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________________ जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष राग सों जगत रीति झूठी सब सांच जाने, राग मिटे सूझत असार खेल सारे हैं। रागी बिन रागी के बिचार में बड़ो ही भेद, जैसे मटा पथ्य काहु काहु को बयारे हैं।" कवि बनारसीदासके 'अर्ध-कथानक में आक्षेपालंकारका स्थान-स्थानपर समावेश हुआ है । एक आक्षेपालंकार निम्न प्रकारसे है, "शंख रूप शिव देव, महाशंख वनारसी। दोऊ मिले अवेव, साहिब सेवक एक से ॥" आत्मा और परमात्माके निरूपणमें कवि बनारसीदासने विरोधाभास अलंकारका भी अच्छा परिचय दिया है । निम्नलिखित पद्यमें विरोधाभास अलंकार है, "एक में अनेक है अनेक ही में एक है सो, एक न अनेक कछु कह्यो न परत है।" प्रकृति-चित्रण जैन कवियोंका मुख्य सम्बन्ध मानवप्रकृतिसे ही रहा है, किन्तु उन्होंने बाह्य प्रकृतिका भी निरूपण किया है। जैन मुनि प्रायः नदी, सरोवरके किनारे, पर्वतोंके ऊपर या भयावह कान्तारोंमें तप करते थे। प्रकृति अपना रोष दिखाती थी, किन्तु मुनि विचलित नहीं होते थे । सावनका माह है, और नेमीश्वर गिरिनारपर तप करने चले गये हैं । इसपर राजीमती कहती है, "पिया सावन में व्रत लीजे नहीं, घनघोर घटा जुर भावेगी । चहुं ओर तें मोर जु शोर करें, बन कोकिल कुहक सुनावैगी ॥ पिय रैन अँधेरी में सूझ नहीं, कछु दामिन दमक डरावैगो । १. भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता १८वाँ पद, पृ०६। २. बनारसीदास, अर्धकथानक, नाथूराम प्रेमी सम्पादित, संशोधित संस्करण, अक्टूबर १९५७, बम्बई, २३७ वॉ सोरठा, पृ० २७ । ३. बनारसीदास, नाटकसमयसार, जैन ग्रन्थरत्नाकर, बम्बई, हा१३, पृ० २८१ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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