू अनेक भी है और एक भी है। तू ज्ञान रूप है और ऐश्वर्यका विधान है, इस. भांति भक्ति करते हुए कविने लिखा है, "नराधिपो सुराधिपो फणाधिपो तुझे मजें अनादिकाल के जु कर्म दास तै परे भनें । तुही जु नाहिं बाल है न वृद्ध है युवा न है अनेक एक ज्ञान रूप ईश तू निधान है ॥५४॥" 'ॐ' की अनेक कवियोंने स्तुति की है। इस रचनामें भी भक्त कविने ॐकी महत्ताका वर्णन किया है, Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३५१ "ॐसम को मंत्र जु नाहीं, पंच परम पद याके मांही। ॐ मन्त्र जु भगवत रूपा, ॐ श्रुति संमृति को भूपा ॥ ॐकार स्वरूप निरंजन, ॐकार सकल श्रुति रंजन । ॐकार निधान अनूपम, ॐकार प्रधान जगूपम ॥" जिनेन्द्रका दास आवागमनके चक्करसे बच जाता है। ऐसे अनन्त दास भवसमुद्रसे पार हो जाते है, "इक भव धरि वह तो मैं मिलिहै, तेरो दास न जग में रुलिहै । तेरे दास अनंत जु उघरे, तोकौं पाय बहुत जन उबरे ॥" साधु 'निरमोही' होकर, अर्थात् संसार त्याग कर, जिनेन्द्रका ही भजन करते हैं । जिनेन्द्र अनुभूति रूप है । उनका स्वभाव शुद्ध होता है और प्रभाव अमित कविने इस भक्ति-भावनाको त्रोटक छंदमै अभिव्यक्त किया है, "जे साधु अतन्द्रा वसहिं जु कन्द्रा, मत जिन चन्द्रा दिढ जु धरैं । ते जपहिं जु तो ही है निरमोही, छांडि सवोही ध्यान करें । द है अनुभूती रूप विभूती नाहिं प्रसूती क्वापि धरै। अतिरिक्त विमावो शुद्ध स्वमावो अमित प्रभावो काल हरै ॥" भगवान्की भक्ति करनेसे अनेक गुण उत्पन्न होते हैं। यह गुण जननी और शिवजननी दोनों ही है । गुणमाता भक्ति ही सुरमाता भी है, "तुम्हरी भक्ति जु नाथ जी उपजावै गुन धोक । तातें गुन जननी इहै शिव जननी विनु शोक ॥ गुनमाता सुरमात है तेरी भक्ति दयाल और न सुरमाता प्रभू इह मार्षे सुरसाल ॥" सन्त कवियोंकी भांति पं० दौलतरामने लिखा है कि केवल मूड मुंडानेसे कुछ नहीं होता है, आतमरामकी सेवा करनेसे ज्ञान उत्पन्न होता है । आतमरामकी सेवा केवल भगवान्की कृपासे ही प्राप्त हो सकती है, "मुंड मुंडाये कहा, तस्व नहिं पा जौ लौं। मुढनि को उपदेस सुनै मुक्ति जु नहिं तोलौं । मलमूत्रादि मत्यो जु देह कबहूं नहिं शुद्धा। शुद्धो आतमराम ज्ञान को मूल प्रबुद्धा ॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ऐसो तो विनु को कहै को देवै निज ज्ञान कौं । सुनि जु वीनती तारि हरि मुंदि रहे मति कानकौं ॥" पं० दौलतराम छहढाला आदिके कर्ता पं. दौलतरामसे पृथक् थे। ८९. भवानीदास (वि० सं० १७९१ ) बनारसमे रामघाटपर एक जैन मन्दिर है, जिसके शास्त्र-भण्डारमे अनेको हस्तलिखित प्रतियोका संचय है। एक प्रतिमे भवानीदासको अठारह रचनाएं लिपिबद्ध हैं। सभी हिन्दीमे है । उनपर राजस्थानी अथवा गुजरातीको कोई छाप नहीं है। इनके आधारपर यह प्रमाणित है कि उनका जन्म हिन्दी भाषा-भाषियोके मध्य ही हुआ था । 'फुटकर शतक' के तीन पद्योमे आगरेके तीन श्वेताम्बर मन्दिरो और उनमे प्रतिष्ठित मुख्य मूर्तियोका समय आदि दिया है। पहले पद्यके अनुसार आगरेके चिन्तामणिजीके मन्दिरको स्थापना सं० १६४० माघ बदी ५ को हुई। दूसरे पद्य के अनुमार श्रीगणवर स्वामीके मन्दिरमे चन्द्राननजीकी प्रतिमा स०१६६८ को माघ बदी ७ को साह होरानन्दने बनवायी, जिनके घरपर सम्राट् जहाँगीर आया था। तीसरे पद्यके अनुसार भगवान् शोतलनाथकी प्रतिमा सं० १८१८ के माघ सुदी १४ को प्रतिष्ठित हुई। इस भाँति उन्होने आगरके शाह हीरानन्दका भी सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है । यद्यपि उन्होंने दिल्लोके वासुपूज्यजीके मन्दिरकी स्थापनाकी भी बात कही है किन्तु मुख्यता आगरेके मन्दिरोंकी ही है। इन भाधारोसे यह अनुमान लगाना श्रासान है कि वे आगरेके रहनेवाले थे और उनका जन्म श्वेताम्बर जातिमें हुआ था। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके गुरुका नाम 'गुरु मानाजी' था जो एक प्रतिष्ठित श्वेताम्बर साधु थे । भवानीदासने सं०१७८३ में सर्वप्रथम उनसे भेंट की। उन्होने गुरुजीके सं० १८०९ पौष बदी ८, बृहस्पतिबारको रातको स्वर्गवासी होनेकी सूचना भी अपनी कृति 'जीव विचार भाषा' मे लिखी है, जो संवत् १८१० कार्तिक सुदो १० को रचना है। कवि भवानीदास 'का रचना-काल संवत् १७९१ से संवत् १८२८ तक माना जाना चाहिए, ऐसा ही उनकी कृतियोंसे स्पष्ट है। उनकी अधिकांश रचनाएँ भगवान् जिनेन्द्रको भक्तिसे सम्बन्वित है। वैसे उन्होंने अपनी कुछ कृतियोमे तात्त्विक चर्चा भी की है, किन्तु प्रधानता भक्ति को है । अध्यात्म बारहमासा और चेतन हिण्डोलना-जैसी रचनाओंसे यह प्रकट है Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य कि उनपर बनारसीकी 'अध्यात्म परम्परा' का भी प्रभाव था। आत्माको लेकर बारहमासोका वर्णन करना अदृष्टके प्रति अनुभूति-परक भावोंको प्रकट करना है। भवानीदासकी रचनाएँ इस प्रकार हैं : 'चोवीस जिनबोल' पद्य - सं० १७९७, 'अध्यात्म बारहमास' - १२ पछ - १७८१, 'ज्ञाननिर्णय बावनी' १२ पच - सं. १७९१, काकाबत्तीसी - ३४ पद्य - सं० १७९६, 'चौबोसीके कवित्त' - २६ पद्य, 'हितोपदेश बावनी' - ५२ दोहा - सं० १७९२, पन्नवणा अल्पाबहुत ९८ बोल भाषा, - ५२ पद्य - सं० १७९१, 'सुमति कुमति बारहमासा' - १२ पद्य, ज्ञानछन्द चालीसी - ४० पद्य - सं० १८१०, सरधा छत्तीसी - ३७ पद्य, 'नेमिनाथ बारहमासा' - १२ पद्य, 'चेतन हिण्डोलना गीत'-८ पद्य, 'नेमिहिण्डोलना'-८ पद्य, 'राजमति हिण्डोलना'-८ पद्य, 'नेमिनाथ राजीमती गोत'-८ पद्य, 'चेतन सुमति सज्झाय' - १२ पद्य, 'फुटकर शतक' - ९८ पद्य, 'जीवविचार भाषा' - १५१ पद्य । भवानीदासके कतिपय पद, अतिशय क्षेत्र महावीरजीके एक अधजले गुटकेमे निषद्ध हैं। नेमीश्वरकी भक्तिमें समर्पित एक पद देखिए, "स्य चढ़ जादुनंदन आवत हैं चलो सखी मिली देषन कू॥ मोर मुकुट केसरिया जामा कर में कंगण राजित हैं । तीन छत्र माथे पर सोहै चवसठ चमर ढुगवत हैं। इन्द्र चन्द्र थारी सेवा करत हैं नारद बीन बजावत हैं। दास मवानी दोउ कर जोड़े चरणों में सीस नवावत हैं।" ९०. अजयराज पाटणी (वि० सं० ५७९२-१७९४) अजयराज आमेरके रहनेवाले थे। इनकी जाति खण्डेलवाल और गोत्र पाटणी था। कतिपय रचनाओंसे स्पष्ट है कि वे अट्ठारहवीं शताब्दीके अन्तिम पादमे हुए थे। 'यशोधर चौपई'-सं० १७९२, पाश्वनाथ सालेहा' - सं० १७९३ और 'आदिपुराण' - सं० १७९७ मे रचे गये थे। इससे उनका रचना-संवत् स्पष्ट है। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि अजयराज अट्ठारहवीं शताब्दीके एक सामर्थ्यवान कवि थे। उनको अधिकांश कृतियां भक्ति और अध्यात्मसे सम्बन्धित है। 'जिनगीत' 'पदसंग्रह', 'पूजा' और 'जयमालायें', 'णमोकार सिद्धि' तथा 'नेमिनाथ चरित', भक्तिपूर्ण कृतियाँ हैं। 'चरखा चउपई', 'शिवरमणीका विवाह' और 'जिनजीकी रसोई' अध्यात्मसम्बन्धी रूपक है । 'आदिपुराण भाषा', 'चार मित्रोंको कथा', 'यशोधर चौपई' और 'कक्का बत्तोसी साधारण रचनाएं हैं । इनपर राजस्थानीका प्रभाव है। आदिपुराण भाषा यह हिन्दी-पद्यमे लिखा गया है। इसमें २२५ पृष्ठ हैं। इसकी रचना वि. सं० १७९७ मे हुई थी । जयपुरके बड़े मन्दिरमे वेष्टन नं० १११ में निबद्ध है। चार मित्रोंकी कथा इसकी रचना स० १७८१ मे हुई थी। यह भी उपर्युक्त मन्दिरके ही चेष्टन नं० ४१२ मे निबद्ध है। इसमे कुल ६ पृष्ठ है । यशोधर चौपई इसकी रचना वि० सं० १७६२ कात्तिक बदी २ को हुई थी। इसकी एक प्रति सं० १८०० चैत वदो ११ की लिखी हुई बधीचन्दजीके दि० जैन मन्दिरमे स्थित है। यह प्रतिलिपि बस्सीवाले चूहडमल पाटनीने आमेरमे करवायी थी। चरखा चउपई एक रूपक-काव्य है। यह जयपुरके बधोनन्दजीके जैन मन्दिरके गुटका नं० १३४ में निबद्ध है । इसमे ११ पद्य है, प्रथम तोनमे जिनेन्द्रको वन्दना है, सात पद्योमें चरखेका रूपक है और अन्तमें उसकी उपयोगिताका वर्णन है। कृति भावपूर्ण और रसयुक्त है । प्रारम्भके पद्य देखिए, "श्री जिनवर वंदू गुणगाय, चतुर नारि चर्षे लाय । राग दोष विगता परिहरे, चतुर नारि चरपे चित धरै ॥ प्रथम मूल चरषा को जाणि, देव धर्म गुरु निस्चै आणि । दोष अठारा रहत सू देव, गुरु निरगंय तिण करि सेव ।। धर्म जिनेसुर भाषित सार, जपत तत हिरदै अवधार । ज्यों समकित उपजै सुषकार, ता विन भ्रम्यो भव तू संसार ।" शिवरमणीका विवाह __यह उपर्युक्त मन्दिरके गुटका नं० १५८, वेष्टन नं० १२७५ मे निबद्ध है। इसमें कुल १७ पद्य है। आत्मामें परमात्माके उदय होने को ही आत्माके साथ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य 'परमात्माका विवाह माना जाता है । इसीको जैन लोग जीव रूपी दुलहाका मोक्षरूपी रमणीके साथ विवाह होना स्वीकार करते है। जब ऐमा होता है तो देव मिलकर आनन्द मनाते है, "देव सबै मिलि अाइयाजी, हरष हीये अधिकाय । रूप देषत मन मोहीया जी, लोचन सहस कराय ॥४॥" शिवरमणीने आत्माका मन मोह लिया है। उसके आनन्दका पारावार नहीं है। अजयराज हाथ जोड़कर ऐसे आत्मन्के गुण गाते है, "शिव रमणी मन मोहीयो जी जेठे रहे जी लुमाय ज्ञान सरोवर में छकि गये जी भावागवण निवारि ॥१५॥ आठ गुणां मंडित हुवा जी सुष को तहाँ नहीं छोर प्रभु गुण गायां तुम तणां जी अजैराजि करि जोड़ि ॥१६॥" जिन-गीत ___उपर्युक्त गुटके में ही जिन-गीत भी संकलित है। इसमे १० पद्य हैं । कविने एक पद्यमे लिखा है कि हे भगवन् ! आपके 'तारण विरद'को सुनकर ही मै आपकी शरणमें आया हूँ । आपके दर्शनसे मुझे पुण्य मिला। एक दूसरे पद्यमे कविने शिवरमणीके कन्त जिनेन्द्रसे भव-समुद्रसे उस पार उतार देनेकी प्रार्थना की है, "थाको तारण विरद सुन्यो तुम सरणौं भाईयो जी। थाको दरसण देषित मैं प्रभु पुंनि उपाईयो जी ॥ भुजी शिवरमणी को कंत, परमपद ध्याईयो जी। तातें अब मुहि पार उतारि, दया चित लाईयो जी ॥७॥" जिनजीकी रसोई इसकी रचना वि० सं० १७९३ मे हुई थी। यह बधीचन्दजीके मन्दिरमें विराजमान गुटका नं० ५०, वेष्टन नं० १०१४मे निबद्ध है। इसी गुटकेमे यह दो स्थानोंपर अंकित है । एकमें ३६ पद्य है जो अपूर्ण है, और दूसरेमे ५३ पद्य है Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि जो पूर्ण हैं । इसमे सब प्रकारके व्यजनों और भोजनोके नाम गिनाये गये है। भोजनोपरान्त वन-विहार आदिका भी वर्णन है। भगवान् जिनेन्द्रके बाल-वर्णनमे भी सौन्दर्य है । सब कुछ भगवान् 'जिन'की भक्ति से ही सम्बन्धित है । यह रसोई साधारण नहीं है, आराध्यको सन्तुष्ट करने के लिए बनायी जानेके कारण इसमे कुछ अलौकिक स्वाद आ गया है । आरम्भ, मध्य और अन्त देखिए, "यह जिन जी की कहूँ रसोई । ताको सुणत बहुत सुख होई॥ तुम रूसो मत मेरे चमना । खेलो बहुविधि घर के अंगना ॥ देव अनेक बहोत खिलावै। माता देखि बहुत सुख पावै ॥३॥" मध्य "छिमक चणा किया अति मला । इलद मिरच दं घृत में तला । मेसी रोटी अधिक वणाई । आरोगो त्रिभुवन पति राई ॥" अन्तिम "अजैराज इह कियो बखाण । भूल चूक मति हंसौ सुजाण ॥ संवत् सत्रासै त्रेणावे । जंठ मास पूरणा हवै।" कक्का-बत्तीसी यह कृति उसी मन्दिरके गुटका नं० ५८ और वेष्टन नं. १०२६में निबद्ध है। यह गुटका नं० १२१ पर भी अंकित है। इसको रचना वि० सं० १७३७ वैशाख सुदी १३ दिन सोमवारको हुई थी। इसमे ४० पद्य है । कविने लिखा है, "ननां निपट वजीक है, निजपद निज घट माहीं। ज्यौं जल बीचि कमौदनी, त्यौं चेवन जड़ पाहीं ॥ २४ ॥ ससा सो अब पाइयो, सो कबहुँ नहीं जाय । धनि जनेसर धनि गरू, तिन प्रसाद इहै पाय ।। ३६ ॥" गुटका नं० ५८में अजयराजको लिखी हुई एक दूसरी कक्का बत्तीसी और है। उसमे केवल ३४ पद्य है । उसे अध्यात्म-बत्तोसी कहना ही उपयुक्त है। कविने प्रत्येक जीवकी आत्माको परमात्मा कहा है और उसी प्रेम करनेकी बात लिखी है, “ठठा ठाकुर जगत में जिय तुम सम भवर न कोई रै लाल । १. सत्रासेंतीयासीये रिति ग्रीषम वैमाष । सोमवार तेरसि भली, अवर उजालौ पाष ॥ गुटका नं० ५८, ४०वाँ पछ । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ नैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य सुधपयोग सुभाव करि ज्यौं आनन्द बहुतै होइ रै लाल ॥ १३ ॥ ढढा ढूंढौ ब्रह्म को जिय ता बिनि करनी बादि रै लाल । ता बिनि चहुंगति हड़ोयो जिय षोयो काल अनादि रै लाल ॥ १५ ॥ ददा निज दरसण बिना जिय जप तप सबै निरथ रै लाल । कण बिन तुस ज्यौं फटक तें जिय आवै कछु न हथि रै लाल ॥ १९ ॥ ननां निपट सनेह करि रै निज प्रीतम निज माहि रे लाल । सदा रंगीलो रस मरयौ ताकौं देषत मन हरषांहि रै लाल ॥ २१॥" विनती ____अजयराजकी 'श्री जिन रिखब महन्त गाऊँ स्तुति उपर्युक्त मन्दिरके गुटका नं० १२१ में, 'जागी जागी हो त्रीभुवन के राय' मन्दिर ठोलियान, जयपुरके गुट क नं० १३१ (ले०, वि० सं० १७७९ ) में और 'निजरी लगी तुम चरण सों' बधीचन्दजीके मन्दिर जयपुरके गुटका नं० ५१, पृ० ६२ पर अंकित है । अन्तिम स्तुति अत्यधिक सरस है। कुछ पंक्तियां देखिए, "तारण विरद सुणो सबै मुनि जिन लागत पाय ।। निजरी लगि तुम चरण सों सो कबहुं नहिं जाय ॥ तुम मूरति प्रभु देषता निज पद सहज लगाय ॥ चरण कमल दुति है इसी कोटि सुरज छिप जाय ॥ सुष करतां दुष सोषतां तुम त्रिभुवन पति राइ ॥ तुम सेवा बिन सुणी प्रभु दुष्ट करम नहिं जाइ । मवि जिन बहोत समोधिक भवि जल पार उतार ॥ अजैराजि विनती करि आवागमण निवारि ॥" अजयराजके पद भारतके सभी शास्त्र-भण्डारोके पदसंग्रहोंमें पाये जाते हैं। जयपुरके मन्दिरोका तो शायद ही कोई शास्त्र-भण्डार हो, जिसमें अजयराजके पद न Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि हो । बधोचन्दजीके मन्दिरके गुटका नं० १५८ वेष्टन नं० १२७५ मे निबद्ध एक पदको पंक्तियां इस प्रकार है, "तुम परमातम देषि जु पद अपनो लष्यो आतम अनुभव अमृत रस अपुरब चष्यो । सेसै सब मिटि गयो महा आनन्द भयौ अचल अषंडित निज पद निज घट मैं लयौ ॥ ८ ॥ नमुं नमुं प्रभु हरष महा उर आणि के मगन भयो तुम देषि निजपद जानि के। इहै भगति नर नारी मन धरि गाइसी अजैराज कहै सुण मुकति पद गाइसी ॥९॥" अजयराजका पूजा और जयमाला साहित्य जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिर में विराजमान गुटका नं० ५० बहुत ही प्रसिद्ध है। इसमें २०२ पृष्ठ है । अजयराजकी अनेकानेक रचनाएं इसी गुटकेमे संकलित हैं। अधिकतर पूजाएँ है । 'आदिनाथपूजा', 'चतुर्विंशति तीर्थकरपूजा', 'नन्दीश्वर पूजा', 'पंचमेरु पूजा', 'बोस तीर्थंकरोको जयमाल', 'सिद्ध स्तुति', 'चौबीस तीर्थकर स्तुति' और 'श्री श्रेयांस सकल गुण धार' भी इसीमे अंकित है । इनके अतिरिक्त 'पार्श्वनाथ सालेहा' भी इसीमें लिखा हुआ है, जिसको रचना सं० १७९३ ज्येष्ठ सुदी १५ को हुई थी। 'आदिनाथ पूजा' पूर्ण है। 'नन्दीश्वर पूजा मे केवल ९ पद्य है। सबसे अधिक पद्य 'चौबीस तीर्थंकर स्तुति'मे है, अर्थात् २० पद्य है । भगवान् जिनेन्द्रकी भक्तिमे लिखे गये अन्य मुक्तक पद भी इसी गुटकेमें निबद्ध है। णमोकार सिद्धि __ यह भी उपर्युक्त मन्दिरके गुटका नं० ५१ और वेष्टन नं० १२१७मे अंकित है। यह गुटका सं० १८२३ कात्तिक बदी ७ को लिखा गया था। यह छोटा-सा काव्य ‘णमोकार मन्त्रकी महत्ता' से सम्बन्धित है। नेमिनाथ चरित यह एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इसकी रचना वि० सं० १७९३ आषाढ़ सुदी १३ को हुई थी। इसकी प्रतिलिपि सं० १७९८ चैत्र सुदी ८ को की गयी। १. संवत सतरासै त्रैणवै, मास असाढ़ पाई वर्णयो । तिथि तेरस अंधेरी पाख, शुक्रवार शुभ उतिम दाख । नेमिनाथ चरित्र, ठोलियोंके मन्दिर, जयपुरकी हस्तलिखित प्रति । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३६३ यह जयपुरके ठोलियोके दि० जैन मन्दिरके गुटका नं० १०८मे निबद्ध है । चरित्रकी पद्य-संख्या २६४ है। इस काव्यके निर्माणको प्रेरणा अम्बावती नगरके जिनमन्दिरमे विराजमान भगवान् नेमिनाथको मनोज्ञ मूत्तिको देखकर मिली थी। कविने इस प्रतिमाको श्यामवर्णका कहा है। वह इसकी पूजा-अर्चा भी प्रति-दिन किया करते थे। प्रारम्भिक मंगलाचरण देखिए, "श्री जिनवर बन्दौ सबै, आदि अन्त चउबीसै । ज्ञान पुंजि गुण सारिखा, नमो त्रिभुवन का ईस ॥ तामैं नेमि जिणन्द को बन्दौ बारम्बार । तास चरित बखाणिस्यो, तुछ बुद्धि अनुसार ॥" कटनेके लिए बंधे जीवोंपर करुणा करके ही नेमीश्वर विवाह-द्वारसे वापस लौट आये । वीतरागो दीक्षा ले, तप करने गिरनारपर चले गये। विलाप करती राजुल कहती है, “यदि तुम्हारा वियोग हुआ तो हमारा जन्म ही निष्फल हो जायेगा, इसलिए संयम छोड़कर सांसारिक सुखोंको भोगो। जब तुमने दया करके पशुओ तकको छुड़ा लिया, सब मीनकी भांति तड़पती हुई मुझपर दया क्यो न करोगे?" "जो होइ वियोग तिहारो, निरफल कै जनम हमारो । तातें संजम अब तजिए, संसार तणां सुख मजिए ॥ जल बिन मीन जिव किम, मीन तैसे हूं तुम आधीन । तुम भाव दया की कीन्हा, सब जीव छुड़ाई जी ॥" राजा सवाई जयसिंहका राज्य था। अम्बावती नगरके मध्यमे एक जिनमन्दिर था। उसमे नेमिकुमारको अनुपम मूत्ति थी। मन्दिरके चारों ओरके प्राकृ. तिक वातावरणका दृश्य देखिए, "अजयराज यह कीयो बखाण, राज सवाई जयसिंह जाण । अंबावती सहरै सुम थान, जिन मन्दिर जिम देव विमाण ॥ वीर निवाण सोहै बनराई, बेलि गुलाब चमेली जाई। चम्पो मरबो अरै सेवति, यो हौ जाति नाना विधि कीती ॥ बहु मेवा विधि सार, वरणत मोहि लागै बार। गढ मन्दिर कछु कहयौ न जाइ, सुखिया लोग बसे अधिकाइ ॥ तामै जिन मन्दिर इक सार, तहां विराजै श्री नेमिकुमार । स्याम मूर्ति सोमा अति घणी, ताकी उपमा जाइन गणी ॥" Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि शुभ भाग्यसे उन भगवान्‌ के दर्शन हो पाते है । अनेक श्रावक वहाँ आते हैं और अपने अशुभ कर्मोको काट डालते है । अजयराज भी मन, वचन, कर्मसे पूजन करते है | नित्य प्रति उस मूर्त्तिकी वन्दना करनेसे यह जीव इस भव-समुद्रसे पार हो सकता है, ३६४ "जाकै भाग उदै सुभ होइ, करि दरसण हरषै मेंट सोई । आ जावै सरावग घणा, काटै कर्म सबै आपणां ॥ राज वहाँ पूजा करई, मन वच तन अति हरष धरई । for प्रति बन्दै ते बारम्बार, तारण तरण कहै भव पार || Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग : दो Page #394 --------------------------------------------------------------------------  Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष कुछ समय पहले तक हिन्दीके बड़े-बड़े विद्वान् यह स्वीकार करते रहे है कि हिन्दीमे लिखी गयी जैन रचनाएँ धर्म प्रचारको माध्यम-भर है, उनमें वह भावोन्मेष नही है जिसके आधारपर रसका उद्रेक होता है। यदि 'रसो वै सः', 'रसं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति' वाली बात रस है, और हृदयसे स्वतः फूटी अन्तःसलिला ही भाव-धारा है, तो जैन काव्यमे रस और भाव दोनों हो सन्निहित है । 'भक्तिरसामृत सिन्धु'मे भक्ति रससे सम्बन्धित पांच भाव स्वीकार किये गये है : शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य । उनको उत्तरोत्तर उत्तम माना है, किन्तु जैनभक्तिमें 'शान्त' ही सर्वोत्तम है। यहां इन्हीं भावोके आधारपर जैन-भक्तिका भाव-पक्ष उपस्थित किया गया है। भावोंका क्रम इस प्रकार है : सख्यभाव, वात्सल्यभाव, प्रेमभाव, विनयभाव और शान्तभाव । इनमे आगे-आगे विशुद्धता आती गयी है। सख्यभाव भगवान्को सखा मानना ही सख्यभाव है। इसमें बराबरीका दर्जा प्रधान होता है। भगवान् अपने मित्रोंपर भगवत्त्वका आरोपण नही करते, मित्र भी भगवान्के ऐश्वर्य और माहात्म्यसे आश्चर्यान्वित न होकर, उनकी सुख-सुविधाका ही अधिक ध्यान रखते है। उनमे सेव्य-सेवक भावकी भांति संकोच नही होता, अपितु वे आपसमे स्पष्ट रूपसे खुले रहते है। यदि कभी मित्रको भगवान्का काम अनुचित और भ्रमपूर्ण मालूम होता है तो वह उसका निराकरण भी करता है। __ जैन साधनाके आध्यात्मिकतावाले पहलू में सखा-भावका निर्वाह हुआ है। कर्म-मलसे रहित विशुद्ध आत्मा ही परमात्मा है । उसे जैन-शास्त्रोंमे 'सिद्ध' संज्ञा दी गयी है। अर्थात् आत्मामे परमात्मा बननेके सभी अंश मौजूद है। यह जीव उस आत्मासे प्रेम करता है और उसे चेतन नामसे पुकारता है। उसीके साथ उसका मित्र-भाव है। जब भ्रमवशात् चेतन असंगत पथपर चलता है, तो यह जीव Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि सच्चे मित्रकी भांति ही उसे सावधान करता है। यद्यपि सन्त साहित्यके 'चेतावणी को अंग'मे भी सावधान करनेकी ही बात है, किन्तु वहां जिस मनको सावधान किया जा रहा है, उसमे भगवान् बननेकी सामर्थ्य नहीं है, अतः हम उसे सखाभाव नहीं कह सकते। जैन साहित्यमें तो चेतनको ही परमात्मा माना है और उसके सुखके लिए उसे सावधान करनेवाला मित्र ही है, अन्य नहीं। पाण्डे रूपचन्दने 'गीत परमार्थी मे लिखा है, "हे चेतन ! मुझे भारी आश्चर्य है कि जब अमृत-जैसे हितकारी वचनोके द्वारा सद्गुरु तुम्हें समझाता है और तुम भी ज्ञानी हो, फिर न जाने क्यो तुम चेतन होते हुए भी चेतन तत्त्वकी कहानी नहीं समझते।' 'परमार्थी दोहाशतक' में तो उन्होने बड़े ही प्रेमपूर्ण ढंगसे चेतनको समझाया है। उन्होंने कहा, "अहो जगत्के राय ! अपने पदका विचार छोड़कर और शिवपुरीकी सुध भुलाकर भव-वनमें क्यों छा रहे हो। तुम्हें इस संसारमें भ्रमण करते-करते अनादि काल बीत चुका है। व्यर्थ ही दुःख क्यों झेलते हो ? अपने घरको क्यों नहीं संभालते । इन्द्रिय-सुखसे लगकर तुम विषयोंमें बेहोश हो रहे हो, और परम अतीन्द्रिय सुखको नहीं समझते । किन्तु विषयोंका सेवन करते हुए तुम्हारी तृष्णा उपशम नहीं होगी, प्रत्युत खारे जलके समान बढ़ती ही जायेगी।" मायाके फन्देमें फंस चेतनको सावधान करते हुए पं० बनारसीदासने लिखा है, "हे चेतनजो ! तुम जागकर अर्थात् सावधान होकर देखो कि कहां मायाके पीछे लगे हो। माया और तुम्हारा क्या सम्बन्ध ? तुम तो न जाने कहाँसे आये हो और कहाँ चले जाओगे, किन्तु माया तो जहाँको तहाँ ही रहेगी। माया न तो तुम्हारी जाति-पातिकी है, न वंशकी है और न तुम्हारे अंशकी इसमे कुछ झलक है। इसको दासी न बनानेसे यह तुम्हें लातोंसे पीटती है। हे चेतन, तुम ऐसी अनीति क्यो सहन करते हो । तुमको इस मायाकी दासता छोड़ देनी चाहिए।" "चेतन जी तुम जागि विलोकहु, ___लागि रहे कहां माया के ताई ॥ आये कहीं सों कहीं तुम जाहुगे, माया रहेगी जहां के तहाई ॥ माया तुम्हारी न जाति न पांति न, वंश की वेलि न अंश की झाई॥ १. पाण्डे रूपचन्द, गीत परमार्थी। २. पाण्डे रूपचन्द, परमार्थी दोहा शतक । ३. बनारसीदासे, नाटक समयसार, साध्यासाधकदार, पब ७, पृ० १२८ । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति काव्यका भाव-पक्ष दासी किये बिन लातनि मारत । ऐसी अनीति न कीजे गुसांई ॥ " इस ससारमे आकर चेतन दृढ बन्धनोमे बँध गया है, किन्तु उस बेसुधको इसका होश ही नही है | भला अब उसको उन बन्धनोसे कौन छुडाये । वह विवेकहीन है, ठीक वैसे ही जैसे गजराज स्नान करनेके उपरान्त भी अपने शरीरपर धूल डाल लेता है, और जैसे रेशमका कीडा तन्तुओंको उगलकर स्वयं उनके बन्धनमे बँध जाता है । उसे समझाते हुए कत्रिने कहा है, "हे चेतन ! तुम स्वयं सम्यक् ज्ञान हो, किन्तु संसारकी भ्रम-वोचियोमे अपनेको भूल गये हो । अब शुभ व्यान धरके और ज्ञान- नौकापर चढ़के इन वीचियोसे पार निकल जाओ ।” २ ३६९ 'चेतन' के प्रति सखाभावके उद्गार अभिव्यक्त करनेमें भगवतीदास 'भैया' अप्रतिद्वन्द्वी है। उन्होने सुमतिको रानी और चेतनको राजा बनाया है । सुमति अपने पतिको सर्वोत्तम मानते हुए भी उसके पथ भ्रष्ट होनेपर कभी प्रणय-भरी सीख और कभी मीठी फटकार लगाती है । प्रेमपूर्वक समझाने अथवा मीठी फटकार लगाने का काम सिवा मित्रके और नहीं कर सकता । पत्नी भी जब ऐसा करती है, तो वह मित्र ही है । सुमति चेतनको सम्बोधन करके कहती हैं, "हे शिवनायकजी ! एक बात कहती हूँ कि क्या यह स्थान तुम्हारे रहने योग्य है, जहाँ तुम भटक रहे हो। यह तुमने कौन सो विचक्षण रीति अपनायी है कि तुम बिना देखे भाले ही इन्द्रियोमे अटक गये हो । यदि तुम आज भी मेरे गुणोंमे विश्वास करो तो एक भलाईकी बात कहूँ कि तुम अपने घटके पट क्यो नही, खोलते ? वहाँ तुम स्वयं प्रकाशमान होकर विराज रहे हो, उस अपनी सुन्दर १. चेतन तोहि न नेक संभार, नख सिखलो दिढबन्धन बेढे कौन करें निखार, चेनन० ॥१॥ ज्यों गजराज पखार आप तन, आप ही डारत छार । ४७ आपहि उगलि पाटको कीरा, तर्नाह लपेटत तार, चेतन० ॥३॥ बनारसीदास, बनारसीबिलास, जयपुर, १६५४, पृ० २३१ । २. आये निकसि निगोद सिंधु तें, फिर तिह पंथ टले । कैसे परगट होय आग जो दबी पहार तले, चेतन० ॥३॥ भूले भव भ्रम वीचि 'बनारस' तुम सुरज्ञान भले । घर शुभ ध्यान ज्ञान नौका चढि, बैठे ते निकले, चेतन० ॥४॥ बनारसीदास, बनारसीविलास, जयपुर, अध्यात्मपदपंक्ति, पद्य ११वॉ, पृ० २३१ | Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि रूप-सुधाका पान क्यों नहीं करते।" समझानेपर भी चेतन समझता नहीं। वह रात-दिन संसारके धन्धेमे बेहोश रहता है। अतः सुमति कुछ खोजकर कहती है, "हे चेतन ! तुम्हे कुछ यह भी ध्यान है कि तुम कौन हो, कहांसे आये हो, किसने तुम्हे बहका रखा है और तुम किसके रसमे मस्त हो रहे हो। तुम उन कर्मोके साथ एकमेक हो रहे हो, जो आज तक तुम्हारे हाथमे तो आये नही, उलटे तुम्ही उनके फन्देमें फंसकर चक्कर लगाते फिरते हो। तुम तो बड़े चतुर हो, फिर तुमने यह कौन-सी चतुराई को, जो तीन लोकके नाथ होकर भी भिखारीकी तरह फिरते हो।" ___ जीवका सबसे बडा स्वार्थ है अपनेको हो शुद्ध रूपमें पहचानना, किन्तु यह चेतन होकर भी अचेतनमे फैसकर रह गया है । उसको समझाते हुए द्यानतरायका कथन है, "हे जीव ! तूने यह मूढपना कहाँसे पाया कि सारा संसार स्वार्थको चाहता है, किन्तु तुझे वह अच्छा ही नहीं लगता। पता नहीं कि तुम क्यों अशुचि, अचेत और दुष्ट तनमें विरमके रह गये हो। तुमने अपने परम अतीन्द्रिय सुखको त्याग कर विषय रोगोंको लिपटा रखा है। तुम्हारा नाम 'चेतन' है, फिर तुमने जड़ होकर अपने नामको क्यों गंवा दिया है ? क्या तीन लोकके राज्यको छोड़कर भीख मांगते हुए तुझे लज्जा नहीं आती ? जब तुझे इस झूठे मूढपनेसे छुटकारा मिल जायेगा, तभी तू सन्त कहला सकता है, और तभी तू मोक्षके १. इक बात कहूँ शिवनायकजी, तुम लायक ठौर, कहाँ अटके । यह कौन विचक्षन रीति गही, बिनु देखहि अक्षन सो भटके ॥ अजहूं गुण मानौ तौ शीख कहूँ, तुम खोलत क्यों न पटै घटके । चिन्मूरति आपु विराजतु है, तिन सूरत देखे सुधा गटके ।। भैया भगवतीदास, शत अष्टोत्तरी, १०वाँ पद्य, ब्रह्मविलास, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९२६, पृ० १०। २. कौन तुम कहाँ आये कौने वोराये तुमहिं, काके रस रसे कछु सुध हू घरतु हो। कौन है ये कर्म जिन्हें एकमेक मानि रहे, अजहूं न लागे हाथ भांबरी भरतु हो। वे दिन चितारो जहां बीते हैं अनादिकाल, कैसे कैसे संकट सहेहु विसरतु हो। तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हो, तीन लोक नाथ है के दीन से फिरतु हो । वही, ३०वाँ पद्य, पृ० १४-१५ । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष अनन्त सुखके साथ विलास कर पायेगा।" एक सन्मित्रकी भाँति चेतनको समझाते हुए भूघरदासका कथन है, "ओ अज्ञानी! तू पापरूपी धतूरा न बो। फल चखनेके समय तू फूट-फूटकर रोयेगा और प्राणोसे भी हाथ धो बैठेगा। कुछ थोड़े-से विषयोंके कारण तू इस दुर्लभ देहको व्यर्थ न जाने दे। ऐमा अवसर तुझे फिर न मिलेगा, अतः नीदमे सोता न रह । ऐसे समयमे सयाने लोग कल्पवृक्षको सीचा करते है, किन्तु तू विष बोने लग रहा है, भला तेरे समान अभागा कौन होगा। संसारमे जितने दुःखदायक और रस-हीन फठ है, वे सब तेरे इस विपबीजका ही परिणाम है । तू यह सब कुछ मनमे जानकर भी भोंदू क्यों हो रहा है।" वात्सल्यभाव यद्यपि भक्ति-रसका स्थायी-भाव भगवद्विषयक रति है, किन्तु रतिके तीन प्रधानरूप माने गये है-भगवद्विषयक, वात्सल्य और दाम्पत्य । इनमे से अन्तिम १. जीव तैं मूढमना कित पायो। सब जग स्वारथ को चाहत है, स्वारथ तोहि न भायो॥१॥ अशुचि अचेत दुष्ट तन माही, कहा जान विरमायो। परम अतिन्द्री निज सुख हरि के, विषय रोग लपटायो ॥२॥ चेतन नाम भयो जड़, काहे अपनो नाम गमायो। तोन लोक को राज छोड़ि कै, भीख मांग न लजायो ॥३॥ मूढपना मिथ्या जब छूटै तब तू संत कहायो । द्यानत सुख अनंत शिव विलसो, यों सद्गुरु बतलायो ॥४॥ द्यानतपदसंग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, पद ३८, पृष्ठ १६-१७ । २. अज्ञानी पाप धतूरा न बोय।। फल चाखन की बार भरै दृग, मरहै मूरख रोय। अज्ञानी० ॥१॥ किंचित विषयनि के सुख कारण दुर्लभ देह न खोय । ऐसा अवसर फिर न मिलेगा, इस नीदडी न सोय । अज्ञानी० ॥२॥ इस विरियां मै धर्म कल्पतरु, सींचत सयाने लोय । तू विष बोवन लागत तो सम, और अभागा कोय । अज्ञानी० ॥३॥ जे जग मे दुख दायक बेरस, इस ही के फल सोया। यो मन भूधर जानि के भाई, फिर क्यों भोंदू होय। अज्ञानी० ॥४॥ भूधरविलास, कलकत्ता, पद ४, पृष्ठ ३ । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि दो भी भगवदुन्मुख होनेके कारण भगवद्विषयक ही है, किन्तु निरूपण भेद और रचना-विभागको दृष्टिसे ही उनका पृथक् निरूपण किया जाता है। भगवद्विषयकमे विनय, वात्सल्यमे बाल-लीला और दाम्पत्यमे मधुरभावसम्बन्धी रचनाएँ आ जाती है। मानव जीवनकी दो ही प्रमुख वृत्तियाँ है-वात्सल्य और दाम्पत्य । इनमे भी हिन्दी भक्ति-क्षेत्रके कवियोंने दाम्पत्यपर जितना लिखा, वात्सल्यपर नहीं । एकमात्र सूर हो इस क्षेत्रके जगममाते रत्न है । यद्यपि आचार्योने वात्सल्यको पृथक् रस नहीं माना है, किन्तु उसमे कुछ ऐसी स्पष्ट चामत्कारिक शक्ति है, जिससे किन्ही-किन्हीने उसे पृथक् रसके रूपमे भी स्वीकार किया है। और उसका स्थायीभाव 'स्नेह' रखा है। यदि इस दृष्टिमे देखा जाये तो जैन साहित्यमे वात्सल्य रसके आलम्बन पंचपरमेष्ठी और आश्रय माँ-बाप तथा भक्त-जन होंगे। आलम्बनगत चेष्टाएं, कार्य और उस अवसरपर मनाये जानेवाले उत्सवादि उद्दीपन विभावके अन्तर्गत आ जायेंगे । सूरके बाद वात्सल्यका सरस उद्घाटन जैन हिन्दी साहित्यमे ही हुआ है। जन्मके अवसरोपर होनेवाले आकर्षक उत्सवोकी छटाको तो सूर भी नहीं छू सके है । जैन साहित्यमे तो आलम्बनके गर्भमे आनेके पहले ही कुछ ऐसा वातावरण बनाया जाता है कि वत्सके जन्म लेनेके पूर्व ही 'वात्सल्य' पनप उठता है । सत्तरहवी शताब्दीके प्रसिद्ध कवि रूपचन्दने 'पंककल्याणक' की रचना की है, जिसके प्रारम्भमे ही गर्भ और जन्मकल्याणक है। तीर्थकरके गर्भ में आनेके छह माह पूर्व ही इन्द्रने धनपतिको भेजा, जिसने तीर्थकरकी नगरीको मणि-माणिक्योंसे सजाकर अपूर्व बना दिया। उसने बड़े-बड़े ऊंचे प्रासादोकी रचना की और उनको कनक तथा रत्नोंसे जड़ दिया। वहां स्थान-स्थानपर रम्य उपवन सुशोभित होने लगे । उनमे विहार करनेवाले सुन्दर वेश-भूषाको धारण किये नगरनिवासी मनको मोहित करते थे। जनक-गृहमे छह माह पूर्व ही रत्न-धारा बरसने लगी और रुचिकवासिनी देवियां प्रसन्न हो-होकर सब भांति जननीकी सेवामे जुट गयी। उनमें एक 'श्री' नामकी देवी थी, जिसने जननीकी उस कुंख' को बड़ी सावधानीसे शुद्ध किया, जिसमे त्रिलोकके नाथको नौ माह रहना था। तदुपरान्त एक रातको माने सोलह स्वप्न देखे और प्रातःकाल जब उनका फल अपने पतिसे पूछा तो उन्होंने 'तुम्हारा पुत्र त्रिभुवनपति होगा' घोषित किया। इस भाँति दोनो ही को आनन्द हुआ और नौ माह सुखपूर्वक बीतने लगे। १. पाण्डे रूपचन्द, पंचमंगल, गर्भकल्याणक ( पूर्ण ), बृहजिनवाणी संग्रह, सितम्बर १६५६, पृष्ठ. ५१-५३ । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति काव्यका भाव-पक्ष ३७३ भूधरदासने अपने 'पार्श्वपुराण' मे भगवान् पार्श्वनाथ के पंचकल्याणकोंका काव्यमय वर्णन किया है । पाण्डे रूपचन्दकी भाँति इसमें भी उन्ही बातोका उल्लेख है, किन्तु कल्पनागत सौन्दर्य अधिक है । इन्द्रकी आज्ञासे धनपतिने महाराज अश्वसेनके घर मे साढ़े तीन करोड रत्नोंकी वर्षा की । आकाशसे गिरती मणियोंकी चमक ऐसी मालूम होती थी, जैसे स्वर्गलोककी लक्ष्मी ही तीर्थकरकी माँकी सेवा करने चली आयी हो । दुन्दुभियोसे गम्भीर ध्वनि निकल रही थी, मानो महासागर ही गरज रहा हो । कुलाचलवासिनी देवियोके सौन्दर्यका वर्णन करते हुए भूधरदासने लिखा है, 'लावण्य से भरा उनका कान्तिवान् शरीर ऐसा मालूम होता था, मानो दामिनी ही आकाशसे उतरी हो । वैसे तो उन्होने अंग-अंगमे शृंगार सजाया था, किन्तु उनका स्वाभाविक रूप-सौन्दर्य भी आश्चर्यमे डालनेवाला था । उनके माथे पर चूड़ामणि जगमगा रहा था और वक्षस्थलपर कल्प वृक्षके सुमनोकी माला सुवासित हो रही थी । उनके नूपुरोसे 'श्रवन सुखद' झंकार उठ रही थी । तीर्थंकर पार्श्वनाथ के गर्भमे आते ही चारो प्रकारके देवताओके आसन हिल उठे । इन्द्रने अपने अवधिज्ञान से यह जान लिया कि आज भगवान् गर्भमे आये है । वह अपने सुरपरिवारसहित विमानपर चढ़कर गर्भकल्याणोत्सव मनानेके लिए चल पड़ा । सब देवताओने माँ-बापका कंचन कलशोंसे स्नपन किया, और मंगलगीत गाये । उन्होने विविध प्रकारसे गर्भवासी भगवान्‌की पूजा भी की । सबके चले जानेपर रुचिकवासिनी देवियां रह गयी, जो भिन्न-भिन्न प्रकारसे माँकी सेवा करती थी। कोई स्नान कराती थी, कोई शृंगार सजाती थी, कोई सुस्वादु भोजन खिलाती थी और कोई ताम्बूल देती थी थी, कोई शय्या बिछाती थी और कोई चरण दाबती थी। घर सुवासित करती थी, कोई आँगनमे बुहारी देती थी और कोई कल्पवृक्ष के फलफूलोकी भेट चढ़ाती थी । जगरामने एक 'लघुमंगल' की रचना की थी । उसमे केवल तेरह पद्य है । उसकी हस्तलिखित प्रति बड़ौतके दि० जैन मन्दिरके गुटका न० ५४ पत्र ९९- १०२ पर लिखी हुई है । उसमें भी रुचिक्रवासिनी देवियो के द्वारा तीर्थकर की माँकी सेवाका वर्णन है । एक रानीके सम्मुख दर्पण लिये खड़ी है, एक उनपर चंवर डुला रही है, एक वस्त्राभूषण पहना रही हैं, तो दूसरी । कोई सुन्दर गाना गाती कोई चन्दनसे सोचकर १. भूधरदास, पार्श्वपुराण, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, गिरगॉव, बम्बई, आषाढ़ १६७५ वि०, द्वितीयावृत्ति, ५८०-८८, पृ० ८३-८४ । २. वही, ५१२८-१३३, पृ० ८६ ३. वही, ५१३-१४४, पृ० ६० ॥ ४. वही, ५।१४७-१५०, पृ० १०-११ । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि वीणासे मधुर ध्वनि निकाल रही है। एक पहेलो पूछती है, तो दूसरी प्रसन्न होकर उत्तर देती है । इस भाँति दिन और रात आनन्दपूर्वक बीतने लगे। त्रिभुवननाथकी महिमाका वर्णन कहाँतक किया जाये। वे केवल भक्तपर रीझते है । जगरामने उनका यश गाया है, "करि उछाह लिज पूर गयो, माता पुण्य प्रभावै जी । छपन कुमारी टहल मैं, नाना रीति रिझावै जी ॥ इक सनमुष दरपन लीया, इक ठाडी चँवर दुरावै जी। वसन आभूषन ईक सै, इक मधुरी बैनि बजावै जी॥ पुछत एक पहेलिका, इक उत्तर सुनि हरषावै जी । निसि दिन अति आनन्द स्यो, इम नवमास बिना जी ॥ महिमा त्रिभुवननाथ की, कवि कहाँ लौं बरणावै जी। मक्ति परेना बसि भयो, जगतराम जस गावै जी ॥" नौ माहके उपरान्त भगवान्का जन्म हुआ। तीनों लोकोमे स्वाभाविक आनन्द फैल गया। कहीपर आँधी, मेह और धूलका प्रकोप दिखाई नही पड़ा, अपितु शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन बहने लगा। कल्पवासियोके घरोमै घण्टे स्वतः बज उठे, ज्योतिषियोंके यहाँ केहरियोंका नाद होने लगा, भवनालयोंमे शंख बज उठे और व्यन्तरवासियोंके यहाँ असंख्य भेरियाँ ध्वनित हो उठी। कल्पवृक्ष स्वयं ही पुष्पोंकी वृष्टि करने लगे। इन्द्रासन भी कम्पायमान हो उठे। इस भांति आनन्दमग्न प्रकृतिने यह घोषित कर दिया कि भगवान् जिनेन्द्रका जन्म हुआ है। सभी इन्द्र अपने-अपने सिंहासनसे उठकर खड़े हो गये और वहाँसे ही भगवान्को प्रणिपात किया।' इन्द्र-दम्पतिके चढ़नेके लिए कुबेरने एक मायामयी ऐरावतकी रचना की, जिसके काल्पनिक सौन्दर्यमे काव्यत्वका पूर्ण निर्वाह हुआ है। "उस हाथीके सौ मुख थे और प्रत्येक मुखमे आठ-आठ दांत थे। प्रत्येक दांतपर एक-एक सरोवर था, और हरेक सरोवरमे एक सौ पचीस कमलिनी खिली थी। प्रत्येक कमलिनीपर पचीस मनोहर कमल बने हुए थे और हरेक कमलमें एक-सौ आठ पत्ते थे। उन पत्तोपर देवांगनाएं नृत्य कर रही थी, जिनकी छविको देखकर समार मोहित हो जाता था। उनके गीतोमे नवों रस पनप रहे थे। १. वही, ६।१-२१. पृ० ६४-६५। २. पाण्डे रूपचन्द, पंचमंगल, जन्मकल्याणक, पद्य ६, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय शानपीठ, काशी, १९५७ ई०, पृष्ठ ६६। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष जोजन लाख गयंद, वदन सो निरमये। ___ वदन वदन वसुदंत-दंत सर संठये ।। सर सर सौ पनवीस कमलिनी छाजहीं। ___कमलिनि कमलिनि कमल पचीस विराजही ॥ राजहीं कमलिनी कमल अठोतर सौ मनोहर दल बने । दल-दलहिं अपछर नटहिं नवरस हाव भाव सुहावने ॥ मणि कनक किंकणि वर विचित्र सु अमरमंडप सोहये। घन घंट चैवर धुना पताका देखि त्रिभुवन मोहये ।। ऐसे हाथीपर इन्द्र चला और शची भी। साथमे देवगण भी विविध उत्सवोंको करते हुए चले। ___ इन्द्र-वधू प्रसूतिगृहमे गयी, जहाँ माता पुत्रसहित लेटी थी। उसने प्रदक्षिणा देकर प्रणाम किया। सुत-रागसे रंगी मां ऐसी प्रतीत होती थी, जैसे मानो बालक भानुसहित सन्ध्या हो हो । शचीने मायामयो बालकको मांके पास रखकर भगवान्को अपने हाथोमे उठा लिया। बालककी देहसे ऐसी ज्योति फूट रही थी कि उसके समक्ष करोडों सूर्योकी छवि भी मलिन ही प्रतिभासित होती थी। भगवान्की देहका स्पर्श करके इन्द्राणीको इतना सुख मिला कि उसका वर्णन कवि-वाणीसे परे है । प्रभुके मुख-वारिजको सुर-रानी बार-बार देखती थी, किन्तु अधाती नही थी। इन्द्रने तो दो नेत्रोंको अपर्याप्त समझकर सहस्र नेत्रोंकी रचना कर ली। सौधर्मेन्द्रने भगवान्को गोदमें ले लिया, ईशानके सुरेशने उनके सिरपर छत्र लगा दिया और सानत्कुमार तथा म.हेन्द्र चमर ढुलाने लगे। ब्रह्मादि स्वर्गोके इन्द्र जयजयकार बोल उठे। रूपकी खान सुररमणियां नृत्य करने लगी और गन्धर्व कन्यकाओंकी वीणाएं सुयश-गीतोंसे निनादित हो उठीं। विविध प्रकारके बाजे बज उठे। कोई-कोई तो नृत्य-गायन भूलकर बालकको निनिमेष देखता ही रह गया। ___ सब देव मिलकर बालक भगवान्को पाण्डुक वनमें ले गये और वहां पाण्डुक शिलापर विराजमान किया। फिर क्षीरसागरके एक सहस्र और नाठ कलशोंसे उनका स्नपन हुआ। उसका प्रारम्भ सौधर्म स्वर्गके इन्द्रोने किया, फिर सब इन्द्रों और देवोंने अनेक भरे हुए कलशे उस सद्य.प्रसूत बालकके सिरपर ढाले। वहाँ एक नभगंगा-सी प्रवाहित होने लगी। अतुल बल और वीर्यके कारण ही १. भूधरदास, पार्श्वपुराण, बम्बई, ६।३२-३५, पृष्ठ ६७ । २. वही, ६३८-४१, पृष्ठ १७ । ३. वही, ६६३-६४, पृष्ठ १०० । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि भगवान् उस प्रबल जल-धाराको सहन कर सके, अन्यथा उसमे इतनो शक्ति थी कि बड़े-बड़े गिरि-शिखर भी खण्ड-खण्ड हो जाते। भगवान्के श्यामवर्ण शरीरपर कलश-नीरकी ऐसी छटा थो, जैसे मानो नीलाचलके सिरपर पालेके बादल बरस रहे हों। उनके स्नपनके जलकी छटा उछलकर आकाशको ओर चल उठी सो मानो वह भी स्वामीके साथ पापरहित हो गयी है, अतः उसकी भी ऊर्ध्वगति क्यो न हो। उनके स्नपनके जलकी तिरछी छटा ऐमी विदित होती थी, जैसे किसी दिग्वनिताका कर्णफूल ही हो। 'जन्म न्हीन' को विधि पूर्ण होनेपर, शचीने पवित्र वस्त्रसे उनके शरीरको निर्जल किया। उसपर कुंकुमादि बहुत प्रकारके लेपन किये। अब भगवान्के शरीरकी शोभा ऐसी मालूम होने लगी जैसे नीलगिरिपर सांझ फूली हो। शचीने भगवान्का सब शृंगार किया। उनके भालपर तिलक लगाया, सिरपर मणिमय मुकुट रखा और माथेपर चूडामणि लगाया। स्वाभाविक रूपसे अंजित नेत्रोंमें भी अंजन लगाया। दोनों कानोंमे मणिजटित कुण्डल पहनाये, जो चन्द्र और सूरजकी भांति ही प्रकाशित हो रहे थे। कण्ठमे मोतियोको माला, भुजाओंमे भुजबन्ध और उँगलियोंमे मुद्रिकाएं पहनायीं। कमरमे मणिमय क्षुद्रघण्टिकाओंमे युक्त तगडी पहनायो, जिसमें रत्नोकी झालर लटक रही थी। विभिन्न आभूषणोंसे युक्त भगवान् इस भॉति विराज रहे थे, जैसे विविध फलोंसे युक्त सुरतरु ही सुशोभित हो रहा हो।" सम्राट् अश्वसेनने भी जन्मोत्सव मनाया। वाराणसीके घर-घरमे मंगलाचार होने लगे। कामिनियां गीत गा उठों और स्थान-स्थानपर नृत्य तथा संगीत होने लगा। समूचे नगरमे चन्दन छिड़कवा दिया गया और घर-घरमे रत्नोके साथिया रखे गये। याचकोंको दान दिया गया। और सुजनोंका सम्मान हुआ। सबकी आशाएं पूरी कर दी गयीं। अब कोई भी दीन-दुःखी दिखाई नही देता था। ऐसे अवसरपर इन्द्रने भी देवताओके साथ आनन्द नामके नाटककी रचना की, जिसमे उसके ताण्डव-नृत्यका दृश्य अनुपम था। प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेवके जन्मोत्सवकी बात कहते हुए द्यानतरायने लिखा है, "हे भाई ! आज इस नगरीमे आनन्द मनाया जा रहा है । जितनी भी १. वही, ६।६६-६७, पृ० १००। २. वही, ६६८-७०, पृ० १०० । ३. वही, ६६७५-८१, पृ०१०१। ४. वही, ६१०६-१०६, पृ० १०४ । ५. वही, ६३१११, ११३, पृ० १०५ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष ३७७ गजगामिनी और शशिवदनी तरुणियाँ है. वे सब मंगल-गीत गा रही हैं। राजा नाभिरायके घर पुत्र-जन्म हुआ है, और इस अवसरपर उनके यहाँ जो कोई जो कुछ मांगने आया, उससे कहीं अधिक दिया गया, जिससे उसे फिर मांगनेकी आवश्यकता ही नहीं रह गयी । मरु देवीकी कुंख धन्य है, जिससे ऐसा प्रतापशाली पुत्र हुआ कि देवता भी मौके चरणोंकी वन्दना करनेमें अपना अहोभाग्य मानने है।" कवि बनारसीदासने दूसरे तीर्थकर अजितनाथके जन्मोत्सवका वर्णन क्यिा है। उस अवसरपर भी देवांगनाओंने मधुर ध्वनिमे मंगलाचारके गीत गाये थे। अजितनाथ निर्मल चन्द्र की भांति सुन्दर थे। उनके जन्मसे पृथ्वी शोभा-सम्पन्न हो गयी और तीनो लोकोंमे आनन्द छा गया। इक्ष्वाकु वंगमे उनके उत्पन्न होनेसे कुमतिरूपी अन्धकार तो जड़मूलसे विनष्ट हो गया था। कवि बनारसीदासने एक आध्यात्मिक बेटेके जन्मको दिखानेका प्रयास किया है। वह आध्यात्मिक बेटा 'शुद्धोपयोग' है। दोनोंमें बड़ी कुशलतासे 'सांगरूपक' रचा गया है। जिस प्रकार मूल नक्षत्रमें उत्पन्न होनेवाला पुत्र समूचे कुटुम्बको खा जाता है, ठीक वैसे ही शुद्धोपयोगके उत्पन्न होते ही परिवारसम्बन्धी माया-ममता बिलकूल समाप्त हो गयी। उसने जन्म लेते ही ममतारूपी माता, मोह-लोभरूपी दोनों भाई, काम-क्रोधरूपी दो काका और तृष्णा रूपी धायको खा लिया। पापरूपी पड़ोसी, अशुभ कर्मरूपी मामा और घमण्ड नगरके राजाको समाप्त ही कर दिया, तथा स्वयं समूचे गांवमे फैल गया। उसने दुर्मतिरूपी दादीको खा लिया और दादा तो उसका मुख देखते ही मर गया था। इस बालकके उत्पन्न होनेपर भी मंगलाचारके बधाये गाये गये थे। इस बालकका नाम भोंदू रखा गया, क्योंकि उसके कुछ भी रूप और वर्ण नही है। यह तो ऐसा बालक है, जिसने नाम रखनेवाले पाण्डेको भी खा लिया है। १. गजगमनी शशि बदनी तरुनी, मंगल गावत हैं सिगरी । भाई आन आनन्द है या नगरी ॥ नाभिराय घर पुत्र भयो है, किये हैं अजाचक जाचकरी । भाई आज आनन्द है या नगरी ।। द्यानत धन्य कूख मरुदेवी, सुर सेवत जाके पद री। भाई आज आनन्द है या नगरी ॥ द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, पद २०, पृ०३।। २. बनारसीदास, बनारसी विलास, जयपुर १९५४, अजितनाथजीके छन्द, पृष्ठ १८८। ३. बनारसीदास, बनासी विलास, जयपुर, १९५४, परमार्थ हिंडोलना, पृष्ठ २३१ । ४८ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि "मलन बेटा जायो रे साधो, मूलन बेटा जायो रे । जानै खोज कुटुंब सब खायो रे, साधो मूलन बेटा जायो रे ॥ जन्मत माता ममता खाई, मोह लोम दोइ माई। काम क्रोध दोइ काका खाये, खाई तृषना दाई ।। पापी पाप परोसी खायो, अशुभ करम दोइ मामा । मान नगर को राजा खायो, फैल परो सब गामा । दुरमति दादी खाई दादो मुख देखत ही मूओ। मंगलाचार बधाये बाजे, जब यो बालक हूओ ।। नाम धर्यो बालक को भोंदू, रूप वरन कछु नाहीं। नाम धरते पांडे खाये कहत बनारसि भाई ॥" जैन साहित्यमें अनेक स्थानोंपर बालकोंके तेजस्वी रूपका वर्णन है। बालवर्णनोंमें उनकी तेजस्विताका भी निरूपण होता रहा है। महाकवि कालिदासने अपने 'शाकुन्तलम्' में दुष्यन्तके पुत्र भरतका ऐसा ही एक तेजस्वी चित्र खींचा है। यद्यपि आगे चलकर 'श्रीमद्भागवत' की मुख्यताने बालकके मधुरतापरक रूपको ही प्रधानता दी, किन्तु वह परम्परा भी रुकी नहीं। सत्तरहवीं शताब्दीके प्रसिद्ध कवि ब्रह्मरायमल्लने 'हनुवन्तचरित्त' का निर्माण किया था, उसमे बालक हनुमान्का ओजस्वी वर्णन है। उन्होंने लिखा है, "जब सूर्यकी भांति देदीप्यमान बालक हनुमानका जन्म हुआ, तो अन्धकाररूपी शत्रुमण्डल स्वतः ही फट गया। सिंह चाहे छोटा ही हो, अत्यधिक सूर होता है, वह बड़े-बड़े हाथियोको चकनाचूर कर डालता है। वृक्षोंसे सघन हुआ वन कितना ही विस्तृत क्यों न हो, रत्ती-भर अग्नि ही उसे जलाकर छार कर डालनेमे पूर्ण समर्थ है। क्षत्रियका बालक भी ऐसा ही अग्निके स्फुलिंगकी भाँति होता है। उसके स्वभावमे शौर्य होता है, उसे वह कभी छोड़ नहीं सकता।"' ऐसे अन्य वर्णन भी हिन्दीके जैन चरित ग्रन्थोमे अंकित है। उनमे काव्यसौष्ठव है और सरसता। बालक्रीड़ाओंके भी विविध वर्णन जैन पुराणोंमें व्याप्त है, किन्तु उनमे सूर-जैसे मनोदर्शनकी क्षमता नहीं है । बालकोंकी अन्तःप्रकृतिकी जैसी सुन्दर और स्वाभाविक व्यंजना सूर कर सके जैन-हिन्दीका कोई कवि नही। सूरदासका जितना ध्यान बालक कृष्णपर जमा, बालिका राधापर नही। बालिकाओंका मनोवैज्ञानिक वर्णन, सीता और अंजनाके रूपमें, जैन भक्ति-काव्योंमें उपलब्ध होता है। रामचन्दके 'सीता चरित्त' में बालिका सीताकी विविध १.ब्रह्मरायमल्ल, हनुवन्तकथा। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष चेष्टाओंका सरस चित्र खींचा गया है। 'अंजना सुन्दरी रास' मे अंजनाका बालवर्णन भी हृदयनाही है। बालिका सीता, मणिमय आँगनमें बैठी अपने सुआयत नेत्रोसे चारों ओर देख रही है, किन्तु जब पिता जनकपर नजर पड़ती है, तो उसके होंठोपर मीठी मुसकराहट इस भांति छिटक जाती है, जैसे किसी भक्तके हृदयको दिव्य ज्योति ही हो। खम्भोमे पड़ते उसके मुख-कमलके प्रतिबिम्बने कमलोकी माला ही रच दी है। अंजनाको तो उसके मां-बाप उंगली पकड़कर चलना सिखाते है, किन्तु वह बार-बार गिर जाती है। वह भोली आँखोसे पिताकी ओर देखती है और वे उसको चूमकर गोदमे उठा लेते है । यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि जैन हिन्दी कवियोंके बाल-रससम्बन्धी चित्रोंपर सूरदासका प्रभाव है। इसके दो कारण है-पहला तो यह है कि सूरसागरमे गर्भ और जन्मोत्सवोकी उस शैलीका यत्किचित् भी दर्शन नहीं होता, जो जैन काव्योमे प्रमुख रूपसे अपनायी गयी है। सूरने कृष्णके जन्मको आनन्द बधाईके उपरान्त ही 'यशोदा हरि पालने झुलावै' प्रारम्भ कर दिया है । यह जन्मोत्सव लोकके बीच वैसे आनन्दको सृष्टि न कर सका, जैसा कि जैन काव्योंमें हुआ है। यद्यपि जैन कवियोके इन उत्सव-चित्रोमे परम्परानुगतता अधिक है, मौलिकता कम, फिर भी एक ऐसा आकर्षण है, जो सदैव चिर-नवीन बना रहेगा। दूसरा कारण है, हिन्दीके जैन भक्ति-साहित्यपर जैन-संस्कृत और अपभ्रंश काव्योंका प्रभाव । हिन्दोके अधिकांश चरित्र-ग्रन्थ ऐसे है, जो संस्कृतके अनुवाद-मात्र है। भूधरदासका 'पार्श्व-पुराण' एक मौलिक काव्य है, किन्तु उसके वर्णन भी संरकृतसाहित्यसे अनुप्राणित है। अतः जैन हिन्दोके बाल-रसके पीछे उसकी अपनी परम्परा है । सम्भव है उसका सूरदासपर भी प्रभाव पड़ा हो। स्वयम्भूके 'पउम चरिउ' और पुष्पदन्तके 'महापुराण' मे वर्णित बाल-वर्णनके कतिपय पद्य सूरके बाल-वर्णनसे मिलते है । महाकवि पुष्पदन्त ( ई० सं० ९५९ ) के 'महापुराण' मे बालक ऋषभदेवका बाल-सौन्दर्य, सूरदास (वि० सं० १५४०) के सूरसागरमे वर्णित बालक कृष्णसे बिलकुल मिलता हुआ है। सेसवलीलिया कोलमसीलिया । पहुणा दाविया केण ण माविया ॥ धूली धूसरु ववगय कडिल्लु । सह जायक विलकोंतलु जडिल्लु ॥ हो हल्लरु जो जो सुहं सुअहिं । पई पणवंतउ भूयगणुं ॥ णंदइ रिज्झइ दुक्किय मलेण । का सुवि मलिगुण ण होइ मणु ॥ १. रायचन्द, सीताचरित्र, जैनसिद्धान्तभवन आराकी हस्तलिखित प्रति, १२१२६, पृष्ठ ११ । २. अंजनासुन्दरीरास, जैनसिद्धान्तभवन आराकी हस्तलिखित प्रति, २।३५, पृष्ठ ४३ । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि धूलो धूसरो कडि किंकिणी सरो। णिरुब मलोलउ कीलइ बालउ ॥ -महापुराण कहाँ लौं बरणौं सुन्दरताइ, खेलत कुँअर कनक आंगन में, नैन निरखि छबि छाइ । कुलहि लसति सिर स्याम सुभग भति, बहुविधि सुरंग बनाइ । मानो नवधन ऊपर राजत, मघवा धनुष चढ़ाइ। अति सुदेश मृदु हरत चिकुर मन, मोहन मुख बगराइ । खंडित वचन देत पूरन सुख, अल्प अल्प जलपाइ । घुटुरन चलत रेनु तन मंडित, सूरदास बलि जाइ ॥ - सूरसागर इसीको लेकर डॉ० रामसिंह तोमरने लिखा है, "अत: हम संक्षपमे कह सकते है कि हिन्दीको सभी काव्य-पद्धतियोंका स्पष्ट स्वरूप हमे जैन कवियों-द्वारा प्राप्त हुआ है।" 'आभ्रंश-दर्पण' में तो यहां तक लिखा है कि-हिन्दीका कौन कवि है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूपमे अपभ्रंशके जैन प्रबन्ध काव्योसे प्रभावित न हुआ हो । यहाँ इतनी बड़ी बात नहीं कही जा सकती। किन्तु महापुराण और सूरसागरके बाल-वर्णनोंका साम्य विचारणीय अवश्य है। दोनोके हृदयमे एक-से भाव आ सकते है, फिर भी ऐसा 'हू-बहू' नही हो सकता । यह जब होता है तो 'प्रथम' का 'द्वितीय' पर प्रभाव सिद्ध हो ही जाता है। प्रभावित होते हुए भी सूरदास पुष्पदन्तके अनुवादक नहीं थे । कृष्णके केवल 'बाल' और 'कैशोर' रूपको अपनाने के कारण, बालककी विविध मनोदशाओके निरूपणका जितना अवसर सूरदासको मिला, पुष्पदन्तको नहीं । महाकाव्यका निर्माता 'बालवर्णन' मे अधिक नहीं खप सकता । उसे कथानकके साथ आगे बढ़ जाना होता है। ___पं० रामचन्द्र शुक्लने लिखा है, "वात्सल्यरसके भीतरकी जितनी मानसिक वृत्तियों और दशाओंका अनुभव और प्रत्यक्षीकरण सूर कर सके, उतनीका और कोई नही। शायद पं० शुक्लको 'जैन हिन्दी काव्य' देखनेका समय नहीं मिला । भट्टारक ज्ञानभूषणने अपने 'आदोश्वरफागु आमेरशास्त्रभण्डारको हस्तलिखित १. डॉ० रामसिंह तोमर, जैन साहित्यकी हिन्दी साहित्यको देन, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ठ ४६८। २. प्रो० श्री जगन्नाथ राय शर्मा अपभ्रंशदर्पण, पृष्ठ २५ । ३ भ्रमरगीतसार, द्वितीय संस्करण, काशी, भूमिका, पृष्ठ २। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष प्रति' मे आदिनाथकी बालदशाओंको चित्रवत् उपस्थित किया है। बालक आदीश्वर पालनेमे पड़ा हुआ सो रहा है, किन्तु बीच-बीचमें कभी आंख खोलकर देखता है, कभी रो उठता है और कभी अपने चंचल हाथोसे हार मोड़ अथवा तोड़ देता है। "आहे क्षिणि जोवइ क्षिणि सोवह रोवह लही लगार । प्रालि करइ कर मोडइ ब्रोडइ नक्सर हार ॥१०३॥" भट्टारक ज्ञानभूषण एक सामर्थ्यवान् कवि थे । बाल-भगवानके पैरोंमे स्वर्णके धुंघरू पड़े है । जब वह लड़खड़ाते डगोंसे चलते है, तो उनमे-से 'घ्रण-घ्रण' की मधुर ध्वनि फूटती है, जिसे सुनकर नृपति और माँ मरुदेवी दोनो ही को अपार प्रसन्नता होती है। "आहे घण घण धुंधरी बाजइ हेम तणी विहु पाइ। तिम तिम नरपति हरखइ मरुदेवी माइ ॥१०॥" ___ यहाँ 'घूघरी' और 'घ्रण-घ्रण' ने समूचे दृश्यको ही उपस्थित कर दिया है । 'चूंघरू' का लघुरूप 'घूघरी' लघु बालकके उपयुक्त ही है । उसमे-से निकलनेवाली ध्वनिके लिए 'घ्रण-घ्रण के प्रयोगसे चित्र जीवन्त हो उठा है। कविने बालकके शरीरको शोभाका वर्णन करते हुए लिखा है कि उसके अंगप्रत्यंग अनुपम है । बालकके मस्तकपर टोपी विराजमान है, कानोमे कुण्डल झलक रहे है । देखनेवाला ज्यों-ज्यों देखता है, उसका हृदय अधिकाधिक आह्लादित होता जाता है । अर्थात् दर्शक तृप्तिका अनुभव नहीं करता। "आहे अंगोय अंगि अनोपम उपम रहित शरीर । टोपीय उपीय मस्तकि बालक छइ पण वीर ॥९५॥ आहे कनिय कुंडल झलकह खलका नेउर पाउ । जिम जिम निरखड हियडइ तिम तिम भाइ ॥९॥" प्रेमभाव भक्ति-रसका स्थायी भाव भगवद्विषयक अनुराग है। इसीको शाण्डिल्यने 'परानुरक्तिः' कहा है। परानुरक्ति गम्भीर अनुरागको कहते है । गम्भीर अनु१. आमेर शास्त्रभण्डारकी हस्तलिखित प्रतिपर, रचनाकाल वि० सं० १५५१ दिया है। २ शाण्डिल्य भक्तिसूत्र, गीताप्रेस गोरखपुर, २२, पृष्ठ १ । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि राग ही 'प्रेम' कहलाता है। चैतन्य महाप्रभुने रति अथवा अनुरागके गाढ़े हो जाने को ही 'प्रेम' कहा है । 'भक्तिरसामृत सिन्धु' मे भी लिखा है, “सम्यङ्मसृणितस्वान्तो ममत्वातिशयाङ्कितः । भाव: स एव सान्द्रात्मा बुधै. प्रेम निगद्यते ॥" * 'प्रेम' दो प्रकारका होता है— लौकिक और अलौकिक । भगवद्विषयक अनुराग अलौकिक प्रेम अन्तर्गत आता है । यद्यपि भगवान्‌का अवतार मानकर उसके प्रति लौकिक प्रेमका भी आरोपण किया जाता है, किन्तु उसके पीछे अलौकिकत्त्र सदैव छिपा रहता है । इस प्रेममे समूचा आत्म समर्पण होता है और प्रेमके प्रत्यागमनकी भावना नही रहती । अलौकिक प्रेमजन्य तल्लीनता ऐसी विलक्षण होती है कि द्वैतभाव ही मृत हो जाता है, फिर 'प्रेम' के प्रतीकारका भाव कहाँ रह सकता है। नारियाँ प्रेमकी प्रतीक होती है । उनका हृदय एक ऐसा कोमल और सरस शाला है, जिसमें प्रेम-भावको लहलहानेमे देर नहीं लगती । इसी कारण भक्त भो कान्ताभावसे भगवान्की आराधना करनेमे अपना अहोभाग्य समझता है । भक्त 'तिय' बनता है और भगवान् 'पिय' । यह दाम्पत्यभावका प्रेम, जैन कविओकी रचनाओमे भी उपलब्ध होता है । जैन साहित्यके ख्यातिलब्ध कवि बनारसीदासने अपने 'अध्यात्म गीत' मे आत्माको नायक और सुमति को उसकी पत्नी बनाया है । पत्नी पतिके वियोग मे इस भांति तड़प रही है जैसे जलके बिना मछली । उसके हृदयमे पति से मिलनेका चाव निरन्तर बढ़ रहा है। वह अपनी समता नामको सखीसे कहती है कि पति दर्शन पाकर मैं उसमे इस तरह मग्न हो जाऊँगी, जैसे बूंद दरिया में समा जाती है । मैं अपनपा खोकर पिय सूं मिलूंगी, जैसे ओला गलकर पानी हो जाता है । अन्तमे पति तो उसे अपने घटमे ही मिल गया, और वह १. साधन-भक्ति हइते हय रतिर उदय । भक्ति गाढ़ हइले तार प्रेम नाम कय ॥ भक्ति घन कृष्णे प्रेम उपजय चैतन्य चरितामृत, कल्याण, भक्ति अंक, वर्ष ३२, अंक १, पृष्ठ ३३३ | २. श्री रूप गोस्वामी, भक्तिरसामृतसिन्धु, गोस्वामी दामोदर शास्त्री सम्पादित, अच्युतग्रन्थमाला कार्यालय, काशी, वि० सं० १९८५, प्रथम संस्करण, १|४|१ | ३. मैं विरहिन पिय के आधीन । त्यों तलफों ज्यों जल बिन मीन ॥३॥ हो मगन मैं दरशन पाय । ज्यों दरिया मे बूंद समाय ||९|| पियको मिलो अपनपो खोय । ओला गल पाणी ज्यों होय ॥१०॥ बनारसीविलास जयपुर, १६५४ ई० अध्यात्मगीत, पृष्ठ १५६ - १६० । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष ३८३ उससे मिलकर इस प्रकार एकमेक हो गयी कि द्विविधा तो रही ही नहीं। उसके एकत्वको कविने अनेक सुन्दर दृष्टान्तोसे पुष्ट किया है। वह करतूति है और पिय कर्ता, वह सुख-सीव है और पिय सुख सागर, वह शिव-नीव है और पिय शिव-मन्दिर, वह सरस्वती है और पिय ब्रह्मा, वह कमला है और पिय माधव, वह भवानी है और पति शंकर, वह जिनवाणी है और पति जिनेन्द्र । "पिय मोरे घट मैं पिय माहिं । जल तरंग ज्यों दुविधा नाहिं ॥ पिय मो करता मैं करतूति । पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति । पिय सुख सागर मैं सुख सीव । पिय शिव मंदिर मैं शिवनीय ॥ पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम । पिय माधव मो कमला नाम । पिय शंकर मैं देवि भवानि । पिय जिनवर मैं केवल बानि ॥"" कविने सुमति रानीको 'राधिका' माना है। उसका सौन्दर्य और चातुर्य सब कुछ राधाके ही समान है। वह रूपसी रसीली है और भ्रमरूपी तालेको खोलनेके लिए कोलीके समान है। ज्ञान-भानुको जन्म देनेके लिए प्राची है और आत्म-स्थलमे रमनेवाली सच्ची विभूति है। अपने धामकी खबरदार और रामकी रमनहार है । ऐसी सन्तोंकी मान्य, रसके पन्थ और ग्रन्थोमै प्रतिष्ठित और शोभाको प्रतीक राधिका सुमति रानी है। ___ सुमति अपने पति 'चेतन' से प्रेम करती है। उसे अपने पतिके अनन्त ज्ञान, बल और वीर्यवाले पहल पर एकनिष्ठा है। किन्तु वह कर्मों की कुसंगतिमे पड़कर भटक गया है । अतः बड़े ही मिठास-भरे प्रेमसे दुलराते हुए सुमति कहती है, "हे लाल ! तुम किसके साथ कहां लगे फिरते हो, आज तुम ज्ञानके महलमे क्यों नही आते । तुम अपने हृदय-तलमे ज्ञानदृष्टि खोलकर देखो, दया, क्षमा, १. बनारसीविलास, जयपुर, अध्यात्मगीत, पृष्ठ १६१॥ २. रूप की रसीली भ्रम कुलप की कीली, शील सुधा के समुद्र झीलि सीलि सुखदाई है। प्राची ज्ञान भान की अजाची है निदान की, सुराची निरवाची ठौर सांची ठकुराई है। धाम की खबरदार राम की रमनहार, राधा रस पंथनि में ग्रन्थनि मे गाई है। सन्तन की मानी निरवानी रूप की निसानी, यातें सुबुद्धि रानी राधिका कहाई है। बनारसीदास, नाटकसमयसार, सर्वविशुद्धिद्वार पद्य ७४ । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि समता और शान्ति-जैमी सुन्दर रमणियां तुम्हारी सेवामे खड़ी हुई हैं । एकसे एक अनुपम रूपवाली है । ऐसे मनोरम वातावरणको भूलकर और कहीं न जाइए। यह मेरी सहज प्रार्थना है।' "कहाँ कहाँ कौन संग लागे ही फिरत लाल आवो क्यों न आज तुम ज्ञान के महल में । नैकहू विलोकि देखो अन्तर सुदृष्टि सेती, कैसी कैसी नीकी नारि ठाड़ी हैं टहल में ॥ एकनतें एक बनी सुन्दर सुरूप धनी, उपमा न जाय गनी वाम की चहल में। ऐसी बिधि पायं कहूँ भूलि और काज कीजे, एतो कह्यो मान लीजे वीनती सहल में ॥" बहुत दिन बाहर भटकनेके बाद चेतन राजा आज घर आ रहा है । सुमतिके आनन्दका कोई ठिकाना नहीं है। वर्षोंको प्रतीक्षाके बाद पियके आगमनको सुनकर भला कौन प्रसन्न न होती होगी। सुमति आह्लादित होकर अपनी सखीसे कहती है । "हे सखो ! देखो आज चेतन घर आ रहा है। वह अनादि काल तक दूसरोके वंशमे होकर घूमता फिरा, अब उसने हमारी सुध ली है। अब तो वह भगवान् जिनकी आज्ञाको मानकर परमानन्दके गुणोंको गाता है। उसके जन्म-जन्मके पाप भी पलायन कर गये है । अब तो उसने ऐसी युक्ति रच ली है, जिससे उसे संसारमें फिर नही आना पड़ेगा। अब वह अपने मनभाये परम अखण्डित सुखका विलास करेगा। पतिको देखते ही पत्नीके अन्दरसे परायेपनका भाव दूर हो जाता है । द्वैध हट जाता है और अद्वैत उत्पन्न हो जाता है। ऐसा ही एक भाव बनारसीदासने १. भैया भगबतीदास, ब्रह्मविलास, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, द्वितीयावृत्ति, सन् १९२६ ई०, शत अष्टोत्तरी, ७२वाँ पद्य, पृष्ठ० १४ । २. देखो मेरी सखीये आज चेतन घर आवे। काल अनादि फिरथो परवश हो, अब निज सुघहिं चितावै ।। जनम जनम के पाप किये जे, ते छिन माहिं बहावै । श्री जिन आज्ञा शिर पर धरतो, परमानन्द गुण गावे ।। देत जलांजुलि जगत फिरन को ऐसी जुगति बनावै । विलसै सुख निज परम अखण्डित, भैया सब मन भावे ॥ वहो, परमार्थ पदपंक्ति, १४ वाँ पद, पृष्ठ ११४ । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष ३८५ उपस्थित किया है । सुमति चेतनसे कहती है "हे प्यारे चेतन ! तेरी ओर देखते ही परायेपनको गगरी फूट गयी, दुविधाका अंचल हट गया और समूची लज्जा पलायन कर गयी। कुछ समय पूर्व तुम्हारी याद आते ही मै तुम्हे खोजनेके लिए अकेली ही राजपथको छोड़कर भयावह कान्तारमें घुस पडी थी। वहां कायानगरीके भीतर तुम अनन्त बल और ज्योतिबाले होते हुए भी कोक आवरणमे लिपटे पड़े थे। अब तो तुम्हे मोहकी नींद छोड़कर सावधान हो जाना चाहिए।" "बालभ तुहु तन चितवन गागरि फूटि अंचरा गौ फहराय सरम गै छुटि, बालम० ॥१॥ पिंउ सुधि पावत वन में पैसिउ पेलि छाडत राज डगरिया भयउ अकेलि, बालम० ॥३॥ काय नगरिया भीतर चेतन भूप करम लेप लिपटा बल ज्योति स्वरूप, बालम० ॥५॥ चेतन बूझि विचार धरहु सन्तोष राम दोष दुइ बंधन छूटत मोष, बालम० ॥१३॥'' एक सखी सुमतिको लेकर नायक चेतनके पास मिलाने के लिए गयी। पहले दूतियां ऐसा किया करती थी। वहां वह सखो अपनी बाला सुमतिको प्रशंसा करते हुए चेतनसे कहती है, "हे लालन ! मैं अमोलक बाला लायी हूँ। तुम देखो तो वह कैसी अनुपम सुन्दरी है । ऐसी नारी तीनों संसारमें दूसरी नही है । और हे चेतन ! इसकी प्रीति भी तुझसे ही सनी हुई है। तुम्हारी और इस राधेकी एक-दूसरेपर अनन्त रीझि है । उसका वर्णन करने में मैं पूर्णरीत्या असमर्थ हूँ।"२ आध्यात्मिक विवाह इसी प्रेमके प्रसंगमें आध्यात्मिक विवाहोंको लिया जा सकता है। ये 'विवाहला' 'विवाह', 'विवाहल', और 'विवाहलौ' आदि नामोंसे अभिहित हुए है । इनको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है-एक तो वह जब दीक्षा-ग्रहणके १. बनारसीबिलास, जयपुर, अध्यात्मपदपंक्ति , पृ० २२८-२२६ । २. लाई हो लालन बाल अमोलक, देखहु तो तुम कैसी बनी है। ऐसी कहुँ तिहुँ लोक मे सुंदर, और न नारि अनेक धनी है । याहि ते तोहि कहूँ नित चेतन, याहू की प्रीति जु तो सों सनी है। तेरी औ राधे को रीझि अनंत सुमो पै कहूँ यह जात गनी है ।। ब्रह्मविलास, शत अष्टोत्तरी, पद्य २८, पृ० १४ । ४९ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि समय आचार्यका 'दीक्षा कुमारी' अथवा 'संयमश्री' के साथ विवाह सम्पन्न होता है और दूसरा वह जब आत्मारूपी नायकके साथ उसीके किसी गुणरूपी कुमारीकी गाँठें जुड़ती है । इनमे प्रथम प्रकारके विवाहोंका वर्णन करनेवाले कई रास 'ऐतिहासिक काव्यसंग्रह' में संकलित हैं । दूसरे प्रकार के विवाहोंमे सबसे प्राचीन जिनप्रभसूरिका 'अन्तरंग विवाह' प्रकाशित हो चुका है। उपर्युक्त सुमति और चेतन दूसरे प्रकारके पति-पत्नी है । इसीके अन्तर्गत वह दृश्य भी आता है । जब कि आत्मारूपी नायक 'शिवरमणी' के साथ विवाह करने जाता है । अजयराज पाटणीके 'शिवरमणी - विवाह' का उल्लेख हो चुका है। वह १७ पद्योंका एक सुन्दर रूपक-काव्य है । उन्होने 'जिनजीकी रसोई' में तो विवाहोपरान्त सुस्वादु भोजन और वन-विहारका भी उल्लेख किया है । बनारसीदासने तीर्थंकर शान्तिनाथका शिवरमणीसे विवाह दिखाया है । शान्तिनाथ विवाह मण्डपमे आनेवाले हैं । होनेवाली वधूकी उत्सुकता दबाये नहीं दबती । वह अभीसे उनको अपना पति मान उठी है । वह अपनी सखीसे कहती है, "हे सखी ! आजका दिन अत्यधिक मनोहर है । किन्तु मेरा मनभाया अभीतक नहीं आया । वह मेरा पति सुख-कन्द है, और चन्द्रके समान देहको धारण करनेवाला है, तभी तो मेरा मन उदधि आनन्दसे आन्दोलित हो उठा है । और इसी कारण मेरे नेत्र-चकोर सुखका अनुभव कर रहे है। उसकी सुहावनी ज्योतिकी कीत्ति संसार में फैली हुई है । वह दुःखरूपी अन्धकारके समूहको नष्ट करनेवाली है । उनकी वाणीसे अमृत झरता है । मेरा सौभाग्य है, जो मुझे ऐसे पति प्राप्त हुए है।"" तीर्थंकर अथवा आचार्योंके 'संयमश्री' के साथ विवाह होनेके वर्णन तो बहुत अधिक है । उनमें से 'जिनेश्वरसूरि' और 'जिनोदयसूरि विवाहला' एक सुन्दर काव्य है | इसमे इन सूरियों का संयमश्री के साथ विवाह होनेका वर्णन है । इसकी १. देखिए इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय, अजयराज पाटणी । २. सहि एरी ! दिन आज सुहाया मुझ भाया आया नहीं घरे । सहि एरी ! मन उदधि अनन्दा सुख, कन्दा चन्दा देह घरे ॥ चन्द जिवां मेरा वल्लभ सोहै, नैनचकोरहि सुक्ख करें । जगज्योति सुहाई कीरति छाई, बहु दुख तिमर वितान हरे । सहु काल विनानी अमृतवानी, अरु मृग का लांछन कहिए । श्री शान्ति जिनेशनरोत्तम को प्रभु, आज मिला मेरी सहिए ॥१॥ बनारसीविलास, जयपुर, श्री शान्तिजिनस्तुति, प्रथम पद्य, पृ० १८६ | Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष रचना वि० सं० १३३१ मे हुई थी। हिन्दीके कवि कुमुदचन्द्रका 'ऋषभविवाहला' भी ऐसी ही एक कृति है। इसमे भगवान् ऋषभनाथका दीक्षा-कुमारीके साथ विवाह हुआ है। श्रावक ऋषभदासका 'आदीश्वर वीवाहला' भी बहुत ही प्रसिद्ध है । विवाहके समय भगवान्ने जिस चुनडीको ओढ़ा था, वैसी चुनड़ी छपाने के लिए न जाने कितनी पत्नियां अपने पतियोसे प्रार्थना करती रही है । सोलहवी शताब्दीके विनयचन्द्रकी 'चूनड़ी' हिन्दी साहित्यको एक प्रसिद्ध रचना है। साधुक्रोतिकी 'चूनड़ी'मे तो सगीतात्मक प्रवाह भी है । तीर्थकर नेमीश्वर और राजुलका प्रेम नेमीश्वर और राजुलके कथानकको लेकर, जैन-हिन्दीके भक्त-कवि दाम्पत्यभावको प्रकट करते रहे है । राजशेखर सूरिने विवाहके लिए राजुलको ऐसा सजाया है कि उसमे मृदुल काव्यत्व ही साक्षात् हो उठा है। किन्तु वह वैसी ही उपास्य बुद्धिसे संचालित है, जैसे 'राधा-सुधानिधि में राधाका सौन्दर्य । राजुलको शील-सनी शोभामे कुछ ऐसी बात है कि उससे पवित्रताको प्रेरणा मिलती है, वासनाको नहीं। विवाहमण्डपमे विराजी वधू जिसके आनेको प्रतीक्षा कर रही थी, वह मूक-पशुओंके करुण-क्रन्दनसे प्रभावित होकर लौट गया। उस समय वधूकी तिलमिलाहट और पतिको पा लेनेको बेचैनीका जो चित्र हेमविजयसूरिने खीचा है, दूसरा नही खींच सका। हर्षकीतिकी 'नेमिनाथ राजुल गोत' भी एक सुन्दर रचना है। इसमे भी नेमिनाथको पा लेनेकी बेचैनी है, किन्तु वैसी सरस नहीं, जैसी कि हेमविजयने अंकित की है।' ____ कवि भूधरदासने नेमीश्वर और राजुलको लेकर अनेक पदोंका निर्माण किया है। एक स्थानपर तो राजुलने अपनी मांसे प्रार्थना की है, 'हे मां! देर न करो, मुझे शीघ्र ही वहां भेज दो, जहाँ हमारा प्यारा पति रहता है। यहां तो मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, चारों ओर अंधेरा-ही-अंधेरा दिखाई देता है। न जाने नेमिरूपी दिवाकरका प्रकाश्यमान मुख कब दिखाई पड़ेगा। उनके बिना हमारा हृदयरूपी अरविन्द मुरझाया पड़ा है ।"२ पियमिलनकी ऐसी विकट १.इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय, हेमविजय । २. मां विलंब न लाव पठाव तहाँ री, जहं जगपति पिय प्यारो। और न मोहि सुहाय कछु अब, दीसे जगत अंधारो री मां विलंब ॥१॥ मै श्री नेमि दिवाकर को कब, देखो बदन उजारो। बिन पिय देखें मुरझाय रह्यो है, उर अरविंद हमारोरीमा विलंब ॥२॥ भूधरदास, भूधरविलास, कलकत्ता, १३वाँ पद, पृ० ८ । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि चाह है जिसके कारण लड़की माँसे प्रार्थना करते हुए भी नही लजाती । लौकिक प्रेम-प्रसंग में लज्जा आती है, क्योंकि उसमे 'काम' की प्रधानता होती है, किन्तु यहाँ तो अलोकिक और दिव्य प्रेमको बात है । अलौकिककी तल्लीनतामे व्यावहारिक उचित-अनुचित ध्यान नहीं रहता । राजुल के वियोग मे 'संवेदना' वाले पहलूकी ही प्रधानता है । भूधरदासने राजुल के अन्तस्थ विरहको सहज स्वाभाविक ढगसे अभिव्यक्त किया है । राजुल अपनी सखीसे कहती हैं, "हे सखी ! मुझे वहाँ ले चल जहाँ प्यारे जादोंति रहते है । नेमिरूपी चन्द्रके बिना यह आकाशका चन्द्र मेरे सब तन-मनको जला रहा है । उसको किरणें नाविकके तीरकी भाँति अग्निके स्फुलिंगोंको बरसाती है । रात्रि के तारे तो अंगारे ही हो रहे है ।” "हाँ ले चल री ! जहाँ जादौंपति प्यारो । afe निशाकर बिन यह चन्दा, तन मन दहत सकल री ॥ तहाँ ० ॥ 1 ॥ fara faat arrase rर-तति कै, ज्यौं पावक की झलरी । तारे हैं अंगारे सजनी, रजनी राकस दल री ॥ तहाँ ० ॥२॥"" कही-कही राजुलके विरह में 'ऊहा' के दर्शन होते हैं, किन्तु उनमे नायिका के 'पेंडुलम ' हो जाने की बात नहीं आ पायी है, इसी कारण वह तमाशा बनने से बच गया है । यद्यपि राजुलका 'उर' भी ऐसा जल रहा है कि हाथ उसके समीप नही ले जाया जा सकता, किन्तु ऐसा नहीं कि उसकी गरमीसे जडकालेमे लुएं चलने लगी हों । राजुल अपनो सखीसे कहती हैं, "नेमिकुमार के बिना मेरा जिय रहता नहीं है । हे सखी ! देख मेरा हृदय कैसा तच रहा है, तू अपने हाथको निकट लाकर देखती क्यों नहीं । मेरी विरहजन्य उष्णता कपूर और कमलके पत्तोसे दूर नहीं होगी, उनको दूर हटा दे। मुझे तो 'सियराकलाघर' भी करूर लगता है । प्रियतम प्रभु नेमिकुमारके बिना मेरा 'हियरा' शीतल नही हो सकता ।"" पियके वियोगमे राजुल भी पीली पड़ गयी है, किन्तु ऐसा नहीं हुआ कि उसके शरीरमे एक तोला मांस भी न रहा हो । विरहसे भरी नदीमे उसका हृदय भी १. भूषरदास, भूधरविलास, कलकत्ता ४५वाँ पद, पृष्ठ २५ । २. नेमि बिना न रहूँ मेरो जियरा । हेर रो हेली तपत उर कैसो, लावत क्यों निज हाथ न नियरा || मि० ॥ १ ॥ करि करि दूर कपूर कमल दल, लगत करूर कलाधर सियरा ॥ नेमि०॥२॥ भूधर के प्रभु नेमि पिया बिन, शीतल होय न राजुल हियरा || मि०॥३॥ वही, २०वॉ पद, पृ० १२ । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष बहा है, किन्तु उसकी आँखोंसे खूनके आँसू कभी नहीं ढुलके । हरी तो वह भी भर्तासे भेंटकर ही होगी, किन्तु उसके हाड़ सूखकर सारंगी कभी नही बने। बारहमासा नेमीश्वर और राजुलको लेकर जैन हिन्दी-साहित्यमे बारहमासोंकी भी रचना हुई है। उन सबमे कवि विनोदोलालका 'बारहमासा' उत्तम है । प्रियाको प्रियके सुखके अनिश्चयकी आशंका सदैव रहती है, भले ही प्रिय सुखमे रह रहा हो । तीर्थंकर नेमीश्वर वीतरागी होकर, निराकुलतापूर्वक गिरनारपर तप कर रहे है, किन्तु राजुलको शंका है, "जब सावन मे घनघोर घटाएं जुड आयेंगी, चारों ओरसे मोर शोर करेंगे, कोकिल कुहुक सुनावेगी, दामिनी दमकेगी और पुरवाईके झोंके चलेंगे, तो वह सुखपूर्वक तप न कर सकेंगे।" पोषके लगने पर तो राजुलको चिन्ता और भी बढ गयो है। उसे विश्वास है कि पतिका जाड़ा बिना रजाईके नही कटेगा। पत्तोकी धुवनीसे तो काम चलेगा नहीं। उसपर भी कामकी फ़ौजें इसी ऋतुमें निकलती है, कोमल गातके नेमीश्वर उससे लड़ न सकेंगे। वैशाखको गरमीको देखकर राजुल और भी अधिक व्याकुल है, क्योंकि इस गरमीमे नेमीश्वरको प्यास लगेगी तो शीतल जल कहाँ मिलेगा? और तीव्र धूपसे तचते पत्थरोसे उनका शरीर ढक जायेगा। ___ कवि लक्ष्मीवल्लभका 'नेमि राजुल बारहमासा' भी एक प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल १४ पद्य है । प्रकृतिके रमणीय सन्निधानमे विरहिणीके व्याकुल भावोंका सरस सम्मिश्रण हुआ है, "श्रावणका माह है, चारों ओरसे विकट घटाएँ उमड़ रही है । मोर शोर मचा रहे है । आसमानमे दामिनी दमक रही है। यामिनीमे १. देखिए, भूधरविलास, १४वॉ पद, पृ० ६, और मिलाइए जायसीके नागमती विरह वर्णनसे। २. पिया सावन मै व्रत लीजे नहीं, घनघोर घटा जुर आवैगी। चहुँ ओर से मोर जु शोर करें, वन कोकिल कुहक सुनावैगी। पिय रैन अंधेरी में सूझै नहीं, कछु दामन दमक डरावैगी। पुरवाई को झोंक सहोगे नही, छिन में तप तेज छुड़ावैगी ।। कवि विनोदीलाल, बारहमासा नेमिराजुलका, बारहमासा संग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, ४था पद्य, पृ० २४ । ३. वही, १४वॉ पद्य, पृ०२७। ४. वही, २२वॉ पद्य, पृ० २६ । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कुम्भस्थल-जैसे स्तनोको धारण करनेवाली भामिनियोको पियका संग भा रहा है। स्वाती नक्षत्रकी बूंदोंसे चातककी पीड़ा भी दूर हो गयी है। शुष्क पृथ्वीकी देह भी हरियालीको पाकर दिप उठी है। किन्तु राजुलका न तो पिय आया और न पतियां।" ठीक इसी भाँति एक बार जायसीकी नागमती भी विलाप करते हुए कह उठी थी, "चातकके मुखमे स्वाती नक्षत्रकी बूंदें पड़ गयी, और समुद्रकी सब सीपें भी मोतियोंसे भर गयी। हंस स्मरण कर-करके अपने तालाबोंपर आ गये, सारस बोलने लगे और खजन भी दिखाई पड़ने लगे। कासोके फूलनेसे वनमे प्रकाश हो गया, किन्तु हमारे फन्त न फिरे, कही विदेशमे ही भूल गये।" कवि भवानी दासने भी 'नेमिनाथबारहमासा' लिखा था, जिसमें कुल १२ पद्य है। श्री जिनहर्षका 'नेमिबारहमासा' भी एक प्रसिद्ध काव्य है। उसके १२ सवैयोंमें सौन्दर्य और आकर्षण व्याप्त है । श्रावण मासमे राजुलकी दशाको उपस्थित करते हुए कविने लिखा है, 'श्रावण मास है, घनको घनघोर घटाएं उनै आयी है। झलमलाती हुई बिजुरी चमक रही है, उसके मध्यसे वज्र-सी ध्वनि फूट रही है, जो राजुलको विषवेलिके समान लगती है। पपीहा ‘पिउ-पिउ' रट रहा है। दादुर और मोर बोल रहे है । ऐसे समयमे यदि नेमीश्वर मिल जायें तो राजुल अत्यधिक सुखो हो।" १. उमटी विकट घनघोर घटा चिहुँ ओरनि मोरनि सोर मचायो । चमकै दिवि दामिनि यामिनि कुंभय भामिनि कुं पिय को संग भायो । लिव चातक पीउ ही पीड़ लई, भई राजहरी भुंइ देह दिपायो । पतियां पै न पाई री प्रीतम को अली, श्रावण आयो पे नेम न आयो । कवि लक्ष्मीवल्लभ, नेमिराजुलबारहमासा, पहला पद्य, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय। २. स्वाति बूंद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सब भरे ॥ सरवर संवरि हंस चलि आये । सारस कुरलहिं खंजन देखाये ॥ भा परगास कांस बन फूले । कंत न फिरे विदेसहिं भूले ॥ जायसी, पद्मावत, पं० रामचन्द्र शुक्ल सम्पादित, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, तृतीय संस्करण, वि० सं० २००३, ३०७, पृ०१५३ । ३. धन को धनघोर घटा उनहो, विजुरी चमकंति झलाहलि सी। विचि गाज अगाज अवाज करंत सु, लागत मो विष वेलि जिसी ॥ पपीया पिउ पिउ रटत रयण जु, दादुर मोर वदै ऊलि सी। ऐसे श्रावण मे यदु नेमि मिले, सुख होत कहै जसराज रिसी ॥ जिनहर्ष, नेमि बारहमासा, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष आध्यात्मिक होलियाँ जैन साहित्यकार आध्यात्मिक होलियोंकी रचना करते रहे है। उनमें होलीके अंग-उपांगोका आत्मासे रूपक मिलाया गया है। उनमे आकर्षण तो होता ही है, पावनता भी आ जाती है । ऐमो रचनाओको 'फाग' कहते है । इस विषयमें कवि बनारसीदासका ‘फाग' बहुत ही प्रसिद्ध है। उसमे आत्मारूपी नायक शिवसुन्दरीसे होली खेला है। कविने लिखा है, "सहज आनन्दरूपी वसन्त आ गया है, और शुभ भावरूपी पत्ते लहलहाने लगे है। सुमतिरूपी कोकिला गहगही होकर गा उठी है, और मनरूपी भौंरे मदोन्मत्त होकर गुंजार कर रहे है। सुरतिरूपी अग्निज्वाला प्रकट हुई है, जिससे अष्टकर्मरूपी वन जल गया है। अगोचर अमूर्तिक आत्मा धर्मरूपी फाग खेल रहा है। इस भांति आत्मध्यानके बलसे परमज्योति प्रकट हुई, जिससे अष्टकर्मरूपी होली जल गयी और आत्मा शान्त रसमे मग्न होकर शिव-सुन्दरीसे फाग खेलने लगा।" "विषम विरष पूरो भयो हो, प्रायो सहज वसंत । प्रगटी सुरुचि सुगंधिता हो, मन मधुकर मयमंत ॥ सुमति कोकिलां गहगही हो बही अपूरब बाउ । भरम कुहर बादर फटे हो, घट जाड़ो जड़ताउ ॥ शुभ दल पल्लव लहलहे हो होहिं अशुभ पतझार । मलिन विषय रति मालती हो, विरति वेलि विस्तार ॥ सुरति अग्नि ज्वाला जगी हो, समकित भानु अमंद । हृदय कमल विकसित भयो हो, प्रगट सुजश मकरंद ॥ परम ज्योति प्रगट मई हो, लागी होलिका आग । आठ काठ सब जरि बुझे हो, गई तताई भाग ॥" कवि द्यानतरायने दो जत्थोके मध्य होलीकी रचना की है। एक ओर तो बुद्धि, दया, क्षमारूपी नारियां है और दूसरी ओर आत्माके गुणरूपी पुरुष है । ज्ञान और ध्यानरूपी डफ तथा ताल बज रहे है, उनसे अनहदरूपी धनघोर शब्द निकल रहा है । धर्मरूपी लाल रंगका गुलाल उड़ रहा है, और समतारूपी रंग दोनों ही पक्षोंने घोल रखा है। दोनों ही दल प्रश्नके उत्तरकी भांति एकदूसरंपर पिचकारी भर-भरकर छोड़ते हैं । इधरसे पुरुषवर्ग पूछता है कि तुम किसकी नारी हो, तो उधरसे स्त्रियां पूछती हैं कि तुम किसके छोरा हो । आठ कर्मरूपी काठ अनुभवरूपी अग्निमे जल-बुझकर शान्त हो गये। फिर तो सज्जनों १. बनारसीविलास, जयपुर, अध्यात्मफाग, पृ० १५४-१५५ । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि के नेत्ररूपी चकोर, शिवरमणोके आनन्दचन्दकी छविको टकटकी लगाकर देखते हो रहे।" "आयो सहज बसंत खेलें सब होरी होरा । उत बुधि दया छिमा बहु ठाढ़ी, इत जिय रतन सजे गुन जोरा ॥ ज्ञान ध्यान डफ ताल बजत हैं, अनहद शब्द होत घनघोरा । धरम सुराग गुलाल उड़त है, समता रंग दुहूँ ने घोरा ॥ परसन उत्तर भरि पिचकारी, छोरत दोनों करि करि जोरा । इतः कहै नारि तुम काकी, उततै कहै कौन को छोरा ।। आठ काठ अनुमव पावक में, जल बुझ शान्त मई सब ओरा । धानत शिव आनन्द चन्द छवि, देखहिं सज्जन नैन चकोरा ॥"' भूधरदासको नायिकाने भी अपनी सखियोंके साथ श्रद्धा-गगरीमें आनन्दरूपी जलसे रुचिरूपी केशर घोलकर, और रंगे हुए नीरको उमंगरूपी पिचकारीमे भरकर अपने प्रियतमके ऊपर छोड़ा। इस भांति उसने अत्यधिक आनन्दका अनुभव किया। जगरामकी होलियोंमें चित्र उपस्थित करनेकी अद्भुत क्षमता है। एक ओर जिनराजा है, दूसरी ओर शुद्ध परिणति रानी। दोनों एक-दूसरेके हृदयको, अनुभवरूपी रंगसे, सुरतिरूपी पिचकारीके द्वारा छिड़क रहे है। दोनोके अंगअंग रंगमे सराबोर हो गये हैं । कोई बचा नहीं है। इस सुखमे दोनों लीन है । किसी प्रकार भी बिछुडते नहीं बनता। दोनो अतुल अनन्त वीर्य से युक्त है । प्रभुके इस अद्भुत कौतुकको देखकर दर्शकका मनरूपी नट उमंगित होकर नाचे बिना नही रह सकता। "होरी को भाछयौ ख्याल मच्यो है। जिनराजा सुद्धि परिणति रानी, रस बस दोऊ चाहि रच्यो है ॥ १. धानतराय, चानतपदसंग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, ८६वाँ पद, पृ० ३६-३७। २. सरधा गागर में रुचि रूपि, केसर घोरि तुरंत । आनंद नीर उमंग पिचकारी, छोडो नीकी भंत ॥ होरी खेलोंगो, घर आये चिदानंद कंत ॥ भूधरदासका पद 'होरी खेलोंगी', अध्यात्मपदावली, पं० राजकुमार सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, पृ० ७५ । ३. पदसंग्रह नं० ४६२, पत्र ३६, बधीचन्दजी मन्दिर, जयपुर । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष ३९३ अनुभव रंग सुरति पिचकारी, छिरकत हिय रै यो निहच्यौ है। अंग-अंग सरवंग सगवगे, दुहुधां कोऊ नाहि वच्यौ है ॥ सुख में लीन न विछ रत क्यों हू, वीरज अतुल अनन्त जच्यौ है । जग प्रभु को अद्भुत कौतुक लखि, मन नट मेरो उमगि नच्यौ है।" इस बार जगरामके प्रभुके लिए जैसी अच्छी होलो बन पड़ो है, अन्य किसीके लिए नही। उनकी निज परिणति रानीने उन्हें भी अपने रंगमे रंग लिया है । उसका रंग ऐसा-वैसा नहीं है। वह ज्ञानरूपी सलिल, दृगरूपी केसर गौर चारित्ररूपी चोवाको मिलाकर बनाया गया है। रंगके साथ ही दूसरी ओरसे दयारूपी गुलालअबीरका भी प्रयोग हो रहा है। रानीने सुखरूपी नशेमे राजाको छका डाला है। नय और व्रतरूपी नर्तकियां नाना भावोंसे नृत्य करती हैं । वे स्याद्वाद रूपी नादको अलापते हुए भिन्न-भिन्न लय और तानोसे रिझाती रहती है । रानीने राजाको इस प्रकार रसके वशमे कर लिया है कि वह अन्यत्र नहीं जा पाता । उससे सर्वस्वरूपी फगुवा लेकर अपने मन्दिर में विरमा लिया है।' "ऐसी नीकी होरी प्रभु ही के बनि आवै।। निज परनति रानी रंग भीनी अपने रंग खिलावै ।। ग्यान सलिल द्वग केसर चारित चोवा चरचि रचावै । दया गुलाल अबीर उड़ावै सुषमद छकनि छकावै ॥ नयव्रत नृत्यकारिनी नाचे नाना भाव बतावै । स्याद्वाद सोइ नाद अलापत लय तानन सौं रिझावै ।। ऐसे रस बस करि लीने जो अनत न जानन पावै । सरवस फगुवा के जगपति पै निज मन्दिर विरमाचे ॥" नगरमे होरी हो रही है। सर्वत्र आनन्द छाया है। बेचारी सुमति उससे नितान्त वंचित है । उसका पति चेतन घर नहीं है । वह दुःखी है-अतीव दुःखी । उसका दुःख केवल विरह-जन्य ही नहीं है, अपितु इसलिए भी है कि पति सौत कुमतिके घर होली खेल रहा है । किस भांति लाया जाये। अन्तमें उसने 'जिनस्वामी' से प्रार्थना की कि उसे समझाकर लौटालने में सहायता करें। १. पदसंग्रह नं० ५८, पत्र २६ दिगम्बर जैन पंचायती मन्दिर, बड़ौत । २. नगरमे हो रही हो। मेरो पिय चेन घर नाही, यह दुष सुनि है को। सौति कुमति के राचि रहयो है, किह विधि ल्याबू सो। द्यानति सुमति कहै जिन स्वामी, तुम कछु सिष्या द्यो॥ पदसंग्रह ५८, पत्र २५, दि० जैन मन्दिर, बडौत ( मेरठ)। ५० Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि जब 'पिया' घर नही तो 'पत्नी' किससे होली खेले । वह होली न खेल सकेगी। उसके लिए इस वर्षकी होली कोरी है। ऐसे समय वह उस होलीको याद करती है, जब वह उपशमकी केशर घोलकर प्रियतमके साथ खेली थी। सुमति भगवान्से हाथ जोड़कर कहती है कि हे प्रभु ! मैं पुनः वह समय कब पाऊँगी, "पिया बिन कासौं खेलौं होरी। भातमराम पिया घर नाहीं मोकू होरी कोरी ।। येक बार प्रीतम हम पेले उपसम केसरि घोरी । धानति वह समया कब पाऊँ सुमति कहै कर जोरो ॥" महात्मा आनन्दघनने 'आध्यात्मिक क्षेत्र में विरहकी विविध दशाओंके अनुपम चित्र खींचे हैं। प्रिया विरहिणी है। उसका पति बाहर चला गया है। वह पति बिना सुध-बुध खो बैठी है। महलके झरोखेमे उसकी आँखें झूल रही है। पति नहीं आया। अब वह कैसे जोवे । विरहरूपी भुवंगम उसकी प्राणरूपी वायुको पी रहा है । शीतल पंखा, कुमकुमा और चन्दनसे कुछ नहीं होता। शीतल पवनसे विरहानल हटता नहीं, अपितु तन-तापको और भी बढ़ाता है। ऐसी ही दशामें एक दिन होली जल उठी। सभी चांचरके खेलमें मस्त हो गयीं। विरहिणी कैसे खेले। उसका मन जल रहा है। उसका समूचा तन खाख (धूल ) होकर उड़ा जाता है। होली एक ही दिन जलती है, उसका मन तो सब दिन जलता है। होलीके जलनेमें आनन्द है और इस जलनमें तीन दुःख, "पिया बिनु शुद्ध बुद्ध भूली हो। आंख लगाइ दुख महल के झरुखे झुली हो॥ प्रीतम प्राणपति विना प्रिया, कैसें जीवे हो। प्रान पवन विरहादशा, भुयंगम पीवे हो ॥ शीतल पंखा कुमकुमा, चंदन कहा लावे हो । अनकन विरहानल पेरै, तनताप बढ़ावे हो । फागुन चाचर इकनिशा, होरी सिरगानी हो। मेरे मन स दिन जरे, तन खाख उड़ानी हो ॥" १. वही। २. आनन्दधनपदसंग्रह, श्रीमद् बुद्धिसागरजीकृत गुजराती भावार्थसहित, अध्यात्म शानप्रसारक मण्डल, बम्बई, वि० सं० १९६४, पद ४१, पृ० ११६-१२३ । । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका माव-पक्ष अनन्य प्रेम प्रेममे अनन्यताका होना अत्यावश्यक है। प्रेमोको प्रियके अतिरिक्त कुछ दिखाई ही न दे, तभी वह सच्चा प्रेम है। मां बापने राजुलसे दूसरे विवाहका प्रस्ताव किया, क्योकि राजुलको नेमीश्वरके साथ भाँवरे नहीं पड़ने पायी थी। किन्तु प्रेम भांवरोकी अपेक्षा नहीं करता। राजुलको तो सिवा नेमीश्वरके अन्यका नाम भी रुचिकारी नही था। इसी कारण उसने मां-बापको फटकारते हुए कहा, "हे तात! तुम्हारी जीभ खूब चली है, जो अपनी लडकीके लिए भी गालियां निकालते हो। तुम्हे हर बात सँभालकर कहना चाहिए। सब स्त्रियोंको एक-सी न समझो। मेरे लिए तो इस संसारमें केवल नेमि-प्रभु ही एक मात्र पति है।" "काहे न बात सम्हाल कहो तुम जानत हो यह बात भली है। गालियाँ काढत हो हमको सनो तात मली तम जीभ चली है। मैं सबको तुम तुल्य गिनौ तुम जानत ना यह बात रली है। या भव में पति नेम प्रभू वह लाल विनोदी को नाथ बली है ॥" महात्मा आनन्दघन अनन्य प्रेमको जिस भांति आध्यात्मिक पक्षमें घटा सके, वैसा हिन्दीका अन्य कोई कवि नही कर सका। कबीरमे दाम्पत्यभाव है और आध्यात्मिकता भी, किन्तु वैसा आकर्षण नही, जैसा कि आनन्दघनमे है। जायसीके प्रबन्ध काव्यमे अलौकिककी ओर इशारा भले ही हो, किन्तु लोकिक कथानकके कारण उसमे वह एकतानता नहीं निभ सकी है, जैसी कि आनन्दघनके मुक्तक पदोमे पायी जाती है। सुजानवाले घनानन्दके बहुत-से पद 'भगवद्भक्ति' मे वैसे नही खप सके, जैसे कि सुजानके पक्षमें घटे हैं। महात्मा आनन्दघन जैनोंके एक पहुँचे हुए साधु थे। उनके पदोंमे हृदयकी तल्लीनता है। उन्होने एक स्थानपर लिखा है, "सुहागिनके हृदयमें निर्गुण ब्रह्मको अनुभूतिसे ऐसा प्रेम जगा है कि अनादिकालसे चली आनेवाली अज्ञानको नीद समाप्त हो गयी। हृदयके भीतर भक्तिके दीपकने एक ऐसी सहज ज्योतिको प्रकाशित किया है, जिससे घमण्ड स्वयं दूर हो गया और अनुपम वस्तु प्राप्त हो गयी। प्रेम एक ऐसा अचूक तीर है कि जिसके लगता है वह ढेर हो जाता है। वह एक ऐसा वीणाका नाद है, जिसको सुनकर आत्मारूपी मृग तिनके तक चरना भूल जाता है। प्रभु तो प्रेमसे मिलता है, उसकी कहानी कही नहीं जा सकती।" "सुहागण जागी अनुभव प्रीत, सुहा०। निन्द अज्ञान अनादि की मिट गई निज रीति ॥ सुहा० ॥१॥ १. विनोदीलाल, नेमिब्याह, जैन सिद्धान्तभवन धाराकी हस्तलिखित प्रति । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि घट मन्दिर दीपक कियो, सहज सुज्योति सरूप । आप पराइ आप हो, ठानत वस्तु अनूप ।।सुहा० ॥२॥ कहा दिखावू और कू, कहा समझाउं भोर । तीर अचूक है प्रेम का, लागे सो रहे ठोर ॥सुहा० ॥३॥ नाद विलुतो प्राण कू, गिने न तृण मृगलोय । आनन्दघन प्रभु प्रेम का, अकथ कहानी वोय ॥सुहा० ॥४॥'' भक्तके पास भगवान् स्वयं आते है। भक्त नही जाता । जब भगवान् आते है, तो भक्तके आनन्दका पारावार नहीं रहता। आनन्दघनकी सुहागन नारीके नाथ भी स्वयं आये है, और अपनी 'तिया' को प्रेमपूर्वक स्वीकार किया है। लम्बी प्रतीक्षाके बाद आये नाथको प्रसन्नतामे, पत्नीने भी विविध भांतिके शृंगार किये हैं। उसने प्रेम, प्रतीति, राग और रुचिके रंगमे रंगी साड़ी धारण की है, भक्तिकी मेहंदी रांची है और भावका सुखकारी अंजन लगाया है। सहज स्वभावकी चूड़ियां पहनी है और थिरताका भारी कंगन धारण किया है। ध्यानरूपी उरबसी गहना वक्षस्थलपर पड़ा है, और पियके गुणकी मालाको गलेमे पहना है। सुरतके सिन्दूरसे मॉगको सजाया है और निरतिको वेणीको आकर्षक ढंगसे गूंथा है। उसके घटमे त्रिभुवनको सबसे अधिक प्रकाश्यमान ज्योतिका जन्म हुआ है। वहाँसे अनहदका नाद भी उठने लगा है। अब तो उसे लगातार एकतानसे पियरसका आनन्द उपलब्ध हो रहा है। "आज सुहागन नारी ॥अवधू आज०॥ मेरे नाथ श्राप सुध लोनी, कीनी निज अंगचारी ॥अबधू० ॥१॥ प्रेम प्रतीत राग रुचि रंगत, पहिरे जिनी सारी । महिंदी भक्ति रंगकी राची, भाव अंजन सुखकारी ||अबधू०॥२॥ सहज सुमाव चूरीयाँ पेनी, थिरता कंगन मारी। ध्यान उरवसी उर में राखी, पिय गुन माल अधारी ॥अवधू० ॥३॥ सुरत सिंदूर मांग रंग राती, निरते बेनी समारी। उपजी ज्योत उद्योत घट त्रिभुवन, भारसी केवल कारी ॥अबधू० ॥४॥ उपजी धुनि अजग की अनहद, जीत नगारे वारी। झाडी सदा मानन्दघन बरावत, बिन मोरे इक तारी ।अबधू० ॥५॥" १. महात्मा आनन्दघन, आनन्दधनपदसंग्रह, अध्यात्मशान प्रसारक मण्डल, बम्बई, चौथा पद, पृ०७। २. वही, २०वाँ पद। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका माव-पक्ष ३९. ठीक इसी भांति बनारसोदासकी 'नारी' के पास भी निरंजनदेव स्वयं प्रकट हुए हैं। वह इधर-उधर भटकी नहीं। उसने अपने हृदयमे ध्यान लगाया और निरंजनदेव आ गये। अब वह अपने खंजन-जैसे नेत्रोंसे उसे पुलकायमान होकर देख रही है, और प्रसन्नतासे भरे गीत गा रही है। उसके पाप और भय दूर भाग गये है। परमात्मा-जैसे साजनके रहते हुए, पाप और भय कैसे रह सकते है । उसका साजन साधारण नहीं है, वह कामदेव-जैसा सुन्दर और सुधारस-सा मधुर है । वह कर्मोका क्षय कर देनेसे तुरन्त मिल जाता है।' विनयभाव रतिके तीन प्रधान रूपोंमे 'भगवद्विषयक रति' ही मुख्य है, और निरूपणकी दृष्टिसे उसमे विनयके सभी पद आ जाते हैं । 'विनयभाव'को ही साहित्य-परम्परामे 'सेव्य-सेवकभाव' और 'दास्यभाव' भी कहा जाता है। इसमे अपनी लघुता, दीनता, आराध्यकी महत्ता, याचना और शरणागतकी रक्षाका भाव प्रमुख होता है। सेवाको अनुवृत्ति भी कहते है, अनुवृत्ति वह है, जो निष्कामतासे अनुप्राणित हो । भक्तिसे सम्बन्धित दास्यभाव आराध्यकी महत्ताकी स्वीकृतिपर आधारित है, निजी स्वार्थपर नहीं। सेवा सोलहवों शताब्दीके सामर्थ्यवान् कवि श्री मेरुनन्दन उपाध्यायने लिखा है, "अजितनाथ और शान्तिनाथ मंगलदायक, श्रीसम्पन्न और पूनोके चन्द्रकी भांति सुख प्रदान करनेवाले है । दोनो ही संसारके गुरु है और नेत्रोंको आनन्दित करते है। उन जिनवरोको प्रणाम करके और उनके गुणोंको गाकर जो उनकी सेवा करता है, उसके पुण्यके भण्डार भर जाते है और उसका मानव-भव सफल हो १. म्हारे प्रगटे देव निरंजन। अटको कहा कहा सर भटकत कहा कहूँ जन रंजन ॥ म्हारे० ॥१॥ खंजन द्ग दृग नयनन गाऊँ चाऊँ चितवत रंजन । सजन घट अंतर परमात्मा सकल दुरित भय रंजन ॥ म्हारे ॥२॥ वोही कामदेव होय काम घट वोही मंजन । और उपाय न मिले बनारसी सकल करमषय खंजन ॥म्हारे० ॥३॥ बनारसीदास, बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०, 'दो नये पद', पृ०२४०क । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि जाता है।'' इसी शताब्दीके प्रसिद्ध कवि ब्रह्म जिनदासने, भगवान् ऋषभदेवसे न मोक्ष मांगा और न इहलौकिक वैभव । उन्होने कहा, "हे प्रभु ! हमे जन्म-जन्ममे आपके चरणोंकी सेवाका अवसर मिले।" अठारहवी शताब्दीके कवि भूधरदासने 'भूधरविलास' के एक पदमे लिखा है, "हे भगवन् ! मैं याचक हूँ और आप दानी हो। मुझे और कुछ नही चाहिए, केवल सेवाका वरदान देनेकी कृपा करें।" 'जैनशतक'की एक 'भगवत-प्रार्थना मे भी उन्होने यह ही कहा है, "हे सर्वज्ञ देव ! सदैव तेरो सेवाका अवसर प्राप्त होता रहे, ऐसा मेरा निवेदन है।" भक्त यह कभी नही चाहता कि वह अकेला ही अपने आराध्यकी सेवा करे, अपितु उसे तो यह देखकर परमानन्द मिलता है कि विश्वके बड़े-बड़े वैभवशाली जीव भी उसके आराध्यकी सेवा करते हैं। सत्तरहवी शताब्दीके कवि कुशललाभने लिखा है, "हे भगवन् ! तुम्हारा यश इस पृथ्वीपर और उस समुद्रमें, जहाँ असंख्य दोप देदीप्यमान है, तथा उस व्योममे, जहाँ अखण्डित सुर चलतेफिरते है, छाया हुआ है, असुर, इन्द्र, नर, अमर विविध व्यन्तर और विद्याधर तुम्हारे पैरोको सेवा करते है, और निरन्तर जाप लगाते है । हे पार्श्वजिनेन्द्र ! तुम समूचे जगत्के नाथ हो, और सेवकोकी मनोकामनाओको चिन्तामणिके समान पूरा करते हो। तुम सम्पत्ति भी देते हो और वीतरागी पथपर भी बढाते हो।" पाण्डे रूपचन्दके पंच मंगलका 'जन्मकल्याणक' तो भगवानकी सेवाका ही एक १. मंगल कमला कंदुए, सुख सागर पूनिम चंदुए । जग गुरु अजिय जिणंदुए, संतीसुर नयणाणदुए । वे जिणवर पणमेविए, वे गुण गाइ सुसंसेविए। पुन्य भंडार भरेसुए, मानव भव सफल करेसुए। मेरुनन्दन उपाध्याय, अजितशान्तिस्तवनम् , इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । २. तेह गुण मे जाणी या ए, सदगुरु तणो पसावतो। भवि भवि स्वामी सेवसुं ए, लागु सह गुरु पाय तो ॥ ब्रह्म जिनदास, आदिपुराण, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । ३. भूधरको सेवा वर दीजे। मैं जाचक तुम दानी। मै तो थाकी आज महिमा जानी ॥ भूधरविलास, कलकत्ता, ४३वाँ पद, पृ० २४ । ४. आगम अभ्यास होहु सेवा सर्वज्ञ तेरो, संगति सदैव मिलै साधरमीजन की। जैनशतक, कलकत्ता, ६१वॉ पद, पृ० ३० । ५. इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय, कुशललाम। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष पुनीत चित्र है। इसके अतिरिक्त 'ज्ञानकल्याणक' मे केवलज्ञानके प्राप्त हो जानेपर भगवान्के समवशरणकी रचना स्वयं कुबेरने की थी, जो उसके सेवा-भावकी हो प्रतीक है। उस समवशरणमे विराजमान भगवान्की जो नर-नारी सेवा करते थे, उनको अनिर्वचनीय आनन्द प्राप्त होता था। मारुत नामके देवता तो समवशरणके आस-पामकी योजन-प्रमाण पृथ्वीको सदैव झाड़-बुहारकर पवित्र और निर्मल रखते थे। उसपर मेवकुमार नामके देवता गन्धोदककी सुवष्टि करते थे। भक्त देवगण, भगवान्के चलते समय उनके नीचे कमलोकी सृष्टि करते थे। भैया भगवतीदासने भगवान् पार्श्व जिनेन्द्रको सेवाकी बात करते हुए लिखा है, "हे जीव ! तू देश-देशान्तरों में क्यों दौड़ता फिरता है, इन्द्र और नरेन्द्रोको क्यो रिझाता है ? देवी-देवताओको क्यों मनाता है, और क्यों चन्द्रको सिर झुकाता है। सूर्यको अंजलीबद्ध होकर नमस्कार क्यों करता है, और क्यों पाखण्डी तपस्वियोंके पैर छूता फिरता है। न जाने तू पाव जिनेन्द्रकी सेवा क्यों नहीं करता, जिससे तेरा दिन और रातका सोच ही समाप्त हो जाये।" "काहे को देश दिशांतर धावत, काहे रिझावत इंद नरिंद। काहे को देवि औ देव मनावत, काहे को शीस नवावत चंद ॥ काहे को सूरज सों कर जोरत, काहे निहोरत मूढ मुनिंद । काहे को शोच करै दिन रैन हूँ, सेवत क्यों नहिं पार्श्व जिनंद ॥" 'भैया'का पूर्ण विश्वास है कि भगवान्के चरणोंकी सेवा करनेसे तुरन्त ही अनन्त गुण प्रकट हो जाते है, और इतनी 'रिद्धि-सिद्धियाँ' मिलती है कि उनसे चिरकालतक परमानन्दका अनुभव किया जा सकता है। उन्होंने 'अहिक्षिति पार्श्वजिन स्तुति' मे लिखा है, "अश्वसेनके नन्द आनन्दके कन्द है, अथवा पनमके चन्द अथवा दिनन्द है। वे कर्मोंके फन्देको हरते, भ्रमका निकन्दन करते, १. पाण्डे रूपचन्द, पंचमंगल ज्ञानकल्याणक, १६वॉ पद्य, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय शानपीठ, काशी, १९५७ ई०, पृ० १०० । २. अनसुरै मरमानन्द सबको, नारि नर जे सेवता । जोजन प्रमान धरा सुमार्जहिं, जहाँ मारुत देवता ।। पुनि करहिं मेघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सुहावनी । पद कमल तर सुर खिपहिं कमल सु, धरणि ससि सोभा बनी। वही, पद्य १६वॉ, पृ० १०१। ३. ब्रह्मविलास, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९२६ ई०, द्वितीया बृत्ति, पृ० ६१। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि दुःख-द्वन्द्वको चूरते और महाचैनके सुखको पूरते हैं। सुरेन्द्र उनकी सेवा करते है, नरेन्द्र गुण गाते है, और मुनीन्द्र ध्यान लगाते है, और इस भांति सभीको अत्यधिक सुख मिलता है। वे भगवान् जिनचन्द्र क्षण-भरमे ही आनन्दकी सुगन्धि बिखेर देते हैं।" "आनंद को कंद निधों पूनम को चंद किधों, देखिए दिनंद ऐसो नन्द अश्वसेन को । करम को हरै फंद भ्रम को करै निकंद, चूरै दुख द्वन्द्व सुख पूरै महा चैन को ।। सेवत सुरिंद गुन गावत नरिंद भैया, ध्यावत मुनिंद तेहू पावें सुख ऐन को । ऐसो जिनचंद करै, छिन में सुछंद सुतो, ऐक्षित को इंद पार्श्व पूजों प्रभु जैन को ॥"" अठारहवीं शताब्दीके कवि बिहारीदासने अपनी पिछली करनीपर पश्चात्ताप करते हुए भगवानसे प्रार्थना की है, "मैं सदैव तृष्णाकी दाहमें पजरता रहा हूँ, और समता-सुधाको चखा तक नहीं। अपूर्व भगवत् स्वादके बिना मैं विषयरसका ही भक्षण करता रहा । हे प्रभु ! अब सदा मेरे हृदयमे बसो, और मै सदैव आपके चरणोंका सेवक रहूँ।" जगतरामने भी 'जैन-पदावली मे 'साहिब सेवगताई'के पुष्ट होनेकी ही याचना की है। शिरोमणि जैनने अपने 'धर्मसार में भगवान् महावीरके उन चरणोमे श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया है, जिनकी इन्द्र और नरेन्द्र निरन्तर सेवा किया करते है, और जिनका स्मरण करने मात्रसे ही पाप विलीन हो जाते हैं। कवि जिनहर्षने अपनी 'चौबीसी' के प्रथम छन्दमें ही लिखा है, १. वही, अहिक्षित पार्श्वजिन स्तुति, २०वाँ पद्य, पृ० १६२ । २. परचाह दाह दहयो सदा कबहूं न साम्य सुधा चख्यो। अनुभव अपूरब स्वादु विन नित विषय रस चारो भख्यो॥ अब बसो मो उर मे सदा प्रभु, तुम चरण सेवक रहों। वर भक्ति अति दृढ होह मेरे, अन्य विभव नहीं चहों। बिहारीदास, जिनेन्द्रस्तुति, बृहज्जिनवाणी-संग्रह, सम्राट संस्करण, मदनगंज, किशनगढ़, ५वाँ पद्य, पृ० १२७-२२८ } ३. जगतराम, जैन पदावली, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय, जगतराम । ४. शिरोमग्णिदास, धर्मसार, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय, शिरोमणि रास । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्ति-काव्यका भाव-पक्ष "भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रवे दर्शन मात्रसे पाप दूर हो जाते है और आनन्द बढता है। उन भगवान्की सुर, नर और इन्द्र सदैव सेवा किया करते है।" दीनता दीनताका अर्थ 'विधियाना' नहीं है, अपितु आराध्यके गुणोसे प्रभावित होकर अपनी विनम्रता अभिव्यक्त करना है। चापलूसी स्वार्थजन्य होती है, जब कि दीनतामे भक्ति-भाव ही प्रधान है । चापलूसोमे विवशता है और दीनतामे स्वत.प्रेरकता। दीनका हृदय पावन होता है, जब कि चापलूसका अपावन । श्री वियोगीहरिका कथन है, "दीनबन्धुका निवास स्थान दीन हृदय है। दीन हृदय ही मन्दिर है, दीन हृदय ही मस्जिद है और दीन हृदय ही गिरजा है।" दीन अपने दीनबन्धुसे याचना भी करता है किन्तु स्वाभिमानके साथ । महात्मा तुलसीदासने उसको मानी मंगना लिखा है । यह हो उसकी शान है। भूधरदासके पदोंमें 'दीनदयालु' शब्दका बहुत प्रयोग हुआ है। एक स्थानपर उन्होंने भगवान् जिनेन्द्रको सम्बोधन करते हुए लिखा है, "हे जगतगुरु ! हमारी एक अरज सुनिए । तुम दीनदयालु हो और मैं संसारी दुखिया हूँ । इस मंसारको चारों गतियोमे घूमते-घूमते मुझे अनादिकाल बीत गया और किंचिन्मात्र भी सुख नही पा सका । दुःख-ही-दुःख मिलते रहे । हे जिन ! तुम्हारे सुयशको सुनकर अब तुम्हारे पास आया हूँ। तुम संसारके नीति-निपुण राजा हो। हमारा न्याय कर दीजिए।" श्री द्यानतरायने विनय-भरा उपालम्भ, अपने दीनदयालु भगवान्को दिया है । उन्होने कहा, "हे प्रभु ! तुम दीनदयालु कहलाते हो, किन्तु स्वयं तो मुक्तिमे जा बैठे हो और हम इस संसारमें मर-खप रहे है । हम तो मन और वचनसे तीनो काल तुम्हारा नाम जपते है, और तुम हमे कुछ नहीं देने। बताओ फिर हमारा क्या हाल होगा। हम भले बुरे जो कुछ भी है, तुम्हारे १. देख्यौ ऋषभ जिनंद तब तेरे पातिक दूरि गयो । प्रथम जिनंद चन्द कलि सुर-तरु कंद । सेवै सुर नर इंद मानन्द भयौ ॥१॥ दे० ।। २. श्री वियोगी हरि, दीनोंपर प्रेम, 'जीवन और साहित्य', डॉ. उदयमानुसिंह सम्पादित, श्रीराम मेहरा एण्ड कम्पनी, आगरा, जून १९५६, पृ० १०६ । ३. भूधरदास, वीनती, बृइज्जिनवाणी संग्रह, पृ० ५३० । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि भक्त है और तुम हमारी चालको जानते हो। हम कोई भौतिक वैभव नहीं चाहते, केवल आप हमारे राग-द्वेषोंको हटा दीजिए। हे प्रभु ! हमसे कितनी ही भूलें हो गयी हों, और हमने कितने ही पाप किये हों, किन्तु आप तो करुणाके समुद्र हो । हमको एक बार और केवल एक बार इस संसारसे निकाल लो, बस इतना ही निवेदन है।"१ लघुता आराध्यके समक्ष लघुताको अनुभूति सात्त्विकताको द्योतक है। बिना उसके भक्तका सिर भगवान्के चरणोंपर झुक ही नहीं सकता। लघुतासे अहंकार हटता है और विनय उत्पन्न होती है। तुलसीदासकी विनयपत्रिका-लघुताके भावसे ही ओतप्रोत है। जैन भक्त कवियोंको रचनाओमे भी लघुताका भाव है। __ कवि बनारसोदासने भगवान् जिनेन्द्रसे प्रार्थना करते हुए कहा, "जो कमठके मानका भंजन करनेवाले, गरिमा और गम्भीर गुणोंके समुद्र है, तथा जिनके यशका वर्णन करके सुरगुरुभी पार प्राप्त नही कर सकते, मै अज्ञानी उन्हीके यशको कहनेका प्रयास कर रहा हूँ। अर्थात् भगवान्का यश महत् है और मेरी बुद्धि अल्प । प्रभुका स्वरूप अत्यधिक अगम्य है और अथाह, मै उसको वैसे ही नहीं कह सकता, जैसे दिन-अन्ध उलूक रवि-किरनके उद्योतको नहीं कह सकता।" भक्तके पास ऐसी बुद्धि नहीं जो वह भगवान् जिनेन्द्रको स्तुति कर सके, किन्तु फिर भी वह करता है, क्योकि करे बिना रह नहीं सकता। पाण्डे हेमराजने इसी भावको लेकर अपनी लघुता अभिव्यक्त की है, "मै बुद्धिहीन होते हुए भी आपके चरणोंकी स्तुति करनेका प्रयास कर रहा हूँ, यह वैसा ही है जैसे कि कोई मूर्ख बालक जलमे प्रतिबिम्बित चन्द्रको पकड़नेकी इच्छा करता है। आपके अगण्य गुणोंको कहना, प्रलयकालकी पवनसे उद्धत समुद्रको भुजाओंसे तैर जाना है।" अपनी लघता दिखाते हा पाण्डे रूपचन्दने 'निर्वाण कल्याण के अन्तमें १. इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय, धानतराय। २. बनारसीदास, कल्याणमन्दिर स्तोत्र भाषा, चौपाई ३-४, बनारसीविलास, जयपुर, १६५४, पृ० १२४।। ३. पाण्डे हेमराज, भक्तामर स्तोत्र भाषा, चौपाई ३-४, बृहज्जिनवाणी संग्रह, १९५६ ई०, पृ० १९४। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका मात्र पक्ष ४०३ लिखा है, "बुद्धि-हीन होते हुए भी मै, भक्तिसे विवश होकर ही भगवान्की स्तुति कर सका हूँ । मेरा मंगलगीत प्रबन्ध, बुद्धिके न होते हुए भी भक्ति से ही अनुप्राणित है । भक्त भगवान्को स्तुति करना चाहता है, किन्तु कैसे करे उसमे सामर्थ्य तो है ही नही । इसी भावको आकर्षक ढंगसे अभिव्यक्त करते हुए द्यानतरायजीने कहा, "हे प्रभु, मै तेरी स्तुति क्सि ढंग से करूं । जब गणधर भी करते हुए पार प्राप्त नही कर पाते, तो फिर मेरी बुद्धि क्या है । इन्द्र जन्म-भर सहस्र जिह्वाओं को धारण कर तुम्हारे यशको कहता है, फिर भी पूरा नही कह पाता । फिर भला मैं एक जिह्वामे उसे कहनेमे कैसे समर्थ हो सकता हूँ । मेरा यह प्रयास वैसा ही होगा, जैसे उल्लू सूर्यके गुणोंको कहनेका उपक्रम करे । हे भगवन् ! तुम्हारे गुणोको कहनेका वचनोंमे वैसे बल नही है, जैसे नेत्रोंमें आकाशके तारे गिननेकी शक्ति नहीं होती । " ""प्रभु मैं किहि विधि श्रुति करौं तेरी । गणधर कहत पार नहिं पाबै, कहा बुद्धि है मेरी ॥ प्रभु० ॥१॥ शक्र जनम भरि सहस जीभ धरि तुम जस होत न पूरा । एक जीभ कैसें गुणगावै उलू कहै किमि सूरा ॥ प्रभु० ॥२॥ चमर छत्र सिंहासन बरनों, ये गुण तुमतें न्यारे । तुम गुण कहत वचनबल नाहीं नैन गिनै किमि तारे ॥ प्रभु० ॥३॥२ आराध्य की महिमा आराध्य की महिमाकी स्वीकृतिके बिना विनयका भाव निभ ही नहीं सकता । जबतक भक्त आराध्यके गुणोंपर त्रिमुग्ध न होगा, उसकी उपासनामे न तो एकतानता आयेगी और न सचाई । आराध्यकी महिमाकी अनुभूति जितनी गहरी होती जायेगी भक्तका हृदय उतना ही पुनीत और आराध्यमय हो जायेगा । उपास्यके गुणोंकी चरम अनुभूति पूज्य और पूजकके भेदको मिटा देती है । सोलहवीं शताब्दी के कवि पद्मतिलकने 'गर्भ विचार स्तोत्र' का निर्माण किया था, जिसमे भगवान् जिनेन्द्रकी महिमाका वर्णन करते हुए उन्होने लिखा है, १. मै मतिहीन भगतिवस भावन भाइया । मंगल गीत प्रबन्ध सु निजगुंण गाइया || पाण्डे रूपचन्द्र, मंगलगीत प्रबन्ध, निर्वाणकल्याणक, २५वाँ पद्य, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृ० १०३ । २. द्यानतराय, द्यानतपद संग्रह, कलकत्ता, ४५ वाँ पद, पृ० ११-२० । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "हे भगवन् ! तुम्हारा दर्शन करने मात्रसे ही मुझे ऐसा विदित होता है जैसे कि उत्तम चिन्तामणि ही मिल गयी हो, जैसे हमारे आंगनमे कल्पवृक्ष विविध फलोसे फर गया हो और जैसे हमारे घरमे सुरधेनुका ही अवतार हो गया हो। जिस किमीने भगवान ऋषभनाथको अपनी भक्तिसे प्रसन्न कर लिया, उसकी सभी मनोवांछित अभिलापाएँ सहजमे ही पूरी हो जाती है।" इसी शताब्दीके एक दूसरे कवि मेरुनन्दन उपाध्यायने अपने 'सीमन्धर जिनस्तवनम्'मे स्वामी सोमन्धरको महिमापर विमोहित होकर लिखा है, "उन जिनेन्द्र भगवान्को जय हो, जिनके वचनोंमे इतना अमृत भरा है कि उसके समक्ष चन्द्रका अमृतकुण्ड भी तुच्छ-सा प्रतिभासित होता है। भगवान्के नेत्र कोमल और विशाल कमलको भॉति है । देव दुन्दुभियां सदा भगवान्की महिमाको उद्घोषित करती रहती है । भगवान् अनन्त गुणोंके प्रतीक है, और उनका कृपा-कटाक्ष पल-भरमें ही भक्तको संसार-समुद्रसे पार कर देता है। भक्तको पूरा विश्वास है कि ऐसे भगवान्को प्रणाम करनेसे, मन निरालम्ब रहकर, चकृत होकर दौड़ नहीं पायेगा। उसे अवलम्ब मिलेगा और वह भव-समुद्रको पार कर लेगा।"२ सत्तरहवी शताब्दीके कवि त्रिभुवनचन्द्रने, 'अनित्यपंचाशत' में परमातमकी जय-जयकार करते हुए कहा है, "जिसका स्वरूप पावन है, मूति अनुपम है और जिसकी वाणी करुणासे भरी हुई है, उन संयमवन्त भगवान्ने एक वीर योद्धाकी भाँति अपने हृदयमे धैर्यरूपी वनुषको धारण किया है। उससे तीक्ष्ण बाणोंको छोड छोड़कर वे अपने शत्रु मोहका वध करते हैं। संसारमे ऐसे परमातम रूप भगवान्को सदा जय-जयकार होवे ।"३ अठारहवीं शताब्दीके कवि विनोदीलालने अपने 'चतुर्विशति जिन स्तवन सवैय्या मे भगवान आदिनाथकी महिमाका उल्लेख करते हुए लिखा है, "जिसके चरणारविन्दकी पूजा करनेके लिए बड़े-बड़े सुरेन्द्र, इन्द्र और देवोंके समूह आया करते है, और जिसके चारों ओर चन्द्र-जैसी आभा छिटकी रहती है, जिसके नखोपर करोड़ों सूर्योकी किरणें न्यौछावर की जा सकती है, और जिसके मुखको देखकर कामदेवको शोभा भी पराजित हो जाती है, जिसकी १. दसण तुम्ह विहाण अच्छ चितामणि चडियउ । सुरतरु अंगणि अम्ह अच्छ विविहप्परि फलियउ॥ सुरहंधेणु अंगणिहिं णाह अम्हहं अवयरियउ । जइ भेद्य उ सिरि रिसहणाह मणवंछिय सरियउ ।। पञ्चतिलक, गर्मविचारस्तोत्र, वॉ पद्य । २. मेरुनन्दन उपाध्याय, सीमन्धर जिनस्तवनम् , इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । ३. त्रिभुवनचन्द्र, अनित्यपंचाशत, प्रथम पद्य, प्रशस्ति संग्रह, जयपुर, पृष्ठ २०१। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति काव्यका मात्र पक्ष उत्तम देह् दर्पणकी भाँति चमकती है, और उसमें सात भव साक्षात् दिखाई देते हैं, ऐसे भगवान् नाभिनन्दनको हमारा त्रिकाल नमस्कार हो ।" इसी शताब्दी कवि जिनहने लिखा है, "भगवान् आदिनाथकी सुर, नर और इन्द्र सभी सेवा करते है । उनके दर्शन करने मात्रसे ही पाप दूर भाग जाते है। कलियुग के लिए तो वे कल्पवृक्ष की भाँति है । सारा संसार उनके चरणोंपर झुकता है । उनकी महिमा और कीर्ति इतनी अधिक है कि कोई उसका पार नही पा सकता । सब स्थानोंपर जिनराजकी ज्योति जगमगा रही है। वे भव-समुद्रको पार करनेके लिए जहाजकी भाँति है । प्रभुजीको छवि मोहनी और अनूप है, उनका रूप अद्भुत है और वे धर्मके सच्चे राजा है । हमारे नेत्र ज्यों ही भगवान्‌को देखते है कि सुखके बादल बरस पड़ते है ।" "देख्यौ ऋषभ जिनंद तब तेरे पातिक दूरि गयौ, प्रथम जिनंद चन्द्र कलि सुर-तरु कंद । सबै सुर नर इंद आनन्द भयौं । जाके महिमा कीरति सार प्रसिद्ध बढ़ी संसार, कोऊ न लहत पार जगत्र नयो । पंचम आरे में भाज जागै ज्योति जिनराज, भवसिंधु को जिहाज आणि कै ठयो ॥ बण्या अद्भुत रूप, मोहनी छबि अनूप, धरम कौ साचौ भूप, प्रभुजी जयौ । कहै जिन हरषित नयण मारे निरखित, सुख घन बरसत इति उदयौ ॥ २ ४०५ अन्यसे महत्ता भक्ति कालके सभी कवियोंने अपने-अपने आराध्यको अन्योंसे कहीं अधिक महिमावान् बतलाया है, और जैन कवि भी उसके अपवाद रूप नहीं है । भक्त कवियों का यह भाव उनकी अनुदारताका नहीं, अपितु अनन्यताका सूचक है । सत्तरहवीं शताब्दीके पाण्डे हेमराजने 'भक्तामर स्तोत्र भाषा' में आदि प्रभुकी स्तुति करते हुए लिखा है, "हे भगवन् ! जो ज्ञान आपमे सुशोभित होता है, वह १. विनोदीलाल, चतुर्विंशति जिनस्तवन सवैया, राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, चतुर्थं भाग, साहित्य संस्थान, उदयपुर, १६५४ पृ० ११८ | २. जिनहर्ष, चौबीसी, पहला पद, राजस्थानमें हिन्दीके हस्त लिखित ग्रन्थोंकी खोज, चौथा भाग, पृ० १२३-१२४ । ५२ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि विष्णु और महादेवमें नहीं हो सकता। भला जो चमक महारतनमे होती है, वह कांच के टुकड़ेमें कहाँसे पायी जा सकती है ।" कवि बिहारीदासने भी 'आतमा' रूपी देवकी आरती करते हुए कहा है, "ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर सदैव जिसका ध्यान लगाते है और सम्पूर्ण साधु जिसका गुण गाते हैं, मैं उस 'आतमदेवा'की आरती करता हूँ।"२ कवि द्यानतरायने एक पदमे भगवान् नेमिनाथको महान् ज्ञानी और वोतरागो बताते हुए यह स्वीकार किया है कि उनके समान अन्य कोई देव नहीं है। उनका कथन है, "हे भगवन् नेमिनाथ ! इस विश्वमें तुम्ही सबसे अधिक ज्ञानी हो । तुम्ही हमारे देव और गुरु हो। तुम्हारी कृपासे ही हमने सकल द्रव्योंको जान लिया है । हमने तीनों भुवनोंको छान डाला है, किन्तु तुम्हारे समान अन्य कोई देव दिखाई नहीं दिया । संसारमें अन्य जितने भी देवता है सब रागी, द्वेषी, कामी अथवा मानी है, किन्तु आप वीतरागी और अकषायी हो । नवयौवनसम्पन्ना राजुल रानीको छोड़कर तुमने जिस इन्द्रिय-जयका परिचय दिया था, अन्य कोई देव नहीं दे सका । हे भगवन्, मुझे इस संसारसे निकाल लो, हम गरीब प्राणी हैं।" भगवान् जिनेन्द्रकी वाणीको अन्य देवोंकी मिथ्यावाणीसे उत्तम बताते हुए भूधरदासने लिखा है, "आक और गायके दूधमे घनेरा अन्तर है । भला कहाँ कौवेकी वाणी और कहां कोयलको टेर। कहां भारी भानु और कहाँ विचारा अगिया, कहां पूनोका उजेला और कहाँ मावसका अंधेरा। यदि १. जो सुबोध सोहै तुम माहिं । हरि हर आदिक मे सो नाहिं ॥ जो दुति महारतन मै होय । काच खंड पावै नहिं सोय ॥ पाण्डे हेमराज, भक्तामर स्तोत्र भाषा, २०वॉ पद्य, बृहज्जिनवाणी संग्रह, १९५६ ई०, पृ० १६६ । २. ब्रह्मा विष्णु महेश्वर ध्यावें । साधु सकल जिहँ को गुण गावै ॥ करौं आरती आतम देवा । गुण परजाय अनन्त अभेवा ॥ बिहारीदास, आत्माकी भारती, बृहज्जिनवाणी संग्रह, १९५६ ई०, पृ० ५२० । ३. ज्ञानी ज्ञानी ज्ञानी, नेमि जी ! तुम ही हो ज्ञानी ॥ तुम्ही देव गुरु तुम्ही हमारे, सकल दरब जानी ॥ज्ञानी०॥१॥ तुम समान कोउ देव न देख्या, तीन भवन छानी । आप तरे भव जीवनि तारे, ममता नहिं आनी ॥ज्ञानो०॥२॥ और देव सब रागी द्वेषी, कामी कै मानी।। तुम हो वीतराग अकषायी, तजि राजुल रानी ज्ञानो०॥३॥ द्यानतराय निकास जगत तें, हम गरीब प्रानी ॥ज्ञानी०॥४॥ द्यानतरायपदसंग्रह, कलकत्ता, २८वाँ पद, पृ० १२ ॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति काव्यका भाव-पक्ष कोई पारखी निहारकर देखे तो उसे जेन बैन और अन्य बैनोमे स्पष्ट अन्तर दिखाई देगा ।" "कैसे करि केतकी कनेर एक कही जाय, आक दूध गाय दूध अन्तर घनेर है । पीरो होत री री पै न रीस करै कंचन की, कहां का वांणी कहां कोयल की टेर है । कहां मान मारौ कहां अगिया विचारौ कहाँ, पूनौ को उजारो कहां मावस अन्धेर है । पच्छ छोरि पारखी निहार नेक नीके करि, जैन बैन और बैन इतनों ही फेर है ॥' "१ ४०७ नाम-जप भगवान् के नाम-जपकी महिमाको सभी भक्त कवियोंने एक स्वरसे स्वीकार किया है । तुलसीको 'विनय-पत्रिका' का एक बहुत बड़ा अंश भगवान्के नामकी महत्तासे भरा हुआ है। जैन कवियोंने भी जिनेन्द्रके नाम- गत चमत्कारको स्वीकार किया है । उनको दृष्टिमे भगवान् के नामसे मोक्ष प्राप्त होता है | भगवान् के नामसे चक्रवर्तीका पद मिलना तो बहुत ही आसान है । अर्थात् नाम-जपसे इहलोक और परलोक दोनों ही सधते हैं । सत्तरहवीं शताब्दीके कवि कुमुदचन्द्रने 'भरत बाहुबली छन्द के आरम्भमें ही मंगलाचरण करते हुए लिखा है, "मैं उस आदीश्वर प्रभुके चरणोंमे प्रणाम करता हूँ, जिसके नाम लेने मात्रसे ही संसारका फेरा छूट जाता है । अर्थात् यह जीव भव भ्रमणसे मुक्त हो जाता है ।" श्री कुशललाभने अपने 'नवकार छन्द मे पंचपरमेष्ठीके नामकी महत्ताका बखान करते हुए लिखा है, " जो नित्य प्रति 'नवकार' को जपता है, उसको संसारकी संपत्तियाँ तो मिल हो जाती है, और शाश्वत सिद्धि भी उपलब्ध होती है, " इसी शताब्दीके कवि मनरामने 'मनराम विलास मे लिखा है । "अरहन्तके नामसे आठ कर्मरूपी १. जैनशतक, १६वॉ पद, कलकत्ता, पृ० ५–६ । २. पणविवि पद आदीश्वर केरा, जेह नामें छूटे भव फेरा । कुमुदचन्द, भरतबाहुबलि छन्द, पहला पद्य, प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, १६५०, पृ० २४३ । ३. कुशललाभ, नवकार छन्द, अन्तिमकलश, जैन गुर्जरकविओो, पहला भाग, बम्बई, १६२६ ई०, पृ० २१६ । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि शत्रु नष्ट हो जाते है, और 'सिद्ध'के भजनसे सब काम सिद्ध हो जाते है। आचार्यकी भवितसे सद्गुणोका समावेश होता है । उपाध्यायके ध्यानसे 'उपाध्याय'जैसे बन जाते है, और साधुओके स्मरणसे सब मनोकामनाएं पूरी हो जाती है। इस भाँति पंचपरमेष्ठीके नाममन्त्रका जाप इस जीवको निजधाम अर्थात् मोक्ष प्राप्त करा देता है।" श्री यशोविजयजीने 'आनन्दधन अष्टपदी'के एक पद्यमै लिखा है, "अरे ओ चेतन ! तू इस संसारके भ्रममे क्यों फंसा हुआ है। भगवान् जिनेन्द्रके नामका भजन कर । सद्गुरुने भी भगवान्के नाम जपनेका ही उपदेश दिया है।" द्यानतरायने अपने मनको समझाते हुए लिखा है, "हे मन ! तू दीनदयालु भगवान् जिनेन्द्रको भज, जिसका नाम लेनेसे क्षणमात्रमे करोडो पापोके जाल कट जाते है। जिसके नामको इन्द्र, फणीन्द्र और चक्रधर भी गाते है, तथा जिसके नानरूपी ज्ञान के प्रकाशसे मिथ्या जाल स्वतः ही नष्ट हो जाता है । जिसके नामके समान ऊर्ध्व, मध्य और पाताल लोकमे भी कोई नहीं है, उसीके नामको नित्य प्रति जपो और विकराल विषयोंको छोड़ दो।" रं मन ! मज मज दीनदयाल ॥ जाके नाम लेत इक छिन मैं, कटें कोट अघ जाल ॥रे मन० ॥ इन्द्र फनिन्द चक्रधर गावें, जाको नाम रसाल । जाको नाम ज्ञान परकास, नाशै मिथ्या जाल ॥ रे मन० ॥ जाके नाम समान नहीं कछु, ऊरध मध्य पताल । सोई नाम जपों नित धानत, छोड़ि विषय विकराल ॥ रे मन० ॥3 १. करमादिक अरिन को हरै अरहंत नाम, सिद्ध करै काज सब सिद्ध को भजन है। उत्तम सुगुन गुन आचरत जाकी संग, ___ आचारज भगति वसत जाकै मन है। उपाध्याय ध्यान ते उपाधि सम होत, साध परिपूरण को सुमरन है। पंच परमेष्ठी को नमस्कार मंत्रराज, धावै मनराम जोई पावै निजधन है ।। मनराम, मनराम विलास, पद्य १, मन्दिर ठोलियान जयपुरकी हस्तलिखित प्रति । २. जिनवर नामसार भज आतम, कहा भरम संसारे । सुगुरु वचन प्रतीत भये तब, आनन्दघन उपगारे ।। काया० ।। यशोविजय, आनन्दधन अष्टपदी, आनन्दधन बहत्तरी, रायचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई । ३. यानत पदसंग्रह, कलकत्ता, ६६वाँ पद, पृ० २८ । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति काव्यका भाव-पक्ष शान्तभाव पहलेके आचार्योंने 'शान्ति' को साहित्य मे अनिर्वचनीय आनन्दका विधायक नही माना था, किन्तु 'पण्डितराज' के अकाट्य तर्कों ने उसे भी रसके पदपर प्रतिष्ठित किया । तबसे अभीतक उसकी गणना रसोमे होती चली आ रही है । उसे मिलाकर नौ रस माने जाते है। जैनाचार्योंने भी इन्ही नौ रसोको स्वीकार किया है, किन्तु उन्होंने शृंगारके स्थानपर शान्तको 'रस-राज' माना है। उनका कथन है कि अनिर्वचनीय आनन्दकी सच्ची अनुभूति, राग-द्वेष नामक मनोविकार के उपशम हो जानेपर ही होती है । राग-द्वेषसे सम्बन्धित अन्य आठ रसोके स्थायी भावोंसे उत्पन्न हुए आनन्दमे वह गहरापन नही होता, जो 'शान्त' मे पाया जाता है। स्थायी आनन्दकी दृष्टिसे तो 'शान्त' हो, एक मात्र रस है । कवि वनारसीदासने 'नवों सान्त रसनि को नायक' माना है।' उन्होंने तो आठ रसोंका अन्तर्भाव भी शान्तरसमे ही किया है। डॉक्टर भगवानदासने भी अपने 'रस मीमांसा' नामके निबन्धमे, अनेकानेक संस्कृत उदाहरणोंके साथ, 'शान्त' को रसराज सिद्ध किया है । जहाँतक भक्तिका सम्बन्ध है, जैन और अजैन समीने 'शान्त' को ही प्रधानता दी है । यदि शाण्डिल्यके मतानुसार 'परानुरक्तिरीश्वरे' ही भक्ति है, तो यह भी ठोक है कि ईश्वरमे 'परानुरक्तिः' तभी हो सकती है, जब अपरकी अनुरक्ति समाप्त हो । अर्थात् जीवको मनःप्रवृत्ति संसारके अन्य पदार्थोस अनुराग-हीन होकर, ईश्वरमे अनुराग करने लगे, तभी वह भक्ति हैं, अन्यथा नहीं । और संसारको असार, अनित्य तथा दुःखमय मानकर मनका आत्मा अथवा परमात्मामें केन्द्रित हो जाना ही शान्ति है । इस भाँति ईश्वरमे 'परानुरक्ति : ' का अर्थ भी शान्ति ही हुआ । स्वामी सनातन देवजीने 'अपने भाव भक्तिकी भूमिकाएँ' नामक निबन्धमे लिखा है, "भगवदनुराग बढ़नेसे अन्य वस्तु और व्यक्तियोंके प्रति मनमे वैराग्य हो जाना भी स्वाभाविक ही है । भक्ति - शास्त्रमे भगवत्प्रेमकी इस प्रारम्भिक अवस्थाका नाम हो शान्तभाव है ।" नारदने भो ४०९ १. प्रथम सिंगार वीर दूजो रस, तीजी रस करुना सुखदायक । हास्य चतुर्थ रुद्र रस पंचम, छट्टम रस बीभच्छ विभायक ॥। सप्तम भय अमरस अद्भुत, नवमो शान्त रसनि को नायक । ए नत्र रस एई नव नाटक, जो जहं मगन सोइ तिहि लायक || बनारसीदास, नाटक समयसार, पं० बुद्धिलाल श्रावककी टीकासहित जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १०।१३३, पृ० ३६१ | २. स्वामी सनातनदेवजी, भावभक्तिकी भूमिकाऍ, कल्याण, भक्ति विशेषांक, वर्ष ३२० क १, पृ० ३६६ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि अपने 'भक्तिसूत्र'मे 'सा त्वस्मिन् परम प्रेमरूपा अमृतस्वरूपा च'को भक्ति माना है। इसमे पड़े हुए 'परम प्रेम से यह ही ध्वनि निकलती है कि संसारसे वैराग्योन्मुख होकर एकमात्र ईश्वरसे प्रेम किया जाये। शान्तिमे भी वैराग्यकी हो प्रधानता है । 'भक्ति रसामृतसिन्धु'मे 'अन्याभिलापिताशून्यं कृष्णानुशीलनं उत्तमा भक्तिः । उपर्युक्त कथनका ही समर्थन करती है। यह कहना उपयुक्त नहीं है कि अनुरक्तिमे सदैव जलन होती है, चाहे वह ईश्वरके प्रति हो अथवा संसारके, क्योकि दोनोंमे महदन्तर है। सासारिक अनुरिक्त दु.