SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 481
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष १५५ तैसो एक आत्मा अनंत रस पुद्गल, __दोहू के संयोग में विमाव की मरनि है।" भैया भगवतीदासके उदाहरणोंमे भी प्रकृतिको ही झलक है। प्रत्येक व्यक्ति अपने पुण्य-पापके अनुसार फल पाता है। इसमें प्रकृतिका कोई दोष नहीं है । ग्रीष्मकी धूपमे पृथ्वी जल उठती है, किन्तु 'आक' उमंगित होकर फूलता है। वर्षाऋतुमे अनेक वृक्ष फल जाते हैं, किन्तु जवासा जल जाता है, "ग्रीषम में धूप परै तामें भूमि भारी जरै, फूलत है आक पुनि अति ही उमहि कैं। वर्षा ऋतु मेघ झरै तामै वृक्ष केई फरै, जरत जमासा अघ प्रापुही ते डहिकै ।। ऋतु को न दोष कोऊ पुण्य पाप फलै दोऊ, जैसे जैसे किये पूर्व तैसें रहै सहिर्के । केई जीव सुखी होहिं केई जीव दुखी होहिं, देखहु तमासो 'भैया' न्यारे नेक रहिकै ॥" जैन कवियोंका रूपक अलंकार भो प्रकृतिसे ही लिया गया है। कवि आनन्दधनने ज्ञानोदय और प्रभातके 'साग रूपक'का चित्र एक पदमें उपस्थित किया है, "मेरे घट ज्ञान भाव भयो मोर । चेतन चकवा चेतन चकवी, भागौ विरह को सोर ॥ फैली चहुँदिशि चतुर भाव रुचि, मिव्यौ भरम तम जोर । आपनी चोरी आपहि जानत, औरै कहत न चोर । अमल कमल विकसित भये भूतल, मंद विशद शशि कोर । आनंदघन एक बल्लम लागत, और न लाख किरोर ॥" कवि द्यानतरायने एक पदमें 'ज्ञान-विभव' और 'बसन्त' में 'रूपक' उपस्थित किया है । यह पद प्रकृति-मूलक रहस्यवादका दृष्टान्त है। "तुम ज्ञानविभव फूली बसंत, यह मन मधुकर सुख सों रमन्त । दिन बड़े भये वैराग भाव, मिथ्यामत रजनी को घटाव । १. बनारसीदास, नाटकसमयसार, बम्बई, पृ० २४६ । २. भैया भगवतीदास, पुण्यपचीसिका, २४वॉ कवित्त, ब्रह्मविलास, १६२६ ई०, बम्बई, पृ०७। ३. महात्मा आनन्दधन, आनन्दधनपदसंग्रह, अध्यात्मज्ञानप्रसारक मण्डल, बम्बई, १५वॉ पद।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy