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________________ ४५४ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि रूविहि मयणु अनंग करवि मेहिउ निहाडिय, धोरिम मेरु गंमीरि सिंधु चंगिम चय चाडिय ॥" भूधरदासने उत्प्रेक्षाओंके द्वारा वर्ण्य विषयको सुन्दर बनाया है। उनमे अधिकांश प्रकृतिसे ली गयी हैं। भगवान् पार्श्वनाथके शरीरपर एक सहस्र और आठ लक्षण इस भांति सुशोभित हो रहे हैं, जैसे मानो कल्पतरुराजके कुसुम ही विराजे हों। तीर्थकर पार्श्वप्रभुके समवशरणके चारों ओर वलयाकृति खाई बनी है, उसमें निर्मल जल लहरें ले रहा है, वह मानो गंगा प्रदक्षिणा दे रही है, "वलयाकृति खाई बनी, निर्मल जल लहरेय । किधौं विमल गंगा नदी, प्रभु परदछना देय ॥" भगवान् जिनेन्द्रदेव समवशरणमे स्वर्ण सिंहासनपर विराजमान है। दोनों मोरसे यक्षनायक चमर ढुला रहे है । उसपर कल्पना करते हुए कविने लिखा है, "चंद्रार्चि चय छवि चारु चंचल, चमर वृन्द सुहावने । डोले निरन्तर जच्छनायक, कहत क्यों उपमा बने । यह नीलगिरि के शिखर मानो, मेघ झर लागी धनी । सो जयो पास जिनेन्द्र पातक हरन जग चूड़ामनी ॥" ___ जैन कवियोंका 'उदाहरणालंकार' भी प्रकृति चित्रणसे युक्त है। कवि बनारसीदासके 'नाटक समयसार में अधिकांश उदाहरण प्रकृतिके क्षेत्रसे ही चुने गये है। एक इस प्रकार है, "जैसे महीमंडल में नदी को प्रवाह एक, ताही में अनेक मांति नीर की दरनि है। पाथर के जोर तहां धार की मरोर होत, कांकर की खानि तहां झाग की झरनि है ॥ पौन की झकोर तहां चंचल तरंग उठे, भूमि की निचानि तहां भौंर की परनि है। १. देखिए इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय। २. सहस अठोतर लछन ये, शोभित जिनवर देह । किधौं कल्पतरुराज के, कुसुम विराजत येह ॥ भूधरदास, पार्श्वपुराण, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, सप्तमोऽधिकारः, पृ० ५७। ३. वही, अष्टमोऽधिकारः, पृ०६८।। ' ४. भूधरदास, पार्श्वपुराण, कलकत्ता, अष्टमोऽध्याय:, अष्टप्रातिहार्यवर्णन, पृ०७१। - -
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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