खकी प्रतीक है और ईश्वरानुरिक्त दिव्य सुखको जन्म देती है। पहलीमे जलन है, तो दूसरीमे शीतलता, पहलीमें अपावनता है, तो दूसरोमे पवित्रता। और पहलोमे पुनः पुनः भ्रमणको बात है, तो दूसरीमे मुक्त हो जानेकी भूमिका। जैनाचार्य शान्तिके परम समर्थक थे। उन्होने एक मतसे, राग-द्वेषोसे विमुख होकर वीतरागी पथपर बढ़नेको ही शान्ति कहा है। उसे प्राप्त करनेके दो उपाय है - तत्त्व-चिन्तन और वोतरागियोंकी भक्ति । वीतरागमे किया गया अनुराग साधारण रागकी कोटिम नहीं आता, उसका विवेचन पहले अध्यायमे हो चुका है। उन्होने शान्तभावको चार अवस्थाएं स्वीकार की है - प्रथम अवस्था वह है जब मनकी प्रवृत्ति, दुःखरूपात्मक संसारसे हटकर आत्म-शोधनको ओर मुडती है। यह व्यापक और महत्त्वपूर्ण दशा है। दूसरी अवस्थामे उस प्रमादका परिष्कार किया जाता है, जिसके कारण संसारके सुख-दुःख सताते है । तीसरी अवस्था वह है जब कि कषाय-वासनाओका पूर्ण अभाव होनेपर निर्मल आत्माकी अनुभूति होती है। चौथो अवस्था केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर पूर्ण आत्मानुभूतिको कहते है । ये चारों अवस्थाएं आचार्य विश्वनाथके द्वारा कही गयी युक्त, वियुक्त और युक्त-वियुक्त दशाओके समान मानी जा सकती है। इनमे स्थित 'शम' भाव हो रसताको प्राप्त होता है। १. देखिए 'नारदप्रोक्तं भक्तिमूत्रम्', खेलाडीलाल ऐण्ड सन्ज, वाराणसी, पहला सूत्र । २. भक्तिरसामृत सिन्धु, गोस्वामी दामोदर शास्त्री सम्पादित, अच्युत ग्रन्थमाला ___ कार्यालय, काशी, वि० सं० १९८८, प्रथम संस्करण । ३. युक्तवियुक्तदशायामवस्थितो यः शमः स एव यतः। रसतामेति तदस्मिन्संचार्यादेः स्थितिश्च न विरुद्धा ॥ आचार्य विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, शालिग्राम शास्त्रीकी हिन्दी व्याख्या सहित, लखनऊ, द्वितीयावृत्ति, वि० सं० १६६१, १२५०, पृष्ठ १६८ । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ जैन भक्ति-काव्यका माव-पक्ष जैनाचार्योंने 'मुक्ति दशा मे 'रसता'को स्वीकार नहीं किया है, यद्यपि वहाँ विराजित पूर्ण शान्तिको माना है। अर्थात सर्वज्ञ या अर्हन्त जबतक इस संसार में है, तभीतक उनकी 'शान्ति' शान्तरस कहलाती है, सिद्ध या मुक्त होनेपर नहीं । 'अभिवानराजेन्द्रकोश'मे 'रस'को परिभाषा बताते हुए लिखा है, "रस्यन्ते अन्तरात्मनाऽनुभूयन्ते इति रसाः'' अर्थात् अन्तरात्मा की अनुभूतिको रस कहते हैं । सिद्धावस्थामे अन्तरात्मा अनुभूतिसे ऊपर उठकर आनन्दका पुंज ही हो जाती है, अतः अनुभूतिको आवश्यकता हो नहीं रहती। जैनाचार्य वाग्भटने अपने 'वाग्भटालंकार'मे रसका निरूपण करते हुए लिखा है, "विमावैरनुमावैश्च, सात्त्विकैद्यमिचारिमिः । भारोप्यमाण उत्कर्ष स्थायीमावः स्मृतो रसः ।"" अर्थात् विभाव, अनुभाव, सात्त्विक और व्यभिचारियोंके द्वारा उत्कर्षको प्राप्त हुआ स्थायी भाव ही रस कहलाता है। सिद्धावस्थामे विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी आदि भावोंके अभावमें रस नहीं बन पाता। ___जैन आचार्योंने भी अन्य साहित्य-शास्त्रियोंकी भांति ही 'शम' को शान्तरसका स्थायीभाव माना है । भगवज्जिनसेनने 'अलंकारचिन्तामणि' में 'शम'को विशद करते हुए लिखा है, "विरागत्वादिना निर्विकारमनस्त्वं शम.", अर्थात् विरक्ति आदिके द्वारा मनका निर्विकारी होना शम है। यद्यपि आचार्य मम्मटने 'निर्वेद'को 'शान्त-रस' का स्थायी भाव माना है, किन्तु उन्होने, 'तत्त्वज्ञानजन्यनिर्वेदस्यैव शमरूपत्वात्' लिखकर निर्वेदको शम रूप ही स्वीकार किया है। आचार्य विश्वनाथने शम और निर्वेदमे भिन्नता मानी है और उन्होंने पहलेकी स्थायी भावमे और दूसरेको संचारी भावमे गणना की हैं। जैनाचार्योंने वैराग्योतत्तिके दो कारण माने है - तत्त्वज्ञान, इष्टवियोग-अनिष्टसंयोग। इसमे पहलेसे उत्पन्न हुआ वैराग्य स्थायी भाव है और दूसरा संचारी। इस भाँति उनका अभिमत भी आचार्य मम्मटसे ही मिलता-जुलता है। इसके साथ-साथ उन्होंने मम्मट तथा विश्वनाथकी भांति ही अनित्य जगत्को आलम्बन, जैनमन्दिर, जैनतीर्थक्षेत्र, जैनमूर्ति और जैनसाधुको उद्दीपन, धृत्यादिकोंको संचारी तथा काम, क्रोध, लोभ, १. देखिए, अमिधानराजेन्द्रकोश, 'रस' शब्द । २. आचार्य वाग्भट, वाग्भटालंकार। ३. भगवज्जिनसेनाचार्य, अलंकारचिन्तामणि । ४. आचार्य मम्मट, काव्यप्रकाश, चौखम्बा संस्कृत ग्रन्थमाला, संख्या ५६, १९२७ ई०, चतुर्थ उल्लास, पृ० १६४ । ५. प्राचार्य विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, शालिग्राम शास्त्रीकी व्याख्यासहित, लखनऊ, ३।२४५-२४६, पृ० १६६ । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि मोहके अभाव अर्थात् सर्वसमत्वको अनुभाव माना है।। जैन आचार्योने शान्तरसको जिस रूप में निरूपित किया, जैन कवियोने उसका सच्चे अर्थोंमे निर्वाह भी किया। उन्होने शान्तिकी ओटमें विलासिताको ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं, उमको प्रश्रय देनेकी बात तो जहाँ-तहां रही। श्रृंगार रस-राज भले हो, किन्तु भक्तिके क्षेत्रमें तो उसे गौणपद ही मिलना चाहिए, किन्तु न जाने कैसे जयदेवके समयसे एक ऐसा विकृत प्रवाह बह पडा, जो कि अपने प्रखर वेगके कारण कभी रुका ही नहीं। विद्यापतिकी राधाकी स्पष्ट और मुखरित विलासिताको तो रवीन्द्रनाथ ठाकुरने भी स्वीकार किया है। 'सूरसागर में कहीं-कही ऐसे अश्लील स्थल है कि शालीन मनको रुचते नहीं। __ जैनोंके भक्ति-काव्योंम यदि एक ओर सांसारिक राग-द्वेषोंसे विरक्ति है, तो दूसरी ओर भगवान्से चरम-शान्तिकी याचना । उनको शान्ति तो चाहिए किन्तु अस्थायी नहीं। वे उस शान्तिके उपासक है जो कभी पृथक् न हो । जब तक मनसे दुविधा न मिटेगी, वह कभी भी गान्तिका अनुभव नहीं कर सकता। और यह दुविधा निजनाथ निरंजनके सुमिरन करनेसे ही दूर हो सकती है। कवि बनारसीदास अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहते है, "न जाने कब हमारे नेत्रचातक अक्षय-पदरूपी धनकी बूंदें चख सकेंगे, तभी उनको निराकुल शान्ति मिलेगी। और न जाने वह घड़ी कब आयेगी जब हृदयमें समता-भाव जगेगा। हृदयके अन्दर जबतक सुगुरुके वचनोंके प्रति दृढ श्रद्धा उत्पन्न नहीं होगी, परमार्थ सुख नहीं मिल सकता। उसके लिए एक ऐसो लालसाका उत्पन्न होना भी अनिवार्य है, जिसमे घर छोड़कर बनमें जानेका भाव उदित हुआ हो।" १. कब निजनाय निरंजन सुमिरो, तज सेवा जन-जन की, दुबिधा कब जै है या मन की ॥१॥ कब रुचि सौं पीवें दृग चातक, बूद अखयपद धन की। कब शुभ ध्यान घरौं समता गहि, करूं न ममता तन की, दुविधा० ॥२॥ कब घट अन्तर रहै निरन्तर, दिढता सुगुरु वचन की, कब सुख लहौं भेद परमारथ, मिटै धारना धन की, दुविधा० ॥३॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष ४१३ कवि बनारसीदासने शान्तरसको आत्मिक रस कहा है, उसका आस्वादन करनेसे परम आनन्द मिलता है। वह आनन्द कामधेन, चित्रावेलि और पंचामृत भोजनके समान समझना चाहिए। इस आनन्दको साक्षात् करनेवाला चेतन जिसके घटमे विराजता है, उस जिनराजको बनारसीदासने वन्दना की है। यह जीव संसारके बीचमे भटकता फिरता है, किन्तु उसे शान्ति नहीं मिलती। वह अपने अष्टादश दोषोसे प्रपीड़ित है और आकुलता उसे सताती ही रहती है । भैया भगवतीदासका कथन है, "हे जीव ! इस संमारके असंख्य कोटि सागरको पीकर भी तू प्यासा ही है और इस संसारके दीपोंमें जितना अन्न भरा है, उसको खाकर भी तू भूखा ही है। यह सब कुछ अठारह दोषोके कारण है । वे तभी जीते जा सकते है जब तू भगवान् जिनेन्द्रका ध्यान करे और उसी पथका अनुसरण करे, जिसपर वे स्वयं चले थे।" 'भैया' की दृष्टि से अष्टादश दोष हो कब घर छोड़ होहुँ एकाकी, लिये लालसा बन की, ऐसो दशा होय कब मेरी, हौं बलि बलि वा छन को, दुबिधा०॥४॥ बनारसी विलास, जयपुर, १६५४, अध्यात्मपदपंक्ति, १३वाँ पद, पृ० २३१-२३२ । १. अनुभौ को केलि यह कामधेनु चित्रा बेलि, अनुभौ को स्वादु पंच अमृत को कौर है ॥ बनारसीदास, नाटक समयसार, बम्बई, उत्थानिका, १६वाँ पद्य, पृ० १७-१८ । २. सत्य-सरूप सदा जिन्ह के, प्रगट्यौ अवदात मिथ्यात निकदन । सांत दसा तिन्ह की पहिचानि, करे कर जोरि बनारसि बंदन ॥ वही, मंगलाचरण, छठा पद्य, पृष्ठ ७। ३. जे तो जल लोक मध्य सागर असंख्य कोटि ते तो जल पियो पैन प्यास याकी गयी है। जेते नाज दोप मध्य भरे है अवार ढेर, तेते नाज खायो तोऊ भूख याकी नई है। तात ध्यान ताको कर जाते यह जाँय हर, अष्टादश दोष आदि ये ही जोत लई है। वहे पंथ तू ही साजि अष्टादश जाहिं भाजि, होय बैठि महाराज तोहि सीख दई है ॥ 'भैया' भगवतीदास, ब्रह्म विलास, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९२६ ई०, शत अष्ठोत्तरी, १०६ वॉ कवित्त, पृ० ३२ । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अशान्तिके कारण है और वे भगवान् जिनके ध्यानसे जीते जा सकते है। तभी यह जोव उस शान्तिका अनुभव करेगा, जो भगवान् जिनेन्द्रमे साक्षात् ही हो उठी थी। भैयाका स्पष्ट अभिमत है कि राग-द्वेषमे प्रेम करनेके ही कारण यह जीव अपने परमात्म-स्वरूपके दर्शनोंका आनन्द नही ले पाता। अर्थात् वह चिदानन्दके सुखसे दूर ही रहता है । राग-द्वेषका मुख्य कारण है मोह, इसलिए मोहके निवारणसे राग-द्वेष स्वयं नष्ट हो जायेंगे, और राग-द्वेषोंके टलनेसे मोह तो यत्किचित् भी न रह पायेगा। कर्मकी उपाधिको समाप्त करनेका भी यह ही एक उपाय है। जडके उखाड डालनेसे भला वृक्ष कैसे ठहर सकता है । और फिर तो उसके डाल, पात, फल और फूल भी कुम्हला जायेंगे। तभी चिदानन्दका प्रकाश होगा और यह जीव सिद्धावस्थामें अनन्त सुख विलस सकेगा।" मोह के निवारे राग द्वेषहू निवारें जाहिं, राग द्वेष टारें मोह नेक हू न पाइए। कर्म की उपाधि के निवारिवे को पेंच यहै, जड़ के उखारें वृक्ष कैसे ठहराइए॥ डार पात फल-फूल सबै कुम्हलाय जाय, कर्मन के वृक्षन को ऐसे के नसाइए। तबै होय चिदानन्द प्रगट प्रकाश रूप, बिलसै अनन्त सुख सिद्ध में कहाइए ॥' __अनन्त सुख ही परम शान्ति है। भैयाने एक सुन्दरसे पदमे जैन मतको शान्ति रसका मत कहा है। शान्तिको बात करनेवाले ही ज्ञानी है, अन्य तो सब अज्ञानी हो कहे जायेंगे। भूधरदासजोके स्वामीको शरण तो इसीलिए सच्ची है कि वे समर्थ और सम्पूर्ण शान्ति प्रदायक गुणों से युक्त है। भूधरदासको उनका बहुत बड़ा भरोसा है। उन्होंने जन्म-जरा आदि बैरियोंको जोत लिया है और मरनकी टेवसे छुटकारा पा गये हैं। उनसे भूधरदास अजर और अमर बननेकी प्रार्थना करते है। क्योंकि जबतक यह मनुष्य संसारके जन्म-मरणसे छुटकारा नहीं पायेगा, शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता । जैन-परम्परामें देवोंको अमर नहीं कहते । यहां अमरताका १. वही, मिथ्यात्व विध्वंसनचतुर्दशी, प्वाँ कवित्त, पृ० १२१ । २. शान्ति रस वारे कह मत को निवारे रहैं। वेई प्रानप्यारे रहें और सब वारे है ।। वही, ईश्वर निर्णय पच्चीसी, छठा कवित्त, पृष्ठ २५३ । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति काव्यका भाव-पक्ष अर्थ है मोक्ष, जहाँ किसी प्रकारको आकुलता नही होती। ऐसो शान्ति वह ही दे सकता है, जिसने स्वयं प्राप्त कर ली है । वे संसारी 'साहिब', जो बारम्बार जनमते हैं, मरते हैं, और जो स्वयं भिखारी हैं, दूसरोंका दारिद्र्य कैसे हर सकते है । भगवान् 'शान्ति जिनन्द' जो स्वयं शान्तिके प्रतीक है, सहजमे ही अपने सेवको के भव-द्वन्द्वोंको हर सकते हैं । भूधरदास उन्ही से ऐसा करनेकी याचना भी करते हैं । यह जीव सांसारिक कृत्योके करनेमें तो बहुत ही उतावला रहता है, किन्तु भगवान्‌के सुमरनमें सीरा हो जाता है । जैसे कर्म करता है, वैसे फल मिलते है । कर्म करता है अशान्ति और आकुलताके, किन्तु फलमे शान्ति और निराकुलता चाहता है, जो कि पूर्णरीत्या असम्भव है । आक बोयेगा, आम कैसे मिलेंगे, नग हीरा नही हो सकता । जैसे यह जीव विषयोंके बिना एक क्षण भी नही रह सकता, वैसे ही यदि प्रभुको निरन्तर जपे तो सासारिक अशान्तिको पार कर निश्चय शान्ति पा सकता है । 3 ४१५ शन्तिभावको स्पष्ट करनेके लिए भूधरदासने एक पृथक् ही ढंग अपनाया है । वे सासारिक वैभवोंकी क्षणिकताको दिखाकर और तज्जन्य बेचैनीको उद्घोषित कर चुप हो जाते है और उसमे से शान्तिकी ध्वनि, संगीतकी झंकारकी तरहसे फूटती ही रहती है । धन और यौवनके मदमे उन्मत्त जीवोंको सम्बोधन करते हुए उन्होंने कहा, "ए निपट गंवार नर ! तुझे घमण्ड नही करना चाहिए । मनुष्यकी यह काया और माया झूठी है अर्थात् क्षणिक है । यह सुहाग और यौवन कितने समयका है, और कितने दिन इस संसारमे जीवित रहना है । हे नर ! तू शीघ्र ही चेत जा और बिलम्ब छोड़ दे । क्षण-क्षणपर तेरे बंध बढ़ते जायेंगे, और तेरा पल-पल ऐसा भारी हो जायेगा, जैसे भीगनेपर काली कमरी ।" भूधरदासने एक दूसरे पदमे परिवर्तनशीलताका सुन्दर दृश्य अंकित किया है। उन्होने कहा, "इस संसार मे एक अजब तमाशा हो रहा है, जिसका स्थायित्व काल स्वप्नकी भाँति है, अर्थात् यह तमाशा स्वप्नकी तरह शीघ्र ही समाप्त भी हो जायेगा । एकके घरमे मनकी आशाके पूर्ण हो जानेसे मंगल-गीत होते है, और दूसरे घरमे किसीके वियोगके कारण नैन निराशा से भर-भरकर रोते हैं । जो तेज तुरंगोंपर चढ़कर चलते थे, और खासा तथा मलमल पहनते थे, वे ही दूसरे क्षण नगे होकर फिरते हैं, और उनको दिलासा देनेवाला भी १. भूधरदास, भूधर विलास, कलकत्ता, ५३वाँ पद, पृ० ३० । २. वही, ३४वॉ पद, पृष्ठ १६ । ३. वही, २२खाँ पद, पृष्ठ १३ | ४. वही, ११वॉ पद, पृष्ठ ७ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कोई दिखाई नहीं देता। प्रातः ही जो राज-तस्तपर बैठा हुआ प्रसन्न वदन था, ठीक दोपहर के समय उसे ही उदास होकर वनमे जाकर निवास करना पड़ा। तन और धन अत्यधिक अस्थिर है, जैसे पानीका बताशा । भूधरदासजी कहते है कि इनका जो गर्व करता है उसके जन्मको धिक्कार है।" यह मनुष्य मूर्ख है, देखते हुए भी अन्धा बनता है। इसने भरे यौवनमे पुत्रका वियोग देखा, वैसे ही अपनी नारीको कालके मार्गमे जाते हुए निरखा, और इसने उन पुण्यवानोंको, जो सदैव यानपर चढे हो दिखाई देते थे, रंक होकर बिना पनहीके मार्गमे पैदल चलते हुए देखा, फिर भी इसका धन और जीवनसे राग नहीं घटा । भूधरदासका कथन है कि ऐसी सूसेको अंधेरोके राजरोगका कोई इलाज नही है। "देखो मर जोवन में पुत्र को वियोग आयो, तैसें ही निहारी निज नारी काल मग में । जे जे पुण्यवान जीव दीसत हैं यान ही पै, रंक भये फिरै तेऊ पनही न पग में । ऐते पै, अभागे धन जीतब सौं धरै राग, होय न विराग जाने रहंगो अलग मैं। आँखिन बिलोकि अंध सूसे की अंधेरी, करै ऐसे राजरोग को इलाज कहा जग में ॥" एक वृद्धपुरुषको दृष्टि घट गयो है, तनको छवि पलट चुकी है, गति बंक हो गयी है और कमर झुक गयी है। उसकी घरवाली भी रूठ चुकी है, और वह अत्यधिक रंक होकर पलंगसे लग गया है। उसकी नार (गर्दन) काँप रही है और मुंहसे लार चू रही है। उसके सब अंग-उपांग पुराने हो गये है, किन्तु हृदयमे तृष्णाने और भी नवीन रूप धारण किया है । जब मनुष्यकी मौत आती है, तो उसने संसारमे रच-पचके जो कुछ किया है, सब कुछ यहाँ ही पड़ा १. वही, हवाँ पद, पृष्ठ ६। २. जैन शतक, कलकत्ता ३५वाँ पद, पृष्ठ ११ । ३. दृष्टि घटी पलटी तन की छवि बंक भई गति लंक नई है। रूस रही परनी घरनी अति रंक भयो परियंक लई है ॥ कांपत नार बहै मुख लार महामति संगति छोरि गई है। अंग-उपंग पुराने परे तिसना उर और नवीन भई है। जैनशतक, कलकत्ता, ३८वाँ सवैया, पृष्ठ १२ । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन भक्ति-काव्यका भाव-पश्च ४१७ रह जाता है। भूधरदासजोने कहा है, "तोव्रगामो तुरंग, सुन्दर रंगोंसे रचे हुए रथ, ऊँचे-ऊंचे मत्त मतंग, दास और खवास, गगनचुम्बी अट्टालिकाएं और करोड़ोंकी सम्पत्तिसे भरे हुए कोश, इन सबको यह नर अन्तमे छोड़कर चला जाता है। प्रासाद खड़ेके खड़े ही रह जाते है, काम यहाँ ही पड़े रहते है, धन-सम्पत्ति भी यहाँ हो डली रहती है और घर भी यहां ही धरे रह जाते है।" "तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतङ्ग-उतङ्ग खरे ही। दास खवास अवास अटा, धन जोर करोरन कोश मरे ही ॥ ऐसे बढ़े तो कहा भयो है नर, छोरि चले उठि अन्त छरे ही। धाम खरे रहे काम परे रहे दाम डरे रहे ठाम धरे ही ॥" श्रीद्यानतरायने भो भगवान् जिनेन्द्रको शान्ति प्रदायक ही माना है। वे उनकी शरणमे इसलिए गये है कि शान्ति उपलब्ध हो सकेगी। उन्होंने कहा, "हम तो नेमिजीको शरणमे जाते है, क्योकि उन्हें छोड़कर और कहीं हमारा मन भी तो नहीं लगता। वे संसारके पापोंको जलनको उपशम करनेके लिए बादलके समान है। उनका विरद भी तारन-तरन है। इन्द्र, फणीन्द्र और चन्द्र भी उनका ध्यान करते हैं । उनको सुख मिलता है और दुःख दूर हो जाता है।" यहाँ बादलसे झरनेवाली शीतलता परम शान्ति ही है। शान्तिको ही सुख कहते है और वह भगवान् नेमिनाथके सेवकोंको प्राप्त होती ही है। द्यानतरायकी दृष्टिमे भी राग-द्वेष ही अशान्ति है और उनके मिट जानेसे ही 'जियरा सुख पावैगा', अर्थात् उसको शान्ति मिलेगी। अरहन्तका स्मरण करनेसे राग-द्वेष विलीन हो जाते है, अतः उनका स्मरण ही सर्वोत्तम है। द्यानतराय भी अपने बावरे मनको सम्बोधन करते हुए कहते है, "हे बावरे मन ! अरहन्तका स्मरण कर। ख्याति, लाभ और पूजाको छोड़कर अपने अन्तरमै प्रभुकी लौ लगा। तू नर-भव प्राप्त करके भी उसे व्यर्थमें ही खो रहा है और विषय-भोगोंको प्रेरणा दे-देकर बढ़ा रहा है। प्राणोंके जानेपर हे मनवा ! तू पछतायेगा। तेरी आयु क्षण-क्षण कम हो रही है। युवतीके शरीर, धन, सुत, मित्र, परिजन, गज, १. वही, ३१वॉ पद्य, पृष्ठ ११ । २. अब हम नेमिजी की शरन । और ठौर न मन लगत है, छाडि प्रभु के शरन । अब० ॥१॥ सकल भवि-अघ-दहन बारिद, विरद तारन तरन । इन्द चन्द फनिन्द ध्या, पाय सुख दुख हरन । अब० ॥२॥ द्यानत पदसंग्रह, कलकत्ता, पहला पद, पृष्ठ १। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४: जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष भाषा भाषाकी दृष्टि से जैन हिन्दीके भक्ति-काव्यको दो कालोंमें बांटा जा सकता है -एक तो वि० सं० १४००-१६००, दूसरा वि० सं० १६००-१८०० । पहला काल अपभ्रंशके अधिक निकट है। इसका अर्थ है कि इस युगकी हिन्दीमे अपभ्रंशकी विशेषताएं पायी जाती है। वह अपभ्रंशका ही विकसित रूप है । अपभ्रंशको उकारबहुला प्रवृत्ति यहां भी प्रतिष्ठित है। कृदन्त तद्भव क्रियाओके रूप उकारान्त है, और कर्ता तथा कर्मकारकको विभक्तिके रूपमे भी 'उ' का प्रयोग हुआ है । उनके दृष्टान्त निम्न प्रकार है', क्रिया "तउ रूपिणि मन विभउ भयउ, एते ब्रह्मचारि तहां गयउ॥" -साधार, प्रद्युम्न चरित्र कर्ता "ताण पुत्तु सिरि इंदभूइ भूवलयपसिद्धउ । चउदह विज्जा विविहरूप नारीरस विद्धड ॥" -विनयप्रभ, गौतमरासा "गुरु गौतम मो देउं पसीउ," -चतरुमल, नेमीश्वर गीत इस युगको हिन्दीमें अपभ्रंशकी भांति ही व्यंजनोके स्थानपर स्वरके स्थापनकी प्रवृत्ति थी। राजशेखरसूरिने 'भ्रमाडई' के स्थानपर 'भमाउइका और 'चंपकगोरी'के स्थानपर 'चंपइगोरी'का प्रयोग किया है। विद्धणूने 'दुस्तर' को १. इन उद्धरणों के लिए इस ग्रन्थका दूसरा अध्याय देखिए । २. बंकुडिया लीय भुंहंडियहं भरि भुवणु भमाउइ। चंपइगोरी अइधोई आंगि चंदनु लेवउ । राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी काव्यधारा, किताब महल, इलाहाबाद, प्रथम-संस्करण, १९४५ ई०, पृ०४८० । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति काव्यका कला-पक्ष १ 'दुहिउ', और ईश्वरसूरिने 'ललितांग' को 'ललिअंग' लिखा है । 'हि' और 'हि' विभक्ति, जो पहले अपभ्रंशमे केवल करण और अधिकरण कारक के बहुवचनमे हो प्रयुक्त होती थी, आगे चलकर प्रायः सभी कारकोंकी विभक्ति बन गयी, मेरुनन्दन उपाध्यायने उसका प्रयोग कर्ता कारकमे किया है - " इम भगसिहिं मोलिम तणीए । सिरि अजिय संति त्रिण थुइ भणिए ॥” - श्रजितशान्तिस्तवनम् ब्रह्मजिनदासने 'हि' का प्रयोग कर्मकारकमें किया है । वह इस प्रकार है, ४२१ "जिनवर स्वामी मुगतिहिं, गामी सिद्धि नयर मंडणो ।” - मियां हुकड़ा कवि हरिचन्दने भी 'हि' को कर्मकारककी विभक्तिके रूपमे ही स्वीकार किया है, "गुरु मत्तिए सरसइहिं पसाएं ।" -- श्रनस्तमितव्रत सन्धि मुनि विनयचन्दने इस विभक्तिका प्रयोग, परम्परा के अनुसार अधिकरण कारकमे ही किया है, "पढम परिक दुइ जहिं आसाढहिं, रिसह गन्भुतहि उत्तरसाढहिं । अंधारी छ तहिमि, वंदमि वासुपूज गब्भुच्छउ ॥' 33 -- पंचकल्याणकरासा मुनि विनयप्रस उपाध्यायने भी, 'हिं' को अधिकरणका चिह्न माना है, "सात हाथ सुप्रमाण देह रूपहिं रंभावरु ।" गौतम रासा हिन्दी में कही-कहीं पर 'हि' के 'ह' का लोप कर केवल 'इ' का प्रयोग देखा जाता है । राजशेखरसूरिने लिखा है कि राजीमनी के सीमन्त में मोतीचूर्णसे युक्त सिन्दूरकी रेखा सुशोभित थी, १. जो नर करइ सो दुहिउ न होइ विद्ध, ज्ञानपंचमी चउपई । ललियंग कुमरचरियं ललणा ललियन्त्र निसुणेह ईश्वरसूरि, ललितांगचरित्र । इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । २. सभी उदाहरणों के लिए, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय देखिए । ५४ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि "सीमंतड सिंदूररेह मोतीसरि सारी ।” — नेमिनाथफागु किसी-किसीने 'इ' के स्थानपर, 'ए' का प्रयोग किया है । 'ए' विभक्ति अधिकांशतया कर्ताकारकमे प्रयुक्त हुई है । मेरुनन्दन उपाध्यायके 'अजित शान्तिस्तत्र' का एक पद्य इस कथनको पुष्ट करता है, “मंगल कमला कंदुए, सुख सागर पूनिम चंदुए । जग गुरु अजिय जिणंदुए, संतीसुर नयनाणंदुए - अजितशान्तिस्तवनम् हिन्दी कवियोने स्वार्थक प्रत्ययोंमे 'अ', 'रे' और 'डी' का अच्छा प्रयोग किया है। इनमें भी 'अ' का प्रयोग बहुत अधिक हुआ है। राजशेखरने 'कंचुक' को ' कंचुयउ', साधारुने 'चउत्थ' को 'चउत्थउ', पद्मतिलकने 'अवतरित' को 'अत्रयरियड', ईश्वरसूरिने 'अभिनव' को 'अहिनवउ' और 'समर्थ' को 'समरत्थ' लिखा है' । ये रूप स्वार्थक 'अ' प्रत्ययके कारण बने है । 'रे' और 'डी' का भी प्रयोग हुआ है, किन्तु बहुत कम । 'रे' का उत्तम प्रयोग वि० सं० १६००-१८०० के कवियोंमें देखा जाता है । विनयप्रभ उपाध्यायके एक पद्यमें 'रे' का प्रयोग हुआ है, "भरह - वित्तंमि सिरि-कुंथ-चर- अंतरे जम्म पुंडरिगणी विजय पुक्खलवरे ॥" - सीमन्धर स्वामी स्तवन भट्टारक शुभचन्द्रने 'रे' और 'डी' का एक ही पद्य में प्रयोग किया है, " रोग रहित संगीत सुखी रे, संपदा पूरण ठाण । धर्मं बुद्धि मन शुद्धिडी, दुलहा अनुक्रमि जाण ॥' — तत्त्वसारदूहा १. मरगद जादर कंचुयड फुड फुल्लह माला, राजशेखर, नेमिनाथफागु । अभिनंदनु चउत्थड वर्तयड, साधारु, प्रद्युम्नचरित्र | सुरण अगणिहिं णाह अम्हहं अवयरियउ, पद्मतिलक, गर्भविचारस्तोत्र । अहिनवड जाण कि मग: समरत्थ साहस धीर, ईश्वरसूरि, ललितांगचरित्र । इन सबके लिए, देखिए इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति काव्यका कला-पक्ष ४२३ जैन हिन्दी के किसी कविने स्वार्थक प्रत्यय 'अल', 'इल्ल' और 'उल्ल' का कहीं पर भी प्रयोग नहीं किया है । अपभ्रंश ह्रस्व और दीर्घके व्यत्ययका नियम था । इसका अर्थ है कि के स्थानपर दीर्घ, और दीर्घके स्थान र हस्व सकता है | अपभ्रंशको ह्रस्वान्त है । जहाँ ह्रस्वको दीर्घ हुआ है, वह स्वार्थक प्रत्ययके ही कारण आचार्य हेमचन्द्रने मध्य और अन्तमे ह्रस्वको दीर्घ किया है, जैसा कि 'भल्ला हुआ जो मारिआ' - जैसे प्रयोगोंसे स्पष्ट ही है । यह प्रवृत्ति जैन हिन्दी काव्यमें भी उपलब्ध होती है, एक उदाहरण देखिए, 6 मणु तणु चरणु एकंतु करवि निसुणड मो भविया । जिमि निवसइ तुम्ह देहि गहि गुण गण गहगहिया ॥" पादमध्यमे भी ह्रस्वको दीर्घ करनेके दृष्टान्त मिलते हैं । ब्रह्मजिनदासने लिखा है, "पटक स्वामी थापी पाये धर्माधर्म वीचार तो ।" कवि ठकुरसोने लिखा है, " रयणि पडीतो संकुड्यो नीसरि सक्यौ न मृदु " - आदिपुराण -पंचेन्द्रिय बेल लावण्यसमयने भी पादमध्यमें ही ह्रस्व को दीर्घ किया है, "सुणि भवीक्षण जब वीरजिण, पामिड शिवपुर हाउ ॥ " - सिद्धान्त चौपई जैन हिन्दीमें प्रारम्भिक ह्रस्वको दीर्घ करनेका दृष्टान्त नहीं मिलता है । संदेशरासकमें भले ही 'प्रसाधन' को 'पासाहण' किया गया हो किन्तु जैन - हिन्दी में तो 'प्रणाशित' को 'पणासिय' और 'प्रसीद' को 'पसीउ' और ' प्रसादित' को 'पयासिय' देखा जाता है ।" मेरुनन्दन उपाध्याय, सीमन्धर जिनस्तवनम् । गुरु गौतम मो दिउं पसीउ, चतरुमल, नेमीश्वर गीत । जेण पयासिय वेदइ चारि, विद्धरण, ज्ञानपंचमी चउपई, देखिए इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । १. विनयप्रभ उपाध्याय, गौतमरासा, पहला पथ, हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बम्बई, १६१७ ई०, पृ० ३२ ॥ २. निम्मल ए गंगतरंगचंगु पणासिय सयलतमु, Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि 'कर्म'से 'कम्म' कर देनेको परम्परा अपभ्रंशको प्राकृतसे मिली थी। जैन हिन्दीके इस युगमे भी 'कम्म' - जैसे प्रयोगोंकी अधिकता है। 'कम्म' तो सैकड़ो स्थानोंपर प्रयुक्त हुआ है। इसके अतिरिक्त राजशेखरसूरिने 'कर्ण' को 'कन्नि', विनयप्रभने 'क्षेत्र' को 'खित्ति', 'विद्या' को 'विज्जा', 'निद्रा' को 'निद्दा', 'विप्र' को 'विप्प', मेरुनन्दनने 'समर्थ' को 'समत्त्थु,' 'हस्त' को 'हत्त्थु', ईश्वरसूरिने 'पुत्र' को 'पुत्त', 'दुर्ग' को 'दुग्ग' और 'स्वर्ग को 'सग' लिखा है। ____ आभ्रंशमे अनुस्वारकी प्रवृत्ति भी बहुत प्रचलित थी। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीने इसके तीन कारणोंकी उद्भावना की है - (१) संस्कृतको गमकके लिए, (२) छन्दकी पादपूर्तिके लिए, (३) एकाध मात्राको कमीको पूरा करनेके लिए। जैन हिन्दी साहित्यमे अनुस्वारोंका अधिकांश प्रयोग लयके सौन्दर्यका निर्वाह करनेके लिए किया गया है । मेरुनन्दनका एक पद्य देखिए - "अह सयल लक्खणं जाणि सुवियक्खणं, सूरि दळूण समरं कुमारं भविय तुह नंदणो नयण आणंदणो, परिणओ अम्ह दिक्खाकुमारि ॥" -जिनोदयसूरिविवाहलउ अपभ्रंशमे पदान्तके 'ओकार' को ह्रस्वके रूपमे पढ़नेकी प्रवृत्ति थी। 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' में ऐसे अनेक उदाहरण है। जैन हिन्दीका भक्ति-युग इस प्रवृत्तिको अपनाने में सबसे आगे रहा है। राजशेखरसूरिका निम्नाकित पद्य इसका दृष्टान्त है, "नरतिय कज्जलरेह नयणि मुहकमलि तंबोलो। नागोदर कंठलउ कंठि-अनुहार विरोलो।" -नेमिनाथ फागु इसके अतिरिक्त विनयप्रभके 'वीरजिणेसर चरण कमल कमलायकवासो' में, श्री गुणसागरके 'उपसमै संक विकट कष्टक दुरित पाप निवारणो' मे और ब्रह्मजिनदासके 'आदि जिणेसर भुवि परमेसर सयल दुख विणासणी' मे भी यह प्रवृत्ति ही परिलक्षित होती है। ___ जैन हिन्दीके इस युगमें, 'गुरु स्वर' को लघु बनाने के भी अनेक दृष्टान्त है । विनयप्रभने 'श्री इन्द्रभूति', को 'सिरि इंदभूइ' और मेरुनन्दनने भी 'श्री' को १. डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्यका आदिकाल, द्वितीय व्याख्यान, पृ० ४५। २. देखिए, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष ४२५ 'सिरि' लिखा है। ईश्वरसूरिने 'श्रीमाल' को 'सिरिमाल', 'ललितांग' को 'ललिअंग', राजशेखरने 'फूलहँ' को 'फुल्लह', 'नयने' को 'नयणि' और 'कर्णे' को 'कन्नि' लिखा है। मेरुनन्दनने 'दीक्षाकुमारी' को दिक्खाकुमारि' कहा है।' __ अपभ्रंशमे दीर्घ स्वरको लघु बनानेकी दो प्रक्रियाएँ प्रचलित थीं : पहली संयुक्त वर्णोमे-से एकको रखकर, पूर्ववर्ती स्वरको लघु बनानेसे सम्बन्धित थी। यह प्रवृत्ति जैन हिन्दोके इस युगमे पायो जाती है। विद्धणू' और 'साधार' दोनों ही ने 'अष्टदल' के स्थानपर 'अठदल' लिखा है। 'अष्ट' मे अ दीर्घ स्वर था, किन्तु 'अठ' में ह्रस्व हो गया। इसी भांति मेरुनन्दन उपाध्यायने भी अमृतके स्थानपर 'अमिय' का प्रयोग कर अ को ह्रस्व किया है। 'चक्रेसरी' को 'चकेसरी' और 'सरस्वती' को 'सरसई' करनेसे 'च' और 'र' ह्रस्व बने है। दूसरी प्रक्रिया संयुक्तवर्णोको पृथक्-पृथक् करके पूर्व स्वरको लघु बनानेके रूपमे प्रचलित थी। राजशेखरने 'शुक्ल' को 'सुकिल' और 'कस्तूरी' को 'कसतूरी' करके 'सु' और 'क' को ह्रस्व किया है। साधारुने 'पद्मावती' को 'पदमावती' तथा 'दर्शन' को 'दरसन' करके 'य' और 'द' को ह्रस्व बनाया है। परवर्ती वर्णको द्वित्व करके पूर्ववर्ती लघुस्वरको गुरु कर देनेकी प्रथा १. इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । २. अठदल कमल ऊपनी नारि, विद्धरण, ज्ञानपंचमी चउपई। अठदल कमल सरोवर वासु, साधारु, प्रद्युम्न चरित्र । ३. जय सरस अमिय रस सरिसवयण ! मेरुनन्दन उपाध्याय, सीमन्धर जिन स्तवनम् । ४. पदमावती दंड कर लेइ, जाला मुखी चकेसरी देइ । X x x हंसी चढ़ीकर लेखणि देइ, कवि सधार सरसई पभणेई । ___ साधार, प्रद्युम्न चरित्र। ५. सावण सुकिल छट्टि दिणि बावीसमउ जिणंदो। x खूप भराविउ जाइ कुसुमि कसतूरी सारी।। राजशेखर, नेमिनाथ फागु, हिन्दी काव्यधारा, पृ० ४८० । ६. देखिए, इसी ग्रन्थ का दूसरा अध्याय । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि भी बहुत थी । यह कार्य छन्द-सौकर्यके लिए ही किया जाता था। रत्नावलीमे 'परवश.' को 'परब्वगः' और 'सन्देश रासक' में 'चिरगतः' को 'चिरग्गयः' किया गया है। जैन हिन्दीमे समर्थके स्थानपर 'समरथ' हो जाना तो स्वाभाविक है, किन्तु उसका 'समरत्त्थ' हो जाना उपर्युक्त प्रवृत्तिको ही स्पष्ट करता है' कवि ठकरसीने भी 'भखै' 'रखै' के स्थानार 'भक्खै' और 'रक्खै' का प्रयोग किया है। ___ अपभ्रंशमें वर्णोके संकोचनका कौशल अपनाया जाता था। 'सन्देशरासक'मे "सह आर' का 'सहार', 'ढोला मारू रा दूहा'मे 'मयूर'का 'मोर', और हेमचन्द्र के व्याकरणमे 'अरण्य' का 'रण्ण' पाया जाता है। जैन हिन्दीके इस युगमे भी यह प्रवृत्ति दिखाई देती है। श्री विद्धणूने 'श्रुत' के स्थानपर 'सिय', राजशेखरने 'वात्रोसमउ'के स्थानपर 'सव', साधारुने 'प्रणाम करूं'के स्थानपर 'पण', मेरुनन्दनने 'मयूर' के स्थानपर 'मोर', और भट्टारक शुभवन्द्रने 'स्थान'के स्थानपर 'ठाण' का प्रयोग किया है। ___ नवी शताब्दीसे अपभ्रंशमे, संस्कृत के तत्सम शब्दोंका प्रवेश बढ़ने लगा। श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरीकी दृष्टिमे यह कार्य सातवी शताब्दीसे ही प्रारम्भ हो गया था। श्री राहुल सांकृत्यायन चौदहवी शताब्दीसे मानते है । उनका कथन है कि क्रिया और विभक्तियाँ तो वह ही रहीं, किन्तु तद्भव शब्दोके स्थानपर तत्समका प्रवेश होने लगा। जैन हिन्दीके १४००-१६०० वि० सं० वाले युगमें, तत्सम शब्दोका प्रयोग अत्यल्प दिखाई देता है। फिर भी क्रिया और विभक्तियोंके विकसित रूपके कारण वह हिन्दी ही है, अपभ्रंश नही। केवल तत्सम शब्दोंके प्रयोगसे अपभ्रंश हिन्दी नही हो जाती, अपितु क्रिया, शब्द और विभक्ति सभीके सम्मिलित विकासने अपभ्रंश को हिन्दी बनाया है। जैन कवियोंके कतिपय उदाहरण यह सिद्ध करनेमें समर्थ है, १. समरत्थ साहस धीर, श्री पातसाह निसीर । ईश्वरसूरि, ललितांगचरित्र। २. कदे न खाइ तंबोलु सरसु भोजनु नहिं भक्खै । कदे न कापड नवा पहिरि काया सुखि रक्खै । ठकरसी, कृपण चरित्र, छठा पद्य, अनेकान्त, वर्ष १४, किरण १, पृ० ११ । ३. देखिए, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । ४. राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी काव्यधारा, प्रथम संस्करण, १६४५, अवतरणिका, पृ१००। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष राजशेखर सूरि ( वि० सं० १४०५) "नवरंगी कुंकुमि तिलय किथ रयणतिलउ तसु माले । मोती कुण्डल कन थिय बिंबालिय कर जाले ॥" -नेमिनाथ फागु विनयप्रभ उपाध्याय (वि० सं० १४०५) "मणु तणु चरणु एकंतु करवि निसणउ भो भविया । जिम निवसइ तुम्ह देहि गेहि गुण गण गहगहिया ॥" -गौतमरासा विद्धणू (वि० सं० १४२३) "पढहु गुणहु पूजहु निसुनेहु । खियपंचमिफलु कहियउ एहु ॥" -ज्ञानपंचमी चउपई ईश्वरसूरि (वि० सं० १५६१) "इय पुण्य चरिय प्रबंध, ललिअंग नृप संबंध । पहु पास चरियह चित्त, उद्धरिय एह चरित्त ॥" -ललितांगचरित्र मुनि विनयचन्द्र (वि० सं० १५७६ ) "पणविवि पंच महागुरु, सारद धरिवि मणे । उदयचंदु मुणि वंदिवि, सुमरिवि वाल मुणे ॥" -निर्भरपंचमी विधानकथा जैन हिन्दीके इस युगमे तद्भव रूपोके अधिक होते हुए भी तत्समकी झलक दिखाई देने लगी थी। विनयप्रभके गौतमरासामे 'मयण'के स्थानपर 'मदन' का प्रयोग भले ही न हुआ हो, किन्तु 'रूविहि' को 'रूपिहि' कर दिया गया है । विद्धणूने 'अमृत' के स्थानपर 'अभिय' का प्रयोग भले ही, किया हो, किन्तु 'नमस्कार' जैसे तत्सम शब्दका भी उपयोग किया है। ईश्वरसूरिने 'चरिय' और 'चरित्र' दोनों ही को लिखा है। मेरुनन्दन उपाध्यायने 'कमल' और 'विलसंत' जैसे शब्दोका भी प्रयोग किया है। यद्यपि कवि ठकरसीकी कविताओंमे तद्भवजन्य सौन्दर्य ही अधिक है, किन्तु कही-कहींपर 'अतिघ्राण', 'कमल', 'रवि' और 'ज' का भी प्रयोग हुआ है। ___ इस युगके भट्टारकोकी भाषा तत्समप्रधान है। इसका कारण है कि वे संस्कृतके बहुत बड़े विद्वान् होते थे। उन्होंने अधिकांशतया संस्कृतमे ही लिखा है। भट्टारक सकलकोतिकी कवितामें तत्सम शब्दोकी अधिकता है, Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि "श्री जिनवर वाणी नमेवि, गुरु निर्गन्ध पाय प्रणमेव । कहुं आराधना सुविचार, संक्षेपि सारोद्धार ॥ " भट्टारक शुभचन्द्र, - श्राराधना प्रतिबोध सार भट्टारक ज्ञानभूषण, "आहे प्रणमीय भगवति सरसति जगति विवोधन माय ।" -श्रादीश्वर फाग "कर्म कलंक विकारनो रे, निःशेष होय विनाश ।" —तत्वसार दूहा afa राजमल्लके पिंगल शास्त्रमें तत्सम रूपोंकी ही प्रधानता है । इसका एक उदाहरण है, "स्वति बुंद सुर वर्ष निरंतर, संपुट सीपि धमो उदरंतर । जम्मी मुक्ताहल मारहमळ, कंठाभरण सिरी अवलोवल ॥ " इन उपर्युक्त दृष्टान्तोंसे श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरीके इस कथनका समर्थन होता है कि - जैन लोग संस्कृत शब्दोंका बहिष्कार अवश्य करते रहे, किन्तु वे आते ही गये । जैन हिन्दी के इस युगपर गुजराती और राजस्थानीका भी प्रभाव है । उस समय हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी में विशेष अन्तर नहीं था । राहुलजीका मत है कि वे अपभ्रंशसे विकसित ही हुई थीं, उनके मूल रूपोंमे भेद नहीं था । उनकी दृष्टिमें गुजरात तेरहवीं शतीतक हिन्दी क्षेत्रका अभिन्न अंग रहा है। ढोलामारू रा दूहा सम्पादक भी उस समयकी हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी मे इतना रूपभेद नहीं मानते जितना कि आज-कल है। फिर भी यह सिद्ध है कि उनमे कुछ-न-कुछ रूपभेद था अवश्य, जिससे उनका होता है । पृथक् अस्तित्व प्रमाणित वि० सं० १४००-१५०० के हिन्दी कवियोंमें राजशेखरसूरि, साधारु, विद्धणू और मेरुनन्दनपर राजस्थानीका प्रभाव है, तो विनयप्रभ उपाध्याय, सोमसुन्दर सूरि, उपाध्याय जयसागर, दयासागर सूरि, हीरानन्दसूरि और भट्टारक सकल - कीर्तिपर गुजरातीका | १. हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९४७ ई०, पृ० ३६ | २. राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी काव्यधारा, अवतरणिका, पृ० १२ । ३. हिन्दी साहित्यका आदिकाल, प्रथम व्याख्यान, पृ० 8 से उद्धृते । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति काव्यका कला-पक्ष वि० सं० १५००-१६०० के कवियोंमे पद्मतिलक, मुनि चरित्रसेन, चेतरुमल, मुनि विनयचन्द्र ठकरसी और कवि हरिचन्द, राजस्थानीसे प्रभावित है, तो ब्रह्म जिनदास, लावण्यसमय, संवेगसुन्दर, सिंहकुशल, ईश्वरसूरि, भट्टारक शुभचन्द्र, और देवकलशकी रचनाओंमे गुजरातीकी झलक है । वि० सं० १६००-१८०० के जैन हिन्दी कवियोंकी भाषा यह युग हिन्दी के पूर्ण विकासका युग है । इसमे अधिकांशतया तत्सम शब्दों का प्रयोग होने लगा । क्रियाओंका भी विकास हुआ। उकार बहुला प्रवृत्ति हट गयी । विभक्तियोने घिसकर स्वतन्त्र शब्दोंका रूप धारण कर लिया । कर्ताकी 'ने' और कर्मकी 'को' विभक्तियाँ स्पष्ट दिखाई देने लगीं । ४२९ भाषा की दृष्टिसे इस युगकी रचनाओंको दो भागोंमे बाँटा जा सकता है - एक तो वे, जो संस्कृतका अनुवाद मात्र है, और दूसरी वे जो नितान्त मौलिक हैं । अनूदित कृतियोंमे संस्कृतनिष्ठा अधिक है, जब कि मौलिकमे सरलता । कवि बनारसीदासने सोमप्रभाचार्य की 'सूक्ति मुक्तावली' के ५८वें पदका अनुवाद किया है, " पूरन प्रताप रवि, रोकिबे को धाराधर सुकृति समुद्र सोखिबे को कुम्भनद है 1 कोप दव पावक जनन को अरणि दारु, मोह विष भूरुह को, महादृढ़ कंद्र है ॥"" इन्हीं कविको 'अध्यात्म पदपंक्ति, ( मौलिक ) के सातवें पदकी कतिपय पंक्तियाँ इस प्रकार है, "ऐसें यों प्रभु पाइये, सुन पंडित प्रानी । ज्यों मथि माखन काढिये, दधि मेलि मथानी ॥ ज्यों रस लीन रसायनी, रसरीति अराधे | त्यों घट में परमारथी, परमारथ "साधै ॥ कवि भूधरदामने वादिराजसूरि के 'एकीभाव स्तोत्र' के छठे श्लोकका अनुवाद निम्न प्रकारसे किया है, "भव वन में चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न जाई । तुम थुति कथा पियूष वापिका भागन पाई ॥ १. बनारसी विलास, जयपुर, पृ० ४६ । २. वही, पृ० २२६ ॥ ५५ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि शशि तुषार धनसार हार शीतल नहिं जा सम। करत न्हौंन तामहिं क्यों न भवताप बुझे मम ॥"' इन्हीं कविके 'भूधर विलास' का एक मौलिक पद देखिए, "गरव नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट गंवार। झूठी काया मुठी माया, छाया ज्यौं लखि लीजै रे ॥" इसी भांति पाण्डे हेमराजके 'भाषा भक्तामर' और 'उपदेशदोहा शतक', तथा भैया भगवतीदासके 'द्रव्य संग्रह' और फुटकर रचनाओंकी भाषामे अन्तर है। इस युगके कवियोंने वि० सं० १४००-१६०० को 'रे' और अनुस्वारवाली प्रवृत्ति विरासतके रूपमें पायी है। 'रे' के प्रयोगसे संगीतात्मकतामे वृद्धि हुई है, और ध्वनि सौन्दर्य भी बढ़ा है। श्री कुशललाभका एक पद्य देखिए, "आग्यो मास असाढ़ अबूके दामिनी रे। जोवइ जोवइ प्रीयडा वाट सकोमल कामिनी रे ।। चातक मधुरइ सादिकि प्रीऊ प्रीऊ उच्चरइ रे । __ वरसइ घण वरसात सजल सरवर भरइ रे ॥" भैया भगवतीदासने 'री' का प्रयोग उत्तम ढंगसे किया है, "अचेतन की देहरी न कीजे तासों नेहरी, ओगुन की गेहरी परम दुख भरी है। याही के सनेहरी न पावें कम छेह री सु, पार्वे दुख तेहरी जे याकी प्रीति करी है॥"" द्यानतरायके 'पार्श्व-स्तोत्र'में अनुस्वारका सफलतापूर्वक प्रयोग हुआ है। यहाँ यह स्पष्ट है कि अनुस्वारका प्रयोग छंदसौकर्य अथवा संस्कृतकी छौंकके लिए नहीं, अपितु ध्वनि-सौन्दर्यके लिए हुआ है । 'पार्श्वस्तोत्र'का एक पद्य देखिए, "नरेन्द्रं फणीन्द्रं सुरेन्द्रं अधोसं । शतेन्द्रं सु पूर्जे मजै नाय शीशं ।। मुनीन्द्रं गणेन्द्रं नमो जोडि हाथं । 'नमो देवदेवं सदा पार्श्वनाथं ॥" १. बृहज्जिनवाणी संग्रह, सम्राट संस्करण, १९५६ ई०, पृ० २४७ । २. भूधरविलास, कलकत्ता, ११वाँ पद, पृ०७। ३. