SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३२१ कई सुनृत्य को करें नटें अनेक भावहीं। कई मृदंग ताल पै सु अंग को फिरावहीं ॥२१॥" वीतरागकी माला खरीदनेके लिए भक्तिकी आवश्यकता है। गुरु महाराजने घोषणा की कि माला उसोको मिलेगी, जो अधिकसे अधिक जिनेन्द्र भक्तिका परिचय देगा। भक्त वह है, जो जिनेन्द्र यक्ष और बिम्ब प्रतिष्ठा करवाकर संघ चलानेका श्रेय प्राप्त करेगा, "कहैं गुरु उदार धो सु यों न माल पाइये । कराइये जिनेन्द्र-यक्ष बिंबहू मराइये ॥ चलाइये जु संघजात संघही कहाइये। तबै भनेक पुण्य सों अमोल माल पाइये ॥२२॥ संबोधि सर्व गोटि सो गुरु उतार के लई । बुलाय के जिनेन्द्र माल संघराय को दई ॥ अनेक हर्ष सों करें जिनेन्द्र तिलक पाइये । सुमाल श्री जिनेन्द्र की विनोदिलाल गाइये ॥२३॥" भक्तामर स्तोत्र कथा और भक्तामर चरित 'भक्तामर स्तोत्र कथा' का निर्माण वि० सं० १७४७ सावन सुदी २ को हुआ। यह रचना पद्यमे न होकर हिन्दी-गद्यमे है। इसकी एक प्रति वि० सं० १९४७ को लिखी हुई, जयपुरके ठोलियोके जैन मन्दिरमे विराजमान है। वि० सं० १९०९ की लिखी हुई हस्तलिखित प्रतिको सूचना 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका के वि० सं० २००६ के हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोजके परिशिष्टमे अंकित है। इस विवरणके सम्पादकोका विचार है कि वह एक उत्तम कृति है। किन्तु वह गद्यमे न होकर पद्यमे है, और इसका नाम भी 'भक्तामरचरित' दिया हुआ है। एक 'भक्तामरचरित'का उल्लेख काशी नागरी प्रचारिणी सभाके बारहवें त्रैवार्षिक विवरणमे हुआ है । उसकी प्रति बाराबंकीके जैन मन्दिरसे प्राप्त हुई थी। इसपर भी निर्माणकाल वि० सं० १७४७ पड़ा हुआ है। इसमे दोहा, अडिल्ल, कुण्डलिया और सोरठा आदि छन्दोंका प्रयोग किया गया है। इसके अन्तमे कवि और उसके समयका भी संक्षिप्त परिचय दिया है। १. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाका बारहवाँ त्रैवार्षिक हिन्दी ग्रन्थोंकी खोजका विवरण, परिशिष्ट २, पृष्ठ १५७४ । २. दोहा छंद अडिल्ल बनायो । कहुं कुंडलिया सोरठा लायो॥
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy