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हिन्दी जैन मत्ति-काव्य और कवि
बहु फूली फैली सुरुचि बेलि, ज्ञाता जन समता संग केलि ।
धानत वानी पिक मधुर रूप, सुर नर पशु आनंदधन सुरूप ॥" भूधरदासने शारदाको गंगा नदी बनाकर एक उत्तम रूपककी रचना की है, “वीर हिमाचल से निकरी, गुरु गौतम के मुख-कुंड दरी है। मोह-महाचल भेद चली, जग की जड़तातप दूर करी है ॥ ज्ञान पयोनिधि मांहि रली, बहु मंग तरंगनि सों उछरी है।
ता शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुलीकर शीश धरी है ॥" भैया भगवतीदासने आत्माको शुक कहा है। शुककी भांति ही यह आत्मा कर्मरूपी नलिनपर जा बैठी है। विषयस्वादमे मग्न होनेके कारण उसके पैर ऊपरको हो गये है। वह मोहके चंगुलमे फंस गया है। यह सब कुछ कर्मोसे छुटकारा न मिलनेके कारण ही हुआ है,
"आतम-सूवा भरममहिं भूल्यो कम-नलिन मैं बैठो आय । विषय स्वाद विरम्यो इह थानक, लटक्यो तरै ऊर्ध्व भये पाँय ॥ पकरै मोह मगन चुंगल सों, कहै कम सों नाहिं बसाय ।
देखहु कि नहिं सुविचार भविक जन, जगत जीव यह धरै स्वमाय ॥" जैन कवियोने प्रकृतिको आलम्बन रूपमे भी उपस्थित किया है, किन्तु ऐसे दृश्य अल्प ही है । ब्रह्मरायमल्लने 'हनुवंत कथा'मे सन्ध्या समयका चित्र खीचा है। श्री पवनंजैराय अपने मित्रोंसहित प्रासादके ऊपर बैठे हुए सन्ध्याकी शोभा देख रहे है । वह पद्य इस प्रकार है,
"दिन गत भयो अथयो माण, पंषी शब्द करै असमान । मित्त सहित पवनंजै राय, मंदिर ऊपर बैठो जाय ॥ देखै पंषी सरोवर तीर, करै शब्द अति गहर गहीर ।
दसै दिसा मुष कालो भयो, चकहा चकिही अंतर लयो ॥" जैनकाव्योंमे प्रकृति शान्तरसके उद्दीपनके रूपमें भी अंकित की गयी है। भूधरदासने 'पार्श्वपुराण' में काशीदेशके खेटपुर पट्टनका वर्णन किया है। उसके आस-पासके प्राकृतिक दृश्योंमे शान्त-भावको उद्दीप्त करनेको पर्याप्त सामर्थ्य थी। एक पद्य देखिए,
१. यानतराय, धानतविलास, कलकत्ता, ५८वॉ पद, पृ० २४ । २. भूधरदास, शारदास्तवन, पद्य १-२, शानपीठपूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी,
१९५७ ई०, पृ० ५२३ । ३. भैया भगवतीदास, पुण्यपचीसिका, २०वाँ कवित्त, ब्रह्मविलास, बम्बई, पृ०६ । ४. देखिए, इसी ग्रन्थका छठा अध्याय ।