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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
चरणोंमे इन्द्रने उत्साहपूर्वक एक फूलमाला समर्पित की, जिसे इन्द्राणीने भिन्नभिन्न प्रकारके पुष्प, मोती और मणि-माणिक्योसे गूया था। उस मालाकी शोभा
देखिए,
"सुगन्ध पुष्प बेलि कुन्द केतकी मंगाय के। चमेलि चम्प सेवती जुही गुही जु लायकें । गुलाब कंज लाइची सबै सुगन्ध जाति के । सुमालती महाप्रमोद लै अनेक भांति के ॥५॥ सुवर्णतार पोह बीच मोति लाल लाइया। सुहीर पन्न नील पीत पद्म जोति छाइया ॥ शची रची विचित्र भांति चित्त दे बनाइ है। सु इन्द्र ने उछाह सों जिनेन्द्र को चढ़ाइ है ॥६॥"
वह माला अमूल्य हो गयी थी। उसे शचीने गूंथा, इन्द्रने बढ़ाया और भगवान्का स्पर्श पाकर वह स्वयं भी पवित्र हो गयी थी। उसे प्राप्त करनेके लिए विभिन्न देशोंसे विभिन्न जातियोके लोग आये। उनमें साधारण थे और असाधारण भी, गरीब थे और मालदार भी, कंजूस थे और दिलदार भी तथा सामन्त थे और राजा-महाराजा भी । सभी मालाको लेनेके लिए अधिकसे अधिक मूल्य देना चाहते थे, किन्तु कुछ कंजूस विस्फारित नेत्रोसे यह देख रहे थे, कि ये लोग एक छोटी-सी मालाको लेनेके लिए असीम धन क्यों लुटाये दे रहे हैं। उस अवसरपर मानवके विविध भावोंका एक छोटा-सा चित्र देखिए,
"सु अग्रवाल बोलिये जु माल मोहि दीजिये। दिनार देहुं एक लक्ष सु गिनाय लीजिये ॥ खण्डेलवाल बोलिया जु दीय लाख देउंगो। सु बांटि के तमोल मैं जिनेन्द्रमाल लेउंगो ॥१६॥ कितेक लोग भाइकें खड़े ते हाथ जोरि के। कितेक भूप देखिकें चले जु बाग मोरिकें । कितेक सूम यों कहें जु कैसे लक्षि देत हो। लुटाय माल आपनो सु फूल माल लेत हौ ॥२०॥"
इस भक्तिके अवसरपर अनेक श्राविकाएं जब अपने उद्दाम भावोंको रोकनेमें असमर्थ हो गयीं, तो नृत्य कर उठों और उनकी प्रत्येक थिरकनमें भक्तिका उद्वेलन था। मृदंग-तालोंके साथ-साथ सुकण्ठोंसे मंगल-गीत भी फूट उठे,
"कई प्रधीन श्राविका जिनेन्द्र को बधावहीं। कई सुकण्ठ राग सों खड़ी जुमाल गावहीं ।