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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
समुद्रविजयके द्वारपर बारात पहुँची । दुलहा थे नेमीश्वर, कृष्णके छोटे भाई । किन्तु द्वारपर बँधे असंख्य जीवों को विलाप करते देख, वे दीक्षा लेकर गिरनारपर तप करने चले गये । जीवोंको काटकर भोज्यपदार्थ बनाना था । नेमीश्वरके हृदयमें करुणा उपजी । संसारकी निःसारता स्पष्ट झलक उठी। बिना विवाह किये चले गये । किन्तु राजीमती क्या करे । इसका विश्वव्यापी विरह गरज उठा । उसकी बेचैनी दुरूह थी । यह रास उसीको लेकर चला है ।
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बारात आ रही है । दुलहिनकी उत्सुकताका क्या ठिकाना है | कही से उसने सुना है कि नेमीश्वरको शृंगार अधिक प्रिय है । राजपुत्रीको श्रृंगार-साधनोंकी कमी नहीं थी । उसने हाथोमे हीरों-जड़े कंगन पहने, गलेमे मोतियोंकी माला धारण की, वेणीको फूलो से सजाया । ललाटपर तिलक, नेत्रोमे काजल और मुखमें पान सुशोभित हो उठा। सजी राजुलका चित्र है,
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" रूप अन्चगल णेमिकुमार, सुण राजमती कियो शृंगार | कर कंकण बहु हीरा जड्यो, पहिरि हार गज मोती भन्यो ॥ कुसुम-सीस बंधे बहुताय, तिलकु लिलाट न वर्णो जाय । नया कज्जल मुखि तंबोलु, अंगि चढाइयो कुंकुम रोल ॥ पहिरि पटोरे दक्षिण चीर, जणिकुं सिंदूरह मिलियो खोरु |
चन्ह नेवर कौ झणकार, सब वर्ण तो होइ पसार ॥ "
जब राजुलने सुना कि नेमीश्वर दीक्षा लेकर तप करने चले गये हैं, तो मूच्छित होकर गिर पड़ी। उसने दूसरा विवाह न किया । उस एकके विरह मे जीवन बिता दिया, जो न कभी आया, न आनेवाला था । इस काव्यमे विरहके अतिरिक्त वीररसके छुटपुट दृश्य है । वे मूल प्रसंग में जड़से गये है । कथानक सशक्त है । अवान्तर कथाएँ मुख्य कथाकी सहायक के रूपमे प्रस्तुत हुई है । रसमे प्रवाह है । आरम्भमे सरस्वतीकी वन्दना की गयी है ।
"सरस्वती माता बुद्धिदाता, करहु पुस्तक लेई । उर पहिरि हारू करि सिंगारू हंस चढ़ी वर देई ॥ सेवंत सुर-नर नवहिं मुनिवर, छहौं दरसण तोहि । कवि जंप भाउ करि पभाउ, बुद्धि फल मोहि ॥"
यह रचना जैनमन्दिर पाटोडो जयपुरके गुटका नं० ६५ में पू० ६२९ से ६३३ पर अंकित है ।