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________________ ६४ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि "वीर जिणवर वीर जिणवर नमुं ते सार, तीर्थकर चवीस वांछित बहु दान दातार, सारदा सामिणि वली तवु बुद्धिसार हुं वेगि मागु, गणधर स्वामी नमस्करूं श्री सकल कीरति भवतार, श्री भुवनकीरति गुरुमनि धरु करिसुं रास हुं सार ॥" १२. मुनि चरित्रसेन (वि० सं० १५वीं शताब्दीका प्रथम या द्वितीय पाद ) मुनि चरित्रसेनकी ‘समाधि' नामकी रचना उपलब्ध हुई है। उससे मुनि चरित्रसेनके जीवन और जीवनकालका कोई परिचय नहीं मिलता । 'समाधि' की भाषासे ऐसा अवश्य प्रतीत होता है कि वह १५वी शताब्दीके उत्तरार्द्धकी रचना है । भाषामे सम्माइट्ठी, अप्पणाउ, पणासइ, और पाणिउ-जैसे शब्दोंका प्रयोग है । क्रियाओके उकारबहुला होनेसे अपभ्रंशका पुट अधिक मालूम होता है । उसकी वेश-भूषा प्राचीन हिन्दीकी है । यह रचना समाधि-भक्ति के अन्तर्गत आती है । उसमे "दुक्खक्खभ कम्मक्खभो समाहिमरणं च बोहिलाहो वि । मम होउ तिजग बन्धव तव जिणवर चरणसरणेण” वाली भावनाका ही प्राधान्य है । इसका अर्थ है कि समाधिमरण भी भगवान् जिनेन्द्रकी कृपासे मिल पाता है । गणधर गौतमने लिखा है कि यदि भगवानको कृपासे समाधि मिल जाये तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र समृद्ध होते है, जीव सम्यग्दृष्टि बन जाता है, " गणहर भासिय ए जिय संति समाधी ॥ दंसण णाण चरित समिद्धी, संभाधी जिणदेवहं दिट्ठी । जो करेह सो सम्माइट्ठी ॥ २१ ॥ 1 'समाधिमरण' के धारण करनेपर आत्मा और पुद्गलके एकत्वको ही भावना भानी चाहिए। दोनोंमे कोई सम्बन्ध नही है । दोनों पृथक्-पृथक् है । यौवन, स्त्री, धन और परिजन सभी अस्थायी है, कुछ समय बाद नष्ट हो जायेंगे । अतः हे जीव ! धर्ममें आनन्दका अनुभव करो, १. यह कृति, दिल्लीके मसजिद खजूरके जैन है । यह उस पोथी में निबद्ध है, जिसमें 'कल्याणक विधिरास' भी अंकित हैं। पंचायती मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें मौजूद विनयचन्दकी 'निर्भर पंचमीकथा' और
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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