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ११६ । ४, भैया भगवतीदास, ब्रह्मविलास । ५. भूधरदास, पार्श्वनाथ स्तोत्र, पहला पद्य, बृहज्जिनवाणी संग्रह, १९५६ ई०, पृ० २८६ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष कवि बनारसीदासके पहले ही आगरा हिन्दी कवियों का केन्द्र था । आगरा यदि एक ओर राजस्थानसे सम्बन्धित है, तो दूसरी ओर ब्रजभूमिसे, अत: वहाँके कवियोंपर दोनों ही का प्रभाव है । इसके अतिरिक्त उनपर अरबीफ़ारसीका प्रभाव भी अनिवार्य था, क्योंकि आगरा बादशाहोंकी राजधानी थी । पाण्डे रूपचन्दके 'परमार्थी दोहाशतक' में ब्रजभाषाका पुट है, तो 'नेमिनाथरासा' मे राजस्थानीकी झलक, और 'मंगलगीत प्रबन्ध' शुद्ध खड़ी बोलीका निदर्शन हैं । उनकी रचनाओंमें अरबी-फ़ारसीके शब्द नहीं है, क्योंकि वे आगरेमें बहुत कम रहे, इसके अतिरिक्त वे संस्कृत - प्राकृतके प्रकाण्ड पण्डित थे । ४३१ कवि बनारसीदासकी भाषा शुद्ध खड़ी बोलीपर आधारित है । उसपर राजस्थानीका प्रभाव नहीं है, किन्तु कारक रचनामे ब्रजकी विशेषता पायी जाती है । उनकी भाषापर उर्दू-फारसीका प्रभाव है । डॉ० हीरालाल जैनका कथन है कि बनारसीदासजीने ब्रजभाषाकी भूमिका लेकर उसपर मुग़लकालमें १ बढ़ते हुए प्रभाववाली खड़ी बोलीका प्रयोग किया है। बनारसीदासके समकालीन और उनके एकचित्त मित्र कुँअरपालकी भाषापर राजस्थानीका स्पष्ट प्रभाव है । उनके 'चौबीस ठाणा' का एक पद्य देखिए, "बंदौ जिनप्रतिमा दुखहरणी । आरंभ उदौ देख मति भूलौ, ए निज सुध की धरणी ॥ बीतरागपद कूं दरसावइ, मुक्ति पंथ की करणी । सम्यगदिष्टी नितप्रति ध्यावइ, मिथ्यामत की टरणी ॥ * इस युग मे 'श' और 'स' दोनों ही प्रयोग देखे जाते है, किन्तु 'स' की अधिकता है । पाण्डे रूपचन्दने 'सोभा', 'दर सिनु', 'सुद्ध' और 'जिनसासन' का प्रयोग किया है । कवि बनारसीदासकी रचनाओमें 'अविनासी', 'सुद्ध', 'सिवरूप', 'दरसन' और 'सरन' जैसे अनेक शब्द है, जिनमे 'श' के स्थानपर 'स' का प्रयोग हुआ है । कुँअरपालने भी 'सुद्ध', 'सुजस' और 'दरसन' में 'स' को ही अपनाया है । द्यानतरायने भी 'दरसन', 'सिरीपाल' और 'परमेसुर' का ही प्रयोग किया है । किन्तु इन सबकी रचनाओमें यत्र-तत्र श का प्रयोग भी देखनेको मिलता है । कवि बनारसीदास के 'नाटक समयसार' की 'उदै बल जोर यह १. डॉ० हीरालाल जैन, अर्धकथानककी भाषा, अर्धकथानक, पं० नाथूराम प्रेमी सम्पादित, संशोधित संस्करण, १६५७ ई०, हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर लिमिटेड, बम्बई, पृ० १६ । २. अर्धकथानक, संशोधित संस्करण, बम्बई, १० १०२ । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि श्वास को शबद घोर', 'जैसे निशिवासर कमल रहे पंक ही में' और 'शोभित निज अनुभूति जुत चिदानंदभगवान' पंक्तियोमे श का ही प्रयोग हुआ है। ___ इस युगके जैन कवियोमें संयुक्त वर्णोको स्वर विभक्तिके द्वारा पृथक्-पृथक् करनेको प्रवृत्ति अधिकाधिक परिलक्षित होती है। बनारसीदासने 'ज्ञानबावनी'मेलबधि ( लब्धि ), अध्यातम ( अध्यात्म ), सबद ( शब्द ), 'पंचपदविधान' मेपरसिद्ध (प्रसिद्ध), 'अध्यात्मपदपंक्ति'मे-परतछ (प्रत्यक्ष), 'अर्धकथानक' मेंजनम ( जन्म ), पारस ( पार्श्व ) और 'नाटक समयसार' मे-निरजरा (निर्जरा), दरसन (दर्शन), पदारथ (पदार्थ)-जैसे प्रयोग अधिक किये है । महात्मा आनन्दधनके पदोमे भी संयुक्त वर्णोका पृथक्करण हुआ है। उन्होंने 'आत्मा' को 'आतम', 'भ्रम' को 'भरम', 'सर्वंगी' को 'सरवंगी', 'परमार्थ' को 'परमारथ' और 'वृत्तान्त' को 'विरतंत' लिखा है । द्यानतरायके पदोंमे यद्यपि संयुक्त वर्णोका प्रयोग अधिक है, किन्तु उनका पृथक्करण भी पर्याप्त रूपमे दिखाई देता है । उन्होने परमातम ( परमात्मा ), परमान ( प्रमाण), दरसन ( दर्शन ), विकलप (विकल्प ), सुमरन (स्मरण ), परमेसुर (परमेश्वर ), सरधा (श्रद्धा ), मरमी ( मर्मी ), मूरति ( मूर्ति ) का प्रयोग किया है । संयुक्त वर्णों को सरल बनानेका दूसरा उपाय है, उनमे-से एकको हटा देना। भूधरदासने 'पार्श्वपुराण'मे इस विधिको अपनाया है। उन्होने 'स्तुति' को 'थुति' 'चैत्य' को 'चैत', 'स्थान' को 'थान', 'द्युति' को 'दुति', 'स्थिति' को "थिति' और 'स्वरूप' को 'सरूप' लिखकर इसी नियमका पालन किया है । श्री यशोविजयने 'अक्षय' को 'अखय', 'ऋद्धि' को 'रिधि', श्री कुँअरपालने 'बुद्धि' को 'बुधी', 'आदित्य' को 'आदित', और भैया भगवतीदासने 'मोक्ष' को 'मोख', 'संयुक्त' को 'संजुत', 'अमृत' को 'अमी', 'स्पर्श' को 'परसे', 'शिवतीय' को 'शिवती', "स्थिरता' को 'थिरता' तथा 'जिनेन्द्र' को 'जिनंद' लिखा है । ___ इस युगके जैन कवियोंमे दो विशेषताएं सर्वत्र देखी जाती है-एक तो शब्दों का उचित स्थानपर प्रयोग और दूसरा प्रसाद गुण । हेमविजयसूरिके "मुनि हेम के साहब देखन कू, उग्रसेनलली सु अकेली चली" मे उग्रसेनलली, और "मुनि हेम के साहिब नेमजी हो, अब तोरन तें तुम्ह क्यूं बहुरे" मे 'बहुरे' ऐसे स्थानपर प्रतिष्ठित है कि उससे कविताका सौन्दर्य शतगुणित हो गया है । इसी भांति महात्मा आनन्दघनके "झडी सदा आनन्दघनबरावत, बिन मोरे एक तारी" मे 'बिन मोरे', भैया भगवतीदासके "भूलि गयो गति को फिरबो, अब तो दिन च्यारि भये ठकुरारे" मे 'ठकुरारे', भूधरदासके "मिलिक मिलापी जन Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्ति-काव्यका कला-पक्ष पूछत कुशल मेरी, ऐसी दशा माही मित्र ! काहे की कुशल है" मे 'मित्र' और बनारसीदासके "छिन न सुहाय और रस फीके", "रुचि साहिबके लौन सौ" मे 'साहिब' इतने उपयुक्त स्थानपर बैठा है कि उसको वहांसे हटा देनेपर समूचा सौन्दर्य ही विनष्ट हो जायेगा। ____ मुहावरोंके प्रयोगमे भूधरदास अधिक कुशल है । उन्होने अपने पदोंमे मुहावरोंको नगीनेकी भांति जड़ दिया है। बुढापेका वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है, "ऐसे ही गई विहाय अलप-सी रही आय, नर परजाय यह आंधे की बटेर है।" एक दूसरे स्थानपर उन्होने मनुष्यको अपने जीवनके प्रति सावधान किया है, "अहो आग आयै जब झोपरी जरन लागी, कुआँके खुदायै तब कौन काज सरिहै।" भूधरदासका कथन है कि मनुष्यके दिन सोच-विचारमे ही व्यतीत हो जाते है, और एक दिन अचानक यमराज आ जाता है, तब, "खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाय रुपी शतरंज को बाजी ।" यह जानते हुए भी कि विश्वमे दुःख-हीदुःख है, मनुष्य उसमे अधिकाधिक ग्रस्त होता जाता है, इसपर भूधरने लिखा, "आंखिन विलोकि अन्ध सूसे की अंधेरी करै ऐसे राजरोग को इलाज कहा जग मे।" बनारसी विलासमे ज्ञानबावनीके विषयमे लिखा है, "वही अधिकार आयो ऊंघते विछोना पायो, हुकुम प्रसाद तें भयो है ज्ञानबावनी ।" 'वेदनिर्णय पंचासिका' में इस जीवको मूर्ख कहते हुए बनारसीदासका कथन है, “मतवारो मूरख न मान उपदेश जैसे, उलुवा न जाने किस ओर भानु उवा है।" भैयाके पदों और कवित्तोमे भी यत्र-तत्र मुहावरे दृष्टिगोचर होते है। एक स्थानपर उन्होंने लिखा है, "चेत रे अचेत पुनि चेतबे को नाहिं ठौर, आज कालि पीजरे सों पंछी उड़ जातु है।" एक कवित्तमे उन्होंने कहा, "ऐसो है सरूप मेरो तिहूं काल सुद्ध रूप, ज्ञान दृष्टि देखतें न दूजी परछाही है ।" ___ जहांतक प्रसाद गुणका सम्बन्ध है, अनेक जैन कवियोमे पाया जाता है। उनमे भी विनोदीलाल और भूधरदास अधिक प्रसिद्ध है। विनोदीलालके 'नेमिराजुल बारहमासा'मे सरलता है और सरसता भी। कात्तिकके लगनेपर राजुल नेमीश्वरसे कहती है, "पिय कातिक में मन कैसे रहै, जब भामिनि मौन सजावेंगी। रचि चित्र विचित्र सुरंग सबै, घर ही घर मंगल गावेंगी। पिय नूतन नारि सिंगार किये, अपनो पिय टेर बुलाबैंगी। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि पिय बारह बार बरै दियरा, जियरा तुमरा तरसावैंगी ॥" भूधरदासका प्रत्येक पद प्रसादगुणका साक्षात् प्रतीक है । 'पार्श्वपुराण', 'जैन शतक', और 'भूधर विलास' के अतिरिक्त, उनके अनेक स्तुति स्तोत्रों में भी उपर्युक्त गुण ही सार्थकताको प्राप्त हुआ है । इस युगके जैन हिन्दी कवियोंने खडी बोलीका प्रयोग किया है । उसपर फ़ारसीका स्पष्ट प्रभाव है । अर्थात् उनकी कविताओमे फ़ारसीके शब्दों का प्रयोग हुआ है । किन्तु ये शब्द अपनी बोलीमे ढालकर अपनाये गये है, उनका तत्सम रूप कहीं-कहीं ही देखनेको मिलता है । बनारसीदासके 'अर्धकथानक' में हुकुम, मुसकिल, सौदा, मुलक, खबरि, तहकीक, हुसियार, खुसहाल, नफर, नजरि स्याबास, उमराउ, साहिजादे, सुखुन, पैजार, और खोसरा जैसे अनेक उर्दूफ़ारसीके शब्द है । डॉ० हीरालाल जैनका कथन है कि इन शब्दोका प्रयोग वहाँपर ही हुआ है, जहाँ मुग़ल राज-काजसे सम्बन्धित प्रसंग आया है । किन्तु 'नाटक समयसार' में ऐसे शब्द आध्यात्मिक प्रसंगमे भी आये है । वहीं खलक, दुफारा, वदफैल, खेद, गहल, खबरदार, निसानी, रुख, गुमानी और मसूरति जैसे शब्द सर्वत्र बिखरे हुए है । 'ज्ञानबावनी' मे ही करामात, जोर, जहर, कहर, ख्याल, तलक, खलक, दरम्यान, कुमक, खजाना, खारी, सरहद, जहान-जैसे अनेक शब्द मौजूद हैं । भैया भगवतीदास फ़ारसीके अच्छे जानकार थे, किन्तु उन्होने भी फ़ारसीके शब्दोंको तद्भव बनाकर ही अपनाया है। उनकी रचनाओंमे ख्याल, अमल, मुकाम, सहल, फोजदार, परवाह, नजदीक, गनीम, खिलाफ, दोजक, फिरस्ता और उमर आदि शब्द देखे जाते है । उनके किसी-किसी कवित्तमे तो फ़ारसीके शब्दोंकी बहुलता है, अतः उसका 'टोन' फ़ारसीमय हो गया है । एक कवित्त देखिए, " मान यार मेरा कहा दिल की चशम खोल, साहिब नजदीक है तिसको पहचानिये | नाहक फिरहु नाहिं गाफिल जहान बीच शुकन गोश जिनका भली भांति जानिये ॥ पावक ज्यों बसता है अरनी पखान माहिं, तीस रोस चिदानंद इस ही में मानिये । १. बारहमासा नेमिराजुलका, १०वाँ पद्य, बारहमासा संग्रह, कलकत्ता । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्ति-कान्यका कला-पक्ष पंज से गनीम तेरी उमर साथ लगे हैं, खिलाफ तिसें जानि तुं आप सच्चा आनिये।" 'भैया' की भाषा नाटकीय रसके अनुरूप है। यह रस उनके द्वारा रचित संवादोंके मध्य विकसित हुआ है। 'पंचेन्द्रिय संवाद' मे लालित्य है। सरल, छोटे-छोटे वाक्य है। उनमे स्वाभाविकता है, रसकी पिचकारियों से मालूम होते है। केशवदासके संवाद प्रसिद्ध है, किन्तु उनका प्रयोग केवल 'रामचन्द्रिका में हुआ है, 'रसिकप्रिया' या 'कविप्रिया' में नहीं। 'रामचन्द्रिका प्रबन्ध काव्य है। मुक्तक काव्यमे संवादोंका प्रयोग 'भैया' की देन है। जीभ आँखसे कहती है। “जीभ कहै रे आँखि तुम, काहे गर्व कराहिं । काजल करि जो रंगिये, तोहू नाहिं लजाहि ॥ कायर क्यों डरती रहै, धीरज नहीं लगार । बात बात में रोय दे, बोले गर्व अपार ॥ जहाँ तहाँ लागत फिर, देख सलौनो रूप । तेरे ही परसाद से, दुःख पावै चिद्रूप ।" छन्द-विधान वि० सं० १४००-१८०० के जैन कवियोंने वणिक और मात्रिक दोनों ही प्रकारके छन्दोंका प्रयोग किया है। वणिक छन्दोंका प्रयोग अधिकांशतया संस्कृतकी अनूदित कृतियोंमें किया गया है और मात्रिकका मौलिकमे । मात्रिक छन्दोंकी प्रधानता है। उनमें भी दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, और विविध पद्य मुख्य है। दोहा जैसे संस्कृतका 'श्लोक' और प्राकृतका 'गाथा' मुख्य छन्द माना जाता है, वैसे ही अपभ्रंशका दोहा । अपभ्रंशको दूहा-विद्या कहते है । डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीने दोहाका उत्पत्ति-स्थल आभोर जातिके 'विरहागानों में खोजा है। किन्तु १. भैया भगवतीदास, शतअष्टोत्तरी, ५हवा कवित्त, ब्रह्मविलास, द्वितीयावृत्ति, सन् १९२६ ई०, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, पृ० २१ । २. भैया भगवतीदास, पंचेन्द्रिय संवाद, ब्रह्मविलास, दोहा ६६-६८, पृ० २४४। ३. डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्यका आदिकाल, पंचम व्याख्यान, पृ० १२ । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि लिखित रूपमे दोहाका सर्वाधिक प्राचीन रूप 'विक्रमोर्वशीय' के चतुर्थ अंकमे देखा जा सकता है। योगीन्दु ( सातवीं शताब्दी विक्रम ) के 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार'मे भी अपभ्रंशके दोहोंका ही प्रयोग हुआ है। जैन कवियोंने दोहेका प्रयोग अध्यात्म, उपदेश और भक्तिके अर्थमें ही अधिक किया। उसीकी परम्परा हिन्दीके भक्ति-काव्यको मिली। भट्टारक शुभचन्द्र ( १६वी शताब्दी ) ने 'तत्त्वसार दूहा' में, पाण्डे रूपचन्द (१७वी शताब्दी ) ने ‘परमार्थी दोहाशतक' मे, मनराम ( १७वीं शताब्दी ) ने 'मनराम विलास' में और पाण्डे हेमराज ( १८वीं शताब्दी) ने 'उपदेश दोहाशतक' मे दोहोंका ही एक मात्र प्रयोग किया है । अनेक कृतियां ऐसी है, जिनके बीच-बीचमे दोहे बिखरे हुए है । 'बनारसी विलास'का एक दोहा देखिए, "समुझ सकै तौ समुझ भब, है दुर्लभ नर देह । फिर यह संगति कब मिले, त् चातक हौं मेह ।।" चौपाई ___चौपाईका आदि रूप है अपभ्रंशका पद्धड़िया छन्द । उस समय दुवई और ध्रुवकके साथ पद्धडियाका कड़वकके रूपमे प्रयोग किया जाता था । कवि पुष्पदन्तके 'हरिवंसु पुराणु'मे लिखा है कि इसके आदि आविष्कर्ता चतुर्मुख थे । हिन्दीमे आकर 'दुवई' का प्रयोग तो समाप्त ही हो गया, और पत्तेका स्थान 'दोहे'ने ले लिया। पद्धड़िया चौपाई हो गया। अपभ्रंशकी कडवकवाली शैली हो हिन्दीको 'चौपाई-दोहा' शैलीकी उत्पादिका है। ___ डॉ० हीरालाल जैनका कथन है कि कडवकवाली शैली महाकाव्योमे ही प्रयुक्त होती थी। हिन्दीके कवियोंने भी इसी परम्पराको अपनाया । 'पद्मावत' और 'रामचरित मानस', चौपाई-दोहोंमें ही लिखे गये है। जैन हिन्दीमे भी साधारुका 'प्रद्युम्न चरित्र',लालचन्द लब्धोदयका 'पद्मिनीचरित्र', रायचन्दका 'सीताचरित्र' और भूधरदासका 'पार्श्वपुराण' चौपाई-दोहोंका ही निदर्शन है। १. बनारसीदास, अध्यात्मपद पंक्ति, आलाप दोहा, छठा, बनारसीविलास, जयपुर, २. डॉ० हीरालाल जैन, अपभ्रंशके महाकाव्य, अपभ्रंश भाषा और साहित्य, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, अंक ३-४, पृ० ११२ । ३.डॉ० रामसिंह तोमर, जैन साहित्यकी हिन्दी साहित्यको देन, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४६८। ४. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, अंक ३-४, पृ० ११२ । पृ०२३४ । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्ति-काव्यका कला-पक्ष डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीका कथन है कि चौपाईका जन्म कथानकको जोड़नेके लिए ही हुआ था, किन्तु जैन-हिन्दीके अनेक कवियोने अपने मुक्तक-काव्योंके लिए भी चौपाईको ही चुना है। बनारसोदासको 'वेदनिर्णयपंचासिका', 'मार्गणाविधान', 'कर्मप्रकृतिविधान', 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र', 'साधुवन्दना', 'ध्यानवत्तीमी', और 'शिवपच्चीसो' मे प्रायः चौपाई और दोहोंका ही प्रयोग हुआ है। भैया भगवतीदामने 'चेतनकर्मचरित्र', 'जिनगुणमाला', 'पंचपरमेष्ठि नमस्कार', 'गुणमंजरी', 'मधुविन्दक' चौपाई, 'उपदेश पचौसिका', 'नन्दीश्वर दोपको जयमाला', 'बारह भावना', 'कर्मबन्धके दश भेद' और 'अकृत्रिम चैत्यालयकी जयमाला में अधिकांशतया चौपाइयोंका ही उपयोप हुआ है। प्रारम्भ, अन्त अथवा मध्यमें कही-कही दोहे भी है। इन मुक्तक कृतियोंमें, चौपाई-दोहोंका प्रयोग प्रबन्ध काव्यकी भाँति नहीं हुआ है। प्रबन्ध काव्यमें एक चौपाईके उपरान्त एक दोहा आता है, किन्तु इन मुक्तक रचनाओंमें, कभी एक दोहा और अनेक चौपाइयां और कभी अनेक चौपाइयां और फिर अनेक दोहोंका क्रम मिलता है। कवि बनारसीदायकी 'साधुवन्दना'की एक चौपाई देखिए, "अहँत सिद्ध सूरि उवझाय । साधु पंच पद परम सहाय ॥ इनके चरणाने में मंन लाय । तिस मुनिवर के बन्दों पाय ।।"" भैया भगवतीदासको 'नन्दीश्वर दीप जयमाला की एक चौपाई इस प्रकार है, "जिन प्रतिमाजिनवरणे कही। जिन सादृश में अंतर नहीं ॥ . 'सब मुरवृन्द नन्दीश्वर जाय । पूजहि तहां विविध धर माय ।" भूधरदासकै विविध स्तुति - स्तोत्रोमें भी चौपाईका प्रयोग हुआ है । उनका 'पार्श्वनाथ स्तोत्र', प्रारम्भिक दोहेके उपरान्त चौपाइयोमें ही लिखा गया है । एक चौपाई इस भांति है, "प्रभु इस जग समरथ ना कोय । जासों तुम यश वर्णन होय । चार ज्ञानधारी मुनि कैं। हम से मंद कहा कर सकें।" १. डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्यका आदिकाल, पंचम व्याख्यान, पृ० ६४ २. बनारसीदास, साधुवन्दना, चौपाई २०, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० १३० । । ३. मैया भगवतीहास; नन्दीश्वक दीपकी जयमाला,. १५वीं--चौपाई, ब्रह्मविलास, पृ० १५३ । ४. भूधरदास, पार्श्वनाथ स्तोत्र, पहली चौपाई, बृहज्जिनवाणीसंग्रह-१९५६ ई०, ५६ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ हिन्दी जैन भक्ति काग्य और कवि कवित्त कवित्त व्रजभाषाका प्रिय छन्द है । मूलतः बन्दीजन इसका प्रयोग करते थे। आध्यात्मिक और भक्तिके क्षेत्रमें, जैन कवियोंने इस छन्दका सफल प्रयोग किया है । भैया भगवतीदास 'कवित्तो' के राजा थे। उनका एक कवित्त देखिए, "धूमन के धौरहर देख कहा गर्व करे, ये तो छिनमाहि जाहिं पौन परसत ही। संध्या के समान रंग देखत ही होय भंग, दीपक पतंग जैसे काल गरसत ही॥ सुपने में भूप जैसें इंद्रधनु रूप जैसे, भोसबूंद धूप जैसें दुरै दरसत ही। ऐसोई मरम सब कर्म जाल वर्गणा को, तामें मूढ मग्न होय मरै तरसत ही ॥"' 'भैया' ने मात्रिक कवित्तोंका भी प्रयोग किया है। किन्तु जैसी ताल और लय उपर्युक्त कवित्तमें है, मात्रिकमें नहीं आ पायो है। एक मात्रिक कवित्त इस प्रकार है, "चेतन जीव विचारहु तो तुम, निहचै ठोर रहन की कौन । देवलोक सुरइन्द्र कहावत, तेहू करहिं अंत पुनि गौन ॥ तीन लोकपति नाथ जिनेश्वर, चक्रीधर पुनि नर है जौन । यह संसार सदा सुपने सम, निहचै वास इहां नहीं होन ॥"* भूधरदासने 'जैनशतक' में 'मनहर कवित्तों का अधिक प्रयोग किया है। उनमें भी 'रूपको न खोज रह्यो तरु ज्यों तुषार दह्यो', "जाकों इन्द्र चाहैं अहमिन्द्र से उमाहै जासौं" और "सांचौ देव सोई जा में दोष को न लेश कोई" उत्तम है। कवि बनारसीदासने 'नवदुर्गा विधान' कवित्तोंमें ही लिखा है। उसका एक कवित्त इस प्रकार है, "यह सरस्वती हंसवाहिनी प्रगट रूप, यह भवभेदिनी मवानी शंभुघरनी। यह ज्ञानलच्छन सो लच्छमी विलोकियत, यहै गुणरतन मंडार मार भरनी। १. मैया भगवतीदास, पुण्यपचीसिका, १७वाँ कवित्त, ब्रह्मविलास, पृ० ५ । । २. मैया भगवतीदास, शत अष्टोत्तरी, ७७वाँ कवित्त, ब्रह्मविलास, १९२६ ई०, बम्बई, पृ० २५॥ ३. भूधरदास, बैनशतक, कलकत्ता, मनहर कवित्त, ३६, ४१, ४५, पृ० १३, १५ । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष यहै गंगा त्रिविधि विचार में त्रिपथ गौनी, यहै मोख साधन को तीरथ की घरनी। यहै गोपी यहै राधा राधे भगवान भाव, यहै देवी सुमति अनेक भांति वरनी॥"" सवैया यह भी ब्रजभाषाका छन्द है। इसका मूल संस्कृतके वणिक-वृत्तोंमें सन्निहित है। जैन हिन्दीके कवियोने 'सवैया के विविध भेदोंका सफल प्रयोग किया है। उन्होंने कवित्तकी अपेक्षा सवैयाको अधिक अपनाया। सवैयाकी जैसी छटा, इन कवियोंकी रचनाओमे देखनेको मिलती है अन्यत्र नहीं देखी जा सकती। पाण्डे रूपचन्द्र ने सवैयोंका अधिकाधिक प्रयोग किया है। उनमें से एक इस प्रकार है, "जीवत की आस करे, काल देखै हाल डरे, ___ डोले च्यारू गति पै न आवै मोछ मग मैं ।। माया सौं मेरी कहै मोहनी सौं सीठा रहै, तापै जीव लागै जैसा डांक दिया नग मैं ॥ घर की न जानै रीति पर सेती मांडे प्रीति, __ वाट के बटोई जैसे आइ मिले वग मै॥ पुग्गल सौं कहै मेरा जीव जानै यहै डेरा, कम की कुलफ दीयै फिरै जीव जग मैं ॥"' भूधरदासने मत्तगयन्द और दुमिल सर्वयोंका प्रयोग किया है। उन्होंने बुरे कवियोंकी निन्दा सवैयोंमें ही की है। एक मत्तगयन्द सवैया देखिए, "कञ्चन कुम्मन की उपमा, कह देत उरोजन को कवि बारे । ऊपर श्याम विलोकत के, मनि नीलम की ढकनी ढकी छारे॥ यौं सतबैन कहैं न कुपंडित, ये जुग आमिषपिंड उघारे । साधन झार दई मुँह छार भये इहि हेत किधौं कुच कारे ।।" उन्होंने तीर्थकरोंकी स्तुतियां भी अधिकांशतया मत्तगयन्द सवैयोंमे ही लिखी है । भगवान् चन्द्रप्रभकी स्तुति करते हुए उन्होंने लिखा है, १. बनारसीदास, नवदुर्गा विधान, प्वाँ कवित्त, बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०, पृ० १७० । २. पाण्डे रूपचन्द, अध्यात्म सवैया, आमेर शास्त्र भण्डारकी प्रति, पद्य ३० । ३. भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता, ६५वा सवैया, पृ० २१ । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि "चितवत बदन अमल चन्द्रोपम, तजि चिंता चित होय अकामी । त्रिभुवनचंद पापतपचंदन, समतचरण चन्द्रादिक नामी ॥ तिहुं जग छई चन्द्रिका कीरति, चिहन चन्द्र चिंतत शिवगामी । बन्दो चतुर चकोर चन्द्रमा, चन्द्रवरण चन्द्रप्रम स्वामी ॥'' कवि बनारसीदासने 'नाटक समयमार'मे २४५ सवैया-इकतीसा और ३७ तेईसासवैयोका निर्माण किया है। उनमे से एक सवैया-तेईसा इस प्रकार है, "या घट में भ्रमरूा अनादि, विलास महा अविवेक अखारो। तामँहि और सरूप न दीसत, पुद्गल नृत्य करै अतिभारो॥ फेरत भेष दिखावत कौतुक, सो जलिये वरनादि पसारो। मोहसुं भिन्न जुदो जड़ सों, चिनमूरति नाटक देखन हारो॥"" भैया भगवतीदास भी सवैयोके निर्माणमे अधिक कुशल है । उनके द्वारा रचा हुआ एक 'समान सवैया' निम्न प्रकारसे है, "काल अनादित फिरत फिरत जिय, अब यह नरमव उत्तम पायो । समुझि समुझि पंडित नर प्रानी, तेरे कर चिंतामणि आयो । घट की आँखें खोलि जोहरी, रतन जीव जिनदेव बतायो । तिल में तेल वास फूलनि में, यो घट मे घटनायक गायो॥" छप्पय चन्दबरदाईके 'पृथ्वीराज रासो' और उसके पूर्व अपभ्रंशमे छप्पयका प्रयोग प्रायः वीर-रसमें ही हुआ है । जैन हिन्दीके कवियोंने उसको अध्यात्म और भक्तिके क्षेत्रमें भी प्रयुक्त किया। कवि बनारसीदासने 'नाटक समयसार में २० छप्पयोंका निर्माण किया है। भूधरदासके 'जनशतक मे मत्तगयन्द और मनहर सवैयों तथा दोहोके साथ-साथ छप्पयोंका भी प्रयोग हुआ है। भगवान् पार्श्वनाथको भक्तिमे एक छप्पयकी प्रथम दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं, . "जनम-जलधि-जलजान जान जनहंस-मान सर । सरव इन्द्र मिलि आन, आन जिस धरहिं शीस पर । १. वही, ५वा सवैया पृ० । २. बनारसीदास, नाटक समयसार, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण, . वि० स० १९२६, पृ०८१।। ३. मैया भगवतीदास, शत अष्टोत्तरी, ८५वाँ सेवैया, ब्रह्मविलास, ६२६ ई०, बम्बई, ५०.२७॥ ४. भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता, यहाँ छप्पय, पृ०.३ । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैन भक्ति-काका कला-पक्ष भैया भगवतीदासने भी छप्पयोंका प्रयोग भक्तिके क्षेत्रमे ही किया । उनके द्वारा रची गयी 'चतुर्विशति जिनस्तुति' का एक छप्पय है, "जिनवर ताराचंद, चंदतारा नित वंदै । वंदे सुरनर कोटिकोटि, सुरवृंद अनंदै ॥ आनँद मगन जु आप, आप हस्तिनपुर श्राये । आये शांति जिनदेव, देव सब ही सुख पाये || पाये सुमात ऐरारतन, तन कंचन विश्वसेन गिन । नि सु कोष गुन को वन्यो, वन्यो सुतारन तरन जिन ।। " " कुण्डलिया बनारसीदासने 'नाटक समयसार में चार कुण्डलिया भी लिखी हैं । 'बनारसीविलास' में भी यत्र-तत्र अनेक कुण्डलियोंका प्रयोग हुआ है । 'वेद निर्णय पंचासिका' की एक कुण्डलिया निम्न प्रकार है, "ऊपर सब सुरलोक के, 'ब्रह्मलोक' अमिराम | सो 'सरवारथसिद्धि' तनु, पंचानुत्तर नाम ॥ पंचानुत्तरनाम, धाम एका अवतारी । तहां पूर्वभव बसे, ऋषभजिन समकितधारी ॥ ब्रह्मलोक सों चये, भये ब्रह्मा इहि भूपर तातें लोक कहान, देव 'ब्रह्मा' सब कार ॥ ૨ भैया भगवतीदासने भी कुण्डलिया छन्दका 'शत अष्टोत्तरी' को एक कुण्डलिया इस भांति है, 889 प्रयोग किया है। उनकी रचना " सूवा सयानप सब गई, सेवो सेमर वृच्छ । आये धोखे आम के, यापै पूरण इच्छ ॥ या पूरण इच्छ वृच्छ को भेद न जान्यो । रहे विषय लपदाय, मुग्धमति भरम भुलान्यो ॥ फलमहिं निकसे तूल स्वाद पुन कछू न हूवा । यहै जगत की रीति देखि सेमरसम सूवा ॥ ३ 3 १. भैया भगवतीदास, चतुर्विंशतिजिनस्तुति, १६वाँ छप्पय, ब्रह्मविलास, पृ० १६ | २. कवि बनारसीदास, वेदनिर्णय पंचासिका, ४८वाँ पद्य, बनारसीविलास, जयपुर १६५४ ई०, पृ० ६६ । ३. भैया भगवतीदास, शत अष्टोत्तरी, ७४वॉ पद्य, ब्रह्मविलास, पृ०, २५१ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि घनाक्षरी __ घनाक्षरी भी जैन हिन्दी कवियोंका प्रिय छन्द है। 'बनारसी विलास'में संकलित 'ज्ञान बावनी' का निर्माण घनाक्षरीमे ही हुआ है। उसका एक छन्द देखिए, "फटिक पाषाण ताहि मोतीसर मानै कोऊ, धुंघची रकत कहा रतन समान है। हंस बक सेत इहां सेत को न हेत कछू, रीरी पीरी भई कहा कंचन के बान है। भेष भगवान के समान कोऊ आन मयो, मुद्रा को भडान कहा मोक्ष को सुथान है । बनारसीदास ज्ञाता ज्ञान में विचार देखो, काय जोग कैसो होउ गुण परधान है ॥"' फागु फागु एक प्रकारका लोक-गीत है। यह प्रायः वसन्तमे गाया जाता था । आगे चलकर उसका प्रयोग किसीके भी आनन्दवर्णन और सौन्दर्यनिरूपणमे होने लगा। जिनपद्मसूरिका 'थूलिभद्द फागु' ऐसा ही एक काव्य है। जैन हिन्दोके कवियोने भगवान् जिनेन्द्रकी महिमाके अर्थमे 'फागु' का प्रयोग किया है । राजशेखरसूरिका 'नेमिनाथफागु', श्री सोमसुन्दरसूरिका 'नेमिनाथनवरसफाग', भट्टारक ज्ञानभूषणका 'आदीश्वरफाग', और बनारसीदासका 'अध्यात्मफागु' प्रसिद्ध रचनाएँ है । राजशेखरसूरिके 'नेमिनाथफागु' में लिखी हुई राजोमतीके सौन्दर्यकी कतिपय पंक्तियां देखिए, पद "किरि ससिलिंब कपोल कन्नहिं डोल फुरता। नासावंसा गरुड-चंचु दाडिमफल दंता ॥ प्रहर पवाल तिरेह कंटु राजल सर रूडउ । __ जाणुवीणु रणरणइं जाणु कोइल टहकडलउ॥"" हिन्दीके भक्ति-काव्यमें पदोंका महत्त्वपूर्ण स्थान है। सूरदासके विकसित पदोंको देखकर पं० रामचन्द्र शुक्लने अनुमान किया था कि सूरसागर दीर्घकालसे १. शानबाबनी, ४१ वी घनाक्षरी, बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०, पृ० ८६-८७ । २. राजशेखरसूरि, नेमिनाथ फागु, राहुल सांकृत्यायन, हिन्दीकाव्यधारा, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, १९४५ ई०, पृ० ४८० । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्ति-काव्यका कला-पक्ष चली आती हुई किसी पुरानी परम्पराका विकास है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीने उनका मूल स्थान बौद्ध सिद्धोके गानोंको माना है। उसका मूल रूप कुछ भी हो, किन्तु भक्ति और अध्यात्मके क्षेत्रमे पदोंका जितना अधिक प्रयोग जैन कवियोंने किया, अन्य न कर सके । राजस्थानके जैन भण्डारोके नवीन अनुसन्धानमें ६० से अधिक जैन कवियोंके रचे हुए २५०० के लगभग हिन्दी पदोंका पता चला है । इस ग्रन्थमे भी अनेक पदरचयिताओंका उल्लेख हुआ है। उनमें बनारसीदास, कुंअरपाल, यशोविजय, महात्मा आनन्दधन, भैया भगवतीदास, द्यानतराय, विनयविजय, जगराम, देवाब्रह्म, और भूधरदास अत्यधिक प्रसिद्ध है । जैन पदोंमे भावाभिव्यक्तिके साथ-साथ संगीतात्मकता भी विविध रागरागनियोंके साथ-साथ पायी जाती है। अकेले 'भूधरदास'ने ही भूधर विलासमें राग सोरठ, राग काफी, राग ख्याल, राग पंचम, राग नट, राग सारंग, राग मलार, राग विहागरो, राग बिलावल. राग गौरी, राग धमाल,राग प्रभाती, रागघनासरी, राग सारंग, राग कल्याण, राग बरवा, राग विहाग, और राग घनासारीका प्रयोग किया है। बनारसीदासने राग भैरव, राग रामकली, राग बिलावल, राग आसावरी, राग बरवा, राग घनाश्री, राग सारंग, राग गौरी और काफीमें अधिक लिखा है। महात्मा आनन्दधन तो राग-रागिनियोके पण्डित ही थे। उनके पद रस प्रवाहित करने मे अद्वितीय माने जाते है । 'धानतविलास' के पदोंमें भी अनेक नये-नये रागोंका प्रयोग हुआ है, उनमे राग केदारो, राग परज और राग बसन्त तो बिलकुल नये हैं। भूधरदासके राग घनासारीका एक पद देखिए, "शेष सुरेश नरेश र तोहि, पार न कोई पावै जू ॥ काटै नपत व्योम विलसत सौं, को तारे गिन ला जू ॥शेष०॥ कौन सुजान मेघ बूंदन की, संख्या समुझि सुनावै जू ॥शेष०॥ भूधर सुजस गीत संपूरन, गनपति मी नहि गावै जू शेष०॥" १. “अतः सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य परम्पराका-चाहे वह मौखिक ही रही हो-पूर्ण विकास-सा प्रतीत होता है।" पं० रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्यका इतिहास, संशोधित और परिवर्तित संस्करण, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, प्रयाग, १९९७ वि० सं०, पृ० २००। २. डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्यका आदिकाल, पंचम व्याख्यान, पृ०१०८। ३. भूधरदास, भूधरविलास, ५२ वॉ पद, पृष्ठ २६ । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि अडिल्ल जैन - हिन्दी के कवियोंने अडिल्लोंका भी प्रयोग किया है । कवि बनारसीदासने 'नाटक समयसार' मे सात अडिल्ल लिखे हैं | भैया भगवतीदासने भी अडिल्ल लिखे है, किन्तु बहुत कम। उनकी रचना 'मन बत्तीसी' का एक अडिल्ल इस प्रकार है, "कहा मुंडाये मूड बसे कहा कहा नहाये गंग नदी के कहा कथा के सुने बचन के पटुका । " जो बस नाहीं तोहि पसेरी अटका ।। " मट्टका । तट्टका ॥ श्री भूधरदास के 'पार्श्व पुराण' में यत्र-तत्र अडिल भी बिखरे हुए है। उसका एक अडिल्ल है, " अष्ट गुणातम रूप कमल मुक्त हैं । थिति उतपति विनाश, धर्म संयुक्त हैं ॥ चरम देह तैं कछुक, होन परदेश हैं । लोक अग्रपुर बसें परम परमेश हैं ।। २ हरिगीतिका - लयात्मक छन्दोंमे हरिगीतिकाका प्रमुख स्थान है । इसमें सोलह और बारह मात्राओं पर विराम होता है । लयके संचरणके लिए प्रत्येक चरणमे ५वीं, १२वीं, १९वीं और २६वीं मात्राएँ लघु होती हैं । अन्तिम दो मात्राओंमें उपान्त्य लघु और अन्त्य दीर्घ होता है । कवि बनारसीदासका एक हरिगीतिका निम्नलिखित है, "जे जगत जन को कुपथ. डारहिं, वक्र शिक्षित तुरग से । जे हरहिं परम, विवेक, जीवन, काल दारुण उरग से ॥ जे पुण्यवृक्षकुठार वीखन, गुपति व्रत मुद्रा करें। ते करन सुभट प्रहार भविजन, तब सुमारग पग धरै । सोरठा - सभी जैन कवियोंने सोरठाका अधिकाधिक प्रयोग किया है। चौपाई के साथ दोहोंके स्थानपर सोरठ भौ बहुत लिखे गये है । पृथक रूपसे भी सोरठींस, क्विता "" Tis भैया भगवंतोदास, मनबत्तीसी, रहवाँ पद्य, महाविलास, पृ० २६४ । २. भूधरदास, पार्श्वपुराण, कलकत्ता, नवमोऽधिकारः, ८६वॉ पद्य, पृष्ठ' ७८ । ३. सूक्ति मुक्ताबली, ६εवॉ पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, १६५४ ई०५ ५० ५२ । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष हुई है । कवि भूधरदासके 'पाश्वपुराण'का एक सोरठा है, "श्यामवरन यह जानि, धूप धुवां नम को चल्यो । किधौं पुन्यडर मानि, धूवां मिस पातग भज्यो ।" नये छन्द कवि बनारसीदासने अनेक नवीन छन्दोंका प्रयोग किया है। वस्तु, आभानक, रोडक, करिखा, बेसरि, और पद्मावती तो बिलकुल नवीन हैं। पद्मावती छन्दमें कविने बलाघातके द्वारा लयात्मकता उत्पन्न की है। उनका लिखा हुआ एक पद्मावती छन्द इस प्रकार है, "ज्यों नीराग पुरुष के सनमुख, पुरकामिनि कटाक्ष कर ऊठी। ज्यों धन त्यागरहित प्रभुसेवन, ऊसर में वरषा जिम छूठी ॥ ज्यों शिलमाहिं कमल को बोवन, पवन पकर जिम बांधिये मुठी। ये करतूति होय जिम निष्फल, त्यों बिन माव क्रिया सब झूठी ॥" कवि भूधरदास नये-नये छन्दोंको विषयके अनुकूल ढालनेमे निपुण हैं। उन्होंने नरेन्द्र और व्योमवती छन्दका प्रयोग संगीतको लयके साथ किया है। व्योमवती छन्दका एक उदाहरण देखिए, "जे प्रधान केहरि को पकएँ, पन्नग पकर पाँव सों चापै । जिनकी तनक देख मौं बाँकी, कोटक सूरदीनता जापै ॥ ऐसे पुरुष पहार उड़ावन, प्रलय पवन तिय वेद पयापै। धन्य धन्य ते साधु साहसी, मन सुमेरु जिनको नहिं कांपै ।" अलंकार योजना जैन-हिन्दी कवियोंकी रचनाओंमे अलंकार स्वभावतः आये है। अर्थात् अलंकारोंको बलात् लानेका प्रयास नहीं किया गया। जैन कवियोंने भावको ही प्रधानता दी है। भाव-गत सौन्दर्यको अक्षुण्ण रखते हुए यदि अलंकार आते भी है, तो उनसे कविता बोझिल नहीं हो पाती। जैन कवियोंकी कविताओसे प्रमाणित है कि उनमें अलंकारोंका प्रयोग तो हुआ है, किन्तु उनको प्रमुखता कभी नहीं दी गयो। वे सदैव मूल भावकी अभिव्यक्तिमें सहायक-भर प्रमाणित हुए है । जैन १. भूधरदास, पार्श्वपुराण, अष्टमोऽधिकारः, श्वॉ सोरठा, पृष्ठ ६८ । २. सूक्तिमुक्तावली, ८५ वाँ पद्य, बनारसीविलास, जयपुर, १६५४ ई०, पृ० ६१ । ३. पावपुराण, कलकत्ता, चतुर्थ अधिकार, बावीसपरीषह, पृष्ठ ३१ । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि कवियोंका अनुप्रासोपर एकाधिकार था। कवि बनारसीदासकी अनेक रचनाओं में अनुप्रासोका सुन्दर प्रयोग हुआ है । 'नाटक समयसार का एक पद्य देखिए, " रेत की-सी गढ़ी किधों मढ़ी है मसान की-सी, अन्दर अंधेरी जैसी कन्दरा है सैल की । ऊपर की चमक दमक पटभूखन की, धोखे लागे भली जैसी कली है कनैल की । aratड़ी महा मौंड़ी मोह की कनोंड़ी, माया की मसूरति है मूरति है मैल की । ऐसी देह याहि के सनेह याकी संगति सों, है रही हमारी मति कोलू के से बैल की ।। " " भैया भगवतीदासने अपना पूरा 'परमात्म शतक' यमक अलंकार में लिखा है । उसके दो पद्य देखिए, ४१६ "पीरे होहु सुजान पीरे कारे है रहे । पीरे तुम बिन ज्ञान पीरे सुधा सुबुद्धि कहँ ।' X X X “मै न काम जीत्यो बली, मै न काम रसलीन । मैन काम अपनो कियो, मै न काम आधीन ॥ ३ हिन्दीके जैन -काव्योंमें अनेक अर्थालंकारोंका प्रयोग हुआ है। उनमें भी उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक और श्लेषमें सौन्दर्य अधिक है । जैन कवियोने सादृश्यमूलक अलकारोंकी योजना केवल स्वरूप मात्रका बोध करानेके लिए नहीं की, अपितु उपमेयके भावको सुन्दरता के साथ अभिव्यक्त करनेके लिए की है । कवि बनारसीदास ने एक पदमें आँखोंको चातक और निरंजननाथको घनकी बूंद बनाया है, "कब रूचि सौं पीवैं हग चातक, बूंद अखयपद घन की । कब शुभ ध्यान धरौं समता गहि करूं न ममता तन कीँ ॥" १. नाटक समयसार, बुद्धिलाल श्रावककी टीकासहित, हिन्दी जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, ८४०, पृ० २५२-२५३ । २. इसमें प्रथम 'पीरे' का अर्थ प्यारे, द्वितीयका 'पीले', तृतीयका 'पीडित' और चतुर्थका 'पियो' है । ३. पहले 'काम' का अर्थ है 'कामदेवको नहीं', दूसरे 'नकाम' का अर्थ है व्यर्थ, तीसरेका 'कार्य नहीं किया', और चौथेका 'कामदेवके अधीन नही हूँ' । वही, वाँ दोहा, पृष्ठ २८० ॥ १९५४ ई०, ४. बनारसीदास, अध्यात्मपदपंक्ति, १३वाँ पद, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० २३१ । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति काव्यका कला-पक्ष कवि द्यानतरायने चित्तको चकोर और जिनेन्द्रको चन्द्र, तथा अपने पापोंको उरग और प्रभुके नामको मोर माना है, " मवि ! पूजौ मन वच श्री जिनेन्द्र, चित चकोर सुख करन इन्द | कुमति कुमुदिनी हरन सूर, विधन सघन वन दहन भूर ॥ भवि० ॥ पाप उ प्रभु नाम मोर, मोह महातम दलन भोर ॥ भवि० ॥ भूघरदासकी रचनाओं में उत्प्रेक्षाओको अधिकता है । एक स्थानपर उन्होने लिखा है कि भगवान् आदिनाथके चरणोंपर देवगण भाल झुका रहे है, तो वह मानो अपने कुकर्मोकी रेखा मेटना चाहते हैं, २,, "अमर समूह आनि अवनी सौं घसि घसि सीस प्रनाम करै हैं । किधौं माल कुकरम की रेखा, दूर करन की बुद्धि घरे हैं ॥ सुरासुर राजा भगवान् शान्तिनाथके चरणोंपर अपना भाल झुकाकर प्रणाम कर रहे है । उनके भालपर नील मणिसे जड़े हुए मुकुट लगे है । भालके साथ-साथ वे 'मुकुट भी झुकते है, और उनके साथ नील मणियां भी, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे मानो भगवान्के चरण-कमलोंकी सुगन्धिको सूंघनेके लिए भौरोंकी पंक्ति ही चली आयी है, "सेवत पाय सुरासुर राय, नमैं शिर नाय महीतल ताई ॥ मौलि लगे मनि नील दिपैं प्रभु के चरणों झलके वह झाईं । सूंघन पाय सरोज-सुगन्धि, किधौं चलि ये अलि पङ्कति श्राई ॥ " पाण्डुक शिलापर भगवान् पार्श्वप्रभुका क्षीरोदधिके जलसे स्नान किया जा रहा है। स्नपनका जल आकाशमे उछल उठा, तो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कि वह पापरहित होकर ऊर्ध्व दिशामें जा रहा है। स्नानके उपरान्त भगवान्के शरीरपर शचीने कुंकुमादिका लेप किया । वह मानो नीलगिरिपर सांझ फूली हो ।' ५ ४४७ १. द्यानतराय, द्यानतविलास, कलकत्ता, ४हवाँ पद, पृ० २१ । २. भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता, आदिनाथ स्तुति सवैया, पहला पद्य, पृ० १ | ३. वही, छठाँ पद्य, पृ० २ ॥ ४. चली न्हैन के नीर की छटा नभ माहि । स्वामी संग अघ बिन भई क्यों नहिं करध जाहि ॥ भूधरदास, पार्श्वपुराण, कलकत्ता, षष्ठोऽधिकारः, पृ० ५२ ॥ ५. अब इन्द्रानी जिनवर अंग, निर्जल कियो वसन शुचि संग । कुंकुमादिलेपन बहु लिये, प्रभु के देह विलेपन किये ॥ इहि शोभा इस औसर मांझ, किधों नीलगिरि फूली सांझ । वही, षष्ठोऽधिकारः, पृ० ५३ । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि कवि बनारसीदासके 'नाटक समयसार' में भी उत्तम उत्प्रेक्षाओंका प्रयोग हुआ है । विनश्वर शरीरपर कल्पना करते हुए कविने लिखा है, "ठौर ठौर रकवि के कुण्ड केसनि के झुण्ड, ४४८ हाड़नि सों भरी जैसे थरी है चुरैल की । थोरे से धक्का लगे ऐसे फट जाय मानों कागद की पूरी कीधी चादर है चैल की ॥ १," जैन कवियोंकी रचनाओंमें 'रूपक' अलंकारोंका भी प्रयोग हुआ है । उन्होने उपमेयमें उपमानका आरोप कुशलतासे किया है । कवि बनारसीदासने प्रस्तुत और अप्रस्तुतका केवल रूपसादृश्य ही नही दिखाया, किन्तु प्रस्तुतके भावको भी तीव्र किया है। कायाको चित्रशालामें कर्मका पलंग बिछा है । उसपर अचेतनताकी नींदमे चेतन सो रहा है, " काया की चित्रचारी में करम परजंक भारी, माया की संवारी सेज चादर कलपना | शैन करै चेतन अचेतन नीद लिये, मोह की मरोर यहै लोचन को ढपना ॥ उदै बल जोर है श्वास को शब्द घोर, विषै सुखकारी जाकी दौर यही सपना | ऐसी मूढ़ दशा में मगन रहे तिहुँ काल धावे भ्रम जाल में न पावे रूप अपना ॥ २" भैया भगवतीदासके रूपकोंमें ओज है । कायाकी नगरीमे चिदानन्दरूपी राजा राज्य करता है । वह माया-सी रानीमे मग्न रहता है । उसके पास मोहका फ़ौजदार, क्रोधका कोतवाल और लोभका वज़ीर है । "काया सी जु नगरी में चिदानंद राज करै, माया सी जु रानी पै मगन बहु भयो है । मोह सो है फौजदार क्रोध सो है कोतवार, लोभ सो वजीर जहां लूटिबे को रह्यो है ॥ उदै को जुकाजी माने, मान को अदल जानै, काम सेवा कान वीस श्राइ वाको को है । १. नाटक समयसार, प्राचीन हिन्दी जैन कवि, जैन साहित्य सम्मेलन, दमोह, पृ० ६७ । २. बनारसीदास, नाटकसमयसार, बुद्धिलाल श्रावककी टोकासहित, जैन ग्रन्थ रत्ना - कर कार्यालय, बम्बई, ७११४, पृ० १७५-१७६ । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष 1," ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि गयो, सुधि जब आई तबै ज्ञान भइ गहयो है ॥ भूधरदासने भी अनेक रूपकोंका निर्माण निया है । मन सूआ है, और भगवान् जिनेन्द्रके पद पिंजड़ा। इस मनरूपी सूएने संसारके अनेक वृक्षोके कड़वे फलोंको तोड़-तोड़कर चखा है, किन्तु उनसे कुछ हुआ नहीं। फिर भी वह निश्चिन्त है । भगवान्के चरणरूपी पिजड़ेमे नहीं बसता । कालरूपी वन-बिलाव उसको ताक रहा है, वह अवसर पाते ही दाब लेगा फिर कोई न बचा सकेगा। भूधरदासका एक अन्य पद, "सुनि ठगनी माया, तै सब जग ठग खाया" मे प्रसिद्ध रूपक है । 3 जैन कवियोंने प्रतिपाद्य विषयको प्रभावशाली बनानेके लिए नवीन उपमानोंके उदाहरण दिये है । उन्होंने परम्परागत उपमानोंको भी स्वीकार किया है, किन्तु बहुत कम । उनकी निजी अनुभूतियोने नयी कल्पनाओंको जन्म देकर वर्ण्य विषयके सौन्दर्यको बढ़ाया है । जैन कवियोंके 'उदाहरण' अलंकारकी एक पृथक् ही शोभा है । कवि बनारसीदासका एक उदाहरणालंकार इस प्रकार है । " जैसे निशिवासर रहें पंक ही में, पंकज कहावै पै न वाके ढिंग पंक है । जैसे मन्त्रवादी विषधर सों गहावें गात, मंत्र की शकति वाके बिना विष डंक है । जैसे जीम गहे चिकनाई रहे रूखे अंग, पानी में कनक जैसे काई से अटक है । तैसे ज्ञानवान नाना भांति करतुति ठानै, किरिया तैं न माने मोते निकलंक है ॥ ,, ४४९ १. भैया भगवतीदास, शतमष्टोत्तरी सवैया, २हवाँ, ब्रह्मविलास, सन् १६२६ ई०, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, पृ० १४ । २. मेरे मन सूवा, जिनपद पींजरे वसि यार लाव न बार रे ॥ संसार मे बलबूच्छ सेवत, गयो काल अपार रे । विषय फल तिस तोड़ि चाखे, कहा देख्यो सार रे ॥ तू क्यों निचिन्तो सदा तोकों, तकत काल मंजार रे । दावे अचानक आन तब तुझे, कौन लेय उबार रे ॥ भूधरदास, भूधरविलास, कलकत्ता, ५वाँ पद, पृ० ३-४ । ३. वही, वॉ पद, पृ० ५ । ४. बनारसीदास, नाटकसमयसार, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, ७५, पृ० १६७-१६८ । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि मुनि जयलाल 'विमलनाथ स्तवन' मे भी उदाहरणालंकारका प्रयोग हुआ है। एक स्थानपर उन्होंने लिखा है कि भगवान् के दर्शनसे मन ऐसा प्रसन्न हुआ, जैसे कि चन्द्रके देखने से चकोर हर्षित होता है, "तुम दरसन मन हरषा, चंदा जेम चकोरा जी । राजरिधि मांग नहीं, भवि भवि दरसन तोरा जी ॥ "," ४५० द्यानतरायने अनेक उदाहरणोंके द्वारा वर्ण्य विषयको सुन्दर बनाया है । एक स्थानपर उन्होंने लिखा है कि सम्यक्त्वके बिना इस जीवनको धिक्कार है । सम्यक्त्वके बिना जीवन कैसा है, यह बतानेके लिए, उन्होंने अनेक उदाहरण दिये हैं, "ज्यों बिनु कंत कामिनी शोभा, अंबुज बिनु सरवर ज्यों सूना । जैसे बिना एकड़े बिन्दी, त्यों समकित बिन सरव गुना ॥ जैसे भूप बिना सब सेना नींव बिना मंदिर चुनना । जैसे चन्द बिहूनी रजनी, इन्हें आदि जानो निपुना ॥ " पाण्डे रूपचन्दकी रचनाओं में भी उपमेयको उदाहरणोंके द्वारा पुष्ट बनाया गया है । उनमें सौन्दर्य है । एक स्थानपर उन्होंने लिखा है कि विषयोंके सेवनसे तृष्णा बुझती नहीं, जैसे खारी जलसे प्यास उपशम नहीं होती, "विषयन सेवते मये, तृष्णा तें न बुझाय । ज्यों जल खारा पीवते, बाढ़े तृषाधिकाय ॥ " विनोक्ति अलंकारमे एकके बिना दूसरेके शोभित अथवा अशोभित होनेका वर्णन किया जाता है । कवि भूधरदासने रागके बिना संसारके भोगोंकी सारहीनताका वर्णन किया है, "राग उदै मोग भाव लागत सुहावने से, बिना राग ऐसे लागे जैसे नाग कारे हैं । ' राग हीन सों पाग रहे तन में सदीव जीव, राग गये भावत गिलानि होत न्यारे हैं ॥ १. इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । २. द्यानतराय, धानतविलास, कलकत्ता, ३५वा पद, पृ० १५ । ३. इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष राग सों जगत रीति झूठी सब सांच जाने, राग मिटे सूझत असार खेल सारे हैं। रागी बिन रागी के बिचार में बड़ो ही भेद, जैसे मटा पथ्य काहु काहु को बयारे हैं।" कवि बनारसीदासके 'अर्ध-कथानक में आक्षेपालंकारका स्थान-स्थानपर समावेश हुआ है । एक आक्षेपालंकार निम्न प्रकारसे है, "शंख रूप शिव देव, महाशंख वनारसी। दोऊ मिले अवेव, साहिब सेवक एक से ॥" आत्मा और परमात्माके निरूपणमें कवि बनारसीदासने विरोधाभास अलंकारका भी अच्छा परिचय दिया है । निम्नलिखित पद्यमें विरोधाभास अलंकार है, "एक में अनेक है अनेक ही में एक है सो, एक न अनेक कछु कह्यो न परत है।" प्रकृति-चित्रण जैन कवियोंका मुख्य सम्बन्ध मानवप्रकृतिसे ही रहा है, किन्तु उन्होंने बाह्य प्रकृतिका भी निरूपण किया है। जैन मुनि प्रायः नदी, सरोवरके किनारे, पर्वतोंके ऊपर या भयावह कान्तारोंमें तप करते थे। प्रकृति अपना रोष दिखाती थी, किन्तु मुनि विचलित नहीं होते थे । सावनका माह है, और नेमीश्वर गिरिनारपर तप करने चले गये हैं । इसपर राजीमती कहती है, "पिया सावन में व्रत लीजे नहीं, घनघोर घटा जुर भावेगी । चहुं ओर तें मोर जु शोर करें, बन कोकिल कुहक सुनावैगी ॥ पिय रैन अँधेरी में सूझ नहीं, कछु दामिन दमक डरावैगो । १. भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता १८वाँ पद, पृ०६। २. बनारसीदास, अर्धकथानक, नाथूराम प्रेमी सम्पादित, संशोधित संस्करण, अक्टूबर १९५७, बम्बई, २३७ वॉ सोरठा, पृ० २७ । ३. बनारसीदास, नाटकसमयसार, जैन ग्रन्थरत्नाकर, बम्बई, हा१३, पृ० २८१ । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि पुरवाई की झोंक सहोगे नहीं, छिन में तप तेज छड़ावैगी॥" भूधरदासने ग्रीष्मकी भयंकरताका उल्लेख किया है। जेठका सूर्य तप रहा है, सरोवर सूख गये हैं, पत्थर तचकर लाल हो गये है, नग्न जैन साधु उनपर बैठकर तप करते हैं, "जेठ तपै रवि आकरो, सूखै सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपैं, दाझै नगन शरीर ॥ ते गुरु मेरे मन बसो॥" भूधरदासने इसी दृश्यको एक दूसरे स्थानपर अधिक सशक्त वाणीमें व्यक्त किया है । जब जेठ झकोरता है, चील अण्डा छोड़ती है, पशु-पक्षी छांह ढूढ़ते है, पर्वत दाह-पुंजसे हो जाते है, तब जैन साधु उनपर तप करते है, "जेठ की झकोरे जहां अंडा चील छोरै पशु, पंछी छांह लोरें गिरि कोर तप वे धरे ॥" मानवकी अन्तःप्रकृतिको अंकित करनेमें जैन कवियोंने बाह्यप्रकृतिसे सहायता ली है । तोरणद्वारसे लौटकर नेमीश्वर गिरिनारपर तप करने चले गये । राजीमतीकी आंखोसे आंसुओंकी धार बह निकली। वह इसी दशामें नेमीश्वरको देखने के लिए गिरिनारको ओर चल पड़ी । उस समय कवि हेमविजयसूरिने प्रकृतिका वातावरण ऐसा अंकित किया है, जिससे राजीमतीके हृदयका हाहाकार साक्षात् हो उठा है । वह पद्य देखिए, "घनघोर घटा उनयी जु नई, इतनॆ उततै चमकी बिजली । पियुरे पियुरे पपिहा बिललाति जु, मोर किंगार करंति मिली ॥ बिच बिन्दु परे हग आंसु झरें, दुनि धार अपार इसी निकली। मुनि हेम के साहब देखन •, उग्रसेन लली सु अकेलो चली ॥" बहुत प्राचीन कालसे जैन साधुके आगमनपर प्रकृति हर्ष प्रकट करती रही है। श्री कुशललाभने अपने गुरु श्री पूज्यवाहणके स्वागतमे पुलकित प्रकृतिको अंकित किया है, १. विनोदीलाल, नेमि-राजुलका बारहमासा, ४था पद्य, बारहमासा-संग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता.पृ० २४। २. भूधरदास, गुस्-स्तुति, ७वॉ पद्य, बृहज्जिनवाणी संग्रह, १९५६ ई०, पृ० १५० । ३. भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता, १३वाँ पद, पृ० ४ । ५. इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मक्ति काव्यका कला-पक्ष ४५३ "प्रवचन वचन विस्तार भरथ तरवर घणा रे । ___ कोकिल कामिनी गीत गायइ श्री गुरु तणा रे ॥ गाजइ गाजइ गगन गंभीर श्री पूज्यनी देशना रे। मवियण मोर चकोर थायइ शुम वासना रे॥ सदा गुरु ध्यान स्नान लहरि शीतल बहइ रे । कीर्ति सुजस विसाल सकल जग महमहइ रे॥" विनयप्रभ उपाध्यायने 'सीमन्धर स्वामी स्तवन मे लिखा है कि मेरुगिरिके उत्तुंग शिखर, गगनके टिमटिमाते तारागण और समुद्रकी तरंगमालिका, सोमन्धर स्वामीके गुणोंका स्तवन करते है । वह पद्य इस प्रकार है, "मेरुगिरि-सिहरि धय-बंधणं जो कुणइ, __ गयणि तारा गणइ, वेलुआ-कण मिणइ । चरम-सायर-जले लहरि-माला मुणइ सोवि नहु, सामि, तुह सम्वहा गुण थुणइ ॥" जब भगवान् महावीर संघसहित विपुलाचलपर पधारे, तो वहांकी प्रकृति छह ऋतुओंके फल-फूलोंसे युक्त हो गयी। वनपालने उन सब फल-फूलोंको, महाराजा श्रेणिकके सम्मुख लाकर रखा, जिससे उन्हे भगवान् महावोरके आगमनका विश्वास हो सके, "रोमांचित बन पालक ताम | आय राय प्रति कियो प्रनाम । छह ऋतु के फल फूल अनूप । भागे धरे अनूपम रूप ॥" जैन कवियोंने उपमेयको पुष्ट बनानेके लिए, उपमानोंको प्रायः प्रकृतिके विस्तृत क्षेत्रसे चुना है। हेतुत्प्रेक्षाओंमें इन उपमानोंकी छटा और भी अधिक विकसित हुई है । विनयप्रभ उपाध्यायने 'गौतमरासा मे गौतमके सौन्दर्यका वर्णन करते हुए लिखा है कि गौतमके नेत्र, कर और चरणसे पराजित होकर ही कमल जलमें प्रवेश कर गये है, उनके तेजसे हारकर तारा, चन्द्र और सूर्य आकाशमें भ्रमण कर उठे हैं । उनके रूपने मदनको अनंग बनाकर निकाल दिया है। उनके धैर्य से मेरु और गम्भीरतासे सिन्धु लज्जित होकर पृथ्वीमें धंस गये हैं, "नयण वयण करचरणि जिण वि पंकज जल पाडिय, तेजिहि तारा चंद सूर आकासि ममाडिय । १. कुशललाम, श्री पूज्यवाहणगीतम् , पब ६३-६४, ऐतिहासिक जैनकाव्यसंग्रह, कलकत्ता, वि० सं० १९९४, पृ० ११६ ।। २. इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याया। ३. भूधरदास, पार्खपुराण, कलकत्ता, पार्श्वनाथजीकी स्तुति, २६वॉ पच, पृ० ३ । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि रूविहि मयणु अनंग करवि मेहिउ निहाडिय, धोरिम मेरु गंमीरि सिंधु चंगिम चय चाडिय ॥" भूधरदासने उत्प्रेक्षाओंके द्वारा वर्ण्य विषयको सुन्दर बनाया है। उनमे अधिकांश प्रकृतिसे ली गयी हैं। भगवान् पार्श्वनाथके शरीरपर एक सहस्र और आठ लक्षण इस भांति सुशोभित हो रहे हैं, जैसे मानो कल्पतरुराजके कुसुम ही विराजे हों। तीर्थकर पार्श्वप्रभुके समवशरणके चारों ओर वलयाकृति खाई बनी है, उसमें निर्मल जल लहरें ले रहा है, वह मानो गंगा प्रदक्षिणा दे रही है, "वलयाकृति खाई बनी, निर्मल जल लहरेय । किधौं विमल गंगा नदी, प्रभु परदछना देय ॥" भगवान् जिनेन्द्रदेव समवशरणमे स्वर्ण सिंहासनपर विराजमान है। दोनों मोरसे यक्षनायक चमर ढुला रहे है । उसपर कल्पना करते हुए कविने लिखा है, "चंद्रार्चि चय छवि चारु चंचल, चमर वृन्द सुहावने । डोले निरन्तर जच्छनायक, कहत क्यों उपमा बने । यह नीलगिरि के शिखर मानो, मेघ झर लागी धनी । सो जयो पास जिनेन्द्र पातक हरन जग चूड़ामनी ॥" ___ जैन कवियोंका 'उदाहरणालंकार' भी प्रकृति चित्रणसे युक्त है। कवि बनारसीदासके 'नाटक समयसार में अधिकांश उदाहरण प्रकृतिके क्षेत्रसे ही चुने गये है। एक इस प्रकार है, "जैसे महीमंडल में नदी को प्रवाह एक, ताही में अनेक मांति नीर की दरनि है। पाथर के जोर तहां धार की मरोर होत, कांकर की खानि तहां झाग की झरनि है ॥ पौन की झकोर तहां चंचल तरंग उठे, भूमि की निचानि तहां भौंर की परनि है। १. देखिए इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय। २. सहस अठोतर लछन ये, शोभित जिनवर देह । किधौं कल्पतरुराज के, कुसुम विराजत येह ॥ भूधरदास, पार्श्वपुराण, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, सप्तमोऽधिकारः, पृ० ५७। ३. वही, अष्टमोऽधिकारः, पृ०६८।। ' ४. भूधरदास, पार्श्वपुराण, कलकत्ता, अष्टमोऽध्याय:, अष्टप्रातिहार्यवर्णन, पृ०७१। - - Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष १५५ तैसो एक आत्मा अनंत रस पुद्गल, __दोहू के संयोग में विमाव की मरनि है।" भैया भगवतीदासके उदाहरणोंमे भी प्रकृतिको ही झलक है। प्रत्येक व्यक्ति अपने पुण्य-पापके अनुसार फल पाता है। इसमें प्रकृतिका कोई दोष नहीं है । ग्रीष्मकी धूपमे पृथ्वी जल उठती है, किन्तु 'आक' उमंगित होकर फूलता है। वर्षाऋतुमे अनेक वृक्ष फल जाते हैं, किन्तु जवासा जल जाता है, "ग्रीषम में धूप परै तामें भूमि भारी जरै, फूलत है आक पुनि अति ही उमहि कैं। वर्षा ऋतु मेघ झरै तामै वृक्ष केई फरै, जरत जमासा अघ प्रापुही ते डहिकै ।। ऋतु को न दोष कोऊ पुण्य पाप फलै दोऊ, जैसे जैसे किये पूर्व तैसें रहै सहिर्के । केई जीव सुखी होहिं केई जीव दुखी होहिं, देखहु तमासो 'भैया' न्यारे नेक रहिकै ॥" जैन कवियोंका रूपक अलंकार भो प्रकृतिसे ही लिया गया है। कवि आनन्दधनने ज्ञानोदय और प्रभातके 'साग रूपक'का चित्र एक पदमें उपस्थित किया है, "मेरे घट ज्ञान भाव भयो मोर । चेतन चकवा चेतन चकवी, भागौ विरह को सोर ॥ फैली चहुँदिशि चतुर भाव रुचि, मिव्यौ भरम तम जोर । आपनी चोरी आपहि जानत, औरै कहत न चोर । अमल कमल विकसित भये भूतल, मंद विशद शशि कोर । आनंदघन एक बल्लम लागत, और न लाख किरोर ॥" कवि द्यानतरायने एक पदमें 'ज्ञान-विभव' और 'बसन्त' में 'रूपक' उपस्थित किया है । यह पद प्रकृति-मूलक रहस्यवादका दृष्टान्त है। "तुम ज्ञानविभव फूली बसंत, यह मन मधुकर सुख सों रमन्त । दिन बड़े भये वैराग भाव, मिथ्यामत रजनी को घटाव । १. बनारसीदास, नाटकसमयसार, बम्बई, पृ० २४६ । २. भैया भगवतीदास, पुण्यपचीसिका, २४वॉ कवित्त, ब्रह्मविलास, १६२६ ई०, बम्बई, पृ०७। ३. महात्मा आनन्दधन, आनन्दधनपदसंग्रह, अध्यात्मज्ञानप्रसारक मण्डल, बम्बई, १५वॉ पद। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन मत्ति-काव्य और कवि बहु फूली फैली सुरुचि बेलि, ज्ञाता जन समता संग केलि । धानत वानी पिक मधुर रूप, सुर नर पशु आनंदधन सुरूप ॥" भूधरदासने शारदाको गंगा नदी बनाकर एक उत्तम रूपककी रचना की है, “वीर हिमाचल से निकरी, गुरु गौतम के मुख-कुंड दरी है। मोह-महाचल भेद चली, जग की जड़तातप दूर करी है ॥ ज्ञान पयोनिधि मांहि रली, बहु मंग तरंगनि सों उछरी है। ता शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुलीकर शीश धरी है ॥" भैया भगवतीदासने आत्माको शुक कहा है। शुककी भांति ही यह आत्मा कर्मरूपी नलिनपर जा बैठी है। विषयस्वादमे मग्न होनेके कारण उसके पैर ऊपरको हो गये है। वह मोहके चंगुलमे फंस गया है। यह सब कुछ कर्मोसे छुटकारा न मिलनेके कारण ही हुआ है, "आतम-सूवा भरममहिं भूल्यो कम-नलिन मैं बैठो आय । विषय स्वाद विरम्यो इह थानक, लटक्यो तरै ऊर्ध्व भये पाँय ॥ पकरै मोह मगन चुंगल सों, कहै कम सों नाहिं बसाय । देखहु कि नहिं सुविचार भविक जन, जगत जीव यह धरै स्वमाय ॥" जैन कवियोने प्रकृतिको आलम्बन रूपमे भी उपस्थित किया है, किन्तु ऐसे दृश्य अल्प ही है । ब्रह्मरायमल्लने 'हनुवंत कथा'मे सन्ध्या समयका चित्र खीचा है। श्री पवनंजैराय अपने मित्रोंसहित प्रासादके ऊपर बैठे हुए सन्ध्याकी शोभा देख रहे है । वह पद्य इस प्रकार है, "दिन गत भयो अथयो माण, पंषी शब्द करै असमान । मित्त सहित पवनंजै राय, मंदिर ऊपर बैठो जाय ॥ देखै पंषी सरोवर तीर, करै शब्द अति गहर गहीर । दसै दिसा मुष कालो भयो, चकहा चकिही अंतर लयो ॥" जैनकाव्योंमे प्रकृति शान्तरसके उद्दीपनके रूपमें भी अंकित की गयी है। भूधरदासने 'पार्श्वपुराण' में काशीदेशके खेटपुर पट्टनका वर्णन किया है। उसके आस-पासके प्राकृतिक दृश्योंमे शान्त-भावको उद्दीप्त करनेको पर्याप्त सामर्थ्य थी। एक पद्य देखिए, १. यानतराय, धानतविलास, कलकत्ता, ५८वॉ पद, पृ० २४ । २. भूधरदास, शारदास्तवन, पद्य १-२, शानपीठपूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५७ ई०, पृ० ५२३ । ३. भैया भगवतीदास, पुण्यपचीसिका, २०वाँ कवित्त, ब्रह्मविलास, बम्बई, पृ०६ । ४. देखिए, इसी ग्रन्थका छठा अध्याय । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ जैन भक्ति-कान्यका कला-पक्ष "नीर अगाध नदी नित बहैं । जलचर जीव जहाँ नित हैं । मुनि जन भूषित जिनके तीर । का उसग्ग धरि ठाड़े धीर ॥ ऊँचे परवत झरना झएँ । मारम जात पथिक मन हरॆ ॥ जिनमें सदा कन्दरा थान । निहचल देह धरै मुनि ध्यान ॥" श्री द्यानतरायने नन्दीश्वर द्वीपकी प्राकृतिक शोभाका भी ऐसा ही चित्रण किया है, जिससे शान्तभाव और अधिक पुष्ट होता है। वह पद्य इस प्रकार है, "एक इक चार दिशि चार शुम बावरी । एक इक लाख जोजन अमल जलमरी ॥ चहुं दिशि चार वन लाख जोजन वरं। मौंन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ।" १. भूधरदास, पार्श्वपुराण, कलकत्ता, पंचमोऽधिकारः, पृ० ४१।। २. यानतराय, नन्दीश्वरदीप-पूजा, जयमाला, पद्य ३-५, बृहज्जिनवाणी संग्रह, १९५६ ई०, पृ० ४१७। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५: तुलनात्मक विवेचन १. निर्गुणोपासना और जैन-भक्ति ब्रह्म ___आचार्य योगीन्दुने शुद्ध आत्माको ब्रह्म कहा है। आत्मा और सिद्धका स्वरूप एक ही है, अतः उन्होने सिद्ध और ब्रह्ममें अभेद स्वीकार किया है। जैन हिन्दी कवि भट्टारक शुभचन्द्र', बनारसीदास और भगवतीदास 'भैया'" ने भी सिद्ध १. मूढ वियक्खणु बंमु परु अप्पा ति-विहु हवेइ । परमात्मप्रकाश, १११३, पृ० २२ । २. जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ । तेहउ णिवसइ बंभु परु देहह मं करि भेउ । वही, २२६, पृ०३३। ३. चिडूपचिता चेतन रे साक्षी परम ब्रह्म । परमात्मा परमगुरु तिहां नवि दीसियम्म । शांत दांत विज्ञान गुण रे सिद्ध सरूप समान। ज्ञानमात्र व्यापी विपुल देहमात्र असमान ॥७॥ तत्त्वसारदूहा, हस्तलिखित प्रति, मन्दिर ठोलियान, जयपुर, पृ० ५। ४. परमपुरुष परमेश्वर परम ज्योति परब्रह्म पूरन परम परधान है। X सरव दरसी सरवज्ञ सिद्ध स्वामी शिव धनी नाथ ईश जगदीश भगवान है ॥ नाटकसमयसार, सस्ती ग्रन्थमाला, दरियागंज, दिल्ली, ३६वॉ पद्य, पृ० ८ । ५. जेई गुण सिद्ध माहिं तेई गुण ब्रह्म पाहिं सिद्ध ब्रह्म फेर नाहिं निश्चय निरधार के। सिद्ध के समान है विराजमान चिदानंद ताही को निहार निज रूप मान लीजिये ॥ ब्रह्मविलास, सिद्ध चतुर्दशी, पद्य २-३, पृ० १४१ । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन और ब्रह्मको एक माना है । आठ कर्मोके क्षयसे शुद्ध आत्माकी उपलब्धिको सिद्धि कहते हैं, और ऐसी सिद्धि करनेवाले सिद्ध कहलाते है' । वे अमूर्तिक, अव्यक्त, ज्ञानयुक्त और शाश्वत सुखके धारणकर्ता होते हैं । उनमें सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, वीर्य, सूक्ष्मता, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध नामके आठ गुण माने गये है। कबीरका 'निर्गुण ब्रह्म' अमूर्तिक और अव्यक्तको दृष्टिसे तो 'सिद्ध' के समान ही हैं, किन्तु उसमे गुणोंका ऐसा सयुक्तिक विभाजन नहीं किया गया है । उसमे ऐसा भावोन्मेष भी उपलब्ध नहीं होता । कबीरने जिस आत्माका निरूपण किया है, वह विश्वव्यापी ब्रह्मका एक अंश-भर है, जबकि जैन कवियों की 'आत्मा' कर्ममलको धोकर स्वयं ब्रह्म बन जाती है, वह किसी अन्यका अंश नहीं है । इस भाँति कबीरका ब्रह्म एक है, जब कि जैनोंके अनेक, किन्तु स्वरूपगत समानता होनेके कारण उनमे भी एकत्वकी कल्पना की जा सकती है । कबीरने जिस ब्रह्मकी उपासना की है, उसपर उपनिषदों, सिद्धों, योगियों, सहजवादियों और इस्लामिक एकेश्वरवादियोंका प्रभाव पड़ा है | आचार्य क्षितिमोहन सेनकी दृष्टिमे कबीरदासने अपनी आध्यात्मिक क्षुधा और विश्वप्रासी आकांक्षाको तृप्त करनेके लिए ही ऐसा किया है। जैनों का ब्रह्म तो आध्यात्मिकताका साक्षात् प्रतीक ही है । उसपर किसी अन्यका प्रभाव नहीं है । वह अपनी ही पूर्व परम्पराका पोषण करता है । भावुकता के क्षेत्र में भी यह ही बात है। कबीरका ज्ञानी ब्रह्म सूफ़ियोंके प्रभावसे प्रेम और भक्तिका विषय बन सका, जब कि जैनोंके सिद्ध सदियों पूर्वसे भक्ति के आलम्बन और प्रेमके आकर्षण - केन्द्र बने चले आ रहे थे । आचार्य कुन्दकुन्द ( वि० सं० पहली शती ) ने सबसे पहले प्राकृत भाषामें 'सिद्धभक्ति' लिखी, आचार्य पूज्यपाद और सोमदेवने उसीको संस्कृत में प्रशस्त किया । 'सिद्धभक्ति से ४५९ १. आचार्यं पूज्यपाद, सिद्धभक्तिः, पहला श्लोक, दशभक्तिः, शोलापुर, १६२१ ई०, पृ० २७ । २. संमत्त णाण दंसण वीरिय सुहुमं तहेव अवगहणं । अगुरुलहुमण्वावाहं अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं ॥ आचार्य कुन्दकुन्द, सिद्धभक्तिः, दशभक्तिः, शोलापुर, पृ० ६६ । ३. परमात्मप्रकाश, Introduction, डॉ० ए० एन० उपाध्ये लिखित, पृ० ३४-३५ | ४. "कबीरकी आध्यात्मिक क्षुधा और आकांक्षा विश्वग्रासी है, इसीलिए उन्होंने हिन्दू, मुसलमान, सूफी, वैष्णव, योगी प्रभृति सब साधनाओंको जोरसे पकड़ रखा है।" आचार्य क्षितिमोहन सेन, कबीरका योग, कल्याण, योगांक, १० २६६ । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि सम्बन्धित अनेक प्राचीन स्तुति-स्तोत्र भी उपलब्ध हुए है, जिनका विवेचन इसी ग्रन्थके दूसरे अध्यायमें किया गया है। आचार्य पूज्यपादने तो प्रेमको ही भक्ति कहा है। इसी कारण 'सिद्ध' में जो रसविभोरता है, वह बौद्धोंको निराकारोपासनामें उपलब्ध नहीं होती। बुद्ध प्रतिपद' पर जोर देते हैं, जब कि भक्ति 'प्रपत्ति' से अधिक आश्वासन ग्रहण करती है । बुद्ध केवल ज्ञानरूप है, जब कि सिद्ध ज्ञानके साथ-साथ प्रेरणाजन्य कर्तृत्वके कारण भक्तके आराध्य भी। जैनोंने केवल सिद्ध में ही नहीं, किन्तु पंचपरमेष्ठीमें भो आसक्तिको शुभ माना है, और परम्परया उसे मोक्षका कारण कहा है। बौद्ध भगवान् बुद्धकी आसक्तिको भी उचित नहीं मानते। कबीरकी निर्गुण राममें आसक्ति प्रसिद्ध ही है। अतः विद्वानोंका यह कथन कि कबीरकी निर्गुणोपासना बौद्ध साधनासे प्रभावित थी, अशुद्ध है। उसका आसक्तिवाला रूप जैन साधनाके अधिक निकट है। यहां पं० रामचन्द्र शुक्लका यह कथन कि भारतीय ब्रह्म केवल ज्ञानक्षेत्रका विषय था, ठीक नहीं प्रतीत होता। कुछ भी हो, निर्गुण ब्रह्म और सिद्ध दोनों ही में दार्शनिकोंकी शुष्कता नही थो। यदि ऐसा होता तो कबीरके लालकी लालीको देखनेवाली लाल कैसे हो जाती। उनके लालमे 'पीउ' का सौन्दर्य है और रमणीयता भी, तभी तो आत्माने स्वयं 'बहुरिया' बननेमें चरम आनन्दका अनुभव किया है । वह 'पीउ' जब उसके घर आया, तो घरका आकाश मंगलगीतोंसे भर गया और चारों ओर प्रकाश छिटक उठा । जायसीने ब्रह्मको "पिउ' के नहीं, अपितु प्रियतमके रूपमें देखा है। इसीलिए उसमें कबीरके ब्रह्मसे अधिक मादकता है और आकर्षण । कबीरके लालको देखनेवाली ही लाल हो पायी है, किन्तु जायसीके प्रियतमको देखनेवाली स्वयं लाल होती है और उसे समूचा विश्व भी लाल दिखाई देता १. डॉ० भरतसिंह उपाध्याय, बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, द्वितीय भाग, बंगाल हिन्दी मण्डल, वि० सं० २०११, पृ० १०६३ । २. "हरि मेरा पीउ में हरि की बहुरिया" सन्तसुधासार, कबीरदास, सबद, २१वाँ पद्य, पृ० ६६ । ३. दुलहिनी गावहु मंगलचार, हम घर आये हो राजा राम भरतार ॥ कबीर ग्रन्थावली, चतुर्थ संस्करण, पद-पहला पद्य, पृ० ८७ । • ४. मंदिर माहिं भया उजियारा, ले सूती अपना पिव प्यारा॥ वही, दूसरा पद, ८७। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन ४६१ है। "नयन जो देखा कंवल भा, निरमल नोर सरीर" मे ऐसी ही बात है। जैन कवि द्यानतरायने भी ब्रह्मके दर्शनसे चारों ओर छाये हुए वसन्तको देखा है। "तुम ज्ञान विभव फूली बसन्त, यह मन मधुकर सुख सों रमंत" उसोका निदर्शक है । कवि बनारसीदासके ब्रह्मके सौन्दर्यसे तो समूची प्रकृति ही विकसित हो उठी है, "विषम विरष पूरो भयो हो, आयो सहज वसंत । प्रगटी सुरुचि सुगंधिता हो, मन मधुकर मयमंत ॥" कबीरमे व्यष्टिमलकता अधिक है, तो जायसीमें समष्टिगतता और जैन कवियोमें दोनों ही समान रूपसे प्रतिष्ठित हैं। उनका आत्मब्रह्म घटमें रहता है, किन्तु उसका सौन्दर्य समूचे लोकालोकमें व्याप्त है। सतगुरु जैन सन्त और कबीरदास आदि 'निर्गुनिए' साधुओंने गुरुकी महत्ता समान रूपसे स्वीकार की है। दोनोंने ही गुरुके प्रसादको पानेकी आकांक्षा को, किन्तु जहाँ कबीरदासने गुरुको ईश्वरसे भी बड़ा माना, वहां जैन सन्तोंने ईश्वरको ही सबसे बड़ा गुरु कहा है। जैन आचार्योने पंच परमेष्ठीको 'पंचगुरु'की संज्ञासे अभिहित किया है। सोलहवीं शताब्दीके कवि चतरुमलने 'नेमीश्वर गीत'में लिखा है, "पंचगुरुओंको प्रणाम करनेसे मुक्ति मिलती है।" वैसे गुरुके प्रसादसे भगवान् मिलनेकी बात दोनों ही को स्वीकार है । कबीरदास तो गुरुके ऊपर इसीलिए बलिहार होते हैं कि उन्होंने गोविन्दको बता दिया है । सुन्दरदासके गुरु भी दयालु है, क्योंकि उन्होंने आत्माको परमात्मासे मिला १. जायसी ग्रन्थावली, पं० रामचन्द्र शुक्ल सम्पादित, द्वितीय संस्करण, मानसरोदक खण्ड, ८वीं चौपाईका दोहा, पृ० २५ । २. द्यानतपदसंग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, ५८वाँ पद, पृ० २४ । ३. बनारसी विलास, जयपुर, अध्यात्मफाग, पच दूसरा, पृ० १५४ । ४. गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पाय । बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दयो बताय ।। कबीरदास, गुरुदेवको अंग, सन्तसुधासार, वियोगी हरि सम्पादित, सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली, १४वीं साखी, पृ० १२० । ५. लहहि मुकति दुति दुति तिरं, पंच परम गुरु त्रिभुवन सारु ॥ चतरुमल, नेमीश्वरगीत, भामेरशास्त्रभण्डार, मंगलाचरण । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि दिया है।' दादूके 'मस्तक पर तो ज्यों ही गुरुदेवने प्रसादका हाथ रखा कि 'आगम अगाध' के दर्शन हो गये। जैन कवि ब्रह्मजिनदासने अपने आदिपुराणमे 'मुगतिरमणी' को प्रकट करनेवाले भगवान् ऋषभदेवको सद्गुरुकी कृपासे ही जाननेको बात स्वीकार की है। भट्टारक शुभचन्द्रने तो यहांतक कहा है कि सतगुरुको मनमें धारण किये बिना शुद्ध चिद्रूपका ध्यान करनेसे भी कुछ न होगा। श्री कुशललाभने 'स्थूलभद्रछत्तीसी' में गुरु स्थूलभद्र के प्रसादसे 'परमसुख'का प्राप्त होना लिखा है। उन्होंने ही 'श्रीपूज्यबाहणगीतम्' मे भी लिखा है कि शुद्ध मनपूर्वक गुरुकी सेवा करनेसे शिवसुख उपलब्ध होता है। पाण्डे रूपचन्दजीने अपने 'खटोलना गीत के द्वारा सिद्ध किया है कि सतगुरुकी कृपासे ही भ्रान्तिरूपी अलंकार नष्ट हो सकता है, अन्यथा नही। इस भांति जीव अविचल ज्ञानको प्राप्त करता है । कबीरदास भी गुरुके इस ज्ञानप्रदाता स्वभावसे १. परमातम सों आतमा जुदे रहे बहुकाल । सुन्दर मेला करि दिया सद्गुरु मिले दयाल ॥ डॉ. दीक्षित, सुन्दरदर्शन, इलाहाबाद, पृ० १७७ । २. दादू गैब माहिं गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद । मस्तक मेरे कर घरया देख्या अगम अगाध ।। दादू, गुरुदेव को अंग, सन्त सुधासार, पहली साखी, पृ० ४४६ । ३. तेह गुण में जांणी या ए, सदगुरु तणो पसावतो। भवि भवि स्वामी सेवसुं, ए लागु सहगुरु पाय तो॥ ब्रह्मजिनदास, आदिपुराण, प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, पृ० २०४ । ४. भट्टारक शुभचन्द्र, तत्त्वसारदूहा, मन्दिर ठोलियान, जयपुरकी प्रति । ५. कुशललाभ, स्थूलभद्र छत्तीसी, पहला पद्य, राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, अगरचन्द नाहटा सम्पादित, साहित्य संस्थान, उदयपुर, १६५४ ई०, पृ० १०५। ६. दिन दिन महोत्सव अतिघणा, श्री संघ भगति सुहाय । मन शुद्धि श्री गुरु सेवी यह, जिणि सेव्यइ शिव सुख पाई ॥ कुशललाभ, श्री पूज्यबाहरणगीतम् , जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रह, अगरचन्द नाहटा सम्पादित, कलकत्ता, वि० सं० १९६४।७. सोते सोते जागिया, ते नर चतुर सुजानि । गुरु चरणायुध बोलियो, समकित भयउ विहान ॥ कालरयन तब बीतई, ऊगो ज्ञान सुभानु । भ्रान्ति तिमिर जब नाशियो, प्रगटत अविचल थान ॥ पाण्डे रूपचन्द, खटोलना गीत, अनेकान्त वर्ष १०, किरण २, पृ० ७६ । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन प्रसन्न हुए हैं और अपनी कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए उन्होंने कहा, "सतगुरुकी महिमा अनन्त है, उन्होंने अनन्त उपकार किया है, क्योंकि उन्होंने मेरे अगणित ज्ञानचक्षुओंको खोलकर असीम ब्रह्मका दर्शन कराया है।" एक दूसरे स्थानपर उन्होंने लिखा, "मैं तो अज्ञानसे भरी लौकिक मान्यताओं और पाखण्डसे ओत-प्रोत वेदके पीछे चला जा रहा था कि सामने सतगुरु मिल गये और उन्होने ज्ञानका दीपक मेरे हाथमे दे दिया।" हृदयमें ज्ञानका प्रकाश करनेवाला गुरु भगवान्को कृपासे मिलता है । जैन सन्त चतरुमलने जादौराय भगवान् नेमीश्वरके गुण गानेसे ही गुरु गौतमके प्रसादको पाना स्वीकार किया है। सतगुरुका मिलना तभी सार्थक होगा, जबकि शिष्यका हृदय भ्रम, संशय और मिथ्यात्वसे ओत-प्रोत न हो। यदि ऐसा होगा तो सतगुरुका उपदेश उसके हृदयमें पैठेगा नहीं। यद्यपि आत्माका स्वभाव ज्ञान है किन्तु सांसारिक मिथ्यात्वसे युक्त होनेके कारण उसे सतगुरुका अमृतमय उपदेश भी रुचता नहीं। इसीको पाण्डे रूपचन्दने बड़े ही सरस ढंगसे उपस्थित किया है, "चेतन अचरज मारी, यह मेरे जिय आवै अमृत वचन हितकारी, सद्गुरु तुमहिं पढ़ावै सदगुरु तुमहिं पढ़ावै चित दै, अरु तुमहूं हो ज्ञानी तबहूं तुमहिं न क्यों हूं आवै, चेतन तत्त्व कहानी ।" सन्त कबीरदासके भी ऐसे ही विचार है, "सतगुरु वपुरा क्या कर सकता है, यदि 'सिख' ही में चूक हो। उसे चाहे जैसे समझाओ, सब व्यर्थ जायेगा, ठीक वैसे ही जैसे फूंक वंशीमें ठहरती नहीं, अपितु बाहर निकल जाती है। कवि १. सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार । लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार ॥ कबीरदास, गुरुदेव को अंग, तीसरी साखी, कबीर ग्रन्थावली, चौथा संस्करण, पृ०१। २. पीछ लागे जाइ था, लोक वेद के साथि । आगे थे सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि ॥ देखिए वही, ११वीं साखी, पृ० २। ३. गुरु गौतम मो देउं पसीउ, जो गुन गाउं जादुराय । चतरुमल, नेमीश्वर गीत, मंगलाचरण, प्रशस्ति संग्रह, जयपुर, पृ० २३१ । ४. परमार्थ जकड़ी संग्रह, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९११, पहला पद्य, पृ०१ । ५. कबीरदास, गुरुदेव को अंग, २१वी साखी, कबीर ग्रन्थावली, पृ०३। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि बनारसी दासने 'अध्यात्म बत्तीसी'में लिखा है, "सहजमोह जब उपशमै, रुच सुगुरु उपदेश । तब विभाव भवथिति घट, जगै ज्ञान गुण लेश।" सतगुरुकी देशना आस्रवोंके लिए दीवार, कर्म कपाटोंको उघाड़नेवाली और मोक्षके लिए पैड़ीका काम करती है, किन्तु केवल उन्हीके लिए जिनको भवथिति घट गयी है, मूढ तो उसका लेशमात्र भी नहीं समझता। इस भव-समुद्रसे पार करानेके लिए गुरुको जहाज बनानेकी बात भी बहुत पुरानो है । सत्तरहवीं शताब्दीके जैन कवि हेमराजने 'गुरु-पूजा' के प्रारम्भमे ही गुरु महाराजको महामुनिराजकी उपाधिसे विभूषित करते हुए कहा, "चहुँगति दुख सागर विषै, तारन तरन जिहाज । रतनत्रय निधि नगन तन, धन्य महामुनिराज।" अर्थात् इस दुःख-सागरसे पार करनेके लिए महामुनिराज ही जहाजरूप है। अठारहवीं शताब्दीके कवि भूधरदासने उस गुरुको मनमें बसानेकी अभिलाषा प्रकट की है, जो 'भव-जलधि-जिहाज' है। ऐसे ऋषिराज गुरु स्वयं भी तिरते है और दूसरोंको भी तारते है। इसी शताब्दीके श्री द्यानतरायने भी अपने 'द्यानत विलास' मे गुरुको जहाज़ बनाते हुए लिखा है, "तारन तरन जिहाज सुगुरु है, सब कुटुम्ब डोवै जगतोई । धानत निशि दिन निरमल मन मे, राखो गुरु-पद पंकज दोई।"* सन्त दरिया साहबने सतगुरुरूपी जहाजपर ही अधिक विश्वास किया है, उन्होने लिखा है, "संसाररूपी दरिया अगम्य है, सतगुरुरूपो जहाजपर अपने हंसको चढ़ाकर उसे पार कर जाओ, तभी १. बनारसीदास, अध्यात्म बत्तीसी, बनारसीविलासे, जयपुर, २७वॉ पद्य, पृ० १४६ । २. यह सतगुरु दी देशना, कर आस्रव दीवाड़ि। लद्धी पैडि मोखदी, करम कपाट उघाड़ि॥ भवथिति जिनको घट गई, तिनको यह उपदेश । कहत 'बनारसिदास' यों, मूढ़ न समुझे लेश ॥ बनारसीदास, मोक्षपैड़ी, बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०, दोहा २३-२४, पृ० १३६ । ३. पाण्डे हेमराज, गुरुपूजा, पहला दोहा, बृहन्जिनवाणी संग्रह, १९५६ ई०, पृ० ३०६। ४. ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जिहाज । आप तिर पर तारहीं, ऐसे श्री ऋषिराज ॥ भूधरदास, 'ते गुरु मेरे मन बसो' पद, अध्यात्म पदावली, भारतीय शानपीठ, काशी, पृ०५४। ५. यानतराय, धानतविलास, कलकत्ता, पद २३वाँ, पृ० १५ । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन ર सुख- राज करने में समर्थ हो सकोगे । सन्त पलटू साहबने भी गुरुके परोपकारी स्वभावको समझकर ही यह कहा है कि भवसागर से तरनेके लिए गुरुरूपी जहाज ही सर्वोत्तम उपाय है। कबीरदासने कहा कि जिसने गुरुरूपी जहाजको छोडकर अन्य किसी बेड़ेसे इस भव-समुद्रको पार करनेका प्रयास किया, वह सदैव असफल रहा, और यह निश्चित है कि उसका बेड़ा किसी-न-किसी औघट घाटपर अवश्य डूबेगा 3 ४६५ गुरुने केवल ज्ञान ही नहीं, अपितु भक्ति भी दी है, अर्थात् गुरुको कृपासे ही शिष्य भगवान्को भक्तिमे प्रवृत्त हो सकता है । पाण्डे हेमराजने गुरुके इस भक्तिप्रदाता गुणपर विश्वास करके ही उनसे भरपूर भक्तिकी याचना की है। उन्होने गुरुका वर्णन करनेमे अपनी असमर्थता दिखाते हुए कहा, "मै गुरुका भेद कहाँतक कहूँ । मुझमे बुद्धि थोड़ी है और उनमें गुण बहुत अधिक है। हेमराजकी तो इतनी ही प्रार्थना है कि इस सेवकके हृदयको भक्ति से भर दो ।" कबीरदासने तो स्पष्ट ही गुरुको भक्तिका देनेवाला माना है। उन्होंने कहा, "ज्ञान भगति गुरु दीनी ।"" 'ज्ञान और योगके साथ-साथ भाव-भक्ति भी कबीरदासके अन्तर्जगत्की अन्यतम विभूति थी । और उसको उन्होंने अपने गुरुकी देनके रूपमे स्वीकार किया है। उनके गुरु रामानन्द थे और उन्होंने कहा, "भक्ति द्राविण ऊपजी लाए रामानन्द | परगट किया कबीरने सप्तदीप नव खण्ड ।" दादू साहबने ललचाते हुए घोषित किया, "यदि सद्गुरु मिल जाये, तो भक्ति और मुक्ति दोनों ही के १. त्रिलोकीनारायण दीक्षित, सन्तदर्शन, साहित्यनिकेतन, कानपुर, १६५३ ई०, पृ० २६, पादटिप्पण १ । २. भवसागर के तरन को पलटू संत जहाज । पलटू साहब, गुरुका अंग, १६वी साखी, सन्तसुधासार, दिल्ली, दूसरा खण्ड, पृ० २६७ । ३. ता का पूरा क्यों, गुरु न लखाई बाट । ताको बेड़ा बूड़िहै, फिर फिर औघट घाट | कबीरदास, गुरुदेव कौ अंग, संत सुधासार, पहला खण्ड, २०वीं साखी, पृ० १२० । ४. कहाँ कहाँ लौ भेद मैं, बुध थोरी गुन भूर । • हेमराज सेवक हृदय, भक्ति करो भरपूर ॥ पाण्डे हेमराज, गुरु-पूजा, जयमाला, ७वॉ पद्य, १६५६ ई०, पृ० ३१३ । ५. कबीर ग्रन्थावली, डॉ० श्यामसुन्दरदास सम्पादित, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, चतुर्थ संस्करण, परिशिष्ट, पदावली तीसरा पद, पृ० २६४ ॥ ६. डॉ० गोविन्द त्रिगुणायत, कबीरकी विचारधारा, कानपुर, वि० सं० २००६, पृ० ३२४ । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि भण्डार उपलब्ध हो सकते हैं। दादूका कथन है कि सतगुरुके मिलनेसे साहबका दोदार तो सहजमें ही मिल सकता है।" जैन साहित्यमे गुरु-भक्तिके अनेकानेक सरस उदाहरण उपलब्ध होते है । सत्तरहवीं शताब्दीके महाकवि समयसुन्दर गुरु राजसिंहसूरिकी भक्तिमें भावविभोर होते हुए कह उठे, "मेरा आजका दिन धन्य है । हे गुरु ! तेरे मुखको देखते ही जैसे मेरी तो समूची पुण्यदशा ही प्रकट हो गयी है। हे श्री जिनसिंहसूरि ! मेरे हृदयमे सदैव तू ही रहता है और स्वप्न में भी तुझे छोड़कर अन्य दिखाई नहीं देता। मेरे लिए तो तुम ऐसे ही हो जैसे कुमुदिनीके लिए चन्द्र, जिसको दूर होते हुए भी कुमुदिनी समीप ही समझती है। तुम्हारे दर्शनोंसे आनन्द उत्पन्न होता है, और मेरे नेत्र प्रेमसे भर जाते है । जीव तो सभीको प्यारा होता है, किन्तु मुझे तुम उससे भी अधिक प्रिय हो।" श्री कुशललाभने आचार्य पूज्यबाहणकी भक्ति में जिस सरसताका परिचय दिया है वह कम ही स्थानोंपर मिलती है । आषाढ़के आते हो चौमासेका प्रारम्भ हुआ और पूज्यबाहण त्रम्बावतीमें पधारे। उस समयका भक्तिसे भरा एक चित्र देखिए, "आषाढ़के आते ही दामिनी झबूके लेने लगी, कोमल कामिनियां अपने प्रीयडाकी बाट जोहने लगी, चातक मधुर ध्वनिमे 'पीउ पीउ' का उच्चारण करने लगा और सरोवर बरसातके विपुल जलसे भर गये। इस अवसरपर महान् श्री पूज्यबाहणजी श्रावकोंको सुख देने के लिए त्रम्बावतीमे आये । वे दीक्षारमणीके साथ रमण करते है और उनमें हर किसीका मन बंधकर रह जाता है। उनके प्रवचनमें कुछ ऐसा आकर्षण है कि उसे सुनकर वृक्ष भी झूम उठे हैं, कामिनी कोकिल गुरुके ही गीत गाने लगी है, गगन गूंज उठा है, १. सदगुरु मिले तो पाइये भक्ति मुक्ति भंडार।। दादू सहजै देखिए साहिब का दीदार ॥ दादू गुरुदेव को अंग, त्रिलोकीनारायण दीक्षित, सन्तदर्शन, कानपुर, पृ० २२, पादटिप्पण ३ । २. आज कु धन दिन मेरउ। पुन्य दशा प्रगटो अब मेरी, पेखतु गुरु मुख तेरउ ॥ श्री जिनसिंह सूरि तुहि मेरे जोउ मे, सुपनइ भई नहींय अनेरो। कुमुदिनो चन्द जिसउ तुम लोनउ, दूर तुही तुम्ह नेरउ ॥ तुम्हारइ दरसण, आणंद उपजती, नयनको प्रेम नवेरउ । 'समय सुन्दर' कहइ सब कुंबलभ, जीउ तुं तिनथइ अधिकेरउ ॥ समयसुन्दर, जिनसिंह सरिगीतम् , ७वॉ पद्य, ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह, अगरचन्द नाहटा सम्पादित, कलकत्ता, पृ० १२६ । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन ४६७ और मयूर तथा चकोर भी प्रसन्न होकर नाच उठे हैं । गुरुके ध्यानमें स्नान करके ही शीतल लहर बहने लगी है । गुरुकी कीर्ति और सुयशसे ही सम्पूर्ण संसार महक रहा है । विश्वके सातों क्षेत्रोंमें धर्म उत्पन्न हो गया है । श्री गुरुके प्रसादसे सदा सुख उत्पन्न होता है ।" "आन्यो मास असाढ़ झबूके दामिनी रे | जीवद्द जोवइ प्रीयडा वाट सकोमल कामिनी रे ॥ चातक मधुरइ सादिकि प्रीऊ प्रीऊ उचरइ रे । बरसइ घण बरसात सजक सरवर भरइ रे ॥ इण अवसर श्रीपूज्य महामोटा जती रे । श्रावकना सुख हेत आया त्रम्बावती रे ॥ जोव श्रम गुरु रीति प्रतीति वधइ वली रे ! दिक्षा रमणी साथ रमइ मननी रली रे ॥ प्रवचन वचन विस्तार अस्थ तणवर घणा रे 1 कोकिल कामिनी गीत गायइ श्री गुरु तणा रे ॥ गाजइ गगन गंभीर श्री पूज्यनी देशना रे । भवियण मोर चकोर थायइ शुभ वासना रे ॥ सदा गुरु ध्यान स्नान लहरि शीतल बहइ रे । कीर्त्ति सुजस विसाल सकल जग महमहइ रे ॥ साते खेत्र सुठाम सुधर्मह नीपजइ रे । श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख संपजइ रे ॥" " श्री साधुकीर्तिने गुरु जिनचन्द्रसूरिकी भक्ति में एक राग मल्हारका निर्माणकिया था । उसमें एक शिष्य आनेवाले गुरुको देखनेके लिए ठीक वैसे ही बेचैन है जैसे कोई प्रोषित्पतिका आनेवाले पतिको देखनेके लिए बेचैन हो उठती है। उन्होंने कहा, "हे सखि ! मेरे लिए तो वह ही अत्यधिक सुन्दर है, जो यह बता दे कि हमारे गुरु किस मार्ग से होकर पधारेंगे। श्रीगुरु सभीको सुहावने लगते हैं और वे जिस पुरमें आ जाते हैं, वह तो जैसे 'शोभा' ही हो जाता है । उनको देखकर हर कोई जयजयकार किये बिना नहीं रहता । जो गुरुको आवाजको भी जानता है, वह मेरा साजन है । गुरुको देखकर ऐसी प्रसन्नता होती है जैसे चन्द्रको देखकर चकोरको और सूर्यको देखकर कोकको । गुरुके दर्शनोंसे हृदय सन्तुष्ट, पुण्य पुष्ट और मन १. देखिए कुशललाभ, श्रीपूज्यवाहणगीतम्, पद्य ६१-६४, ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह, अगर चन्द नाहटा सम्पादित, कलकत्ता, पृ० ११६-११७ । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि प्रसन्न होता है । अन्तमें व्याकुल होकर वह पुकार उठता है कि हे निर्द्वन्द्वी श्री जिनचन्द्र ! प्रमोदी होकर शीघ्र ही आ जाओ, तुम्हे देखकर मेरा हृदय जैसे अनिर्वचनीय रसका ही आनन्द ले उठेगा ।" ४६८ ? इस भांति गुरुके विरह में शिष्यको बेचैनी और मिलनमें अपार प्रसन्नता, जैसी जैन कवि अंकित कर सके, निर्गुनिए सन्त नही । उन्होंने इस ओर ध्यान भी नही दिया । कबीर आदि सन्तोंमे भावपरकताका अभाव है और जैन कवियोंकी भावुकता सतगुरु के लिए भी, भगवान्की भांति ही मुखर हो उठी है । शिष्यका विरह पवित्र प्रेमका द्योतक है। जैनोंका सतगुरु प्रेमास्पद भी है । सन्त साहित्यमे 'सबद को अंग का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । शब्द ब्रह्मको कहते है । शब्द-ब्रह्मकी धारणा बहुत प्राचीन है । ऋग्वेद (१।१६४|१० ) पर इसकी चर्चा हुई है । समाधिपाद ( २५वीं सूत्र ) में ईश्वरका वाचक ओंकार शब्द ही है । 'माण्डूक्योपनिषद्' और 'कठोपनिषद्' ( १।२।१६ ) मे भी 'ओंकार' की महिमाका निरूपण है। जैन आचार्य सहस्रों वर्ष पहलेसे ही ओकारके ध्यानकी बात कहते चले आये है । आचार्य कुन्दकुन्दके 'समयसार' के प्रारम्भ में ही, "ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमोनमः ॥" दिया हुआ है । जैन हिन्दी कवियोने 'ॐकार' को एक परम गूढ़ पद कहा है । मूढ़ व्यक्ति उसके भेदको नही जानते । सतगुरुकी कृपा ही उसका रहस्य समझाने में समर्थ है | पं० दौलतरामने ॐकारकी महिमाका वर्णन करते हुए लिखा है, ॐकार परम रस रूप, ॐकार सकल जग भूप । ॐकार अखिल मत सार, ॐकार निखिल तत धार ॥ ॐकार सबै जग मूल, ॐकार भवोदधि कूल । ॐकार मयी जगदीस, ॐकार सु अक्षर सीस ॥ २ कबीरदासकी दृष्टिमे सतगुरु वह ही है, जो शब्दबाणको सफलतापूर्वक चला सके, और जिसके लगते ही शिष्यका मोह जाल विदीर्ण हो जाये । जैन सतगुरु बाण नहीं चलाता, अपितु उसके कोमल वचनोंसे ही शिष्य वीणा-नादको सुनकर १. साधुकीति, श्री जिनचन्दसूरि गीतानि, नं० ३, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, अगरचन्द नाहटा सम्पादित, कलकत्ता, पृ० ६१ । २. पं० दौलतराम, अध्यात्म बारहखड़ी, हस्तलिखित प्रति, बडा मन्दिर, जयपुर, प्रारम्भ, छन्द चौपाई, ४–५ । ३. सतगुरु लई कमांण करि, बाँहण लागा तीर । 7 एक जु बाह्या प्रीति सूँ, भीतरि रह्या सरीर ॥ कबीर ग्रन्थावली, गुरुदेव कौ अंग, ६ठी साखी, पृ० १ । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन ४६९ मृगकी भाँति रोझ जाता है । वे कोमल वचन शिष्यके हृदयसे मोहरूपी विष दूर कर देते हैं, और वहीं अनुभवरूपी अमृतका स्रोत बह उठता है । अनादिका तमस नष्ट हो जाता है और सुप्रकाशकी लहर चल पड़ती है ।' अर्थात् जैन शिष्यका भी मोह जाल विदीर्ण होता है, किन्तु ऐसा करनेके लिए जैन गुरु हिंसाका नही, अहिंसाका प्रयोग करता है । बाह्य आडम्बरोंका विरोध मध्य युग जैनोंमे भी बाह्य कर्म-कलाप इतने अधिक बढ़ गये थे कि उन्हींको जैनधर्मकी संज्ञा दे दी गयी। महावीरकी दिव्यवाणी दब गयी । सम्यक्त्व निरस्त हो गया । अचेतनको चेतन समझने में जैन भी पीछे नहीं रहे। दसवींग्यारहवी शताब्दी के जैन सन्तोंने अपभ्रंश भाषाके माध्यमसे इन बाह्य आडम्बरोंका निर्भीकता से विरोध किया। उनमें मुनि रामसिंहका नाम सर्वोपरि है । उनके विषय में श्री वियोगी हरिका कथन है, "धर्मके नामपर जो अनेक बाह्य आडम्बर और पाखण्ड प्रचलित हुए, उन सबका इस जैन सन्तने प्रबल खण्डन किया ।” मुनि रामसिंहने एक स्थानपर लिखा है, "हे मुण्डितोंमे श्रेष्ठ ! सिर तो तूने अपना मुँड़ा लिया, पर चित्तको नही मुँड़ाया । संसारका खण्डन चित्तको मुँड़ानेवाला ही कर सकता है ।' तीर्थक्षेत्रोंके विषयमे उनका कथन है, "हे मूर्ख, तूने एक तीर्थसे दूसरे तीर्थमें भ्रमण किया और चमड़ेको जलसे धोता रहा, पर इस पापसे मलिन मनको कैसे घोयेगा ।"" योगीन्दु, देवसेन आदिने भी ऐसी ही ,3 १. कोमल वचन गुरु बोल मुख सेती सुध, सुन सम रीझे रीझे म्रिग सुनि नादि का । अनुभव अम्रत सो मोह विष दूर करें, करें सुप्रकास तम मेटि के अनादि का || अध्यात्म सवैया, हस्तलिखित प्रति, आमेर शास्त्रमण्डार, जयपुर, २हवाँ पद्य । २. सन्त सुधासार, श्री वियोगी हरि सम्पादित, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, १९५३ ई०, पृ० १८ । ३. मुंडिय मुंडिय मुंडिया । सिरु मुंडिउ चित्तु ण मुंडिया । चित्त मुंडण जि कियउ । संसारहं खंडण ति कियउ ॥ पाहुडदोहा, १३५वाँ दोहा । ४. तित्त्थई तित्थ भमेहि वद धोयउ चम्मु जलेण । एहु मणु किम घोएसि तुहुं मइलउ पावमलेण ॥ वही, दोहा, १६३वॉ । ६० Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि बातें लिखी है, किन्तु उनका स्वर वैसा पैना नही है। जैन हिन्दीके भक्ति-काव्यमे भी ऐसी हो प्रवृत्तियोंके दर्शन होते है। उनपर जैन अपभ्रंशका प्रभाव स्पष्ट ही है। चौदहवीं शताब्दीकी प्रसिद्ध कृति 'आणंदा' में लिखा है, "संसारके मूर्ख जीव अनेकानेक तीर्थ-क्षेत्रोंमें घूम-घूमकर मरते है, किन्तु उन्हे यह विदित नहीं कि आनन्द शरीरको स्वच्छ करनेसे नहीं, अपितु आत्माको शुद्ध करनेसे मिलता है।" वह पद्य इस प्रकार है, अठ सठि तीरथ परिममइ मूढा मरहिं ममंतु । अप्पा विन्दु न जाणही, आनंदा घट महि देउ भणंतु ॥' निर्गुण काव्यधाराके कवि सुन्दरदासने भी ऐसी ही बात कही है। अठसठि शब्द दोनोंमें ही समान रूपसे प्रयुक्त हुआ है, सुन्दर मैली देह यह निर्मल करी न जाइ। बहुत भांति करि धोइ तू अठ सठि तीरथ न्हाइ ॥ चतुर्वर्णी व्यवस्थाके विरुद्ध जैन कवियोंका स्वर निर्गुनिए सन्तोंकी भांति ही तीखा है, किन्तु उनमे कडवाहट नही है। उन्होंने ब्राह्मणोंका विरोध करने के लिए जातिप्रथाका खण्डन नहीं किया, अपितु उनका विरोध आत्मसिद्धान्तपर आधारित था । भट्टारक शुभचन्द्र ( १६वीं शती ) ने 'तत्त्वसारदूहा' मे लिखा है, उच्च नीच नवि अप्पा हवि कर्म कलंक तणो की तु सोइ । बंभण क्षत्रिय वैश्य न शुद्र अप्पा राजा नवि होइ क्षुद्र ॥ अप्पा धनि नवि नवि निर्धन, नवि दुर्बल नवि अप्पा धन्न । मूर्ख हर्ष द्वेष नवि ते जीव, नवि सुखी नवि दुखी अतीव ॥ इसकी तुलनामें कबीरदासका यह कथन देखिए, जिसमें उन्होंने ब्राह्मणको सम्बोधन करते हुए कहा है, "जब हम दोनों एक ही ढंगसे उत्पन्न हुए हैं, तो १. आणन्दाकी हस्तलिखित प्रति, मस्जिदखजूर, जैन पंचायती मन्दिर, दिल्ली, तीसरा पद्य । २. सुन्दरदर्शन, किताबमहल, इलाहाबाद, १९५३ ई०, पृ० २४० । ३. मट्टारक शुभचन्द्र, तत्त्वसारदूहा, मन्दिर ठोलियान, जयपुरकी हस्तलिखित प्रति, पच ७०-७१। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन तुम ब्राह्मण कैसे हो गये और हम शूद्र कैसे बन गये। हम कैसे खून रह गये और तुम कैसे दूध हो गये।' सुन्दरदासने ब्राह्मण और शूद्रके अन्तरको गाल मारना लिखा है। जैनोंके महात्मा आनन्दघनके अनुसार राम, रहीम, महादेव, पार्श्वनाथ और ब्रह्ममे कोई भेद नहीं है, वे सब एक अखण्ड आत्माको खण्ड कल्पनाएं हैं। जैसे एक ही मृत्तिका भाजन-भेदसे नानारूप धारण करती है, वैसे ही एक आत्मामें अनेक कल्पनाओंका आरोपण किया जाता है। यह जीव जब निज पदमें रमे तब राम, दूसरोंपर रहम करे तब रहीम, करमोंको करशे तब कृष्ण और जब निर्वाण प्राप्त करे तब महादेवको संज्ञासे अभिहित होता है। अपने शुद्ध आत्मरूपको स्पर्श करनेसे पारस और ब्रह्माण्डकी रचना करनेसे इसको ब्रह्म कहते है। इस भांति यह आत्मा स्वयं चेतनमय और निष्कर्म है। कबीरदासने भी एक ही मनको गोरख, गोविन्द और औघड़ आदि नामोंसे अभिहित किया है। सन्त सुन्दरदासका कथन तो महात्मा आनन्दघनसे बिलकुल मिलता जुलता है। उनके अनुसार एक ही अखण्ड ब्रह्मकी भेदबुद्धिसे नाना १. तुम कत बाह्मन हम कत सूद । हम कत लोहू तुम कत दूध ॥ २. काहू सौं बांभन कहै, काहू सों चंडाल। सुन्दर ऐसौ भ्रम भयो, यों ही मारे गाल ॥ सन्त सुन्दरदास. स्वरूपविस्मरण कौ अंग, सन्तसुधासार, ५वाँ दोहा, पृ० ६५०। ३. राम कहो रहेमान कहो कोऊ, कान कहो महादेव री। पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव रो॥राम॥१॥ भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री । तैसें खंड कल्पना रोपित, आप अखंड स्वरूप री॥राम०॥२॥ निज पद रमे राम सो कहिए, रहिम करे रहेमान री। करशे कर्म कान सो कहिए, महादेव निर्वाण रो॥राम०॥३॥ परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री। इस विध साधो आप आनन्दघन, चेतनमय निःकर्म री॥राम०॥४॥ महात्मा मानन्दधन, आनन्दधन पद संग्रह, अध्यात्मशानप्रसारक मण्डल, बम्बई, पद ६७वाँ। ४. कबीर ग्रन्थावली, डॉ. श्यामसुन्दरदास सम्पादित, नागरी प्रचारिणी सभा. काशी, मन को अंग, १०वी साखी, पृ० २६ । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि संज्ञाएं होती हैं, जैसे एक ही जल वापो तड़ाग और कूपके नामसे, तथा एक ही पावक दीप, चिराग और मसाल आदि नामोंसे पुकारा जाता है। सन्त दादूदयालने एक ही मूलतत्त्वकी 'अलह' और 'राम' दो संज्ञाएँ की है । उन्होंने यहांतक लिखा है कि जो इनके मूलमे भी भेदको कल्पना करता है, वह झूठा है। जैन सन्तोने निर्मल आत्मामे केन्द्रित हुए मनको ही सर्वोत्तम कहा है । उनकी दृष्टिमे यदि इस जीवको शुद्ध आत्माके दर्शन नहीं होते, तो उपवास, जप, तप, व्रत और दिगम्बर दशा भी व्यर्थ ही है । उन्होने उस ज्ञानको भी निःसार कहा है, जिसके द्वारा आत्मदर्शन नहीं हो पाता। आत्मज्ञान ही सच्चा ज्ञान है, यदि वह नहीं तो अन्य सब ज्ञान निरर्थक है। इसी भावको लेकर बनारसीदासने लिखा है, "भेष में न ज्ञान नहिं ज्ञान गुरु-वर्तन में जंत्र मंत्र तंत्र में न ज्ञान की कहानी है । अन्य में न ज्ञान नहीं ज्ञान कवि चातुरी में, बातनि में ज्ञान नहीं, ज्ञान कहाँ बानी है ॥ ताते भेष गुरुता कवित्त ग्रन्थ मंत्र वात, इन ते अतीत ज्ञान चेतना निशानी है। ज्ञान ही में ज्ञान नहीं, ज्ञान और और कहीं ____ जाके घट ज्ञान सो ही ज्ञान को निदानी है।" यशोविजयजी उपाध्यायने भी लिखा है कि संयम, तप, क्रिया आदि सब कुछ शुद्ध चेतनके दर्शनोके ही लिए किया जाता है, यदि उनसे दर्शन नहीं होता, तो वे सब मिथ्या है । दर्शन तो अन्तरचित्तके भीगे बिना नहीं होता। जबतक अन्तःको 'लौ' शुद्ध चेतनमे न होगी, ये ऊपरी क्रिया-काण्ड व्यर्थ ही है, १. बापी तड़ागरु कूप नदी सब है जल एक सौ देषो निहारी ॥ पावक एक प्रकाश बहू विवि दीप चिराक मसालहु वारी । सुन्दर ब्रह्म विलास अखंडित भेद की बुद्धि सु टारी॥ सुन्दर ग्रन्थावली, स्व. पं० हरनारायण शर्मा सम्पादित, भाग २, ६४६।४ । २. अलह कहौ भाव राम कहो, डाल तजौ सब मूल गहौ। अलह राम कहि कर्म दही, झूठे मारग कहा बहो । सन्त दादूदयाल, शबद, ४३वॉ पद्य, सन्तसुधासार, पृ० ४४५. ३. कवि बनारसीदास, नाटकसमयसार, स्व. पं० जयचन्दजी-द्वारा भाषा-टीका कृत, सस्ती ग्रन्थमाला, दरियागंज देहली, सर्वविशुद्धि द्वार, ११२वों पद्य, पृ० ११३। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन "तुम कारन संयम तप किरिया, कहो कहां लों कोजे । तुम दर्शन बिनु सब या झंठी, अन्तर चित्त न मीजे ॥ चेतन अब मोहि दर्शन दीजे ॥" कवि भूधरदासने अन्तरकी उज्ज्वलताको प्रमुख माना है। यदि 'अन्तः' विषय कषायरूपी कीचड़से लिप्त है, तो तीर्थादिक कोई लाभ नहीं दे सकते । बाह्य वेषकी सफलता पवित्र हृदयपर निर्भर है। यदि मन कामादिक वासनाओंसे मलिन है, तो अधिकसे अधिक भजन करनेपर भी लक्ष्य प्राप्त न होगा। कवि द्यानतरायने भी अन्तःको शुद्धिके बिना प्रत्येक मासमें किये जानेवाले उपवास और कायाको सुखानेवाले तपको व्यर्थ माना है। ___ यहाँ कबीरदास आदि सन्त भी एकमत है। सन्त रज्जबदासने लिखा है कि यदि हृदय शुद्ध नहीं है, तो भगवान्का पूजा-पाठ भी व्यर्थ है । सन्त सुन्दरदासने 'ज्ञानझूलनाष्टक' मे हृदयको पवित्रताके बिना योग, याग, त्याग, वैराग्य, नाम, ध्यान और ज्ञान आदिको निःसार कहा है। कबीरदासका अभिमत है कि बिसवे अपने मनको भगवान्मे रंग लिया है, वह ही सच्चा योगी है, कपड़ा रंगवानेसे कोई लाभ नहीं। मनकी शुद्धिके बिना वह कान फड़वाकर और जटा-दाढ़ी बढ़ा१. कवि यशोविजयजी, 'चेतन अब मोहि दर्शन दीजे', अध्यात्मपदावली पू०, २२४, पं० राजकुमार सम्पादित, भारतीय शानपीठ, काशी।। २. जप तप तीरथ जज्ञ व्रतादिक, आगम अर्थ उचरना रे । विषय कषाय कीच नहिं धोयो, यों ही पचि पचि मरना रे॥ अन्तर उज्ज्वल करना रे भाई॥ कामादिक मल सौं मन मैला, भजन किये क्या तिरना रे? भूधर नील वसन पर कैसे, केसर रंग उछरना रे ? ____अन्तर उज्ज्वल करना रे भाई॥ भूधरविलासे, कलकत्ता, ३१वॉ पद, पृ० १७ । ३. मास मास उपवास किये तैं, काया बहुत सुखाई। . क्रोध मान छल लोभ न जोत्या, कारज कौन सराई ? तू तो समझ समझ रे भाई ॥ धानतविलास, कलकत्ता, ३२वाँ पद, पृ० १४ । ४. संतो ऐसा यहु आचार पाप अनेक करैं पूजा मे, हिरदै नहीं विचार ॥ सन्तसुधासार, सेन्त रज्जबजी, ४था पद, पृष्ठ ५१४ । ५. सेन्तसुधासार, सुन्दरदास, झूलनाष्टक, दूसरा पद्य, पृष्ठ ५६६ । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि कर बकरा तो हो सकता है, योगी नहीं । जंगलमे जाकर धूनी रमानेसे उसका कामदेव भले ही जल जाये, किन्तु वह योगी न कहलाकर हिजड़ा ही कहा जायेगा । मनकी शुद्धिके बिना यदि कोई सिर मुँड़ाकर और रंगे हुए कपड़े पहनकर गोता बाँचता है, तो वह लबार ही कहलायेगा, " मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा । कनवा फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौले । दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गइले बकरा ॥ जंगल में जाय जोगी धुनिया रमौले । काम जराय जोगी बनि गइले हिजरा ॥ मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ा रंगौले । गीता बांचि के होइ गइले लबरा || ۹٫ ४७४ शुद्ध मनकी भूमिका के बिना माला फिरानेको व्यर्थता जैन और अजैन दोनों ही सन्तोने समझी थी । कवि द्यानतरायका कथन है कि आसन मारकर मनका ले बैठ जानेसे बाहरी दुनियावाले रीझ सकते है, किन्तु इस बक- ध्यानसे आत्माका भला नहीं होगा । "कर मनका लै आसन भारचो बाहिज लोक रिझाई । कहा भयो बक ध्यान धरे तैं, जो मन थिर न रहाई ॥ तू तो समझ समझ रे भाई ॥ 2.,, कबीरदासने कोरी माला फिरानेको निष्प्राणतापर बहुत कुछ लिखा है । 'भेष कौ अंग' का आधेसे अधिक भाग मालाकी निःसारतासे ही युक्त है । काठ की माला फिरानेसे कुछ नहीं होता, मनकी माला फेरनी चाहिए, "माला पहिरे मनमुषी, ताथै कछू न होइ । उजियारा सोइ ॥ मन माला कौं फेरवा, जुग कबीर माला काठ को, कहि समझाचै तोहि । मन फिरा आपणां, का फिराने मोहि ॥ 311 मध्ययुगके साधुको पहचान मे दो बातें मुख्य है : जटा बढ़ाना अथवा सिर मुँड़ाना । मोक्ष तक पहुँचने के सोपानमे यह भी एक सीढ़ी मानी जाती थी । जैन सन्त उदयराज जतो ( १७वीं शती वि० सं० ) ने उसका खण्डन करते हुए १. कबीर, सबद, ६५वॉ पद, सन्तसुधासार, पृ० ६८ । २. द्यान पदसंग्रह, कलकत्ता, ३२वॉ पद, पृ० १४ । ३. कबीरग्रन्थावली, चतुर्थं संस्करण, काशी, 'मेष कौ अंग', साखी ३, ५, १०४५ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन ४७५ लिखा है, "अन्तःको निर्मल बनानेसे लक्ष्य मिलता है, बाह्य आडम्बरोसे नहीं। शिव-शिवका उच्चारण करनेसे क्या होता है, यदि काम, क्रोध और छलको नहीं जीता। जटाओके बढ़ानेसे क्या होता है, यदि पाखण्ड न छोड़ा। सिर मुंडानेसे क्या होता है, यदि मन न मुंडा। इसी प्रकार घर-बारके छोड़नेसे क्या होता है, यदि वैराग्यकी वास्तविकताको नही समझा।". भगवतीदास 'भैया'ने भी अपने अनेक पदोमे इस सिर मुंडानेकी निन्दा की है। उन्होने एक स्थानपर लिखा है, "निर्मल आत्मामे शुद्ध श्रद्धानके बिना केवल मूंड मुंडानेसे कुछ नहीं होता। उससे सिद्धि नहीं हो सकती।" उन्होंने यह भी कहा कि यदि सिद्धिके लिए मूंड़ मुंडाना ही पर्याप्त है, तो भेड़ोंको तो सबसे पहले तिर जाना चाहिए, क्योंकि उनका सारा शरीर प्रतिवर्ष मुंडा जाता है। भेड़का दृष्टान्त कबीरदासने भी दिया है। उनका कथन है, “यदि मूड़े मुंडानेसे सिद्धि हो जाती, तो भेड़ तो कभीकी मुक्त हो गयी होती, किन्तु उसे मोक्ष नहीं मिला इसे सभी जानते है ।" कबीरका विचार है कि केशोंने क्या बिगाड़ा है, जो उसे सौ-सौ बार मूड़ा जाता है। मनको क्यों नहीं मूड़ते, जिसमें विषय-विकार भरा हुआ है । दादूका भी कथन है कि मनको ही मूड़ना चाहिए, सिरको नहीं, काम-क्रोधको समाप्त करना चाहिए, केशोंको नहीं काटना चाहिए। १. उदयराज जती, गुणवावनी, पहला पध, जैन गुर्जर कविओ, तीजो भाग, पृ० ६७५-७६ । २. नाम मात्र जैनी पै न सरधान शुद्ध कहूं, मुंड के मुंडाये कहा सिद्धि भई बावरे । भगवतोदास 'भैया', ब्रह्मविलासे, बम्बई, फुटकर विषय, वॉ पद्य, पृ० २७४ । ३. शुद्धि तें मीन पिये पय बालक, रासभ अंग विभूति लगाये। राम कहे शुक, ध्यान गहे बक भेड़ तिरै पुनि मून्ड मुड़ाये ॥ वही, शत अष्टोत्तरी, ११वॉ पद्य, पृष्ठ १०। ४. मूंड़ मुंडाय जो सिधि होई, स्वर्ग हो भेड़ न पहुंती कोई ॥ कबीर ग्रन्थावली, चतुर्थ संस्करण, काशी, १३२वॉ पद, पृष्ठ १३० । ५. केसी कहा बिगाड़िया, जे मूंडे सौ बार । मन कौं काहे न मुंडिए, जामैं विषय विकार ॥ वही, मेष को अंग, १२वी साखी, पृष्ठ ४६ । ६. दादू, 'मन को अंग', ११वी साखी, सन्त सुधासार, पृष्ठ ४७४ । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि इस भांति जैन कवि और कबीर आदि सन्तोने समानरूपसे तीर्थभ्रमण, चतुर्वर्णी व्यवस्था, माला फिराना और सिर मूडना आदिका खण्डन किया, किन्तु जैसी अक्खड़ता और मस्ती कबीर आदि सन्तोंमे थी, जैन कवियोमे नहीं। जैनोंने विधायक दृष्टिको मुख्य माना और कबीरने निषेधात्मकको। इसी कारण उनकी बानियोंमें कड़वाहट अधिक है। इसके अतिरिक्त निर्गुनिए साधु बाह्य पक्षको दृष्टिसे कोरे थे, किन्तु जैन सन्त कवियोंकी न तो बानी अटपटी थी और न भाषा विशृंखल । उनका भावपक्ष सबल था, तो बाह्य पक्ष भी पुष्ट था। रहस्यवाद यदि आत्मा और परमात्माके मिलनकी भावात्मक अभिव्यक्ति हो रहस्यवाद है, तो वह उपनिषदोंसे भी पूर्व जैन-परम्परामे उपलब्ध होती है। यजुर्वेदमे ऋषभदेव और अजितनाथको गूढवादी कहा गया है। प्रो० आर० डी० रानाडेने अपनी पुस्तक 'मिस्टीसिज्म इन महाराष्ट्र' मे लिखा है कि जैनोंके आदि तीर्थंकर ऋषभदेवने अपनी शुद्ध आत्माका साक्षात्कार कर लिया था और वे एक भिन्न ही प्रकारके गूढ़वादी पुरुष थे। डॉ० ए० एन० उपाध्येने भी 'परमात्मप्रकाश' की भूमिकामे ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ आदि तीर्थंकरोंको गूढवादी कहा है। अपभ्रंश साहित्यकी 'परमात्मप्रकाश', 'पाहुड़दोहा' और 'सावयधम्म दोहा' नामकी प्रसिद्ध कृतियाँ रहस्यवादी कही जाती है। डॉ. हीरालाल जैनने उनपर आचार्य कुन्दकुन्दके 'भावपाहुड़' का प्रभाव स्वीकार किया है। अर्थात् उन्होंने लिखित रूपमे जैन रहस्यवादका प्रारम्भ वि० सं० की पहली शतीसे माना है। 'भावपाहुड़ से प्रभावित होनेपर भी अपभ्रंशकी कृतियोंमे योगात्मक रहस्यवादका स्वर प्रबल है, जब कि 'भावपाहुड़' मे भावात्मक अभिव्यक्तिको प्रमुखता है । मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य दोनों हो से प्रभावित है, किन्तु उसमें भावात्मकता अधिक है और तन्त्रात्मकता कम । यद्यपि उसमे तन्त्रवादियोके शब्द और प्रयोग मिलते हैं, किन्तु अपभ्रंशकी अपेक्षा बहुत कम । चाहे अपभ्रंश हो या हिन्दी, जैन 1. R. D. Ranade, Myrticirm in Maharashtra, Aryabhushan __Pressoffice, shanwar Peth, Poona. 2, Page-9, 2. Parmatma. Prakasa. and yogasara, dr. A. N. upobhye edited, Parama-sruta-Prabhavaka-Mandala,' Bombay, 1937, introduction, P. 39. ३. पाहुड़दोहा, डॉ. हीरालाल जैन सम्पादित, कारंजा, १९३३ ई०, भूमिका, डॉ. हीरालाल लिखित, पृ० १६ ॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन १७७ कृतियोके तन्त्रात्मक रहस्यवादमे गुह्य समाजको विकृति नहीं आ पायी है। जैन हिन्दी कवि और कबीर आदि सन्तोंके रहस्यवादमै अन्तर यह है कि जैन रहस्यवादियोंको आत्मा अनुभूतिके द्वारा ब्रह्ममे लीन नहीं होती, क्योकि वह ब्रह्मका एक खण्ड अश नहीं है। वह स्वयं ब्रह्म हो जाती है, जब कि कबीरकी आत्माको एक अंश होनेके कारण, ब्रह्मरूप अंगोमे मिल जाना होता है । यद्यपि दोनोका ब्रह्म घटमे विराजमान है, किन्तु एकका ब्रह्म जीवात्माका ही शुद्ध रूप है, जब कि दूसरेका जीवात्मासे भिन्न तत्त्व ।। ___यहां प्रश्न यह है कि आत्मा ही 'अनुभूत तत्त्व' और 'अनुभूति कर्ता' दोनों कैसे हो सकती है। इसका उत्तर जैन आचार्योके द्वारा निरूपित आत्माके तीन भेदोंमे उपलब्ध होता है। 'बहिरातमा' वह है, जो ब्रह्मके स्वरूपको नहीं देख सकता, पर द्रव्यमे लीन रहता है और मिथ्यावन्त है । 'अन्तरातमा'मे ब्रह्मको देखनेकी शक्ति तो उत्पन्न हो जाती है, किन्तु वह स्वयं पूर्ण शुद्ध नहीं होता। 'परमातमा' आत्माका वह रूप है, जिसमे शद्ध स्वभाव प्रकट हो गया है, और जिसमे सब लोकालोक झलक उठे हैं। रहस्यवादमे आत्माके दो ही रूप काम करते है: एक तो वह. जो अभी परमात्मपदको प्राप्त नहीं कर सका है और दूसरा वह, जो परमात्मा कहलाता है। पहलेमे 'बहिरातमा' और 'अन्तरातमा' शामिल है और दूसरेमे केवल 'परमातमा'। पहला 'अनुभूतिकर्ता' है और दूसरा 'अनुभूति तत्त्व'। कबीरने ब्रह्मके सौन्दर्यको केवल घटके भीतर तक ही सीमित रखा है, जब कि जैन कवियोंके ब्रह्मके सौन्दर्यसे प्रकृतिका कण-कण प्रकाशित हो रहा है। जायसी १. मिलाइए, "जैनधर्ममे आध्यात्मिक-अनुभवसे मतलब एक विभक्त आत्माका एकत्वमे मिल जाना नहीं है, किन्तु उसका सौमित व्यक्तित्व उसके सम्भावित परमात्मका अनुभवन करता है।" परमात्मप्रकाश, Introduction, हिन्दी अनुवाद, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री कृत, पृ० १०५। २. बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद् बहिस्त्यजेत् ॥ आचार्य पूज्यपाद, समाधितन्त्र, वोर सेवा मन्दिर दिल्ली, ४था श्लोक। ३. बहिरात्मा शरीरादो जातात्मभ्रान्तिरान्तरः। चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः परमात्माऽतिनिर्मलः॥ वही, पाँचवॉ श्लोक। ६१ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि कवियोंके ब्रह्मके आराधकोंने 'प्रेमके 'अमली' उसीको माना है, जिसने ब्रह्म भी ऐसा ही है । जायसी और जैन प्याले' खूब पिये है | कवि भूधरदासने सच्चा प्रेमका प्याला पिया है, " "गांजारु मांग अफीम है, दारू शराबा पोशना । प्याला न पीया प्रेम का, अमली हुआ तो क्या हुआ ॥ महात्मा आनन्दघनने लिखा है कि प्रेमके प्यालेको पीकर मतवाला हुआ चेतन हो परमात्माकी सुगन्धि ले पाता है, और फिर ऐसा खेल खेलना है कि सारा संसार तमाशा देखता है । यह प्याला ब्रह्मरूपी अग्निपर तैयार किया जाता है, जो तनकी भट्टीमें प्रज्वलित हुई है, और जिसमे से अनुभवकी लालिमा सदैव फूटती रहती है, २,, "मनसा प्याला प्रेम मसाला, ब्रह्म अग्नि पर जाली । तन भाटी श्रवटाई पिये कस, आगे अनुभव लाली ॥ श्रगम प्याला पीयो मतवाला, चिन्ही अध्यातम वासा । आनन्दघन चेतन है खेले, देखे लोक तमासा ॥ जायसीके प्याले मे बेहोशी अधिक है । एक प्याला पीकर ही इतना नशा आता है कि होश नही रहता । जैनके प्यालेमे मस्ती अधिक है, बेहोशी कम, इसी कारण वे सामने खड़े प्रेमास्पदको देख सकने मे भी समर्थ हो पाते है । रत्नसैन तो प्रेमकी बेहोशी मे पद्मावतीको पहचानना तो दूर रहा, देख भी न सका, किन्तु उसने शून्य दृष्टिके मार्ग से ही प्राणोको समर्पित कर दिया । "जोगी दृष्टि दृष्टि सों लीना, नैन रोपि नैनहिं जिउ दीन्हा । जाहि मद चढ़ा परातेहि पाले, सुधि न रही ओहि एक प्याले ॥ कि वह जिसके लगा 3,, । 'प्रेमका तीर' तो ऐसा पैना है अन्य सन्त, जहाँका तहाँ रह गया और कूं, कहा समझाऊँ भोर । कबीरने भी लिखा है, "सारा बहुत पुकारिया, - चाहे वह जैन हो या महात्मा आनन्दघनकी दृष्टिमें, "कहा दिखावू तीर अचूक है प्रेम का लागे सो रहे ठौ ।” पीड़ पुकारें और । लागी चोट १. भूधरदास, भूधरविलास, कलकत्ता, ५०वी राजल, पृ० २८ । २. श्रानन्दघनपदसंग्रह, अध्यात्मज्ञान प्रसारक मण्डल, बम्बई, २८वाँ पद । ३. जायसी ग्रन्थावली, पं० रामचन्द्र शुक्ल सम्पादित, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, तृतीय संस्करण, वि० सं० २००३, वसन्त खण्ड, १२वी चौपाई, पृ० ८४ ४. आनन्दघनपदसंग्रह, ४था पद, पृ० ७ । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन १७९ सबद की, रह्या कधीराठौर ॥" जायसीने प्रेम-बाणके घावको अत्यधिक दुःखदायी माना है। जिसके लगता है, वह न तो मर हो पाता है और न जीवित ही रहता है । बड़ी बेचैनी सहता है। परमात्माके विरहमे 'खिलवाड' नहीं आ सकती, किन्तु फिर भी निर्गुनिए सन्तोकी अपेक्षा जैन कवियोमें संवेदनात्मक अनुभूति अधिक है । कबीरके 'विरह भुजंगम पेति कर किया कलेजे घाव, साधु अंग न मोडही, ज्यों भाव त्यों खाय ।' से आनन्दघनका पीया वीन सुध बुध खूदी हो, विरह भुअंग निवासमे, मेरी सेजड़ी बूंदो हो। अधिक हृदयके समीप है। इसी भांति कबीरके 'जैसे जल बिन मीन तलफै, ऐसे हरि बिनु मेरा जिया कलपै।" से बनारसीदासके 'मै विरहिन पिय के आधीन, यो तलफौ ज्यो जल बिन मीन।' में अधिक सवलता है। जैन और अजैन सन्त ___ अधिकांशतया अजैन सन्त निम्नवर्गमे उत्पन्न हुए थे, जब कि जैन सन्तोंका जन्म और पालन-पोषण उच्च कुलमे हुआ था। अतः जैन सन्तोंके द्वारा जातिपातिके खण्डनमे अधिक स्वाभाविकता थी। उन्होंने जन्मतः उच्चगोत्र पाकर भी समताका उपदेश दिया, यह उस समयके उच्चकुलीन 'अहं के प्रति एक प्रबल चुनौती थी। जैन सन्त पढ़े-लिखे थे, उन्होने जैन साहित्यका विधिवत् अध्ययन किया था, किन्तु निर्भीकता दोनोंमें समान थी। ___ अजैन सन्त आजीविकाके लिए कुछ-न-कुछ उद्योग अवश्य करते थे, किन्तु अपभ्रंशके जैन सन्त मुनि या साधु थे। जैन हिन्दीका सन्त-साहित्य रचनेवालोंमें बनारसीदास, द्यानतराय, भूधरदास, भगवतीदास प्रभृति व्यापारादिका कार्य करते थे, किन्तु कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने मुनिपद धारण किया था। उनमें 'सूरि', 'उपाध्याय' और 'भट्टारक' अधिक थे। मुनि विनयचन्द, भट्टारक शुभचन्द, यशोविजय उपाध्याय, महात्मा मानन्दधन और मुनि ब्रह्मगुलाल प्रमुख थे । १. कवीर ग्रन्थावली, चतुर्थ संस्करण, सबद को अंग, प्वाँ दोहा, पृ० ६४ । २. प्रेमघाव दुख जान न कोई । जेहि लागै जान तै सोई ॥ कठिन मरन ते प्रेम बेवस्था। ना जिउ जिय, न दसर्व अवस्था । जायसी ग्रन्थावली, प्रेमखण्ड, पहली चौपाई, पृ०४६ । ३. कबीर ग्रन्थावली, चतुर्थ संस्करण, विरह को अंग,१६वी साखी, पृ०६। ४. आनन्दधनपदसंग्रह, श्वॉ पद, प्रथम दो पंक्तियाँ। ५. सेन्तसुधासार, कबीरदास, 'सबद' ३८वाँ पद, पृ० ७६ । ६. बनारसीविलास, अध्यात्मगीत, तीसरा पद्य, पृ० १५६ । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अजैन सन्त तनमें एक लम्बा-सा झगूला और सिरपर पल्लेदार टोपी पहनते थे, जब कि जैन सन्तोकी वेष-भूषा अपनी ही पूर्व परम्पराके अनुकूल थी। सन्त आनन्दघनके विषयमे यह निश्चय हो गया है कि वे झंगूला नही पहनते थे, अपितु उनकी वेष-भूषा जैन साधुकी थी। २. जैन आराधना और सगुण भक्ति सूर और तुलसी सगुण ब्रह्मके भक्त थे। सगुण ब्रह्म वह है, जिसने पृथ्वीपर अवतार लिया है, जिसमे रूप-रेखा है, जो व्यक्त और स्पष्ट है। जैन कवियोंने अपनी उपासनाके पुष्प अर्हन्तके चरणोमे अर्पित किये है । अर्हन्त वे है, जिन्होंने पहले तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया हो, किन्तु फिर भी उनको अवतार नहीं कहा जा सकता। वे तप और ध्यानके द्वारा भयकर परीषहोको सहते हुए चार धातिया कर्मों को जला पाते हैं, तब कही अर्हन्त कहलानेके अधिकारी होते है। अर्थात् ब्रह्म पहले ही से भगवान है, किन्तु अर्हन्त स्वपौरुषसे भगवान् बनते है। इसके अतिरिक्त सगुण ब्रह्म विश्वके कर्ता है, जब कि अर्हन्तमे केवल प्रेरणाजन्य कर्तत्व ही पाया जाता है । किन्तु साकारता, व्यक्तता और स्पष्टताको दृष्टिसे दोनोमे कोई अन्तर नही है। अतः जैन भक्तिक्षेत्रमे अर्हन्त सगुण ब्रह्मके रूपमे ही पूजे जाते है। __ अर्हन्तमें साकारता इसलिए है कि आयुकर्म क्षीण होने तक उनका शरीर अवशिष्ट है । सिद्ध, आयुकर्मके नष्ट हो जानेसे, शरीरको त्याग कर, शुद्ध आत्मरूपमे सिद्धशिलापर विराजते है, अतः वे निराकार है । सिद्धने आठो कर्मोका क्षय कर लिया है, जब कि अर्हन्तको चार अघातिया कर्म नष्ट करने हैं। सिद्ध अर्हन्तसे बड़े है, किन्तु जैनोंके प्रसिद्ध मन्त्र ‘णमो अरिहन्ताणं' मे पहले अर्हन्तोको १. आचार्य क्षितिमोहनसेनने 'जैनमरमी आनन्दधनका काव्य' नामके निबन्धमें लिखा था, "यह भी जान पडता है कि वे साधुवेश त्याग करके मरमी भक्तोके समान दीर्घ अंगावरण पहना करते थे।" देखिए, वीणा, १९३८ ई०, नवम्बर, अंक १, पृ० ८। २. एक यति ज्ञानसागर हुए है, जिन्होंने आनन्दधन बहत्तरीको टीका लिखी थी। उनके अनुसार महात्मा मानन्दघन जैन साधुकी वेश-भूषामें ही रहते थे। ३. जैन भक्ति-काव्यकी पृष्ठभूमि, प्रथम अध्याय, ४. "निष्कलः पञ्चविधशरीररहितः।" परमात्मप्रकाश, १२२५, ब्रह्मदेवकी सस्कृत टीका, पृष्ठ ३२ । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन ४८५ ही नमस्कार किया गया है, क्योंकि वे समवशरणमे विराजकर अपनी दिव्य वाणीसे जनताका उपकार करते है। इस भाँति स्पष्ट है कि लोकके मध्य उन्हींकी प्रतिष्ठा अधिक है। ___ जैन हिन्दी कवियोंने अर्हन्तके प्रति अनुरागमूलक भक्तिका पद-पदपर परिचय दिया है। यहाँतक कि उन्होने भव-भवमे भक्तिकी ही याचना की। भक्तके लिए भक्ति ही उत्कृष्ट फल है। उपाध्याय जयसागर (१५वी शती) ने 'चतुर्विशति जिनस्तुति' में भगवान महावीरसे प्रार्थना की है, "करि पसाउ मुझ तिम किमई, महावीर जिणराय। इणि भवि अहवा अन्न भवि, जिम सेवउं तु पाय ।"कवि जयलाल (१६वी शती) ने तीर्थंकर विमलनाथकी स्तुतिमे लिखा है, "तुम दरसन मन हरषा, चंदा जेम चकोरा जो। राजरिधि मांगउं नही, भवि भवि दरसन तोरा जी ।" भूबरदास भगवान्को देखकर ऐसे विमुग्ध हुए कि भव-भवमें भक्तिकी ही यात्रा की: "मरि नयन निरख नाथ तुम को और वांछा ना रही । मन ठठ मनोरथ मये पूरन रंक मानो निधि लही ॥ अब होउ भव-भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये । कर जोरि भूधरदास विनवै, यही वर मोहि दीजिये ॥" जैन कवियोंकी 'और वांछा ना रही' वाली बात सूरदास और तुलसीदासमे भी पायी जाती है । तुलसीदासने 'विनयपत्रिका' मे लिखा है, "चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि, सिधि विपुल बड़ाई। हेतु रहित अनुराग राम-पद बढ़े, अनुदिन अधिकाई ॥" सूरदासने अपनी स्वाभाविक गरिमाके साथ ही कहा, १. "असत्यहत्याप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीनां, संजातश्चैतत् प्रसादा दित्युपकारापेक्षया वादी अर्हन्नमस्कारः क्रियते ।" भगवत् पुष्पदन्त भूतबलि, घटखण्डागम, वीरसेनाचार्यकी टीकासहित, डॉ. हीरालाल जैन सम्पादित, अमरावती, वि० सं० १६६६, पृष्ठ ५३-५४ । २. जैन गुर्जरकविओ, तीजो भाग, पृष्ठ १४७६ ।। ३. मुनि जयलाल, विमलनाथ स्तवन, १३वाँ पद्य, श्री कामताप्रसाद जैनके संग्रहकी हस्तलिखित प्रति। ४. भूधरदास, दर्शन स्तुति, चौथा पद्य, बृहज्जिनवाणी संग्रह, पं० पन्नालाल वाकलीवाल सम्पादित, सम्राट संस्करण, मदनगज, किशनगढ़, सन् १९५६ ई०, पृ० ४० । ५. गोस्वामी तुलसीदासे, विनयपत्रिका, वियोगीहरि सम्पादित, वि० सं० २००७, पूर्वाध, पद १०३, पृष्ठ १६५ । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "अपनी मक्ति देहु भगवान् । कोटि लालच जो दिखावहु, नाहि नैं रुचि आन ॥'' भक्तिसे मुक्ति ___ जैनधर्मका मूलाधार है मुक्ति । जैनोंके आराध्य वे परमात्मा है, जिन्होंने 'कर्ममलीमस' को दूर कर मुवित प्राप्त कर ली है। कर्मोंसे पूर्णतया छुटकारा पा लेना ही मुक्ति है । जैन सिद्धान्तमे यह मुक्ति ज्ञानके द्वारा प्राप्तव्य मानी गयी है। हिन्दीके जैन भक्त-कवियोंने अपने भगवान्से मुक्तिकी भी याचना की है। अर्थात् उन्हे भक्तिसे मुक्ति मिलनेका पूर्ण विश्वास है। इसे लेन-देनका भाव नहीं कह सकते, क्योकि जिनेन्द्र मुक्तिरूप ही है। कर्मोसे मुक्त हुई आत्मा जिनेन्द्र है और वह ही मुक्ति है। अतः मुक्तिकी याचनामे भक्तके जिनेन्द्रमय होनेका भाव है। भक्त सदैव अपने आराध्यकी इस महिमासे अनुप्राणित होता रहा है। जब द्यानतरायने यह कहा कि, "जो तुम मोख देत नहिं हमको, कहां जायं किहिं डेरा", तो उसमे भी अपने भगवान्को महिमाकी ही बात है। तुलसीने भी, "रघुपति-भक्ति सत-संगति बिनु, को भव त्रास नसावै ।" मे रामकी महिमाका हो वर्णन किया है। ___कवि बनारसोदासने तो यहांतक लिखा कि भगवान् जिनेन्द्रसे मुक्तिकी याचनाकी आवश्यकता नहीं है, उनके चरणोंका स्पर्श करनेसे वह तो स्वतः ही प्राप्त हो जाती है, “जगत मे सो देवन को देव । जासु चरन परसें इन्द्रादिक, होय मुकति स्वयमेव ॥" इसीसे मिलता-जुलता सूरदासका कथन है, जिसमें उन्होंने कृष्णके भजनसे हो भव-जलनिधिको पार उतरना लिखा है, "सूरदास व्रत यहै कृष्ण भजि भवजलनिधि उतरत ।" १. सूरदास, सूरसागर, प्रथम खण्ड, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी सेम्पादित, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, बनारस, द्वितीय संस्करण, वि० स० २००६, प्रथम स्कन्ध, १०६वा पद, पृ० ३४ । २. “बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्न-कर्मविप्रमोक्षो मोक्षः" तत्त्वार्थसूत्र, १०।२। ३. पं० रामचन्द्र शुक्लने इसको लेन-देनका भाव कहा है। देखिए चिन्तामणि, प्रथम भाग, पृ० २०५। ४. द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, ५वाँ पद, पृष्ठ ३ । ५. विनयपत्रिका, वियोगीहरि सम्पादित, षष्ठ संस्करण, बनारस, पूर्वार्ध १२१वॉ पद, पृ० २२५। ६. बनारसीदास, अध्यात्मपद पंक्ति, १५वॉ पद, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० २३२ । ७. सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, ५५वाँ पद, पृ० १६ । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन ४८३ भक्तिसे ज्ञान जैन और वैष्णव दोनों ही भक्त कवियोंने ज्ञानको अनिवार्यता स्वीकार की है। तुलसीने लिखा है कि ज्ञानके बिना इस संसाररूपी समुद्रको कोई पार नहीं कर सकता, बिनु विवेक संसार घोर निधि, पार न पावै कोई ।' कवि बनारसीदासने भी ज्ञानके बलपर ही मंसारसे तरनेकी बात कही है, बनारसीदास जिन उकति अमृत रस, सोई ज्ञान सुने तू अनंन मव तरिहै। तुलसीदासने "रघुपति भक्ति-वारि छालित चित, बिनु प्रयास ही सूझै के द्वारा, रघुपतिके भक्तिरूपी जलसे पवित्र हुए चित्तमे, बिना प्रयासके ही, ज्ञानके उत्पन्न होनेकी बात लिखी है। सूरदासने भी, "सूर स्याम-पदनख प्रकास बिनु, क्यों करि तिमिर नसावै"' में भगवत्कृपासे ही अज्ञानान्वकारका दूर होना स्वीकार किया है। जैन कवियोका भक्तिसे ज्ञानकी उत्पत्ति में सतत विश्वास रहा है। कवि बनारसीदासने 'नाटक समयसार' में लिखा है कि भगवान् जिनेन्द्रके यशका वर्णन करनेसे ज्ञानका प्रकाश छिटक जाता है और मलिन बुद्धि निर्मल हो जाती है, "जाको जस जपत प्रकास जगै हिरदे मैं, सोह सुद्धमति होइ हुती जु मलिन सी।" द्यानतरायने भी, "सर्व चिन्ता गई बुद्धि निर्मल भई, जबर्बाह चित्त जुगल चरननि लगायो।" के द्वारा भगवान्के चरणोंमें चित्त लगानेसे बुद्धिका निर्मल होना लिखा है। इस विषयको लेकर जैन और वैष्णव कवियोंमें एक अन्तर भी है । जहाँ तुलसी और सूरने केवल भक्तिसे ही ज्ञानका प्राप्त होना लिखा है, वहां जैन १. विनयपत्रिका, पूर्वार्ध, बनारस, ११५वाँ पद, पृ० २१४ । २. शानबावनी, २०वाँ पद्य, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० ७ । ३. विनयपत्रिका, पूर्वाद्ध, १२४वॉ पद, पृ० २३० । ४. सूरसागर, प्रथम खण्ड, प्रथम स्कन्ध, ४८वाँ पद, पृ०१७ । ५. नाटक समयसार, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण, वि० सं० १६८६, १३३२, पृ० ४६८ । ६. धानतपदसंग्रह, कलकत्ता, ११वॉ पद, पृ०५। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कवियोंने भक्तिके साथ-साय स्वानुप्रयामको भी महत्ता प्रदान की है। कवि बनारसीदासका कथन है कि यह जीव अपने निजी प्रयाससे ही ज्ञानको प्राप्त करता है और खोता है, "पापु समारि लखै अपनो पद, आपु विसारि के आपुहि मोहै। व्यापक रूप यहै घट अंतर, ___ ग्यान में कौन अज्ञान में को है ॥" माया अज्ञानको प्रतीक है। उसके विषयमें भी यही बात है। तुलसीदासने, "माधव असि तुम्हारि यह माया, करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहि, जब लगि करह न दाया।" मे रघुपतिकी दयाके बिना मायाका दूर होना असम्भव माना है । जैन कवि भूधरदासने भी भगवन्त - भजनसे ही मोह-पिशाचका नाश होना स्वीकार किया है, "मोह पिशाच छल्यो मति मारै, निज कर कंध वसूला रे। मज श्री राजमतीवर भूधर, दो दुरमति सिर धूला रे ॥ भगवंत भजन क्यो भूला रे ॥" किन्तु अनेक स्थानोंपर जैन कवियोने यह भी स्वीकार किया है कि माया न तो भगवान्की भेजी हुई है और न भगवान्की कृपासे दूर ही हो सकती है । इसे तो मनुष्य मोहनीयकर्मका नाश करके ही जीत पाता है। बनारसीदासको दृष्टिमें मायारूपी बेलिको उखाड़नेमे केवल ज्ञानी आत्मा ही समर्थ है। उन्होंने आत्माको योद्धा कहते हुए लिखा है, "माया बेली जेती तेती रेत में धारेती सेवी, फंदा ही को कंदा खोदे खेती को सो जोधा है। __ जैन कवि भगवतीदास 'भैया' का कथन है कि कायारूपी नगरीमे चिदानन्दरूपी राजा राज्य करता है। वह मायारूपी रानीमे मग्न रहता है । जब उसका सत्यार्थकी ओर ध्यान गया, तो ज्ञान उपलब्ध हो गया और मायाको विभोरता दूर हो गयो, १. नाटक समयसार, ६।