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जैन मक्ति काव्यका कला-पक्ष
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"प्रवचन वचन विस्तार भरथ तरवर घणा रे ।
___ कोकिल कामिनी गीत गायइ श्री गुरु तणा रे ॥ गाजइ गाजइ गगन गंभीर श्री पूज्यनी देशना रे।
मवियण मोर चकोर थायइ शुम वासना रे॥ सदा गुरु ध्यान स्नान लहरि शीतल बहइ रे ।
कीर्ति सुजस विसाल सकल जग महमहइ रे॥" विनयप्रभ उपाध्यायने 'सीमन्धर स्वामी स्तवन मे लिखा है कि मेरुगिरिके उत्तुंग शिखर, गगनके टिमटिमाते तारागण और समुद्रकी तरंगमालिका, सोमन्धर स्वामीके गुणोंका स्तवन करते है । वह पद्य इस प्रकार है, "मेरुगिरि-सिहरि धय-बंधणं जो कुणइ,
__ गयणि तारा गणइ, वेलुआ-कण मिणइ । चरम-सायर-जले लहरि-माला मुणइ
सोवि नहु, सामि, तुह सम्वहा गुण थुणइ ॥" जब भगवान् महावीर संघसहित विपुलाचलपर पधारे, तो वहांकी प्रकृति छह ऋतुओंके फल-फूलोंसे युक्त हो गयी। वनपालने उन सब फल-फूलोंको, महाराजा श्रेणिकके सम्मुख लाकर रखा, जिससे उन्हे भगवान् महावोरके आगमनका विश्वास हो सके,
"रोमांचित बन पालक ताम | आय राय प्रति कियो प्रनाम ।
छह ऋतु के फल फूल अनूप । भागे धरे अनूपम रूप ॥" जैन कवियोंने उपमेयको पुष्ट बनानेके लिए, उपमानोंको प्रायः प्रकृतिके विस्तृत क्षेत्रसे चुना है। हेतुत्प्रेक्षाओंमें इन उपमानोंकी छटा और भी अधिक विकसित हुई है । विनयप्रभ उपाध्यायने 'गौतमरासा मे गौतमके सौन्दर्यका वर्णन करते हुए लिखा है कि गौतमके नेत्र, कर और चरणसे पराजित होकर ही कमल जलमें प्रवेश कर गये है, उनके तेजसे हारकर तारा, चन्द्र और सूर्य आकाशमें भ्रमण कर उठे हैं । उनके रूपने मदनको अनंग बनाकर निकाल दिया है। उनके धैर्य से मेरु और गम्भीरतासे सिन्धु लज्जित होकर पृथ्वीमें धंस गये हैं,
"नयण वयण करचरणि जिण वि पंकज जल पाडिय,
तेजिहि तारा चंद सूर आकासि ममाडिय । १. कुशललाम, श्री पूज्यवाहणगीतम् , पब ६३-६४, ऐतिहासिक जैनकाव्यसंग्रह,
कलकत्ता, वि० सं० १९९४, पृ० ११६ ।। २. इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याया। ३. भूधरदास, पार्खपुराण, कलकत्ता, पार्श्वनाथजीकी स्तुति, २६वॉ पच, पृ० ३ ।