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________________ ६६ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि "सुणउ श्रेष्ट होशि तपधणी, कई ए जाशई तीरथ भणी, कई एथाई - मोट यती, वर विद्या होश दीपती ॥ ४० ॥" इस होनहार बालकको तपगच्छपति लक्ष्मीसागरमूरिने, जेठ सुदी दशमी (वि० सं० १५२९ ) के दिन, पाटणके मध्य, पालणपुरीके अपासरामे, महोत्सवपूर्वक दीक्षा दी और उसका नाम लावण्यसमय रखा। इस प्रकार लावण्य समय के दीक्षागुरु लक्ष्मीसागरसूरि और विद्यागुरु समयरत्न थे । कविने स्वयं एक स्थानपर लिखा है कि सोलहवे वर्षमें मुझपर सरस्वती माताकी कृपा हुई और मुझमे कवित्व शक्तिका जन्म हुआ। जिससे मैं छन्द, कवित्त, चौपई, रास और अनेक प्रकारके गीत तथा राग-रागिनियोंकी रचना कर सका । सिद्धान्त चौपई इन्हीका एक प्रसिद्ध काव्य है । नन्दबत्तीसीकी रचना भी इन्होंने ही की थी । लावण्यसमयकी ख्याति चतुर्दिकमे व्याप्त हो गयी थी। बड़े- बड़े मन्त्री, राजा-महाराजा, सरदार और सामन्त, उनके चरणोमे झुकते थे । वि० सं० १५५५ मे उनको पण्डित पद मिला। वे अनेक देश-विदेशोंमें विचरण कर उपदेश देते थे । एक बार विहार करते-करते सोरठ देशमे आये और गिरिनारपर ठहरे। उन्होंने अनहिलवाड़ पाटणके पास मालसमुद्र नामके गाँव मे चातुर्मास किया । उस समय उन्होंने वि० सं० १५६८ मे 'विमलरास' की रचना पूर्ण की। वि० सं० १५८९ मे उनका स्वर्गवास हो गया। ૪ 'सिद्धान्त चौपई' के आदिमें ही कविने लिखा है कि भगवान् जिनेन्द्रके पैरोंमें १. गुरुवचने वईरागी थयु, मात तात पय लागी रहिउ, जेठ सुदी दिन दसमी तणउ, ऊगणत्रीसई उच्छव धणउ । पाटणि पाहणपुरी पोसाल, जंग हुई चउपट चुसाल, दिई दीक्षा अति आनंदपूर, गच्छपति लषिमीसागरसूरि । संघ सजन सहू साषी समई, नाम ठविडं मुनि लावण्यसमई, नवमइ बरष दीषवर लीध, समयरत्न गुरु विद्या दोघ । वही, पद्म ४१-४३, पृ० ७७ । २. सरसति मात मया तव लही, बरस सोलमई वांणी हुई, रचिआ रास सुंदर संबंध, छंद कवित्त चउपइ प्रबंध | विविध गीत बहु करिआ विवाद, रचीआ दीप सरस संवाद, वही, पद्य ४४-४५, पृ० ७७ । ३. वही, पद्य ४५-४६, १०७८ ४. जनगुर्जरकविभो, प्रथम भाग, पृ० ७०, पादटिप्पणी ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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