१३, पृ० २८१ । २. विनयपत्रिका, पूर्वाद्ध, ११६वॉ पद, २१६ । ३. भूधरविलास, कलकत्ता, १६वॉ पद, पृ० ११ ॥ ४. नाटकसमयसार, दिल्ली, मोक्षद्वार, तीसरा पद्य, पृ०८१ । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनामा विवेचन १८५ "काया सी जु नगरी में चिदानन्द राज करे माया सी जु रानी पै मगन बहु भयो है। ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि रह्यो, सुधि जब आई तबै ज्ञान आप गह्यो है।" आराध्यकी अन्य देवोंसे महत्ता अन्य देवोंसे अपने आराध्यको बड़ा बतानेका भाव एकेश्वरवादको भावनासे अनुप्राणित है । कबीरको दृष्टिमे बहुदेववादो उस व्यभिचारिणो स्त्रोके समान है, जो अपने पतिको छोड़कर जारोपर आसक्त रहती है। चरनदामका कथन है कि चाहे सिर टटकर पथ्वीपर लोटने लगे, किन्तु रामक सिवा किसी अन्य देवताके समक्ष न झुके। ' वैष्णव और जैन दोनों ही कवियोंने अपने आलम्बनके अतिरिक्त किसी औरकी भक्ति नहीं की। उनकी दष्टिमे अन्य देव स्वयं भिखारी है, फिर वे दूसरोंको याचना कैसे पूरी कर सकते है। सूरदासने अन्य देवोंसे भिक्षा मांगनेको रसनाका व्यर्थ प्रयास कहा है। जैन कवि भूधरदासने भी, "भूवर पद दालिद क्यों दलिहैं, जो हैं आप भिखारी'' कहकर उमीका समर्थन किया है । तुलसीदासने लिखा है कि अन्यदेव मायासे विवश हैं, उनकी शरणमें जाना व्यर्थ है। भगवतीदास 'भैया' का भी कथन है कि और सब देव रागी द्वेषी हैं, उनकी सेवा करनेसे पाप १. भगवतीदास 'भैया' ब्रह्मविलास, जैनग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १६२६३० शत अष्टोत्तरी, २८वाँ सवैया, पृ० १४ । २. नारि कहावे पीव को, रहै और संग सोय । जार सदा मन मै बसै, खसम खुशी क्या होय ॥ सन्त बानी संग्रह, भाग १, पृ० १८ । ३. यह सिर नवे त राम कुँ, नाही गिरयो टूट । आन देव नाहिं परसिए, यह तन जायो छूट ॥ वही, पृ० १४७ । ४. 'जांचक पैजांचक कह जाँचै? जो जाँचे तो रसना हारी॥" सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, ३४वाँ पद, पृ०१२ । ५. भूधर विलास, कलकत्ता, ५३वाँ पद, पृ० ३०। ६. देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया-बिबस विचारे । तिनके हाथ दास तुलसो प्रभु, कहा अपुनपौ हारे । विनयपत्रिका, पूर्वार्ड, १०१वाँ पद, पृ० १६२ । ३२ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कैसे कट सकते हैं ? तुलसीदासने अन्य देवोंको स्वार्थी कहा है, वे शरणागतको रक्षा करनेमें भी असमर्थ है। द्यानतरायने तीनो भवनोंमे जिनेन्द्र के समान अन्य कोई सामर्थ्यवान् देव नही देखा। केवल जिनेन्द्र हो 'भव-जीवनि' को तारनेमे समर्थ हैं। इस भांति जैन और वैष्णव दोनों ही ने अपने-अपने आराध्यको अन्य देवोंसे बड़ा माना है । यद्यपि इससे भक्तकी एक निष्ठा प्रकट होती है, किन्तु अन्य देवोंके प्रति कड़वाहटका भाव किसी भांति सराहनीय नहीं कहा जा सकता। इस विषयमें वैष्णव और जैन दोनों ही कवियोने शालीनताका उल्लंघन किया है । सूरदासने अपने आराध्यको कामधेनु और दूसरोंको अजा कहा, वहांतक तो ठीक है, किन्तु जब उन्होंने 'हय गयंद उतरि कहा गर्दभ चढ़ि धाऊँ" कहा, तो स्पष्ट ही मर्यादाका उल्लंघन था। इसी भाँति भूधरदासने जबतक जिनेन्द्रकी वाणीको केतकीका फूल और दूसरोंकी वाणीको कनेरका पुष्प तथा एकको गाय-दूध और दूसरीको आक-दूध कहा, वहांतकके ठीक था, किन्तु जब उन्होंने एकको कोयलकी टेर और दूसरीको काग-वांणी कहा," तो स्पष्ट रूपेण शालीनताको सीमाका अतिक्रमण किया। १. रागी द्वेषी देख देव ताको नित करै सेव, ऐसो है अबेव ताको कैसे पाप खपनो ॥ भगवतीदासे 'भैया', जिनधर्म पचीसिका, १६वाँ कवित्त, ब्रह्मविलास, पृ० २१५ । २. और देवन की कहा कहौ, स्वारथहिं के भीत। कबहुँ काहु न राखि लियो, कोउ सरन गयउ सभीत ।। विनयपत्रिका, उत्तरार्द्ध, २१६वॉ पद, पृ० ४२४ । ३. तुम समान कोउ देव न देख्या, तीन भवन छानी । आप तरे भव जीवनि तारे ममता नहिं आनी ।। द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, २८वा पद, पृ० १२ । ४. कामधेनु छोड़ि कहा अजा लै दुहाऊँ, हय गयंद उतरि कहा गर्दभ चढ़ि धाऊँ ॥ सूरसागर, प्रथम खण्ड, काशी, १६६वाँ पद, पृ० ५४ । ५. कैसे करि केतकी कनेर एक कही जाय, आक दूध गाय दूध अन्तर घनेर है। पीरी होत री री पै न रीस करै कंचन की, ___ कहाँ काग वांणी कहाँ कोयल की टेर है ॥ भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता, १६वाँ कवित्त, पृ० ५। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन अनन्य भक्ति तो वह ही है, जब भक्तको अपने आराध्य के सिवा अन्य किसी ओर देखनेका एक क्षण भी न मिले। किसी अन्यदेवको बुरा कहनेसे इतना तो प्रकट ही है कि ध्यान उघर गया । अनन्य भक्तिमे तो मनको आलम्बनपर केन्द्रित करने का भाव है । तुलसीने प्रतिज्ञा की कि-कान रामके अतिरिक्त और किसीकी कथा नहीं सुनेंगे, रसना और किसीके गीत नहीं गायेगी, नेत्र और किसीको नहीं देखेंगे तथा सिर किसी अन्यके समक्ष नही झुकेगा ।' कवि द्यानतरायका कथन है कि-चरन वे ही है, जो जिन भवन पहुँचते हैं, जिह्वा वह ही है, जो जिन नाम गाती है । आँख वह ही है, जो जिनराजको देखती है और श्रवण वे ही है, जो जिन वचन सुनते है । कहने का तात्पर्य है कि ये कवि जब युगसे ऊपर उठ गये हैं, तो उन्हें अपने देवके अतिरिक्त अन्यके अस्तित्वका भी आभास नहीं हुआ । उनकी सात्त्विकताका यह पृष्ठ ही वास्तविक है । ४८७ दीनता और स्वदोषों का उल्लेख भक्ति आलम्बनके महत्व और अपने दैन्यका अनुभव परम आवश्यक अंग है । आराध्य की महत्ता के अनुभवके साथ ही अपनी दीनताका आभास हुए बिना नहीं रहता । किन्तु भक्तकी दीनता किसी चाटुकारी भावसे संचालित नही होती, क्योकि उसमे आराध्यमय हो जानेकी आकांक्षाके अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा अवशिष्ट नही रह जाती है । अतः दरबारी कवियोंकी दोनता और भक्त कवियोंकी दीनता अन्तर है । तुलसीकी दीनता जगप्रसिद्ध है। कही तो उन्होंने लिखा १. जानकी - जीवन को बलि जैहौं ! चित है, रामसीय - पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहीं ॥ aft औरि कथा नहि सुनिहों, रसना और न हौ । रोकिहीँ नैन बिलोकत औरहि सोस ईस ही नही || विनयपत्रिका, पूर्वार्ध, १०४वाँ पद, पृ०१६६ । २. रे जिय! जनम लाहो लेह || चरन ते जिन भवन पहुँचें, दान दें कर जेह । उर सोई जामै दया है, अरु रुधिर को गेह । जीभ सो जिन नाम गावै साँच सो करें नेह । आँख ते जिनराज देखें, और आँखें खेह | न ते जिन बचन सुनि, शुभ तप तपै सो देह | रे जिय० ॥ द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, हवा पद, पृ० ४ । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि हैं, "तुम सम दीनबन्धु न दीन कोउ मो सम सुनहु नृपति रघुराई।" कही लिखा है, “दीनबन्धु दूसरो कहँ पात्रो", " और कही उन्हे "बिनु कारन पर उपगारी, अति को करुना निधान, दोन हितकारी" रामके अतिरिक्त अन्य कोई उपलब्ध नहीं हुआ । सूरदासके विनयके पदोंमे दीनता बिखरी पडी है। उन्होने भी 13 लिखा है, ४८८ "अब धौं कहौ, कौन दर जाऊं ? 623 तुम जगपाल, चतुर चिंतामनि, दीनबंधु सुनि नाउं ॥ जैन कवियों के भाव भी इनसे मिलते-जुलते है । कवि द्यानतरायने अपने मनको दीनदयालु भगवान् जिनेन्द्रका भजन करनेके लिए निरन्तर प्रेरित किया है । भूधरदासको भो भगवान्‌के दीनदयालु रूप मे परम विश्वास है। उन्होने संसारी दशासे दुःखित होकर दीनदयालु भगवान्‌को पुकारा है, " हो जगत गुरु एक, सुनियो अरज हमारी । तुम हो दीनदयालु, मैं दुखिया संसारी ॥ ܙ दीनता के साथ ही भक्त ने अपने दोषोंका भी खुलकर उल्लेख किया है । उसे भगवान् की उदारतामे पूर्ण विश्वास है । भगवान् दयालु है, वह अपने भक्तको, होते हुए भी भवसमुद्रसे पार लगा देता है । तुलसाने 'विनयपत्रिका मे लिखा है, " माधव मी समान जग नाहीं । सब बिधिहीन, मलीन, दीन अति, लीन विषय कोउ नाहीं ॥ तुम सम हेतु-रहित कृपालु भारत-हित ईस न त्यागी । मैं दुख- सोक - विकल, कृपालु केहि कारन दया न लागी ॥ जैन कवि भगवतीदास 'भैया' ने 'चेतन' के दोषो को प्रकट करते हुए, उसे भगवान्का भजन करने की बात कही है। उन्हें विश्वास है कि भगवान्‌की कृपासे दोष पलायन कर जायेंगे, पहला पद्य, पृ० ५२२ । ६. विनयपत्रिका, पूर्वार्द्ध, १४४वाँ पद, पृ० २१३ । ܝܕܪ̈܂ १. विनयपत्रिका, उत्तरार्ध, २४२वॉ पद, पृ० ४७५ । २. २३२वॉ पद, पृ० ४५५ । ३. वही, १६६वाँ पद, पृ० ३२१ ॥ ४. सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, १६५वाँ पद, पृ० ५४ | ५. भूधरदास, जिनस्तुति, ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, छठा खण्ड, Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन "भगवंत मजो सु तजो परमाद, समाधि के संग में रंग रहो। अहो चेतन त्याग पराइ सुबुद्धि, गहो निज शुद्ध ज्यों सुक्ख लहो । विषया रस के हित बूड़त हो, भव सागर में कछु शुद्धि गहो । तुम ज्ञायक हो षट द्रव्यन के, तिन सों हित जानि के आप कहो।" श्री विनयप्रभ उपाध्याय (१५वीं शतो विक्रम) ने 'सीमन्धरस्वामीस्तवनम्'मे लिखा है कि दोपोके कारण यह जीव भव-समुद्रमे डब रहा है, उसे तारनेमे स्वामी सीमन्धर ही समर्थ है, "मोह मर बहुल-जल पूर संपूरिए, विषय-घण-कम्म-वराजि संराजिए। भव जलहि मजिक निबडंत जंतू-कए, ___ सामि सीमंधरो पोजिम सोहए।" जैन और वैष्णव दोनो ही कवियोने भगवानको उनके विरद' का स्मरण दिलाया है। भगवानका 'विरद' भक्तोको संसारसे तारनेका है, चाहे वे दोपोंसे युक्त हों अथवा उन्मुक्त । सूरदासने एक पदमे लिखा है कि-हे भगवन ! मै तो दोषोसे भरा हआ है, यदि आप अपने विरद' का स्मरण करेंगे, तभी मेरा काम बनेगा. अन्यथा नहीं। "सूरदास विनती कह विनवै, दोषनि देह मरी। अपनो बिरद सम्हारहगे तो यामें सब निवरी ॥" द्यानतरायने भी भगवान नेमीश्वरके तारन-तरनके 'बिरद' को स्वीकार किया है । वे संसारके पाप जलानेमे विख्यात है, "सकल मवि-अध-दहन वारिद, बिरद तारन-तरन । इन्द्र चन्द्र फनिन्द ध्यावे, पाय सुख दुख हरन ॥" १. भगवतीदास, 'भैया', शत अष्टोत्तरी, १०२वाँ संवया, ब्रह्मविलास, पृ० ३१ । २. विनयप्रम उपाध्याय, सोमन्धरस्वामीस्तवनम् , तीसरा पद्य, Ancient Jain Hymns, Charlotte Krause edited, Scindia Oriental Institute Ujjain, 1952, P. 121. ३ सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, १३०वा पद, पृ० ४३ । ४. द्यानतपदसंग्रह, पहला पद, पृ०१। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि विष्णु और जिनेन्द्र दोनों ही ने 'चरन गहे की लाज' का निर्वाह किया है। सूरदासने लिखा है, "जो हम भले बुरे तो तेरे ? तुम्हें हमारी लाज बड़ाई, बिनती सुनि प्रभु मेरे ॥' कवि द्यानतरायका भी कथन है कि हम तुम्हारे भक्त है, हमारी चरन गहे की लाज निबाहो, "जाके केवलज्ञान विराजत, लोकालोक प्रकाशन हारा । चरन गहे की लाज निबाहो, प्रभु जी द्यानत भगत तुम्हारा ॥" उपालम्भ अनेक भक्त कवियोंने भगवान्को उपालम्भ भी दिये है। दिन और रात स्वामीके पास रहते-रहते जिस प्रकार सेवककी धड़क खुल जाती है, उसी भांति प्रभुके सतत ध्यानसे जो सान्निध्यकी अनुभूति भक्तके हृदयमें उत्पन्न होती है, उसके कारण वह कभी-कभी मीठा उपालम्भ भो देता है । तुलसोने एक पदमे लिखा है कि-हे भगवन् ! मुझे क्यों विस्मरण कर दिया है। आप अपनी महिमा और मेरे पापोको जानते है, फिर भी मेरी सम्हाल क्यों नहीं करते । पहले तो मुझे खग, गनिका और व्याधकी पक्तिमे बैठा दिया, फिर परसी हुई कृपाकी पत्तल फाड़ क्यों डाली ? मुझे नरकमे जानेका भय नहीं है, दुःख तो इसका है कि आपका नाम भी पाप न जला सका, "काहे ते हरि ! मोहि बिसारो। जानत निज महिमा, मेरे अघ, तदपि न नाथ संभारो॥ खग-गनिका-गज-व्याध-पांति जहं, तहं हौं हूं बैठारो । अब केहि लाज कृपा निधान, परसत पनवारो फारो ॥ नाहिन नरक परत मोकहं डर, जद्यपि हौं अति हारो। यह बड़ त्रास दास तुलसी प्रभु, नामहु पाप न जारो ॥" जैन कवि द्यानतरायका स्वर भी तुलसीसे मिलता-जुलता ही है । उन्होंने लिखा है कि - हे भगवन् ! मेरे समय ढील क्यों कर रखी है। तुमने सेठ सुदर्शनको विपत्तिका अपहरण किया, सती सीताके लिए अग्निके स्थानपर जल कर दिया । इसी भांति तुमने वारिषेण, श्रीपाल और सोमापर भी दया की। फिर मुझे तारते समय ही देर क्यों कर रहे है, १. सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, १३०वाँ पद, पृ० ४३ । २. धानतपदसंग्रह, २६वाँ पद, पृ० १३।। ३. विनयपत्रिका, पूर्वाद्ध, १४वॉ पद, पृ० १८० । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन "मेरी बेर कहा ढील करी जी! सूली सों सिंहासन कीनो, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी ॥ सीता सती अगिनि मैं पैठी, पावक नीर करी सगरी जी। वारिषेण पै खड़ग चलायो, फूल माल कीनी सुथरी जी ॥ धन्या वापी परथो निकाल्यो, ता घर रिद्ध अनेक भरी जी । सिरीपाल सागर तैं तारथो, राज भोग के मुकत बरी जी ॥ सांप हुयो फूलन की माला, सोमा पर तुम दया धरी जी। द्यानत मैं कछु जांचत नाही, कर वैराग्य दशा हमरी जी ॥" भगवान्के समक्ष धड़क खुल जानेका अर्थ यह नहीं है कि उनसे जो चाहे सो कह दिया जाये । वहाँ भी शालीनताका ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। कही-कहीं सूरदासको फटकार शालीन मनको रुचती नही । एक स्थानपर उन्होंने लिखा है, "पतित पावन हरि, बिरद तुम्हारो कौनैं नाम धरयो। हौं तो दीन, दुखित, अति दुरबल, द्वारे स्टत परयौ ॥" इसके समक्ष यानतरायका एक उपालम्भ देखिए। उसमे गरिमा तो है, किन्तु मर्यादाका उल्लंघन नहीं। उनका यह पद उपालम्भ साहित्यका एक अनूठा रत्न है । भक्तने कहा, "तुम प्रभु कहियत दीन दयाल । आपन जाय मुकत मैं बैठे, हम जु रुलत, जग जाल ॥ तुमरो नाम जपें हम नीके, मन बच तीनौं काल । तुम तो हमको कछू देत नहिं, हमरो कौन हवाल ॥" नाम-जप सभी भक्त कवियोंने भगवान् के नाम-जपको महिमा स्वीकार की है। तुलसीने लिखा है कि भगवान्का नाम-जप इहलौकिक विभूति तो देता ही है, पारलौकि शाश्वत सुख भी प्रदान करता है, १.द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, १७वाँ पद, पृ० ७-८ । २. सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, १३३वाँ पद, पृ० ४४ । ३. यानतपदसंग्रह, ६याँ पद, पृ० २८ । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "नाम को भरोसो बल, चारिहूं फल को फल, ___ सुमिरिये छांडि छल, भलो कृतु है । स्वारथ साधक, परमारथ दायक नाम, राम नाम सारिखो न और दूजो हितु है।" जैन कवि श्री कुशललामने भी पंच परमेष्ठीके नामको महिमा बतलाते हुए कहा है कि - जो नित्य प्रति नवकारको जपता है, उसको सांसारिक सुख तो मिल ही जाता है, शाश्वत सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है, "नित्य जपी ई नवकार संसार संपत्ति सुखदायक, सिद्ध मंत्र, शाश्वतो इम जपे श्री गजनायक ।" भगवतीदास 'भैया' का विश्वास है कि वीतरागी भगवान्का नाम लेनेवालेके धाम धनसे तो भर ही जाते है, वह भवसिन्धुसे भी पार हो जाता है, "वीतराग नाम सेती काम सब होहिं नीके वीतराग नाम सेती धाम धन भरिये । वीतराग नाम सेती विधन विलाय जायं, वीतराग नाम सेती भव-सिन्धु तरिये ॥" सुख चाहे इहलौकिक हो चाहे पारलौकिक, पाप नष्ट हुए बिना प्राप्त नहीं होता । भगवान्का नाम लेने मात्रसे हो पाप दूर हो जाते है । तुलसीने लिखा है, "राम नाम सों रहनि, राम नाम की कहनि, कुटिल - कलि - मल - सोक - संकट-हरनि ॥" "भैया' भगवतीदासने तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथके नामसे पापोंको कम्पायमान होते हुए दिखाया है, "मुनिसुव्रत जिन नांव, नांव त्रिभुवन जस जंपै। जंपै सुर नर जाप, जाप जपि पाप सु कंपै ॥" द्यानतरायने लिखा है कि भगवान्का नाम लेनेसे एक क्षणमें ही करोड़ों अधजाल कट जाते हैं, १. विनयपत्रिका, उत्तराद्ध, २५४वाँ पद, पृ० ५०३ । २. कुशललाभ, नवकार छन्द, अन्तिमकलश, जैनगुर्जर कविओ, पहला भाग, बम्बई, १९२६ ई०, पृ० २१६ । ३. भगवतीदास 'भैया', अहिक्षिति पार्श्वनाथ स्तुति, २२वॉ कवित्त, ब्रह्मविलास, पृ० १६२-१६३। ४. विनयपत्रिका, उत्तरार्द्ध, २४७वाँ पद, पृ० ४८५ । ५. भगवतीदास, 'मैया', चतुविंशति जिनस्तुति, २०वॉ छप्पय, ब्रह्मविलास, पृ० १७ । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन ४९३ "रे मन मज भज दीनदनाल। जाके नाम लेत इक छिन मैं, करें कोट अघ जाल ॥" भूवरदासका कथन है कि सीमन्धरस्वामीके नामका उच्चारण करनेसे पाप उसी भाँति नष्ट हो जाते है, जैसे सूर्योदयसे अंधेरा, “सीमंधर स्वामी मैं चरनन का चेरा। नाम लिये अब ना रहें ज्यौं ऊगे मान अंधेरा ॥" भगवान्के नाममे श्रद्धा करना प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य है । वेद, पुराण और पुरारि आदि सभीने भगवान्के नामको महिमा स्वीकार की है। कुछ ऐसे भी हैं, जो इस महिमाको स्वीकार नही करते, किन्तु भगवान्के भक्त उनके प्रति भी उदार रहें, यह ही उचित है । तुलसीने उनको गधा कहा है, "वेद हू, पुरान हू, पुरारि हू पुकारि कयो, नाम प्रेम चारि फल हू को फरु है । ऐसे राम-नाम सों न प्रीति न प्रतीति मन, मेरे जान जानिबो सोई नर खरु है।" द्यानतरायने भी एक ऐसे ही पदका निर्माण किया है, जिसमे उन्होंने भगवान्का नाम न लेनेवालेको धिक्कारा तो है, किन्तु 'गधा'-जैसे शब्दका प्रयोग नहीं किया। उनका कथन इस प्रकार है, "इन्द्र फनिन्द चक्रधर गावै, जाको नाम रसाल । जाको नाम ज्ञान परकासै, नाशै मिथ्या - जाल ॥ पशु ते धन्य धन्य ते पंखी, सफल करै अवतार । नाम बिना धिक मानव को भव, जल बल द्वै हैं छार ॥" भगवान्की उदारता उसके नाममे भी सन्निहित है। भगवान्का नाम लेनेसे केवल पुण्यात्मा ही नहीं, अपितु पापी भी तर जाता है । सूरदासने लिखा है, "को को न तस्यौ हरि नाम लिये। सुवा पढ़ावत गनिका तारी, ब्याध तरयो सर-घात किये। अंतरदाह जु मिव्यौ व्यास को इक चित है भागवत किये ॥" १. द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, ६६वॉ पद, पृ० २८॥ २. भूधरविलास, कलकत्ता, दूसरा पद, पृ० १-२ । ३.विनयपत्रिका, उत्तराद्ध, २५५वॉ पद, पृ०५०५। ४. द्यानतपदसंग्रह, ६६वाँ पद, पृ० २८ । ५. सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, ८६वाँ पद, पृ० २६ । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि भगवान्के नाममें पापियोंको तारनेकी शक्तिका उल्लेख भूधरदासने भी किया है। उनका कथन है कि भगवान्का नाम लेनेसे अंजन-से चोर और कीचक-से अभिमानी भी तर गये है, "म्हें तो थाकी आज महिमा जानी, अब लों नहिं उर आनी ।। काहे को मव वन में भ्रमते, क्यों होते दुख दानी। नाम प्रताप तिरे अंजन से, कीचक से अभिमानी॥" तुलसीदासने रामके नामको भव-बेगारसे छूटनेका उत्तम साधन माना है, "राम कहत चलु, राम कहत चलु, राम कहत चलु भाई रे। नाहिं तौ भव-बेगारि महं परिहौ छूटत अति कठिनाई रे॥" एक दूसरे स्थानपर उन्होंने कहा कि भगवान्के नामसे कोई चिन्ता नहीं रहती, और मोक्षलोक प्राप्त हो जाता है, "तुलसी जग जानियत नाम ते, सोच न कूच मुकाम को।" जैन कवि मनरामने 'मनरामविलास' में लिखा है कि 'अरिहंत' का नाम आठ कर्म रूपी दुश्मनोंको नष्ट कर देता है और मोक्ष प्रदान करता है, "करमादिक अरिन को हरै अरिहंत नाम, सिद्ध करै काज सब सिद्ध को मजन है ॥" भूघरदासका कथन है कि यदि मनुष्य-जीवनसे छुटकारा पाना है, तो भगवान् नेमीश्वरका नाम रटो, "है अजौं एक उपाय भूधर, छटै जो नर धार है । रटि नाम राजुल मन को, पशु बंध छोड़न हार रे ॥" भगवान्का नाम केवल भक्ति ही नहीं, अपितु ज्ञान भी प्रदान करता है। सूरदासने लिखा है, १. भूधरविलास, कलकत्ता, ४३वाँ पद, पृ० २४ । २. विनयपत्रिका, उत्तरार्द्ध, १८६वाँ पद, पृ० ३६६ । ३. वही, १५६वाँ पद, पृ० ३०५ । ४. मनराम, मनराम विलास, मन्दिर ठोलियान, जयपुरकी हस्तलिखित प्रति। ५. भूधरविलास, कलकत्ता, ५वा पद, पृ०४। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक विवेचन "अद्भुत राम नाम के अंक । भक्ति ज्ञान के पंथ सूर ये, प्रेम निरन्तर माखि ॥” रायका भी कथन है कि भगवान्‌का नाम मिथ्या-जालको काटकर ज्ञानका प्रकाश करता है, "जाको नाम ज्ञान परकासै, नाशै मिथ्या जाल । २" भगवतीदास 'भैया' ने भो पंच परमेष्ठीके नामकी महिमा बताते हुए लिखा है, " तिहुं लोक तारन को, आत्मा सुधारन को । ज्ञान विस्तारन को, यहै नमस्कार है । 3,5 ४९५ जैन और वैष्णव कवियोंमे अन्तर भी है। जैनोंके मध्य भगवान्‌का नाम कीर्तनके रूपमे कभी प्रतिष्ठित नहीं रहा । वैष्णवोंमें 'कीर्तन' भक्तिका प्रमुख अंग माना जाता है । इसके अतिरिक्त सूर और तुलसीने रामके नामको साघन और साध्य दोनों ही रूपोंमें स्वीकार किया है । तुलसीको रामसे भी पूर्व रामका नाम प्रिय है, अतः वह साध्य तो है ही । जैन भक्त कवियोंने भगवान्‌के नामको केवल साधन माना है । भगवान्का लोकरंजनकारी रूप भगवान्का रूप लोकरंजनकारी तभी हो सकता है, जब उसमें सौन्दर्यके साथ-साथ शक्ति और शीलका भी समन्वय हो । भगवान्के इसी समन्वित रूपसे जन-मन आकर्षित होता है । तुलसीने 'रामचरितमानस' में ऐसे ही रामको अंकित किया है | जिनेन्द्र में रामके समान हो सौन्दर्य और शीलकी स्थापना हुई है, किन्तु शक्ति सम्पन्नता मे अन्तर है । रामका शक्ति सोन्दर्य असुर तथा राक्षसोंके संहारमें परिलक्षित हुआ है, जब कि जिनेन्द्रका अष्टकर्मोंके विदलनमे । दुष्टोंको जीता दोनोंने है, एकने बाहुबलसे और दूसरेने अध्यात्मशक्तिसे । एकने असत्के प्रतीक मानवको समाप्त किया है, और दूसरेने उसे सत्में बदला है । तुलसीके राम रावणको १. सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, ६०वाँ पद, पृ० २६ । २. यानतपदसंग्रह, ६६वाँ पद, पृ० २८ । ३ भगवतीदास भैया, सुबुद्धि चौबीसी, पूवॉ पद्य, ब्रह्मविलास, पृ० १५८ । ४. 'प्रिय राम नाम तें जाहि न रामो ' विनयपत्रिका, उत्तरार्द्ध, २२८व पद, पृ० ४४७ । Page #522 --------------------------------------------------------------------------  Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ हिन्दीके आदिकालमें जैन भक्तिपरक कृतियाँ पं० रामचन्द्र शुक्लने जिस युगको 'वीर गाथाकाल' कहा, उसीको महा पण्डित राहल सांकृत्यायनने 'सिद्धकाल' और डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीने 'आदिकाल' नामसे अभिहित किया है। मुझे 'आदिकाल' प्रिय है, क्योंकि उसमें 'वीर', 'धर्म', 'भक्ति' और 'सिद्ध' आदि सभी कुछ खप सकता है। वह एक निष्पक्ष शब्द है। यह तो अभी खोजका ही विषय बना हुआ है कि इस कालमें वीर गाथाएँ अधिक लिखी गयी अथवा धार्मिक कृतियाँ । साम्प्रतिक खोजोंसे जो कुछ सिद्ध हुआ है, उसके आधारपर धार्मिक कृतियोंकी संख्या अधिक है। उनमे जैन भक्ति-सम्बन्धी रचनाएं भी है। भक्ति और धर्मका भावगत सम्बन्ध है, अतः वे कृतियाँ धार्मिक है और साहित्यिक भी । मूल प्रवृत्तियोका भावोन्मेष ही साहित्य है, फिर भले ही उसका मुख्य स्वर धर्म या अन्य किसी विषयसे सम्बन्धित हो । __ पं० रामचन्द्र शुक्लके मतसे वि० सं० १०५० (सन् ९८३ ) से संवत् १३७५ ( सन् १३१८ ) के कालको हिन्दीका आदिकाल कहना चाहिए । किन्तु इसके पूर्व ही देशभाषाका जन्म हो चुका था। देश-भाषाका अर्थ है पुरानी हिन्दी । धर्मशास्त्री नारदने लिखा है कि "संस्कृतैः प्राकृतैर्वाक्यर्यः शिष्यमनुरूपतः । देशभाषाधुपायैश्च बोधयेत् स गुरुः स्मृतः ॥" डॉ० काशीप्रसाद जायसवालका कथन है कि देशभाषा आचार्य देवसेन ( वि० सं० ९९० ) के पहले ही प्रचलित हो चुकी थी। आचार्य देवसेनने अपने 'श्रावकाचार' में जिन दोहोंका उपयोग किया है, उनकी रचना देशभाषामे हई है। इस श्रावकाचारकी एक हस्तलिखित प्रति कारंजाके सेनगण मन्दिरके पुस्तक भण्डारमें प्रस्तुत है। इसमें प्रयुक्त शब्दरूप, विभक्ति और धातुरूप प्रायः सभी हिन्दीके हैं। कहीं-कहीं छन्द सिद्धिके लिए प्राकृत रूप रह गये है। हिन्दी काव्योंमें उनका प्रयोग आगे चलकर भी होता रहा । श्रावकाचारमें जिनेन्द्र और पंचगुरु-भक्तिके अनेक उद्धरण है । एक स्थानपर लिखा है, १. वीर मित्रोदयसे उधृत । २. डॉ. काशीप्रसाद जायसवालका लेख 'पुरानी हिन्दीका जन्मकाल', नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग ८, पृ० २२० । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि ર " जो जिण सासण मासियउ सो भइ कहियउ सार । जो पालेसइ भाउ करि सो तरि पावइ पारु ॥" कुछ विद्वानोने अपभ्रंश और देशभाषाको एक मान लिया, परिणामतः उन्होने अपभ्रंश कृतियोंको भी हिन्दीमे ही परिगणित किया है । महापण्डित राहुल सांकृत्यायनको हिन्दी काव्यधारा इसका निदर्शन है । यह सच है कि 'कथासरित्सागरके' आधारपर 'अपभ्रंश' और 'देशी' समानार्थक शब्द थे, किन्तु यह वैसा ही था जैसा कि पतञ्जलिके महाभाष्य में प्राकृत और अपभ्रंशको समानार्थक माना गया है । भाषाविज्ञानके अध्येता जानते है कि भाषाओका स्वभाव विकसनशील है । मुखसौकर्य के लिए भाषाएँ निरन्तर समासप्रधानता से व्यासपरकताकी ओर जाती रही है । प्राकृतसे अपभ्रंश और अपभ्रंशसे देशीभाषा अधिकाधिक व्यासप्रधान होती गयी है। यह ही दोनोंमें अन्तर है । अतः दोनोंको एक नहीं माना जा सकता । स्वयम्भू ( ९ वी शताब्दी वि० सं० ) का 'पउमचरिउ' नितान्त अपभ्रंशका ग्रन्थ है । उसमें कही देशी भाषाका एक भी शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है । कवि पुष्पदन्त ( वि० सं० १०२९ ) ने 'णायकुमारचरिउ मे अपनी सरस्वतीको निःशेष देश भाषाओंका बोलनेवाला भले ही कहा हो, किन्तु वह केवल विविध अपभ्रंश भाषाओके बोलनेमे ही निपुण है । पुष्पदन्त अपभ्रंशको ही देशभाषा कहते थे । ५०० पुष्पदन्तके चालीस वर्ष उपरान्त हुए श्रीचन्दका 'कथाकोष' देशभाषा में लिखा गया है । इस ग्रन्थमे ५३ सन्धियों हैं । प्रत्येक सन्धिमे एक कथा कही गयी है । कथाएँ भक्ति से सम्बन्धित है । ग्रन्थकी प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि श्रीचन्दके गुरु वीरचन्द थे, जो कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परामे हुए है । एक उदाहरण इस प्रकार है, "लहेवि सिद्धिं च समाहिकारणं समत्थ संसार डुहोह वारणं । पहु जए जं सरसं निरंतरं ॥ सुहं सात फलजं अणुत्तरं तेणाण माउ वद्धिउ पयाउ । सम्मत्त णाण तव चरण थाण ॥" १. कथासरित्सागर, ११६, पृ० १४८ । • २. पातञ्जल महाभाष्य, ११, पृ० १ । ३. शायकुमारचरिउ, डॉ० हीरालाल जैन सम्पादित, कारंजा, १९३३ ई०, पहली सन्धि, पृ० ३ | Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दीके आदिकालमें जैन मक्तिपरक कृतियाँ ५०१ धनपाल धक्कड़ ( १०वीं शती ईसवो) को 'भविसयत्तकहा" मे यत्र-तत्र अनेक स्थानोंपर देशभाषाका प्रयोग हुआ है। डॉ. विण्टरनित्म और प्रो. जैकोबी प्रभृति विद्वानोने इस काव्यकथाके रचना कौशलको प्रशंसा की है। कथाका मूलस्वर व्रतरूप होते हुए भी जिनेन्द्रको भक्तिसे सम्बन्धित है। यद्यपि आचार्य हेमचन्द्र ( सन्-१०८८-११७९ ) ने देशी नाममाला (कोश ) का ही निर्माण किया था, किन्तु जहांतक भक्तिका सम्बन्ध है, उनका कोई स्तोत्र या काव्य देशभाषामे लिखा हुआ उपलब्ध नहीं है। विनयचन्दसूरि ( १३वीं शती ईसवी) ने 'नेमिनाथ चउपई' का निर्माण किया था। यह देशभापामे लिखी गयी है। इसमे राजीमतीके वियोगका वर्णन है। नेमिनाथ तीर्थंकर थे, अतः उनसे किया गया प्रेम 'भगद्विषयक' ही कहलायेगा। जब नेमिनाथने पशुओंके करुणाक्रन्दनसे प्रभावित होकर तोरणा-द्वारपर ही वैराग्य ले लिया, तो राजीमती विलाप कर उठी। इस काव्यमें उसके वियोगका चित्र खीचा गया है। कतिपय पंक्तियाँ इस प्रकार हैं, "मणइ सखी राजल मन रोड, नीठुरु नेमि न अप्पणु होइ । साँचउ सखि वरि गिरि मिज्जंति, किमइ न मिज्जइ सामलकति ॥" शालिभद्रसूरि (सन् १९८४ ) का 'बाहुबलिरास' एक उत्तम कोटिका काव्य है। उसका सम्बन्ध महाराज बाहुबलिकी वीरता और महत्तासे है। बाहुबलि प्रथम चक्रवर्ती थे। दोनों भाइयों में साम्राज्यको लेकर यद्ध हमआ था। भरतको पराजित करनेके उपरान्त बाहुबलिने वैराग्य ले लिया। उन्हींकी भक्तिमें इस काव्यको रचना हुई है। भाषा दुरुह अपभ्रंश है, कहीं देशभाषाके दर्शन नहीं होते। १. इसका प्रकाशन सन् १९१८ में प्रो० जैकोबीके सम्पादनमें म्यूनिकसे हुआ था। बादमें डॉ० पी०डी० गुणेने इसका सम्पादन किया और सेन् १९२३ में G.0. s.xx. में इसे प्रकाशित किया। दोनोंकी भूमिकाएँ विद्वत्तापूर्ण हैं। २. देशी नाममाला जर्मन विद्वान् पिशेल-द्वारा सम्पादित होकर B.S.S.XVII में दो बार प्रकाशित हो चुकी है। ३. प्राचीन गुर्जरकाव्य संग्रहमें इसका प्रकाशन सन् १९२० में हुआ है। ४. श्री मुनि जिनविजयने 'बाहुबलिरासे' पर भारतीय विद्या, वर्ष २, अंक में प्रकाश डाला है। ६४ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके अन्तमे श्री जिनदत्तसूरि (वि० सं० १२७४ ) के रूपमे एक सामर्थ्यवान् व्यक्तित्वका जन्म हुआ। वे विद्वान् थे और कवि भी। उन्होंने 'चर्चरी' 'कालस्वरूपकुलकम्' और 'उपदेशरसायनरास'का निर्माण किया। 'उपदेश रसायनरास' मे सतगुरुके स्वरूपका विशद वर्णन हुआ है। ये तीनो ही काव्य अपभ्रंश भाषामे लिखे गये हैं । गुरुके सम्बन्धमे एक पद्य इस प्रकार है, "सुगुरु सुवुच्चइ सच्चउ मासइ पर परवायि-नियरु जसु नासइ । सन्वि जीव जिव अप्पर रक्खइ मुक्ख-मग्गु पुच्छियउ जु अक्खइ ॥" जिनपद्मसूरि (वि० सं० १२५७ ) ने 'थूलिभद्दफाग' की रचना को थी। आचार्य स्थूलभद्र भद्रबाहु स्वामीके समकालीन थे। उनका निर्वाण वा०नि० सं० २१९ मे हुआ। उनका समाधिस्थल गुलजार बाग, पटना स्टेशनके सामने कमल-हृद्मे बना हुआ है। इस फागकी गणना उत्तमकोटिके काव्यमे की जाती है । इसमें आचार्य स्थूलभद्रकी भक्तिसे सम्बन्धित अनेक सरस पद्योकी रचना हुई है । पावस वर्णनकी कतिपय पंक्तियां देखिए, "मीयल कोमल सुरहि वाय जिस जिम वायते । माण - मडफ्फर माणणिय तिम तिम नाचते ॥ जिम जिम जलधर भरिय मेह गयणंगणि मलिया। तिम तिम कामीतरणा नयण नीरहि झल हलिया ॥" नेमिचन्द्र भण्डारी, खरतरगच्छीय जिनेश्वरसूरिके पिता थे। उन्होंने वि० सं० १२५६ के लगभग 'जिनबल्लभसूरि गुणवर्णन' के नामसे एक स्तुति लिखी थी, जो 'जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रह में प्रकाशित हो चुकी है। यह स्तुति आचार्य भक्तिका निदर्शन है। इसमे ३५ पद्य है। एक पद्य इस भांति है, "पणमवि सामि वीर जिणु, गणहर गोयम सामि । सुधरम सामिय तुलनि सरणु, जुग प्रधान सिवगामि ॥" महेन्द्रसूरिके शिष्य श्री धर्मसूरि (वि०सं० १२६६) ने 'जम्बूस्वामी चरित्र', 'स्थूलभद्ररास' और 'सुभद्रासती चतुष्पदिका'का निर्माण किया था। तीनोमें क्रमशः ५२, ४७ और ४२ पद्य है। भगवान् महाबीरके निर्वाणके उपरान्त केवल तीन १. लालचन्द भगवानदास गान्धीने इनका सम्पादन कर, शोधपूर्ण संस्कृत प्रस्तावना सहित G.O.S.XXXVII में प्रकाशित किया है। २. तीनोंकी हस्तलिखित प्रतियॉ बीकानेरके बृहद् शान भण्डारमें मौजूद हैं। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के आदिकालमें जैन भक्तिपरक कृतियाँ ५०३ केवली हुए, जिनमे जम्बूस्वामी अन्तिम थे । सुभद्रासतो जिनेन्द्रको भक्त थी । तीनों ही रचनाएँ पुरानी हिन्दीमे लिखी गयी है । यद्यपि कुछ लेखक इन कृतियोंकी भाषाको गुजराती कहते है, किन्तु वह हिन्दी के अधिक निकट है । तीनोंका एक-एक पद्य निम्न प्रकारसे है, "जिण चउ वीसह पय जंबु सामिहिं तणउ चरिय नमेवि गुरु चरण नमेवि । भविउ निसुणेवि ॥" — जम्बू स्वामी चरित्र वाएसरी । रहज्जु केसरी ॥" स्थूलभद्र रास "पणमवि सासणदेवी नई थूलिभद्र गुण गहण, सुणि सुणिव "जं फल होइ गया गिरणारे, जं फलु दीन्हइ सोना मारे ! जं फलु लक्खि नवकारिहि, गुणिहिं तं फल सुभद्राचरितिहिं सुणिहिं ॥" -सुभद्रासती चतुष्पदिका शाहरयण, खरतरगच्छीय जिनपतिसूरिके शिष्य थे । उन्होंने वि० सं० १२७८ मे 'जिन पतिसूरि धवलगीत े का निर्माण किया था । यह कृति गुरु भक्तिका दृष्टान्त है । इसमें बीस पद्य है । रचना सरस है । पहला पद्य देखिए, "वीर जिणेसर नमइ सुरेसर तसपह पणमिय पय कमले । युगवर जिनपति सूरि गुण गाइ सो मन्ति भर हरसि हिम निरमले ॥" विजयसेनसूरि, नागेन्द्रगच्छीय हरिभद्रसूरिके शिष्य और मन्त्रिप्रवर वस्तुपालके धर्माचार्य थे । उन्होंने वि० सं० १२८८ के लगभग 'रेवन्तगिरि रासो की रचना की थी । इसमें ७२ पद्य हैं। इसमें गिरिनारके जैन मन्दिरोंका वर्णन है । इसकी भाषा प्राचीन गुजरातीकी अपेक्षा हिन्दी के अधिक निकट है । प्रारम्भके दो पद्य इस भाँति हैं, १. लायब्रेरी मिसेलेनी, त्रैमासिक पत्रिका, बड़ौदा महाराजकी सेण्ट्रल लायब्रेरीका प्रकाशन, अप्रैल १९१५के अंकमें, श्री सी० डी० दलालका, पाटणके सुप्रसिद्ध जैन पुस्तकालयों की खोज में प्राप्त संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और प्राचीन गुजरतीके ग्रन्थका विवरण | २. 'ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह' में प्रकाशित हो चुका है । ३. 'प्राचीन गुर्जरकाव्य संग्रह' में प्रकाशित हुआ है । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "परमेसर तित्थेसरह पय पंकज पणमेवि, मणिसु रासु रेवंत गिरे, अंबिक देवी सुमरेवी । गामागर-पुर-वण-गहण सरि-सरवरि-सुपएसु, देवभूमि दिसि पच्छिमह मणहरु सोरठ देसु ॥" विक्रम संवत्को १४वीं शताब्दी में अनेक जैन कवि हुए। उनकी भाषा हिन्दी थो। उनकी कविताओंका मूलस्वर भक्तिपूर्ण था। खरतरगच्छीय जिनपतिसूरिके शिष्य जिनेश्वरसूरिने वि० सं० १३३१ के लगभग अनेक भक्तिपूर्ण स्तुतियोंकी रचना की, जिनमें से एकका नाम है 'बाबरो' ।' उसमे तीस पद्य है । आदिका एक पद्य देखिए, "भगति करवि बहु रिसह जिण, वीरह चलण नमवि। हउंचालिउ मणि भाव धरि, दुइणि जिणमणि समरेवि ॥" इन्ही जिनेश्वर सूरिके शिष्य अभयतिलकने वि० सं० १३०७ वैसाख शुक्ला १० को 'महावीररास' लिखा था। उसमे २१ पद्य है। इसे भगवान् महावीरकी स्तुति ही कहना चाहिए। लक्ष्मीतिलकका 'शान्तिनाथदेवरास' और सोममूर्तिका 'जिनेश्वरसूरि संयमश्री विवाहवर्णनरास', भक्तिसे सम्बन्धित प्रसिद्ध काव्य हैं। अम्बदेवसूरि, नागेन्द्रगच्छके आचार्य पासडसूरिके शिष्य थे। उन्होंने वि० सं० १३७१ के लगभग संघपति 'समरा रास' का निर्माण किया था। ओसवाल शाह समरा संघपतिने वि० सं० १३७१ मे शत्रुजय तीर्थक्षेत्रका उद्धार करवाया था। इस रचनामे उसोका वर्णन है। इसकी भाषामें राजस्थानीके शब्द अधिक है। इससे अम्वदेवका जन्म राजस्थानमें कही हुआ था, ऐसा अनुमान होता है। इस रासकी भाषाका सादृश्य गुजरातीको अपेक्षा हिन्दीसे अधिक है। जब समरा शाहने पट्टनसे संघ निकालकर शत्रुजयकी ओर प्रयाण किया, उस समयका एक पद्य देखिए, १. श्री अगरचन्द नाहटाके निजी संग्रहमें मौजूद है। २. महावीररास और शान्तिनाथ देवरास, श्री अगरचन्द नाहटाके निजी संग्रहमें मौजूद हैं। ३. जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रहमें छप चुका है। ४. प्राचीन जैन गुर्जरकाव्य संग्रहमें संकलित है। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दीके आदिकालमें जैन भक्तिपरक कृतियाँ ५०५ "वाजिय संख असंख नादि काहल दुदु दुडिया, घोड़े चड़इ सल्लारसार राउत सींगड़िया । तउ देवालउ जोत्रि वेगि धाधरि खु झमकइ, सम विसम नवि गणइ कोई नवि वारिउ थक्कइ ॥" जिनप्रभसूरि ( १४वीं शताब्दी वि० सं०) खरतरगच्छीय जिनसिंहसूरिके शिष्य थे। उन्होंने 'पद्मावतीदेवो चौपई की रचना की थी। यह कृति अहमदाबादसे प्रकाशित 'भैरव पद्मावती कल्प' में छप चुकी है। यह देवी पद्मावतीकी भक्तिसे सम्बन्धित है। एक पद्य इस प्रकार है, "श्रीजिन शासणु अवधाकरि, झायहु सिरि पउमावइ देवि। मविय लोय आणंद परि, दुल्हउ सावयजम्म लहेवि ॥" चौदहवीं शताब्दीके प्रसिद्ध कवि रल्हने 'जिणदत्त चौपई को रचना वि० सं० १३५४ में की थी। इसकी एक हस्तलिखित प्रति जयपुरके पाटौदीके मन्दिरमें मौजूद है। इसमे पांच-सौ पचपन पद्य है। इसमें जिनदत्तसे सम्बन्धित भक्तिपरक भाव प्रकट किये गये है। काव्यत्वको दृष्टिसे भी कृति महत्त्वपूर्ण है। इसी शताब्दीके कवि धेल्हने 'चउवीसी गीत'की रचना वि० सं० १३७१ मे की। यह एक सरस रचना है। इसमें चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुति की गयी है। इसी शताब्दीमें आनन्दतिलकने 'महाणदिदेउ' नामकी रचनाका निर्माण किया । इसकी एक हस्तलिखित प्रति आमेर-शास्त्र भण्डार जयपुरमें मौजूद है। अब तो उसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणो पत्रिकामे हो चुका है। इसमें लगभग ४४ पद्य है । यह काव्य आध्यात्मिक भक्तिका निदर्शन है। गुरु महिमाके दो पद्य देखिए, "गुरु जिणवरु गुरु सिद्ध सिउ, गुरु रयणत्तय सारु । सो दरिसावइ अप्प परु आणंदा मवजल पावइ पारु ॥३६॥ सिक्ख सुणइ सदगुरु भणइ परमाणंद सहाउ । परम जोति तसु उल्हसई आणंदा कीजइ णिम्मलु भाउ ॥२९॥" Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ दूसरे अध्यायके कवि : अनुक्रमणिका २९५ ३५२ १५८ ३४९ ५८ mr on १७८ १४६ ११५ १९७ M ५९ ११० ३२२ ६ अचलकीर्ति अजयराज पाटणी आनन्दघन ईश्वरसूरि उदयराज जती कनककीत्ति किशन सिंह कुमुदचन्द्र कुशललाभ कुंअरपाल खुशालचन्द्र काला खेतल गुणसागर चतरुमल चरित्रसेन मुनि छोहल जगजीवन जगतराम जयकीर्ति भट्टारक जयलाल मुनि जयसागर उपाध्याय जिनदास पाण्डे जिनरंग सूरि जिनहर्ष जोधराज गोधीका ठकुरसी कवि द्यानतराय २३९ देवकला ३५७ देवाब्रह्म २०४ दौलतराम पण्डित नन्दलाल १५० निहालचन्द १७६ पद्मतिलक ३२७ परिमल्ल कवि १३० बनारसीदास ब्रह्मगुलाल ब्रह्मजिनदास ३३३ ब्रह्मरायमल्ल ३०० बिहारीदास बुलाकीदास बूचराज भगवतीदास पण्डित भगवतीदास "भैय्या' २११ भवानीदास २५१ भाऊ भूधरदास मनराम १२५ मनोहरदास पण्डित महानन्द गणि मेघराज २३३ २४७ मेरुनन्दन उपाध्याय ८३ यशोविजयजी उपाध्याय २७३ रनकोति भट्टारक १०१ २९० ९७ १६४ २६८ ३५६ ३०३ ३३५ السلم २१९ १४० २६४ १४२ ४२ १५ १०७ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे अध्यायके कवि : अनुक्रमणिका 34 144 68 121 298 174 87 राजशेखर सूरि रामचन्द्र रायचन्द्र रूपचन्द्र पाण्डे लक्ष्मीवल्लभ लालचन्द लब्धोदय लावण्यसमय वादिचन्द्र विद्यासागर विद्धणू विनयचन्द्र मुनि विनयप्रभ उपाध्याय विनयविजय विनयसमुद्र विनोदीलाल विश्वभूषण शिरोमणि दास शुभचन्द्र भट्टारक सकलकीति 32 सधारु 242 सहजकीत्ति 230 संवेगसुन्दर उपाध्याय 168 साधुकीत्ति 307 सुन्दरदास 224 सुरेन्द्रकीति मुनीन्द्र 65 सोमसुन्दर सूरि हर्षकीत्ति हरिचन्द कवि हरिकलश हीरानन्द पण्डित 27 हीरानन्द मुकीम 293 हीरानन्द सूरि 88 हेमराज पाण्डे 311 हेमविजय क्षांतिरंग गणि त्रिभुवनचन्द्र 56 ज्ञानभूषण भट्टारक 122 228 154 214 156 258 95 7s 128 73