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________________ ४५२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि पुरवाई की झोंक सहोगे नहीं, छिन में तप तेज छड़ावैगी॥" भूधरदासने ग्रीष्मकी भयंकरताका उल्लेख किया है। जेठका सूर्य तप रहा है, सरोवर सूख गये हैं, पत्थर तचकर लाल हो गये है, नग्न जैन साधु उनपर बैठकर तप करते हैं, "जेठ तपै रवि आकरो, सूखै सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपैं, दाझै नगन शरीर ॥ ते गुरु मेरे मन बसो॥" भूधरदासने इसी दृश्यको एक दूसरे स्थानपर अधिक सशक्त वाणीमें व्यक्त किया है । जब जेठ झकोरता है, चील अण्डा छोड़ती है, पशु-पक्षी छांह ढूढ़ते है, पर्वत दाह-पुंजसे हो जाते है, तब जैन साधु उनपर तप करते है, "जेठ की झकोरे जहां अंडा चील छोरै पशु, पंछी छांह लोरें गिरि कोर तप वे धरे ॥" मानवकी अन्तःप्रकृतिको अंकित करनेमें जैन कवियोंने बाह्यप्रकृतिसे सहायता ली है । तोरणद्वारसे लौटकर नेमीश्वर गिरिनारपर तप करने चले गये । राजीमतीकी आंखोसे आंसुओंकी धार बह निकली। वह इसी दशामें नेमीश्वरको देखने के लिए गिरिनारको ओर चल पड़ी । उस समय कवि हेमविजयसूरिने प्रकृतिका वातावरण ऐसा अंकित किया है, जिससे राजीमतीके हृदयका हाहाकार साक्षात् हो उठा है । वह पद्य देखिए, "घनघोर घटा उनयी जु नई, इतनॆ उततै चमकी बिजली । पियुरे पियुरे पपिहा बिललाति जु, मोर किंगार करंति मिली ॥ बिच बिन्दु परे हग आंसु झरें, दुनि धार अपार इसी निकली। मुनि हेम के साहब देखन •, उग्रसेन लली सु अकेलो चली ॥" बहुत प्राचीन कालसे जैन साधुके आगमनपर प्रकृति हर्ष प्रकट करती रही है। श्री कुशललाभने अपने गुरु श्री पूज्यवाहणके स्वागतमे पुलकित प्रकृतिको अंकित किया है, १. विनोदीलाल, नेमि-राजुलका बारहमासा, ४था पद्य, बारहमासा-संग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता.पृ० २४। २. भूधरदास, गुस्-स्तुति, ७वॉ पद्य, बृहज्जिनवाणी संग्रह, १९५६ ई०, पृ० १५० । ३. भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता, १३वाँ पद, पृ० ४ । ५. इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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