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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
“अइसउ जाणि जिया वेहत्त्य विमिन्ना पुग्गल कम्मवि अप्पउ मिन्ना ।। सम्माधी० ॥ जोवण धणिय घणु परियणु णासय
जीव हो! धमु सरीसउ होसइ ।।सम्माधी०॥३६॥" कविने एक स्थानपर लिखा है कि नेमिनाथके समाधिमरणका स्मरण करो। ऐसा करनेसे अन्तःकरणका समूचा विष नष्ट हो जायेगा। फिर वह अन्तिम दिन शुभ होगा जब मृत्युको भी जोतकर यह जीव शिवलोक प्राप्त करेगा, ऐसी शक्तिशालिनी समाधिका जो प्रतिदिन ध्यान करता है वह अवश्य ही अजरामर पदको प्राप्त करता है,
"नेमि समाधि सुमरि जिय विसु नासइ । जिय पर मरकरि पाउ पणास ॥ सोहQ सो दिवसु समाधि मरीजइ । जम्मण मरणह पाणिउ दीजइ ॥ अइसी समाधि जो अणु-दिणु झावइ ।
सो अजरामरु सिव सुह पावइ ॥५०॥" 'समाधि'को भाषामें सरलता है और भावोंमे भक्तिका तारतम्य । स्वाभाविकताने काव्यको सौन्दर्य प्रदान किया है।
१३. लावण्यसमय (वि० सं० १५२१)
लावण्यसमयका बचपनका नाम लघुराज था। उनके पिताका नाम श्रीधर और माताका नाम झमकल देवी था। उनके तीन भाई थे : वस्तुपाल, जिनदास और मंगलदास । एक बहन थी : लीलावती। वे श्रीमाली वणिक् थे। उनके दादा पाटणनगरसे अहमदाबादमे आकर बस गये थे। उनके सबसे बड़े पुत्र श्रीधर अजदपुरमें रहते थे । वहाँ ही लघुराजका जन्म हुआ था। उनकी जन्मतिथि पौष बदी ३, सं० १५२१ मानी जाती है।
लघुराजके जन्माक्षरोंपर विचार करते हुए मुनि समयरत्नने उनके पितासे कहा, तुम्हारा पुत्र तपका स्वामी होगा, अथवा वह कोई तीर्थ करेगा। बड़ा यति, महान् विद्वान् और गुरुके वचनोंपर चलकर बहुत बड़ा वैरागी होगा,
१. विमलप्रबन्ध, पद्य ३०-३६, जैनगुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृष्ठ ७६-७७ ।